भारतीय धर्म शास्त्रों में चन्द्रमा के विषय में जितना अधिक वर्णन मिलता है , उतना अन्यत्र किसी भी ज्ञानकोष में नहीं मिलता ।प्राचीन वैदिक काल से ही प्रकृति एवं परमात्मा के प्रतीक रूप में जिन देवताओं की पूजा की जाती है उनमें सूर्य , वरुण, वायु, पृथ्वी, इंद्र एवं चन्द्रमा प्रमुख हैं ।हमारे शास्त्रों ने चंद्रमा को पितरों की भूमि माना है ।
सौम्य एवं शीतल किरणें होने के कारण चंद्रमा को सोम,शीतकर तथा रात्रि का स्वामी होने के कारण राकेश, निशाधिपति,निशाकर आदि भी कहा जाता है ।चंद्रमा हमारे सनातन धर्म में वर्णित प्रत्यक्ष देवताओं में प्रधान देवता है ।
महर्षि पाणिनि संस्कृत एवं वैदिक विश्वविद्यालय उज्जैन के ज्योतिर्विज्ञान के प्राध्यापक प्रोo उपेंद्र भार्गव के अनुसार-- ' चंद्रमा को ध्यान में रखकर हमारे धर्मशास्त्रीय विधान, जप, तप, व्रत, उपवास, दान,यात्रा, विवाह एवं उत्सव आदि का निर्णय किया जाता है ।
●●● चंद्रमा की उत्पत्ति ●●●
● वेदों में---- चंद्रमा की उत्पत्ति के विषय में वेद में कहा गया है कि ब्रह्मा अर्थात सृष्टिकर्त्ता ने सर्वप्रथम भूमितत्व को उत्पन्न किया तदनंतर मरुद्गण व 49 प्रकार की वायु को उत्पन्न किया, इसके उपरांत ब्रह्मा ने आदित्य-सूर्य को उत्पन्न किया तथा सूर्य से ही चंद्रमा की उत्पत्ति हुई ।
● माध्यंदिनी संहिता में----- माध्यंदिनी संहिता में कहा गया है ---- " ब्रह्मा ने कामना की , कि भूमि उत्पन्न हो गई ।उन्होंने सूर्य के उत्पन्न होने की कामना की और सूर्य सहित दिशाएँ उत्पन्न हो गईं।एक विशालकाय सोने का अंडा हिरण्यगर्भ उत्पन्न हुआ, जिसमें विक्षोभ हुआ और वह दो भागों में विभक्त हुआ।उसके विभाजन से प्रवाहित हो रहे रेतस् से चंद्रमा तथा नक्षत्र आदि उत्पन्न हुए ।
● वायु पुराण में----- वायु पुराण में कहा गया है--- " नक्षत्र, चंद्रमा एवं ग्रह आदि सभी की उत्पत्ति सूर्य से हुई है ।"
● अग्नीषोमात्मकं जगत् --- अग्नीषोमात्मकं जगत् के अनुसार--- " संसार अग्नि और सोम रूप है ।" अग्नि ही सूर्य रूप में व्याप्त होता है और सोम चंद्रमा के रूप में । सृष्टि में दोनों की आवश्यकता अनिवार्य है।
●●● ज्योतिष शास्त्र में चंद्रमा ●●●
ज्योतिष शास्त्र में चंद्रमा को जलीय ग्रह कहा गया है ।हमारा ज्योतिष विज्ञान कितना उन्नत है , इसका अनुमान इस बात से लगाया जा सकता है कि आधुनिक विज्ञान आज भी चंद्रमा पर पानी और बरफ की खोज कर रहा है, लेकिन हमारे ज्योतिष विज्ञान में चंद्रमा को जलतत्व का कारक ग्रह कहा गया है ।
ज्योतिष शास्त्र की दृष्टि से चंद्रमा की गति पूर्वाभिमुख है ।वह कर्क राशि का स्वामी, गौर वर्ण का, वायव्य दिशा का अधिपति, शुभग्रह, सत्वगुणयुक्त, जलतत्व प्रधान जलीय ग्रह है तथा मणि उसकी धातु कही गई है ।
