महर्षि अरविंद स्वतंत्रता संग्राम के दौर की एक ऐसी विरल प्रतिभा, विलक्षण व्यक्तित्व एवं दिव्य विभूति थे, जिनकी भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में निर्णायक भूमिका रही ।
श्री अरविंद का जन्म 15 अगस्त, 1872 को कोलकाता (कलकत्ता) में डाॅ कृष्णधन घोष के घर हुआ, जो पाश्चात्य संस्कृति के पुजारी थे ।उन्होंने अपने सात वर्षीय बालक श्री अरविंद को बड़े भाई संग इस कड़े आदेश के साथ इंग्लैंड भेजा कि वे किसी भी भारतीय चीज के संपर्क में न आएँ।
श्री अरविंद की बाल्यावस्था एवं किशोरावस्था लंदन के सेंट पाॅल स्कूल एवं कैंब्रिज के किंग्स काॅलेज में व्यतीत हुई ।वे अत्यन्त प्रतिभाशाली थे , उन्होंने अंग्रेजी सहित लेटिन, यूनानी एवं फारसी भाषाओँ पर पूर्ण अधिकार प्राप्त किया और जर्मन, इतालवी एवं स्पेनिश भाषाएँ भी सीखते रहे ।
इंग्लैंड के चौदह वर्ष के अध्ययन काल में युवा श्री अरविंद यूरोपीय संस्कृति एवं समाज के बारे में गहन अंतर्दृष्टि पा चुके थे । आई सी एस ( इंडियन सिविल सर्विस ) जैसी प्रतिष्ठित परीक्षा उत्तीर्ण कर वे घुड़सवारी में वे जानबूझकर अनुत्तीर्ण हो गए ; क्योंकि उन्हें ऐसी नौकरी में कोई रुचि नहीं थी ।
●●● भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में भूमिका ●●●
श्री अरविंद की भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में निर्णायक भूमिका रही ।हालाँकि वे कुछ ही समय के लिए भारतीय राजनीतिक परिदृश्य में प्रकट हुए , लेकिन तब भी वे अपनी अमिट छाप छोड़ गए ।वे इंग्लैंड में ही भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के लिए काम करने वाली 'कमल और कटार' नामक एक गुप्त सभा में भरती हो गए ।
सन् 1893 में इक्कीस वर्ष की आयु में श्री अरविंद ने जब पहली बार मुंबई (बंबई) के अपोलो बन्दरगाह में पाँव रखा तब जाकर उन पर शांति एवं स्थिरता का अवतरण हुआ, जो जीवनपर्यन्त उनके साथ बना रहा।
इसके बाद बड़ौदा राज्य में अपनी प्रशासनिक एवं शैक्षणिक सेवाएँ देते हुए उन्होंने भारतीय संस्कृति में गहरी डुबकी लगाई व धर्म, अध्यात्म एवं साहित्य का गहनता से मंथन किया ।उन्होंने संस्कृत, बंगला और कई अन्य भारतीय भाषाएँ भी सीखीं और भारतीय संस्कृति की आत्मा के हर पहलू को आत्मसात् किया ।इस तरह यहाँ के तेरह वर्ष उनके आत्मप्रशिक्षण, साहित्यिक क्रियाकलाप और भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के भावी कार्य की तैयारी के वर्ष रहे ।
सन् 1906 में बंगाल नेशनल काॅलेज की स्थापना हुई ।तब बड़ोदरा की लाभप्रद देने वाली सर्विस छोड़कर चोंतीस वर्षीय अरविंद बंगाल नेशनल काॅलेज के प्रथम प्राचार्य बने ।कुछ समय बाद खुलकर स्वाधीनता संग्राम में भाग लेने के लिए काॅलेज से भी त्यागपत्र दे दिया ।
●●● 'वन्दे मातरम्' पत्रिका से क्रांति की शुरुआत ●●●
बंगाल नेशनल काॅलेज के प्राचार्य पद से त्यागपत्र देने के बाद श्री अरविंद राष्ट्रीय दल के नेता बन गए और 'वंदे मातरम्' पत्रिका के माध्यम से उन्होंने क्रांति की अलख जगाई । विपिन चंद्र पाल के शब्दों में ' वंदे मातरम् ' देश में एक ऐसी शक्ति थी , जिसकी अवहेलना करने का साहस कोई नहीं कर सकता था ।श्री अरविंद इसकी मार्गदर्शक आत्मा और केन्द्रीय प्रतीक बने ।
श्री अरविंद की क्रांतिकारी गतिविधियों के कारण तत्कालीन ब्रिटिश वायसराय लार्ड मिन्टो श्री अरविंद को सबसे अधिक खतरनाक व्यक्ति मानते थे , वहीं दूसरी ओर देशबंधु चितरंजन दास उन्हें देशप्रेम का कवि , राष्ट्रीयता का पैगम्बर और मानवता का प्रेमी कहते थे ।चार वर्ष से भी कम समय में श्री अरविंद ने मंद एवं प्रभावशून्य नीति पर चल रही कांग्रेस में क्रांति ला दी और स्वतन्त्रता संग्राम में पूर्ण स्वराज्य का लक्ष्य जोड़कर स्वाधीनता आंदोलन को नई दिशा दी । श्री अरविंद की क्रांतिकारी गतिविधियों के कारण अंग्रेजी सरकार भयभीत हो गई और भय के कारण उन्हें अलीपुर जेल में बन्दी बनाकर रखा ।
