प्राचीनकाल से ही भारत में विद्याध्ययन मानव जीवन की सर्वोपरि आवश्यकताओं में से एक रहा है ।विद्या का अर्जन, व्यक्तित्व के विकास का मुख्य सोपान कहा गया है तो विद्या को प्रदान करना आचार्य का प्रमुख कर्तव्य बताया गया है ।
सुरम्य, प्राकृतिक वातावरण में जहाँ एकाग्रचित्त होकर ज्ञान के अध्ययन के साथ-साथ उस ज्ञान का अनुभव भी हो सके, जहाँ विद्यार्थी प्रकृति से वह ज्ञान प्राप्त कर सकें, जो उनके व्यक्तित्व को समग्रता प्रदान करे एवं जहाँ यज्ञादि आध्यात्मिक अनुष्ठान के लिए समुचित व्यवस्था उपलब्ध रहे -- ऐसे स्थानों पर ऋषि-मुनियों ने विद्या के केन्द्रों की स्थापना की, जो गुरुकुलों के नाम से विख्यात हुए ।
आर्ष वाङ्मय में भारत के विभिन्न स्थानों पर कई गुरुकुलों की स्थापना दरसाई गई है ।महाभारत काल के अनुसार-- हिमालय में महर्षि व्यास का गुरुकुल, महेन्द्र पर्वत पर ऋषि परशुराम का गुरुकुल, मालिनी नदी के तट पर महर्षि कण्व का गुरुकुल, हरिद्वार में महर्षि भरद्वाज का गुरुकुल, दण्डकारण्य में महर्षि अगस्त्य का गुरुकुल, उज्जयिनी में महर्षि सांदीपनि का गुरुकुल एवं नैमिषारण्य में महर्षि शौनक के गुरुकुल का वर्णन है ।
वैदिक काल में भगवान श्रीराम एवं भगवान श्री कृष्ण ने भी महर्षि वशिष्ठ एवं महर्षि सांदीपनि के गुरुकुलों में विद्यार्जन के कार्य को संपन्न किया था ।रामायण के अरण्य काल में महर्षि वाल्मीकि ने महर्षि अगस्त्य के गुरुकुल की अत्यन्त प्रशंसा की है ।कालान्तर में गुरुकुलों ने ही विश्वविद्यालय का स्वरूप प्राप्त कर लिया ।
जैसे-जैसे विद्या ग्रहण करने का क्षेत्र राजा-महाराजाओं के परिवारों के क्षेत्र से हटकर एवं बढ़कर जनसामान्य तक पहुँचने लगा, वैसे-वैसे ये गुरुकुल भी अपने आकार-प्रकार में बढ़ते चले गए अर्थात इन गुरुकुलों का स्वरूप विस्तृत होने के कारण इन्हें विश्वविद्यालयकहा जाने लगा ।
● विश्वविद्यालयों के प्रमुख को कुलपति क्यों कहा गया ●
महाभारत में महर्षि शौनक के गुरुकुल में शौनक को कुलपति कहकर पुकारा जाता था ।चूँकि कुलपति शब्द दस हजार से अधिक विद्यार्थियों की संख्या होने पर ही उपयोग में लाया जाता था ; अतः ऐसा अनुमान लगाया जा सकता है कि महर्षि शौनक के गुरुकुल में दस हजार से अधिक विद्यार्थी रहे होंगे ।शायद उसी परम्परा का निर्वाह करते हुए आज भी विश्वविद्यालयों के प्रमुख को कुलपति ही कहा जाता है ।
●●●तक्षशिला नाम की उत्पत्ति पर विभिन्न मत●●●
तक्षशिला एक ऐसा महान विश्वविद्यालय था, जो महाभारत काल में ही प्रसिद्धि प्राप्त करने लगा था । इस महाविद्यालय के नाम की उत्पत्ति के बारे में विभिन्न मत हैं ।
1 ● --कुछ विद्वान मानते हैं कि एक ही शिला (पत्थर)को काटकर बना होने के कारण इसका नाम तक्षशिला पड़ा ।
2 ● -- कुछ विद्वानों का मत है कि भरत के पुत्र तक्ष के नाम पर इसका नाम तक्षशिला है ।
