head> ज्ञान की गंगा / पवित्रा माहेश्वरी ( ज्ञान की कोई सीमा नहीं है ): February 2020

Thursday, February 27, 2020

" माँ " ममता की मूरत , मनोविज्ञान के अनुसार बच्चों पर माँ का प्रभाव

             <<<<<<< माँ ममता की मूरत >>>>>>> 
माँ ममता की मूरत ही तो है इस बात को मानने से कभी कोई इन्कार नहीं कर सकता।माँ एक शब्द मात्र नहीं है बल्कि एक एहसास है।माँ शब्द ही ऐसा है , जिसे किसी परिभाषा के दायरे में नहीं बाँधा जा सकता और न ही माँ के प्यार को अहसान माना जा सकता है ।माँ अनगिनत भावनाओं का पुंज है , जो मन के आँगन में बरबस छलक पड़ता है ।

 माँ स्वयं ही एक उत्सव है , उसका होना ही उत्सव है।मातृत्व ही तो माँ का आभूषण है।माँ होगी तो मातृत्व होगा और मातृत्व में माँ समाहित होती है ।पश्चिमी देशों की तुलना में हमारा देश अत्यन्त सौभाग्यशाली है कि हमारी संस्कृति मातृत्व प्रधान  संस्कृति है, जहाँ माँ ही सर्वोपरि है ।ममता एवं मातृत्व के उत्सवों में विकसित हुई हमारी मातृत्व प्रधान संस्कृति में माँ होना एक बहुत बड़ा सम्मान है।

 माँ तप, त्याग, समर्पण एवं बलिदान का जीवंत प्रतीक है।उसके आँचल में बचपन पोषित होता है, यौवन समृद्ध होता है और जीवन नई ऊँचाइयों को छूता है।माँ के सजल स्पर्श से जीवन सदा पुलकित रहता है।माँ के बिना जीवन अनाथ हो जाता है।माँ ही तो है "परमात्मा"।हमारी पूजा-पाठ की अवधारणा तो माँ के बिना अधूरी है।बंगाल में छोटी-छोटी लड़कियों को माँ कहकर पुकारना हमारी मातृप्रधान संस्कृति का प्रतीक है।

कभी हम अचानक किसी संकट में फँस जाएँ, तो सबसे पहले हमारे मुख से माँ शब्द ही निकलता है।बच्चों की  परवरिश में माता जो स्नेह बच्चों पर लुटाती है , जितना उनका ध्यान रखती है, इस कारण बच्चों  को सदा माँ की ही जरूरत अधिक होती है।हालाँकि बच्चों के सर्वांगीण विकास में माता-पिता दोनों की ही समान भूमिका होती है ।

एक माँ जो भी अपने बच्चों के लिए करती है, उसे कोई और नहीं कर सकता, इसलिए अक्सर ही सुनने में आता है कि माँ की कमी को कोई पूरा नहीं कर सकता ।माँ के लिए यदि संभव हो तो वह अपने बच्चों के लिए आसमान से तारे तोड़कर ले आए और चाँद को जमीन पर उतार दे , कहने का तात्पर्य है कि माँ अपने बच्चों को खुश रखने की हर संभव कोशिश करती है। इसीलिए इस पूरी दुनिया में माँ से ज्यादा अपने बच्चों को प्यार करने वाला कोई दूसरा नहीं होता ।

                                हमारी संस्कृति में चाची-ताई के रिश्ते भी छोटी माँ, बड़ी माँ जैसे प्यार भरे संबोधन में रचे-बसे हैं ।नानी माँ, दादी माँ जैसे संबोधन भी हमारे पास हैं ।ममता की इसी शीतल छाँव में हमारा जीवन तृप्त, तुष्ट एवं पुष्ट होता है। असीम प्यार एवं अंतहीन ममता के आँचल में हर मनुष्य का जीवन विकसित होता है।इसीलिए तो माँ को गर्भरूपी ममता की कोख मिली है।माँ के अलावा यह किसी के पास नहीं होती और हो भी नहीं सकती । कभी-कभी किन्हीं परिस्थितियों के कारण बच्चों की परवरिश माँ के बिना भी होती है।


                वर्तमान समय में अधिकांश महिलाएँ कामकाजी हैं वे बाहर के एवं घर के काम-काज को निभाने , इनके बीच सामंजस्य बैठाने के प्रयास में कहीं न कहीं अपने बच्चों चाहकर भी को पूरा समय नहीं दे पा रही हैं ।फिर भी उनकी कोशिश रहती है कि बच्चों की परवरिश में कोई कमी न हो।

    दौर चाहे जो भी हो , माँ की जगह बच्चों के लिए कभी नहीं बदली  और नही कभी बदल सकती है।माँ की परम अनुभूति में जगन्माता की झलक दिखती है।जब किसी बच्चे को छोटी सी चोट लग जाए तो वह बिलखकर अपनी माँ के आँचल में छिप जाता है।दुख-दर्द की अनगिनत घटनाओं के समय बच्चे माँ की छाँव में पनाह लेकर सुरक्षित हो जाते हैं ।

          ममता के कारण ही तो माँ है ।इसी ममता की छाँव तले माँ अपनी संतान में प्रारंभ से संस्कारों का बीजारोपण कर सके तो उन संस्कारों का बच्चे के जीवन में पुष्पित-पल्लवित होना सुनिश्चित है।इस तथ्य से सभी माताओं को परिचित होना चाहिए ।

           समय की रेखा पर बहुत कुछ भूल जाते हैं लेकिन समय के साथ कोई जीवंत एवं चैतन्य होती जाती है तो वह है-- माँ की ममता।माँ के स्नेहिल स्मरण से हृदय भर आता है।माँ की यादें मेघ बनकर अंतःकरण में उमड़ती- घुमड़ती हैं ।माँ की ममता ने तो अपना सर्वस्व लुटा दिया है, उस ममता का मूल्य तो नहीं चुकाया जा सकता, परंतु माँ को आदर-सम्मान एवं प्रतिष्ठा देकर उस ऋण को कुछ हल्का किया जा सकता है ।

<<<<< मनोविज्ञान के अनुसार बच्चों पर माँ का प्रभाव >>>>>

भारतीय मनोविज्ञान के अध्ययनों के अनुसार--- माँ और बच्चे का रिश्ता कई विरोधाभासों के बाद भी उम्र के एक पड़ाव पर आकर एक हो जाता है ।मनोवैज्ञानिक यह भी कहते हैं--- भावनात्मक संबंधों के कारण ही माँ और बेटी के बीच कोई अंतर नजर नहीं आता है।इसलिए एक कहावत भी प्रचलन में है-- कि तुम तो अपनी माँ पर गई हो।मनोवैज्ञानिक बताते हैं कि--- माँ का प्रभाव संतानों के चेतन, अवचेतन तथा अचेतन सभी पर पड़ता है ।विशेषकर अचेतन में माँ बस जाती है और वही अचेतन धीरे-धीरे संतान को उसकी माँ के जैसा गढ़ने लगता है।

माँ तो है ही ऐसी , जो हमें गढ़ती है , हमारे व्यक्तित्व में चार-चाँद लगाती है। ममता कभी कोई भेद नहीं करती --- बेटा-बेटी में अंतर नहीं करती , माँ तो सदा असीम होकर अनंत प्यार लुटाती है।
                              " माँ "
   सादर अभिवादन व धन्यवाद ।

Wednesday, February 26, 2020

"मेरे बचपन की होली"

          <<<<<<< मेरे बचपन की होली >>>>>>>>
कोई भी त्यौहार आने को होता , मन खुशियों से भर जाता और इन्तज़ार रहता, होली आ रही है , गुझिया खाने को मिलेंगी, पिचकारी लाएँगे , खूब रंग खेलेंगे और बाद में नए-नए कपड़े पहनकर घूमेंगे ; वह बचपन था।

होली से आठ दिन पहले ही घर के आँगन में एक छोटे से चौक में  आटा, हल्दी, लाल, हरे और नीले गुलाल से सतिया आदि बनाया जाता था।इसी दौरान बीच में एक एकादशी के दिन कूटू के आटे से चौक सजाते - जैसे रंगोली बनाते हैं ।

घर में पकवान बनाने के लिए सामग्री की तैयारी शुरू हो जाती , उन दिनों खोया आदि घर पर ही बनाया जाता था।परिवार में कई सदस्य होने के कारण पकवान भी भरपूर बनते।हमें याद है कि तब त्यौहारों के समय रिश्तेदार और पड़ोसी मिल-जुलकर पकवान बनाने में एकदूसरे का सहयोग करते ।बारी-बारी से सबके घर गुझिया बनतीं।लड़कियों को शुरू से ही सब काम सिखाए जाते इसलिए थोड़ा सहयोग हम भी करते।

होली के दो-तीन दिन पहले सभी मन्दिरों में होलिकोत्सव मनाया जाता, रथ यात्रा ( फूल डोल यात्रा) निकलती ।सभी उसमें श्रद्धा भाव से शामिल होकर एक-दूसरे पर गुलाल छिड़कते।

हमारे बचपन के दिनों में प्लास्टिक के डिब्बे नहीं होते थे , कनस्तर( टिन) में गुझिया रखी जातीं ।होली पर सबको खिलाते और कई दिनों तक खुद भी खाते।नमकीन में ज्यादातर बेसन के सेव बनते।

होली के कुछ दिन पहले गाय के गोबर से छोटे-छोटे गोले बनाकर सुखा लिए जाते और उनको मोटे धागे में पिरोकर कुछ मालाएँ बना लेते।

इन्तजार करते-करते होली का दिन आ जाता और पूर्णिमा के दिन शाम को घर के आँगन में बने हुए चौक में इन मालाओं को रखकर पूजा की जाती ।सबसे नीचे बड़ी माला , फिर उससे छोटी, फिर उससे छोटी -- लगभग दो फुट ऊँचाई तक रखीं जाती थीं ।चौक में होलिका व प्रहलाद के रूप में कुछ प्रतीक चिन्ह रख लिए जाते।शाम के समय हमारी दादी उस चौक की पूजा करतीं ।

  आधी रात के बाद परंपरागत शहर के मुख्य स्थलों पर सबसे पहले होलिका दहन किया जाता, हर घर से एक सदस्य वहाँ जाकर वहाँ से छोटा सा अंगार लेकर आता , उसी अंगार से घर की होली की आग प्रज्ज्वलित की जाती।घर के सभी सदस्य आँगन में होली के चारों ओर बैठ जाते और होली की आग में गेहूँ की बालें भूनते ।प्रातःकाल रिश्तेदारों व पडोसियों को बालों में से कुछ दाने देकर होली मुबारक बोलते ।

                       महिलाएँ सुबह के समय होली के चौक के पास बैठकर होली के गीत गातीं और थोड़ी सी मगोड़ी बनाने का मुहूर्त भी कर लेती थीं ।होली के अंगार पर ताँबे के बर्तन में पानी गरम करके सभी सदस्य आँखें धोते ।घर में सभी को उस समय एक छोटा सा मोती ( राई के बराबर ) खिलाया जाता लेकिन मुझे याद 
नहीं ,उसे क्या कहते हैं ।सिर्फ होली के दिन घर में  ही आता था।

जब होली की आग ठन्डी हो जाती तो उसमें प्रहलाद के प्रतीक के रूप में जो सिक्का डाला जाता , उसको निकाल लेते।

सुबह लगभग आठ बजे के बाद सभी बच्चे व बड़े सभी होली खेलना शुरु कर देते ।बहुत से लोग टोली बना-बनाकर गलियों से गुजरते, ऊनके ऊपर हम छतों से रंग और पानी बरसाते ।पूरे शहर की गलियाँ रंगों से भीग जातीं ।उन दिनों प्राकृतिक रंगों से होली खेली जाती थी , सभी के घरों में टेसू के फूलों के पानी से भी होली खेलते ।छोटे-छोटे बच्चे तरह-तरह की पिचकारियों में रंग भरकर
 एक-दूसरे पर डालते। 

हम  सहेलियाँ लाल गुलाल से आपस में छिपकर एक दूसरे की माँग भर देते , जिससे कि कभी-कभी कोई सहेली रूठ भी जाती थी। लगभग दोपहर के बारह-एक बजे तक सभी जमकर होली खेलते।इतना रंग लग जाता कि कई दिनों तक छूट पाता।

शाम को नए कपड़े पहनकर , तैयार होकर सब आपस में एक -दूसरे के घर जाकर होली की शुभकामनाएँ देते और सभी की गुझियों का स्वाद चखते।सच में बड़ा आनन्द आता था, बचपन की होली में ।

" बचपन के दिन भी क्या दिन थे।बचपन की होली बहुत याद आती है ।

होली की शुभकामनाएँ व धन्यवाद ।सभी प्रेम से प्राकृतिक रंगों से होली खेलें ।

Tuesday, February 25, 2020

परीक्षा, परीक्षाओं की मुश्किल घड़ियाँ कैसे सरल करें विद्यार्थी

               <<<<<<< परीक्षा >>>>>>>
वैसे तो जीवन में पग-पग पर परीक्षाएँ होती हैं लेकिन विद्याध्ययन के समय में विद्यार्थियों की परीक्षाएँ चुनौती भरी होती हैं, जिनमें विद्यार्थियों को उत्तीर्ण होना होता है।कम समय और पाठ्यक्रम ज्यादा होने पर परीक्षा के समय बच्चों में तनाव बढ़ता है।

जैसे-जैसे बच्चों की परीक्षाओं के दिन नजदीक आते हैं, बच्चों में घबराहट शुरू हो जाती है और वे अधिक पढ़ने लगते हैं, दिन रात इसके लिए एक कर देते हैं और परीक्षा की तैयारी के लिए कम समय रह जाता है तो रटने की कोशिश करते हैं ।बच्चों के साथ-साथ अभिभावक भी उतने परेशान होते हैं जितने कि बच्चे ।ऐसा लगता है मानो अभिभावकों की परीक्षा है।

परीक्षा की तैयारी के बारे में जानने से पूर्व यह जानना जरूरी है कि परीक्षा का उद्देश्य (मकसद) क्या है ? 
1  क्या परीक्षा का मकसद अधिक से अधिक नंबर पाना है ?
2  किसी विषय पर बच्चे के ज्ञान की परीक्षा है ?
3  क्या परीक्षा में असफल होने वाला बच्चा, जीवन में कहीं और        सफल नहीं हो सकता ?
4  क्या अधिक अंक ही बच्चे के सम्पूर्ण ज्ञान की निशानी हैं ?
5  ऐसा क्या करें जिससे परीक्षा में तनाव न हो ?
6 क्या परीक्षा जीवन से भी ज्यादा महत्वपूर्ण हैं ?
     ऐसे बहुत से प्रश्न हैं जिन पर हमारी सामाजिक व्यवस्था और   शिक्षा व्यवस्था, दोनों को सोचने की जरूरत है ।

आज की शैक्षणिक व्यवस्था के अनुसार बच्चों को परीक्षाएँ तो  देनी ही होती हैं और पास होने के लिए पूरा प्रयास करना भी जरूरी होता है। इसलिए सबसे पहले अभिभावकों को यह समझना होगा कि परीक्षाओं में बच्चे तनाव में न रहें। बच्चों को तनाव से बचाने के लिए परीक्षा की तैयारी के लिए बहुत दबाव न बनाएँ, बल्कि उसकी तैयारी में सहयोग देकर उनका आत्मविश्वास बढाएँ , उसे मेहनत करने के लिए प्रोत्साहित करें और मनोबल बढाएँ ।

<<<<<<परीक्षा की मुश्किल घड़ियाँ कैसे सरल करें >>>>>>>

परीक्षा की तैयारी तभी ज्यादा सही और सार्थक होती है , जब विषय को पहले से पढ़ा गया हो, उसके नोट्स बनाए गए हों और उसके बारे में सही समझ हो।इसलिए पहले यह निर्धारित कर लें कि परीक्षा के लिए कितने विषय और कितनी विषय सामग्री को तैयार करना है।इसके लिए जरूरी है कि परीक्षा के काफी दिनों पहले ही तैयारी करवाना शुरु कर दें।कुछ अभिभावक पूरे वर्ष बच्चों को हर विषय की पढ़ाई पर नियमित ध्यान देते हैं, जिससे 
उनके बच्चों को परीक्षा के दिनों में तनाव नहीं होता।