ज्योतिष शास्त्र में चंद्रमा को जलीय ग्रह कहा गया है कि।अतः उसके रात्रि में प्रकाशित होने के कारण को स्पष्ट करते हुए कहा गया है कि जिस प्रकार दर्पण पर गिरी हुई सूर्य की किरणों के प्रतिबिम्ब से घर के अंदर का अंधकार नष्ट हो जाता है, उसी जलमय पिंड की तरह दिखने वाले चंद्रमा के ऊपर गिरने वाली सूर्य की किरणों के प्रतिबिम्ब से पृथ्वी पर रात्रिसंबंधी अंधकार नष्ट होता है ।
चंद्रमा पर होने वाले उल्कापातों के विषय में भी भारतीय ज्योतिषियों ने ज्ञान प्राप्त कर लिया था ।उन्होंने ग्रहणकाल में चंद्रमा पर होने वाले उल्कापातों के फल का भी विवेचन किया ।
●●● वैदिक साहित्य में चंद्रमा ●●●
वैदिक साहित्य में चंद्रमा की गति का भी उल्लेख मिलता है ।ऐतरेय ब्राह्मण में अमावस्या में उदयकालिक सूर्य की ओर जाते हुए शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा तिथि को सूर्य से आग निकलते हुए चंद्रमा को देखकर लिखा गया है --- "चंद्रमा वा अमावास्यायाम् आदित्यमनुप्रविशति आदित्याद्वै चंद्रमा जायते ।।" अर्थात चंद्रमा में स्वयं का प्रकाश नहीं होता ।इस विषय का ज्ञान भी वैदिक काल में किया जा चुका था कि वह सूर्य के प्रकाश से प्रकाशित होता है ।इस कारण "तैत्तिरीय संहिता" में चंद्रमा को 'सूर्यरश्मि चंद्रमा' कहकर संबोधित किया गया है ।
● शुक्ल यजुर्वेद के अनुसार सृष्टिकर्त्ता ब्रह्मा के मन में चंद्रमा की उत्पत्ति हुई , अतः चंद्रमा को मन का कारक कहा गया है ।
● ऋग्वेद के अनुसार चंद्रमा की किरणें अमृत-बिंदु के समान हैं तथा वह समस्त औषधियों का स्वामी है ।
त्वमिमा ओषधीः सोम विश्वास्त्वमपो
अजनयस्त्वं गाः ।
त्वमा ततन्थोर्वन्तरिक्षं त्वं
ज्योतिषा वि तमो ववर्थ ।।
● पुराणों के अनुसार, एक बार रावण ने चंद्रलोक में जाकर चंद्रमा पर वाणों का प्रयोग किया था तथा ब्रह्मा की आज्ञा से वह वापस लौट आया था ।महिषासुर ने भी चंद्रमा पर अपना आधिपत्य जमा लिया था , जिसका देवी दुर्गा ने वध किया था ।
● धर्म शास्त्र के अनुसार चंद्रमा या चंद्रलोक को एक दिव्य धाम माना गया है ; जहाँ विविध प्रकार का ऐश्वर्य व वैभव माना जाता है और उसे धर्ममार्ग पर चलकर , तप व योगपूर्वक ही प्राप्त किया जा सकता है ।
● वृहत्संहिता में वराहमिहिर ने लिखा है कि जिस तरह धूप में स्थित घड़े का सूर्य की तरफ का आधा भाग रोशनी वाला और विरुद्ध दिशा में स्थित दूसरा आधा भाग अपनी छाया से ही काला दिखाई देता है, उसी तरह सदा सूर्य के अधोभाग में स्थित चंद्रमा का सूर्य की तरफ का आधा भाग शुक्ल और उसके विपरीत का आधा भाग अपनी ही छाया से काला (कृष्ण)दिखाई देता है ।
● भारतीय गणितज्ञों के अनुसार चंद्रमा की परिधि का मान ●
भारतीय गणितज्ञों ने चंद्रमा की परिधि का मान-- सूर्य सिद्धांत के अनुसार 480 योजन तथा कक्षामान 3, 24, 000 योजन तथा आर्यभट्ट के अनुसार चंद्रपरिधि 315 योजन तथा कक्षामान
2, 16,000 योजन के बराबर बताया है ।आधुनिक मान में लगभग 12 किलोमीटर का एक योजन माना गया है , इस अनुसार गणना का आंकलन किया जा सकता है ।
सादर अभिवादन व धन्यवाद ।