पुरातन काल में दोनों हाथों की उँगलियों की सहायता से गणना पद्धति की शुरुआत हुई ।गणितज्ञ कहते हैं कि गिनती के लिए मानव शरीर का सबसे सुविधाजनक अवयव हैं-- उँगलियाँ, इसलिए गणना पद्धति का आधार दस है।इसका अर्थ है कि हमारी गणना पद्धति दशाधारी यानी दशगुणोत्तर है।कुछ लोगों ने गणना के लिए दो हाथों की उँगलियों के साथ दो पैरों की उँगलियों का भी उपयोग किया ।कुछ आदिवासी समूहों में बीस के लिए जिस शब्द का प्रयोग होता था उसका अर्थ है- सब उँगलियाँ समाप्त ।
मध्य अमेरिका की पुरानी मय सभ्यता की अंक पद्यति बीस पर आधारित थी ।हमारे देश में भी जो बिना पढ़े-लिखे लोग , जिन्हें पैसों का हिसाब रखना होता था ---- बीसा या कौड़ी ( 20 ) की इकाई से गिनती करते थे।
<<<<<<<< बेबीलोनी गणना पद्धति >>>>>>>>
बेबीलोनी गणना पद्धति दाशमिक (10) और षाष्ठिक (60) के आधारों का मिश्रण थी।इस पद्धति में एक से नौ तक के लिए कलीनुमा खड़ी लकीरों का प्रयोग और दस के लिए एक स्वतंत्र संकेत था। 20, 30, 40, 50, 60 की संख्याएँ 10 के संकेत को दोहराकर लिखी जाती थीं ।बेबीलोनी की षाष्ठिक पद्धति के अवशेष आज भी हमारे बीच मौजूद हैं ।आज भी हम वृत्त की परिधि 60 × 6 अंशों में, एक अंश को 60 मिनटों में और, एक मिनट को 60 सेकेंडों में बाँटते हैं ।
<<<<<<<< प्राचीन मिश्र की गणना पद्धति >>>>>>>>
प्राचीन मिश्र की गणना पद्धति भी दशगुणोत्तर थी और उसमें बुनियादी अंक-संकेत केवल साठ( 60) थे।इसमें भी एक से नौ तक खड़ी लकीरें और दस के लिए अलग संकेत था।ग्यारह ( 11 )से उन्नीस (19) तक की गिनतियाँ खड़ी लकीरों और दस के संकेत के मेल-जोल से लिखीं जाती थीं ।आगे सौ (100) के लिए फिर एक स्वतंत्र संकेत, एक हजार (1000) के लिए कमल दंड का चिन्ह,दस हजार( 10000) के लिए एक उँगली का चिन्ह,एक लाख (100000) के लिए अबाबील पक्षी का चित्र प्रयोग किया जाता था । इसके आगे दस लाख (1000000) के लिए दोनों हाथ ऊपर उठाए एक बैठे हुए आदमी का चित्र होता था मानो कह रहा हो कि यही सबसे बड़ी संख्या है।
आज हम 43,350 लिखने के लिए सिर्फ पाँच संकेतों का प्रयोग करते हैं वहीं प्राचीन मिश्र के गणितज्ञों इसके लिए 25 संकेतों का इस्तेमाल करना पड़ता था।
<<<<<< यूनानी, रोमन और ग्रीक गणना पद्धति >>>>>>
यूनानी अंक-संकेतों के लिए संख्या शब्दों के आद्याक्षरों का उपयोग करते थे।जैसे पाँच( 5) के लिए यूनानी में पेंते शब्द था ।इसलिए वे 5 को यूनानी के 'प' (पाई) से लिखते थे।बाद में यूनानियों ने अपनी लिपि के अक्षरों को अंक-संकेतों के लिए अपनाया, जिसका आगे सदियों तक यूरोप में प्रचलन रहा।
रोमन और ग्रीक पद्धति में सबसे बड़ी संख्या हजार रह जाती है।
इसमें नव चिन्ह | , || , ||| , V , X , L, C, D और M ही क्रमशः 1,2 ,3 ,5 , 10 , 50 , 100 ,500 , 1000 के लिए आते हैं ।