 परीक्षा के दिनों में बच्चों के खान-पान का विशेष ध्यान रखें, ताकि बच्चों का स्वास्थ्य अच्छा बना रहे ।सूखे मेवे जैसे अखरोट ,भीगे हुए बादाम का सेवन बच्चों के दिमाग़ को स्वस्थ व तेज बनाता है।
पर्याप्त मात्रा में बच्चे पानी पिएँ ।पोषकतत्वों से युक्त भोजन बच्चे को स्वस्थ व सक्रिय करने में मदद करता है ।बच्चों की नींद भी पूरी होती रहे।

परीक्षा की तैयारी के लिए बच्चों को प्रश्नों के उत्तर लिखकर याद करने की कला सीखनी चाहिए।लिखकर याद करने से व प्रमुख बिन्दुओं को लिखने से विषय अच्छी तरह समझ में आता है।इस तरह लिखने का अभ्यास भी होता है और प्रश्नों का जबाब देना सरल हो जाता है ।

जितना भी बच्चे पढें उसको अच्छी तरह से समझकर पढें ।यदि विषय अच्छी तरह से समझ में आ जाए तो वे अपनी भाषा में भी लिख लेते हैं इससे उनकी मौलिकता में वृद्धि होती है जो आगे चलकर बड़ी क्लासों में काम आती है।

परीक्षा के समय जो उत्तर बच्चों को पता हैं उन्हें पहले लिखें और जिनके उत्तर पूरी तरह नहीं पता हों उनको बाद में करें ।उत्तर लिखते समय प्रश्न क्रमांक का नम्बर अवश्य डालें ।अपने उत्तर बिंदुवार लिखें और महत्वपूर्ण शब्दों को बोल्ड करें ।

परीक्षा के विद्यार्थी सजगता व सावधानी रखें ताकि प्रश्नों को ठीक तरह समझा जा सके और उत्तर देते समय मन में कोई दुविधा न हो। यदि लिखने का तरीका सही हो , भाषा स्पष्ट हो, सही शब्दों का उपयोग हो , व्याकरण अशुद्धि न हों तो लिखे गए उत्तरों से कोई भी परीक्षक प्रभावित हो सकता है और वह अच्छे अंक दे सकता है।

इन सभी बातों पर विचार करते हुए हमें अपने बच्चों की तैयारी में सहयोग करना चाहिए जिससे बच्चे तनाव से बचे रहें और प्रसन्न मन से परीक्षाएँ देकर सफलता हासिल करें ।सभी अभिभावकों को यह भी सोचना चाहिए कि सभी बच्चों की ग्रहणशक्ति एक जैसी नहीं होती इसलिए बच्चों की दूसरे बच्चों से तुलना न करें, हर परिस्थिति में उन्हें सकारात्मक सोचने को प्रेरित करें ।हर विद्यार्थी परमेश्वर की अनुपम कृति है।
 
  सादर अभिवादन व धन्यवाद ।


Sunday, February 23, 2020

रंगों की खूबसूरत दुनिया, मानव जीवन में विविध रंगों के अलग-अलग प्रभाव

       <<<<<<<<< रंगों की खूबसूरत दुनिया >>>>>>>>>>
यह दुनिया खूबसूरत रंगों से भरी हुई है।धरती से लेकर आकाश तक प्रकृति ने अनेक रंगों को बिखेरा है।नीला आकाश मानो अनंत ऊँचाई को अपने में समेटे है उसमें यदा-कदा उभरने वाली सफेद व काले बादलों की आकृतियाँ, उदीयमान सूर्य का स्वर्णिम प्रकाश, रात्रि के अँधेरे में आकाश में सजे हुए चमकते तारे और उसमें स्वच्छ चाँदनी का प्रकाश । हरियाली से सुशोभित धरती , कहीं रेत, कहीं पहाड़ तो कहीं मिट्टी। मिट्टी के भी अनेक रंग हैं- कहीं लाल, कहीं पीली, कहीं मटमैली तो कहीं काली । सब ओर रंग ही रंग हैं ।
 इसके अतिरिक्त धरती के गर्भ में समायी हुई विभिन्न धातुओं की खदानें, कीमती पत्थरों में भी विविध रंग हैं ।समुद्र के गर्भ में छिपे कीमती हीरे- जवाहरात भी विविध रंगों की आभा लिए होते हैं ।
प्रकृति ने वृक्ष- वनस्पतियों में फल-फूलों में भी अपने सुन्दर रंगों की छटा बिखेरी है।इस पृथ्वी पर रहने वाले विविध प्राणियों के रंग भी कई तरह के हैं ।जगत का सत्य ही यह है कि इस सृष्टि में  बिना रंग के कुछ भी नहीं है।
  
                                    इस दुनिया के विविध रंगों का सौन्दर्य हम अपनी आँखों से निहार सकते हैं ।जैसे ताजा खिला हुआ फूल देखकर मन आनंदित हो जाता है और उसकी ओर आकर्षित होता है।हरे- भरे खेतों को देखकर भी मन को सुकून मिलता है।लाल गुलाब प्रेम की महक छोड़ता है तो पीला गुलाब प्यारी सी दोस्ती का इज़हार करता है।बरसात के मौसम में आकाश में इन्द्रधनुषी-रंग मन को मोह लेते हैं ।

हमारे देश की यह विशेषता रही है कि प्राचीन काल से ही प्रकृति के हर तत्व की शोध की जाती रही है।विविध रंगों का संसार भी प्रकृति से मिला हुआ सुन्दर उपहार है।रंगों का आध्यात्मिकता से  संबंध है , ज्योतिष शास्त्र से भी गहरा संबंध है। रंगों का  मानव स्वभाव से भी गहरा संबंध है ।जीवन के विविध आयामों में विविध रंगों को संकेत के रूप में भी प्रयोग किया जाता है।

<<<<विविध रंगों का मानव जीवन में अलग-अलग प्रभाव>>>>

   ● लाल रंग        

रंगों की बात आए तो सबसे पहले हमें लाल रंग याद आता है।आध्यात्मिकता के सन्दर्भ में यदि देखा जाए तो लाल रंग प्रथम पूज्य भगवान गणपति व माता पार्वती का प्रिय रंग है।ग्रह देवता सूर्य भगवान को भी जल और लाल पुष्प से अर्ध्य समर्पित किया जाता है। ज्योतिष आचार्य भी सूर्य व मंगल ग्रह की शान्ति के लिए माणिक्य व मूँगा रंग धारण करने की सलाह देते हैं ।इन दोनों ग्रहों  की शान्ति के लिए लाल रंग प्रयोग किया जाता है ।शुभ कार्यों में लाल वस्त्र, लाल फूल और लाल कुंकुम प्रयोग किया जाता है ।

लाल रंग सुहाग और प्रेम का प्रतीक माना जाता है इसलिए भारतीय विवाह में दुल्हन को लाल जोड़ा ही पहनाया जाता है लेकिन यह रंग क्रोध और संघर्ष का भी परिचायक है।यह रंग उत्प्रेरक, उत्तेजक तथा जोशीला होता है।यह रंग रणभूमि का भी प्रतीक होता है।खतरे को व्यक्त करने में भी इस रंग का प्रयोग होता है।हमारे शरीर में बहने वाले रक्त का रंग भी लाल है इसलिए कभी-कभी कुछ लाल वस्तुओं को रक्तवर्ण भी कह दिया जाता है ।यह रंग ऊष्णता व ऊर्जा का भी प्रतीक है ।लाल रंग हमारी शारीरिक ऊर्जा को प्रभावित करता है।

 ● पीला रंग

पीला रंग प्रकाश व प्रसन्नता का प्रतीक है ।यह रंग ज्ञान का भी प्रतीक है । इसीलिए वसंत पंचमी पर  ज्ञान की देवी सरस्वती  की पूजा पीले वस्त्र धारण करके ही की जाती है ।यह रंग भगवान विष्णु व वृहस्पति देव का प्रिय माना जाता है ।इसीलिए गुरुवार के दिन पीले वस्त्र पहनना, पीले रंग का आहार ग्रहण करना व पीले फूलों से पूजा करना अति शुभ माना गया है ।गुरुवार को केले के पेड़ की पूजा का विधान है । वृहस्पति ग्रह की शान्ति के लिए ज्योतिषाचार्य पीले रंग की आभा लिए पुखराज रत्न पहनने की सलाह देते हैं ।

                         हमारे मन्दिरों में पूजा अनुष्ठान करने समय पुजारी भी अधिकांश पीले वस्त्रों का ही प्रयोग करते हैं ।यह रंग उमंग का प्रतीक है। पीला रंग सकारात्मकता का संदेश भी देता है। धार्मिक कार्यक्रमों में पीला रंग शुभ माना जाता है ।इस रंग से हमारे विचारों में स्पष्टता आती है ।मन में सतर्कता बढ़ती है ।इस रंग से आध्यात्मिक ऊर्जा में वृद्धि होती है ।यह रंग हमारे शरीर में उत्पन्न विषाक्त पदार्थों को दूर करने में उपयोगी साबित होता है।बुद्धि को प्रखर बनाने वाला, सौन्दर्य का पर्याय यह रंग हमारे मनोभावों को बिना कुछ कहे व्यक्त कर देता है।

 ● हरा रंग

हरा रंग प्रकृति व हरियाली का प्रतीक है ।वर्षा ऋतु के आने से समूची प्रकृति के पेड़-पौधे हरे हो जाते हैं ।वसंत ऋतु में भी समस्त पेड़ पौधे सौन्दर्य से भरपूर होकर प्रकृति की सुन्दरता में चार चाँद लगा देते हैं ।वन-उपवनों में हरी घास देखकर मन को सुकून मिलता है, ऐसा लगता है कि हरे मलमल का कालीन बिछा हुआ हो।हरा रंग शारीरिक-मानसिक शुद्धि करने के लिए भी प्रयोग होता है।अस्वस्थ होने पर भी हरी साग-सब्जियों का सेवन , हरे रंग की मूँग दाल व हरे पेय पदार्थों जैसे -- पुदीने, गन्ने, धनिए आदि का शरबत पीने की सलाह दी जाती है।

हरा रंग बुध ग्रह का प्रतीक है और यह हमारी बुद्धि को शांत और संतुलित रखने में मदद करता है ।इसलिए  यदि मन में किसी भी प्रकार की निराशा हो तो हरियालीयुक्त स्थानों पर जाने से मन में सकारात्मकता का संचार होता है और मन प्रसन्न हो जाता है ।
कुछ लोग बुधवार को हरे रंग के वस्त्र धारण करते हैं ।हरे रंग के अपने कई रंग हैं, जैसे- धानी हरा, समुद्री हरा आदि।हमारे देश के झन्डे में इस रंग का समावेश हमारे देश के वैभव को दर्शाता है।

 ● नीला रंग 

नीला रंग एकता , शांति , शीतलता व सतर्कता का प्रतीक है ।इस रंग के भी विविध प्रकार हैं, जैसे- आसमानी नीला, फिरोजी नीला , स्याह नीला आदि।मानसिक रूप से सुकून देने वाला यह रंग हमारी आँखों को बहुत भाता है। ग्रहों में शनिग्रह का रंग नीला है इसलिए शनिग्रह की शान्ति हेतु ज्योतिषाचार्य नीलम धारण करने को कहते हैं ।हमारा आकाश व समुद्र दोंनो ही नीले रंग के दिखते हैं ।यह रंग भी अपने आप में अति महत्वपूर्ण है ।बागों में कभी-कभी नीले रंग के सुन्दर फूल भी सभी को आकर्षित करते हैं ।

 ● गुलाबी रंग 

गुलाबी रंग ---- कहा नहीं जा सकता कि गुलाबों से गुलाबी रंग नाम दिया गया है या गुलाबी रंग से गुलाब के फूलों को गुलाब नाम मिला है, जो भी हो-- गुलाबी रंग बहुत मनमोहक होता है।यह रंग कोमलता व सुन्दरता का प्रतीक है ।हृदय से इस रंग का गहरा संबंध है , इसलिए प्रेम की अभिव्यक्ति में गुलाबी रंग का प्रयोग किया जाता है ।यह रंग मन की प्रसन्नता को व्यक्त करता है।गुलाबी रंग हल्का गुलाबी और रानी रंग ( गहरा गुलाबी) नाम से जाना जाता है।

 ● नारंगी रंग 

नारंगी रंग वीरता का प्रतीक है और ऐश्वर्य को भी दर्शाता है।हमारे राष्ट्रीय झंडे में इस रंग का प्रतीक है।यह रंग खुशी, उत्साह व त्याग- भावना का प्रतीक है।यह केसरिया नाम से भी जाना जाता है।यह सक्रियता का प्रतीक है।अक्सर धार्मिक कार्यक्रमों में लोग इस रंग के वस्त्र धारण करना शुभ मानते हैं ।हमारे संत जन भी इस रंग को महत्व देते हैं ।किसी भी रंग की किसी  दूसरे रंग से तुलना नहीं की जा सकती; क्योंकि हर रंग की अपनी अलग विशेषता है।

 ● सफेद रंग

सफेद रंग का सम्बन्ध चंद्र ग्रह व शुक्र ग्रह से है।चंद्रमा का सम्बन्ध हमारे मन से होने के कारण, सफेद वस्तुएँ मन को शांत व संतुलित करने में सहयोग करती हैं ।यह रंग प्रकाश का प्रतीक है ।सफेद रंग एकता, शुद्धता, शांति व उज्ज्वलता का प्रतीक है ।इस रंग का प्रयोग करने से मन में शुभ भावनाएँ जाग्रत होती हैं ।

 ● काला रंग

                                    यह रंग प्रकाश का अवशोषक है और कई रंगों को अपने में समाहित करने की क्षमता रखता है।यह रंग अँधियारे का प्रतीक है, जिस तरह प्रकाश की महत्ता है उसी प्रकार काले रंग का भी हमारे जीवन में विशेष महत्वपूर्ण है इसीलिए तो नजर उतारने के लिए काला टीका लगाया जाता है ।आँखों की खूबसूरती बढाने व उन्हें स्वस्थ रखने के लिए काजल लगाया जाता है और बुरी नजर से बचाने के लिए काला धागा बाँधा जाता है। हमारे देश के कुछ हिस्सों में शुभ कार्यक्रमों में इस रंग के वस्त्रों का प्रयोग नहीं करते ।


यदि हम गम्भीरता से विचार करें तो हम पाएँगे कि सृष्टि की शुरुआत ही रंगों से हुई है या यह भी कहा जा सकता है कि रंग भी प्रकृति का एक आवश्यक घटक ही है ; क्योंकि रंगों के बिना प्रकृति स्वयं को कैसे अभिव्यक्त करती। शायद रंगों के बिना भी जीवन की कल्पना नहीं की जा सकती ; क्योंकि हर जीव का एक रंग जरूर होता है।

आओ शुभकामना करें कि सभी का जीवन प्रकृति के विविध रंगों से सदा सुशोभित होता रहे।

सादर अभिवादन व धन्यवाद ।











 

Saturday, February 22, 2020

गणना पद्धति ( गिनती प्रणाली)का रोचक इतिहास , शून्य का आविष्कार कब हुआ ?