3 ● -- कुछ विशेषज्ञ ऐसा मानते हैं कि प्रसिद्ध नागराज तक्षक का कुलस्थान होने के कारण इसे तक्षशिला नाम दिया गया ।
नाम की उत्पत्ति कहीं से एवं कैसे भी हुई हो लेकिन यह तो स्पष्ट है कि ज्ञान के क्षेत्र में, मानवता को अद्भुत विरासत इस विश्वविद्यालय
द्वारा प्रदान की गई ।
●●● शास्त्रों में वर्णित तक्षशिला में घटीं घटनाएँ ●●●
जब हम अपने शास्त्रों का गंभीरता से अध्ययन करें तो उनमें कई घटनाएँ ऐसी मिलती हैं जिनमें तक्षशिला का उल्लेख किया गया है ।शतपथ ब्राह्मण में आई आरुणि-उद्दालक की कथा हो अथवा वैशंपायन एवं जनमेजय के मध्य का संवाद हो, श्वेतकेतु का अध्ययन क्षेत्र हो अथवा कलियुग के प्रथम राजा परीक्षित का राज्याभिषेक--- ये सभी घटनाएँ तक्षशिला में ही घटी हैं ।
शास्त्रों के अनुसार धौम्य ऋषि के शिष्यों उपमन्यु, आरुणि एवं वेद की शिक्षा-दीक्षा का कार्य तक्षशिला विश्वविद्यालय में ही संपन्न हुआ था ।तक्षशिला का उल्लेख मात्र रामायण, महाभारत एवं वेदों में ही नहीं आता, वरन् बौद्ध धर्म के जातकों में भी आता है ।यहाँ तक कि बौद्ध जातकों में एक संपूर्ण जातक, तक्षशिला जातक के नाम से जाना जाता है ।जैन धर्म के अनुसार, प्रथम जैन तीर्थंकर ॠषभदेव के चरण भी तक्षशिला में पड़े थे, जिसको आदर देने के उद्देश्य से बाद में बाहुबलि ने धर्मचक्र की स्थापना करवाई।
ईसा से छह सदी पूर्व पाणिनि ने अष्टाध्यायी की रचना की भूमिका यहीं तैयार करनी प्रारंभ की थी वहीं चरक एवं चाणक्य , दोनों ही इस विश्वविद्यालय के विद्यार्थी तथा आचार्य भी रहे ।जिस विश्वविद्यालय के विद्यार्थियों में वैशंपायन से लेकर चाणक्य और चरक से लेकर पाणिनि के नाम आते हों , उसकी गौरव-गरिमा का अंदाजा लगा पाना भी संभव नहीं है ।
तक्षशिला विश्वविद्यालय अपनी अद्भुत भौगोलिक स्थिति के कारण भारत ही नहीं, वरन् मध्य यूरोप, चीन, तिब्बत, प्राचीन यूनान क्षेत्रों के विद्यार्थियों के लिए एक आकर्षण का कारण रहा ।तक्षशिला आज पाकिस्तान की राजधानी इस्लामाबाद से 32 किलोमीटर की दूरी पर है ।
तक्षशिला विश्वविद्यालय में विश्व भर से विद्यार्थी विद्याध्ययन के लिए आते थे इसी कारण इस पवित्र विद्यामन्दिर को अनेक बार विदेशी आक्रमणों के प्रहार भी सहने पड़े ।मंगोलों से लेकर यूनानियों ने, शकों से लेकर हूणों ने तक्षशिला पर बारंबार आक्रमण किए।पुरातात्विक पर्यवेक्षण में यह स्पष्ट दिखाई पड़ता है कि यह महान विद्या भूमि अनेक बार उजाड़ी गई और फिर बसी ।
तक्षशिला की इमारतों के बार-बार ध्वस्त कर देने के बाद भी उनके दुबारा खड़े हो जाने का मुख्य कारण यही था कि यहाँ के आचार्य विलक्षण प्रतिभा के धनी थे ।इसी विश्वविद्यालय में कभी भारत की राष्ट्रलिपि रही -- 'ब्राह्मी लिपि' विकसित हुई । बौद्ध जातकों के अनुसार तक्षशिला विश्वविद्यालय के एक-एक आचार्य पाँच सौ विद्यार्थियों की संपूर्ण शिक्षा एवं प्रशिक्षण का दायित्व सँभालते थे ।
