अर्जुन भगवान श्री कृष्ण के सम्बन्धी व अच्छे मित्र थे ।भगवान श्री कृष्ण को भी अर्जुन से विशेष लगाव था ।श्री कृष्ण के दिव्य व्यक्तित्व के बारे में अर्जुन ने सुना था , कुछ अनुभव उन्होंने स्वयं भी किए थे ।विश्वास था उन्हें अपने सखा श्री कृष्ण पर।लेकिन जब श्री मद्भगवद्गीता के ग्यारहवें अध्याय में भगवान ने अर्जुन को विश्व रूप का दर्शन दिखाया ।तब उनका संशय , विश्वास में बदल गया , अर्थात अब उन्हें पूर्ण विश्वास हो गया कि श्री कृष्ण ही सम्पूर्ण सृष्टि के अधिष्ठाता हैं ।सृष्टि के कण-कण में, समय के क्षण-क्षण में श्री कृष्ण की ही सत्ता है।उन्होंने भगवान की महिमा का स्तवन करते हुए कहा ---
"वायुर्यमोऽग्निर्वरुणः शशांकः प्रजापतिस्त्वं प्रपितामहश्च ।
नमो नमस्तेऽस्तु सहस्त्रकृत्वः पुनश्च भूयोऽपि नमो नमस्ते ।।"
"हे भगवन ! आप वायु, यम ,अग्नि, वरुण, चंद्रमा, प्रजा के स्वामी ब्रह्मा और ब्रह्मा के भी पिता हैं ।आपके लिए हजारों बार नमस्कार हो ।आपके लिए फिर-फिर , बार-बार नमस्कार ।" अर्जुन अपने इस स्तवन में भगवान श्री कृष्ण को जीवन के अधिष्ठाता के रूप में नमन करते हैं ।अर्जुन कहते हैं-- हे अनंत सामर्थ्य वाले ! आपके लिए आगे से और पीछे से भी नमस्कार । हे सर्वात्मन ! आपके लिए सब ओर से ही नमस्कार ; क्योंकि अनंत पराक्रमशाली आप सब संसार को व्याप्त किए हुए हैं ।इस तरह आप ही सर्वरूप हैं ।
अब अर्जुन ने सम्पूर्ण को जान लिया था ।अर्जुन को यह लगने लगा कि मैं तो भगवान को सखा मानकर बिना सोचे समझे कुछ भी कहता रहता था।साथ खाता था , खेलता था , घूमता था । कहीं अनजाने में मुझसे कुछ भूलें तो नहीं हो गईं।ऐसा विचार करके अर्जुन भगवान से क्षमा माँगने लगे ।
सखेति मत्वा प्रसभं यदुक्तं , हे कृष्ण हे यादव हे सखेति।
अजानता महिमानं तवेदं, मया प्रमादात्प्रणयेन वापि ।।
यच्चावहासार्थमसत्कृसोऽसि , विहारशय्यासनभोजनेषु ।
एकोऽथवाप्यच्युत तत्समक्षं , तत्क्षामये त्वामहमप्रमेयम् ।।
अर्थात-- हे परमेश्वर ! आपके इस प्रभाव को न जानते हुए , आप मेरे सखा हैं, ऐसा मानकर , प्रेम से अथवा प्रमाद से भी , हे कृष्ण ! हे यादव ! हे सखे ! जो कुछ बिना सोचे समझे मैंने कहा है।हे अच्युत ! जो मेरे द्वारा विनोद में, विहार , शय्या, आसन और भोजनादि के समय में अकेले अथवा उन सखाओं के सामने भूल वश कोई अपराध किए गए हैं । वे सब अप्रमेय स्वरूप अर्थात अचिंत्य प्रभाव वाले अपराधों के लिए मैं आपसे क्षमा चाहता हूँ ।
श्रीमद्भगवद्गीता में, अर्जुन के द्वारा कहे हुए ये दो श्लोक बड़े विलक्षण हैं ।अर्जुन क्षमा माँग रहे हैं श्री कृष्ण से ।इससे पहले तक
श्रीमद्भगवद्गीता में अर्जुन अपने संशय प्रकट कर रहे थे ।उनके विषाद से शुरू हुई थी यह यात्रा ।उनका यह विषाद मोह से प्रारंभ हुआ था ।पितामह भीष्म व आचार्य द्रोण , जिनकी वह पूजा करते थे , जिनसे उन्हें प्यार व अपनत्व मिला था , उनसे वह युद्ध कैसे करें ? शंकाओं से घिरे उनके किंकर्तव्यविमूढ़ मन ने श्री कृष्ण से समाधान की याचना की।कहा --