<<<<<<< गणना पद्धति (गिनती)का रोचक इतिहास>>>>>>
पुरातन काल में दोनों हाथों की उँगलियों की सहायता से गणना पद्धति की शुरुआत हुई ।गणितज्ञ कहते हैं कि गिनती के लिए मानव शरीर का सबसे सुविधाजनक अवयव हैं-- उँगलियाँ, इसलिए गणना पद्धति का आधार दस है।इसका अर्थ है कि हमारी गणना पद्धति दशाधारी यानी दशगुणोत्तर है।कुछ लोगों ने गणना के लिए दो हाथों की उँगलियों के साथ दो पैरों की उँगलियों का भी उपयोग किया ।कुछ आदिवासी समूहों में बीस के लिए जिस शब्द का प्रयोग होता था उसका अर्थ है- सब उँगलियाँ समाप्त ।

मध्य अमेरिका की पुरानी मय सभ्यता की अंक पद्यति बीस पर आधारित थी ।हमारे देश में भी जो बिना पढ़े-लिखे लोग , जिन्हें पैसों का हिसाब रखना होता था ---- बीसा या कौड़ी ( 20 ) की इकाई से गिनती करते थे।

      <<<<<<<<  बेबीलोनी गणना पद्धति  >>>>>>>>

बेबीलोनी गणना पद्धति  दाशमिक (10) और षाष्ठिक (60) के आधारों का मिश्रण थी।इस पद्धति में एक से नौ तक के लिए कलीनुमा खड़ी लकीरों का प्रयोग और दस के लिए एक स्वतंत्र संकेत था। 20, 30, 40, 50, 60 की संख्याएँ 10 के संकेत को दोहराकर लिखी जाती थीं ।बेबीलोनी की षाष्ठिक पद्धति के अवशेष आज भी हमारे बीच मौजूद हैं ।आज भी हम वृत्त की परिधि 60 × 6 अंशों में, एक अंश को 60 मिनटों में और, एक मिनट को 60 सेकेंडों में बाँटते हैं ।

 <<<<<<<<  प्राचीन मिश्र की गणना पद्धति  >>>>>>>>

                  प्राचीन मिश्र की गणना पद्धति भी दशगुणोत्तर थी और उसमें बुनियादी अंक-संकेत केवल साठ( 60) थे।इसमें भी एक से नौ तक खड़ी लकीरें और दस के लिए अलग संकेत था।ग्यारह ( 11 )से उन्नीस (19) तक की गिनतियाँ खड़ी लकीरों और दस के संकेत के मेल-जोल से लिखीं जाती थीं ।आगे  सौ (100) के लिए फिर एक स्वतंत्र संकेत, एक हजार (1000) के लिए कमल दंड का चिन्ह,दस हजार( 10000) के लिए एक उँगली का चिन्ह,एक लाख (100000) के लिए अबाबील पक्षी का चित्र प्रयोग किया जाता था । इसके आगे दस लाख (1000000) के लिए दोनों हाथ ऊपर उठाए एक बैठे हुए आदमी का चित्र होता था मानो कह रहा हो कि यही सबसे बड़ी संख्या है।

आज हम 43,350 लिखने के लिए सिर्फ पाँच संकेतों का प्रयोग करते हैं वहीं प्राचीन मिश्र के गणितज्ञों इसके लिए 25 संकेतों का इस्तेमाल करना पड़ता था।

  <<<<<< यूनानी, रोमन और ग्रीक गणना पद्धति >>>>>>

यूनानी अंक-संकेतों के लिए संख्या शब्दों के आद्याक्षरों का उपयोग करते थे।जैसे पाँच( 5) के लिए यूनानी में पेंते शब्द था ।इसलिए वे 5 को यूनानी के 'प' (पाई) से लिखते थे।बाद में यूनानियों ने अपनी लिपि के अक्षरों को अंक-संकेतों के लिए अपनाया, जिसका आगे सदियों तक यूरोप में प्रचलन रहा।

रोमन और ग्रीक पद्धति में सबसे बड़ी संख्या हजार रह जाती है।
इसमें नव चिन्ह | , || , ||| , V , X , L, C, D और M ही क्रमशः 1,2 ,3 ,5 , 10 , 50 , 100 ,500 , 1000 के लिए आते हैं ।
इस आधार पर दूसरी प्राचीन सभ्यताओं की भारत से अंक प्रणाली के मामले में तुलना करना उचित नहीं है; क्योंकि दाशमिक अंक प्रणाली का  आविष्कारकर्ता और निर्यातक भारत ही है।

 <<<<<<   वैदिक काल में प्रचलित गणना   >>>>>>

                                   ऋग्वेद में दस हजार (10000) के लिए और एक लाख ( 100000) के लिए नियुत का भी उल्लेख मिलता है।नियुत का ऋग्वेद में जोड़ने (क्रिया), योग (संज्ञा) और सबसे बड़ी संख्या ( लाख), इन तीन रूपों में प्रयोग देखने में आता है।इसमें विराट संख्या को दूसरे तरीकों से भी व्यक्त किया गया है।जैसे सैकड़ों, दस हजार अयुतानि, शतानि ( ऋग्वेद 8, 34,15) हजारों सौ - सहस्राणि शत ( ऋग्वेद 4,29,4,   4,30,15,   7,32,5  8,5,15)।

जो विद्वान यह कहते हैं कि वैदिक गणना पद्धति दशमान तक ही सीमित थी , उन्हें इस तथ्य पर विचार करना चाहिए कि हड़प्पा काल में द्विगुणमान चलता था।इसी के साथ यह भी प्रमाणित हो चुका है कि मोहनजोदड़ो में मिला शंख का पैमाना दाशमिक क्रम में है --- दशमान में नहीं । दाशमिक क्रम में शून्य का चिन्ह मिलता है।इस पर चिन्ह 0,02 इंच अर्थात एक मिलीमीटर से भी अल्प दूरी पर खिंचे हैं और इसके निशानों में असाधारण परिशुद्धता है।दूसरी ओर ऋग्वेद में कला, शक, पाद, गवार्ध, पाव, अधसेर, और सेर वाला अर्थात द्विगुणमान का विकरण मिलता है।

यजुर्वेद के एक मंत्र में ( 18, 35 ) में चार का पहाड़ा दिया हुआ है, जिसमें चतरश्र, अष्ट, द्वादश, षोडश, विंशति, चतुर्विंशति, अष्टाविंशति, द्वात्रिंशत षट्त्रिंशत, चत्वारिंश, चतुष्चत्वारिंशत, अष्टचत्वारिंशत का उल्लेख है ।एक अन्य मंत्र( 18, 24,) में विषम संख्याओं का उल्लेख किया गया है।अब इसी क्रम में हमें उस गणना को भी देखना होगा , जिसे शुद्ध दाशमिक क्रम में रखा गया है और जिसमें केवल दशमान संख्याएँ हैं ।एक, दश, शत, सहस्त्र, अयुत, प्रयुत, न्यर्बुद, अर्बुद, समुद्र, मध्य, अंत और परार्ध की गणना अव्यवहित रूप में आई है , न कि अलग-अलग संदर्भों में जुटाकर।

ऋग्वेद 2,18, 5 एवं 6 में बीस, तीस, चालीस, पचास, साठ, सत्तर, अस्सी और नब्बे का एकत्र उल्लेख भी आया है।ऋग्वेद में जो अष्टकर्णा का प्रयोग हुआ है, उसमें अष्ट अर्थात आठ के अंक में छापे से पशु को दागने की ही बात कही गई है ।इससे स्पष्ट है कि ऋग्वेद काल में किसी न किसी रूप में लिखने का प्रचलन अवश्य रहा होगा।

वैदिक ऋषि ज्योतिष शास्त्र के प्रवर्तक व प्रणेता थे ।चंद्रवर्ष व सौरवर्ष के अंतर को दूर करने के लिए उन्होंने पाँचवें वर्ष समायोजन का विधान रखा था।इसका उल्लेख ऋग्वेद 1,25, 8 में हुआ है। इसलिए उन्होंने अपनी अंक प्रणाली का किसी और सभ्यता से अधिक उन्नत विकास किया था।

     <<<<<< शून्य का आविष्कार कब हुआ >>>>>>

शून्य का आविष्कार कब हुआ ? अन्य देशों की प्राचीन गणना पद्धतियों पर एक नजर डालने के बाद भी यह प्रश्न यथावत् बना रहता है।इसके उत्तर में अनेक प्रश्न खड़े किए जाते हैं ।कुछ विद्वान कहते हैं कि शून्य का आविष्कार ईसा की आरंभिक शताब्दियों में कभी हुआ लगता है।

भारत में शून्य के लम्बे समय तक पुराभिलेखों में प्रयोग न होने का एक कारण यह भी रहा हो सकता है कि ऊँचे अंकों का प्रयोग ज्योतिर्विज्ञान आदि में किया जाता है और यह विद्या कुछ ही विशेष विद्वानों तक ही सीमित थी और वे इसे गुप्त निधि की तरह छिपाकर रखते थे।

        शून्य शब्द का सीधा उल्लेख ऋग्वेद में नहीं मिलता ।इसका कारण यह है कि ऋग्वेद में संख्याओं का उल्लेख कामनाओं के संदर्भ में आया है ।जैसे कि--- हमें इतना धन या सोने का टिक्कल ( हिरण्यपिंड)या गाय, घोड़े, गधे, ऊँट या धन मिला या मिल जाए।इसके लिए यदि कोई शून्य की माँग करता तो यह अनोखी बात होती ।

उपनिषदों में शून्य को तत्व एवं परमात्मा का पर्याय कहे जाने के भी प्रमाण मिलते हैं ।जैसे कि 'शून्यं तत्वं' अर्थात शून्य तत्व है।इसके अलावा 'शून्यं तु सच्चिदानन्दं निःशब्द ब्रहाशब्दितम्' यह शून्य ही सच्चिदानन्द, निःशब्द ब्रह्म के रूप में कहा गया है ।ब्रह्म पूर्ण है तो ब्रह्माण्ड भी पूर्ण होगा।शून्य के तर्क से ब्रह्म से कितने भी ब्रह्माण्ड निकलते रहे हैं-- उसकी पूर्णता बनी रहेगी।

                   दश की संख्या पूर्ण है ।वृत्त पूर्ण है ।रेखा, त्रिभुज या चतुर्भुज की किसी भुजा को आगे बढ़ाया जा सकता है, पर वृत्त में रेखा जहाँ से आरम्भ होती है , वहीं आ मिलती है और अनंतकाल तक उसी पर घूम सकती है।, यहीं से शून्य की अवधारणा शुरु हुई, वृत्त के चक्र की तरह ।यह शून्य जिस भी संख्या से जुड़ेगा, उसको पूर्ण या दशगुणित चक्र बनाता जाएगा।जैसे-  10 ,100, 1000 आदि-आदि।

                     वेदों में बताए गए शून्य के दार्शनिक सत्य को जहाँ बाद में भगवान बुद्ध एवं नागार्जुन ने प्रतिपादित किया, वहीं इसके गणितीय सत्य को आर्यभट्ट ने कहा।आर्यभट्ट ने " आर्यभटीय " 
ग्रन्थ में एक से वृंद (अरब) तक की संख्याएँ व संज्ञाएँ बताकर लिखा है कि इनमें से प्रत्येक अगली संख्या, पिछली संख्या से दसगुना है---- 'स्थानात् स्थानं दशगुणं स्यात्' ।आर्यभट्ट का यह प्रतिपादन वेदों में प्रतिपादित शून्य का ही नवीन प्रकटन है।

                                
          शून्य का प्रतिपादन चाहे दार्शनिक रूप में किया गया हो अथवा गणितीय रूप में, उसका मूल उद्गम वेद ही हैं ।वैदिक ज्ञान ही बाद में भिन्न-भिन्न रूपों में प्रकट हुआ है।वैदिक भारत की यदि कोई खोज सार्वभौमिक बनी है , तो वह है शून्ययुक्त दाशमिक स्थान मान अंकपद्यति, दुनिया की सबसे बड़ी बौद्धिक देन।वैदिक ऋषियों ने अपनी अनुभूति के आधार पर कहा -- गणितीय शून्य ही आध्यात्मिक महाशून्य के रूप में अनुभव होता है।इसलिए ज्ञान की यात्रा शून्य से महाशून्य तक है।

अतः इसके आधार पर हम कह सकते हैं कि शून्य का आविष्कार भी वैदिक काल से ही हुआ है और यह हमारे वैदिक ऋषियों की ही खोज है।

सादर अभिवादन व धन्यवाद ।

Wednesday, February 19, 2020

समुद्री प्रदूषण -- समुद्रों को साफ रखना क्यों है जरूरी, समुद्री पर्यावरण को माइक्रोप्लास्टिक से नुकसान ।

   <<<<<<समुद्री प्रदूषण, समुद्र को साफ रखना जरूरी>>>>>>
सदियों से हमारा जीवन समुद्र से जुड़ा हुआ है।बिना समुद्र के पृथ्वी पर जीवन की कल्पना असंभव है अर्थात समुद्र और मानव जीवन का एक गहरा रिश्ता है ।वैज्ञानिक चेता रहे हैं कि समुद्र में प्रदूषण के कारण यह रिश्ता कमजोर हो रहा है।क्योंकि हमने समुद्र को कूड़ादान समझ लिया है, जिसमें कुछ भी फेंका और बहाया जा सकता है ।हमारी इन गलतियों से वर्तमान में समुद्री प्रदूषण लगातार बढ़ रहा है। अगर आज हमने समुद्र को प्रदूषित होने से नहीं बचाया तो आने वाले समय में मुश्किलों का सामना करना पड़ सकता है ।

सभी जानते हैं कि कृषि और जीने के लिए पानी अत्यन्त आवश्यक हैं , पानी के लिए हम बरसात पर निर्भर हैं, और बरसात होने में समुद्र की महत्वपूर्ण भूमिका रहती है।समुद्रों से गर्मी में   पानी भाप बनकर उड़ता है वही फिर बादल बनकर बरस जाता है।कहने का तात्पर्य है कि बारिश सीधे रूप से समुद्र से ही प्रभावित होती है।

समुद्री प्रदूषणके खतरों से अनजान हम समुद्र में हर तरह का कचरा फेंक रहे हैं और इसका परिणाम यह हो रहा है कि कभी हवा , तो कभी बारिश के सहारे यह कचरा हमारे पास ही वापिस   आ रहा है।

      समुद्र और जंगलों का इतना जुड़ाव है , कि समुद्र के वातावरण में पैदा हुए असंतुलन से हमारे जंगल समाप्त हो सकते हैं; क्योंकि समुद्री प्रदूषण बारिश के रूप में हमें बहुत हानि पहुँचा सकता है।हम अपनी फैक्ट्रियों में कितना पानी स्वच्छ कर पाएँगे यह तो बाद की बात है लेकिन पानी का मुख्य स्रोत तो बारिश ही है।

धरती पर उपलब्ध जल का लगभग 97 % ( प्रतिशत) जल सागरों में है और सागर हमारी धरती के लगभग 71% ( प्रतिशत) हिस्से पर है ।इसलिए सागर की उपस्थिति पर धरती का अस्तित्व निर्भर करता है ।आमतौर पर यह मान्यता है कि सागर बहुत विशाल हैं , इनमें कुछ भि डाल दिया जाए तो पर्यावरण पर इसका कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा , पर वास्तविकता इसके विपरीत है।

हम यह भी नहीं जानते कि पेडों से ज्यादा ऑक्सीजन समुद्र से मिलती है और समुद्रों से ऑक्सीजन हमें तभी मिलेगी जब हम समुद्र को साफ और स्वच्छ रखकर प्रदूषित होने से बचाएँगे।
जलवायु परिवर्तन की बात करते समय भी हम यह भूल जाते हैं 
कि कार्बन पृथक्करण सबसे ज्यादा समुद्र में होता है , जंगल में नहीं ।पेड़ पौधे समग्र पर्यावरण की रक्षा के लिए  अत्यन्त आवश्यक हैं, लेकिन सबसे अधिक ऑक्सीजन का उत्पादन तो समुद्र में होता है।इसलिए धरती को बचाने के लिए भी समुद्र का साफ रखना बहुत जरूरी है ।

<<<<<<समुद्री पर्यावरण को माइक्रोप्लास्टिक नुकसान>>>>>>

समुद्री पर्यावरण को माइक्रोप्लास्टिक बहुत नुकसान पहुँचा रही है।इससे सम्बंधित उदाहरण भी आए दिन देखने को मिल रहे हैं और इन सब परिस्थितियों के लिए हम मनुष्य ही जिम्मेवार हैं ।ऐसा ही एक उदाहरण---- भारत के तमिलनाडु में सन् 2007 अगस्त पंबन साउथ तट के किनारे 18 फुट लम्बी व्हेल शार्क मरी हुई मिली ।
शव परीक्षण के बाद वन्य अधिकारियों ने बताया कि उसके पाचन तंत्र में प्लास्टिक की चम्मच फँसी हुई थी।कुछ खाते हुए व्हेल शार्क के शरीर में चली गई होगी।

समद्र में प्लास्टिक पहुँचने का प्रमुख कारण शहरों के नदी-नालों का कचरा सीधे समुद्र में मिल जाना है।अनुमान है कि हर साल  13 मिलियन टन प्लास्टिक समुद्र के पानी में मिल जाती है।एक अध्ययन में यह पाया गया है कि 20 नदियाँ ( ज्यादातर एशिया की) दुनिया का दो तिहाई प्लास्टिक अवशिष्ट समुद्र में ले जाती हैं ।इसमें गंगा नदी भी शामिल है ।इसके लिए भी सीधे तौर पर हम जिम्मेवार हैं; क्योंकि नदियों में भी हम ही कचरा डाल रहे हैं ।

यदि प्लास्टिक- प्रदूषण से समुद्री पर्यावरण में होने वाले आर्थिक असर को देखा जाए , तो इससे पर्यटन को हुए नुकसान और समुद्री तटों की साफ-सफाई पर हुए खर्च का अनुमान प्रतिवर्ष 13 मिलियन डाॅलर लगाया गया है।

