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Thursday, February 6, 2020

मीरा-- मीरा का कृष्ण प्रेम

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लगभग चार- पाँच वर्ष की मीरा कुछ समझ पाती इससे पहले ही उसकी माँ ने शरीर त्याग दिया था। उसके सिर पर अब पिता रतन सिंह और उसके प्यारे राव दादू का हाथ था।पिता सारे दिन कामकाज में रहते और मीरा अपना अधिक समय अपने दादू के संग व्यतीत करती। एक बात जिससे उसका बाल मन अत्यन्त प्रभावित था, वह था उसका कृष्ण प्रेम ।यह कृष्ण प्रेम उसको अपनी माँ से विरासत में मिला था।मीरा की माँ भी कृष्ण की उपासक थीं ।


मीरा का जब भी मन करता, अपने भगवान मुरलीधर के सामने खड़ी हो जाती, और मूर्ति से बहुत सी बातें करती। मीरा के दादू यह देखकर महसूस करते कि यह कृष्णोपासना उसकी माँ के गुण हैं ।मीरा को जब अपनी माँ की याद आती तो वह कृष्ण से पूछती कि मेरी माँ मुझे छोड़कर कहाँ गई है।कभी -कभी रोती हुई कृष्ण की मूर्ति से कुछ बोलने का आग्रह करती।माँ की याद में छलकते हुए आँसू देखकर दादू का मन दुखी हो जाता ।
 
कुछ दन बाद दादू नन्ही मीरा को साथ लेकर मेड़ता आ गए ।मीरा अपने मुरली मनोहर और उनके सामान को लाना नहीं भूली।मीरा का माता की याद में दुखी देखकर , उसके दादू उसको साथ ही रखते ।तरह- तरह से उसका दुःख भुलाने की कोशिश करते।उसके मन को बाँटने का हर सम्भव प्रयास करते।कभी उसे जलाशय में स्फटिक से स्वच्छ जल में झिलमिलाती तारकावल्लियों को दिखाते।ज्योत्सना पूर्ण रात्रि होती तो जल में पड़ते, चन्द्रमा के प्रतिबिम्ब को दिखाते।

दादू के अगाध प्रेम में पल-बढ़कर और कृष्ण की भक्ति करती हुई  मीरा अब ग्यारह वर्ष की हो गई।मीरा के अंतर्मन से कृष्ण के प्रति शब्दावलियाँ स्वतः ही फूट पड़तीं।यह देखकर दादू प्रसन्न होते ।ऐसा लगता, कि अब तो मीरा बहुत समझदार हो गई है।एक दिन दादू से बोली कि दादू वचन दो- कि मैं कभी कृष्ण भक्ति से विमुख न होऊँ।दादू भी उसका कृष्ण अनुराग देखकर बोले कि " तुम्हें तो हम कृष्णार्पिता कर चुके हैं ।आगे मीरा बोली कि विवाह और भक्ति दोनों साथ-साथ निभाना मेरे लिए कठिन होगा।दादू ने उसकी जिद देखकर उस समय उसकी बात को मान लिया।
 अब कृष्ण भक्ति ही मीरा का ध्येय था।मीरा चतुर्भुज मंदिर की ओर हाथ जोड़कर खड़ी हो गई ।

राव दादू सोचने लगे कि भक्ति का मार्ग सरल भी है और कठिन भी।कठिन इसलिए है कि भक्ति के मार्ग में घर-संसार, स्वजन-परिजन सब एक-एक करके खोते चले जाते हैं और अंत में हृदय में केवल भगवान बच जाते हैं ।मीरा के भाग्य में क्या है, रह सोचकर उनका मन काँप जाता ।इस संसार में भक्ति नहीं है और भक्ति में संसार वास नहीं करता ।मीरा को संसार में रहकर भक्ति साधनी है।
                               दादू की उम्र भी अस्सी वर्ष की थी और मीरा की चिन्ता भी रहती थी इस कारण वह अस्वस्थ रहने लगे।एक दिन प्रातः जब मीरा को पता चला कि दादू अधिक अस्वस्थ हैं, वह दादू की शय्या के पास पहुँची ।मीरा को देखकर उनकी आँखों में हल्की चमक आई , और उनके मुख से अस्पष्ट शब्दों में निकला -- 'मीरा'।मीरा रोने लगी कि माँ भी मुझे छोड़कर चली गई और अब तुम्हारे बिना मैं कैसे रहूँगी ? दादू  के ओंठ हिले , उन्होंने कहा कि--" जिसका कोई नहीं होता उसका भगवान होता है।मुरली मनोहर तुम्हारा ध्यान रखेंगे।वही तुम्हारे सगे-सम्बन्धी होंगे।तुम उनको नहीं भूलना।वे तुम्हें कभी नहीं भूलेंगे।

