|||||श्री गणेशाय नमः|||||
आदिपूज्यमं गणाध्यक्षमुमापुत्रं विनायकम्।
विघ्नविनाशक, आदिदेव, प्रथमपूज्य, मंगलकारक , गणनायक, गौरीपुत्र भगवान श्री का जन्मदिन भाद्र शुक्ल पक्ष की चतुर्थी के दिन मनाया जाता है और इस दिन से अनंत चतुर्दशी के दिन तक गणपति भगवान का पूजन-वंदन बड़े उत्साह के साथ मनाया जाता है।
गणेशोत्सव का इतिहास बड़ा प्राचीन है।गणेश जी को विघ्नहर्ता माना जाता है ।इसका पौराणिक व आध्यात्मिक महत्व है ।इस उत्सव को मनाने की परम्परा छत्रपति शिवाजी महाराज जी ने पूणे में की थी।उन्होंने गणेशोत्सव का प्रचलन बड़ी उमंग एवं उत्साह के साथ किया था। इस उत्सव के माध्यम से उन्होंने जनजाग्रति का संचार किया।
इसके पश्चात पेशवाओं ने भी इस परम्परा को आगे बढ़ाया ।गणेश जी पेशवाओं के कुलदेवता थे ।इसलिए वे भी अत्यन्त उत्साह के साथ गणेश पूजन किया करते थे।पेशवाओं के पतन के बाद यह उत्सव कमजोर पड़ गया और केवल मंदिरों व राजपरिवारों तक ही सिमट कर रह गया।इसके बाद 1892 में भाउसाहब लक्ष्मण जबाले ने सार्वजनिक गणेशोत्सव की शुरुआत की।
स्वतंत्रता संग्राम सेनानी एवं समाज सुधारक लोकमान्य बालगंगाधर तिलक 'गणेशोत्सव' की परम्परा से अति प्रभावित हुए और 1893 में स्वतंत्रता का दीप प्रज्ज्वलित करने वाली पत्रिका " केसरी " में इस उत्सव को महत्वपूर्ण स्थान दिया। उन्होंने अपनी पत्रिका 'केसरी' के कार्यालय में गणेश की स्थापना की और सभी से आग्रह किया कि सभी भगवान गणेश की पूजा - आराधना करें, ताकि उनके जीवन में एवं समाज और राष्ट्र में आए विघ्नों का नाश हो।लोगों ने बड़े उत्साह के बाद इसे स्वीकार किया।इसके बाद गणेशोत्सव जन आंदोलन का माध्यम बना।
लोकमान्य तिलक ने इस उत्सव को जनजन से जोड़कर स्वतंत्रता प्राप्ति हेतु जनचेतना जाग्रति का माध्यम बनाया और उसमें वे सफल भी हुए।आज भी संपूर्ण महाराष्ट्र इस उत्सव का केन्द्र बिन्दु है, एवं अन्य सभी राज्यों में भी बड़ी धार्मिकता के साथ गणेशोत्सव मनाया जाता है।
भाद्रपद चतुर्थी को गणपति स्थापना से शुरू होकर चतुर्दशी को होने वाले विसर्जन तक गणपति विविध रूपों में पूरे देश में विराजमान रहते हैं ।यह उत्सव जन-जन को एक सूत्र में पिरोता है।अपनी संस्कृति एवं धर्म का अनुपम सौन्दर्य भी है।जो सबको साथ लेकर चलता है।
इस उत्सव के कुछ दिन पहले श्रावण मास की पूर्णता, जब धरती पर हरियाली की छटा बिखेर रही होती है तब मूर्तिकारों के आँगन में विभिन्न प्रकार की गणेश प्रतिमाएँ आकार लेने लगती हैं ।प्रकृति के मंगलघोष के बाद मंगलमूर्ति की स्थापना का होना स्वाभाविक है। बाल गणेश से लेकर अन्य गणेश प्रतिमाओं में नृत्य करते, विविध वाद्य बजाते , दुष्टों का संहार करते , शिवत्व के संगी और मोदक का भोग पाते गणपति जितने रूपों में व्यक्त होते हैं, उतना ही व्यक्त जनमानस भी होता है।
