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Wednesday, November 25, 2020

वामन अवतार और राजा बलि,बलि का जीवन परिचय, बलि की इंद्रलोक पर विजय,भगवान का वामन रूप में अवतार लेना, वामन का बलि के यज्ञमंडप की ओर प्रस्थान,वामन द्वारा तीन पग भूमि की माँग, भगवान का तीनों लोकों को नापना, वामन शब्द का अर्थ ।

           ●●● वामन अवतार और राजा बलि ●●●                ●●राजा बलि का जीवन परिचय ●●
राजा बलि महान भक्त प्रहलाद के पौत्र एवं दानवीर विलोचन के पुत्र थे ।बलि का जन्म अवश्य दैत्य वंश में हुआ था , परन्तु वे भगवान के अनन्य भक्त थे ।उनकी रगों में पितामह प्रहलाद एवं पिता विरोचन के सभी श्रेष्ठ गुण थे ।उनमें गुरुभक्ति कूट-कूटकर भरी हुई थी ।उन्होंने अपने गुरु शुक्राचार्य की खूब सेवा सुश्रूषा की थी ।

गुरु शुक्राचार्य ने बलि की गुरुभक्ति एवं निष्काम सेवा से प्रसन्न होकर उसे एक यज्ञ करने की प्रेरणा दी ।उस यज्ञ का नाम था अभिजित यज्ञ ।इसे संपन्न कर पाना हर किसी के वश की बात नहीं थी ।शुक्राचार्य के मार्गदर्शन में यज्ञ संपन्न हुआ ।यज्ञ के दौरान यज्ञ कुंड से अनगिनत बेशकीमती एवं बहुमूल्य वस्तुएँ बाहर निकलीं, जिनमें कवच, रथ, धनुष और कभी न रिक्त होने वाला तरकश मुख्य थे ।

स्वयं बलि के पितामह ने यज्ञमंडप में उपस्थित होकर बलि को ऐसी माला प्रदान की, जिसके फूल कभी मुरझाते नहीं थे ।बलि ने श्रद्धा भाव से माला और कवच को धारण किया ।उसने रथ पर आरूढ़ होकर और हाथ में धपुष-वाण लेकर पृथ्वी और पाताल पर अपना आधिपत्य स्थापित कर लिया ।उसकी सेना निरंतर बड़ी और शक्तिशाली होती जा रही थी  ।

बलि न्यायप्रिय व नीतिपरायण राजा थे।उन्होंने पृथ्वी एवं पाताललोक, सभी जगहों पर सुशासन स्थापित कर लिया था ।उनके राज्य में प्रजा सुखी व संतुष्ट थी ।बलि पुण्यात्मा थे औल उनकी सर्वोपरि विशेषता थी सरल एवं निष्कपट भावना ।वे अपने गुरु शुक्राचार्य की छद्म लड़ाई से  कभी भी सहमत एवं संतुष्ट नहीं थे ।वे धर्म युद्ध पर विश्वास करते थे और उनका अपार बल , शौर्य, पराक्रम एवं प्रभु के प्रति अनन्य भक्ति का दुर्लभ संयोग उनको सर्वत्र अजेय बनाता था ।

    ●●● राजा बलि की इंद्र लोक पर विजय ●●●

राजा बलि इंद्रलोक की घोर अव्यवस्था एवं देवताओं की भोगवृत्ति व लापरवाही से भलीभाँति परिचित थे ।इन दिनों सृष्टि-संचालन की प्रकिया में जिम्मेदार देवता ,  उर्वशी , रंभा, मेनका आदि अप्सराओं के रूप-रंग एवं नृत्य में अपने कर्तव्य भूले हुए थे ।इसी कारण धरती पर समय पर बरसात न होना , अकाल पड़ने जैसे अनेक व्यतिक्रम आ गए थे ।इंद्रलोक के उस कुशासन को सुशासन में परिवर्तित करने के राजा बलि ने इंद्रलोक पर अपनी विशाल सेना के साथ चढ़ाई कर दी और अपने शौर्य व बल से देवताओं को परास्त कर दिया ।

धर्मपरायण दैत्य राजा बलि ने भोग-विलास में डूबे रहने वाले स्वर्गाधिपति इंद्र को परास्त कर देव व्यवस्था सँभाल ली। स्वर्गाधिपति हो जाने के बाद भी बलि सदा तप एवं यज्ञ में निरत रहते थे।उनकी रुचि सुशासन , विष्णु भक्ति एवं तप-य्ज्ञ में थीवन कि भोगों में ।