   सन् 2004 में पर्यावरण विज्ञानी रिचर्ड थाॅम्पसन द्वारा एक शब्द ' माइक्रोप्लास्टिक' का उपयोग किया गया था ।यूनिवर्सिटी ऑफ प्लिमथ के वैज्ञानिकों द्वारा किए एक अनुसंधान के अनुसार समुद्री जीव एक प्लास्टिक बैग ( किराने का सामान रखने वाला बैग) के 10 लाख माइक्रोस्कोपिक टुकड़े कर सकते हैं और जब ये माइक्रोप्लास्टिक के टुकड़े समुद्री जीव-जन्तुओं के आहार का हिस्सा बनते हैं, तो ये माइक्रोप्लास्टिक के टुकड़े उनकी मृत्यु का कारण बनते हैं । 

समुद्री वैज्ञानिकों ने इसके लिए यूरोप के उत्तरी और पश्चिमी समुद्र तटों में एंपीपोड ओर्चस्टिया द्वारा बैग के किए गए टुकड़ों का अध्ययन किया था। माइक्रोप्लास्टिक की समस्या के बारे में लोगों में अभी जागरूकता कम है, लेकिन वैज्ञानिक इसे और गहराई से जानने की कोशिश कर रहे हैं ।

जब  सन् 2018 की शुरुआत में ग्रीनपीस के एक जहाज ने अंटार्कटिका महाद्वीप से पानी के 17 नमूने लिए तो उनमें से 9 नमूनों में प्लास्टिक के टुकड़े पाए गए थे ।ओखी तूफान के कारण भी महाराष्ट्र, केरल, कर्नाटक, गोवा और गुजरात जैसे राज्यों के समुद्रतटीय इलाकों में प्लास्टिक के मलवों के ढेर इकठ्ठे हो गए हैं, जिन्हें देखकर अंदाजा लगाया जा सकता है हम अपने समुद्र और पर्यावरण को क्या दे रहे हैं ।

सन् 2016 में किए गए एक अध्ययन के अनुसार यह आशंका जताई जा रही है कि-- सन् 2050 तक समुद्री जल में मछलियों से भी ज्यादा प्लास्टिक हो सकती है।इन सभी अध्ययनों के आधार पर हम कह सकते हैं कि प्रकृति से हमें चेतावनियाँ मिलनी शुरु हो गई हैं ।यदि समय रहते हमने समुद्र को प्रदूषित होने से बचाने के प्रयास नहीं किए तो भयानक परिणाम सामने आ सकते हैं ।

                                           पर्यावरण संस्था 'ग्रीन पीस' के अनुसार-- हर साल लगभग 28 करोड़ टन प्लास्टिक का उत्पादन होता है, जिसका 20 % ( प्रतिशत) हिस्सा सागर में फेंक दिया जाता है ।इस प्लास्टिक कचरे के कारण समुद्री खाद्य श्रंखला पर भी प्रतिकूल प्रभाव पड़ रहा है। समुद्री कचरा , जमीनी कचरे की तरह एक जगह इकट्ठा न होकर पूरे सागर में फैल जाता है।इसलिए यह पर्यावरण, समुद्री यातायात और मानव स्वास्थ्य को बहुत नुकसान पहुँचाता है ।

भारत सहित 14 देशों के पीने के पानी पर किए विश्लेषण में यह पाया गया कि 83% पीने के पानी में माइक्रोप्लास्टिक शामिल है।
माइक्रोप्लास्टिक को हम आँखों से देख नहीं सकते यह हमारे पानी में भी हो सकती है और हमें इसके बारे में पता भी नहीं होगा।

ग्रीन पीस संस्था के शोध आँकड़ों के अनुसार-- प्रतिवर्ष लगभग दस लाख पक्षी और एक लाख स्तनधारी जानवर समुद्री कचरे के कारण काल का ग्रास बन जाते हैं ।हमारे देश में लगभग आठ हजार किलोमीटर लंबी समुद्र की तटरेखा पर सघन आबादी बसी हुई है ।जनसंख्या के बढ़ते  दबाव के कारण शहर अपने कचरे को सागर में डाल रहे हैं ।पिछले तीन दशकों से विश्व के बड़े देश भी अपना कचरा जहाजों में भरकर समुद्रों में डालते रहे हैं ।

विशालता के कारण समूचे सागर की सफाई संभव नहीं है ।इसलिए यह आवश्यक है कि समुद्र व सागर को कचरा निस्तारण का स्रोत न बनाया जाए, बल्कि भूमि पर ही कचरे-कूड़े के निस्तारण का उचित प्रबंध किया जाए और इस बारे में अधिक से अधिक जागरूकता फैलाई जाए।

 हमें समुद्री प्रदूषण व अन्य सभी प्रकार के प्रदूषणों को दूर करने के लिए प्लास्टिक का उपयोग कम करना होगा और पेड़ पौधे भी लगाने पडेंगे।नदियों और समुद्रों में कचरा डालने पर प्रतिबन्ध लगाना पड़ेगा ।तभी हम समुद्र को प्रदूषित होने से बचा सकते हैं ।



   "समुद्री प्रदूषण दूर भगाएँ जीवन में सुख-शान्ति लाएँ "

सादर अभिवादन व धन्यवाद ।

Monday, February 17, 2020

श्री गणेशोत्सव एवं इसका इतिहास, गणेश शब्द का अर्थ, प्रथम पूज्य गणपति,श्री गणेश स्वरुप के प्रतीतात्मक चिन्हों का वर्णन

<<<<<<<< श्री गणेशोत्सव एवं इसका इतिहास   >>>>>>>>
                     |||||श्री गणेशाय नमः|||||
          आदिपूज्यमं  गणाध्यक्षमुमापुत्रं   विनायकम्।
           मंगलं  परमं   रूपं     श्रीगणेशं    नमाम्यहम्।।
विघ्नविनाशक, आदिदेव, प्रथमपूज्य, मंगलकारक , गणनायक, गौरीपुत्र भगवान श्री का जन्मदिन भाद्र शुक्ल पक्ष की चतुर्थी के दिन मनाया जाता है और इस दिन से अनंत चतुर्दशी के दिन तक गणपति भगवान का पूजन-वंदन बड़े उत्साह के साथ मनाया जाता है।

गणेशोत्सव का इतिहास बड़ा प्राचीन है।गणेश जी को विघ्नहर्ता माना जाता है ।इसका पौराणिक व आध्यात्मिक महत्व है ।इस उत्सव को मनाने की परम्परा छत्रपति शिवाजी महाराज जी ने पूणे में  की थी।उन्होंने गणेशोत्सव का प्रचलन बड़ी उमंग एवं उत्साह के साथ किया था। इस उत्सव के माध्यम से उन्होंने जनजाग्रति का संचार किया। 

इसके पश्चात पेशवाओं ने भी इस परम्परा को आगे बढ़ाया ।गणेश जी पेशवाओं के कुलदेवता थे ।इसलिए वे भी अत्यन्त उत्साह के साथ गणेश पूजन किया करते थे।पेशवाओं के पतन के बाद यह उत्सव कमजोर पड़ गया और केवल मंदिरों व राजपरिवारों तक ही सिमट कर रह गया।इसके बाद 1892 में भाउसाहब लक्ष्मण जबाले ने सार्वजनिक गणेशोत्सव की शुरुआत की।

                                       स्वतंत्रता संग्राम सेनानी एवं समाज सुधारक लोकमान्य बालगंगाधर तिलक 'गणेशोत्सव' की परम्परा से अति प्रभावित हुए और 1893 में स्वतंत्रता का दीप प्रज्ज्वलित करने वाली पत्रिका " केसरी " में इस उत्सव को महत्वपूर्ण स्थान दिया। उन्होंने अपनी पत्रिका 'केसरी' के  कार्यालय में गणेश की स्थापना की और सभी से आग्रह किया कि सभी भगवान गणेश की पूजा - आराधना करें, ताकि उनके  जीवन में एवं समाज और राष्ट्र में आए विघ्नों का नाश हो।लोगों ने बड़े उत्साह के बाद इसे स्वीकार किया।इसके बाद गणेशोत्सव जन आंदोलन का माध्यम बना।

लोकमान्य तिलक ने इस उत्सव को जनजन से जोड़कर स्वतंत्रता प्राप्ति हेतु जनचेतना जाग्रति का माध्यम बनाया और उसमें वे सफल भी हुए।आज भी संपूर्ण महाराष्ट्र इस उत्सव का केन्द्र बिन्दु है, एवं अन्य सभी राज्यों में भी बड़ी धार्मिकता के साथ गणेशोत्सव मनाया जाता है। 

भाद्रपद चतुर्थी को गणपति स्थापना से शुरू होकर चतुर्दशी को होने वाले विसर्जन तक गणपति विविध रूपों में पूरे देश में विराजमान रहते हैं ।यह उत्सव जन-जन को एक सूत्र में पिरोता है।अपनी संस्कृति एवं धर्म का अनुपम सौन्दर्य भी है।जो सबको साथ लेकर चलता है।

             इस उत्सव के कुछ दिन  पहले श्रावण मास की पूर्णता, जब धरती पर हरियाली की छटा बिखेर रही होती है तब मूर्तिकारों के आँगन में विभिन्न प्रकार की गणेश प्रतिमाएँ आकार लेने लगती हैं ।प्रकृति के मंगलघोष के बाद मंगलमूर्ति की स्थापना का होना स्वाभाविक है। बाल गणेश से लेकर अन्य गणेश प्रतिमाओं में नृत्य करते, विविध वाद्य बजाते , दुष्टों का संहार करते , शिवत्व के संगी और मोदक का भोग पाते गणपति जितने रूपों में व्यक्त होते हैं, उतना ही व्यक्त जनमानस भी होता है।

प्रत्येक माह कृष्ण पक्ष की चतुर्थी का व्रत किया जाता है ।भाद्रपद में दोनों चतुर्थी का व्रत किया जाता है अर्थात शुक्लपक्ष में केवल भाद्रपद माह की चतुर्थी की ही पूजा होती है।भाद्रपद शुक्ल पक्ष की चतुर्थी अति विशिष्ट है इस तिथि को व्रत-उपवास करके अनेक लाभ प्राप्त किए जा सकते हैं ।इस तिथि में रात्रि में चन्द्र दर्शन निषेध माना जाता है ; जबकि शेष चतुर्थियों में चन्द्र दर्शन पुण्यफलदायी माना जाता है ।


महाराष्ट्र में तो गणेशोत्सव के अवसर पर घर-घर में, मन्दिरों में व शहर के अनेक स्थानों पर सजाए गए पंडालों में गणेश चतुर्थी के दिन विशेष पूजा-अर्चना के साथ गणेश जी की मूर्ति स्थापित की जाती है।दस दिन तक दोनों समय श्रद्धालु बड़ी श्रद्धा के साथ आरती वन्दन करते हैं व प्रसाद रूप में मोदक वितरित करते हैं । चतुर्दशी के दिन मंगलगान करते हुए शुद्ध जलाशयों में मूर्ति का विसर्जन करते हैं ।

भगवान गणपति की आराधना विफल नहीं जाती , संकटों का हरण करने वाले गणपति की कृपा से देश में सुख- शान्ति बनी रहती है।भगवान श्री गणेश सर्वस्वरूप, पूर्ण ब्रह्म, साक्षात परमात्मा हैं ।गणेश जी का एक नाम विनायक भी है ।इसीलिए गणेश चतुर्थी को विनायक चतुर्थी भी कहते हैं ।श्री गणेश आदिशक्ति, प्रकृति स्वरूपा माँ गौरी की संतान हैं ।इसी कारण इन्हें प्रकृति से अत्यन्त प्रेम है।इनकी प्रिय वस्तुओं में दूर्वा, शमीपत्र , लालफूल, सिंदूर व प्रिय भोग मोदक ( लड्डू) हैं ।

                आज तकनीकी युग होने से  घर पर ही टीवी के माध्यम से  पूरे देश में विराजमान गणपति के दर्शन करने का सौभाग्य प्राप्त होता है।दर्शन पाकर मन में प्रसन्नता होती है।इंटरनेट पर भी सभी एक दूसरे को गणेशोत्सव की शुभकामनाओं का आदान-प्रदान करते हैं ।

 <<<<<<<<< गणेश शब्द का अर्थ >>>>>>>>>

                                          गणेश शब्द का अर्थ है-- गणानां जीवजातानां यः ईशः सः गणेशः।अर्थात जो समस्त जीव-जाति के  ईश अर्थात स्वामी ।ब्रह्म वैवर्त पुराण में भगवान विष्णु   'गणेश' शब्द की दार्शनिक व्याख्या करते हुए कहते हैं-- ज्ञानार्थवाचको गश्च णश्च निर्वाणवाचकः ।तयोरीशं परं ब्रह्म गणेशं प्रणमाम्यहम्।       अर्थात 'ग ' ज्ञानार्थवाचक और ' ण' निर्वाण वाचक हैं ।इन दोनों ( ग+ण) के जो ईश हैं, उन परम ब्रह्म ' गणेश ' को मैं प्रणाम करता हूँ ।

                                   संस्कृत में 'गण' शब्द समूहवाचक माना गया है-- गणशब्दः समूहस्य वाचकः परिकीर्तितः।अर्थात  गणपति शब्द का अर्थ हुआ-- समूहों का पालन करने वाला परमात्मा ।एक अन्य  अव्यय के अनुसार- गणानां पतिः गणपतिः।अर्थात-देवताओं के अधिपति को गणपति कहते हैं ।इसके अतिरिक्त यह भी कहा गया है-- निर्गुण-सगुण ब्रह्म गणानां पति गणपतिः।अर्थात जो निर्गुण और सगुण , दोनों रूप में व्यक्त ब्रह्म का अधिपति है , वह परमेश्वर  ' गणपति 'है।

          <<<<<< प्रथम पूज्य गणपति >>>>>>>

               भगवान गणेश आदिदेव हैं, प्रथम पूज्य हैं, गणाधीश हैं, गणपति हैं ।ऐसी मान्यता है कि सारे संसार के नियंता परब्रह्म परमात्मा ही गणपति हैं ।यह गणपति निर्गुण-निराकार स्वरूप में प्रणव (ॐ) तथा सगुण-साकार रूप में गजमुख (गजानन) हैं ।

         पौराणिक मान्यता के अनुसार-- गणेश जी ऋद्धि-सिद्ध के पति हैं और शुभ-लाभ इनके पुत्र हैं ।श्री गणेश को 'विघ्नेश्वर'कहा जाता है ।इसलिए हर मांगलिक कार्य को निर्विघ्न संपन्न करने के उद्देश्य से  गणेश जी का पूजन किया जाता है ।श्री गणेश जी की पूजा से समस्त देवताओं का पूजन स्वतः हो जाता है ; क्योंकि वे गणपति कहलाते हैं ।

श्रीरामचरितमानस के बालकान्ड के 100 वें दोहे में तुलसीदास जी कहते हैं कि--
 
          मुनि  अनुसासन  गनपतिहि  पूजेउ संभु भवानि।
        कोउ सुनि संसय करै जनि सुर अनादि जियँ जानि।।
अर्थात भगवान शिव व माता पार्वती ने विवाह के समय ऋषि-मुनियों की आज्ञा से गणेश जी का पूजन किया, यह इनका आदिदेव होने का प्रमाण है।इसीलिए मांगलिक कार्यों में, विवाहों में सर्वप्रथम गणेश का स्मरण करते हुए पूजन-वंदन किया जाता है और उनसे प्रार्थना की जाती है कि वे अशुभता का शमन करें और जीवन में शुभता का आगमन हो।शुभता के प्रतीक भगवान गणेश प्रथम पूज्य हैं ।किसी भी देवी-देवता का आवाहन व पूजन करने से पूर्व भगवान गणेश का पूजन किया जाता है, इसलिए इन्हें प्रथम पूज्य माना गया है।

शिव पुराण के अनुसार--- पार्वती-पुत्र गणेश जी की उत्पत्ति उनकी देह में लगे उबटन से हुई थी जब कि ब्रह्मवैवर्त पुराण के अनुसार-- माता पार्वती को गणेश जी पुत्र के रूप में पुण्यक व्रत के फलस्वरूप प्राप्त हुए थे।कारण जो भी रहा हो , हमारे पौराणिक ग्रन्थ एवं ऋषिमुनि भी गणेश जी को प्रणवस्वरूप (ॐ) बताते हैं ।

मान्यता के अनुसार सतयुग में भगवान गणेश ने 'विनायक' नाम से अवतार लिया ।त्रेतायुग में षड्भुजी ( छः भुजाओं वाले) गणेश मयूर को अपना वाहन बनाने के कारण 'मयूरेश' कहलाए।द्वापर युग में 'गजानन' गणेश चतुर्भुज थे तथा मूषक उनका वाहन बना।मूषकध्वज गजानन ने सिंदूरासुर का संहार किया और राजा वरेण्य को  " गणेश-गीता"  का उपदेश दिया।