प्रत्येक माह कृष्ण पक्ष की चतुर्थी का व्रत किया जाता है ।भाद्रपद में दोनों चतुर्थी का व्रत किया जाता है अर्थात शुक्लपक्ष में केवल भाद्रपद माह की चतुर्थी की ही पूजा होती है।भाद्रपद शुक्ल पक्ष की चतुर्थी अति विशिष्ट है इस तिथि को व्रत-उपवास करके अनेक लाभ प्राप्त किए जा सकते हैं ।इस तिथि में रात्रि में चन्द्र दर्शन निषेध माना जाता है ; जबकि शेष चतुर्थियों में चन्द्र दर्शन पुण्यफलदायी माना जाता है ।
महाराष्ट्र में तो गणेशोत्सव के अवसर पर घर-घर में, मन्दिरों में व शहर के अनेक स्थानों पर सजाए गए पंडालों में गणेश चतुर्थी के दिन विशेष पूजा-अर्चना के साथ गणेश जी की मूर्ति स्थापित की जाती है।दस दिन तक दोनों समय श्रद्धालु बड़ी श्रद्धा के साथ आरती वन्दन करते हैं व प्रसाद रूप में मोदक वितरित करते हैं । चतुर्दशी के दिन मंगलगान करते हुए शुद्ध जलाशयों में मूर्ति का विसर्जन करते हैं ।
भगवान गणपति की आराधना विफल नहीं जाती , संकटों का हरण करने वाले गणपति की कृपा से देश में सुख- शान्ति बनी रहती है।भगवान श्री गणेश सर्वस्वरूप, पूर्ण ब्रह्म, साक्षात परमात्मा हैं ।गणेश जी का एक नाम विनायक भी है ।इसीलिए गणेश चतुर्थी को विनायक चतुर्थी भी कहते हैं ।श्री गणेश आदिशक्ति, प्रकृति स्वरूपा माँ गौरी की संतान हैं ।इसी कारण इन्हें प्रकृति से अत्यन्त प्रेम है।इनकी प्रिय वस्तुओं में दूर्वा, शमीपत्र , लालफूल, सिंदूर व प्रिय भोग मोदक ( लड्डू) हैं ।
आज तकनीकी युग होने से घर पर ही टीवी के माध्यम से पूरे देश में विराजमान गणपति के दर्शन करने का सौभाग्य प्राप्त होता है।दर्शन पाकर मन में प्रसन्नता होती है।इंटरनेट पर भी सभी एक दूसरे को गणेशोत्सव की शुभकामनाओं का आदान-प्रदान करते हैं ।
<<<<<<<<< गणेश शब्द का अर्थ >>>>>>>>>
गणेश शब्द का अर्थ है-- गणानां जीवजातानां यः ईशः सः गणेशः।अर्थात जो समस्त जीव-जाति के ईश अर्थात स्वामी ।ब्रह्म वैवर्त पुराण में भगवान विष्णु 'गणेश' शब्द की दार्शनिक व्याख्या करते हुए कहते हैं-- ज्ञानार्थवाचको गश्च णश्च निर्वाणवाचकः ।तयोरीशं परं ब्रह्म गणेशं प्रणमाम्यहम्। अर्थात 'ग ' ज्ञानार्थवाचक और ' ण' निर्वाण वाचक हैं ।इन दोनों ( ग+ण) के जो ईश हैं, उन परम ब्रह्म ' गणेश ' को मैं प्रणाम करता हूँ ।
संस्कृत में 'गण' शब्द समूहवाचक माना गया है-- गणशब्दः समूहस्य वाचकः परिकीर्तितः।अर्थात गणपति शब्द का अर्थ हुआ-- समूहों का पालन करने वाला परमात्मा ।एक अन्य अव्यय के अनुसार- गणानां पतिः गणपतिः।अर्थात-देवताओं के अधिपति को गणपति कहते हैं ।इसके अतिरिक्त यह भी कहा गया है-- निर्गुण-सगुण ब्रह्म गणानां पति गणपतिः।अर्थात जो निर्गुण और सगुण , दोनों रूप में व्यक्त ब्रह्म का अधिपति है , वह परमेश्वर ' गणपति 'है।
