head> ज्ञान की गंगा / पवित्रा माहेश्वरी ( ज्ञान की कोई सीमा नहीं है ): November 2020

Monday, November 30, 2020

भारतीय धर्म शास्त्रों में चंद्रमा,चंद्रमा की उत्पत्ति,ज्योतिष शास्त्र में चंद्रमा,वैदिक साहित्य में चंद्रमा, चंद्रमा की परिधि का मान ।

          ●●● भारतीय धर्म शास्त्रों में चन्द्रमा ●●●
भारतीय धर्म शास्त्रों में चन्द्रमा के विषय में  जितना अधिक वर्णन मिलता है , उतना अन्यत्र किसी भी ज्ञानकोष में नहीं मिलता ।प्राचीन वैदिक काल से ही प्रकृति एवं परमात्मा के प्रतीक रूप में जिन देवताओं की पूजा की जाती है उनमें सूर्य , वरुण, वायु, पृथ्वी, इंद्र एवं चन्द्रमा प्रमुख हैं ।हमारे शास्त्रों ने चंद्रमा को पितरों की भूमि माना है ।
         
सौम्य एवं शीतल किरणें होने के कारण चंद्रमा को सोम,शीतकर तथा रात्रि का स्वामी होने के कारण राकेश, निशाधिपति,निशाकर आदि भी कहा जाता है ।चंद्रमा हमारे सनातन धर्म में वर्णित प्रत्यक्ष देवताओं में प्रधान देवता है ।

महर्षि पाणिनि संस्कृत एवं वैदिक विश्वविद्यालय उज्जैन के ज्योतिर्विज्ञान के प्राध्यापक प्रोo उपेंद्र भार्गव के अनुसार-- ' चंद्रमा को ध्यान में रखकर हमारे धर्मशास्त्रीय विधान, जप, तप, व्रत, उपवास, दान,यात्रा, विवाह एवं उत्सव आदि का निर्णय किया जाता है ।

               ●●● चंद्रमा की उत्पत्ति ●●●

● वेदों में---- चंद्रमा की उत्पत्ति के विषय में वेद में कहा गया है कि ब्रह्मा अर्थात सृष्टिकर्त्ता ने सर्वप्रथम भूमितत्व को उत्पन्न किया तदनंतर मरुद्गण व 49 प्रकार की वायु को उत्पन्न किया, इसके उपरांत ब्रह्मा ने आदित्य-सूर्य को उत्पन्न किया तथा सूर्य से ही चंद्रमा की उत्पत्ति हुई । 
 
● माध्यंदिनी संहिता में----- माध्यंदिनी संहिता में कहा गया है ---- " ब्रह्मा ने कामना की , कि भूमि उत्पन्न हो गई ।उन्होंने सूर्य के उत्पन्न होने की कामना की और सूर्य सहित दिशाएँ उत्पन्न हो गईं।एक विशालकाय सोने का अंडा हिरण्यगर्भ उत्पन्न हुआ, जिसमें विक्षोभ हुआ और वह दो भागों में विभक्त हुआ।उसके विभाजन से प्रवाहित हो रहे रेतस् से चंद्रमा तथा नक्षत्र आदि उत्पन्न हुए ।

● वायु पुराण में----- वायु पुराण में कहा गया है--- " नक्षत्र, चंद्रमा एवं ग्रह आदि सभी की उत्पत्ति सूर्य से हुई है ।"

● अग्नीषोमात्मकं जगत् --- अग्नीषोमात्मकं जगत् के अनुसार--- " संसार अग्नि और सोम रूप है ।"  अग्नि ही सूर्य रूप में व्याप्त होता है और सोम चंद्रमा के रूप में । सृष्टि में दोनों की आवश्यकता अनिवार्य है।

          ●●● ज्योतिष शास्त्र में चंद्रमा ●●●

ज्योतिष शास्त्र में चंद्रमा को जलीय ग्रह कहा गया है ।हमारा ज्योतिष विज्ञान कितना उन्नत है , इसका अनुमान इस बात से लगाया जा सकता है कि आधुनिक विज्ञान आज भी चंद्रमा पर पानी और बरफ की खोज कर रहा है, लेकिन हमारे ज्योतिष विज्ञान में चंद्रमा को जलतत्व का कारक ग्रह कहा गया है ।

ज्योतिष शास्त्र की दृष्टि से चंद्रमा की गति पूर्वाभिमुख है ।वह कर्क राशि का स्वामी, गौर वर्ण का, वायव्य दिशा का अधिपति, शुभग्रह, सत्वगुणयुक्त, जलतत्व प्रधान जलीय ग्रह है तथा मणि उसकी धातु कही गई है ।

ज्योतिष शास्त्र में चंद्रमा को जलीय ग्रह कहा गया है कि।अतः उसके रात्रि में प्रकाशित होने के कारण को स्पष्ट करते हुए कहा गया है कि जिस प्रकार दर्पण पर गिरी हुई सूर्य की किरणों के प्रतिबिम्ब से घर के अंदर का अंधकार नष्ट हो जाता है, उसी जलमय पिंड की तरह दिखने वाले चंद्रमा के ऊपर गिरने वाली सूर्य की किरणों के प्रतिबिम्ब से पृथ्वी पर रात्रिसंबंधी अंधकार नष्ट होता है ।

चंद्रमा पर होने वाले उल्कापातों के विषय में भी भारतीय ज्योतिषियों ने ज्ञान प्राप्त कर लिया था ।उन्होंने ग्रहणकाल में चंद्रमा पर होने वाले उल्कापातों के फल का भी विवेचन किया ।

          ●●● वैदिक साहित्य में चंद्रमा ●●●

वैदिक साहित्य में चंद्रमा की गति का भी उल्लेख मिलता है ।ऐतरेय ब्राह्मण में अमावस्या में उदयकालिक सूर्य की ओर जाते हुए शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा तिथि को सूर्य से आग निकलते हुए चंद्रमा को देखकर लिखा गया है ---   "चंद्रमा वा अमावास्यायाम् आदित्यमनुप्रविशति आदित्याद्वै चंद्रमा जायते ।।"   अर्थात चंद्रमा में स्वयं का प्रकाश नहीं होता ।इस विषय का ज्ञान भी वैदिक काल में किया जा चुका था कि वह सूर्य के प्रकाश से प्रकाशित होता है ।इस कारण "तैत्तिरीय संहिता" में चंद्रमा को  'सूर्यरश्मि चंद्रमा'  कहकर संबोधित किया गया है ।
● शुक्ल यजुर्वेद के अनुसार सृष्टिकर्त्ता ब्रह्मा के मन में चंद्रमा की उत्पत्ति हुई , अतः चंद्रमा को मन का कारक कहा गया है ।
● ऋग्वेद के अनुसार चंद्रमा की किरणें अमृत-बिंदु के समान हैं तथा वह समस्त औषधियों का स्वामी है ।
            त्वमिमा ओषधीः सोम विश्वास्त्वमपो 
                                      अजनयस्त्वं    गाः ।
             त्वमा  ततन्थोर्वन्तरिक्षं  त्वं 
                                     ज्योतिषा  वि तमो ववर्थ ।।
● पुराणों के अनुसार, एक बार रावण ने चंद्रलोक में जाकर चंद्रमा पर वाणों का प्रयोग किया था तथा ब्रह्मा की आज्ञा से वह वापस लौट आया था ।महिषासुर ने भी चंद्रमा पर अपना आधिपत्य जमा लिया था , जिसका देवी दुर्गा ने वध किया था ।
● धर्म शास्त्र के अनुसार चंद्रमा या चंद्रलोक को एक दिव्य धाम माना गया है ; जहाँ विविध प्रकार का ऐश्वर्य व वैभव माना जाता है और उसे धर्ममार्ग पर चलकर , तप व योगपूर्वक ही प्राप्त किया जा सकता है ।
● वृहत्संहिता में वराहमिहिर ने लिखा है कि जिस तरह धूप में स्थित घड़े का सूर्य की तरफ का आधा भाग रोशनी वाला और विरुद्ध दिशा में स्थित दूसरा आधा भाग अपनी छाया से ही काला दिखाई देता है, उसी तरह सदा सूर्य के अधोभाग में स्थित चंद्रमा का सूर्य की तरफ का आधा भाग शुक्ल और उसके विपरीत का आधा भाग अपनी ही छाया से काला (कृष्ण)दिखाई देता है ।

● भारतीय गणितज्ञों के अनुसार चंद्रमा की परिधि का मान ●

भारतीय गणितज्ञों ने चंद्रमा की परिधि का मान-- सूर्य सिद्धांत के अनुसार 480 योजन तथा कक्षामान 3, 24, 000 योजन तथा आर्यभट्ट के अनुसार चंद्रपरिधि 315 योजन तथा कक्षामान
 2, 16,000 योजन के बराबर बताया है ।आधुनिक मान में लगभग 12 किलोमीटर का एक योजन माना गया है , इस अनुसार गणना का आंकलन किया जा सकता है ।

सादर अभिवादन व धन्यवाद ।


Thursday, November 26, 2020

यज्ञ एक समग्र जीवन दर्शन, यज्ञाग्नि में निहित शिक्षाएँ


           ●●●यज्ञ एक समग्र जीवन दर्शन ●●●
यज्ञ वैदिक संस्कृति का मुख्य प्रतीक है ।भारतीय संस्कृति में जितना महत्व यज्ञ को दिया गया है, उतना शायद किसी और क्रियाकलाप का नहीं ।

                 यज्ञ का वेदोक्त आयोजन, शक्तिशाली मंत्रों का विधिवत् उच्चारण, विधिपूर्वक बनाए हुए कुंड, शास्त्रोक्त समिधाएँ तथा सामग्रियाँ जब विधानपूर्वक हवन की जातीं हैं तो उनका दिव्य प्रभाव आकाश- मंडल में फैल जाता है ।उस प्रभाव के फलस्वरूप प्रजा के अंतःकरण में प्रेम, एकता, सहयोग, सद्भाव, उदारता, ईमानदारी, संयम, सदाचार, आस्तिकता जैसे सद्गुणों का विकास होने लगता है ।इस तरह व्यक्ति एवं समूह पर यज्ञ के अद्भुत सकारात्मक प्रभाव पड़ते हैं ।

यज्ञ से जुड़ा केंद्रीय तत्व -- अग्नि, स्वयं अजस्र प्रेरणाओं से भरा हुआ है, जिसके महत्व को समझाते हुए ऋग्वेद में यज्ञाग्नि को पुरोहित की संज्ञा दी गई है ।ऋग्वेद की शिक्षाओं पर चलकर लोक-परलोक दोनों सुधारे जा सकते हैं--

         ●●● यज्ञाग्नि में निहित शिक्षाएँ●●●

● 1-- अग्नि में जो कुछ भी पदार्थ ( यज्ञ सामग्री, घृत आदि ) हवन कुंड में समर्पित किए जाते हैं, यज्ञाग्नि उन्हें संग्रहीत नहीं रखती , बल्कि सर्वसाधारण के लिए वायुमंडल में बिखेर देती है ।इसी तरह हमारी शिक्षा,समृद्धि, प्रतिभा, प्रभाव आदि का न्यूनतम उपयोग करते हुए शेष का अधिकाधिक उपयोग जनकल्याण के लिए होना चाहिए ।

●  2 -- जो भी वस्तु अग्नि के संपर्क में आती है , उसे वह दुत्कारती नहीं, बल्कि स्वयं में आत्मसात् करके अपने जैसा बना लेती है ।इससे यह प्रेरणा मिलती है कि हमारे संपर्क में जो पिछड़े, छोटे या पीड़ित व्यक्ति आएँ, उन्हें आत्मसात् कर अपने जैसा बनाने की कोशिश हममें से हरेक को करनी चाहिए ।

● 3 ---  अग्नि की लौ पर कितना ही दबाव पड़े, लेकिन वह दबती नहीं, बल्कि ऊपर को ही उठी रहती है ।इसी तरह हमारे सामने कितने भी भय, प्रलोभन, संकल्प एवं जिजीविषा को दबने नहीं देना चाहिए, बल्कि अग्निशिखा की भाँति ऊँचा उठाए रखना चाहिए ।

● 4 --- अग्नि कभी भी अपनी उष्णता एवं प्रकाश की विशेषताओं को नहीं छोड़ती ।उसी प्रकार हमें सदा मेहनत व कर्तव्यनिष्ठता  के साथ जीवन जीना चाहिए और स्वयं को सदा सक्रिय रखना चाहिए व धर्म की राह पर चलना चाहिए ।

● 5 -- यज्ञाग्नि का अति विशिष्ट गुण यह है कि वह अपने में आहुत सामग्री को वायुरूप बनाकर समस्त जड़-चेतन प्राणियों को बिना भेदभाव किए गुप्तदान के रूप में बिखेर देती है, जो स्वयं में एक विलक्षण शिक्षा है - इससे हमें प्रेरणा मिलती है कि हमारा जीवन भी समस्त प्राणियों के लिए एक वरदानस्वरूप होना चाहिए ।अपने संसाधन,उपलब्धियों व ज्ञान को हमें मुक्तहस्त से लोक-कल्याण में लगाना चाहिए ।

इस तरह यज्ञ स्वयं में प्रचंड प्रेरणाओं से भरा एक आध्यात्मिक प्रयोग है , जिसे यदि उचित विधि से संपन्न किया जाए तो इसके कर्मकांड द्वारा देव आवाहन , मंत्र प्रयोग, संकल्प एवं सद्भावनाओं की सामूहिक शक्ति से एक ऐसी सशक्त ऊर्जा पैदा की जाती है, जिसके द्वारा अंतःवृत्तियों को गलाकर परिष्कार किया जाता है ।
यज्ञाग्नि से प्रेरणाएँ ग्रहण करके मनुष्य अपने  प्रसुप्त देवत्व का जागरण कर सकता है ।यज्ञाग्नि की प्रेरणा से मनुष्य अपने व्यक्तित्व का रूपांतरण करके समाज निर्माण में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है ।

इस तरह यज्ञ एक समग्र जीवन दर्शन है, जो सशक्त प्रेरणा-प्रवाह लिए हुए है ।यज्ञ को जीवन का अभिन्न अंग बनाते हुए हम अपने व्यक्तित्व के रूपांतरण के गहन प्रयोग को संपन्न कर सकते हैं तथा दूसरों को भी प्रेरित कर सकते हैं । यज्ञाग्नि की शिक्षाएँ ग्रहण करके हम परिवार, समाज, प्रकृति एवं सृष्टि के हित साधन का माध्यम बन सकते हैं ।

सादर अभिवादन व धन्यवाद ।

Wednesday, November 25, 2020

वामन अवतार और राजा बलि,बलि का जीवन परिचय, बलि की इंद्रलोक पर विजय,भगवान का वामन रूप में अवतार लेना, वामन का बलि के यज्ञमंडप की ओर प्रस्थान,वामन द्वारा तीन पग भूमि की माँग, भगवान का तीनों लोकों को नापना, वामन शब्द का अर्थ ।

           ●●● वामन अवतार और राजा बलि ●●●                ●●राजा बलि का जीवन परिचय ●●
राजा बलि महान भक्त प्रहलाद के पौत्र एवं दानवीर विलोचन के पुत्र थे ।बलि का जन्म अवश्य दैत्य वंश में हुआ था , परन्तु वे भगवान के अनन्य भक्त थे ।उनकी रगों में पितामह प्रहलाद एवं पिता विरोचन के सभी श्रेष्ठ गुण थे ।उनमें गुरुभक्ति कूट-कूटकर भरी हुई थी ।उन्होंने अपने गुरु शुक्राचार्य की खूब सेवा सुश्रूषा की थी ।

गुरु शुक्राचार्य ने बलि की गुरुभक्ति एवं निष्काम सेवा से प्रसन्न होकर उसे एक यज्ञ करने की प्रेरणा दी ।उस यज्ञ का नाम था अभिजित यज्ञ ।इसे संपन्न कर पाना हर किसी के वश की बात नहीं थी ।शुक्राचार्य के मार्गदर्शन में यज्ञ संपन्न हुआ ।यज्ञ के दौरान यज्ञ कुंड से अनगिनत बेशकीमती एवं बहुमूल्य वस्तुएँ बाहर निकलीं, जिनमें कवच, रथ, धनुष और कभी न रिक्त होने वाला तरकश मुख्य थे ।

