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Saturday, May 16, 2020

चातुर्मास्य, विष्णु तत्व क्या है ? हरिशयनी एकादशी से चातुर्मास्य का प्रारंभ,चातुर्मास्य में आत्मसंयम व त्याग का महत्व,चातुर्मास्य में उपवास, स्वाध्याय व भजन-कीर्तन, स्कंदपुराण में चातुर्मास्य

          ●●● चातुर्मास्य,  विष्णुतत्व क्या है ?  ●●●
वर्षाकाल के चार महीने ( श्रावण, भाद्रपद, आश्विन और कार्तिक )
का समय भगवान विष्णु का योगनिद्रा काल कहलाता है।भगवान विष्णु सर्वव्यापक परमात्मा हैं ।वैदिक पुरुषसूक्त में जिस परमात्मतत्व का निरूपण किया गया है, वह विष्णु तत्व ही है।
ऋग्वेद, श्री हरि की महिमा का गुणगान करते हुए कहता है -- न ते विष्णो जायमानो न जातो देव महिम्नः परमन्तमाप ।अर्थात-- ' हे विष्णु देव ! कोई ऐसा प्राणी न तो उत्पन्न हुआ है और न होने वाला है , जिसने आपकी महिमा का अंत पाया हो।'

भगवान विष्णु निर्गुण हैं और सगुण भी ।वैचारिक दृष्टि में जो परमेश्वर निराकार-निर्गुण है , भाव दृष्टि से वही साकार- सगुण बन जाता है।अव्यक्त ईश्वर भक्तों की भक्ति के वशीभूत होकर व्यक्त भी हो जाता है।धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष प्रदान करने के लिए भगवान विष्णु अपने चारों हाथों में शंख, चक्र, गदा एवं पद्म धारण करते हैं ।उनके सर्वाधिक लोकप्रिय 'ध्यान ' में उन्हें क्षीरसागर में शेषनाग की शय्या पर योगनिद्रालीन दर्शाया गया है ।

   ●●● हरिशयनी एकादशी से चातुर्मास्य का प्रारंभ●●●

भारतीय धर्मशास्त्रों के अनुसार आषाढ़ मास के शुक्ल पक्ष की एकादशी से भगवान विष्णु की योगनिद्रा प्रारंभ होती है ।इसीलिए इस तिथि को  'हरिशयनी एकादशी ' भी कहते हैं ।वैष्णव मन्दिरों में इस तिथि को श्री हरि ( विष्णु भगवान) का शयनोत्सव अत्यन्त श्रद्धा के साथ मनाया जाता है ।श्रद्धालु इस दिन उपवास रखते हैं और रात्रि में भगवान के नाम का स्मरण करने  के साथ जागरण करते हैं ।

आषाढ़ शुक्ल एकादशी, द्वादशी, अथवा पूर्णिमा को चातुर्मास्य उपवास का प्रारंभ किया जाता है ।जब सूर्य कर्क राशि में प्रविष्ट होता है , तब चातुर्मास्य का आरंभ होता है ।आषाढ़ शुक्ल एकादशी से शुरु हुई श्री हरि की योगनिद्रा कार्तिक शुक्ल दशमी तक रहती है।इस चार मास के शयन काल को " चातुर्मास्य " कहा जाता है । 

प्रत्येक मांगलिक कार्य के शुभारंभ के समय पूजन करते समय भगवान विष्णु को साक्षी मानकर ' संकल्प '  किया जाता है । चातुर्मास्य में श्री हरि के योगनिद्रालीन होने के कारण विवाह, मुंडन, यज्ञोपवीत, शिलान्यास, नवगृह प्रवेश व अन्य मांगलिक कार्य नहीं किए जाते हैं ।

    ●●● चातुर्मास्य, आध्यात्मिक साधना काल ●●●

सनातन संस्कृति में चातुर्मास्य का काल आध्यात्मिक साधना काल कहलाता है।भारतीय ऋषि-मुनियों ने चातुर्मास्य में सांसारिक कार्यों का निषेध करके इस काल को आध्यात्मिक साधना हेतु आरक्षित कर दिया है।साधु-महात्मा इन दिनों एक ही स्थान पर रहकर आध्यात्मिक क्रियाओं जैसे भजन , तप आदि में संलग्न रहते हैं ।सनातन धर्मावलंबी चातुर्मास्य के समय का सदुपयोग आध्यात्मिक ऊर्जा एवं पुण्य को अर्जन करने के लिए करते हैं ।

धर्म शास्त्रों के अनुसार चातुर्मास्य में किसी एक वस्तु को त्यागना अवश्य चाहिए ।श्रावण में शाक, भाद्रपद में दही , आश्विन में दूध और कार्तिक में दाल, चना , मटर के त्याग का विधान शास्त्रों में निर्दिष्ट है।इसके अतिरिक्त श्रद्धालु किसी अन्य वस्तु का भी त्याग कर सकते हैं ।जिस वस्तु को त्यागें, उसका दान जरूर करें, तभी उसका पुण्यफल प्राप्त होता है ।इस नियम का पालन करने से व्यक्ति में आत्मसंयम व त्याग की भावना का विकास होता है।

शास्त्रों के अनुसार-- चातुर्मास्य में जिस किसी भी नियम का पालन आस्था के साथ किया जाता है, उसका अनंत फल प्राप्त होता है ।जो लोग आर्थिक परेशानी में हों , वे चातुर्मास्य में लक्ष्मी पति श्री हरि की आराधना करते हुए, केवल फलाहार कर सकते हैं ।