<<<<<  श्री गणेश स्वरुप के प्रतीतात्मक चिन्हों का वर्णन >>>>>

भगवान गणेश जी का स्वरूप परम रहस्यमय है ,उनके इस रहस्य को कोई भेद नहीं सकता।भगवान गणपति का मुख गज यानी हाथी का है और संपूर्ण शरीर मनुष्य के समान है ।पौराणिक कथा के अनुसार भगवान शिव द्वारा उनके मस्तक पर हाथी का सिर लगाने के कारण उन्हें गजानन कहा जाता है।गणेश जी का गजमुख होना व एकदन्त होना उनकी निश्चयात्मिका बुद्धि और अद्वैत का परिचायक है।

गणेश जी का एक नाम लम्बोदर भी है; क्योंकि समस्त सृष्टि उनके उदर में विचरती है।गणपति समान रूप से देवलोक, भूलोक और दानवलोक में प्रतिष्ठित हैं ।गणेश जी ब्रह्मस्वरूप हैं और उनके उदर में ये सभी लोक समाहित हैं ।इसी कारण उन्हें लम्बोदर कहते हैं ।उनके बड़े-बड़े कान अधिक ग्राह्य शक्ति और छोटी आँखें सूक्ष्म, परंतु तीक्ष्ण दृष्टि को दर्शाती हैं ।उनकी लम्बी नाक ( सूँड)महाबुद्धि
का प्रतीक चिन्ह है।

भगवान गणपति एकदंत और चतुर्बाहु हैं ।वे अपने चारों हाथों में क्रमशः पाश, अंकुश, मोदकपात्र और वरदमुद्रा धारण करते हैं ।पाश- मोह रूपी तमोगुण का , अंकुश- रजोगुण का और वरदमुद्रा-
सतोगुण का प्रतीक है और मोदक इन तीनों गुणों से अलग होने के कारण गणपति को अधिक प्रिय है।

गणपति का वाहन मूषक उस मंत्र की भाँति है , जो धीरे-धीरे अज्ञान की एक-एक परत को काटकर भेद देता है और उस परम ज्ञान की ओर ले जाता है जिसका प्रतिनिधित्व गणेश जी करते हैं ।

मोदक देखने में गोल आकार का होता है और यह गोलाई महाशून्य का प्रतीक है। गणपति भगवान स्वयं "ॐकार"  का  साक्षात प्रतीक- स्वरूप हैं ।उनके शरीर की आकृति भी उनके प्रणवस्वरूप का आभास देती है।इस कारण शुक्लयजुर्वेद कहता है -- ' प्रियाणां त्वा प्रियपति ' अर्थात गणपति प्रिय में प्रियपति हैं और निधियों में निधिपति हैं ।गणपति के रूप में एक व्यष्टि से लेकर समष्टि तक परिव्याप्त हैं ।

गणेश जी को लाल पुष्प एवं सिंदूर अति प्रिय है; क्योंकि यह उनकी माता पार्वती का श्रंगार है।दूर्वा इस तथ्य का द्योतक है कि प्रकृति की हरीतिमा का संवर्द्धन किया जाए।शमी वृक्ष को वहिवृक्ष भी कहते हैं ।वहि का पत्र गणेश जी को अत्यन्त प्रिय कहा गया है।
                        सामान्यतः गणेश जी का व्रत बुधवार को किया जाता है।गणेश जी के कई मन्त्र हैं ।गणेश मन्त्रों का जप हल्दी की माला से किया जाता है।गणेश जी हमारी बुद्धि को परिष्कृत एवं परिमार्जित करते हैं और हमारे विघ्नों का समूल नाश करके सदा मंगल करते हैं ।गणेश अथर्वशीर्ष में कहा गया है -- "त्वमेव सर्वं खल्विदं ब्रह्मासि।त्वं साक्षादात्मासि नित्यम्।" ये ही ब्रह्म स्वरूप नित्य हैं ।

 गणेश जी की पूजा आराधना एवं हर्षोल्लास के साथ मनाया जाने वाला ग्यारह दिवसीय "गणेशोत्सव" हमें प्रेरणा देता है कि हम भगवान गणेश के प्रतीक चिन्हों से प्रेरणा लें और अपने जीवन को शुभमार्ग की ओर ले चलें ।
  " पार्वती सुत तुम्हें प्रणाम, हे शिवनन्दन तुम्हें प्रणाम "

सादर अभिवादन व धन्यवाद ।







Sunday, February 16, 2020

पर्यावरण की रक्षा --- जहाँ चाह वहाँ राह, पर्यावरण की कैसे सुरक्षा करते हैं--- झारखंड के "साइमन उरांव"

<<<<<<< पर्यावरण की रक्षा -- जहाँ चाह वहाँ राह >>> >>>>
    मानव जीवन को सुखी व समृद्ध करने के लिए पर्यावरण में संतुलन अति आवश्यक है।वायु प्रदूषण, जल प्रदूषण, ध्वनि प्रदूषण व अन्य सभी प्रदूषणों को दूर करने में पेड़-पौधों की अत्यन्त महत्वपूर्ण भूमिका होती है।लेकिन आज मानव जीवन की जरूरतें बढ़ रही हैं इसलिए पेड़-पौधों को समाप्त करके भवन निर्माण कार्य अधिक हो रहे हैं ।परिणामस्वरूप पर्यावरण दिन पर दिन अधिक प्रदूषित होता चला जा रहा है।

आज हम चाहकर भी पर्यावरण संतुलित नहीं कर पा रहे हैं या शायद हम उतने जागरुक नहीं हो पा रहे जितना होना चाहिए ।हमारे भविष्य की पीढ़ियों के सुखों के लिए जलवायु संतुलित करना अति आवश्यक है ।

            जहाँ चाह वहाँ राह--- यदि व्यक्ति कुछ अच्छा करने की ठान ले  तो मार्ग में कितनी भी वाधाएँ हों , उसे आगे बढ़ने से नहीं रोक सकतीं ।ऐसे व्यक्ति कोई न कोई मार्ग अपने लिए तलाश ही लेते हैं ।वर्तमान समय में कुछ लोग पर्यावरण की सुरक्षा के लिए अपना सर्वश्रेष्ठ योगदान दे रहे हैं ।पेड़- पौधों से अपनी प्रकृति का श्रंगार कर रहे हैं ।

<<<<< पर्यावरण की कैसे सुरक्षा करते हैं,"साइमन उरांव" >>>>>

हर्ष की बात यह है कि हमारे देश के कुछ प्रकृति पुजारियों में एक 
हैं-- झारखंड प्रदेश के 85 वर्षीय  "साइमन उरांव" । ये पर्यावरण अंसंतुलन के दुष्प्रभावों को समझ रहे हैं ।और अपनी कठिन मेहनत और लगन से पेड़-पौधों का पालन-पोषण कर रहे हैं।

साइमन उरांव आज 85 वर्ष की उम्र होते हुए भी प्रातः साढे चार बजे उठकर अपने आस-पास के पेड़- पौधों और जंगलों की देख- भाल करने के लिए निकल जाते हैं और दोपहर तक घर लौटकर आते हैं ।इस उम्र में भी वे हर साल एक हजार पेड़ लगाने के लक्ष्य को पूरा करते हैं ।इनका मानना है कि पेड़- पौधे हमारे बच्चों की तरह ही हैं और उनकी अच्छी देख-भाल जरूरी है ।उन्हें खाद-पानी देना पड़ता है ।बीमार पड़ने पर उनका इलाज करना पड़ता है ।
तभी वे अच्छी तरह से फलते-फूलते हैं ।

वे अपने पूर्वजों की यह बात सदा याद रखते हैं, कि--- " बिना जरूरत के अगर किसी पेड़ की एक डाली भी काट ली जाए तो वनदेवी नाराज हो जाती हैं ।" वे किसी को बिना जरूरत एक पेड़ भी नहीं काटने देते।लगभग 28 वर्ष की आयु में ही ये खेती के काम में लग गए थे।

साइमन उरांव के पिता जी और चाचा जी , खेतों में धान रोपने के बाद मजदूरी के लिए चले जाते थे।एक बार धान की फसल सूख जाने के कारण गाँव में खाने का भी अकाल पड़ने लगा।लोगों का मानना था कि किसी माफिया ग्रुप के लकड़ी काटे जाने के कारण गाँव में सूखा पड़ रहा है , अतः वन का दोबारा पनपना जरूरी है।
  
साइमन उरांव  ने सभी गाँव वालों को इकट्ठा किया और मन में ठान लिया कि अब किसी को पेड़ नहीं काटने देंगे और अधिक से अधिक पेड़ लगाकर पूरे इलाके को हरा-भरा करेंगे, तभी सूखे का संकट दूर होगा।हालाँकि लकड़ी माफियाओं से टकराना आसान नहीं था, लेकिन वे गाँव वालों की एकता देखकर पीछे हट गए।

इसके बाद से तो साइमन उरांव ने कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा और लगातार अपनी लगन और मेहनत से पेड़-पौधे लगाकर प्रकृति की सेवा करके पर्यावरण को संतुलित करने में महाभूमिका निभा रहे हैं ।पेड़- पौधों की सेवा के साथ-साथ उन्होंने पेड़-पौधों की सिंचाई के लिए जगह-जगह पर कुँए और तालाब भी खुदवाए ,
जिससे जलसंकट भी दूर हुआ।इन कुओं और तालाबों का लाभ उनके ब्लाॅक के लगभग पचास गाँवों को मिलता है।

                               उन्होंने पानी रोकने के लिए कच्चे बाँध बनवाए , लेकिन जब वे टिक न सके तो सरकार से मदद लेकर फिर वहाँ पक्के बाँध बनवाए ।उसके बाद उन्होंने अपने साथियों के साथ मिलकर उन बाँधों को कुओं और तालाबों के साथ जोड़ दिया जिसके फल स्वरूप-- पहले जिस खेत में एक साल में एक फसल लग पाती थी , आज वहाँ वे लोग एक साल में तीन फसल उपजा लेते हैं ।

आज देश में तो क्या सम्पूर्ण विश्व में पर्यावरण बहुत प्रदूषित हो चुका है जिसके कारण मानव जीवन में अनेक समस्याएँ उत्पन्न हो रही हैं ।सबका हल है -- अधिक से अधिक पेड़-पौधे लगाना।

आज हमें जरूरत है " साइमन उरांव "  के प्रयासों से प्रेरणा लेने की।सचमुच ऐसे लोगों का जीवन धन्य है जो पेड़-पौधे लगाकर पर्यावरण को शुद्ध व संतुलित कर रहे हैं ।सभी प्रकृति प्रेमियों को सादर नमन। आओ हम सब भी साइमन उरांव की तरह प्रकृति की सेवा करें, 
         "प्रकृति सेवा ही ईश्वर की आराधना है।"

सादर अभिवादन व धन्यवाद ।


Saturday, February 15, 2020

मुस्कराने की आदत से लाभ ही लाभ, वैज्ञानिकों के अनुसार मुस्कराहट के प्रभाव ।

  <<<<<<<  मुस्कराने की आदत से लाभ ही लाभ >>>>>>>
मुस्कराहट  व्यक्तित्व की शान होती है।मुस्कराता हुआ चेहरा सबको आकृष्ट करता है।मुस्कराहट अजनबियों से भी दोस्ती के तार जोड़ देती है।चेहरे पर छाने वाली एक मुस्कराहट थोड़ी देर के लिए हर तरह के तनावों से दूर कर देती है।मुस्कराहट से हमारे आस-पास का वातावरण भी खुशनुमा बन जाता है।मुस्कराता चेहरा सभी के लिए सदा आकर्षण का केन्द्र होता है।

जो लोग मुस्कराकर हर समस्या का समाधान ढूँढने में विश्वास करते हैं वे सफलता प्राप्त करके ही रहते हैं ।मुस्कराहट स्वास्थ्य के लिए सबसे अच्छी औषधि है।हाँ , बस मुस्कान कृतिम या बनावटी न होकर स्वाभाविक होनी चाहिए ।मुस्कराहट एक व्यायाम की तरह है , जो व्यक्ति के चेहरे पर चमक बनाए रखने में सहायक होती है। मुस्कराहट से न केवल दूसरों को आकर्षित किया जा सकता है बल्कि खुद को भी एक सुखद एहसास से भरा  जा सकता है क्योंकि मुस्कराहट से स्फूर्ति व ऊर्जा का संचार होता है ।
 
<<<<<<मनोवैज्ञानिकों के अनुसार मुस्कराहट के प्रभाव >>>>>

मनुष्य के चेहरे के भावों पर मनोवैज्ञानिक शोध करते रहते हैं ।मनोवैज्ञानिकों का मानना है कि मुस्कराने की आदत न सिर्फ स्वास्थ्य पर सकारात्मक प्रभाव डालती है ; बल्कि जीवन और खुशियों के बीच सामंजस्य बैठाने में भी सहायक होती है।

कहा जाता है कि जन्म लेते ही शिशु रोता है, चार-पाँच सप्ताह बाद मुस्कराता है तथा चौथे-पाँचवें महीने में हँसने लगता है।मनोवैज्ञानिकों के अनुसार-- हमारे मस्तिष्क में माइनर न्यूरॉन पाया जाता है , जो मुस्कान पैदा करता है।मुस्कान भी हमारी बाॅडी लेंग्वेज का एक हिस्सा है।

स्टैनफोर्ड विश्वविद्यालय के प्रमुख डॉक्टर विलियम फ्रेंक का कहना है कि मुस्कराते चेहरे वाले लोग दूसरे लोगों की अपेक्षा अधिक स्वस्थ रहते हैं ।उनकी रोगप्रतिरोधक शक्ति भी औरों से अधिक होती है।वे निर्णय भी जल्दी लेते हैं ।वे छोटी-छोटी बातों में तनाव नहीं लेते।

मनोवैज्ञानिक केल्टर का मानना है कि  " सच्ची प्रेममय मुस्कान का अभ्यास जीवन पर सकारात्मक प्रभाव डालता है।"  मनोवैज्ञानिक व भावनात्मक रूप से सच्ची मुस्कान व्यक्ति के मस्तिष्क तक यह संदेश पहुँचाती है कि वह सुरक्षित है।मुस्करा कर बात करने वाले से सभी लोग जल्दी प्रभावित हो जाते हैं ।

                              मनोवैज्ञानिकों का यह मानना है कि जब व्यक्ति जान-बूझकर कोई झूठ बोलता है तो वह सामान्य से कम मुस्कराता है।झूठी मुस्कान सच्ची मुस्कान से अधिक नकली होती है इसलिए दूसरों को प्रभावित करने की क्षमता कम रखती है।मुस्कान के छह प्रकार हैं-- बंद ओठों की मुस्कान, तिरछी मुस्कान,
बंद जबड़ों की मुस्कान, ऊर्ध्व स्मित मुस्कान, खुले मुँह की मुस्कान
और स्थाई मुस्कान ।

हमारी मुस्कराहट से हमारे आस-पास के लोगों पर हमारे व्यक्तित्व का उत्साहवर्द्धक असर पड़ता है।कहते हैं- कि डॉक्टर के हँसते  हुए चेहरे से मरीज की आधी बीमारी ठीक हो जाती है।मुस्कराहट व्यक्ति के जीवन में एक जादुई असर दिखाती है।मुस्कराहट का यह जादू हर कोई कर सकता है और सबके चेहरे पर मुस्कराहट ला सकता है।इसलिए सभी को मुस्कराने की आदत डालनी चाहिए ।

यदि लोग अपनी समस्याओं और परेशानियों के मध्य अपनी स्वाभाविक मुस्कान को बनाए रख सकेंगे, तो पाएँगे कि कुछ ही समय में उनकी समस्याएँ भी समाधान सरलता से दे देंगी।मुस्कराकर किसी को सिर्फ खुश ही नहीं करते बल्कि दूसरों की पीड़ा भी कुछ देर के लिए कम कर सकते हैं ।

मुस्कराने में कुछ खर्च नहीं होता, यह सिर्फ मन की प्रेरणा और अधरों की हरकत होती है।ऐसा लगता है कि मुस्कराना सिर्फ एक सामान्य शारीरिक प्रक्रिया है, लेकिन वास्तव में ऐसा है नहीं; क्योंकि जब तक व्यक्ति के मन में उल्लास, खुशी, शांति, संतोष का भाव न हो तब तक अधरों पर मुस्कान नहीं आती।मुस्कराने से हमारे मन की नकारात्मक भाव दूर हो जाते हैं ।