स्वयं बलि के पितामह ने यज्ञमंडप में उपस्थित होकर बलि को ऐसी माला प्रदान की, जिसके फूल कभी मुरझाते नहीं थे ।बलि ने श्रद्धा भाव से माला और कवच को धारण किया ।उसने रथ पर आरूढ़ होकर और हाथ में धपुष-वाण लेकर पृथ्वी और पाताल पर अपना आधिपत्य स्थापित कर लिया ।उसकी सेना निरंतर बड़ी और शक्तिशाली होती जा रही थी  ।

बलि न्यायप्रिय व नीतिपरायण राजा थे।उन्होंने पृथ्वी एवं पाताललोक, सभी जगहों पर सुशासन स्थापित कर लिया था ।उनके राज्य में प्रजा सुखी व संतुष्ट थी ।बलि पुण्यात्मा थे औल उनकी सर्वोपरि विशेषता थी सरल एवं निष्कपट भावना ।वे अपने गुरु शुक्राचार्य की छद्म लड़ाई से  कभी भी सहमत एवं संतुष्ट नहीं थे ।वे धर्म युद्ध पर विश्वास करते थे और उनका अपार बल , शौर्य, पराक्रम एवं प्रभु के प्रति अनन्य भक्ति का दुर्लभ संयोग उनको सर्वत्र अजेय बनाता था ।

    ●●● राजा बलि की इंद्र लोक पर विजय ●●●

राजा बलि इंद्रलोक की घोर अव्यवस्था एवं देवताओं की भोगवृत्ति व लापरवाही से भलीभाँति परिचित थे ।इन दिनों सृष्टि-संचालन की प्रकिया में जिम्मेदार देवता ,  उर्वशी , रंभा, मेनका आदि अप्सराओं के रूप-रंग एवं नृत्य में अपने कर्तव्य भूले हुए थे ।इसी कारण धरती पर समय पर बरसात न होना , अकाल पड़ने जैसे अनेक व्यतिक्रम आ गए थे ।इंद्रलोक के उस कुशासन को सुशासन में परिवर्तित करने के राजा बलि ने इंद्रलोक पर अपनी विशाल सेना के साथ चढ़ाई कर दी और अपने शौर्य व बल से देवताओं को परास्त कर दिया ।

धर्मपरायण दैत्य राजा बलि ने भोग-विलास में डूबे रहने वाले स्वर्गाधिपति इंद्र को परास्त कर देव व्यवस्था सँभाल ली। स्वर्गाधिपति हो जाने के बाद भी बलि सदा तप एवं यज्ञ में निरत रहते थे।उनकी रुचि सुशासन , विष्णु भक्ति एवं तप-य्ज्ञ में थीवन कि भोगों में ।

इंद्रलोक पर विजय प्राप्त करने के बाद राजा बलि ने इंद्रलोक की व्यवस्था ही बदल दी ।जहाँ प्रातः- साँय नृत्य की झंकार सुनाई देती थी , वहाँ वेदमंत्रों का उच्चारण होने लगा ।विभिन्नप्रकार के यज्ञों से वातावरण में  दिव्यता छाने लगी ।स्वर्ग के सभी संसाधन एवं साधनों को तप एवं यज्ञ में प्रयुक्त किया जाने लगा ।

अब स्वयं राजा बलि देवताओं को उन्हें उनकी जिम्मेदारी का भलीभाँति निर्वहन करने का आदेश देते थे ।अब कहीं भी कोई अपने काम में आलस्य-प्रमाद नहीं बरत पा रहा था ।इस वजह से अब पृथ्वी पर पर्यावरण संतुलित रहने लगा ।धन्य-धान्य में भी वृद्धि होने लगी ।

   ●●● भगवान का वामन रूप में अवतार लेना ●●●

त्रिलोक अधिपति राजा बलि के शासनकाल में तीनों लोकों में सुख-शांति एवं समृद्धि का वातावरण बन गया था ।सभी प्रसन्न थे,
लेकिन देवता खुश नहीं थे ; क्योंकि भोगविलास प्रिय देवताओं को भला त्याग-तपस्या से क्या सरोकार ।अतः सभी देवताओं ने इंद्र के साथ मिलकर भगवान विष्णु से प्रार्थना की कि कृपा कर राजा बलि से देवलोक वापस दिलाएँ ।इस प्रार्थना पर भगवान को भारी असमंजस हुआ ; क्योंकि इस बात से वे भलीभाँति परिचित थे कि धर्मपरायण परम भक्त बलि से अब युद्ध करना संभव नहीं है ।

भगवान विष्णु ने महर्षि कश्यप की धर्मपरायणा पत्नी के घर वामन रूप में प्रकट हुए ।बड़े-बड़े नेत्र , चमकता दीप्तिमान मुखमंडल, विशाल वक्षस्थल , लंबी-लंबी भुजाएँ और सिर पर घने केश से सुशोभित वामन अवतार में भगवान बालसूर्य के समान प्रतीत हो रहे थे , परन्तु वे स्वयं अपने उद्देश्य को लेकर खुश नहीं थे , क्योंकि उनके मन में बलि के प्रति छल भरा हुआ था ।

●● भगवान वामन का बलि के यज्ञमंडप की ओर प्रस्थान●●

अब भगवान ने अपनी माता को प्रणाम करके , नर्मदा के तट पर उस स्थान की ओर प्रस्थान किया, जहाँ भक्त एवं राजा बलि अश्वमेध यज्ञ संपन्न कर रहे थे ।भगवान वामन मूँज की करधनी पहने , गले में यज्ञोपवीत धारण किए पैरों में पादुका एवं सिर के ऊपर सुन्दर छाता लगाए हुए थे ।

जब भगवान वामन ने यज्ञमंडप में प्रवेश किया तो सभी भृगुवंशी ब्राह्मणों और विद्वानों ने उठकर उनका स्वागत-सत्कार एवं अभिनन्दन किया ।स्वयं राजा बलि ने श्रद्धापूर्वक प्रणाम करते हुए भगवान को रत्नजड़ित सिंहासन पर बैठाकर उनके चरण धोए और उस चरणोदक का पान किया और कहा -- " हे भगवान ! आपने यहाँ पधारकर हम सबको कृतार्थ किया है ।कृपया हमें अपने आगमन के कारण से अवगत कराएँ।

●● भगवान का राजा बलि से तीन पग पृथ्वी की माँग ●●

जब राजा बलि ने भगवान वामन से उनके आगमन का कारण जानना चाहा तब वामन भगवान ने प्रत्युत्तर में कहा -- " महाराज बलि ! आप परम भक्त हैं ।आपको अपने महान कुल की मर्यादा एवं परम्परा का न केवल ज्ञान है , अपितु आप उसका यथोचित निर्वहन भी करते हैं ।आपके पितामह प्रहलाद परम भक्त, महादानी और धर्मात्मा रहे हैं एवं आपके पिता विरोचन का स्थान सर्वश्रेष्ठ दानियों के बीच सुशोभित है ।

 राजन ! आप स्वयं परमधर्मात्मा एवं श्रेष्ठ पुण्यात्मा हैं ।मैं ब्रह्मचारी हूँ ! भला किसी ब्रह्मचारी को धन, वैभव एवं ऐश्वर्य से क्या प्रयोजन ! मैं तो केवल तीन पग पृथ्वी की इच्छा लिए आपके समक्ष प्रकट हुआ हूँ ।मेरी यही माँग है और आशा है कि आप मुझे निराश नहीं करेंगे ।

महाराजा बलि पाँच वर्ष के उस तेजस्वी ब्राह्मण को यज्ञशाला में प्रवेश करते ही पहचान गए थे ।उन्होंने एक पल में ही अपने आराध्य एवं इष्ट को जान लिया था ।वामन अवतार में अवतरित बिष्णु भगवान ने तीन पग पृथ्वी माँगी वे उसे कैसे अस्वीकार कर सकते थे ।

● वामन से विराट होकर भगवान का तीनों लोकों को नापना ●

भगवान की माँग स्वीकारते हुए राजा बलि ने भूमि दान का संकल्प करने के लिए अपनी अंजलि में जल लिया , उसी समय दैत्यों के गुरु एवं महान तांत्रिक शुक्राचार्य ने कहा -- ठहरो बलि ये वामन वेश में विष्णु हैं, ये तुम्हें छलने आए हैं ।ये तुमसे तीन पग भूमि नहीं, बल्कि तुम्हारे तीनों लोकों का राज्य लेने आए हैं ।
शुक्राचार्य की बात सुनकर बलि ने कहा -- " हे गुरुदेव ! आपका संशय सर्वथा सच संभावित हो सकता है ।भले ही ये मेरे तीनों लोकों को लेने आए हों और भले ही इनका उद्देश्य हमें छलना हो, परन्तु भक्त के लिए अपना सर्वस्व लुटाने वाले भगवान आज स्वयं अपने भक्त के पास याचक बनकर आए हैं, अतः मैं याचक बने भगवान को खाली कैसे लौटा सकता हूँ ।भगवान की याचना को मैं जरूर ही पूरा करूँगा , फिर भले ही मुझे भिखारी बनकर दर-दर ठोकरें खानी पडें।"  

जब बलि ने भगवान की याचना पूरी करने का दृढ़ निश्चय कर लिया तो गुरू शुक्राचार्य ने अप्रसन्न होकर राजा बलि को तेजहीन होने का श्राप दे दिया , जिसे बलि ने सहर्ष स्वीकार कर लिया और उन्होंने भगवान वामन को दान देने के लिए हाँ कर दिया।

बलि के हाँ कहते ही भगवान वामन से विराट हो गए और उन्होंने दो पग में तीनों लोकों को नाप लिया और कहा--  " बलि ! अब बताओ मैं अपना तीसरा पग कहाँ रखूँ ।"  तीसरा  पग रखबाने के लिए बलि के पास कुछ नहीं था , तो भगवान ने बलि को वरुण पाश में बाँध लिया ।पाश में बँधे बलि मुस्करा ने मुस्कराते हुए कहा--- " प्रभु ! आपने दो पगों में मेरे तीनों लोकों के राज्यों की धरती नाप ली ।मेरे पास अब धरती नहीं है तो क्या है, मेरा मस्तक तो है ।आप अपना तीसरा पग मेरे मस्तक पर रख दें ।" वामन से विराट होकर भगवान ने तीनों लोकों के साथ बलि को भी नाप लिया ।

देने वाले महाराज बलि अपना सर्वस्व देकर प्रसन्न थे, परन्तु भगवान को अपने द्वारा किए छल पर क्षोभ था ; क्योंकि इस जगत में जिस अधर्म रूपी छल को मिटाने के लिए वे बार-बार अवतार लेते हैं आज उन्हीं जगत पति को अधर्म रूपी छल का सहारा लेना पड़ा ।भगवान ने बलि से कहा -- " वत्स ! इस अमिट दान के कारण तुम्हारी कीर्ति सदा अमर रहेगी , जब कि मेरे छल के कारण मुझ विराट को भी सदा याचक एवं वामन ही कहा जाएगा ।" 

स्वयं भगवान अपने छल के कारण विराट होने पर भी वामन कहे गए ।स्वयं भगवान विष्णु को परम धर्मात्मा बलि के पास याचक बनकर वामन के रूप में जाना पडा।

          ●●●वामन शब्द का अर्थ ●●●

वामन का अर्थ होता है बौना अर्थात छोटा ।वामन वही नहीं होते , जिनकी लंबाई कम होती है , वरन वामन वे भी होते हैं, जिनके व्यक्तित्व की ऊँचाई कम होती है, जिनके मन, अंतःकरण छल-छद्म और कपट-कलुष से भरे होते हैं ।ऐसे लोग भले ही कितने बुद्धिमान, तर्ककुशल व साधनसंपन्न हों , भले ही उनके पास कितनी ही अलौकिक शक्तियाँ, सिद्धियाँ एवं ऋद्धियाँ-निधियाँ क्यों न हों , परन्तु अपने छल-कपट के कारण उन्हें सदा ही वामन कहा और समझा जाता है ।

भगवान की लीला  सदा कल्याणकारी होती है , संसार के भले के लिए ही होती है ।

सादर अभिवादन व धन्यवाद ।

Tuesday, November 24, 2020

भारतीय रसोईघर व स्वास्थ्य, रसोईघर की साफ-सफाई,खाद्य सामग्री का रखरखाव, किस प्रहर में कैसा आहार करें, मन के भावों का भोजन पर प्रभाव ।

            ●●● भारतीय रसोईघर व स्वास्थ्य ●●●
भारतीय घरों में रसोई का अति महत्वपूर्ण स्थान है ; क्योंकि यह वह स्थान है , जहाँ से पूरे परिवार का भरण-पोषण होता है और परिवार के सभी सदस्यों के  स्वास्थ्य का निर्धारण भी होता है ।इसीलिए रसोई एक ऐसा स्थान है, जहाँ सबसे अधिक साफ-सफाई की जरूरत होती है; क्योंकि यह स्थान सबसे अधिक प्रयोग में आता है और यदि यहाँ सफाई न हो तो स्वास्थ्य बढ़ाने के स्थान पर बीमारियाँ फैलाने का स्रोत बन जाता है ।
         
         ●●● रसोईघर की साफ-सफाई ●●●

सदियों से घर के बड़े बुजुर्गों ने रसोईघर की स्वच्छता व साफ-सफाई पर बहुत जोर दिया है ।स्नान करके ही इस स्थान पर प्रवेश करने व भोजन पकाने की अनुमति रही है ।बरतनों की साफ-सफाई, उनकी सुव्यवस्था, अन्न , सब्जियाँ, मसाले व अन्य आवश्यक सामग्रियों का भली प्रकार रखरखाव , समय-समय पर उनका निरीक्षण , आवश्यकतानुसार उनके संग्रह व क्रय आदि पर भी विशेष ध्यान रखने को कहा गया है ।

आधुनिक समय की जीवनशैली में काफी बदलाव आया है तो रसोईघर में भी बदलाव स्वाभाविक है ।बदलते समय के साथ रसोईघर में कुकिंग गैस, प्रेशर कुकर  व अन्य  बिजली उपकरणों का समावेश हो गया है ।जिनका उपयोग करने में बहुत सावधानी व रखरखाव की जरूरत है ।

पहले बरतन मिट्टी से साफ किए जाते थे आजकल बरतन साफ करने के लिए तरह-तरह के डिटरजेंट बाजारों में मिलने लगे हैं ।बरतनों की सफाई में इस बात का विशेष ध्यान रखा जाए कि उनमें डिटर्जेंट का अंश न रहे ।
    
रसोईघर में मक्खियाँ, काॅकरोच व अन्य कीड़े आदि न पनपने
 पाएँ , इसका विशेष ध्यान रखा जाए ।रसोईघर में उपयोग आने वाले उपकरणों, जूठे बरतन , फ्रिज , डस्टबिन, रसोई में इस्तेमाल होने वाले कपड़े आदि भी नियमित साफ किए जाएँ जिससे उनमें बैक्टीरिया न पनपें।

वैसे तो रसोईघर में चप्पल का प्रवेश वर्जित होना चाहिए, लेकिन आज के समय में शायद बिजली उपकरणों के कारण या अन्य कारणों से चप्पल का इस्तेमाल जरूरी हो तो रसोईघर की अलग चप्पल रखनी चाहिए ।

 ●रसोईघर में प्रयुक्त होने वाली खाद्यसामग्री का रखरखाव●

अच्छे स्वास्थ्य के लिए रसोईघर की साफ-सफाई व सजावट के साथ-साथ रसोईघर में प्रयुक्त होने वाली खाद्यसामग्री का उचित रखरखाव  व समयानुसार उनका प्रयोग आवश्यक है अन्यथा वे उपयोग के लायक नहीं रह जातीं ।रसोईघर में जो सूखी खाद्य सामग्रियाँ होती हैं उन्हें सदा सूखे डिब्बों में ही रखनी चाहिए और यह भी ध्यान रखना चाहिए कि उनमें किसी भी तरह की नमी न होने पाए इसलिए गीले हाथों से सामग्री न निकालें और न ही उन्हें निकालने के लिए गीली चम्मच आदि का इस्तेमाल करें ; क्योंकि जरा सी भी नमी खाद्य सामग्री को खराब कर सकती है ।

भोजन बनाने में प्रयुक्त सब्जियों को अच्छी तरह धोना अति आवश्यक है , लेकिन कुछ सामग्रियाँ जो सूखी होती हैं उन्हें छान-बीन कर ही डिब्बों में रखना चाहिए व भोजन बनाते समय भी एक बार पुनः ध्यान कर लेना चाहिए क्योंकि कभी-कभी सामग्रियों में कीड़े भी लग जाते हैं।