इस आधार पर दूसरी प्राचीन सभ्यताओं की भारत से अंक प्रणाली के मामले में तुलना करना उचित नहीं है; क्योंकि दाशमिक अंक प्रणाली का आविष्कारकर्ता और निर्यातक भारत ही है।
<<<<<< वैदिक काल में प्रचलित गणना >>>>>>
ऋग्वेद में दस हजार (10000) के लिए और एक लाख ( 100000) के लिए नियुत का भी उल्लेख मिलता है।नियुत का ऋग्वेद में जोड़ने (क्रिया), योग (संज्ञा) और सबसे बड़ी संख्या ( लाख), इन तीन रूपों में प्रयोग देखने में आता है।इसमें विराट संख्या को दूसरे तरीकों से भी व्यक्त किया गया है।जैसे सैकड़ों, दस हजार अयुतानि, शतानि ( ऋग्वेद 8, 34,15) हजारों सौ - सहस्राणि शत ( ऋग्वेद 4,29,4, 4,30,15, 7,32,5 8,5,15)।
जो विद्वान यह कहते हैं कि वैदिक गणना पद्धति दशमान तक ही सीमित थी , उन्हें इस तथ्य पर विचार करना चाहिए कि हड़प्पा काल में द्विगुणमान चलता था।इसी के साथ यह भी प्रमाणित हो चुका है कि मोहनजोदड़ो में मिला शंख का पैमाना दाशमिक क्रम में है --- दशमान में नहीं । दाशमिक क्रम में शून्य का चिन्ह मिलता है।इस पर चिन्ह 0,02 इंच अर्थात एक मिलीमीटर से भी अल्प दूरी पर खिंचे हैं और इसके निशानों में असाधारण परिशुद्धता है।दूसरी ओर ऋग्वेद में कला, शक, पाद, गवार्ध, पाव, अधसेर, और सेर वाला अर्थात द्विगुणमान का विकरण मिलता है।
यजुर्वेद के एक मंत्र में ( 18, 35 ) में चार का पहाड़ा दिया हुआ है, जिसमें चतरश्र, अष्ट, द्वादश, षोडश, विंशति, चतुर्विंशति, अष्टाविंशति, द्वात्रिंशत षट्त्रिंशत, चत्वारिंश, चतुष्चत्वारिंशत, अष्टचत्वारिंशत का उल्लेख है ।एक अन्य मंत्र( 18, 24,) में विषम संख्याओं का उल्लेख किया गया है।अब इसी क्रम में हमें उस गणना को भी देखना होगा , जिसे शुद्ध दाशमिक क्रम में रखा गया है और जिसमें केवल दशमान संख्याएँ हैं ।एक, दश, शत, सहस्त्र, अयुत, प्रयुत, न्यर्बुद, अर्बुद, समुद्र, मध्य, अंत और परार्ध की गणना अव्यवहित रूप में आई है , न कि अलग-अलग संदर्भों में जुटाकर।
ऋग्वेद 2,18, 5 एवं 6 में बीस, तीस, चालीस, पचास, साठ, सत्तर, अस्सी और नब्बे का एकत्र उल्लेख भी आया है।ऋग्वेद में जो अष्टकर्णा का प्रयोग हुआ है, उसमें अष्ट अर्थात आठ के अंक में छापे से पशु को दागने की ही बात कही गई है ।इससे स्पष्ट है कि ऋग्वेद काल में किसी न किसी रूप में लिखने का प्रचलन अवश्य रहा होगा।
वैदिक ऋषि ज्योतिष शास्त्र के प्रवर्तक व प्रणेता थे ।चंद्रवर्ष व सौरवर्ष के अंतर को दूर करने के लिए उन्होंने पाँचवें वर्ष समायोजन का विधान रखा था।इसका उल्लेख ऋग्वेद 1,25, 8 में हुआ है। इसलिए उन्होंने अपनी अंक प्रणाली का किसी और सभ्यता से अधिक उन्नत विकास किया था।
<<<<<< शून्य का आविष्कार कब हुआ >>>>>>
शून्य का आविष्कार कब हुआ ? अन्य देशों की प्राचीन गणना पद्धतियों पर एक नजर डालने के बाद भी यह प्रश्न यथावत् बना रहता है।इसके उत्तर में अनेक प्रश्न खड़े किए जाते हैं ।कुछ विद्वान कहते हैं कि शून्य का आविष्कार ईसा की आरंभिक शताब्दियों में कभी हुआ लगता है।
