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Sunday, February 2, 2020

श्री कृष्ण जन्माष्टमी- सोलह कलाओं से पूर्ण कृष्णावतार , शरद पूर्णिमा पर महारास लीला

         <<<<< सोलह कलाओं से पूर्ण कृष्णावतार >>>>>
ज्योतिष शास्त्र के अनुसार भगवान श्री कृष्ण का जन्म भाद्रपद माह के कृष्ण पक्ष की अष्टमी तिथि को महानिषीथकाल के वृष लग्न में हुआ था।उस समय चन्द्रमा रोहिणी नक्षत्र में था।रात्रि के ठीक बारह बजे क्षितिज पर चन्द्रमा वृष लग्न में विराजित थे।बुध पंचम भाव कन्या में विराजित थे ।उस घड़ी में छठे भाव तुला में शुक्र व शनि विराजित थे।भाग्य भाव मकर में मंगल विराजमान थे व लाभ स्थान मीन में वृहस्पति विराजित थे।मूलतः श्री कृष्ण चन्द्रमा प्रधान अवतार थे , इसी कारण उन्हें कृष्ण चंद्र के नाम से जाना जाता है तथा उनकी वंशावली के अनुसार भी उन्हें चन्द्रवंशी ही कहा जाता है ।

" मथुरा में कन्हैया आया, गोकुल में उत्सव छाया "

  भगवान श्री कृष्ण का अवतार सोलह कलाओं से परिपूर्ण था।ब्रह्म उपनिषदों के अनुसार सोलह कलाओं से युक्त व्यक्ति ईश्वर तुल्य हो जाता है ।चन्द्रमा की सोलह कलाओं  अर्थात सोलह तिथियों के नाम हैं----- अमृता, मानदा, पूषा , पुष्टि, तुष्टि, रति, धृति, शशिनी ,चन्द्रिका , कांति, ज्योत्सना, श्री, प्रीतिरंगा, पूर्णा, पूर्णामृता और स्वरजा। इन्हीं तिथियों को प्रतिपदा, दूज, , एकादशी, पूर्णिमा आदि कहा जाता है।बोध की अवस्था के आधार पर प्रतिपदा से पूर्णिमा तक चन्द्रमा के प्रकाश की पन्द्रह अवस्थाएँ ली गई हैं ।यहाँ अमावस्या अज्ञान का और पूर्णिमा ज्ञान का प्रतीक माना गया है।

जिस प्रकार चन्द्रमा के प्रकाश की सोलह अवस्थाओं से सोलह श्रंगारों का चलन शुरू हुआ उसी प्रकार मानवीय मन की भी सोलह मनोदशाएँ कही गई हैं ।श्री कृष्ण की तरह प्रत्येक मनुष्य में ये सोलह कलाएँ होती हैं, भले ही ये सुषुप्त हों।इन कलाओं का सम्बन्ध यथार्थ ज्ञान की सोलह अवस्थाओं से है।शास्त्रानुसार इन सोलह अवस्थाओं के नाम हैं---- अन्नमया , प्राणमया , मनोमया , विज्ञानमया , आनंदमया , अतिशयनी , विपरिनाभिमी , संक्रमिनी,
प्रभवि, कुथिनी , विकासिनी , मर्यादिनी , सन्हालादनी,आह्लादिनी,
परिपूर्ण एवं स्वरूपवस्थित ।

   जन्माष्टमी धरती में महाभाव रूपी प्रेम का संचार करती है।प्रेम से सराबोर ।हृदय भगवान कृष्ण का पावन मन्दिर है।हृदय मंदिर को पवित्र पावन करके ही श्री कृष्ण जन्माष्टमी को सार्थक रूप प्रदान किया जा सकता है।श्री कृष्ण जीवन का यही संदेश है कि हमारे जीवन की प्रत्येक संभावना एक कला के रूप में निखरकर आए।विष्णु के दस अवतारों में से सिर्फ कृष्ण ही सोलह कलाओं से परिपूर्ण हैं ।

<<<<< शरद पूर्णिमा पर महा रास >>>>>

   शरद पूर्णिमा ( आश्विन पूर्णिमा) की रात चन्द्रमा अपनी पूरी कलाओं में खिलता है।आश्विन पूर्णिमा को चन्द्रमा की कलाएँ समग्र होती हैं ।भक्ति और प्रेम के गीत गाने वाले कवियों ने समवेत स्वर में गाया है कि इस रात चन्द्रमा अपनी सभी कलाओं के साथ प्रकट होता है।इस रात चन्द्रमा अपनी शांत , स्निग्ध छवि से  सारे जगत को सराबोर कर देता है।वर्ष भर की सबसे समृद्ध रात है -
शरद पूर्णिमा की रात ।

  चन्द्रमा को मन का कारक एवं भाव- संवेदनाओं का अधिपति ग्रह माना गया है।इसलिए यह दिन भक्त और भगवान के मध्य संबंध के लिए भी सबसे ज्यादा उपयुक्त है।वल्लभाचार्य तथा हितहरिवंश आदि महात्माओं ने जब रास लीला का प्रचलन किया था , तो इसमें राधा- कृष्ण के दिव्य क्रीड़ाकल्लोल का ही सात्विक प्रदर्शन था।इसमें अध्यात्म और आनंद की ही प्रधानता रहती थी 