भोजन में पोषक तत्व बने रहें इसलिए जहाँ तक हो सके , ताजी सब्जियों का ही भोजन बनाने में उपयोग किया जाए।कई दिनों तक रखी हुई सब्जियों में स्वाद व पोषक तत्व , दोनों की ही कमी हो जाती है । भोजन बनाने में चोकर वाला आटा व हरी पत्तेदार सब्जियों आदि का यदि भोजन बनाने में प्रयोग हो व भरपूर मात्रा में इनका सेवन हो तो अलग से फाइबर की जरूरत नहीं पड़ती ।ठंडी-गरम आदि विपरीत प्रकृति वाली चीजों को एक साथ न खाया जाए ।साथ ही मौसमी ताजे फलों व सब्जियों को अपने भोजन में अवश्य शामिल करें ।

    ●●●किस प्रहर में कैसा आहार ग्रहण करें ●●●

भारतीय संस्कृति में आहार ग्रहण करने में समय का भी अत्यन्त महत्व है। आयुर्वेद के अनुसार दिन में जब वातावरण गरम होता है, तब शरीर की पाचनशक्ति भी तीव्र रहती है ।इस आधार पर हम अपने शरीर की  जरूरत व माँग के हिसाब से दिन में तीन या चार बार आहार ग्रहण कर सकते हैं ।

●सुबह--   स्वल्पाहार (सुबह का नाश्ता) का समय होता है ,इस प्रहर में हल्की धूप होती है, इस समय फल, दूध, अंकुरित अनाज, दलिया आदि लिया जा सकता है ।
●दोपहर-   इसके चार या पाँच घंटे बाद दोपहर के भोजन का समय होता है ।इस प्रहर में वातावरण गरम होता है और शरीर की पाचनशक्ति भी तीव्र होती है, इसलिए इस समय संपूर्ण आहार ले सकते हैं ।
●शाम  -- शाम के समय फलों का ज्यूस, सब्जियों का सूप, तुलसी, अदरक, कालीमिर्च आदि से बनी हर्बल चाय या इनके विकल्प के रूप में  अपनी रुचिअनुसार अल्प आहार ग्रहण कर सकते हैं ।
●रात्रि  --- रात्रि का भोजन ऐसा होना चाहिए, जो गरिष्ठ न हो, आसानी से पचने योग्य हो ।जो लोग रात्रि के समय कार्यस्थल पर जाते हों उन्हें अपनी नींद का विशेष ध्यान रखना चाहिए उन्हें  रात्रि में अधिकतम 9 से 10 के बीच भोजन कर लेना या शाम को 5 से 6 के बीच भोजन करके ही अपने कार्यस्थल में जाना चाहिए ।

●भोजन पकाते समय मन के भावों का भोजन पर प्रभाव●

भोजन बनाते समय, बनाने वाले के मन के जो भाव होते हैं, उन भावों का भी भोजन पर असर पड़ता है अतः भोजन बनाते समय , परोसते समय मन को शांत व प्रसन्न रखना चाहिए ।जब भोजन पकाते समय हमारे मन के भाव अच्छे होंगे तो वह भोजन ग्रहण करने वाले को भी प्रसन्नता प्रदान करेगा ।

भोजन , बनाते व पकाते समय , परोसते समय व खाते समय हमारे मन में क्या भाव हैं--- इनका हमारे स्वास्थ्य पर सीधा असर पड़ता है ।ये भाव हमारे स्वास्थ्य को बहुत प्रभावित करते हैं ।कहा भी गया है-- जैसा खाएँ अन्न , वैसा बने मन ।अतः किसी कारणवश यदि व्यक्ति की मनोदशा कुप्रभावित है तो उसे सही व सामान्य करने के बाद ही भोजन करना चाहिए ।

       भोजन करते समय मन को प्रसन्न रखना चाहिए और इस वक्त अन्य काम नहीं करने चाहिए-- जैसे मोबाइल पर बात करना, टीवी देखना जैसे कार्य नहीं करने चाहिए । भोजन बहुत जल्दी-जल्दी भी नहीं करना चाहिए , भोजन को अच्छी तरह चबाकर खाना चाहिए । जल्दी-जल्दी कम चबाया हुआ भोजन हमें अपनी पौष्टिकता नहीं दे पाता ।

भोजन की पौष्टिकता ग्रहण करने के लिए और उसे आसानी से पचाने के लिए भोजन को अच्छी तरह चबा कर खाना चाहिए ।आयुर्वेदाचार्य कहते हैं कि जल भी पिया जाए तो उसे भी धीरे-धीरे पीना चाहिए ; क्योंकि जब हमारे ग्रहण किए जाने वाले भोजन व पेय पदार्थों में लार का सम्मिश्रण होता है तो रासायनिक क्रियाओं द्वारा उनमें आश्चर्यजनक परिवर्तन हो जाता है और वह पाचन में मदद करके हमें स्वास्थ्य लाभ पहुँचाता है ।

         हमारे पूर्वजों ने कहा है ---- लंबी उम्र जीने के दो ही रहस्य हैं--- कठोर परिश्रम करना और बिना कड़ी भूख लगे कुछ न खाना ।क्योंकि कड़ी भूख लगने पर खाना अधिक स्वादिष्ट लगने लगता है ।

अतः अच्छे स्वास्थ्य के लिए हमारा रसोईघर अच्छी तरह साफ व व्यवस्थित होना आवश्यक है साथ ही खाद्य सामग्रियाँ भी साफ होनी जरूरी हैं एवं भोजन सही समय पर , सही मात्रा व कुछ आयुर्वेद के नियमों के अनुसार ग्रहण किया जाए ।इसलिए यह सत्य ही है कि हमारी रसोईघर का हमारे स्वास्थ्य से गहरा सम्बन्ध है ।

सादर अभिवादन व धन्यवाद ।

Monday, November 23, 2020

भक्ति योग,सकाम भक्ति,निष्काम भक्ति,श्री रामकृष्ण परमहंस के अनुसार भक्ति,श्री कृष्ण के अनुसार भक्तों के प्रकार,

                       ●●●  भक्ति योग ●●●
● भक्ति का अर्थ--- परमात्मा की प्राप्ति के यूँ तो अनेक मार्ग हैं, पर उन सभी में भक्ति का मार्ग सबसे सरल व सुगम है ।सभी   छोटे-बड़े, अमीर-गरीब सबके लिए यह समान रूप से सहज, सरल है।
भक्ति  'भज्' शब्द से बना है, जिसका अर्थ है - ईश्वर सेवा (ईश्वर स्मरण) ।इस तरह से भक्ति का अर्थ- स्वयं का ईश्वर के प्रति पूर्ण समर्पण ।जीवात्मा का परमात्मा में संपूर्ण समर्पण, विसर्जन व विलय ही भक्ति योग है ।प्रेम योग , समर्पण योग, उपासना योग आदि भक्तियोग के ही विविध नाम हैं ।भक्ति योग अथवा प्रेमयोग परमात्मा के साथ एकरूपता की जीवंत अनुभूति है ।

जगत में जो सबसे महान और सर्वोपरि तत्व है, उसके प्रति नैसर्गिक श्रद्धा-समर्पण का भाव होना ही भक्ति योग है ।नारद भक्ति सूत्र के अनुसार -- सा तु अस्मिन् परमप्रेमरूपा ।अर्थात भगवान के प्रति परम प्रेम ही भक्ति है ।शांडिल्य सूत्र के अनुसार-- सा परानुरक्तिरीश्वरे ! अर्थात ईश्वर के प्रति परम अनुराग ही भक्ति है ।स्वामी विवेकानन्द का कहना है कि सच्चे व निष्कपट भाव से ईश्वर की खोज करना ही भक्ति है ।

सच्चे साधक को सृष्टि के कण-कण में, चेतन-अचेतन , पेड़-पौधे , वनस्पतियों एवं समस्त प्राणियों में सिर्फ ईश्वर और ईश्वर का ही रूप व नूर दिखाई पड़ने लगता है ।तब उस साधक के लिए यह सारा विश्व, सारा ब्रह्माण्ड ही प्रभु का बनाया देवालय नजर आता है ।तह हर जीव में परमेश्वर की छवि दीखने लगती है और जीव सेवा ही प्रभु सेवा जान पड़ती है ।

सच्ची भक्ति वही है ; जिसमें याचना नहीं, कामना नहीं, जिसमें कुछ माँगना नहीं ।ईश चरणों में स्वयं को ही समर्पित कर देने का नाम भक्ति है । कुछ माँगना नहीं होता है बल्कि स्वयं समर्पित हो जाना है ।ऐसी परम भक्ति विरलों में ही पाई जाती है ।
संत कबीर ने कहा है -- 
        भक्ति भाव भादों नहीं, सबहि चली घहराय ।
        सरिता सोहि सराहिए, जेठ मास ठहराय ।।
अर्थात भादों में नदियाँ उमड़ चलती हैं, परन्तु प्रशंसा तो उसी नदी की  है , जो ज्येष्ठ महीने में अधिक जलयुक्त हो ।इसी प्रकार देखा-देखी थोड़े समय के लिए भक्ति भाव उमड़ आना अलग बात है , परंतु आपत्ति काल में भी भक्ति बनी रहे , तभी उस भक्ति की प्रशंसा है ।
      
     ●●● सकाम भक्ति, निष्काम भक्ति ●●●

भक्त की प्रकृति एवं भक्ति के उद्देश्य के आधार पर भक्ति दो प्रकार की कही गई है -- सकाम भक्ति व निष्काम भक्ति ।किसी कामनापूर्ति के उद्देश्य से की गई भक्ति सकाम भक्ति कहलाती है , पर बिना किसी कामना के निष्काम भाव से की गई भक्ति  'निष्काम' भक्ति कहलाती है ।निष्काम भक्ति ही सर्वश्रेष्ठ भक्ति है ।

भौतिक  कामना से की गई भक्ति अर्थात सकाम भक्ति से इच्छाओं की प्राप्ति तो हो सकती है पर भगवान की नहीं ।सकाम भक्त भक्ति से प्राप्त पुण्य के कारण भोगों को प्राप्त कर लेते हैं, स्वर्ग भी प्राप्त कर लेते हैं पर पुण्य क्षीण होने पर वे पुनः मृत्युलोक में अर्थात जन्म-मरण के बन्धन में पड़ जाते हैं ।परंतु निष्काम भक्ति द्वारा ईश्वर की प्राप्ति अवश्य होती है।

 ●●● श्री रामकृष्ण परमहंस के अनुसार भक्ति ●●●

श्री रामकृष्ण परमहंस के अनुसार लोग लौकिक कामनाओं के लिए दुखी होते रहते हैं और आँसू बहाते हैं, पर भगवान के लिए भला कौन रोता है? भक्ति लौकिक कामनाओं के लिए नहीं, वरन भगवान के लिए रोने का नाम है ।भक्ति संसार को पाने का नहीं, ईश्वर को पाने का मार्ग है ।

सच्चे भक्त के हृदय में इसीलिए तो अनंत प्रेम की  की अजस्र धारा बहने लगती है ।फिर वही धारा प्रभु प्रेम में सावन-भादों बनकर साधक के नेत्रों से भी बहने लगती है ।साधक फिर उन्हीं आँसुओं से अपने इष्ट, अपने आराध्य, अपने प्रभु को प्रेम का अर्ध्य देता है, उनका हर पल अभिषेक करता रहता है ।

          जब भक्ति भाव मन में उमड़े
           दर्शन की आस नयन उमड़े
           नैनों के नीर से भरी गगरी 
           प्रभु चरणों में ढुलकाया करो 

उन्हीं आँसुओं से कई जन्मों से संचित चित्त के विकारों, संस्कारों का क्षय होने लगता है ।तभी साधक के शुद्ध चित्ताकाश में प्रभु का ज्योतिर्मय रूप में अवतरण होता है ।तब सचमुच उपास्य एवं उपासक , भक्त व भगवान एक हो जाते हैं ।

तब सारा ब्रह्माण्ड ही प्रभु का बनाया देवालय नजर आता है ।ऐसे में सूर्य-चंद्र के रूप में उन्हीं प्रभु का जीवंत दीदार होने लगता है ।धरती की सभी नदियाँ व समुद्र उन्हीं प्रभु के पाँव पखारते नजर आते हैं ।सभी सुगन्धित व खिले हुए पुष्प उन्हीं देव के चरणों में चढ़ते, खिलते व मुस्कराते दीखते हैं । शीतल, सुगन्धित पवन प्रभु के चरणों में बयार बनकर बहने लगती है ।तब साधक हर पल ही प्रभु का स्मरण करता हुआ , उन्हीं के बनाए देवालय में उनकी आराधना , अभ्यर्थना करने लगता है ।

साधक की ऐसी परम भक्ति को देखकर प्रभु भी अपने भक्त के लिए विह्वल व व्याकुल हो उठते हैं ।


 ●●●योगेश्वर श्री कृष्ण के अनुसार भक्तों के प्रकार●●●
श्री मद्भगवद्गीता में भगवान श्रीकृष्ण निष्काम भक्ति, निष्काम भक्त व ज्ञानी भक्त की भूरि-भूरि प्रशंसा इस प्रकार करते हुए  कहते हैं-- अर्जुन ! आर्त्त , जिज्ञासु, अर्थार्थी और ज्ञानी -- ये चार प्रकार के भक्त मेरा भजन किया करते हैं । उन भक्तों में से नित्य एकीभाव से स्थित अनन्य प्रेम भक्ति वाला ज्ञानी भक्त अति उत्तम है और मुझे अत्यन्त प्रिय है ।
● अर्थार्थी भक्त--- अर्थार्थी भक्त वह है -- जो भोग , ऐश्वर्य और सुख प्राप्त करने के लिए भक्ति करता है ।
● आर्त्त भक्त--  आर्त्त भक्त वह है -- जो कोई कष्ट, संकट आने पर मुझे पुकारता है ।
● जिज्ञासु भक्त--- जिज्ञासु भक्त संसार को अनित्य जानकर मुझको तत्व से जानने की जिज्ञासा व पाने के लिए भजन करता
 है ।
● ज्ञानी भक्त--- ज्ञानी भक्त सदैव निष्काम होता है ।वह मुझे तत्व से जानता है ।

भगवान कहते हैं- अर्जुन ! ये सभी चारों प्रकार के भक्त उदार हैं, परन्तु ज्ञानी भक्त तो साक्षात् मेरा स्वरूप ही है ; क्योंकि वह मुझमें ही अच्छी प्रकार से स्थित है ।अनेक जन्मों के अंत में तत्वज्ञान को प्राप्त पुरुष यह भलीभाँति समझकर कि सब कुछ ईश्वर ही है -- इस प्रकार मुझे भजता है , ऐसा भक्त ( महात्मा) अत्यन्त दुर्लभ
 है ।

●●● श्री मद्भगवद्गीता में परम ज्ञानी भक्त के लक्षण ●●●

श्री मद्भगवद्गीता में भगवान परम ज्ञानी भक्त के लक्षण बताते हुए कहते हैं--  अर्जुन! जो पुरुष द्वेष भाव से रहित, स्वार्थ रहित, सबका प्रेमी और हेतु रहित और दयालु है तथा आसक्ति व अहंकार से रहित, सुख-दुख की प्राप्ति में सम और क्षमावान है , निरंतर संतुष्ट, मन इंद्रियों सहित शरीर को वश में किए हुए और मुझमें दृढ़ निश्चय वाला है, ऐसा भक्त मुझे अत्यन्त प्रिय है ।

जो न कभी हर्षित होता है, न द्वेष करता है, न शोक करता है, न कामना करता है तथा जो शुभ और अशुभ संपूर्ण कर्मों का त्यागी है-- वह भक्त मुझे प्रिय है ।जो शत्रु-मित्र में, मान-अपमान में सम है तथा सरदी-गरमी में और सुख-दुख में सम है , वह मुझे प्रिय है ।

निंदा-स्तुति को समान समझने वाला, मननशील और जिस किसी प्रकार से भी शरीर का निर्वाह होने में सदा संतुष्ट है और रहने के स्थान में ममता और आसक्ति से रहित है -- वह स्थिर बुद्धि, भक्तिमान मनुष्य मुझे अत्यन्त प्रिय है ।

 सच्चे भक्त की यह पुकार होनी चाहिए---
       "दया कर दान भक्ति का हमें परमात्मा देना 
         दया करना हमारी आत्मा में शुद्धता देना ।।"

