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Monday, November 23, 2020

भक्ति योग,सकाम भक्ति,निष्काम भक्ति,श्री रामकृष्ण परमहंस के अनुसार भक्ति,श्री कृष्ण के अनुसार भक्तों के प्रकार,

                       ●●●  भक्ति योग ●●●
● भक्ति का अर्थ--- परमात्मा की प्राप्ति के यूँ तो अनेक मार्ग हैं, पर उन सभी में भक्ति का मार्ग सबसे सरल व सुगम है ।सभी   छोटे-बड़े, अमीर-गरीब सबके लिए यह समान रूप से सहज, सरल है।
भक्ति  'भज्' शब्द से बना है, जिसका अर्थ है - ईश्वर सेवा (ईश्वर स्मरण) ।इस तरह से भक्ति का अर्थ- स्वयं का ईश्वर के प्रति पूर्ण समर्पण ।जीवात्मा का परमात्मा में संपूर्ण समर्पण, विसर्जन व विलय ही भक्ति योग है ।प्रेम योग , समर्पण योग, उपासना योग आदि भक्तियोग के ही विविध नाम हैं ।भक्ति योग अथवा प्रेमयोग परमात्मा के साथ एकरूपता की जीवंत अनुभूति है ।

जगत में जो सबसे महान और सर्वोपरि तत्व है, उसके प्रति नैसर्गिक श्रद्धा-समर्पण का भाव होना ही भक्ति योग है ।नारद भक्ति सूत्र के अनुसार -- सा तु अस्मिन् परमप्रेमरूपा ।अर्थात भगवान के प्रति परम प्रेम ही भक्ति है ।शांडिल्य सूत्र के अनुसार-- सा परानुरक्तिरीश्वरे ! अर्थात ईश्वर के प्रति परम अनुराग ही भक्ति है ।स्वामी विवेकानन्द का कहना है कि सच्चे व निष्कपट भाव से ईश्वर की खोज करना ही भक्ति है ।

सच्चे साधक को सृष्टि के कण-कण में, चेतन-अचेतन , पेड़-पौधे , वनस्पतियों एवं समस्त प्राणियों में सिर्फ ईश्वर और ईश्वर का ही रूप व नूर दिखाई पड़ने लगता है ।तब उस साधक के लिए यह सारा विश्व, सारा ब्रह्माण्ड ही प्रभु का बनाया देवालय नजर आता है ।तह हर जीव में परमेश्वर की छवि दीखने लगती है और जीव सेवा ही प्रभु सेवा जान पड़ती है ।

सच्ची भक्ति वही है ; जिसमें याचना नहीं, कामना नहीं, जिसमें कुछ माँगना नहीं ।ईश चरणों में स्वयं को ही समर्पित कर देने का नाम भक्ति है । कुछ माँगना नहीं होता है बल्कि स्वयं समर्पित हो जाना है ।ऐसी परम भक्ति विरलों में ही पाई जाती है ।
संत कबीर ने कहा है -- 
        भक्ति भाव भादों नहीं, सबहि चली घहराय ।
        सरिता सोहि सराहिए, जेठ मास ठहराय ।।
अर्थात भादों में नदियाँ उमड़ चलती हैं, परन्तु प्रशंसा तो उसी नदी की  है , जो ज्येष्ठ महीने में अधिक जलयुक्त हो ।इसी प्रकार देखा-देखी थोड़े समय के लिए भक्ति भाव उमड़ आना अलग बात है , परंतु आपत्ति काल में भी भक्ति बनी रहे , तभी उस भक्ति की प्रशंसा है ।
      
     ●●● सकाम भक्ति, निष्काम भक्ति ●●●

भक्त की प्रकृति एवं भक्ति के उद्देश्य के आधार पर भक्ति दो प्रकार की कही गई है -- सकाम भक्ति व निष्काम भक्ति ।किसी कामनापूर्ति के उद्देश्य से की गई भक्ति सकाम भक्ति कहलाती है , पर बिना किसी कामना के निष्काम भाव से की गई भक्ति  'निष्काम' भक्ति कहलाती है ।निष्काम भक्ति ही सर्वश्रेष्ठ भक्ति है ।

भौतिक  कामना से की गई भक्ति अर्थात सकाम भक्ति से इच्छाओं की प्राप्ति तो हो सकती है पर भगवान की नहीं ।सकाम भक्त भक्ति से प्राप्त पुण्य के कारण भोगों को प्राप्त कर लेते हैं, स्वर्ग भी प्राप्त कर लेते हैं पर पुण्य क्षीण होने पर वे पुनः मृत्युलोक में अर्थात जन्म-मरण के बन्धन में पड़ जाते हैं ।परंतु निष्काम भक्ति द्वारा ईश्वर की प्राप्ति अवश्य होती है।

 ●●● श्री रामकृष्ण परमहंस के अनुसार भक्ति ●●●

श्री रामकृष्ण परमहंस के अनुसार लोग लौकिक कामनाओं के लिए दुखी होते रहते हैं और आँसू बहाते हैं, पर भगवान के लिए भला कौन रोता है? भक्ति लौकिक कामनाओं के लिए नहीं, वरन भगवान के लिए रोने का नाम है ।भक्ति संसार को पाने का नहीं, ईश्वर को पाने का मार्ग है ।

