शरद पूर्णिमा का बड़ा महत्व है ।आश्विन मास की शुक्ल पक्ष की पूर्णिमा को 'शरद पूर्णिमा' कहते हैं ।ज्योतिष की मान्यता के अनुसार संपूर्ण वर्ष में केवल इसी दिन चंद्रमा अपनी सोलह कलाओं से परिपूर्ण होकर धरती पर अपनी अद्भुत छटा बिखेरते हैं ।इस दिन चंद्रमा पृथ्वी के करीब होते हैं ।धर्मशास्त्रों में इसी दिन को 'कोजागरा व्रत' माना गया है ।कोजागरा का शाब्दिक अर्थ है-- कौन जाग रहा ? कहते हैं इस रात्रि में माँ लक्ष्मी की उपासना भी फलदायक होती है ; क्योंकि ब्रह्म कमल भी इसी रात खिलता है ।
वर्षा को शीत से जोड़ने वाली संधि ऋतु है "शरद" ।वर्षा ऋतु के अवसान और शीत के आगमन के संधिकाल का समय मौसम-परिवर्तन और त्योहारों की शुरुआत का होता है ।दशहरे के बाद करवा चौथ और दीपावली से पहले आने वाली शरद पूर्णिमा का सिर्फ सौन्दर्य ही नहीं, स्वास्थ्य की दृष्टि से भी बड़ा महत्व है ।
कार्तिक का व्रत भी शरद पूर्णिमा से ही प्रारंभ होता है ।इस पूरे माह सनातन संस्कृति को मानने वाले विशेष पूजा-पाठ , पूरे माह ब्रह्म-मुहूर्त में स्नान व तुलसी पूजा का दौर चलता है ।कहा जाता है कि इस दिन भगवान श्री कृष्ण ने गोपियों के संग महारास रचाया था , इसलिए इसे रास पूर्णिमा भी कहा जाता है ।कहीं-कहीं इसे कौमुदी पूर्णिमा भी कहते हैं ।कौमुदी का अर्थ है-- चंद्रमा की रोशनी बढ़ना ।
●●● शरद पूर्णिमा में खीर क्यों बनाते हैं ? ●●●
आयुर्वेद में भी शरद पूर्णिमा का वर्णन किया गया है ।इसके अनुसार शरद ऋतु में दिन बहुत गरम और रात ठंडी होती है ।इस ऋतु में पित्त या एसिडिटी का प्रकोप ज्यादा होता है ।जिसके लिए ठंडे दूध और चावल का खाना अच्छा माना जाता है ।यही वजह है कि शरद ऋतु में दूधमिश्रित खीर बनाने का प्रावधान है ।
सोमचक्र, नक्षत्रीय चक्र और आश्विन के त्रिकोण के कारण शरद ऋतु से ऊर्जा का संग्रह होता है और वसंत ऋतु में निग्रह होता है ।अध्ययन के अनुसार दुग्ध में लैक्टिक अम्ल और अमृत तत्व होता है ।यह तत्व किरणों से अधिक मात्रा में शक्ति का शोधन करता है ।चावल में स्टार्च होने के कारण यह प्रक्रिया और आसान हो जाती है ।
इसी कारण ऋषि-मुनियों ने शरद पूर्णिमा की रात्रि में, खुले आसमान में खीर रखने की परम्परा की शुरुआत की है ।यह परंपरा विज्ञान पर आधारित है ।शोध के अनुसार खीर को चाँदी के पात्र में बनाना चाहिए ।चाँदी में प्रतिरोधकता अधिक होती है ।इससे विषाणु दूर रहते हैं ।
●●● शरद पूर्णिमा पर चंद्र-किरणों से अमृत वर्षा ●●●
मान्यता है कि शरद पूर्णिमा के चंद्रमा से अमृत बूँदें झरती हैं, इसलिए प्रसाद के रूप में खीर का भोग लगाया जाता है ।चाँदनी को प्रतीक बनाते हुए श्वेत वस्त्र से राधा-कृष्ण का श्रृंगार किया जाता है ।शरद पूर्णिमा की दूधिया रोशनी में आसमान की रोशनी को निहारना एक अद्भुत अनुभव देता है ।चारों तरफ सिर्फ धवल चाँदनी ही दिखाई देती है, जिसमें छत पर बैठकर सुई में धागा पिरोना हो या चावल की खीर बनाकर उसमें अमृत-बूँदें गिरने का इंतजार करना हो - इन सभी से मन को प्रसन्नता मिलती है ।
शरद ऋतु को अमृत संयोग ऋतु भी कहा गया है ; क्योंकि शरद की पूर्णिमा के दिन चंद्रमा की किरणें धरती पर छिटककर अन्न- वनस्पति आदि को औषधीय गुणों से भरपूर करतीं हैं, इसलिए स्वास्थ्य की दृष्टि से शरद पूर्णिमा को बहुत महत्वपूर्ण माना गया है ।
कहीं-कहीं इसे कौमुदी पूर्णिमा भी कहते हैं ।कौमुदी का अर्थ है-- चंद्रमा की रोशनी का बढ़ना , इसीलिये इस दिन वैद्य लोग अपनी जड़ी-बूटी और औषधियाँ चाँद की रोशनी में बनाते हैं ।जिससे ये रोगियों को दुगना फायदा दें ।अध्ययन के शरद पूर्णिमा के दिन औषधियों की स्पंदन क्षमता अधिक होती है ।
यों तो पूर्णिमा का चाँद अपने आप में पूर्ण और सुन्दर होता है लेकिन शरद पूर्णिमा का चाँद अपना एक अलग ही महत्व रखता है ।
सादर अभिवादन व धन्यवाद ।
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