सादर अभिवादन व धन्यवाद ।

वेजीटेबल कटलेट ( स्वादिष्ट व कुरकुरे ) सामग्री व बनाने की विधि

 ‌‌‌‌‌‌    ●●● कटलेट के  लिए सामग्री व बनाने की विधि ●●●


सभी कटी हुई सब्जियाँ, उबले आलू , धोकर भिगाए गए पोहे, तेल 

अदरक का पेस्ट, कटी हरी मिर्च,नीबू का रस ,काॅर्न फ्लोर व मसाले आदि ।
               ●●●कटलेट कैसे तैयार करें ●●●

बेजीटेबल कटलेट बनाने के लिए सबसे पहले कढाई में  दो छोटी चम्मच गर्म तेल में  दो मिनट तक प्याज भूनें, उसके बाद हरी मिर्च कटी हुई , अदरक का पेस्ट डाल दें ,फिर कटी हुई कैप्सिकम ( शिमला मिर्च ), कैरट ( गाजर ) बीन्स ( फली )  पीज ( मटर के दाने  ) डालकर थोड़ा नमक डालें  कुछ देर सभी सब्जियों को धीमी आग पर ढक कर  पकने दें ( जिससे सब्जियाँ कढ़ाई में चिपकें नहीं)।  जब सब सब्जियाँ पक जाएँ , तब उसमें मिर्च पावडर , गरम मसाला, धनिया पावडर , लेमन ज्यूस ( नीबू का रस) और काॅर्न फ्लोर डाल दें , 

ठन्डा होने पर अच्छी तरह सब सब्जियाँ मिला लें, और उबले आलू व भीगे पोहे ( धोकर छाने हुए )भी उसमें मिला दें, जरूरत के अनुसार थोड़ा नमक और मिला दें ।फिर हाथों से गोल टिक्की बना लें ।टिक्की बनाकर थोड़ी देर फ्रिज में रख दें।

            ●●● मैदा , पानी , नमक, काॅर्न फ्लोर ●●●

● मैदा का घोल कैसे बनाएँ-- मैदा में थोड़ा पानी , नमक, काॅर्न फ्लोर डालकर घोल बना लें ( बहुत पतला नहीं, बहुत गाढ़ा नहीं)

                 ●●●   ब्रेड का चूरा ●●●
● चार-पाँच ब्रेड के पीस लेकर पहले टोस्टर में रोस्ट कर लें 
( ब्राऊन )और फिर मिक्सर में चूरा बना लें ( सूखा चूरा )
                  
● क्रस्ड ब्रेड कैसे बनाएँ ---
चार -पाच  ब्रेड के पीस लेकर पहले टोस्टर में थोड़े रोस्ट कर लें, फिर मिक्सर में थोड़ा पिसा , सूखा चूरा बना लें 
               
●मैदा का घोल कैसे बनाएँ ---
अब मैदा में थोड़ा पानी , नमक और काॅर्न फ्लोर डालकर घोल बना लें (न बहुत पतला न बहुत गाढ़ा) 
                    
  ● तलने के लिए कढ़ाई व तेल   (कटलेट तलना )

उसके बाद फ्रिज में से कटलेट( टिक्की) निकालकर  टिक्की को पहले मैदा के घोल का कोड करें ( घोल में डुबा कर तुरंत निकालें)   फिर क्रश्ड ब्रेड ( ब्रेड का चूरा) का कोड करें, फिर से  मैदा का कोड करें, एक बार और ब्रेड के चूरा का कोड करके  कढ़ाई में तलें, मध्यम आग पर।

किसी भी तरह की चटनी या साॅस के साथ परोसे जा सकते हैं ।

तीन-चार मिनट तक तलने पर अच्छे कुरकुरे कटलेट बनते हैं ।


Sunday, November 22, 2020

धैर्य का महत्व , आध्यात्मिक जीवन में धैर्य का महत्व

                 ●●● धैर्य का महत्व ●●●
धैर्य जीवन का एक ऐसा गुण है , जिसको धारण कर हम बाहरी जीवन में परिपूर्ण सफलता को हासिल कर सकते हैं और साथ ही आंतरिक जीवन में भी शांति के अधिकारी बन सकते हैं ।वर्तमान में धैर्य का महत्व और बढ़ गया है ।जिसमें धैर्य है , समझो उसने सब कुछ अपने पक्ष में करने की कला जान ली ।धैर्य व्यक्ति को सहिष्णु बनाता है ।ऐसे व्यक्ति के जीवन में अभावों, कष्टों, विषमताओं के बीच उसके अंतस् में जल रहा धैर्य का दीपक उसे रोशनी देता है ।

             भगवान श्री राम ने बड़े धैर्य के साथ चौदह वर्ष वन में बिताए ।रावण द्वारा हरण किए जाने पर माता सीता ने अशोक वाटिका में प्रभु श्री राम की प्रतीक्षा में समय बिताया।पांडवों ने अपना तेरह वर्ष के वनवास का समय धैर्य के  साथ  बिताया। इसी तरह हमारे इतिहास व शास्त्रों में अनेक धैर्यवान नायकों के उदाहरण मिलते हैं ।

परिस्थितियों पर व्यक्ति का नियंत्रण नहीं, लेकिन मनःस्थिति तो बहुत कुछ उसके हाथ में ही है ,जिसको धैर्य के बल पर व्यक्ति सँभाले रहता है और अनुकूल दिशा देता है ।धैर्यवान व्यक्ति जानता है कि बोए बीज का फल समय पर मिलेगा , अतः वह हर पल का सदुपयोग करता है ।वह अपने छोटे-छोटे प्रयासों के साथ अभीष्ट लक्ष्य की ओर निरंतर बढ़ता रहता है ।सच्चिंतन, सत्कर्म व सद्भाव की त्रिवेणी में निरंतर स्नान करता है, सत्कर्म की बोई फसल के पकने का इंतजार करता है।

धैर्य व्यक्ति का एक ऐसा गुण है, जिसके गर्भ से बाकी सब गुण प्रस्फुटित होते हैं ।यदि व्यक्ति में धैर्य नहीं है तो उसकी शक्ति-- दुर्बलता में बदल जाती है व मेहनत का वह फल नहीं मिल पाता, जिसका वह हकदार है ।

धैर्यवान व्यक्ति जीवन की विषमताओं एवं प्रतिकूलताओं में भी अपना विश्वास बनाए रखता है और नकारात्मक भावों से दूर रहता है।विपरीत परिस्थितियों में भी शान्त भाव से पार निकलने की राह निकालता है । कबीर दास ने कहा है ---
           धीरे-धीरे  रे  मना , धीरे सब कुछ होय ।
         माली सींचै सौ घड़ा , ऋतु आए फल होय ।।
इस तरह धैर्य जीवन में उसका अभिन्न सहचर बनता है ।धैर्यवान व्यक्ति एक किसान की मनोदशा में जीता है, जो बीज से फसल बनने तक की धीमी , किंतु क्रमिक प्रक्रिया को बखूबी जानता है ।

    ●●● आध्यात्मिक जीवन में धैर्य का महत्व ●●●

                लौकिक जीवन की तरह आध्यात्मिक जीवन में भी धैर्य एक विशिष्ट गुण है , बल्कि इसकी आवश्यकता एवं महत्व यहाँ और भी अधिक है ।लौकिक जीवन में पुरुषार्थ के फल की इच्छा इसी जन्म की रहती है, लेकिन एक आध्यात्मिक पथ का पथिक अपनी चेतना के रूपांतरण से लेकर आत्मसाक्षात्कार एवं ईश्वर प्राप्ति आदि आध्यात्मिक लक्ष्यों को पाने हेतु जन्म-जन्मांतर की प्रतीक्षा के साथ साधनारत रहता है ।वह अपनी आत्मा के अजर,अमर,अविनाशी स्वरूप को मानते हुए उसी के अनुरूप अनंत धैर्य के साथ अभीष्ट लक्ष्य हेतु साधना पथ पर डटा रहता है।

धैर्य पूर्वक जीवनलक्ष्य की ओर निरंतर प्रगति करते रहना ही सफल जीवन का राज है ।

सादर अभिवादन व धन्यवाद ।




Saturday, November 21, 2020

दशहरा, विजयादशमी क्यों कहते हैं?, महाज्ञानी होने पर भी रावण अधर्मी, सीता की खोज, राम-रावण युद्ध

              ●●●दशहरा ( विजया दशमी )●●●
आश्विन मास के शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा से नवमी तक दुर्गा पूजा ( शक्ति पूजा) बाद दशमी के दिन पूरे भारत वर्ष में बड़ी धूमधाम के साथ  दशहरा मनाया जाता है ।इस दिन भगवान श्री राम ने दशानन रावण का वध करके दसों दिशाओं को उसके ( रावण ) के आतंक से मुक्त किया था । दशहरा यानी जिसने दसों दिशाओं पर विजय प्राप्त कर ली है ।ज

दशहरा पर्व मनाने के पीछे बड़े ही मार्मिक अर्थ छिपे हैं ।इस दिन मर्यादा के प्रतीक भगवान श्री राम ने अहंकार व अनैतिकता के मार्ग पर चलने वाले राक्षस राज रावण का अन्त किया था । यह इस बात का संकेत देता है कि समाज में जो भी अहंकारी है , अनैतिक मार्ग का अनुसरण करता है, अधर्म करता है, उसका पतन सुनिश्चित है , इसलिए नीति व धर्म को अपनाना चाहिए, अनैतिकता का परित्याग करना चाहिए ।

   ●●● दशहरे को विजयादशमी क्यों कहते हैं ?●●●

एक तो इस दिन भगवान श्री राम ने रावण के ऊपर विजय प्राप्त की, इसलिए इसको विजयादशमी कहा जाता है । विजयादशमी के संदर्भ में ज्योतिर्विज्ञान में लिखा है कि आश्विन शुक्ल दशमी के दिन तारे उदय होने के समय विजय नामक काल होता है, जो समस्त कार्यों में सफलता दिलाने वाला होता है , इसलिए इसे विजयादशमी कहते हैं ।यह पर्व एक तरह से न्याय और नैतिकता का पर्व है ।धर्भ की विजय का पर्व है ।

 ●● महाज्ञानी होने पर भी रावण अहंकार वश अधर्मी ●●

लंकापति रावण बड़ा ज्ञानी, वेद शास्त्रों का ज्ञाता, परम शक्तिशाली था, लेकिन अधर्म का आचरण करता था । कोई भी उसकी सोने की लंका में उसकी मर्जी के बिना न तो प्रवेश कर सकता था और न ही कोई कार्य कर सकता था ।

रावण मायापति था , आसुरी माया में निपुण था ।उसके संरक्षण में रहने वाले राक्षस व असुर बड़े ही मदांध होकर विचरण करते थे और मनुष्यों का संहार करते थे ।चारों दिशाओं में रावण ने आतंक फैलाया हुआ था ।

पराक्रमी व सामर्थ्यवान होने पर भी उसने माता सीता का छलपूर्वक हरण किया और सागर पार उन्हें अपने अभेद्य दुर्ग लंका में छिपाकर रखा, जहाँ किसी का पहुँचना तो दूर, किसी का प्रवेश भी वर्जित था ।जगह-जगह पर उसने मायावी राक्षसों को तैनात कर रखा था ।लंका के चारों ओर ऐसे यंत्र स्थापित किए थे, जिनके समीप व समक्ष जाने पर किसी का भी अंत हो जाए ।

    ●● हनुमान द्वारा सीता की खोज, राम-रावण युद्ध ●●

जब सीता का पता लगाने भगवान श्री राम ने हनुमान जी को भेजा तो हनुमान जी मार्ग की समस्त रुकावटों को दूर करते हुए, यंत्रों का शमन करते हुए, अभेद्य लंका में प्रविष्ट हुए तथा माता सीता तक पहुँचकर उन्हें आश्वासन दिया कि भगवान राम जल्द ही यहाँ आएँगे ।

तत्पश्चात उन्होंने लंकादहन करके , राजाओं व देवताओं को रावण के चंगुल से मुक्त किया ।वहाँ से वापस आकर, भगवान राम को सीता की कुशलता का समाचार दिया ।इसके बाद भगवान राम  ने  समस्त बानर सेना के साथ लंका की ओर प्रस्थान किया ।तत्पश्चात सागर पर सेतु बना और सागर पार करके श्री राम जी की सेना लंका क्षेत्र में आ गई ।

राम-रावण युद्ध हुआ और उस युद्ध में रावण के समस्त समर्थक व सहयोगी मारे गए ।श्री राम की रावण पर विजय हुई , उन्हें माता सीता मिल गईं ।लंका पर रावण के छोटे भाई विभीषण का राज्याभिषेक किया गया और लंका में भी धर्म की स्थापना हो गई।इस तरह राम जहाँ होते हैं, वहाँ अधर्म व आतंक का साम्राज्य समाप्त होता है औ, धर्म की स्थापना होती है ।

रावण क्रोधी, अहंकारी, मायावी था लेकिन राम उतने ही शांत, मर्यादित, वीर, पराक्रमी थे ।देखने में  तो रावण के वैभव साधनों, प्रशिक्षित सैनिकों व मायावी शक्तियों के समक्ष श्री राम के पास कुछ नहीं था ।भगवान के पास सिर्फ धनुष-वाण और वानर सेना थी पर गहराई से विचार किया जाए तो राम के साथ ऋषियों का सत्संग व ज्ञान था , जो उन्होंने ब्रह्मर्षि वशिष्ठ, ब्रह्मर्षि विश्वामित्र, महर्षि अगस्त्य व अन्य ऋषियों से प्राप्त किया था ।

                         भगवान राम का आत्मीय भाव था , जिसके कारण जंगलों में निवास करने वाले रीछ-वानर उनके अपने हो गए थे और बिना अपने प्राणों की परवाह किए उनकी सेना में शामिल हो गए ।भगवान श्री राम के व्यक्तित्व में वह अद्भुत शांति थी, सौम्यता थी , जिसके कारण कोई भी उनके व्यक्तित्व से सहज आकर्षित हो जाता था ।भगवान श्री राम ने केवल रावण पर ही विजय प्राप्त नहीं की , बल्कि लोगों के  हृदय को भी जीता, उस पर राज किया ।

वस्तुतः दशहरा पर्व प्रतीक है--- सामूहिकता का, सन्मार्ग का, नैतिकता का ।जिस तरह श्री राम ने वानरों की सेना के साथ रावण व उसके राक्षसों का सामना किया , उसी तरह व्यक्ति को भी बड़े कार्यों के लिए सामूहिकता की शक्ति का एकत्रीकरण करना चाहिए ।अन्याय का डटकर सामना करना चाहिए ।

जब तक समाज में भगवान श्री राम के समान उत्कृष्ट व्यक्तित्वों का निर्माण नहीं होगा , तब तक आसुरी शक्तियों के प्रतीक रावण का आतंक समाप्त नहीं होगा ।ऐसा होने के लिए शुभ शक्तियों को पुनः सामूहिक ढंग से एकत्र होने व प्रयास करने की जरूरत है ।

Friday, November 20, 2020

प्रकृति शब्द का अर्थ, भगवान श्री कृष्ण के अनुसार प्रकृति

          ●●●●● प्रकृति शब्द का अर्थ ●●●●●
प्रकृति शब्द अद्भुत है ।भारत, भारतीय संस्कृति व भारतीय मनीषा ने इसे गढ़ा है ।'प्रकृति' यह अनूठा शब्द दुनिया की किसी दूसरी भाषा में नहीं है ।अंग्रेजी भाषा में प्रायः प्रकृति शब्द का अनुवाद नेचर (nature) या क्रिएशन (creation) के रूप में किया जाता है ।जब कि ये दोनों शब्द प्रकृति का ठीक-ठीक परिचय देने व इसे परिभाषित करने में असमर्थ हैं ।

       प्रकृति शब्द का अर्थ है--- कृति से पहले ।इस तरह प्रकृति का अनुवाद हुआ -- प्रि क्रिएशन ।प्रकृति शब्द बेजोड़ है ।प्रकृति का अर्थ है -- कृति से पहले यानी कि जब कुछ भी नहीं था , तब भी जो था ।जब कुछ भी विनिर्मित नहीं हुआ था, तब भी जो था -- प्रि -क्रिएशन ।सृजन होने से पहले किसी की शाशवत उपस्थिति रही, वही प्रकृति है ।इसलिए प्रकृति को क्रिएशन से परिभाषित करना संभव नहीं है ।इसी तरह नेचर (nature)भी नहीं कहा जा सकता  ; क्योंकि नेचर तो वह है, जो हमें दिखाई पड़ रहा है ।