इंद्रलोक पर विजय प्राप्त करने के बाद राजा बलि ने इंद्रलोक की व्यवस्था ही बदल दी ।जहाँ प्रातः- साँय नृत्य की झंकार सुनाई देती थी , वहाँ वेदमंत्रों का उच्चारण होने लगा ।विभिन्नप्रकार के यज्ञों से वातावरण में  दिव्यता छाने लगी ।स्वर्ग के सभी संसाधन एवं साधनों को तप एवं यज्ञ में प्रयुक्त किया जाने लगा ।

अब स्वयं राजा बलि देवताओं को उन्हें उनकी जिम्मेदारी का भलीभाँति निर्वहन करने का आदेश देते थे ।अब कहीं भी कोई अपने काम में आलस्य-प्रमाद नहीं बरत पा रहा था ।इस वजह से अब पृथ्वी पर पर्यावरण संतुलित रहने लगा ।धन्य-धान्य में भी वृद्धि होने लगी ।

   ●●● भगवान का वामन रूप में अवतार लेना ●●●

त्रिलोक अधिपति राजा बलि के शासनकाल में तीनों लोकों में सुख-शांति एवं समृद्धि का वातावरण बन गया था ।सभी प्रसन्न थे,
लेकिन देवता खुश नहीं थे ; क्योंकि भोगविलास प्रिय देवताओं को भला त्याग-तपस्या से क्या सरोकार ।अतः सभी देवताओं ने इंद्र के साथ मिलकर भगवान विष्णु से प्रार्थना की कि कृपा कर राजा बलि से देवलोक वापस दिलाएँ ।इस प्रार्थना पर भगवान को भारी असमंजस हुआ ; क्योंकि इस बात से वे भलीभाँति परिचित थे कि धर्मपरायण परम भक्त बलि से अब युद्ध करना संभव नहीं है ।

भगवान विष्णु ने महर्षि कश्यप की धर्मपरायणा पत्नी के घर वामन रूप में प्रकट हुए ।बड़े-बड़े नेत्र , चमकता दीप्तिमान मुखमंडल, विशाल वक्षस्थल , लंबी-लंबी भुजाएँ और सिर पर घने केश से सुशोभित वामन अवतार में भगवान बालसूर्य के समान प्रतीत हो रहे थे , परन्तु वे स्वयं अपने उद्देश्य को लेकर खुश नहीं थे , क्योंकि उनके मन में बलि के प्रति छल भरा हुआ था ।

●● भगवान वामन का बलि के यज्ञमंडप की ओर प्रस्थान●●

अब भगवान ने अपनी माता को प्रणाम करके , नर्मदा के तट पर उस स्थान की ओर प्रस्थान किया, जहाँ भक्त एवं राजा बलि अश्वमेध यज्ञ संपन्न कर रहे थे ।भगवान वामन मूँज की करधनी पहने , गले में यज्ञोपवीत धारण किए पैरों में पादुका एवं सिर के ऊपर सुन्दर छाता लगाए हुए थे ।

जब भगवान वामन ने यज्ञमंडप में प्रवेश किया तो सभी भृगुवंशी ब्राह्मणों और विद्वानों ने उठकर उनका स्वागत-सत्कार एवं अभिनन्दन किया ।स्वयं राजा बलि ने श्रद्धापूर्वक प्रणाम करते हुए भगवान को रत्नजड़ित सिंहासन पर बैठाकर उनके चरण धोए और उस चरणोदक का पान किया और कहा -- " हे भगवान ! आपने यहाँ पधारकर हम सबको कृतार्थ किया है ।कृपया हमें अपने आगमन के कारण से अवगत कराएँ।

●● भगवान का राजा बलि से तीन पग पृथ्वी की माँग ●●

जब राजा बलि ने भगवान वामन से उनके आगमन का कारण जानना चाहा तब वामन भगवान ने प्रत्युत्तर में कहा -- " महाराज बलि ! आप परम भक्त हैं ।आपको अपने महान कुल की मर्यादा एवं परम्परा का न केवल ज्ञान है , अपितु आप उसका यथोचित निर्वहन भी करते हैं ।आपके पितामह प्रहलाद परम भक्त, महादानी और धर्मात्मा रहे हैं एवं आपके पिता विरोचन का स्थान सर्वश्रेष्ठ दानियों के बीच सुशोभित है ।

 राजन ! आप स्वयं परमधर्मात्मा एवं श्रेष्ठ पुण्यात्मा हैं ।मैं ब्रह्मचारी हूँ ! भला किसी ब्रह्मचारी को धन, वैभव एवं ऐश्वर्य से क्या प्रयोजन ! मैं तो केवल तीन पग पृथ्वी की इच्छा लिए आपके समक्ष प्रकट हुआ हूँ ।मेरी यही माँग है और आशा है कि आप मुझे निराश नहीं करेंगे ।