<<<<<< प्रथम पूज्य गणपति >>>>>>>
भगवान गणेश आदिदेव हैं, प्रथम पूज्य हैं, गणाधीश हैं, गणपति हैं ।ऐसी मान्यता है कि सारे संसार के नियंता परब्रह्म परमात्मा ही गणपति हैं ।यह गणपति निर्गुण-निराकार स्वरूप में प्रणव (ॐ) तथा सगुण-साकार रूप में गजमुख (गजानन) हैं ।
पौराणिक मान्यता के अनुसार-- गणेश जी ऋद्धि-सिद्ध के पति हैं और शुभ-लाभ इनके पुत्र हैं ।श्री गणेश को 'विघ्नेश्वर'कहा जाता है ।इसलिए हर मांगलिक कार्य को निर्विघ्न संपन्न करने के उद्देश्य से गणेश जी का पूजन किया जाता है ।श्री गणेश जी की पूजा से समस्त देवताओं का पूजन स्वतः हो जाता है ; क्योंकि वे गणपति कहलाते हैं ।
श्रीरामचरितमानस के बालकान्ड के 100 वें दोहे में तुलसीदास जी कहते हैं कि--
मुनि अनुसासन गनपतिहि पूजेउ संभु भवानि।
कोउ सुनि संसय करै जनि सुर अनादि जियँ जानि।।
अर्थात भगवान शिव व माता पार्वती ने विवाह के समय ऋषि-मुनियों की आज्ञा से गणेश जी का पूजन किया, यह इनका आदिदेव होने का प्रमाण है।इसीलिए मांगलिक कार्यों में, विवाहों में सर्वप्रथम गणेश का स्मरण करते हुए पूजन-वंदन किया जाता है और उनसे प्रार्थना की जाती है कि वे अशुभता का शमन करें और जीवन में शुभता का आगमन हो।शुभता के प्रतीक भगवान गणेश प्रथम पूज्य हैं ।किसी भी देवी-देवता का आवाहन व पूजन करने से पूर्व भगवान गणेश का पूजन किया जाता है, इसलिए इन्हें प्रथम पूज्य माना गया है।
शिव पुराण के अनुसार--- पार्वती-पुत्र गणेश जी की उत्पत्ति उनकी देह में लगे उबटन से हुई थी जब कि ब्रह्मवैवर्त पुराण के अनुसार-- माता पार्वती को गणेश जी पुत्र के रूप में पुण्यक व्रत के फलस्वरूप प्राप्त हुए थे।कारण जो भी रहा हो , हमारे पौराणिक ग्रन्थ एवं ऋषिमुनि भी गणेश जी को प्रणवस्वरूप (ॐ) बताते हैं ।
मान्यता के अनुसार सतयुग में भगवान गणेश ने 'विनायक' नाम से अवतार लिया ।त्रेतायुग में षड्भुजी ( छः भुजाओं वाले) गणेश मयूर को अपना वाहन बनाने के कारण 'मयूरेश' कहलाए।द्वापर युग में 'गजानन' गणेश चतुर्भुज थे तथा मूषक उनका वाहन बना।मूषकध्वज गजानन ने सिंदूरासुर का संहार किया और राजा वरेण्य को " गणेश-गीता" का उपदेश दिया।
<<<<< श्री गणेश स्वरुप के प्रतीतात्मक चिन्हों का वर्णन >>>>>
भगवान गणेश जी का स्वरूप परम रहस्यमय है ,उनके इस रहस्य को कोई भेद नहीं सकता।भगवान गणपति का मुख गज यानी हाथी का है और संपूर्ण शरीर मनुष्य के समान है ।पौराणिक कथा के अनुसार भगवान शिव द्वारा उनके मस्तक पर हाथी का सिर लगाने के कारण उन्हें गजानन कहा जाता है।गणेश जी का गजमुख होना व एकदन्त होना उनकी निश्चयात्मिका बुद्धि और अद्वैत का परिचायक है।