यत्छ्रेयः स्यान्निश्चितं ब्रूहि तन्मे "शिष्यस्तेऽहं शाधि मां त्वां प्रपन्नं ।।"
अर्थात जो निश्चित कल्याण करने वाली हो , वह बात मुझे कहिए, मैं आपका शिष्य हूँ, आपकी शरण में हूँ ।आप मुझे शिक्षा दें।
यहीं से प्रारंभ हुई थी गीताकथा , श्री कृष्ण के उपदेश व अर्जुन के कथन । श्री कृष्ण के दिव्य व्यक्तित्व को उन्होंने सुना और कभी-कभी अनुभव भी किया था ।वैसे भी पांडुपुत्रों का सम्पूर्ण जीवन विकट संकटों से गुजरा था ।सदा ही आपदाएँ-विपदाएँ उनके जीवन की परिभाषाएँ बनती रही थीं ।उन आपदाओं में श्री कृष्ण उनके सहयोगी बने थे ।इस पूरे विपदाओं से परिपूर्ण जीवनकाल में उन्हें पितामह भीष्म व आचार्य द्रोण का निश्छल स्नेह व अपनत्व मिला था ।
अब युद्ध भूमि में उन्हीं के साथ युद्ध, ऐसे में कहाँ पाएँ समाधान ? तो श्री कृष्ण को उन्होंने युद्ध भूमि में गुरू रूप में वरण किया ।भगवान श्रीकृष्ण के उपदेशों का श्रवण करते रहे ।बुद्धि की उलझनें शान्त होती गईं ।अंतःकरण के उद्वेग,आवेग भी शान्त होते गए ।इस शांत मनःस्थिति में उन्होंने अनुभव किया कि जिन्हें ( अपने सखा को ) उन्होंने गुरू रूप में वरण किया था , वे तो साक्षात परमेश्वर हैं ।
और तब श्रीमद्भगवद्गीता में, अर्जुन की चेतना में एक नया आयाम प्रकट हुआ ।उन्होंने श्रवण किया श्री कृष्ण की विभूतियों को ।अद्भुत था यह सब अपूर्व व अश्रुतपूर्ण, परंतु अभी भी श्री कृष्ण कह रहे थे और अर्जुन सुन रहे थे ।ईश्वरीयता का साकार होना , इसका साक्षात्कार होना अभी भी बाकी था ।हालाँकि इस दौरान विश्वास दृढ़ हुआ था , आस्था मजबूत हुई थी , शंकाकुल मन शान्त हुआ था , पर स्पष्ट अनुभूति नहीं हुई थी , और अंतर्मन कुछ गहरे में कहने लगा था कि श्री कृष्ण कुछ विशेष हैं ।तब आखिर कौन हैं ये ? और तब अर्जुन का मन आखिर पूछ ही बैठा---
'आख्याहि मे को भवानुग्ररूपो ? इस उग्र रूप में आप हैं कौन ?
यहाँ पर गीता के उपदेश ने और अर्जुन की चेतना ने फिर से नए आयाम का स्पर्श किया ।अर्जुन ने अनुभव की -- श्री कृष्ण की ईश्वरीयता ।उनका ईश्वर रूप ।बड़ी सुस्पष्ट, सर्वथा प्रकट , संपूर्ण रूप से सघन हुई यह अनुभूति ।अब कोई शंका नहीं रही ।सभी शंकाएँ भगवत्ता में विलीन होतीं गईं ।अनुभूतियाँ बदलती हैं, तो अभिव्यक्ति भी बदलती है।
अब अर्जुन को अपना व्यक्तित्व, अपना अस्तित्व श्री कृष्ण में समाता हुआ लगा ।यह सब कुछ ऐसा था कि उससे इन्कार नहीं किया जा सकता था ।इसे स्वीकार किए बिना कोई अन्य उपाय न था ।साक्षात परमेश्वर सम्मुख खड़े होकर अपना परिचय दे रहे थे ।
वही श्री कृष्ण, जिन्हे वे अब तक अपने मित्र के रूप में, संबंधी के रूप में समझते थे ।उन्हीं मित्र को अब अर्जुन साक्षात ईश्वर के रूप में अनुभव कर रहे थे ।
"सारथी बनकर पार्थ को ज्ञान गीता का दिया
विश्व का दर्शन दिखाकर धन्य अर्जुन को किया"
धन्य है अर्जुन, जिन्होंने अपने जीवन में साक्षात परमेश्वर का सान्निध्य प्राप्त किया ।
सादर अभिवादन व धन्यवाद ।
हरि दर्शन शुभकारी।
ReplyDelete