भारत में शून्य के लम्बे समय तक पुराभिलेखों में प्रयोग न होने का एक कारण यह भी रहा हो सकता है कि ऊँचे अंकों का प्रयोग ज्योतिर्विज्ञान आदि में किया जाता है और यह विद्या कुछ ही विशेष विद्वानों तक ही सीमित थी और वे इसे गुप्त निधि की तरह छिपाकर रखते थे।
शून्य शब्द का सीधा उल्लेख ऋग्वेद में नहीं मिलता ।इसका कारण यह है कि ऋग्वेद में संख्याओं का उल्लेख कामनाओं के संदर्भ में आया है ।जैसे कि--- हमें इतना धन या सोने का टिक्कल ( हिरण्यपिंड)या गाय, घोड़े, गधे, ऊँट या धन मिला या मिल जाए।इसके लिए यदि कोई शून्य की माँग करता तो यह अनोखी बात होती ।
उपनिषदों में शून्य को तत्व एवं परमात्मा का पर्याय कहे जाने के भी प्रमाण मिलते हैं ।जैसे कि 'शून्यं तत्वं' अर्थात शून्य तत्व है।इसके अलावा 'शून्यं तु सच्चिदानन्दं निःशब्द ब्रहाशब्दितम्' यह शून्य ही सच्चिदानन्द, निःशब्द ब्रह्म के रूप में कहा गया है ।ब्रह्म पूर्ण है तो ब्रह्माण्ड भी पूर्ण होगा।शून्य के तर्क से ब्रह्म से कितने भी ब्रह्माण्ड निकलते रहे हैं-- उसकी पूर्णता बनी रहेगी।
दश की संख्या पूर्ण है ।वृत्त पूर्ण है ।रेखा, त्रिभुज या चतुर्भुज की किसी भुजा को आगे बढ़ाया जा सकता है, पर वृत्त में रेखा जहाँ से आरम्भ होती है , वहीं आ मिलती है और अनंतकाल तक उसी पर घूम सकती है।, यहीं से शून्य की अवधारणा शुरु हुई, वृत्त के चक्र की तरह ।यह शून्य जिस भी संख्या से जुड़ेगा, उसको पूर्ण या दशगुणित चक्र बनाता जाएगा।जैसे- 10 ,100, 1000 आदि-आदि।
वेदों में बताए गए शून्य के दार्शनिक सत्य को जहाँ बाद में भगवान बुद्ध एवं नागार्जुन ने प्रतिपादित किया, वहीं इसके गणितीय सत्य को आर्यभट्ट ने कहा।आर्यभट्ट ने " आर्यभटीय "
ग्रन्थ में एक से वृंद (अरब) तक की संख्याएँ व संज्ञाएँ बताकर लिखा है कि इनमें से प्रत्येक अगली संख्या, पिछली संख्या से दसगुना है---- 'स्थानात् स्थानं दशगुणं स्यात्' ।आर्यभट्ट का यह प्रतिपादन वेदों में प्रतिपादित शून्य का ही नवीन प्रकटन है।
शून्य का प्रतिपादन चाहे दार्शनिक रूप में किया गया हो अथवा गणितीय रूप में, उसका मूल उद्गम वेद ही हैं ।वैदिक ज्ञान ही बाद में भिन्न-भिन्न रूपों में प्रकट हुआ है।वैदिक भारत की यदि कोई खोज सार्वभौमिक बनी है , तो वह है शून्ययुक्त दाशमिक स्थान मान अंकपद्यति, दुनिया की सबसे बड़ी बौद्धिक देन।वैदिक ऋषियों ने अपनी अनुभूति के आधार पर कहा -- गणितीय शून्य ही आध्यात्मिक महाशून्य के रूप में अनुभव होता है।इसलिए ज्ञान की यात्रा शून्य से महाशून्य तक है।
अतः इसके आधार पर हम कह सकते हैं कि शून्य का आविष्कार भी वैदिक काल से ही हुआ है और यह हमारे वैदिक ऋषियों की ही खोज है।
सादर अभिवादन व धन्यवाद ।
No comments:
Post a Comment