महाराजा बलि पाँच वर्ष के उस तेजस्वी ब्राह्मण को यज्ञशाला में प्रवेश करते ही पहचान गए थे ।उन्होंने एक पल में ही अपने आराध्य एवं इष्ट को जान लिया था ।वामन अवतार में अवतरित बिष्णु भगवान ने तीन पग पृथ्वी माँगी वे उसे कैसे अस्वीकार कर सकते थे ।

● वामन से विराट होकर भगवान का तीनों लोकों को नापना ●

भगवान की माँग स्वीकारते हुए राजा बलि ने भूमि दान का संकल्प करने के लिए अपनी अंजलि में जल लिया , उसी समय दैत्यों के गुरु एवं महान तांत्रिक शुक्राचार्य ने कहा -- ठहरो बलि ये वामन वेश में विष्णु हैं, ये तुम्हें छलने आए हैं ।ये तुमसे तीन पग भूमि नहीं, बल्कि तुम्हारे तीनों लोकों का राज्य लेने आए हैं ।
शुक्राचार्य की बात सुनकर बलि ने कहा -- " हे गुरुदेव ! आपका संशय सर्वथा सच संभावित हो सकता है ।भले ही ये मेरे तीनों लोकों को लेने आए हों और भले ही इनका उद्देश्य हमें छलना हो, परन्तु भक्त के लिए अपना सर्वस्व लुटाने वाले भगवान आज स्वयं अपने भक्त के पास याचक बनकर आए हैं, अतः मैं याचक बने भगवान को खाली कैसे लौटा सकता हूँ ।भगवान की याचना को मैं जरूर ही पूरा करूँगा , फिर भले ही मुझे भिखारी बनकर दर-दर ठोकरें खानी पडें।"  

जब बलि ने भगवान की याचना पूरी करने का दृढ़ निश्चय कर लिया तो गुरू शुक्राचार्य ने अप्रसन्न होकर राजा बलि को तेजहीन होने का श्राप दे दिया , जिसे बलि ने सहर्ष स्वीकार कर लिया और उन्होंने भगवान वामन को दान देने के लिए हाँ कर दिया।

बलि के हाँ कहते ही भगवान वामन से विराट हो गए और उन्होंने दो पग में तीनों लोकों को नाप लिया और कहा--  " बलि ! अब बताओ मैं अपना तीसरा पग कहाँ रखूँ ।"  तीसरा  पग रखबाने के लिए बलि के पास कुछ नहीं था , तो भगवान ने बलि को वरुण पाश में बाँध लिया ।पाश में बँधे बलि मुस्करा ने मुस्कराते हुए कहा--- " प्रभु ! आपने दो पगों में मेरे तीनों लोकों के राज्यों की धरती नाप ली ।मेरे पास अब धरती नहीं है तो क्या है, मेरा मस्तक तो है ।आप अपना तीसरा पग मेरे मस्तक पर रख दें ।" वामन से विराट होकर भगवान ने तीनों लोकों के साथ बलि को भी नाप लिया ।

देने वाले महाराज बलि अपना सर्वस्व देकर प्रसन्न थे, परन्तु भगवान को अपने द्वारा किए छल पर क्षोभ था ; क्योंकि इस जगत में जिस अधर्म रूपी छल को मिटाने के लिए वे बार-बार अवतार लेते हैं आज उन्हीं जगत पति को अधर्म रूपी छल का सहारा लेना पड़ा ।भगवान ने बलि से कहा -- " वत्स ! इस अमिट दान के कारण तुम्हारी कीर्ति सदा अमर रहेगी , जब कि मेरे छल के कारण मुझ विराट को भी सदा याचक एवं वामन ही कहा जाएगा ।" 

स्वयं भगवान अपने छल के कारण विराट होने पर भी वामन कहे गए ।स्वयं भगवान विष्णु को परम धर्मात्मा बलि के पास याचक बनकर वामन के रूप में जाना पडा।

          ●●●वामन शब्द का अर्थ ●●●

वामन का अर्थ होता है बौना अर्थात छोटा ।वामन वही नहीं होते , जिनकी लंबाई कम होती है , वरन वामन वे भी होते हैं, जिनके व्यक्तित्व की ऊँचाई कम होती है, जिनके मन, अंतःकरण छल-छद्म और कपट-कलुष से भरे होते हैं ।ऐसे लोग भले ही कितने बुद्धिमान, तर्ककुशल व साधनसंपन्न हों , भले ही उनके पास कितनी ही अलौकिक शक्तियाँ, सिद्धियाँ एवं ऋद्धियाँ-निधियाँ क्यों न हों , परन्तु अपने छल-कपट के कारण उन्हें सदा ही वामन कहा और समझा जाता है ।

भगवान की लीला  सदा कल्याणकारी होती है , संसार के भले के लिए ही होती है ।

सादर अभिवादन व धन्यवाद ।

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