दादू के साथ मीरा का संबन्ध भावनात्मक ही नहीं, आध्यात्मिक भी था। दादू को मीरा का कृष्ण के प्रति लगाव देखकर ऐसी अनुभूति होती थी कि --" मीरा भक्ति के क्षेत्र में किसी क्रान्ति को जन्म देने के लिए ही अवतरित हुई है।इसीलिए दादू ने जो मीरा को अन्तिम समय में जो कहा , वह था तो साधारण परंतु उसका प्रभाव व्यापक हुआ मीरा ने अब पूर्ण रूप से अपने मन में यह बात बिठा ली कि -
  "मेरे तो गिरिधर गोपाल, दूसरा न कोई 
जाके सिर मोरमुकुट मेरो पति सोई।"

                        मीरा ने निश्चय कर लिया कि भगवान कृष्ण के अतिरिक्त न तो वह किसी को अपना मानेगी और न ही किसी और को समर्पित होगी।  मीरा कृष्ण के गीत गाती रहती।धीरे-धीरे मीरा और उसके कृष्ण, जैसे एक ही व्यक्तित्व हो गए।ऐसा लगा कि अब मीरा अविवाहित ही रहेगी, परंतु नियति को कुछ और ही मंजूर था और एक दिन वह समय भी आया , जब मीरा को विवाह के बंधन में बँधना पड़ा ।मेवाड़ की राजरानी मीरा  " वीरों के वीर राणा संग्राम सिंह की कुलवधू बनीं ।

विवाह के बाद उसके कृष्ण प्रेम में कोई कमी नहीं आई।घर - परिवार में उसका मन नहीं लगता ।वह हर समय अपने कृष्ण के ध्यान में ही रहती ।इस बात से नाराज होकर उसके ससुराल वालों ने उसको मारने की कई बार कोशिश की।कक्ष में जहरीला साँप छोड़ा, एक बार बिष का प्याला दिया । भक्त की रक्षा की जिम्मेदारी स्वयं भगवान की होती है।मीरा के सामने जितनी बार कष्ट आए , उतनी ही बार उनसे रक्षा के साधन भी।परिवार वालों ने
मीरा को भक्ति के मार्ग से विचलित करने के अनेक प्रयास किए।पर मीरा की भक्ति में कोई कमी नहीं आई। 

 मीरा ने कठिन समय में अपने दादू को बहुत याद किया। मीरा ने अपने मन की व्यथा संत शिरोमणि गोस्वामी तुलसीदास जी को लिख भेजी ।गोस्वामी तुलसीदास स्वयं भक्ति की परिभाषा थे ।उनका जीवन भगवान श्री राम की भक्ति और उनके प्रति अनन्य प्रेम की अभिव्यक्ति में गुजरा।तुलसीदास भक्ति की राहों से परिचित थे और उस राह पर मिलने वाले कष्टों से भी।तुलसीदास दास जी ने मीरा को उत्तर भेजा--
" जाके प्रिय न राम वैदेही ।तजिए ताहि कोटि बैरी सम, जदपि परम सनेही ।

मीरा के लिए इतना उत्तर पर्याप्त था।उन्होंने घर- परिवार छोड़ दिया।मीरा का शेष जीवन कृष्ण भक्ति में ही बीता ।ऐसा माना जाता है कि उन्होंने अपना काफी समय वृजमंडल क्षेत्र में गुजारा।
वृज में उन्हें हर समय कृष्ण की निकटता की अनुभूति होती थी।
वृज का समूचा क्षेत्र, यहाँ के रज- कण , यमुना के जल-कण उन्हें बार-बार अपनी ओर खींचा करते थे।अब तो उन्हें यह भी समझ नहीं आता था कि वृज उनके मन में रमा है या उनका मन ही वृज में रम चुका है।