●●● नालंदा विश्वविद्यालय बिहार-ए-शरीफ में स्थित ●●●
भारतीय इतिहास एवं परम्पराओं में नालंदा विश्वविद्यालय का स्थान भी अत्यन्त महत्वपूर्ण रहा है ।नालंदा में सर्वप्रथम एक विहार की स्थापना सम्राट अशोक ने इसलिए करवाई थी ; क्योंकि रह क्षेत्र भगवान बुद्ध एवं भगवान महावीर, दोनों का प्रिय माना जाता था ।कालान्तर में नागार्जुन द्वारा एक प्रतिष्ठित शिक्षा संस्थान की स्थापना यहाँ की गई ,जो देखते-देखते विश्व प्रसिद्ध विश्वविद्यालय में बदल गया ।
भारत भ्रमण पर आए फाह्यान ने 490 ई0 में नालंदा का भ्रमण किया था और अपने यात्रा संस्मरणों में इसका उल्लेख भी किया है ।गुप्त वंश के समय नालंदा की प्रगति और भी तीव्र गति से हुई ।पुरातात्विक अनुसंधानों से यह स्पष्ट है कि नालंदा विश्वविद्यालय का क्षेत्र, आज के बिहार-ए-शरीफ में पड़ता था ।नालंदा विश्वविद्यालय का क्षेत्र इतना बड़ा था कि उसका अनुमान लगाना भी कठिन हो जाता है ।उस समय वहाँ अध्ययन करने के लिए कोरिया, जापान,चीन, तिब्बत, इंडोनेशिया, पर्शिया एवं तुर्की से अनेक विद्यार्थी आया करते थे ।
●ह्वेनसांग के यात्रा वृत्तांत के अनुसार नालंदा विश्वविद्यालय●
चीनी यात्री ह्वेनसांग के यात्रा वृत्तांत के अनुसार नालंदा विहार की भूमि पाँच सौ धनाढ्य लोगों ने मिलकर दस करोड़ स्वर्ण मुद्राओं में खरीदी थी और उसके बाद भगवान बुद्ध को अर्पित की थी ।भारत की विविधता में एकता एवं सर्वधर्म समभाव की बात इसी से स्पष्ट
हो जाती है कि वैदिक मतावलंबी होते हुए भी नालंदा का सर्वाधिक विकास गुप्तकाल में ही हुआ । बाद में सम्राट हर्षवर्धन ने
तो भगवान बुद्ध की अस्सी फुट ऊँची ताँबे की एक प्रतिमा बनवाकर नालंदा विश्वविद्यालय को भेंट भी की थी ।
यहाँ प्राप्त खंडहरों की खुदाई से मिली जानकारी के अनुसार नालंदा विश्वविद्यालय के भवन मीलों दूर तक फैले हुए थे ।इस विश्वविद्यालय का पुस्तकालय लाखों पुस्तकों से भरा हुआ था, इस पुस्तकालय का नाम धर्मगंज रखा गया था ।इस पुस्तकालय के भी तीन हिस्से थे, जिनके नाम रत्नसागर, रत्नोदधि एवं रत्नरंजिका रखे गए थे ।
नालंदा विश्वविद्यालय के तीन पुस्तकालय में से एक रत्नोदधि ही नौ मंजिला ऊँचा था तो यह अनुमान लगाया जा सकता है कि अन्य दो पुस्तकालयों में कितनी पुस्तकें रखी गई होंगी ।यहाँ पर विद्यार्थी बौद्ध धर्म की महायान परंपरा के ग्रन्थों का, वेदों का, उपवेदों का, ज्योतिर्विज्ञान का , तर्क, दर्शन एवं चिकित्सा इत्यादि का अध्ययन करते थे
ह्वेनसांग के यात्रा वृत्तांत में वहाँ उपस्थित एक ज्योतिर्विज्ञान वेधशाला का भी उल्लेख मिलता है, इस वेधशाला के विषय में उसने लिखा है कि इसके माध्यम से आकाश का अध्ययन किया जाता है ।निम्न श्लोक इस बात की पुष्टि करता प्रतीत होता है---
यस्याम्बुधरावलेहि शिखरश्रेणी विहारावली ।