प्रकृति शब्द, सांख्य दर्शन का विलक्षण शब्द है ।सांख्य दर्शन ने और विशेषज्ञ व्याख्यारों ने इसे परिभाषित करते हुए कहा है -- जो कुछ दिखाई पड़ रहा है, वह जब नहीं था और जिसमें छिपा था, उसका नाम प्रकृति है ।जो कुछ दिखाई पड़ रहा है , जब सब मिट जाएगा और उसी में डूब जाएगा, जिससे निकला है, उसका नाम प्रकृति है ।तो इस तरह से प्रकृति वह है, जिसमें से सब निकलता है और जिसमें सब विलीन हो जाता है ।सभी रूप व आकारों के उद्गम व विसर्जन का स्थान है -- प्रकृति ।

●भगवान श्री कृष्ण के अनुसार प्रकृति--   श्री भगवान कहते हैं-- प्रकृति और पुरुष, ईश्वर और शक्ति, माया और ब्रह्म दोनों अनादि हैं ।इनका न तो आरंभ है और न अंत, न इनकी उत्पत्ति है और न विनाश ।भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं--- ये दोनों अनादि हैं ।प्रकृति भी अनादि है और पुरुष भी अनादि है ।यह जगत भी अनादि है और विधाता भी अनादि है ।इनमें से किसी ने किसी को नहीं बनाया ।हाँ, ये कभी दृश्य होते हैं तो कभी अदृश्य, कभी प्रकट होते हैं तो कभी अप्रकट ।लेकिन न तो कुछ मिटता है और न कुछ बनता है ।

सृष्टि में परिवर्तन होता है, रूपांतरण होता है, लेकिन मूलतत्व यथावत् रहता है ।दृश्य और अदृश्य दोनों की उपस्थिति बनी रहती है ।यह दृश्य और अदृश्य होना, प्रकट और अप्रकट होना एक विधि है , एक व्यवस्था है ।इसीलिए भगवान श्री कृष्ण कहते हैं कि प्रकृति और पुरुष दोनों अनादि हैं ।दृष्टा और दृश्य, दोनों का कोई भी आदि और अंत नहीं है ।


Wednesday, November 18, 2020

देश-विदेश में नववर्ष मनाने की अलग-अलग तिथियाँ व परंपराएँ

देश-विदेश में नववर्ष मनाने की अलग-अलग तिथियाँ व परम्पराएँ
  ●●●भारत में नववर्ष मनाने की तिथियाँ व परम्पराएँ●●●

 वैसे तो पूरी दुनिया एक जनवरी को नए साल का उत्सव मनाती है फिर भी अलग-अलग क्षेत्रों के लोग अपने नए वर्ष की शुरुआत अलग-अलग तिथियों व तारीखों से करते हैं । भारत में कश्मीर से कन्याकुमारी तक सूर्य या चंद्र पर आधारित कलेंडर के अनुसार अलग-अलग क्षेत्रों में कुछ विशेष तिथियों पर नववर्ष मनाया जाता है, जैसे -- 

● --हिन्दू नववर्ष की शुरुआत चैत्र मास के शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा से होती है ।
●-- तेलगु नववर्ष की शुरुआत भी चैत्र मास के शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा से मानी जाती है ।इस नववर्ष को (उगादि = युग+आदि) कहा जाता है अर्थात नए युग की शुरुआत ।

●-- मराठी और कोंकणी संस्कृति में नववर्ष 'गुड़ी पड़वा' के रूप में नवरात्रि की प्रतिपदा को मनाया जाता है ।गुड़ी अर्थात पीला वस्त्र , जिसे घर के मुख्य द्वार पर दाईं ओर बाँस के ऊपरी हिस्से पर ताँबे का उलटा लोटा रखकर उस पर फूलों की माला पहनाकर लटकाया जाता है ।यह पर्व विजयोत्सव का भी प्रतीक है ।सिंधी भी नववर्ष  ' चेतीचाँद '  के रूप में इसी दिन मनाते हैं ।

●-- पंजाबियों में नववर्ष  ' बैशाखी ' के रूप में 13 अप्रैल को मनाया जाता है ।यह पंजाब और हरियाणा में फसल कटाई का सबसे बड़ा पर्व है ।यह दिन रबी की फसल कटने की खुशी का प्रतीक भी है ।इस दिन किसान सर्दियों की फसल काट लेने के बाद नए साल की खुशियाँ मनाते हैं ।

इसी दिन 13 अप्रैल, 1699 के दिन सिखों के दसवें गुरू गोविंद सिंह जी ने खालसा पंथ की शुरुआत की थी ।इसीलिए सिख इस त्यौहार को सामूहिक जन्मदिवस के रूप में भी मनाते हैं ।

●-- तमिल नववर्ष  'पुथांडु' के नाम से अपना नववर्ष मनाते हैं ।तमिल कलेंडर का पहला महीना 13 या 14 अप्रैल को चिथिराई से शुरू होता है ।इस दिन तमिल लोग आपस में एकदूसरे को 'पुथांडु बजथुकाल '   कहते हैं जिसका अर्थ है-- नववर्ष मुबारक हो। तमिल परिवार के लोग इस दिन मीनाक्षी मन्दिर में पूजा कर मंगल पचाड़ी बनाते हैं, जो कच्चे आम, गुड़ और मीन के फूलों से बनाई जाती है ।

●--असम में नया साल  'बोहाग बीहू' के नाम से मनाया जाता है ।अप्रैल के मध्य में जब नई खेती के मौसम की शुरुआत होती है , तब बोहाग बीहू यानी नए साल की शुरुआत होती है ।असम में साल में तीन बार बोहाग बीहू मनाया जाता है ।

● -- बंगाल में नववर्ष  'पोहेला बोएशाख' के नाम से मनाया जाता है ।यह भी अप्रैल के बीच में यानी 14 या 15 अप्रैल को आता है ।बंगाल के अलावा अन्य पहाड़ी क्षेत्रों जैसे --- त्रिपुरा आदि में भी नववर्ष  पोहेला बोएशाख के रूप में मनाया जाता है ।

● -- गुजराती लोग दीपावली के दूसरे दिन नववर्ष मनाते हैं, इस दिन गुजराती लोग आपस में एक दूसरे को 'साल मुबारक'  कहकर नववर्ष की शुभकामनाएँ प्रदान करते हैं ।

● --  मलयालम में नववर्ष ग्रेगरी कलेंडर के अनुसार 14 अप्रैल को विशु पर्व के रूप में मनाया जाता है ।विशु पर्व पर विशुकन्नी यानी सुबह-सुबह किसी पहली चीज को देखने का विशेष महत्व है ।
● --  सिक्किम में नववर्ष दिसंबर से शुरू होता है ।दिसंबर में यहाँ फसलों की कटाई होती है ।इस पर्व पर सिक्किम लोग छम नृत्य करते हैं ।

● --- कश्मीर में नववर्ष, चंद्र आधारित कलेंडर के अनुसार-- नवरेह को नए साल के रूप में मनाते हैं ।यहाँ चैत्र नवरात्र के अवसर पर यह पर्व शुरु होता है ।

● --     इस्लाम में नववर्ष हिजरी कलैंडर के अनुसार--'मुहर्रम' के दिन मनाया जाता है।यह दिन नए वर्षगाँठ का पहला दिन होता है। हिजरी कलैंडर पूर्णतया चंद्रमा पर आधारित है, जो हर साल अलग-अलग तारीखों पर शुरु होता है ।

● -- हिन्दू शास्त्रों के अनुसार नया वर्ष शुरू करने का अधिकार उसी राजा का होता था, जिसके राज्य में किसी भी व्यक्ति का कोई ऋण बकाया न हो ।आज से 2066 साल पहले उज्जैन नरेश विक्रमादित्य ने अपने राजकोष से प्रत्येक व्यक्ति का ऋण मुक्त करके इस संवत् की शुरुआत की थी 

●●●विदेशों में नववर्ष मनाने की  तिथियाँ व परम्पराएँ●●●

विदेशों में भी नववर्ष मनाने की तिथियाँ व परम्पराएँ अलग-अलग हैं ।
● -- ईरान में नववर्ष को नौरोज का पर्व कहा जाता है ।वहाँ यह मार्च के महीने में मनाया जाता है ।इस अवसर पर परिवार के सभी लोग एक बड़ी मेज के पास एकत्रित होकर प्रार्थना करते हैं ।प्रार्थना के पश्चात एक प्रीतभोज आयोजित किया जाता है, इसके पश्चात लोग आपस में गले मिलते हैं और रात्रि में घर  को दीपों से सजाते हैं ।

● -- ईसाई धर्म में एक जनवरी को नववर्ष मनाया जाता है, लेकिन इसके आगमन की तैयारी की शुरुआत दिसंबर के अंतिम सप्ताह से ही आरंभ हो जाती है ।

● -- पहले जापान में नववर्ष का त्यौहार एक फरवरी को मनाया जाता था, इस दिन लोग सूर्यदेव की पूजा-आराधना किया करते थे, लेकिन जब से जापान में नई क्रांति आई , तब से एक जनवरी को ही लोग नववर्ष मनाने लगे हैं ।

● -- वर्मा में नववर्ष को 'तिजान' कहा जाता है ।इस दिन यहाँ सभी लोग एक दूसरे पर होली के त्यौहार की तरह रंग डालते हैं ।रात्रि को पूजा करने के बाद एक दूसरे को उपहार दिए जाते हैं ।इस अवसर पर लोग अपने घरों को सजाते हैं ।आधी रात तक प्रीतिभोज करते हैं और रात्रि 12 बजे के बाद खूब आतिशबाजी करते हैं ।

● -- थाइलैंड में नववर्ष  'महासुंग कर्ण'  के नाम से मनाया जाता है ।यह पर्व अप्रैल में मनाया जाता है ।इस दिन थाई लोग पक्षियों को पिंजरे से मुक्त करना, मछलियों को पानी में छोड़ना , दाना देना और घरों की साफ-सफाई करना शुभ मानते हैं ।इस दिन थाई लोग बाजारों से नए वस्त्र खरीदते हैं ।

● -- फ्रांस में नववर्ष की शुरुआत से पहले 31 दिसम्बर की रात्रि को एक घंटा बजाया जाता है और फिर नववर्ष बड़ी धूमधाम से मनाया जाता है ।इस दिन सामूहिक विवाह का भी आयोजन किया जाता है ।स्पेन में 12 अंगूर रात्रि के 12 बजे खाना शुभ माना जाता है ।

● --  येरूशलम में नववर्ष का उत्सव शरद ऋतु के आरंभ का उत्सव है ।इस अवसर पर पूजा-अर्चना भी की जाती है ।लोगों का ऐसा मानना है कि नववर्ष के प्रथम दिवस पर ही मनुष्य पहली बार स्वर्ग से धरती पर आया था ।

● -- इंग्लैंड में नववर्ष के दिन लोग गुजरे वर्ष को भगाने के लिए झाड़ू लेकर घर में प्रवेश करते हैं और बड़े स्तर पर घरों की सफाई करते हैं ।इस दिन चर्च को बड़े स्तर पर सजाया जाता है ।लोग एक-दूसरे को उपहार देते हैं और बड़ी-बड़ी पार्टियों का आयोजन करते हैं ।

● -- दक्षिण अफ्रीका की जुलू जनजाति में नववर्ष के उपलक्ष में सामूहिक विवाह का आयोजन किया जाता है ।

● -- कोरिया में नववर्ष का उत्सव फरवरी में मनाया जाता है ।इस अवसर पर बच्चों को चौगेरी पहनाई जाती है ।चौगेरी कई प्रकार के रंगीन कपडों को लेकर बनाई जाती है ।सभी लोग नए-नए कपड़े पहनते हैं और युवा लोग बड़े-बूढों के संग नाचते हैं ।

● -- इटली में नववर्ष के अवसर पर रंग-बिरंगे फूलों के पौधे लगाते हैं , ताकि पर्यावरण साफ-सुथरा रहे ।कई जगहों पर नववर्ष पर दरवाजे के ऊपर मोरपंखों की टहनी लटकाते हैं, जो शुभ और सौभाग्य का प्रतीक मानी जाती है ।सभी युरोपीय देशों में, जैसे , इटली, पुर्तगाल, नीदरलैंड व अन्य देशों में परिवार के लोग इकट्ठे होकर चर्च जाकर वहाँ सेवा कार्य में भी सम्मिलित होते हैं ।

● -- लंदन में नववर्ष की पूर्वसंध्या पर रात्रि के ठीक बारह बजे एक तोप का गोला दागा जाता है ।तोप के गोले के साथ ही लोग रंगीन टोपियाँ पहनकर घरों के बाहर निकल आते हैं और अपने मित्रों को उपहार और बधाइयाँ देना शुरु करते हैं और यह सिलसिला सारी रात चलता हे ।

● -- नववर्ष में मध्य यूरोप के बाल्कन इलाके में लोग नए साल की पहली किरण आने से पहले अपने घर और आँगन को ताजे पानी से अच्छी तरह धोते हैं या पवित्र जल का छिड़काव करते हैं ।इस तरह आने वाले वर्ष का स्वागत करते हैं ।

● -- इस्लामिक देश मोरक्को में भी साल की शुरुआत में लोग घरों की सफाई करते हैं ।

● -- मैडागास्कर के लोग नए साल के पहले दिन अपने ऊपर पानी की धार उढ़ेलते हैं ।पवित्र नदियों व सरोवरों के जल को सिर पर धार बनाकर डालते हैं, जो इस बात का प्रतीक होता है कि पुराना सब कुछ धुल गया और अब नया शुरु होगा ।

● -- चीन में नए साल पर कई दिनों की छुट्टियाँ होती हैं ।इन छुट्टियों में महिलाएँ नए-नए पकवान बनातीं हैं ।बच्चे पटाखे छोड़ते हैं ।लोग एक-दूसरे के घर आते-जाते हैं और उपहारों का आदान-प्रदान करते हैं ।

● पूरब के देशों में भी नए साल को मनाने में आमतौर से साफ-सफाई के तौर-तरीकों को प्रमुखता दी जाती है ।पूर्वी गोलार्द्ध के देशों में नए साल के उत्सव में कई जगहों पर लोग नए साल से पहले अपना पूरा कर्ज उतारते हैं और नए साल की शुरुआत बिना कर्ज से करते हैं ।हमारे प्राचीन भारत विक्रम संवत शुरु होने की कहानी भी कुछ यही दर्शाती है ।

इस तरह नववर्ष दुनिया के कोने-कोने में अलग-अलग तरह से मनाया जाता है लेकिन उद्देश्य सभी का एक ही रहता है कि नववर्ष का अच्छे से स्वागत किया जाए ताके नववर्ष सबके लिए शुभ एवं मंगलकारी हो।

सादर अभिवादन व धन्यवाद ।

Monday, November 16, 2020

भारत गुरुकुलों की भूमि,(तक्षशिला,नालंदा) तक्षशिला विश्वविद्यालय, नाम की उत्पत्ति पर विभिन्न मत, तक्षशिला में घटीं घटनाएँ , नालंदा विश्वविद्यालय , विक्रमशिला विश्वविद्यालय

               ●●● भारत गुरुकुलों की भूमि ●●●
प्राचीनकाल से ही भारत में  विद्याध्ययन मानव जीवन की सर्वोपरि आवश्यकताओं में से एक रहा है ।विद्या का अर्जन, व्यक्तित्व के विकास का मुख्य सोपान कहा गया है तो विद्या को प्रदान करना आचार्य का प्रमुख कर्तव्य बताया गया है ।

सुरम्य, प्राकृतिक वातावरण में जहाँ एकाग्रचित्त होकर ज्ञान के अध्ययन के साथ-साथ उस ज्ञान का अनुभव भी हो सके, जहाँ विद्यार्थी प्रकृति से वह ज्ञान प्राप्त कर सकें, जो उनके व्यक्तित्व को समग्रता प्रदान करे एवं जहाँ यज्ञादि आध्यात्मिक अनुष्ठान के लिए समुचित व्यवस्था उपलब्ध रहे -- ऐसे स्थानों पर ऋषि-मुनियों ने विद्या के केन्द्रों की स्थापना की, जो गुरुकुलों के नाम से विख्यात हुए ।