गणेश जी का एक नाम लम्बोदर भी है; क्योंकि समस्त सृष्टि उनके उदर में विचरती है।गणपति समान रूप से देवलोक, भूलोक और दानवलोक में प्रतिष्ठित हैं ।गणेश जी ब्रह्मस्वरूप हैं और उनके उदर में ये सभी लोक समाहित हैं ।इसी कारण उन्हें लम्बोदर कहते हैं ।उनके बड़े-बड़े कान अधिक ग्राह्य शक्ति और छोटी आँखें सूक्ष्म, परंतु तीक्ष्ण दृष्टि को दर्शाती हैं ।उनकी लम्बी नाक ( सूँड)महाबुद्धि
का प्रतीक चिन्ह है।
भगवान गणपति एकदंत और चतुर्बाहु हैं ।वे अपने चारों हाथों में क्रमशः पाश, अंकुश, मोदकपात्र और वरदमुद्रा धारण करते हैं ।पाश- मोह रूपी तमोगुण का , अंकुश- रजोगुण का और वरदमुद्रा-
सतोगुण का प्रतीक है और मोदक इन तीनों गुणों से अलग होने के कारण गणपति को अधिक प्रिय है।
गणपति का वाहन मूषक उस मंत्र की भाँति है , जो धीरे-धीरे अज्ञान की एक-एक परत को काटकर भेद देता है और उस परम ज्ञान की ओर ले जाता है जिसका प्रतिनिधित्व गणेश जी करते हैं ।
मोदक देखने में गोल आकार का होता है और यह गोलाई महाशून्य का प्रतीक है। गणपति भगवान स्वयं "ॐकार" का साक्षात प्रतीक- स्वरूप हैं ।उनके शरीर की आकृति भी उनके प्रणवस्वरूप का आभास देती है।इस कारण शुक्लयजुर्वेद कहता है -- ' प्रियाणां त्वा प्रियपति ' अर्थात गणपति प्रिय में प्रियपति हैं और निधियों में निधिपति हैं ।गणपति के रूप में एक व्यष्टि से लेकर समष्टि तक परिव्याप्त हैं ।
गणेश जी को लाल पुष्प एवं सिंदूर अति प्रिय है; क्योंकि यह उनकी माता पार्वती का श्रंगार है।दूर्वा इस तथ्य का द्योतक है कि प्रकृति की हरीतिमा का संवर्द्धन किया जाए।शमी वृक्ष को वहिवृक्ष भी कहते हैं ।वहि का पत्र गणेश जी को अत्यन्त प्रिय कहा गया है।
सामान्यतः गणेश जी का व्रत बुधवार को किया जाता है।गणेश जी के कई मन्त्र हैं ।गणेश मन्त्रों का जप हल्दी की माला से किया जाता है।गणेश जी हमारी बुद्धि को परिष्कृत एवं परिमार्जित करते हैं और हमारे विघ्नों का समूल नाश करके सदा मंगल करते हैं ।गणेश अथर्वशीर्ष में कहा गया है -- "त्वमेव सर्वं खल्विदं ब्रह्मासि।त्वं साक्षादात्मासि नित्यम्।" ये ही ब्रह्म स्वरूप नित्य हैं ।
गणेश जी की पूजा आराधना एवं हर्षोल्लास के साथ मनाया जाने वाला ग्यारह दिवसीय "गणेशोत्सव" हमें प्रेरणा देता है कि हम भगवान गणेश के प्रतीक चिन्हों से प्रेरणा लें और अपने जीवन को शुभमार्ग की ओर ले चलें ।
" पार्वती सुत तुम्हें प्रणाम, हे शिवनन्दन तुम्हें प्रणाम "
सादर अभिवादन व धन्यवाद ।
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