● चातुर्मास्य में उपवास, स्वाध्याय व भजन-कीर्तन का महत्व ●

चातुर्मास्य में श्रद्धालु, संत-महात्मा अपनी-अपनी क्षमता के अनुसार व्रत-उपवास रखते हैं ।सामान्य व्यक्ति चातुर्मास्य में सात्विक भोजन के साथ यथायोग्य धर्माचरण करते हैं, तो भी उन्हें भगवान विष्णु की प्रसन्नता प्राप्त होती है ।

चातुर्मास्य में प्रतिदिन तारों को देखने के उपरांत मात्र एक बार भोजन करने वाला धनवान, रूपवान और माननीय होता है ।जो एक दिन के अंतराल में भोजन करते हुए चातुर्मास्य बिताता है, वह देहावसान के पश्चात सद्गति प्राप्त करता है।भगवान विष्णु के शयन करने पर निरंतर पाँच दिन उपवास करके जो व्यक्ति छठे दिन भोजन ग्रहण करता है , उसे राजसूय, अश्वमेध जैसे महायज्ञों का फल मिलता है।

 जो श्रद्धालु तीन रात उपवास करके चौथे दिन भोजन ग्रहण करते हुए चातुर्मास्य बिताता है, वह भवबंधन से मुक्त होता है ।जो भक्त हरि के श्रवण काल में अयाचित अन्न का सेवन करता है , उसका अपने प्रियजनों से कभी वियोग नहीं होता।

चातुर्मास्य में धर्मग्रंथों के स्वाध्याय द्वारा भगवान विष्णु की अर्चना करने वाला विद्यार्थी महाविद्वान बन जाता है।श्री हरि के सामने बैठकर ' पुरुष-सूक्त' का पाठ करने से बुद्धि का विकास तथा विद्या की प्राप्ति होती है ।जो अपने हाथ में फल लेकर मौन रहते हुए श्रीविग्रह की 108 बार परिक्रमा करता है,वह निष्पाप हो जाता है। 
जो श्रद्धालु चातुर्मास्य में भगवान के मंदिर में भाव-भक्ति से भजन-कीर्तन व नृत्य करते हैं वे श्री हरि की कृपापात्र बनते हैं ।चातुर्मास्य में प्रतिदिन विष्णुसूक्त के मंत्रों द्वारा तिल और चावल की आहुति देने से साधक रोग मुक्त हो जाता है ।क्षीरसागर में योगनिद्रा में अवस्थित जगदीश्वर की उपासना से भक्त के समस्त मनोरथ पूर्ण होते हैं ।

जैन धर्म के अनुयायी चातुर्मास्य को बहुत महत्व देते हैं ।बस , अंतर इतना है कि सनातन धर्म में आषाढ़ शुक्ल एकादशी से कार्तिक शुक्ल दशमी तक चातुर्मास्य माना जाता है; जबकि जैन धर्म में आषाढ़ शुक्ल चतुर्दशी से कार्तिक शुक्ल चतुर्दशी तक चातुर्मास्य काल माना जाता है ।जैन मतावलंबी इन तिथियों को 
चौमासी चौदस कहते हैं ।

           ●●● स्कंद पुराण में चातुर्मास्य ●●●

स्कंद पुराण में चातुर्मास्य के दौरान  'पुरुषोत्तम क्षेत्र'  में आवास का अतिशय माहात्म्य वर्णित है।श्री जगन्नाथ पुरी के समुद्र के पवित्र जल में स्नान करके पुरुषोत्तम श्री कृष्ण ( जगन्नाथ जी ) का दर्शन करते हुए, चातुर्मास्य व्रत का पालन मुक्ति का साधन माना गया है ।जो आस्तिक जन चातुर्मासपर्यंत  'पुरुषोत्तम क्षेत्र' में  रह सकते हों , उन्हें जीवन में कम-से-कम एक बार यह अनुष्ठान  (चातुर्मास व्रत ) अवश्य संपन्न करना चाहिए ।पुरी में रहकर जगन्नाथ मंदिर के दर्शन से भी कृपा प्राप्त होती है ।

चौमासे में अन्नदान को रत्न, आभूषण, वस्त्र, चाँदी , सोने के दान से भी अधिक महत्वपूर्ण बताया गया है ।जो साधक सात्विक आहार -विहार एवं व्रत-उपवास के साथ चातुर्मास्य व्यतीत करता है उसका जीवन सुख, शांति एवं समृद्धि से भर जाता है ।अतः अपनी क्षमता व सामर्थ्य के अनुसार चातुर्मास्य में आध्यात्मिक क्रियाओं से जुड़ने  से भगवत्कृपा अवश्य प्राप्त होती है।

पुराने समय में आधुनिक विद्युत संसाधन नहीं होते थे और चौमासा बिशेष रूप से बरसात का मौसम होता है ।इन दिनों में बहुत बरसात होती है ।इसलिए चातुर्मास्य के शुरू होने के पहले ही जीवन-यापन की जरूरी वस्तुओं का संग्रह कर लिया जाता था ।
और शायद इसी कारण  चातुर्मास्य  का समय भगवद्भक्ति , स्वाध्याय एवं भजन-कीर्तन में संलग्न रहने का विधान बना होगा ; क्योंकि बरसात के मौसम में कहीं आना-जाना और व्यापार आदि करना आसान नहीं होता होगा।आजकल हममें से ज्यादातर लोग चातुर्मास्य अर्थात बरसात का मौसम-- बस इतना ही समझते हैं ।

           " गाऊँ प्रभु तेरा नाम, भजूँ प्रभु तेरा नाम "

सादर अभिवादन व धन्यवाद ।



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