                 आर्ष वाङ्मय में भारत के विभिन्न स्थानों पर कई गुरुकुलों की स्थापना दरसाई गई है ।महाभारत काल के अनुसार-- हिमालय में महर्षि व्यास का गुरुकुल, महेन्द्र पर्वत पर ऋषि परशुराम का गुरुकुल, मालिनी नदी के तट पर महर्षि कण्व का गुरुकुल, हरिद्वार में महर्षि भरद्वाज का गुरुकुल, दण्डकारण्य में महर्षि अगस्त्य का गुरुकुल, उज्जयिनी में महर्षि सांदीपनि का गुरुकुल एवं नैमिषारण्य में महर्षि शौनक के गुरुकुल का वर्णन है ।

वैदिक काल में भगवान  श्रीराम एवं भगवान श्री कृष्ण ने भी महर्षि वशिष्ठ एवं महर्षि सांदीपनि के गुरुकुलों में विद्यार्जन के कार्य को संपन्न किया था ।रामायण के अरण्य काल में महर्षि वाल्मीकि ने महर्षि अगस्त्य के गुरुकुल की अत्यन्त प्रशंसा की है ।कालान्तर में गुरुकुलों ने ही विश्वविद्यालय का स्वरूप प्राप्त कर लिया ।

जैसे-जैसे विद्या ग्रहण करने का क्षेत्र राजा-महाराजाओं के परिवारों के क्षेत्र से हटकर एवं बढ़कर जनसामान्य तक पहुँचने लगा, वैसे-वैसे ये गुरुकुल भी अपने आकार-प्रकार में बढ़ते चले गए अर्थात इन गुरुकुलों का स्वरूप विस्तृत होने के कारण इन्हें विश्वविद्यालयकहा जाने लगा ।

   ● विश्वविद्यालयों के प्रमुख को कुलपति क्यों कहा गया ●

           महाभारत में महर्षि शौनक के गुरुकुल में  शौनक को   कुलपति कहकर पुकारा जाता था ।चूँकि कुलपति शब्द दस हजार से अधिक विद्यार्थियों की संख्या होने पर ही उपयोग में लाया जाता था ; अतः ऐसा अनुमान लगाया जा सकता है कि महर्षि शौनक के गुरुकुल में दस हजार से अधिक विद्यार्थी रहे होंगे ।शायद उसी परम्परा का निर्वाह करते हुए  आज भी विश्वविद्यालयों के प्रमुख को कुलपति ही कहा जाता है ।
            
              ●●● तक्षशिला विश्वविद्यालय ●●●
      ●●●तक्षशिला नाम की उत्पत्ति पर विभिन्न मत●●●

 तक्षशिला एक ऐसा महान विश्वविद्यालय था, जो महाभारत काल में ही प्रसिद्धि प्राप्त करने लगा था । इस महाविद्यालय के नाम की उत्पत्ति के बारे में विभिन्न मत हैं ।

1 ● --कुछ विद्वान मानते हैं कि एक ही शिला (पत्थर)को काटकर बना होने के कारण इसका नाम तक्षशिला पड़ा ।
2 ● -- कुछ विद्वानों का मत है कि भरत के पुत्र तक्ष के नाम पर इसका नाम तक्षशिला है ।
3 ● -- कुछ विशेषज्ञ ऐसा मानते हैं कि प्रसिद्ध नागराज तक्षक का कुलस्थान होने के कारण इसे तक्षशिला नाम दिया गया ।

नाम की उत्पत्ति कहीं से एवं कैसे भी हुई हो लेकिन यह तो स्पष्ट है कि ज्ञान के क्षेत्र में, मानवता को अद्भुत विरासत इस विश्वविद्यालय
द्वारा प्रदान की गई ।

  ●●● शास्त्रों में वर्णित तक्षशिला में घटीं घटनाएँ ●●●

     जब हम अपने शास्त्रों का गंभीरता से अध्ययन करें तो उनमें कई घटनाएँ ऐसी मिलती हैं जिनमें तक्षशिला का उल्लेख किया गया है ।शतपथ ब्राह्मण में आई आरुणि-उद्दालक की कथा हो अथवा वैशंपायन एवं जनमेजय के मध्य का संवाद हो, श्वेतकेतु का अध्ययन क्षेत्र हो अथवा कलियुग के प्रथम राजा परीक्षित का राज्याभिषेक--- ये सभी घटनाएँ तक्षशिला में ही घटी हैं ।

शास्त्रों के अनुसार धौम्य ऋषि के शिष्यों उपमन्यु, आरुणि एवं वेद की शिक्षा-दीक्षा का कार्य तक्षशिला विश्वविद्यालय में ही संपन्न हुआ था ।तक्षशिला का उल्लेख मात्र रामायण, महाभारत एवं वेदों में ही नहीं आता, वरन् बौद्ध धर्म के जातकों में भी आता है ।यहाँ तक कि बौद्ध जातकों में एक संपूर्ण जातक, तक्षशिला जातक के नाम से जाना जाता है ।जैन धर्म के अनुसार, प्रथम जैन तीर्थंकर ॠषभदेव के चरण भी तक्षशिला में पड़े थे, जिसको आदर देने के उद्देश्य से बाद में बाहुबलि ने धर्मचक्र की स्थापना करवाई। 

ईसा से छह सदी पूर्व पाणिनि ने अष्टाध्यायी की रचना की भूमिका यहीं तैयार करनी प्रारंभ की थी वहीं चरक एवं चाणक्य , दोनों ही इस विश्वविद्यालय के विद्यार्थी तथा आचार्य भी रहे ।जिस विश्वविद्यालय के विद्यार्थियों में वैशंपायन से लेकर चाणक्य और चरक से लेकर पाणिनि के नाम आते हों , उसकी गौरव-गरिमा का अंदाजा लगा पाना भी संभव नहीं है ।

तक्षशिला विश्वविद्यालय अपनी अद्भुत भौगोलिक स्थिति के कारण भारत ही नहीं, वरन् मध्य यूरोप, चीन, तिब्बत, प्राचीन यूनान क्षेत्रों के विद्यार्थियों के लिए एक आकर्षण का कारण रहा ।तक्षशिला आज पाकिस्तान की राजधानी इस्लामाबाद से 32 किलोमीटर की दूरी पर है ।

तक्षशिला विश्वविद्यालय में विश्व भर से विद्यार्थी विद्याध्ययन के लिए आते थे इसी कारण इस पवित्र विद्यामन्दिर को अनेक बार विदेशी आक्रमणों के प्रहार भी सहने पड़े ।मंगोलों से लेकर यूनानियों ने, शकों से लेकर हूणों ने तक्षशिला पर बारंबार आक्रमण किए।पुरातात्विक पर्यवेक्षण में यह स्पष्ट दिखाई पड़ता है कि यह महान विद्या भूमि  अनेक बार उजाड़ी गई और फिर बसी ।


       तक्षशिला की इमारतों के बार-बार ध्वस्त कर देने के बाद भी उनके दुबारा खड़े हो जाने का मुख्य कारण यही था कि यहाँ के आचार्य विलक्षण प्रतिभा के धनी थे ।इसी विश्वविद्यालय में कभी भारत की राष्ट्रलिपि रही -- 'ब्राह्मी लिपि' विकसित हुई ।  बौद्ध जातकों के अनुसार तक्षशिला विश्वविद्यालय के एक-एक आचार्य पाँच सौ विद्यार्थियों की संपूर्ण शिक्षा एवं प्रशिक्षण का दायित्व सँभालते थे ।
               
                 ●●● नालंदा विश्वविद्यालय ●●●
 ●●● नालंदा विश्वविद्यालय  बिहार-ए-शरीफ में स्थित ●●●

भारतीय इतिहास एवं परम्पराओं में नालंदा विश्वविद्यालय का स्थान भी अत्यन्त महत्वपूर्ण रहा है ।नालंदा में सर्वप्रथम एक विहार की स्थापना सम्राट अशोक ने इसलिए करवाई थी ; क्योंकि रह क्षेत्र भगवान बुद्ध एवं भगवान महावीर, दोनों का प्रिय माना जाता था ।कालान्तर में नागार्जुन द्वारा एक प्रतिष्ठित शिक्षा संस्थान की स्थापना यहाँ की गई ,जो देखते-देखते विश्व प्रसिद्ध विश्वविद्यालय में बदल गया ।

भारत भ्रमण पर आए फाह्यान ने 490 ई0 में नालंदा का भ्रमण किया था और अपने यात्रा संस्मरणों में इसका उल्लेख भी किया है ।गुप्त वंश के समय नालंदा की प्रगति और भी तीव्र गति से हुई ।पुरातात्विक अनुसंधानों से यह स्पष्ट है कि नालंदा विश्वविद्यालय का क्षेत्र, आज के बिहार-ए-शरीफ में पड़ता था ।नालंदा विश्वविद्यालय का क्षेत्र इतना बड़ा था कि उसका अनुमान लगाना भी कठिन हो जाता है ।उस समय वहाँ अध्ययन करने के लिए कोरिया, जापान,चीन, तिब्बत, इंडोनेशिया, पर्शिया एवं तुर्की से अनेक विद्यार्थी आया करते थे ।

●ह्वेनसांग के यात्रा वृत्तांत के अनुसार नालंदा विश्वविद्यालय●

चीनी यात्री ह्वेनसांग के यात्रा वृत्तांत के अनुसार नालंदा विहार की भूमि पाँच सौ धनाढ्य लोगों ने मिलकर दस करोड़ स्वर्ण मुद्राओं में खरीदी थी और उसके बाद भगवान बुद्ध को अर्पित की थी ।भारत की विविधता में एकता एवं सर्वधर्म समभाव की बात इसी से स्पष्ट 
हो जाती है कि वैदिक मतावलंबी होते हुए भी नालंदा का सर्वाधिक विकास गुप्तकाल में ही हुआ । बाद में सम्राट हर्षवर्धन ने
तो भगवान बुद्ध की अस्सी फुट ऊँची ताँबे की एक प्रतिमा बनवाकर नालंदा विश्वविद्यालय को भेंट भी की थी ।

यहाँ प्राप्त खंडहरों की खुदाई से मिली जानकारी के अनुसार नालंदा विश्वविद्यालय के भवन मीलों दूर तक फैले हुए थे ।इस विश्वविद्यालय का पुस्तकालय लाखों पुस्तकों से भरा हुआ था, इस पुस्तकालय का नाम धर्मगंज रखा गया था ।इस पुस्तकालय के भी तीन हिस्से थे, जिनके नाम रत्नसागर, रत्नोदधि एवं रत्नरंजिका रखे गए थे ।

नालंदा विश्वविद्यालय के तीन पुस्तकालय में से एक रत्नोदधि ही नौ मंजिला ऊँचा था तो यह अनुमान लगाया जा सकता है कि अन्य दो पुस्तकालयों में  कितनी पुस्तकें रखी गई होंगी ।यहाँ पर विद्यार्थी बौद्ध धर्म की महायान परंपरा के ग्रन्थों का, वेदों का, उपवेदों का, ज्योतिर्विज्ञान का , तर्क, दर्शन एवं चिकित्सा इत्यादि का अध्ययन करते थे 

ह्वेनसांग के यात्रा वृत्तांत में वहाँ उपस्थित एक ज्योतिर्विज्ञान वेधशाला का भी उल्लेख मिलता है, इस वेधशाला के विषय में उसने लिखा है कि इसके माध्यम से आकाश का अध्ययन किया जाता है ।निम्न श्लोक इस बात की पुष्टि करता प्रतीत होता है---

        यस्याम्बुधरावलेहि      शिखरश्रेणी       विहारावली ।
        मालेबोर्ध्व  विराजिनी विरचिता कान्ता  मनोज्ञाभुवः ।।

नालंदा विश्वविद्यालय में विद्यार्थियों के लिए तेरह छात्रावास बनाए गए थे और लगभग तीन हजार विद्यार्थियों को निःशुल्क शिक्षा , निःशुल्क भोजन प्रदान किया जाता था ।यहाँ तक कि विद्यार्थियों के वस्त्र तथा औषधि का प्रबंध भी विश्वविद्यालय की ओर से होता था। ह्वेनसांग के अनुसार नालंदा में लगभग पंद्रह सौ दस(1510 )
आचार्य थे ।इनमें से दस उच्चतर श्रेणी के शिक्षक थे , पाँच सौ मध्यम श्रेणी के एवं एक हजार सामान्य श्रेणी के शिक्षक थे ।
मगध क्षेत्र को नालंदा विश्वविद्यालय के कारण अपार प्रसिद्धि मिली ।
       
           ●●● विक्रमशिला विश्वविद्यालय ●●●
मगध क्षेत्र में विक्रमशिला विश्वविद्यालय की स्थापना पालवंश के राजा धर्मपाल द्वारा 8वीं शताब्दी में  की गई ।सभी इतिहासवेत्ता इस बारे में एकमत हैं कि यह विश्वविद्यालय देव संस्कृति का उज्जवल दीप था और आज भी यह वैदिक ज्ञान-विज्ञान के अध्ययन-अन्वेषण के लिए जाना जाता है, 


ऐसा माना जाता है कि कभी यहाँ पर छोटे-बड़े 102 मन्दिर थे , जिनमें से प्रत्येक में एक आचार्य का निवास था और ये सभी अपने-अपने विषय का ज्ञान यहाँ प्रदान किया करते थे ।विक्रमशिला विश्वविद्यालय के केंद्रीय भवन का नाम विज्ञान गृह था ।

विक्रमशिला विश्वविद्यालय का प्राच्य विभाग पूरे भारतवर्ष में विख्यात था ।यह विश्वविद्यालय गंगा के तट पर वर्तमान भागलपुर से 24 मील दूर स्थित था ।पुरातत्वविज्ञानी कनिंघम ने उत्तरी मगध के बड़गाँव के निकट इसकी पहचान की है ।

विक्रमशिला विश्वविद्यालय के बारे में ऐसा अनुमान लगाया जाता है कि बारहवीं सदी तक यहाँ अध्ययनरत विद्यार्थियों की संख्या तीन हजार के करीब तक पहुँच गई थी ।प्रसिद्ध विद्वान दीपंकर श्रीज्ञान किसी समय यहाँ के प्रमुख आचार्य रहे होंगे, ऐसा सभी का मानना है ।

इस विश्वविद्यालय के बारे में दुखद बात यह रही कि इस विश्वविद्यालय को 1203 ईo में बर्बर आक्रांता मुहम्मद-बिन-अख्तियार-खिलजी ने इसे ढहा दिया और इसके तमाम शोधग्रन्थ पत्र एवं दुर्लभ पत्र-पत्रिकाओं आदि को अग्नि के हवाले कर दिया ।अतीत की इस धरोहर को पूरी तरह से जलने में महीनों लग गए थे, पर जब यह अपनी ऊन्नत अवस्था में था तो यह भारतीय शोध का केन्द्र था ।

प्राचीन भारत के ऐसे ही अन्य प्रतिष्ठित विद्यालयों में काशी विश्वविद्यालय, जगद्दला विश्वविद्यालय,ओदंतपुरी विश्वविद्यालय, मिथिला विश्वविद्यालय, नवदीप विश्वविद्यालय एवं कांची विश्वविद्यालय के नाम लिए जाते हैं ।इन्हीं परम्पराओं को अक्षुण्ण रखने के लिए आज भी भारत में ऐसे गौरवपूर्ण विश्वविद्यालय हैं जिनमें हजारों विद्यार्थी विद्याध्ययन करते हैं ।इन विश्वविद्यालयों में उन्हीं प्राचीन परम्पराओं एवं ज्ञान की धाराओं का निर्वहन किया जा रहा है, जिनकी प्रतिष्ठा ऋषि-मुनियों ने वर्षों पहले की थी ।

सादर अभिवादन व धन्यवाद ।


Tuesday, November 10, 2020

स्वाध्याय का सच्चा अर्थ, शास्त्रों में स्वाध्याय की परिभाषा, जीवन के प्रश्नों के उत्तर स्वाध्याय द्वारा, स्वाध्याय के लिए महर्षियों,स्वाध्याय के लिए कैसा साहित्य हो?