सच्चे भक्त के हृदय में इसीलिए तो अनंत प्रेम की  की अजस्र धारा बहने लगती है ।फिर वही धारा प्रभु प्रेम में सावन-भादों बनकर साधक के नेत्रों से भी बहने लगती है ।साधक फिर उन्हीं आँसुओं से अपने इष्ट, अपने आराध्य, अपने प्रभु को प्रेम का अर्ध्य देता है, उनका हर पल अभिषेक करता रहता है ।

          जब भक्ति भाव मन में उमड़े
           दर्शन की आस नयन उमड़े
           नैनों के नीर से भरी गगरी 
           प्रभु चरणों में ढुलकाया करो 

उन्हीं आँसुओं से कई जन्मों से संचित चित्त के विकारों, संस्कारों का क्षय होने लगता है ।तभी साधक के शुद्ध चित्ताकाश में प्रभु का ज्योतिर्मय रूप में अवतरण होता है ।तब सचमुच उपास्य एवं उपासक , भक्त व भगवान एक हो जाते हैं ।

तब सारा ब्रह्माण्ड ही प्रभु का बनाया देवालय नजर आता है ।ऐसे में सूर्य-चंद्र के रूप में उन्हीं प्रभु का जीवंत दीदार होने लगता है ।धरती की सभी नदियाँ व समुद्र उन्हीं प्रभु के पाँव पखारते नजर आते हैं ।सभी सुगन्धित व खिले हुए पुष्प उन्हीं देव के चरणों में चढ़ते, खिलते व मुस्कराते दीखते हैं । शीतल, सुगन्धित पवन प्रभु के चरणों में बयार बनकर बहने लगती है ।तब साधक हर पल ही प्रभु का स्मरण करता हुआ , उन्हीं के बनाए देवालय में उनकी आराधना , अभ्यर्थना करने लगता है ।

साधक की ऐसी परम भक्ति को देखकर प्रभु भी अपने भक्त के लिए विह्वल व व्याकुल हो उठते हैं ।


 ●●●योगेश्वर श्री कृष्ण के अनुसार भक्तों के प्रकार●●●
श्री मद्भगवद्गीता में भगवान श्रीकृष्ण निष्काम भक्ति, निष्काम भक्त व ज्ञानी भक्त की भूरि-भूरि प्रशंसा इस प्रकार करते हुए  कहते हैं-- अर्जुन ! आर्त्त , जिज्ञासु, अर्थार्थी और ज्ञानी -- ये चार प्रकार के भक्त मेरा भजन किया करते हैं । उन भक्तों में से नित्य एकीभाव से स्थित अनन्य प्रेम भक्ति वाला ज्ञानी भक्त अति उत्तम है और मुझे अत्यन्त प्रिय है ।
● अर्थार्थी भक्त--- अर्थार्थी भक्त वह है -- जो भोग , ऐश्वर्य और सुख प्राप्त करने के लिए भक्ति करता है ।
● आर्त्त भक्त--  आर्त्त भक्त वह है -- जो कोई कष्ट, संकट आने पर मुझे पुकारता है ।
● जिज्ञासु भक्त--- जिज्ञासु भक्त संसार को अनित्य जानकर मुझको तत्व से जानने की जिज्ञासा व पाने के लिए भजन करता
 है ।
● ज्ञानी भक्त--- ज्ञानी भक्त सदैव निष्काम होता है ।वह मुझे तत्व से जानता है ।

भगवान कहते हैं- अर्जुन ! ये सभी चारों प्रकार के भक्त उदार हैं, परन्तु ज्ञानी भक्त तो साक्षात् मेरा स्वरूप ही है ; क्योंकि वह मुझमें ही अच्छी प्रकार से स्थित है ।अनेक जन्मों के अंत में तत्वज्ञान को प्राप्त पुरुष यह भलीभाँति समझकर कि सब कुछ ईश्वर ही है -- इस प्रकार मुझे भजता है , ऐसा भक्त ( महात्मा) अत्यन्त दुर्लभ
 है ।

●●● श्री मद्भगवद्गीता में परम ज्ञानी भक्त के लक्षण ●●●

श्री मद्भगवद्गीता में भगवान परम ज्ञानी भक्त के लक्षण बताते हुए कहते हैं--  अर्जुन! जो पुरुष द्वेष भाव से रहित, स्वार्थ रहित, सबका प्रेमी और हेतु रहित और दयालु है तथा आसक्ति व अहंकार से रहित, सुख-दुख की प्राप्ति में सम और क्षमावान है , निरंतर संतुष्ट, मन इंद्रियों सहित शरीर को वश में किए हुए और मुझमें दृढ़ निश्चय वाला है, ऐसा भक्त मुझे अत्यन्त प्रिय है ।

जो न कभी हर्षित होता है, न द्वेष करता है, न शोक करता है, न कामना करता है तथा जो शुभ और अशुभ संपूर्ण कर्मों का त्यागी है-- वह भक्त मुझे प्रिय है ।जो शत्रु-मित्र में, मान-अपमान में सम है तथा सरदी-गरमी में और सुख-दुख में सम है , वह मुझे प्रिय है ।

निंदा-स्तुति को समान समझने वाला, मननशील और जिस किसी प्रकार से भी शरीर का निर्वाह होने में सदा संतुष्ट है और रहने के स्थान में ममता और आसक्ति से रहित है -- वह स्थिर बुद्धि, भक्तिमान मनुष्य मुझे अत्यन्त प्रिय है ।

 सच्चे भक्त की यह पुकार होनी चाहिए---
       "दया कर दान भक्ति का हमें परमात्मा देना 
         दया करना हमारी आत्मा में शुद्धता देना ।।"

सादर अभिवादन व धन्यवाद ।

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