●●● अलीपुर जेल में भगवान का साक्षात्कार ●●●
श्री अरविंद ने उस कारागार को ही गहन स्वाध्याय, साधना एवं ध्यान की तपःस्थली बना लिया और इस दौरान उन्होंने भगवान का साक्षात्कार किया ।यहाँ से प्राप्त दैवी निर्देशानुसार स्वयं को बृहत्तर आध्यात्मिक लक्ष्य के लिए समर्पित कर वे पांडिचेरी चले गए ; क्योंकि अब उन्हें यह आभास हो गया था कि भारत की राजनीतिक स्वाधीनता सुनिश्चित है और अब उनकी प्रत्यक्ष राजनीतिक भूमिका पूर्ण हो गई है , अब उन्हें अपने आध्यात्मिक साधनाएँ व मानव चेतना के परिवर्तन करने के लिए अनेक कार्य करने थे ।
श्री अरविंद ने पांडिचेरी में रहकर एकांत साधना की, उनकी इस एकांत साधना का ही यह सुफल था कि वातावरण में अद्भुत परिवर्तन हुआ और देश में आजादी पाने के लिए जनक्रांति का एक ऐसा दृश्य उमड़ा , जिसके कारण अंततः हमारा देश आजाद हो गया ।
विशेषज्ञों की दृष्टि में राजनीति में वे वे उल्का की तरह प्रकट हुए और उसी तरह चले गए लेकिन राजनीतिक वातावरण में इस उल्का का चौंधियाने वाला प्रकाश कभी धूमिल नहीं हुआ ।उन्होंने जो लौ जलाई थी , वह भारतीय राजनीति को प्रकाश देती रही ।
श्री अरविंद के विश्वास के अनुरूप अब देश स्वतंत्रता प्राप्त करने की ओर अग्रसर था ।आश्चर्य नहीं कि अरविंद के पचहत्तरवें जन्मदिवस पर 15 अगस्त, 1947 को भारत को स्वतंत्रता प्राप्त हुई ।इस उपलक्ष्य पर श्री अरविंद का संदेश था -- " मैं इस संयोग को आकस्मिक दैवयोग नहीं मानता , बल्कि उस दिव्य शक्ति की मुहर और स्वीकृति मानता हूँ, जो मेरे कदमों को राह दिखाती है और उस काम को मुहर लगाती है; जिषके साथ मैंने अपनावकाम प्रारंभ किया था ।
●अरविंद का आध्यात्मिक लक्ष्य मानव चेतना का उत्थान ●
महर्षि अरविंद का भाव था कि भारत , विश्व के देशों में अपना न्याय संगत स्थान पा सके, जो मानव जाति को घेरे हुए असाध्य सी प्रतीत होने वाली समस्याओं के समाधान निकाल सके और आध्यात्मिक तथा भौतिक जीवन में समन्वय ला सके ।महर्षि अरविंद को दृढ़ विश्वास था कि आध्यात्मिकता भारतीय मन की कुंजी है और अनंत का भाव उसमें जन्मता है ।
महर्षि अरविंद का कार्य केवल भारत की स्वाधीनता के लिए संग्राम तक ही सीमित नहीं था , बल्कि यह भारत के उत्थान के लिए आवश्यक पहल करना था , ताकि भारत अपने आप को पा सके एवं अपनी नियति को पूर्ण कर सके ।
इन्हीं महान उद्देश्यों के साथ श्री अरविंद ने पांडिचेरी में आध्यात्मिक साधना के साथ मानव जाति को उज्ज्वल भविष्य का प्रकाश देने वाले साहित्य का सृजन किया और दिव्य जीवन योग समन्वय, मानव चक्र, मानव एकता का आदर्श, भारतीय संस्कृति के आधार, वेद, उपनिषद् एवं गीता पर भाष्य लिखकर सावित्री जैसे कालजयी साहित्य का अवदान दिया ।सन् 1920 में श्रीमाँ इनके आध्यात्मिक अभियान में आ जुड़ीं और दोनों के सम्मिलित साधनात्मक प्रयासों से श्री अरविंद आश्रम की स्थापना हुई ।
महर्षि अरविंद एक ही व्यक्तित्व में समाहित विद्वान, लेखक, कवि, साहित्यालोचक, दार्शनिक, क्रांतिकारी, राष्ट्रवादी, सामाजिक चिंतक, आदर्श शिक्षक, भारतीय शास्त्रों एवं संस्कृति के भाष्यकार, भविष्यद्ष्टा, महायोगी एवं ऋषि थे ।एक ही व्यक्ति में इतनी सारी विशेषताएँ स्तब्ध करतीं हैं, लेकिन ईश्वरकृपा, दैवीप्रवाह महाकाल के अंशधर इस अवतारी युगदूत के माध्यम से दैवी योजना सक्रिय थी ।
महर्षि अरविंद के अनुसार समस्त जीवन ही योग है ।जीवन की उच्चतम संभावनाओं को सचेतन विकास के माध्यम से मूर्तरूप दिया जाता है ।अंतिम समय तक श्री अरविंद मानव शक्ति में दिव्य जीवन के इस कार्य को चरितार्थ करने में साधनारत रहे और सन् 1950 में उनके देहत्याग के बाद श्री माँ ने उनके कार्य को आगे बढ़ाया । महर्षि अरविंद महान व्यक्तित्व, कालजयी साहित्य एवं दिव्य जीवन अभीप्सु साधकों को उच्चतर जीवन की सबल प्रेरणा देता है ।
सादर अभिवादन व धन्यवाद ।
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