मानव प्रकृति पर शोध करने वाले मनोवैज्ञानिकों का यह कहना है कि मुस्कराहट की 19 किस्में होती हैं और हर मुस्कराहट का अपना अलग अंदाज होता है।मुस्कराते हुए चेहरे जल्दी ही कहीं भी अपनी पहचान बना लेते हैं ।कोई भी चीज बाँटने से कम नहीं होती इसलिए आज से ही हम मुस्कान बाँटने की आदत बनाएँ ।

      "मुस्कराहट से जीवन में अमृत वर्षा होती है। आओ हम सब मूस्कराएँ।:

सादर अभिवादन व धन्यवाद ।

Friday, February 14, 2020

महामंत्र "राम-नाम" का महत्व एवं महामंत्र " राम-नाम " से मोक्ष प्राप्ति

  <<<<<<<<  महा मंत्र " राम-नाम " का महत्व  >>>>>>>>
राम नाम महामंत्र है, प्रभु का पावन मंत्र है ।इस मंत्र को भगवान शिव भी जपते हैं ।राम-नाम का जप करने में अमृत सा स्वाद है और यही स्वाद मोक्ष रूपी परिणाम प्रकट करता है।जिह्वा से राम नाम का उच्चारण होते ही जीवन का परिदृश्य बदल जाता है, जीवन के बाहरी और भीतरी क्षेत्र में प्रकाश ही प्रकाश भर उठता है।राम नाम के उच्चारण से शरीर और मन दोनों ज्योतिर्मय होने लगते हैं ।

राम -नाम का उच्चारण जीभ से होता है, देह से होता है, स्वरों से होता है परन्तु उसमें लीन होते हैं-- प्राण और मन। राम-नाम के उच्चारण से मन रूपांतरित होने लगता है और हृदय के द्वार खुलने लगते हैं ।राम- नाम नेत्र है अर्थात बोध कराने वाला है, अनुभव प्रदान करने वाला है।जिस ज्ञान से राम न दिखे , राम की अनुभूति न हो , जिस ज्ञान से परमात्मा साक्षात और साकार न हो , वह ज्ञान निरर्थक है।राम ज्ञान का नेत्र है इसलिए हमें भटकने से बचाता है, हमारे जीवन को सही राह दिखाता है।राम नाम के द्वारा हम परमात्मा से साक्षात्कार कर सकते हैं ।

    राम-नाम अनमोल रतन है , जप लो इसको प्राणी।
    ऋषि मुनि सब जपते इसको, है ये अमृत वाणी ।।

 राम नाम भारतीय संस्कृति का एक अभिन्न अंग है।राम नाम के बिना हम अधूरे भारतीय हैं ।राम- नाम के दो अक्षर मधुर हैं, मनोहर हैं ।मधुरता जिह्वा का स्वाद होती है और मनोहरता , मन की लीनता।जीवन में राम नाम से अधिक और कुछ नहीं है।राम-नाम में स्वाद है, अमृत है , इसमें तृप्ति, तुष्टि, सुगति और मोक्ष भी है।राम नाम से जो तरंगें एवं लहरें उठती हैं वे अत्यन्त आनन्ददायी होती हैं ।

राम-नाम भक्त और भगवान के बीच का सेतु है, दोनों को जोड़ता है।प्रभु से जुड़ाव के मिलन का यह आनंद होता है और इससे जो प्रसन्नता होती है , यही तो परम मोक्ष है।राम नाम किसी भी अवस्था में जपा जाए इसका परिणाम सदा सुखद ही होता है ; क्योंकि राम-नाम सार्वजनिक एवं सर्वकालिक है।इसे कोई कहीं मी , किसी भी समय में जप सकता है।इसीलिए गोस्वामी तुलसीदास जी कहते हैं---
 
 भायँ  कुभायँ अनख आलसहूँ। नाम जपत मंगल दिसि दसहूँ ।।

राम- नाम रूपी महामंत्र पर कोई प्रतिबन्ध नहीं है ।अन्य  मंत्रों के लिए तिथि, मुहूर्त, घड़ी, स्थान एवं काल आदि निर्धारित होते हैं ।राम-नाम सभी का मंत्र है। राम नाम के जप से सम्पूर्ण ज्ञान प्रकट हो जाता है।

    राम नाम की ज्योति जलाकर, जीवन को चमकाओ।
     राम नाम जप करो निरन्तर,  परम धाम को पाओ ।।

राम-नाम जिस वर्णमाला से लिखा जाता है, वह उसकी देह है।वर्णमाला देह है और राम-नाम उसके नेत्र हैं ।सारा ज्ञान वर्णमाला में ही समाहित होता है।वर्णमाला के बिना हम आपने ज्ञान को अभिव्यक्त नहीं कर सकते, अपने ज्ञान को आकार नहीं दे सकते।
तुलसीदास जी कहते हैं कि ' बरन विलोचन '  ।वरन् अर्थात वर्णमाला और लोचन अर्थात नेत्र ।राम- नाम वर्णमाला के नेत्र हैं ।

 <<<<<<< महामंत्र " राम-नाम" से मोक्ष प्राप्ति >>>>>>>>

राम-नाम के जप से जन्म-जन्मांतर की सारी गाँठें खुल जाती हैं ।ये गाँठें हमने अपने कर्मो के कारण ही बाँध रखी हैं ।शरीर से प्राण का जुड़ाव है, प्राण से मन जुड़ा है और मन से जीवात्मा जुड़ी है।शरीर में बड़ी सूक्ष्म ग्रन्थियाँ हैं ।ये ग्रन्थियाँ खुलते ही मनुष्य जीवनमुक्त होने लगता है।राम- नाम के निरन्तर जप से इन ग्रन्थियों का भेदन होता है।राम-नाम ऐसी कुंजी है, जो सभी ग्रन्थियों का भेदन करती है।

मुख्य रूप से तीन सूक्ष्म ग्रन्थियाँ होती हैं-- ब्रह्म ग्रन्थि, रुद्र ग्रन्थि, और विष्णु ग्रन्थि।इन ग्रन्थियों का भेदन करके जीवन्मुक्त अवस्था प्राप्त की जा सकती है ।जीवन्मुक्त अवस्था के बारे में उपनिषद् का मंत्र कहता है---
         भिद्यते हृदयग्रन्थिश्छिद्यन्ते सर्वसंशया ।
       क्षीयन्ते चास्य कर्माणि तस्मिन् दृष्टे परावरे ।।--- मुंड.2/2/8
अर्थात अंत में हृदय की गाँठ खुल जाती है और जीवात्मा मुक्त हो जाती है।राम-नाम के जप से ऐसा दिव्य प्रकाश उत्पन्न होता है कि
मन में कोई संशय नहीं रहता।और न ही कोई प्रश्न उठता है।राम-नाम के जप से कर्म का अंधकार मिट जाता है और फिर कुछ भी जानना शेष नहीं रह जाता है।

   राम नाम है मुक्ति दाता , भव से पार कराए  ।
  इसके बिना कोई न जग में, सुख शान्ति को पाए ।।

अन्तर्राष्ट्रीय फूल दिवस, फूल प्रकृति का श्रंगार, भावनाओं की अभिव्यक्ति का माध्यम, फूलों के रासायनिक प्रभाव एवं औषधीय महत्व अर्थात सुगंध चिकित्सा ।

 ●●● अन्तर्राष्ट्रीय फूल दिवस, फूल प्रकृति का श्रंगार ●●●
 19 जनवरी अन्तर्राष्ट्रीय फूल दिवस के रूप में मनाया जाता है। इस सृष्टि में प्रकृति ने जब से विस्तार पाया तभी से फूलों की भी उत्पत्ति हुई होगी। फूल प्रकृति का श्रंगार हैं, ये प्रकृति का उपहार हैं ।फूलों के माध्यम से प्रकृति अपना श्रंगार करके वातावरण में अपनी सुगंध , सुन्दरता व विशेषता बिखेरती है।

परमेश्वर की अद्भुत कृति हैं- फूल।इस सृष्टि में फूलों की हजारों जातियाँ हैं ।प्रकृति के अद्भुत रहस्य व उसकी गूढ़ता का एहसास फूलों की विविधता भरी खुशबुओं और रंगों को देखकर लगाया जा सकता है।फूल प्रकृति की चेतनता , उर्वरता, सजीवता, व जीवंतता के प्रतीक हैं ।प्रकृति के साथ-साथ समूची पृथ्वी फूलों से शोभायमान होती है।

प्रकृति फूलों के माध्यम से अपनी प्रसन्नता व्यक्त करती है अर्थात जब फूल खिलते हैं तो प्रकृति भी इनके साथ मुस्कराती है।फूल वातावरण को न केवल सुगंधित व स्वच्छ करते हैं वरन् प्रकृति का सौन्दर्य भी बढ़ा देते हैं ।स्पष्ट है कि फूलों का मनुष्य समाज से सदियों पुराना रिश्ता है।फूल प्रसन्नता के प्रतीक हैं ।फूल समर्पण, सम्मान, सौंदर्य, संवेदना, सुकोमल भावनाओं व शुभकामनाओं के प्रतीक हैं ।

                मनुष्य व फूलों का रिश्ता आदिकाल से ही रहा है।मानव जीवन के विकास क्रम के साथ-साथ मनुष्य ने विभिन्न-विभिन्न फूलों की पहचान की और उन्हें अपने आस-पास उगाया, विकसित किया और उनका उपयोग भी किया।पूरी दुनिया में लगभग पैंसठ  (65) हजार प्रजातियाँ पाई जातीं हैं ।यह आश्चर्यजनक तथ्य है कि वनस्पतियों की विविधता के अलावा धरती पर किसी भी दूसरी प्रजाति की इतनी प्रजातियाँ नहीं पाईं जातीं ।

                      फूल शब्द का पर्याय ही मानो सौन्दर्य है।अनेक बार सौन्दर्य की उपमा फूलों से की जाती है।जैसे- कमल नयन, फूल जैसा बच्चा, गुलाब जैसा मुखड़ा इत्यादि-इत्यादि ।फूलों की सुन्दरता सहज ही सबको आकर्षित करती है और इनकी खुशबू  वातावरण में बिखरकर सुगंध बिखेरती है एवं वातावरण को पवित्र एवं ऊर्जावान भी बनाती है ; क्योंकि फूलों के समान सुंदर , पवित्र और सुगंधित और कुछ नहीं होता।इसीलिए फूलों से तरह-तरह के इत्र भी बनाए जाते हैं ।

 ●●● फूल हैं भावनाओं की अभिव्यक्ति का माध्यम ●●●

फूल मानव मन की भावनाओं की अभिव्यक्ति का अति सुन्दर माध्यम हैं ।ईश्वर की पूजा हो, किसी भी प्रकार का उत्सव हो, किसी को बधाई देनी हो , किसी के प्रति प्रेम दर्शाना हो-- सभी अवसरों पर फूलों के द्वारा भावनाएँ अभिव्यक्त की जाती हैं ; क्योंकि फूल अपनी सुगंध, अपनी पवित्रता व अपने सौन्दर्य से वह सब बयान कर देते हैं जो शब्दों में नहीं कहा जा सकता।फूल दिलों के बीच की दूरियाँ भी कम कर देते हैं ।

फूलों में भावनात्मक प्रगाढ़ता उत्पन्न करने का गुण है।एक अमेरिकी वैज्ञानिक पीयर्सन ने वर्षों  फूलों का अध्ययन किया और पाया कि फूल अपने चारों ओर के वातावरण में एक ऐसी ऊर्जा बिखेरते हैं जो व्यक्ति के मन में न केवल ताजगी भरती है, बल्कि इससे दिमाग को एक विशेष प्रकार की विश्रांति भी मिलती है।यही कारण है कि वातावरण को सजीव, सुगन्धित व सुसज्जित बनाने में ताजे फूलों को विशेष प्राथमिकता दी जाती है ।

दुनिया के किसी भी मनुष्य को कभी किसी ने यह नहीं सिखाया कि फूलों को पूजा में उपयोग करना चाहिए  या फूलों द्वारा प्रेम अभिव्यक्ति करनी चाहिए ।किसी ने कभी यह भी नहीं कहा कि फूलों को देखकर उल्लासित होना चाहिए ।फूलों के द्वारा जो कुछ भी व्यवहार शुरु हुआ है वह स्वतः ही हुआ है।दुनिया की हर संस्कृति व हर समाज में फूलों का महत्व है।दुनिया का हर समाज अपने इष्ट को फूल समर्पण करता है ,अपने प्रेम की अभिव्यक्ति  व श्रद्धांजलि भी फूलों के द्वारा करता है।

प्राकृतिक फूलों की भीनी खुशबू  वातावरण में सुगंध बिखेरती है व फूलों की अद्भुत छटा किसी का भी मन मोह लेती है और मन को तरोताजा कर देती है।फूलों का अध्ययन करने वाले वैज्ञानिक, फूलों से पैदा होने वाले भावनात्मक आकर्षण को देखकर आश्चर्य चकित हैं ।दुनिया के कोने-कोने में बसे हुए लोगों के मन में फूलों के प्रति जो भाव है , उसमें काफी समानता पाई जाती है।

         ●●● फूलों के रासायनिक प्रभाव ●●●

                फूलों के अत्यन्त  सकारात्मक प्रभाव होते हैं ।वैज्ञानिकों ने पाया है कि फूलों के व्यापक प्रभाव हैं ।ॠतुराज वसंत के आते ही जब प्रकृति में सब ओर फूल खिल  जाते हैं तो इन्सान का मन भी प्रसन्नता का अनुभव करता है।रंग-बिरंगे फूलों को देखने मात्र से व इनकी सुरभित सुगंध से लोगों के मन में ऐसी पुलकन पैदा होती है , जिसकी तुलना संभव नहीं है।

जापान के एक वैज्ञानिक कास्टूरा कौमूरा ने अपने अनुसंधान में पाया कि वसंत ऋतु में चारों तरफ खिले हुए फूल शरीर में ऐसे रसायन बनाते हैं जो हमारी भावनाओं को सुदृढ़ करते हैं।रसायन शास्त्रियों ने अपने अध्ययनों द्वारा प्रमाणित किया है कि ताजे फूलों की खुशबू वातावरण में मौजूद कार्बन- डाइऑक्साइड के असर को कम करती हैं ।

मनोवैज्ञानिकों का मानना है कि फूलों का संपर्क हर तरह के स्वभाव वालों की संवेदनाएँ जगाने की क्षमता रखता है।फूलों से हरे-भरे उपवन को देखकर अपराधी स्वभाव वाले मनुष्य भी एक बार ठहरकर फूलों को देखते जरूर हैं ।फूलों का यह रासायनिक प्रभाव ही है जिसके कारण फूल हर तरह के लोगों को अपनी ओर आकृष्ट कर लेते हैं ।रंग व सुगंधों के रसायन विज्ञान की इतनी उन्नति के बावजूद विज्ञान फूलों की विविधतापूर्ण खुशबुओं और रंगों की अनंतता देखकर आश्चर्यचकित है।

फूलों का यह रासायनिक प्रभाव ही है , जो लोगों को मुग्ध करता है और उन्हें अपनी ओर आकर्षित करता है।
 
●●● फूलों का औषधीय महत्व , सुगंध चिकित्सा ●●●

                         मनुष्य व फूलों का सम्बन्ध आदिकाल से ही रहा है।प्राकृतिक फूलों की अपनी महत्ता है ।प्राचीन काल से ही अलग-अलग तरह के फूलों की पहचान करके एवं उनका महत्व समझकर बड़े पैमाने पर फूलों को उगाया जाता रहा है और उनका प्रयोग भी किया जाता रहा है।फूलों की विशेष सुगन्ध के माध्यम से चिकित्सापद्धति विकसित की गई, जिसे आधुनिक भाषा में एरोमाथेरेपी ( सुगंध चिकित्सा ) कहते हैं ।फूलों का औषधीय महत्व भी है।

आधुनिक शोधों में पाया गया है कि फूलों की भिन्न-भिन्न किस्में और अलग-अलग गन्धें विभिन्न रोगों के उपचार में काम आ सकती हैं ।मानसिक तनाव जैसी परेशानियों से इन सुगंधों से लाभ मिलता है।वस्तुतः सुगंध चिकित्सा का प्रचलन प्राचीन काल से ही चला आ रहा है।गेलेन एवं सेल्सस प्रभृति चिकित्सा विज्ञानियों ने  सुगंध  चिकित्सा के क्षेत्र में विशेष ख्याति अर्जित की।वे शारीरिक एवं मानसिक बीमारियों के उपचार में विविध प्रकार के सुगंधित पुष्पों एवं जड़ी-बूटियों का उपयोग करते थे।