मालेबोर्ध्व विराजिनी विरचिता कान्ता मनोज्ञाभुवः ।।
नालंदा विश्वविद्यालय में विद्यार्थियों के लिए तेरह छात्रावास बनाए गए थे और लगभग तीन हजार विद्यार्थियों को निःशुल्क शिक्षा , निःशुल्क भोजन प्रदान किया जाता था ।यहाँ तक कि विद्यार्थियों के वस्त्र तथा औषधि का प्रबंध भी विश्वविद्यालय की ओर से होता था। ह्वेनसांग के अनुसार नालंदा में लगभग पंद्रह सौ दस(1510 )
आचार्य थे ।इनमें से दस उच्चतर श्रेणी के शिक्षक थे , पाँच सौ मध्यम श्रेणी के एवं एक हजार सामान्य श्रेणी के शिक्षक थे ।
मगध क्षेत्र को नालंदा विश्वविद्यालय के कारण अपार प्रसिद्धि मिली ।
मगध क्षेत्र में विक्रमशिला विश्वविद्यालय की स्थापना पालवंश के राजा धर्मपाल द्वारा 8वीं शताब्दी में की गई ।सभी इतिहासवेत्ता इस बारे में एकमत हैं कि यह विश्वविद्यालय देव संस्कृति का उज्जवल दीप था और आज भी यह वैदिक ज्ञान-विज्ञान के अध्ययन-अन्वेषण के लिए जाना जाता है,
ऐसा माना जाता है कि कभी यहाँ पर छोटे-बड़े 102 मन्दिर थे , जिनमें से प्रत्येक में एक आचार्य का निवास था और ये सभी अपने-अपने विषय का ज्ञान यहाँ प्रदान किया करते थे ।विक्रमशिला विश्वविद्यालय के केंद्रीय भवन का नाम विज्ञान गृह था ।
विक्रमशिला विश्वविद्यालय का प्राच्य विभाग पूरे भारतवर्ष में विख्यात था ।यह विश्वविद्यालय गंगा के तट पर वर्तमान भागलपुर से 24 मील दूर स्थित था ।पुरातत्वविज्ञानी कनिंघम ने उत्तरी मगध के बड़गाँव के निकट इसकी पहचान की है ।
विक्रमशिला विश्वविद्यालय के बारे में ऐसा अनुमान लगाया जाता है कि बारहवीं सदी तक यहाँ अध्ययनरत विद्यार्थियों की संख्या तीन हजार के करीब तक पहुँच गई थी ।प्रसिद्ध विद्वान दीपंकर श्रीज्ञान किसी समय यहाँ के प्रमुख आचार्य रहे होंगे, ऐसा सभी का मानना है ।
इस विश्वविद्यालय के बारे में दुखद बात यह रही कि इस विश्वविद्यालय को 1203 ईo में बर्बर आक्रांता मुहम्मद-बिन-अख्तियार-खिलजी ने इसे ढहा दिया और इसके तमाम शोधग्रन्थ पत्र एवं दुर्लभ पत्र-पत्रिकाओं आदि को अग्नि के हवाले कर दिया ।अतीत की इस धरोहर को पूरी तरह से जलने में महीनों लग गए थे, पर जब यह अपनी ऊन्नत अवस्था में था तो यह भारतीय शोध का केन्द्र था ।
प्राचीन भारत के ऐसे ही अन्य प्रतिष्ठित विद्यालयों में काशी विश्वविद्यालय, जगद्दला विश्वविद्यालय,ओदंतपुरी विश्वविद्यालय, मिथिला विश्वविद्यालय, नवदीप विश्वविद्यालय एवं कांची विश्वविद्यालय के नाम लिए जाते हैं ।इन्हीं परम्पराओं को अक्षुण्ण रखने के लिए आज भी भारत में ऐसे गौरवपूर्ण विश्वविद्यालय हैं जिनमें हजारों विद्यार्थी विद्याध्ययन करते हैं ।इन विश्वविद्यालयों में उन्हीं प्राचीन परम्पराओं एवं ज्ञान की धाराओं का निर्वहन किया जा रहा है, जिनकी प्रतिष्ठा ऋषि-मुनियों ने वर्षों पहले की थी ।
सादर अभिवादन व धन्यवाद ।
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