           ●●●स्वाध्याय का सच्चा अर्थ●●●
स्वाध्याय का सच्चा अर्थ है--- स्व का अध्ययन अर्थात अपने आप का, अपने जीवन का अध्ययन करना है ।सामान्यतया हम किसी पुस्तक को पढ़ना ही स्वाध्याय मान लेते हैं ।अपने पसंदीदा विषय की पुस्तकों या पत्रिकाओं को  पढ़ते तो हैं और पढ़ने में रुचि होना एक अच्छी बात है । पढ़ना जरूरी भी है  लेकिन स्वाध्याय का एक अलग ही अर्थ है। स्वाध्याय के यथार्थ उद्देश्य, महान प्रयोजन और फलश्रुतियों को न समझने के कारण स्वाध्याय को अपने जीवन का अभिन्न अंग नहीं बना पाते ।

       ●●● शास्त्रों में स्वाध्याय की परिभाषा  ●●● 

●तैत्तिरीयोपनिषद में--- "स्वाध्यायान्मा प्रमदः"   कहकर मानव मात्र के लिए स्वाध्याय को जीवन का अभिन्न अंग बनाने का निर्देश दिया है ।
● श्री मद्भगवद्गीता में स्वाध्याय को वाणी का तप कहा गया है ।
● छांदोग्योपनिषद् में स्वाध्याय को धर्म के प्रमुख स्तंभों में एक        माना गया है ।
● पातंजल योग सूत्र में स्वाध्याय को क्रियायोग का एक प्रमुख         अंग माना है ।
● योग न्यास भाष्य में कहा गया है कि योग साधना के पथ पर          स्वाध्याय करने से परमात्मा का साक्षात्कार होता है ।
● शतपथ ब्राह्मण में तो ब्राह्मण को नियमित स्वाध्याय करने का       निर्देश दिया है ।कहा है कि ब्रह्म या ईश्वर की प्राप्ति में संलग्न         व्यक्ति को  प्रतिदिन दिन स्वाध्याय करना  अत्यन्त ही                 आवश्यक है ।
● योग एवं अध्यात्म शास्त्रों में स्वाध्याय को जीवन-साधना का        एक प्रमुख स्तंभ माना गया है ।
    
 स्वाध्याय के प्रति इन महान धारणाओं में कोई अतिशयोक्ति           नहीं है ; क्योंकि स्वाध्याय का रूप ही कुछ ऐसा है ।आज मनुष्य दुनियाभर की जानकारी हासिल करता है लेकिन स्वयं के प्रति अनभिज्ञ रहता है और इसी कारण दुःख, क्लेश, समस्याओं, विग्रहों एवं द्वंदों से आक्रांत रहता है ।

● जीवन के महत्वपूर्ण प्रश्नों के उत्तर स्वाध्याय से ही मिलते हैं ●

इस सुरदुर्लभ मानव जीवन का मूल उद्देश्य क्या है ? इस उद्देश्य की पृष्ठभूमि में वह कहाँ खड़ा है ? इस तक पहुँचने का मार्ग क्या है ? इस मार्ग के आंतरिक एवं बाह्य व्यवधान क्या हैं?--  इन सब महत्वपूर्ण प्रश्नों के उत्तर स्वाध्याय के प्रकाश में ही मिलते हैं श्रेष्ठ ग्रन्थों एवं मनीषियों द्वारा रचित साहित्य के साथ व्यक्ति जब चिंतन-मनन एवं विचार करता है तो उसके विवेकचक्षु जाग्रत होते हैं ।आंतरिक जीवन के अँधेरे कोने में प्रकाश की किरणें पड़ती हैं और जीवन का प्रकाशपूर्ण मार्ग प्रशस्त होता है ।

     ●●● स्वाध्याय के लिए कैसा साहित्य हो ? ●●●

स्वाध्याय का लाभ पाने हेतु उचित साहित्य का चयन अभीष्ट होता है, तभी स्वाध्याय का यथार्थ प्रयोजन पूरा होता है और इससे जुड़ी फलश्रुतियाँ एक-एक कर अनावृत होने लगतीं हैं ।जीवन को सफल बनाने के लिए सभी तरह के साहित्य की जरूरत होती है ।इसमें जीवन की सफलता, उन्नति एवं बुलंदियों की बातें होती हैं, 
  किन इनमें प्रायः वह प्रकाश नहीं मिल पाता, जो जीवन की आत्यांतिक समस्याओं एवं महाप्रश्नों के मर्म को छू सके ।

स्वाध्याय के लिए सबसे उपयुक्त रहता है --- उन प्राज्ञपुरुषों द्वारा रचित साहित्य को पढ़ना ; जिनका स्वयं का जीवन दैदीप्यमान सूर्य की भाँति युग को आलोकित किए होता है ।इस युग में स्वामी दयानंद, स्वामी विवेकानंद, स्वामी रामतीर्थ, महर्षि अरविंद, स्वामी शिवानंद एवं श्री राम शर्मा आचार्य जी जैसे महायोगी-महर्षियों के साहित्य में ऐसा प्रकाशपूर्ण मार्गदर्शन उपलब्ध होता है ।

श्री मद्भगवद्गीता, वेद, पुराण, उपनिषद्, श्री रामचरितमानस, पातंजल योगसूत्र, विवेक चूड़ामणि  जैसे आध्यात्मिक ग्रन्थों से भी जीवन के मुल प्रश्नों के समाधान मिलते हैं और ये स्वाध्याय के प्रयोजन को पूरा करते हैं ।युगॠषि पंडित श्री राम शर्मा आचार्य जी द्वारा रचित विपुल युगसाहित्य भी जीवन के मूल प्रश्नों के उत्तर दिलाने में सक्षम है ।

यदि हम स्वाध्याय के द्वारा अपने जीवन का विकास करना चाहें तो नियमित कुछ समय स्वाध्याय अवश्य करें ।जैसे-जैसे आपके स्वाध्याय में वृद्धि होगी वैसे-वैसे आपके दृष्टिकोण में परिवर्तन आने लगेगा और आप दूसरों का मार्गदर्शन भी कर सकेंगे ।धीरे-धीरे आपको यह अनुभव होने लगेगा कि आप परम सत्ता के सान्निध्य में हैं ।वह परम सत्ता आपका मार्गदर्शन कर रही है ।

स्वाध्याय के लिए अपनी रुचि के अनुसार उचित साहित्य का चयन आपके जीवन के उद्देश्य के महत्वपूर्ण प्रश्नों के समाधान देने में सहायक हो सकता है  इसलिए सद्ग्रन्थों एवं युगसाहित्य के नित्य अध्ययन का क्रम बनाया जाना चाहिए ।स्वाध्याय पूर्ण एकाग्रता एवं श्रद्धा के साथ करना चाहिए ।एकाग्रता एवं श्रद्धा के साथ किया गया स्वाध्याय मानव जीवन के मूल उद्देश्य को उजागर करता है जिसके द्वारा साधक नित्यप्रति आत्मसाधना में विकास की अनुभूति करता है ।

सादर अभिवादन व धन्यवाद ।




Monday, November 9, 2020

महर्षि अरविंद जीवन परिचय,स्वतन्त्रता संग्राम में निर्णायक भूमिका,वंदेमातरम पत्रिका से क्रांति की शुरुआत,अलीपुर जेल में भगवान का साक्षात्कार, उनका आध्यात्मिक लक्ष्य मानव चेतना का उत्थान

      ●●●महर्षि अरविंद का जीवन परिचय●●●
महर्षि अरविंद स्वतंत्रता संग्राम के दौर की एक ऐसी विरल प्रतिभा, विलक्षण व्यक्तित्व एवं दिव्य विभूति थे, जिनकी भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में निर्णायक भूमिका रही ।

श्री अरविंद का जन्म 15 अगस्त, 1872 को कोलकाता (कलकत्ता) में डाॅ कृष्णधन घोष के घर हुआ, जो पाश्चात्य संस्कृति के पुजारी थे ।उन्होंने अपने सात वर्षीय बालक श्री अरविंद को बड़े भाई संग इस कड़े आदेश के साथ इंग्लैंड भेजा कि वे किसी भी भारतीय चीज के संपर्क में न आएँ।

श्री अरविंद की बाल्यावस्था एवं किशोरावस्था लंदन के सेंट पाॅल स्कूल एवं कैंब्रिज के किंग्स काॅलेज में व्यतीत हुई ।वे अत्यन्त प्रतिभाशाली थे , उन्होंने अंग्रेजी सहित लेटिन, यूनानी एवं फारसी भाषाओँ पर पूर्ण अधिकार प्राप्त किया और जर्मन, इतालवी एवं स्पेनिश भाषाएँ भी सीखते रहे ।

इंग्लैंड के चौदह वर्ष के अध्ययन काल में युवा श्री अरविंद यूरोपीय संस्कृति एवं समाज के बारे में गहन अंतर्दृष्टि पा चुके थे । आई सी एस ( इंडियन सिविल सर्विस ) जैसी प्रतिष्ठित परीक्षा उत्तीर्ण कर वे  घुड़सवारी में वे जानबूझकर अनुत्तीर्ण हो गए ; क्योंकि उन्हें ऐसी नौकरी में कोई रुचि नहीं थी ।

    ●●● भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में भूमिका ●●●
  
  श्री अरविंद की भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में निर्णायक भूमिका रही ।हालाँकि वे कुछ ही समय के लिए भारतीय राजनीतिक परिदृश्य में प्रकट हुए , लेकिन तब भी वे अपनी अमिट छाप छोड़ गए ।वे इंग्लैंड में ही भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के लिए काम करने वाली  'कमल और कटार' नामक एक गुप्त सभा में भरती हो गए ।

सन् 1893 में  इक्कीस वर्ष की आयु में श्री अरविंद ने जब पहली बार मुंबई (बंबई) के अपोलो बन्दरगाह में पाँव रखा तब जाकर उन पर शांति एवं स्थिरता का अवतरण हुआ, जो जीवनपर्यन्त उनके साथ बना रहा।

    इसके बाद बड़ौदा राज्य में अपनी प्रशासनिक एवं शैक्षणिक सेवाएँ देते हुए उन्होंने भारतीय संस्कृति में गहरी डुबकी लगाई व धर्म, अध्यात्म एवं साहित्य का गहनता से मंथन किया ।उन्होंने संस्कृत, बंगला और कई अन्य भारतीय भाषाएँ भी सीखीं और भारतीय संस्कृति की आत्मा के हर पहलू को आत्मसात् किया ।इस तरह यहाँ के तेरह वर्ष उनके आत्मप्रशिक्षण, साहित्यिक क्रियाकलाप और भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के भावी कार्य की तैयारी के वर्ष रहे ।

सन् 1906 में बंगाल नेशनल काॅलेज की स्थापना हुई ।तब   बड़ोदरा की लाभप्रद देने वाली सर्विस  छोड़कर चोंतीस वर्षीय अरविंद बंगाल नेशनल काॅलेज के प्रथम प्राचार्य बने ।कुछ समय बाद खुलकर स्वाधीनता संग्राम में भाग लेने के लिए काॅलेज से भी त्यागपत्र दे दिया ।

  ●●● 'वन्दे मातरम्' पत्रिका से क्रांति की शुरुआत ●●● 

बंगाल नेशनल काॅलेज के प्राचार्य पद से त्यागपत्र देने के बाद श्री अरविंद राष्ट्रीय दल के नेता बन गए और 'वंदे मातरम्' पत्रिका के माध्यम से उन्होंने क्रांति की अलख जगाई । विपिन चंद्र पाल के शब्दों में  ' वंदे मातरम् '  देश में एक ऐसी शक्ति थी , जिसकी अवहेलना करने का साहस कोई नहीं कर सकता था ।श्री अरविंद इसकी मार्गदर्शक आत्मा और केन्द्रीय प्रतीक बने ।

श्री अरविंद की क्रांतिकारी गतिविधियों के कारण तत्कालीन ब्रिटिश वायसराय लार्ड मिन्टो श्री अरविंद को सबसे अधिक खतरनाक व्यक्ति मानते थे , वहीं दूसरी ओर देशबंधु चितरंजन दास उन्हें देशप्रेम का कवि , राष्ट्रीयता का पैगम्बर और मानवता का प्रेमी कहते थे ।चार वर्ष से भी कम समय में श्री अरविंद ने मंद एवं प्रभावशून्य नीति पर चल रही कांग्रेस में क्रांति ला दी और स्वतन्त्रता संग्राम में पूर्ण स्वराज्य का लक्ष्य जोड़कर स्वाधीनता आंदोलन को नई दिशा दी । श्री अरविंद की क्रांतिकारी गतिविधियों के कारण अंग्रेजी सरकार भयभीत हो गई और भय के कारण उन्हें अलीपुर जेल में बन्दी बनाकर रखा ।

  ●●● अलीपुर जेल में भगवान का साक्षात्कार  ●●●

श्री अरविंद ने उस कारागार को ही गहन स्वाध्याय, साधना एवं ध्यान की तपःस्थली बना लिया और इस दौरान उन्होंने भगवान का साक्षात्कार किया ।यहाँ से प्राप्त दैवी निर्देशानुसार स्वयं को बृहत्तर आध्यात्मिक लक्ष्य के लिए समर्पित कर वे पांडिचेरी चले गए ; क्योंकि अब उन्हें यह आभास हो गया था कि भारत की राजनीतिक स्वाधीनता सुनिश्चित है और अब उनकी प्रत्यक्ष राजनीतिक भूमिका पूर्ण हो गई है , अब उन्हें अपने आध्यात्मिक साधनाएँ व मानव चेतना के परिवर्तन करने के लिए अनेक कार्य करने थे ।

श्री अरविंद ने पांडिचेरी में रहकर एकांत साधना की, उनकी इस एकांत साधना का ही यह सुफल था कि वातावरण में अद्भुत परिवर्तन हुआ और देश में आजादी पाने के लिए जनक्रांति का एक ऐसा दृश्य उमड़ा , जिसके कारण अंततः हमारा देश आजाद हो गया ।

विशेषज्ञों की दृष्टि में राजनीति में वे वे उल्का की तरह प्रकट हुए और उसी तरह चले गए लेकिन राजनीतिक वातावरण में इस उल्का का चौंधियाने वाला प्रकाश कभी धूमिल नहीं हुआ ।उन्होंने जो लौ जलाई थी , वह भारतीय राजनीति को प्रकाश देती रही ।

श्री अरविंद के विश्वास के अनुरूप अब देश स्वतंत्रता प्राप्त करने की ओर अग्रसर था ।आश्चर्य नहीं कि अरविंद के पचहत्तरवें जन्मदिवस पर 15 अगस्त, 1947 को भारत को स्वतंत्रता प्राप्त हुई ।इस उपलक्ष्य पर श्री अरविंद का संदेश था -- " मैं इस संयोग को आकस्मिक दैवयोग नहीं मानता , बल्कि उस दिव्य शक्ति की मुहर और स्वीकृति मानता हूँ, जो मेरे कदमों को राह दिखाती है और उस काम को मुहर लगाती है; जिषके साथ मैंने अपनावकाम प्रारंभ किया था ।

●अरविंद का आध्यात्मिक लक्ष्य  मानव चेतना का उत्थान ●

महर्षि अरविंद का भाव था कि भारत , विश्व के देशों में अपना न्याय संगत स्थान पा सके, जो मानव जाति को घेरे हुए असाध्य सी प्रतीत होने वाली समस्याओं के समाधान निकाल सके और आध्यात्मिक तथा भौतिक जीवन में समन्वय ला सके ।महर्षि अरविंद को दृढ़ विश्वास था कि आध्यात्मिकता भारतीय मन की कुंजी है और अनंत का भाव उसमें जन्मता है ।

महर्षि अरविंद का कार्य केवल भारत की स्वाधीनता के लिए संग्राम तक ही सीमित नहीं था , बल्कि यह भारत के उत्थान के लिए आवश्यक पहल करना था , ताकि भारत अपने आप को पा सके एवं अपनी नियति को पूर्ण कर सके ।

इन्हीं महान उद्देश्यों के साथ श्री अरविंद ने पांडिचेरी में आध्यात्मिक साधना के साथ मानव जाति को उज्ज्वल भविष्य का प्रकाश देने वाले साहित्य का सृजन किया और दिव्य जीवन योग समन्वय, मानव चक्र, मानव एकता का आदर्श, भारतीय संस्कृति के आधार, वेद, उपनिषद् एवं गीता पर भाष्य लिखकर सावित्री जैसे कालजयी साहित्य का अवदान दिया ।सन् 1920 में श्रीमाँ इनके आध्यात्मिक अभियान में आ जुड़ीं और दोनों के सम्मिलित साधनात्मक प्रयासों से श्री अरविंद आश्रम की स्थापना हुई ।

