कोई भी त्यौहार आने को होता , मन खुशियों से भर जाता और इन्तज़ार रहता, होली आ रही है , गुझिया खाने को मिलेंगी, पिचकारी लाएँगे , खूब रंग खेलेंगे और बाद में नए-नए कपड़े पहनकर घूमेंगे ; वह बचपन था।
होली से आठ दिन पहले ही घर के आँगन में एक छोटे से चौक में आटा, हल्दी, लाल, हरे और नीले गुलाल से सतिया आदि बनाया जाता था।इसी दौरान बीच में एक एकादशी के दिन कूटू के आटे से चौक सजाते - जैसे रंगोली बनाते हैं ।
घर में पकवान बनाने के लिए सामग्री की तैयारी शुरू हो जाती , उन दिनों खोया आदि घर पर ही बनाया जाता था।परिवार में कई सदस्य होने के कारण पकवान भी भरपूर बनते।हमें याद है कि तब त्यौहारों के समय रिश्तेदार और पड़ोसी मिल-जुलकर पकवान बनाने में एकदूसरे का सहयोग करते ।बारी-बारी से सबके घर गुझिया बनतीं।लड़कियों को शुरू से ही सब काम सिखाए जाते इसलिए थोड़ा सहयोग हम भी करते।
होली के दो-तीन दिन पहले सभी मन्दिरों में होलिकोत्सव मनाया जाता, रथ यात्रा ( फूल डोल यात्रा) निकलती ।सभी उसमें श्रद्धा भाव से शामिल होकर एक-दूसरे पर गुलाल छिड़कते।
हमारे बचपन के दिनों में प्लास्टिक के डिब्बे नहीं होते थे , कनस्तर( टिन) में गुझिया रखी जातीं ।होली पर सबको खिलाते और कई दिनों तक खुद भी खाते।नमकीन में ज्यादातर बेसन के सेव बनते।
होली के कुछ दिन पहले गाय के गोबर से छोटे-छोटे गोले बनाकर सुखा लिए जाते और उनको मोटे धागे में पिरोकर कुछ मालाएँ बना लेते।
इन्तजार करते-करते होली का दिन आ जाता और पूर्णिमा के दिन शाम को घर के आँगन में बने हुए चौक में इन मालाओं को रखकर पूजा की जाती ।सबसे नीचे बड़ी माला , फिर उससे छोटी, फिर उससे छोटी -- लगभग दो फुट ऊँचाई तक रखीं जाती थीं ।चौक में होलिका व प्रहलाद के रूप में कुछ प्रतीक चिन्ह रख लिए जाते।शाम के समय हमारी दादी उस चौक की पूजा करतीं ।
आधी रात के बाद परंपरागत शहर के मुख्य स्थलों पर सबसे पहले होलिका दहन किया जाता, हर घर से एक सदस्य वहाँ जाकर वहाँ से छोटा सा अंगार लेकर आता , उसी अंगार से घर की होली की आग प्रज्ज्वलित की जाती।घर के सभी सदस्य आँगन में होली के चारों ओर बैठ जाते और होली की आग में गेहूँ की बालें भूनते ।प्रातःकाल रिश्तेदारों व पडोसियों को बालों में से कुछ दाने देकर होली मुबारक बोलते ।
महिलाएँ सुबह के समय होली के चौक के पास बैठकर होली के गीत गातीं और थोड़ी सी मगोड़ी बनाने का मुहूर्त भी कर लेती थीं ।होली के अंगार पर ताँबे के बर्तन में पानी गरम करके सभी सदस्य आँखें धोते ।घर में सभी को उस समय एक छोटा सा मोती ( राई के बराबर ) खिलाया जाता लेकिन मुझे याद
नहीं ,उसे क्या कहते हैं ।सिर्फ होली के दिन घर में ही आता था।
जब होली की आग ठन्डी हो जाती तो उसमें प्रहलाद के प्रतीक के रूप में जो सिक्का डाला जाता , उसको निकाल लेते।
सुबह लगभग आठ बजे के बाद सभी बच्चे व बड़े सभी होली खेलना शुरु कर देते ।बहुत से लोग टोली बना-बनाकर गलियों से गुजरते, ऊनके ऊपर हम छतों से रंग और पानी बरसाते ।पूरे शहर की गलियाँ रंगों से भीग जातीं ।उन दिनों प्राकृतिक रंगों से होली खेली जाती थी , सभी के घरों में टेसू के फूलों के पानी से भी होली खेलते ।छोटे-छोटे बच्चे तरह-तरह की पिचकारियों में रंग भरकर
एक-दूसरे पर डालते।
हम सहेलियाँ लाल गुलाल से आपस में छिपकर एक दूसरे की माँग भर देते , जिससे कि कभी-कभी कोई सहेली रूठ भी जाती थी। लगभग दोपहर के बारह-एक बजे तक सभी जमकर होली खेलते।इतना रंग लग जाता कि कई दिनों तक छूट पाता।
शाम को नए कपड़े पहनकर , तैयार होकर सब आपस में एक -दूसरे के घर जाकर होली की शुभकामनाएँ देते और सभी की गुझियों का स्वाद चखते।सच में बड़ा आनन्द आता था, बचपन की होली में ।
" बचपन के दिन भी क्या दिन थे।बचपन की होली बहुत याद आती है ।
होली की शुभकामनाएँ व धन्यवाद ।सभी प्रेम से प्राकृतिक रंगों से होली खेलें ।
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