पिछले दिनों तत्कालीन सोवियत संघ में गंध चिकित्सा द्वारा रोग-निवारण के लिए वाक नगर ( रशियन फेडरेशन ) में एक अस्पताल खोला गया। उसमें रोगों के अनुसार रोगियों को अलग-अलग गंध वाले पुष्पों के गमलों के बीच बिठा दिया जाता है और उन्हें गहरी साँस लेकर सुगंध खींचने के लिए कहा जाता है।किस रोगी को कितनी देर तक , किस समय , किस फूल की गंध सूँघनी चाहिए-- यह उसके रोगनिदान के आधार पर किया जाता है।भिन्न-भिन्न फूलों में भिन्न-भिन्न रोगों के निवारण की क्षमता खोजी गई है और उस आधार पर गंध चिकित्सा पद्धति विकसित की गई है ।
 
आजकल वातावरण को खुशबू दार बनाने के लिए कृतिम खुशबू के भी उत्पाद मिलने लगे हैं ।यह कृतिम खुशबू वातावरण में मौजूद कार्बन-डाॅइऑक्साइड को कम करने के बजाय उसे और ज्यादा बढ़ा देती है कृतिम खुशबुओं के अधिक संपर्क में रहने से स्वास्थ्य संबंधी समस्याएँ भी हो सकती हैं ।

प्राकृतिक फूलों में विशेषताएँ ही विशेषताएँ हैं ।इसलिए मानव जीवन में फूलों का महत्व प्राचीन काल से ही रहा है।और आज भी मानव जीवन फूलों से सुशोभित हो रहा है।

हम सभी सदा फूलों की तरह मुस्कुराते रहें ।




Thursday, February 13, 2020

अन्तर्राष्ट्रीय प्रसन्नता दिवस-- बच्चों को खुश रहना कैसे सिखाएँ

    
          <<<<<<< अन्तर्राष्ट्रीय प्रसन्नता दिवस >>>>>>>        20 मार्च 2013 से अन्तर्राष्ट्रीय प्रसन्नता दिवस मनाने की परंपरा शुरु हुई है। प्रसन्नता को लेकर दुनिया भर में अनेक शोधकार्य चल रहे हैं ।इन्हीं में से एक शोध के अनुसार-- प्रसन्नता में बाहरी कारकों का सिर्फ 10 प्रतिशत योगदान रहता है ; जबकि 90 प्रतिशत प्रसन्नता स्वयं व्यक्ति पर निर्भर रहती है।शोध में यह बात भी सामने आई है कि इन खुशियों का उसकी जमीन जायदाद या उपलब्ध संसाधनों से कोई लेना-देना नहीं होता ।

प्रसन्नता के पल जीवन में हर पल मौजूद रहते हैं, बस जरूरत है उन तक पहुँचने की।जिसने प्रसन्नता को अपने जीवन में पाना सीख लिया , उसके लिए यह जीवन अनेक सुखद संभावनाओं का द्वार बन जाता है ।जीवन उसके लिए स्वर्ग समान हो जाता है।कहते हैं कि प्रसन्नता का कोई तय समीकरण नहीं होता ।व्यक्ति अपनी परिस्थितियों को किस तरह लेता है , उन्हें किस तरह समझता है --  ये तथ्य ही खुश रहने की राह दिखाते हैं ।

   यह सत्य है कि जीवन में सदा सब कुछ हमारी इच्छा के अनुसार नहीं हो सकता, इसके बावजूद भी ऐसा बहुत कुछ है जिससे हम अपने मन को समझाकर खुशियाँ हासिल कर सकते हैं ।यदि ऐसी छोटी-छोटी बातें बचपन से ही समझा दी जाएँ तो खुश रहने की आदत बन सकती है।

<<<<<<< बच्चों को खुश रहना कैसे सिखाएँ >>>>>>>>

खुशियों की पौध उगानी है तो इसके लिए बच्चों का मन बेहतर मनोभूमि है, क्योंकि उनकी मनोभूमि अभी उर्वर है ।यदि माता-पिता बच्चों को खुशमिजाजी की विरासत दे सकें तो बच्चों के लिए यह सर्वश्रेष्ठ उपहार होगा। हर अभिभावक की इच्छा यही होती है कि उनके बच्चे सदा हँसते-मुस्कराते रहें ।इसके लिए उनकी परवरिश ही इस तरीके से की जाए , जिससे वे हर परिस्थिति में खुश रहना सीख जाएँ ।उन्हें यह मंत्र शुरु से ही सिखाया जाए कि--
" मन के हारे हार है मन के जीते जीत "। उन्हें घर-परिवार में खुशनुमा माहौल मिले ताकि वे बड़े होकर स्वयं भी खुश रहें और दूसरों को भी खुशियाँ प्रदान करें ।

बच्चे बेहद संवेदनशील होते हैं, उनका मन कोमल होता है ।अतः उनके साथ जैसा व्यवहार किया जाता है , वह उनके मन को गहराई से स्पर्श करता है।अच्छा व्यवहार उनके व्यक्तित्व को निखारता है।इस तरह घर परिवार में बच्चों का व्यक्तित्व एक साँचे में ढलता है , जो उनके सम्पूर्ण जीवन की आधारशिला बनता है।

इसलिए यदि अभिभावक अपने बच्चों को खुशमिज़ाज बनाना चाहते हैं तो वे स्वयं खुश रहें और बच्चों को खुश रहने का तरीका सिखाने के लिए कुछ और बातों पर भी ध्यान दें--

विशेषज्ञों का  मानना है कि ज्यादातर बच्चे अपने बडों का अनुसरण करते हैं ।परिवार में वे जो कुछ भी देखते हैं, जीते हैं, उसी को वे जीवनभर अपने व्यवहार में दोहराते हैं ।बच्चों को इस बात के लिए तैयार करना भी जरूरी है कि जीवन में सब कुछ हमारी मर्जी से नहीं होता।इसलिए हर परिस्थिति को स्वीकारना सीखें ।कभी जीत भी मिलती है तो कभो हार भी स्वीकारनी पड़ती है ।इसलिए उन्हें सकारात्मकता का महत्व समझाएँ।

विशेषज्ञों का यह मानना  है कि खुशी की बड़ी वजह यह है कि व्यक्ति जो है वही बना रहे दूसरों के जैसा बनने की कोशिश न करे।
इसलिए बच्चों को यह समझाना जरूरी है कि उन्हें दूसरों की देखादेखी खुद को नहीं बदलना है, जो है उसे स्वीकार करना है और हर क्षेत्र में अपना सर्वश्रेष्ठ प्रयास करना है ।और प्रसन्नता से हर कार्य करना है।

            बच्चों की प्रसन्नता के लिए अभिभावकों को बच्चों के शारीरिक व मानसिक स्वास्थ्य पर भी ध्यान देना है।इसके साथ ही बच्चों को जीवन जीने के कुछ व्यावहारिक सूत्र भी सिखाएँ जैसे-- स्वयं सही निर्णय लेना, अपने छोटे-छोटे काम स्वयं करना , अपनी गलतियों से सीखना, सभी के साथ अच्छा व्यवहार करना , व्यस्त रहना । जिस बच्चे की जिस कला या किसी अन्य क्षेत्र में रुचि हो तो उसको उस दिशा में आगे बढ़ने को प्रेरित करना चाहिए ।

बच्चों को बताएँ कि अपने जीवन की खुशियाँ उन्हें खुद तलाशनी हैं और अपने जीवन में हँसी-खुशी के विविध रंग बिखेरने हैं कि यदि जीवन में कोई दुख भी आए तो उन खुशियों में विलीन हो जाएँ ।आज के समय में थोड़ा योगाभ्यास भी बचपन से ही जरूरी है।भविष्य की अत्यधिक चिंता भी खुशियाँ छीन लेती है अतः बच्चों को भी वर्तमान में जीना सिखाएँ ।

कभी भी बच्चों की पढ़ाई या जीवनशैली की अन्य बच्चों से तुलना न करें ; क्योंकि ऐसा करने से बच्चों में कभी-कभी हीनभावना भी आ जाती है, वे उदास रहने लगते हैं और चिड़चिड़े स्वभाव के भी हो जाते हैं ।यदि बच्चे अधिक देर तक गुमसुम रहें तो उनसे प्यार से वजह जानने की कोशिश करें और उनकी उदासी दूर करके उनके साथ समय बिताएँ।

कई बार देखने में आता है कि बच्चों के मन में कम उम्र में ही बुराई, ईर्ष्या, गुस्सा और बदला लेने की भावना बैठ जाती है , अक्सर ऐसे व्यवहार का कारण उनमें किसी कारण नकारात्मकता
का होना दर्शाता है।अभिभावकों को चाहिए कि प्यार के साथ उन्हें समझाकर नकारात्मता दूर करने का प्रयास करें ताकि वे खुश रह सकें ।

     अभिभावक बच्चों को  बताएँ कि वे जीवन में प्रगति करने के लिए ,आगे बढ़ने के लिए अपने मन की सुनें, अपने अंदर से आने वाली आवाज़ को सुनकर उस पर चलें , खुद को कभी किसी से कम न समझें ।बच्चों को यह भी सिखाएँ कि वे जरूरतमन्दों की मदद करें, बुजुर्गों की सेवा व सम्मान करें ।दूसरों में अच्छाइयाँ देखें और प्रशंसा करें ।जब बच्चों में ऐसे गुण विकसित होने लगेंगे तो वे प्रसन्नता व उत्साह से भरपूर दिखेंगे।

मनोवैज्ञानिक यह मानते हैं कि असल में खुशी हमारी सुविधाओं और वस्तुओं में नहीं होती, बल्कि हमारी आदतों में होती है।इसलिए यदि हम अपने  बच्चों को अच्छी आदतें सिखाएँगे तो वे खुद भी प्रसन्न रहेंगे और अपने जीवन को सुन्दर बनाएँगे।

संत जन भी यही कहते हैं कि जो अच्छी बातें  हम अपने  बच्चों को सिखाएँ, तो पहले खुद भी उन बातों पर अमल करें तो हमारा और हमारे बच्चों का जीवन स्वर्ग बन जाएगा।

 सादर अभिवादन व धन्यवाद ।



Wednesday, February 12, 2020

अन्तर्राष्ट्रीय प्रसन्नता दिवस ---- खुश रहना एक मानसिक दशा , हम कैसे खुश रहें ?

          <<<<<<अन्तर्राष्ट्रीय प्रसन्नता दिवस >>>>>>
संयुक्त राष्ट्र संघ ने 20 मार्च का दिन अन्तर्राष्ट्रीय प्रसन्नता दिवस घोषित किया है।भूटान के प्रधानमंत्री "जिग्मे वाई थिनले" की पहल पर 20 मार्च 2013 से ही यह दिवस मनाना शुरू किया गया है।
खुशी मनुष्य के जीवन का आधार है ।इसी कारण खुशी को विकास के पैमाने के तौर पर स्वीकारा गया है और दुनिया भर के कई देश इस पर नीतियाँ बनाकर उस पर अमल करने में लगे हैं ।संयुक्त राष्ट्र संघ ने विश्व भर के संगठनों और लोगों से शिक्षा और जागरूकता अभियानों के जरिए प्रसन्नता दिवस मनाने की अपील की है ।

            क्यों कोई खुश रहता है और कोई क्यों खुश नहीं रह पाता-- मनोवैज्ञानिक आज भी इस गुत्थी को सुलझा नहीं पाए हैं ।एक सर्वेक्षण के आधार पर--- फिनलैंड के लोग विश्व में सबसे ज्यादा खुश लोग हैं ।डेनमार्क, आइसलैंड, स्विटजरलैण्ड और नाॅर्वे उस सूची में शीर्ष देशों में शामिल हैं ; जबकि 155 देशों की उस सूची में भारत 133 वें स्थान पर है। इस सूची में सम्मिलित देशों में लगभग हजार लोगों से कुछ सवाल पूछे जाते हैं जिनके आधार पर यह सूची प्रतिवर्ष अन्तर्राष्ट्रीय प्रसन्नता दिवस ( वर्ल्ड हैप्पीनैस डे) 20 मार्च को जारी की जाती है।

  <<<<<<< खुश रहना एक मानसिक दशा है >>>>>>>

खुश रहना एक मानसिक दशा है, खुश रहने के लिए दौलतमन्द होना जरुरी नहीं है ।लगभग सभी अध्ययनों ने यह साबित किया है कि खुश रहने वाले लोग कुटुंब में रहते हैं ।उनकी अपने परिवार वालों से व दोस्तों से अच्छी निभती है।जनरल ऑफ सोशियो - इकोनाॅमिक्स के आँकड़ों के अनुसार खुश रिश्ते बहुत कीमती होते हैं ।

हार्वर्ड विश्वविद्यालय के हैप्पीनैस विशेषज्ञ डैनियल गिल्बर्ट के अनुसार- जीवन में जो भी चीजें हमें प्रसन्नता दे रही होती हैं, वे सब किसी न किसी रूप में परिवार व दोस्तों के माध्यम से ही आ रही होती हैं ।वर्षों तक इस विषय का अध्ययन करने वाले जाॅर्ज वैलंट के अनुसार--हमारे जीवन को जो सबसे अधिक प्रभावित करते हैं -
वे हैं दूसरों के प्रति हमारे सम्बन्ध ।इसलिए जीवन में रिश्ते बहुत मायने रखते हैं ।

दूसरों से जुड़ाव, लगाव,अपनत्व हमें बहुत सारी खुशियाँ देता है।
जो व्यक्ति दूसरों के साथ बड़ी आसानी से सहज रहते हैं, सामंजस्य बिठा लेते हैं, अपनत्व जोड़ लेते हैं, वे खुशियाँ पाते हैं और खुशियाँ बिखेरते है।आत्मीयता का विस्तार ही हमारी खुशियों को असीम बनाता है।

आधुनिक जीवनशैली में बाहरी समृद्धि को अधिक महत्व दिया जाता है इस समृद्धि के कारण मनुष्य अन्दर से खोखला हो गया है अर्थात उसकी सच्ची प्रसन्नता कहीं खो गई है।तनाव और चिन्ताएँ बढ़ गई हैं ।स्वाभाविक खुशी न जाने कहाँ खो गई है।समृद्ध होकर भी खुश नहीं रह पाते लोग।

खुशियाँ तो कभी किसी दराज के भीतर किसी पुरानी किताब के पन्नों में मिल जाती हैं तो कभी अपने पकाए बेस्वाद भोजन के स्वाद में भी महसूस होती हैं ; जबकि कभी-कभी पाँचसितारा होटल के मैन्यू में वह ढूँढने से नहीं मिलतीं ।कभी-कभी किसी बेकार बर्तन में चिड़ियों के लिए आधा गिलास पानी रखकर भी व्यक्ति सारा दिन खुश रह सकता है और कभी मन्दिर में 500 का प्रसाद चढ़ाकर भी खुश नहीं रह पाता ।

इस तरह देखा जाए तो खुशी का सम्बन्ध मन को संतोष व सूकून देने वाली भावनाओं से होता है। क्योंकि जो भावनाएँ मन को कचोटती हैं, असंतुलित करती हैं, वे कभी भी खुशियों से जुड़ी नहीं हो सकतीं ।
 
              <<<<<<< खुश कैसे रहें >>>>>>>

खुशी के पल जीवन को खिलखिला देते हैं, महका देते हैं, एक नई  ऊर्जा व उमंग से भर देते हैं,  इसलिए ऊर्जावान और प्रेरित बने रहने के लिए खुश रहना बहुत जरूरी है। खुशी के बिना जीवन में नीरसता छा जाती है लेकिन खुशी से हमारे जीवन में प्रकाश की तरंगें छा जाती हैं ।   

●●●  हम खुश कैसे रहें----- हमारे आस-पास ही खुश रहने के  ऐसे बहुत से साधन हैं लेकिन हम उनसे अनभिज्ञ हैं-------

1--- हम जिस वातावरण में रहते हैं, प्रकृति ने उसमें अपनी भरपूर कला व सुंदरता का समावेश किया है।बस, खुश रहने के लिए हमें हमारे आस-पास के प्राकृतिक सौन्दर्य को निहारने की जरूरत है ।

● 2--- हम हम हर पल अपने दोष और कमियों पर ही ध्यान देंगे तो उदास ही रहेंगे।इसकी जगह यदि हम अपने गुणों में वृद्धि करें और अपनी विशेषताओं का भरपूर उपयोग करें तो हमारी खुशी में वृद्धि होगी।