अक्सर ही वे अपनी भाव समाधि में कृष्ण के दर्शन करतीं।कभी कृष्ण के संग होली खेलतीं। यमुना किनारे बैठीं मीरा को यमुना के जल में अपना कृष्ण प्रेम प्रवाहित होता दीखता।वे भाव समाधि में डूब जातीं ।उनके साथ रहने वाली मीणल जानती थी कि रानी सा ( मीरा) समाधि में चली  जाती हैं, जहाँ वे अपने कान्हा के साथ होती हैं ।मीरा के इस समाधि सत्य को वह जानती थी।

जीव गोस्वामी परम विद्वान एवं महान तपस्वी थे।मीरा से मिलने के बाद उन्होंने सच्ची भक्ति का स्वाद चख लिया था।एक बार वे अपनी भाव-समाधि में कान्हा के संग होली खेल रही थीं ।तब जीव गोस्वामी जी ने पूछा --- " किन भाव अनुभूतियों में खोई हुईं थीं आप ?"  मीरा ने कहा -- बस अपने कान्हा के संग होली खेल रही थी।"  गोस्वामी जी ने कहा कि "यह तो बस आपके लिए ही संभव है।" इस पर मीरा ने कहा--" कि आपके लिए भी संभव है।देखिए वृजभूमि को , यहाँ की प्रकृति को ।उत्सव ही उत्सव है।नाद ही नाद है।सब तरह के साज बज रहे हैं ।पक्षियों में, पर्वतों में, वृक्षों में, सागरों में ।सब ओर  विभिन्न रूपों में कन्हाई होली खेल रहा है, कितने रंग औल गुलाल फेंक रहा है।वे गाने लगीं---
" होली खेलत है गिरधारी 
चंदन केसर छिड़कत मोहन , अपने हाथ बिहारी।

इस प्रकार मीरा वृज में अनेक बार भाव समाधि में  कृष्ण के साथ होतीं ।यह अनूठी अवस्था होती , उनका विरह मिलन में परिवर्तित होने लगता। बाद में वे द्वारका में भी रहीं । अन्त में उनकी आत्मा कृष्ण में समा गई।उन्होंने अपनी भक्ति के बल पर कृष्ण को पा लिया।

" हरि नाम में खुद को डुबाया, हरि गुण गाके प्रभु को पाया
      लोक लाज बिसराकर मीरा ,  हर पल तुम्हें पुकारे।"

भक्ति मार्ग की राह में मीरा ने स्वयं को सर्वोच्च शिखर पर आरूढ़ किया ; क्योंकि मीरा ने स्वयं को कृष्ण के चरणों में समर्पित कर दिया था।जिस तरह प्रभु अनंत हैं, वैसे ही उनकी भक्ति के मार्ग अनंत हैं और उन अनंत मार्गों पर चलने वाले पथिक अनंत हैं लेकिन उन पथिकों के बीच यदि कहीं 'रत्न' चमकता है तो वह मीरा की भक्ति का ही है।मीरा की भावपूर्ण शब्दों से प्रारम्भ हुई वह यात्रा भक्ति के चरमोत्कर्ष पर पहुँच कर ही सम्पन्न हुई।

मीरा की वाणी सबके हृदय को इसलिए झंकृत कर सकी थी ; क्योंकि उसमें से हृदय के भाव , जीवन के प्रखर प्राण निस्सृत हो रहे थे।मीरा के गीत आज भी भावप्रवण हैं ।
 
"भक्ति भाव में हुई मतवाली, रंग गई मोहन में अलबेली
    चहुँ ओर छवि निरखै मीरा , हर पल तुम्हें पुकारे।"

 कृष्ण भक्त आज भी बड़ी भक्ति भाव से मीरा के पदों को गाकर कृष्ण की भक्ति करते हैं ।

सादर अभिवादन व धन्यवाद ।

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