  शरद पूर्णिमा की रात को वाणी, व्यवहार व उत्सव को महानाट्य के रूप में प्रस्तुत करने का नाम है --'महारास'। रास के स्वरूप को सभी जानते हैं ।सोलहवीं शताब्दी में प्रचलित हुआ इस लोक नाट्य में धर्म के साथ नृत्य संगीत और श्रंगारप्रधान सख्यभाव की प्रधानता रहती है।रास की अंतर्कथा यह है कि गोपियों ने एक बार भगवान कृष्ण से पति रूप में उन्हें पाने की इच्छा की।उन्होंने गोपियों की यह कामना पूरी करने का वचन दिया।इसके लिए श्री कृष्ण के आह्वान पर शरद पूर्णिमा की रात गोपियाँ दिव्य श्रंगारों से सुशोभित होकर यमुना तट पर पहुँच गईं ।

  यमुना के तट पर भगवान श्री कृष्ण ने रास करना शुरु किया तब भगवान ने महारास के दौरान गोपियों को एक अद्भुत लीला दिखाई ।जितनी गोपियाँ थीं, उतने ही भगवान श्री कृष्ण के प्रतिरूप प्रकट हो गए।सभी गोपियों को उनका कृष्ण मिल गया और दिव्य नृत्य एवं प्रेमानंद शुरु हुआ।

स्वर्ग की दुन्दुभियाँ अपने आप बज उठीं ।स्वर्गीय पुष्पों की वर्षा होने लगी।यमुना जी की रमणरेती पर वृजगोपियों के बीच में भगवान श्री कृष्ण की बड़ी अनोखी शोभा हुई।ऐसा जान पड़ता था मानो , अनगिनत पीली-पीली दमकती हुई सुवर्ण-मणियों के बीच में ज्योतिर्मयी नीलमणि चमक रही हो। रासलीला में हास्य का पुट और श्रंगार का प्राधान्य रहता है ।उसमें कृष्ण गोपियों, सखियों के साथ अनुराग पूर्ण वृत्ताकार नृत्य करते हैं ।
 
"आई है रास की रात, गगन पूनम का चन्दा चमके
बरसे है प्रेम बरसात, गगन पूनम का चन्दा चमके "

    ये गोपियाँ और कोई नहीं, जन्म जन्मांतर से तप-साधना कर रहीं तत्वज्ञानी आत्माएँ थीं ।उन्हें मालूम था कि गोप नंद के नंदन श्री कृष्ण परमात्मा के साकार विग्रह हैं ।गोपियाँ श्री कृष्ण के सत्य स्वरूप को जानतीं थीं, उनकी भक्ति में परमात्मा को जीवात्मा द्वारा किए जाने वाले समर्पण का भाव था ।वासना,तृष्णा, अहंता, का भगवत् चेतना में समर्पण , विसर्जन एवं विलय मोक्ष के द्वार खोलता है।  "श्री कृष्ण के मन में गोपियों के प्रति जो प्रेम था , वह परमात्मा का जीवात्माओं के प्रति सहज प्रेम था।"

रासलीला के इस रूप पर आक्षेप करने वाले अबोध, नादान लोग जो इस महारास के प्रतीक से अन्जान हैं, वे कहते हैं कि रासलीला से लोगों में अधोगामी उच्छृंखल प्रवृत्तियों को बल मिलता है ।यह तथ्य निराधार है। एक बार  महात्मा गाँधी जी के अनुयायी ने भी रासलीला पर इस प्रकार का आक्षेप किया तो इसके प्रत्युत्तर में गाँधी जी ने कहा------ " रासलीला जैसे आयोजन से ही संसार में कृष्ण प्रेम का संचार संभव है , अन्यथा यह संसार पूर्णरूपेण शुष्क और नीरस हो जाएगा।

भगवान के समान गोपियाँ भी परमरसमयी और सच्चिदानन्दमयी ही हैं । उनकी दृष्टि में केवल चिदानंद स्वरूप श्री कृष्ण हैं , उनके हृदय में श्री कृष्ण को तृप्त करने वाला प्रेमामृत है।गोपियाँ दिव्य जगत की भगवान की स्वरूपभूता अन्तरंगशक्तियाँ हैं ।अतः भगवान और गोपियों का सम्बन्ध भी दिव्य ही है।गोपियों के साथ भगवान का जो रमण हुआ वह सर्वथा दिव्य भगवत् राज्य की लीला है, लौकिक काम क्रीणा नहीं ।
  
भगवान श्री कृष्ण धीर ललित नायक हैं, जो समस्त कलाओं के अवतार माने जाते हैं ।श्री राधा उनकी अनुरंजक शक्ति के रूप में दिखाई जाती हैं ।श्री राधा समस्त गुणों एवं कलाओं की खान नायिका बनती हैं ।गोपियाँ व सखियाँ भाव प्रगल्भा होती हैं ।उनमें 
शोभा, विलास, माधुर्य, कांति , दीप्ति, विच्छित, प्रागल्भ्य , औदार्य , लीला , हाव, हेला ,भाव आदि सभी अलंकार समाहित हो जाते हैं ।

" शरद पूनम की है रात, करत कान्हा महा रास 
 भूल गईं सब संसार, ओढ़ी श्याम चूनर आज"

सादर अभिवादन व जय श्री कृष्ण 



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