महर्षि अरविंद एक ही व्यक्तित्व में समाहित विद्वान, लेखक, कवि, साहित्यालोचक, दार्शनिक, क्रांतिकारी, राष्ट्रवादी, सामाजिक चिंतक, आदर्श शिक्षक, भारतीय शास्त्रों एवं संस्कृति के भाष्यकार, भविष्यद्ष्टा, महायोगी एवं ऋषि थे ।एक ही व्यक्ति में इतनी सारी विशेषताएँ स्तब्ध करतीं हैं, लेकिन ईश्वरकृपा, दैवीप्रवाह महाकाल के अंशधर इस अवतारी युगदूत के माध्यम से दैवी योजना सक्रिय थी ।

महर्षि अरविंद के अनुसार समस्त जीवन ही योग है ।जीवन की उच्चतम संभावनाओं को सचेतन विकास के माध्यम से मूर्तरूप दिया जाता है ।अंतिम समय तक श्री अरविंद मानव शक्ति में दिव्य जीवन के इस कार्य को चरितार्थ करने में साधनारत रहे और सन् 1950 में उनके देहत्याग के बाद श्री माँ ने उनके कार्य को आगे बढ़ाया । महर्षि अरविंद महान व्यक्तित्व, कालजयी साहित्य एवं दिव्य जीवन अभीप्सु साधकों को उच्चतर जीवन की सबल प्रेरणा देता है ।

सादर अभिवादन व धन्यवाद ।










Saturday, November 7, 2020

शरद पूर्णिमा का महत्व,शरद पूर्णिमा में खीर क्यों बनाते हैं?, चंद्र-किरणों से अमृत वर्षा,

               ●●● शरद पूर्णिमा का महत्व ●●●
         शरद पूर्णिमा का बड़ा महत्व है ।आश्विन मास की शुक्ल पक्ष की पूर्णिमा को 'शरद पूर्णिमा' कहते हैं ।ज्योतिष की मान्यता के अनुसार संपूर्ण वर्ष में केवल इसी दिन चंद्रमा अपनी सोलह कलाओं से परिपूर्ण होकर धरती पर अपनी अद्भुत छटा बिखेरते हैं ।इस दिन चंद्रमा पृथ्वी के करीब होते हैं ।धर्मशास्त्रों में इसी दिन को 'कोजागरा व्रत' माना गया है ।कोजागरा का शाब्दिक अर्थ है-- कौन जाग रहा ? कहते हैं इस रात्रि में माँ लक्ष्मी की उपासना भी फलदायक होती है ; क्योंकि ब्रह्म कमल भी इसी रात खिलता है ।

वर्षा को शीत से जोड़ने वाली संधि ऋतु है "शरद" ।वर्षा ऋतु के अवसान और शीत के आगमन के संधिकाल का समय मौसम-परिवर्तन और त्योहारों की शुरुआत का होता है ।दशहरे के बाद करवा चौथ और दीपावली से पहले आने वाली शरद पूर्णिमा का सिर्फ सौन्दर्य ही नहीं, स्वास्थ्य की दृष्टि से भी बड़ा महत्व है ।

कार्तिक का व्रत भी शरद पूर्णिमा से ही प्रारंभ होता है ।इस पूरे माह सनातन संस्कृति को मानने वाले विशेष पूजा-पाठ , पूरे माह ब्रह्म-मुहूर्त में स्नान व तुलसी पूजा का दौर चलता है ।कहा जाता है कि इस दिन भगवान श्री कृष्ण ने गोपियों के संग महारास रचाया था , इसलिए इसे रास पूर्णिमा भी कहा जाता है ।कहीं-कहीं इसे कौमुदी पूर्णिमा भी कहते हैं ।कौमुदी का अर्थ है-- चंद्रमा की रोशनी बढ़ना ।

    ●●● शरद पूर्णिमा में खीर क्यों बनाते हैं ? ●●●

आयुर्वेद में भी शरद पूर्णिमा का वर्णन किया गया है ।इसके अनुसार शरद ऋतु में दिन बहुत गरम और रात ठंडी होती है ।इस ऋतु में पित्त या एसिडिटी का प्रकोप ज्यादा होता है ।जिसके लिए ठंडे दूध और चावल का खाना अच्छा माना जाता है ।यही वजह है कि शरद ऋतु में दूधमिश्रित खीर बनाने का प्रावधान है ।

सोमचक्र, नक्षत्रीय चक्र और आश्विन के त्रिकोण के कारण शरद ऋतु से ऊर्जा का संग्रह होता है और वसंत ऋतु में निग्रह होता है ।अध्ययन के अनुसार दुग्ध में लैक्टिक अम्ल और अमृत तत्व होता है ।यह तत्व किरणों से अधिक मात्रा में शक्ति का शोधन करता है ।चावल में स्टार्च होने के कारण यह प्रक्रिया और आसान हो जाती है ।

इसी कारण ऋषि-मुनियों ने शरद पूर्णिमा की रात्रि में, खुले आसमान में खीर रखने की परम्परा की शुरुआत की है ।यह परंपरा विज्ञान पर आधारित है ।शोध के अनुसार खीर को चाँदी के पात्र में बनाना चाहिए ।चाँदी में प्रतिरोधकता अधिक होती है ।इससे विषाणु दूर रहते हैं ।

  ●●● शरद पूर्णिमा पर चंद्र-किरणों से अमृत वर्षा ●●●

मान्यता है कि शरद पूर्णिमा के चंद्रमा से अमृत बूँदें झरती हैं, इसलिए प्रसाद के रूप में खीर का भोग लगाया जाता है ।चाँदनी को प्रतीक बनाते हुए श्वेत वस्त्र से राधा-कृष्ण का श्रृंगार किया जाता है ।शरद पूर्णिमा की दूधिया रोशनी में आसमान की रोशनी को निहारना एक अद्भुत अनुभव देता है ।चारों तरफ सिर्फ धवल चाँदनी ही दिखाई देती है, जिसमें छत पर बैठकर सुई में धागा पिरोना हो या चावल की खीर बनाकर उसमें अमृत-बूँदें गिरने का इंतजार करना हो - इन सभी से मन को प्रसन्नता मिलती है ।

         शरद ऋतु को अमृत संयोग ऋतु भी कहा गया है ; क्योंकि शरद की पूर्णिमा के दिन चंद्रमा की किरणें धरती पर छिटककर अन्न- वनस्पति आदि को औषधीय गुणों से भरपूर करतीं हैं, इसलिए स्वास्थ्य की दृष्टि से शरद पूर्णिमा को बहुत महत्वपूर्ण माना गया है ।

कहीं-कहीं इसे कौमुदी पूर्णिमा भी कहते हैं ।कौमुदी का अर्थ है-- चंद्रमा की रोशनी का बढ़ना , इसीलिये इस दिन वैद्य लोग अपनी जड़ी-बूटी और औषधियाँ चाँद की रोशनी में बनाते हैं ।जिससे ये रोगियों को दुगना फायदा दें ।अध्ययन के शरद पूर्णिमा के दिन औषधियों की स्पंदन क्षमता अधिक होती है ।

यों तो पूर्णिमा का चाँद अपने आप में पूर्ण और सुन्दर होता है लेकिन शरद पूर्णिमा का चाँद अपना एक अलग ही महत्व रखता है ।

सादर अभिवादन व धन्यवाद ।


Friday, November 6, 2020

अनिद्रा की समस्या, अनिद्रा रोग क्या है ?अनिद्रा के प्रकार, अनिद्रा के लक्षण,अनिद्रा के कारण,अनिद्रा दूर करने का यौगिक समाधान ।

                ●●●अनिद्रा की समस्या ●●●
आजकल अनिद्रा अर्थात नींद न आने की समस्या एक आम बात हो गई है ।आधुनिक लोगों की जीवनशैली ऐसी हो गई है कि उनकी नींद रूठ गई है और नींद की समस्या सबको जकड़ती चली जा रही है ।आज यह समस्या केवल वयस्कों एवं वृद्धों की ही नहीं, बल्कि बच्चों को भी हो रही है ।

अनिद्रा एक महामारी के समान फैलती जा रही है । 10 से 30 प्रतिशत वयस्क इसकी गिरफ्त में हैं और प्रतिवर्ष इनकी संख्या बढ़ती ही जा रही है । 65 वर्ष से अधिक उम्र के लोगों में अनिद्रा की समस्या सबसे अधिक होती है ।महिलाओं में यह समस्या पुरुषों की तुलना में दो गुना अधिक होती है ।आजकल व्यक्ति की औसत नींद 20 प्रतिशत घट गई है अर्थात वह कम सोता है ।विश्व में प्रत्येक तीन व्यक्तियों में से एक व्यक्ति अपने जीवनकाल में एक बार अनिद्रा रोग से पीड़ित होता है ।

अपने देश में आजकल यह समस्या बढ़ती ही जा रही है ।भारत में 6.5 प्रतिशत महिलाएँ अनिद्रा रोग से पीड़ित हैं और 4.3 प्रतिशत पुरुष भी इस रोग से पीड़ित हैं ।  4 प्रतिशत लोग जो कि अवसादग्रस्त हैं, वे भी इसी रोग से पीड़ित हैं और 3 प्रतिशत चिंता के कारण इस रोग की गिरफ्त में हैं । 

विकसित देशों में लाखों लोग अनिद्रा से पीड़ित हैं ।अगर यह स्थिति ऐसी ही रही तो सन् 2030 में यह आँकड़ा बढकर करोड़ों में जा सकता है  कुछ विकसित देशों में तो निद्रा प्रशिक्षक की सेवाओं को लेने का चलन तेजी से जोर पकड़ता जा रहा है , इससे पता चलता है कि विकसित देशों के लोगों में अनिद्रा की समस्या बहुत ज्यादा है ।

              ●●● अनिद्रा रोग क्या है ? ●●●

अनिद्रा रोग उसे कहते हैं, जो हमारी निद्रा में खलल डालता है, विघ्न पैदा करता है ।सामान्य भाषा में कहें तो बहुत देर रात तक नींद न आना फिर रात की नींद पूरी न होने के कारण दिन में नींद के झोके आना , थकान और चिड़चिड़ापन बना रहना । इस कारण किसी काम में मन न लगना ।

     अनिद्रा केवल एक रोग नहीं है, बल्कि अनेक रोगों का कारण भी है ।तनाव, चिंता, अवसाद, दरद , हृदय रोग, थकान आदि से इसका गहरा सम्बन्ध है ।अनिद्रा-- अल्कोहल, कैफीन एवं निकोटिन जैसे दूषित तत्वों के कारण भी पैदा होती है ।यह उन लोगों में अधिक होती है, जो रात में जागते हैं और काम करते हैं ।इससे शरीर की जैविक घड़ी  (बायोलाॅजिकल क्लाॅक) में व्यतिक्रम आ जाता है और नींद के समय पर नींद नहीं आती ।वर्तमान शोध आँकड़ों के अनुसार, भारत में साठ साल की उम्र के 40 से 60 प्रतिशत लोग अनिद्रा से पीड़ित हैं ।

             ●●● अनिद्रा के प्रकार ●●●

अनिद्रा जीवनशैली के दुष्प्रभावित होने से होती है ।अनिद्रा तीन प्रकार की होती है ।

1●  ट्रांजिएंट अनिद्रा  -- यह अनिद्रा पैदा होती है - वातावरण के बदल जाने से, नींद का समय बदल जाने से, अवसाद और तनाव से ।यह तब पैदा होती है, जब व्यक्ति सप्ताह भर नींद की समस्या से जूझता है ।

2 ●  एक्यूट अनिद्रा  --        एक्यूट निद्रा तब पैदा होती है, जब व्यक्ति एक महीने तक नींद की समस्या से परेशान होता है ।   यह रोग एक महीने तक नींद की समस्या से परेशान होता है ।सोने के लिए कोई समस्या नहीं होने के बावजूद नींद नहीं आती है और तरह-तरह की कल्पनाएँ आने लगती हैं ।इसे तनावजन्य अनिद्रा रोग भी कहते हैं ।

3 ●  क्राॅनिक अनिद्रा  --    क्राॅनिक अनिद्रा एक माह से ज्यादा नींद न आने के कारण होती है ।इसमें शरीर के हाॅर्मोनों में असंतुलन पैदा हो जाता है ।यह मानसिक थकान, भ्रम एवं मांसपेशियों की शिथिलता के कारण पैदा होती है 
            
            ●●● अनिद्रा के लक्षण ●●●●

अनिद्रा के कई प्रकार के लक्षण होते हैं, जैसे --- नींद आने में समस्या खड़ी होती है , उठने के बाद भी नींद-सी स्थिति बनी रहती है , ताजगी का अनुभव नहीं होता , तनाव एवं चिड़चिड़ापन बना रहता है ।रात में अचानक नींद खुल जाती है और घंटों तक नहीं आती है ।नींद आते-आते दो -तीन बज जाते हैं ।नींद गहरी नहीं आती है ।प्रातः जल्दी नींद खुल जाती है और फिर नींद नहीं आती है ।

               ●●● अनिद्रा के कारण ●●●

अनिद्रा रोग के वैसे तो अनेक कारण हैं ; फिर भी इस समस्या के पीछे हमारी बुद्धि है , जो अनिद्रा जैसे रोग को बढ़ावा देती है ।बुद्धि हमारी समस्याओं को बढ़ा देती है , समाधान नहीं देती ।जब तक हम सोचते रहते हैं, तब तक हमें नींद नहीं आती है । हम विचारों में उलझे रहते हैं, बुद्धि में विचरण करते रहते हैं ।बुद्धि की सक्रियता के कारण नींद विलुप्त हो जाती है ।

जब तक हमारे दिमाग में कल्पनाएँ और विचार स्पंदित होते रहते हैं, तब तक हम सो नहीं पाते हैं ।जब कल्पनाएँ गिर जाती हैं और विचार उठना बन्द हो जाते हैं तो कब हमें नींद आ जाती है हमें पता ही नहीं चलता ।हृदय केंद्र पर जैसे ही हमारी चेतना प्रवेश कर जाती है तो नींद आ जाती है ।हृदय का मतलब यहाँ पर बायोलाॅजिकल हार्ट नहीं है ।हृदय का मतलब है रीढ़ की हड्डी में जो हृदय केंद्र है, छाती के मध्य में जो स्थान है , वह हृदय केंद्र ।

जब चेतना हृदय में प्रवेश कर जाती है तो तन भी सो जाता है और मन भी सो जाता है ।ऐसी स्थिति में गहरी नींद आती है और इसे ही योगशास्त्र में सुषुप्ति कहते हैं ।सुषुप्ति परम विश्रांति है ।इस प्रकार की नींद से रोग दूर होते हैं, हमें ऊर्जा मिलती है , हमें ताजगी मिलती है ।

                  नींद देर से आने का एक कारण है कि शारीरिक श्रम कम करना ।आजकल की जीवनशैली में शारीरिक श्रम कम होता है ।घरों में अनेक बिजली के उपकरण आ गए हैं - जैसे कपड़े धोने की मशीन आदि ।कहने का तात्पर्य यह है कि बहुत से घरेलू काम जो हाथ से होते थे ,अब मशीनों से होने लगे हैं ।स्वाभाविक है कि शरीर यदि थका  होगा तो उसे नींद आने में समस्या नहीं होगी ।

  ●●● अनिद्रा रोग दूर करने का यौगिक समाधान ●●●

अनिद्रा रोग को दूर करने का सर्वोत्तम समाधान है---- हृदयचक्र पर ध्यान करना ।बुद्धि से हृदय की ओर जाने के इस ध्यान में अनिद्रा टिक नहीं सकती ।शांत होकर , स्थिर होकर हृदय चक्र पर ध्यान करने से बुद्धि की उधेड़बुन शांत हो जाती है और परम विश्रांति का एहसास होता है ।यह जितना गहरा होता है, नींद भी उतनी गहरी होती जाती है ।अनुभवी जनों का मानना है कि इस प्रयोग से दस मिनट की गहरी नींद से तीन-चार घंटे की ताजगी मिल सकती है ।

        शवासन व योगनिद्रा आदि भी कुछ ऐसी यौगिक तकनीकें हैं, जिनसे व्यक्ति कम समय में थकानमुक्त होकर तरोताजा महसूस कर सकता है और आजकल की व्यस्त जीवनशैली में कम समय में बिना किसी तनाव के आसानी से अपनी नींद पूरी कर सकता है।

              अच्छे स्वास्थ्य के लिए अच्छी नींद भी आवश्यक है इसलिए हमें उचित शारीरिक श्रम भी करना चाहिए और योग का सहारा भी लेना चाहिए ।यदि जीवन में हम चिंतामुक्त होना, निर्विचार होना सीख जाएँगे तो नींद की समस्याओं से आसानी से मुक्त हो जाएँगे ।

सादर अभिवादन व धन्यवाद ।