● 3--- अपनी रुचि व क्षमता के अनुसार  जीवन में एक लक्ष्य बनाएँ, और उस ओर प्रयासरत रहें ; क्योंकि वे व्यक्ति जीवन में अधिक खुश रहते हैं, जिनके जीवन का उद्देश्य स्पष्ट होता है।जीवन को उद्देश्य पूर्ण बनाना खुशियों को हासिल करना है।

● 4--- जीवन में हर पल कुछ नया सीखने की कोशिश करें ।नया सीखने से हमारी खुशियों में वृद्धि होती है और हमारी योग्यता भी बढ़ती है ।

● 5--- खुश रहने के लिए हमें सदा सकारात्मक रुख अपनाना चाहिए ; क्योंकि नकारात्मता हमारी खुशी छीन लेती है।इसलिए हर काम उत्साह के साथ करने की आदत रखनी चाहिए, जिससे 
नकारात्मकता हमसे दूर रहे।

● 6--- जीवन में बहुत सी ऐसी परिस्थितियाँ आती हैं जब हम प्रयास करके भी असफल रहते हैं ।ऐसे समय पर हमें घबराना नहीं चाहिए और फिर से संघर्ष करने के लिए तैयार रहना चाहिए जिससे कि हमारे मन में निराशा न हो और हमारी खुशी बरक़रार रहे।

● 7--- दूसरों की मदद करना, उनकी यथा संभव सहायता करना भी हमें आंतरिक खुशी देता है।इससे हमें सच्ची आंतरिक प्रसन्नता मिलती है।

● 8--- हमारे शरीर और मन का सम्बन्ध परस्पर एक - दूसरे से जुड़ा है।यदि शरीर स्वस्थ है तो मन भी स्वस्थ होगा।इसलिए खुश रहने के लिए शरीर और मन दोनों का ही स्वस्थ रहना जरूरी है अन्यथा हम खुशियों के पल को महसूस नहीं कर पाएँगे।

● 9--- खुश रहने के लिए अपने परिवार, मित्र, पड़ोसी व दैनिक जीवन में जो भी हमारे संपर्क में आते हों उन सभी से अच्छा व्यवहार रखना चाहिए ।यदि हम खुशियाँ देंगे तो पाएँगे भी।

● 10--- अपने भविष्य को अपार संभावनाओं व खुशियों से भरपूर निहारें ; क्योंकि उज्ज्वल भविष्य की संभावना व्यक्ति के अन्दर सकारात्मकता का बीजारोपण करती है और उसके भविष्य को सुंदर बनाती है।

खुशी पर हर व्यक्ति का नैसर्गिक अधिकार है कोई इसे हमसे छीन नहीं सकता ।हमारी खुशी हमारे स्वभाव पर ही निर्भर है।जीवन का हर पल हमें खुशियों से भर सकता है, यदि हम इसे खुशियों से निहारें ।आधुनिक जीवन में तनाव मुक्त रहना है तो हमें खुश रहने की आदत बनानी होगी।

"परम पिता परमेश्वर से यही प्रार्थना कि सभी के जीवन में सदा खुशियाँ हों, प्रसन्नता हो।"
सादर अभिवादन व धन्यवाद ।
 



 

Sunday, February 9, 2020

वायु प्रदूषण एक ज्वलंत समस्या , वायु प्रदूषण के कारण, वायु प्रदूषण के हानिकारक प्रभाव , बढ़ते प्रदूषण की रोकथाम के उपाय ।

1  <<<<<<<<  वायु प्रदूषण एक ज्वलंत समस्या  >>>>>>>
वायु प्रदूषण आज विश्व की एक ज्वलंत समस्या है।जीवित रहने के लिए श्वास लेना अनिवार्य प्रक्रिया है और यदि श्वास लेने वाली वायु में जहर घुला हो तो यह जीवन के अस्तित्व के लिए बहुत बड़ा खतरा है।दुनिया में बढ़ता हुआ वायु-प्रदूषण कई तरह से स्वास्थ्य संबन्धी चुनौतियों को प्रस्तुत कर रहा है।वायु में घुलता जहर आज हमारे जीवन में तरह-तरह की बीमारियों के रूप में संकट के बादल लेकर आ गया है।

आज देश के छोटे बड़े अधिकांश शहरों में वायुप्रदूषण के कारण लोगों का स्वास्थ्य बिगड़ता चला जा रहा है।हम सोचते हैं कि हम विकास कर रहे हैं लेकिन सच तो यह है इसी विकास के कारण ही हवा ज्यादा प्रदूषित होती चली जा रही है।आज प्रदूषण फैलाने वाले लोग अपने त्वरित लाभ को हासिल करने के लिए अन्य लोगों को परेशानियों में डाल रहे हैं ।

चिकित्सकीय पत्रिका ' दि लेंसेट ' के अनुसार हर साल वायुप्रदूषण से उत्पन्न बीमारियों से 10 लाख से ज्यादा भारतीयों की मृत्यु हो जाती है।दुनिया के सबसे प्रदूषित 100 शहरों में 13 शहर भारत में हैं । "विश्व स्वास्थ्य संग़ठन"  की एक रिपोर्ट के अनुसार 25 प्रतिशत लकवे तथा 19 प्रतिशत कैंसर से पीड़ित व्यक्तियों की बीमारियों के पीछे पर्यावरण प्रदूषण ही मुख्य कारण है। 
  
एक शोध के अनुसार वायुप्रदूषण और जलवायु परिवर्तन के जो भी कारण हैं वे परस्पर एक दूसरे से जुड़े हुए हैं ।वायु प्रदूषण सभी प्रकार के प्रदूषणों में घातक बनकर उभरा है।एक नए अध्ययन में इस बात का खुलासा हुआ है कि वायु प्रदूषण से मनुष्य में गुर्दे की बीमारियों की संभावना बढ़ सकती है।वायु प्रदूषण हमारे पर्यावरण के लिए हर तरह से नुकसान दायक है।

   2    <<<<<< वायु प्रदूषण के कारण >>>>>>

1 -  वायु - प्रदूषण बढाने में सबसे अहम् भूमिका है - यातायात में प्रयोग होने वाले डीजल पैट्रोल से चलने वाले वाहनों की ।जैसे -जैसे जनसँख्या वृद्धि हो रही है वैसे ही वैसे सभी प्रकार के वाहनों में भी वृद्धि हो रही है।वाहनों से निकलने वाला धुँआ वातावरण में घुलकर हवा को अशुद्ध कर रहा है।सड़कों पर प्रतिदिन दौड़ते लाखों वाहनों से हर रोज काॅर्बन-मोनोऑक्साइड , हाइड्रोकार्बन,
नाइट्रोजन ऑक्साइड, वाष्पशील कार्बनिक यौगिक, सल्फर डाइऑक्साइड और दूसरे कण निकल रहे हैं ।

             पिछले पन्द्रह वर्षों में दिल्ली और उसके आसपास के क्षेत्रों में निजी वाहनों की संख्या में 82 प्रतिशत की वृद्धि हुई है।वैज्ञानिकों के अनुसार, इन गाड़ियों से निकलने वाले धुँए का लगभग 99.4 प्रतिशत हिस्सा वातावरण में घुलकर अदृश्य रहता है।इनमें से हाइड्रोकार्बन और नाइट्रोजन ऑक्साइड सूर्य के प्रकाश और उच्च तापक्रम से क्रिया करके ग्राउंड लेवल ओजोन का निर्माण करते हैं ।यह ग्राउंड लेवल ओजोन साँस की बीमारियाँ पैदा करता है और फेफड़ों को भी नुकसान पहुँचाता है।

2 - वायु प्रदूषण का दूसरा मुख्य कारण औद्योगिक कारखाने हैं; क्योंकि कारखानों के द्वारा जहरीली गैसें छोड़ी जाती हैं ।इन कारखानों से लाभ तो उद्योग पतियों को अथवा अन्य प्रभावी वर्ग को होता है लेकिन कई गुना नुकसान आम जनता को उठाना पड़ता है ।

3 -  वायु प्रदूषण का तीसरा कारण भवन निर्माण ( बिल्डिंग कन्सट्रक्शन) भी है । इसमें अत्यधिक मात्रा में पत्थरों की कटाई आदि के कारण धूल उड़ती है जो हवा में मिलकर हवा को प्रदूषित करती है।  भवन निर्माण से लाभ तो बिल्डरों को होता है लेकिन हानि लाखों परिवारों को होती है।जैसा कि सभी जानते हैं शहरों में अनेक बहुमंजिला इमारतों का निर्माण कार्य निरंतर चलता ही रहता है।

4 - वायु प्रदूषण का एक कारण कोयला आधारित बिजली प्लांट भी है।इसके द्वारा काॅर्बन डाइऑक्साइड के साथ- साथ सल्फर तथा नाइट्रोजन के हानिकारक रसायन वायु में छोड़े जाते हैं ।ये रसायन भी हवा को प्रदूषित करते हैं ।

 5 - वायु प्रदूषण का एक कारण खेतों में जलाई जाने वाली पराली है।किसानों द्वारा धान की बाल को ऊपर से काट लिया जाता है ।शेष पराली को खेत में ही जला दिया जाता है; क्योंकि इसका दूसरा कोई लाभप्रद उपयोग नहीं है। विगत दिनों दिल्ली एवं हरियाणा में स्मोग के रूप में कुख्यात हुआ वायु-प्रदूषण इसी पराली के जलाने से उत्पन्न हुआ था।

6 - हमारे देश में विवाहोत्सवों व दीपावली पर जलाए जाने वाले पटाखे भी वायुमंडल को प्रदूषित करते हैं ।पटाखों से उत्सर्जित होने वाली गैसें तथा धातु के कण बड़े जहरीले होते हैं पटाखों में मुख्यतः पोटेशियम नाइट्रेट, चारकोल और सल्फर भरा जाता है।पटाखों की रोशनी को अधिक चमकीला तथा असरदार बनाने के लिए उसमें एल्युमिनियम, मैग्नीशियम,स्ट्रान्शियम, सोडियम, ताँबा, बेरियम जैसे धातु तत्व भी मिलाए जाते हैं ।पटाखे चलाने पर ये धातु कणों के रूप में हवा में बिखर जाते हैं और हमारी साँसों के साथ शरीर में प्रवेश कर जाते हैं ।

अलग-अलग देशों में वायुप्रदूषण के अलग-अलग कारण हैं ।चीन में इसका कारण कोयला जलाने से निकलने वाले महीन कण हैं ।हमारे देश में खाना बनाने में गीली लकड़ी, खरपतवार और दूसरी चीजों को जलाने से भी वायु प्रदूषण होता है।यूरोप, ब्रिटेन, फ्रांस, नार्वे आदि सभी देश वायुप्रदूषण की समस्या झेल रहे हैं । ये सभी देश बिजली चालित वाहनों की शुरूआत कर रहे हैं जिससे वायुप्रदूषण के स्तर में कुछ सुधार हो।

3  <<<<<<< वायु प्रदूषण के हानिकारक प्रभाव >>>>>>>

वायु प्रदूषण हर तरह से हमारे स्वास्थ्य को नुकसान पहुँचाता है; क्योंकि जिस हवा में हम श्वास लेते हैं, श्वास के साथ ही वायु में घुले हुए खतरनाक कण हमारे शरीर में प्रवेश करके हमारे स्वास्थ्य को खराब कर रहे हैं ।एक नए अध्ययन में यह खुलासा हुआ है कि वायुप्रदूषण से मनुष्यों में गुरदे की बीमारियों का खतरा बढ़ सकता है।
हाँलाकि बहुत पहले से ही वायु प्रदूषण को हृदयरोग, स्ट्रोक, कैंसर,अस्थमा से जोड़ा जाता रहा है।शोध कर्ताओं ने शरीर की बीमारियों में वायुप्रदूषण का पता लगाने के लिए करीब साढ़े आठ साल तक अध्ययन किया और पाया कि वायुप्रदूषण और शरीर की बीमारियों के बीच स्पष्ट सम्बन्ध है।

प्रदूषित वायु मनुष्यों के साथ-साथ पशु- पक्षी व अनेक जीवों के लिए खतरा बनती चली जा रही है। वायु प्रदूषण ऐसे ही बढ़ता रहा तो मानव जीवन का अस्तित्व ही खतरे में पड़ सकता है।भारत में हर दिन दो मृत्यु वायु प्रदूषण से हो जाती हैं ।दिल्ली में तो अब वायु प्रदूषण के कारण कई- कई दिन स्कूल बन्द करने पड़ते हैं ।
प्रदूषित हवा के कारण बच्चों में साँस लेने सम्बन्धी बीमारियाँ तथा डायरिया जैसे रोग पाए जा रहे हैं ।

वाॅशिंगटन विश्वविद्यालय के प्रोo अली के अनुसार-- वायु प्रदूषण के कारण फेफड़ों को नुकसान होता है, इसके अलावा वह हृदय और गुरदों जैसे अन्य अंगों को भी नुकसान पहुँचाता है ।इस तरह दुनिया में बढ़ता हुआ वायु-प्रदूषण कई तरह से जीवन व स्वास्थ्य संबंधी चुनौतियों को प्रस्तुत कर रहा है ।

4  <<<<<<< बढ़ते प्रदूषण की रोकथाम के उपाय >>>>>>>

       आज बढ़ते प्रदूषण की ज्वलंत समस्या के समाधान के प्रयास किए जाएँ, जिससे हमारा समस्त पर्यावरण सुरक्षित व स्वच्छ हो।
बढ़ते प्रदूषण की रोकथाम के लिए पहला - - वायु प्रदूषण की वृद्धि करने वाले कारणों पर रोक लगाई जाए  और दूसरा वायु प्रदूषण को सोखने वाले पेड़- पौधों की संख्या में वृद्धि की जाए।समस्त वन- जंगल और पेड़-पौधे वातावरण में स्थित कार्बन-डाइऑक्साइड ग्रहण कर लेते हैं और ऑक्सीजन प्रदान करते हैं ।जिससे हमारा पर्यावरण संतुलित होता है।

पेट्रोल और डीजल से चलने वाले वाहनों की जगह इलैक्ट्रिक वाहनों का प्रयोग शुरु कर देना चाहिए । भारत समेत कुछ अन्य देश भी धीरे-धीरे इलैक्ट्रिक वाहन शुरु करने की पहल कर रहे हैं, इस दिशा में महत्वपूर्ण प्रयास जारी हैं ।ध्वनि व वायुप्रदूषण बढाने वाले पटाखों के निर्माण व बिक्री पर पाबंदी लगाई जाए और प्रचार माध्यमों से समाज को पटाखों से होने वाले नुकसान बताकर पर्यावरण के प्रति जागरूक किया जाए।

                विश्व स्वास्थ्य संगठन ( डब्ल्यू एच ओ ) के अनुसार वायु प्रदूषण से स्वास्थ्य के खतरे को मापने के लिए पीएम - 2.5 सबसे सटीक पैमाना है।पर्टीकुलेट मैटर यानी पीएम- 2.5 पृथ्वी के वायुमंडल में उपस्थित ठोस या तरल पदार्थ के छोटे ऐसे कण हैं, जिनका आकार महज 2.5 माइक्रोग्राम से भी कम होता है ।ये कण बड़ी आसानी से हमारे नाक व मुँह के जरिए शरीर के अन्दर तक पहुँचकर हमें बीमार बना सकते हैं ।

                    डब्ल्यूएचओ ने समय- समय पर सभी देशों को  निर्देश जारी किया है कि पर्टीकुलेट मैटर ,ओजोन, नाइट्रोजन, मोनो ऑक्साइड और सल्फर डाइऑक्साइड लोगों के स्वास्थ्य के लिए हानिकारक हैं ।अतः इन हानिकारक पदार्थों के लिए एक सीमा तय करनी चाहिए ।

 सभी किसानों को भी प्रदूषण के प्रति जागरूक किया जाए।जिससे वे भी पराली जलाना बन्द कर दें ।सरकार को चाहिए कि-
फसल के अवशेष ( पराली ) के अन्य उपयोग के लिए बाजार में ऐसी व्यवस्था बनाई जाए जिससे किसानों को पराली न जलानी पड़े और फायदा भी हो।

पर्यावरण संतुलन का  मानव जीवन में बहुत महत्व है।आओ हम सब अपनी धरती माता का पेड़-पौधों से श्रंगार करके वायु प्रदूषण 
की रोकथाम करें ।और वायु प्रदूषण वृद्धि के  कारणों पर भी  रोक लगाएँ ।  
" हम प्रकृति के बनें पुजारी "

सादर अभिवादन व धन्यवाद ।