head> ज्ञान की गंगा / पवित्रा माहेश्वरी ( ज्ञान की कोई सीमा नहीं है ): भविष्यवदृष्टाओं की विलक्षणता ( भारतीय ज्योतिष के प्रथम प्रवक्ता महर्षि भृगु ) , हमारा भाग्य हमारे ही कर्मों से निर्मित

Thursday, May 7, 2020

भविष्यवदृष्टाओं की विलक्षणता ( भारतीय ज्योतिष के प्रथम प्रवक्ता महर्षि भृगु ) , हमारा भाग्य हमारे ही कर्मों से निर्मित

            ●●●भविष्यदृष्टाओं की विलक्षणता  ●●●
मानव मन में अज्ञात के प्रति सदा से ही आकर्षण रहा है । हर मनुष्य के मन में यह जिज्ञासा जन्म लेती रहती है कि आने वाले कल में क्या सम्भावनाएँ हो सकती हैं ।सामान्यतः यह संभव नहीं है कि मनुष्य अपना भविष्य जान सके ।शायद परमात्मा ने मनुष्य की इस जिज्ञासा के समाधान के लिए कुछ व्यक्तियों को भविष्यदर्शिता की  विलक्षण क्षमता से सम्पन्न करके पृथ्वी पर भेजा है ।जो मनुष्य की भविष्य जानने की जिज्ञासा का समाधान कर सकें ।

           जब हम भविष्य वक्ताओं की भविष्यवाणियों को सत्य होता देखते हैं, तब हम यह सोचने पर भी मजबूर हो जाते हैं कि भविष्य- वक्ताओं में ऐसा क्या होता है , जो उनके अंदर भविष्य को देखने की सामर्थ्य प्रदान करता है , यह बात पता लगाना कठिन है लेकिन कुछ भविष्यवक्ताओं की भविष्यवाणियों का अध्ययन करने से यह अवश्य पता चलता है कि परमात्मा ने मनुष्य को अनेक दिव्य संभावनाओं से समृद्ध करके भेजा है । 

विश्व के इतिहास का हर दृष्टि से अध्ययन करने पर यह ज्ञात हो ही  जाता है कि भविष्य को पढ़ने, जानने, समझने, देखने और आँकने की क्षमता समय-समय पर विभिन्न रूपों में, विभिन्न देशों में विभिन्न व्यक्तियों के माध्यम से प्रकट होती रही है।हमारे देश भारत में प्राचीन काल से ही ज्योतिष शास्त्र को महत्व दिया गया है।   प्रसिद्ध ज्योतिष शास्त्र के ज्ञाताओं में व्यक्ति के तीनों कालों ( भूत, वर्तमान, भविष्य) को देखने की क्षमता होती है।

 ●●● भारतीय ज्योतिष के प्रथम प्रवक्ता महर्षि भृगु ●●●

भारतीय ज्योतिष के प्रथम प्रवक्ता महर्षि भृगु त्रिकालदृष्टा के नाम 
से जाने जाते हैं ।पौराणिक काल से ही भविष्य को देख पाने में सक्षम व्यक्तियों में महर्षि भृगु का नाम सर्वप्रथम आता है ; क्योंकि उनके द्वारा रचितृ "भृगु संहिता" ज्योतिष का आदिग्रंथ है और ऐसा माना जाता है कि वर्तमान संवत्सर में ऐसा  कुछ भी घटित नहीं  होता, जिसका  पूर्वानुमान महर्षि भृगु ने न किया हो।

भृगु संहिता वास्तव में महर्षि भृगु एवं उनके पुत्र शुक्राचार्य के मध्य हुए वार्तालाप के रूप में है; जिसमें महर्षि भृगु ,उनके पुत्र शुक्राचार्य के द्वारा पूछे गए प्रश्नों का क्रमानुसार देते प्रतीत होते हैं ।
भृगु संहिता में अनेक स्थानों पर महर्षि भृगु  उतर देते समय अपने वक्तव्य में 'दृशेत् ' शब्द का उपयोग करते हैं, जिससे यही समझा जा सकता है कि वे भविष्य का आंकलन अपनी दिव्य दृष्टि से देखते हुए ही कर रहे थे।
भृगु संहिता अत्यन्त विलक्षण है ; क्योंकि उसमें उन सभी व्यवसायों, पदों, विधाओं का वर्णन है , जो कि उस काल में विकसित ही नहीं हुईं थीं । उनके विषय में पढ़कर यह प्रश्न उठना स्वाभाविक ही है कि ऐसा कैसे सम्भव हुआ ? 

                                                पुराणों  में  कथा आती है कि अपना प्रथम ग्रंथ " ज्योतिष संहिता " पूर्ण करने के उपरांत महर्षि भृगु त्रिदेव से मिलने पहुँचे।उनके आगमन का उद्देश्य यह परखना भी था कि कौन से देवता को क्रोध दिला पाना संभव नहीं है? कथा के अनुसार, महर्षि भृगु  ने भगवान शिव और ब्रह्मा जी को तो तुरंत क्रोधित कर दिया।
 
                               तदुपरांत जब वे भगवान विष्णु के पास पहुँचे तो भगवान क्षीरसागर पर निद्रामग्न थे।उन्हें क्रोध दिलाने के उद्देश्य से महर्षि भृगु ने उनकी छाती पर जोर से पैर मारा , जिसका निशान आज भी भगवान के हृदयस्थल पर अंकित माना जाता है । भगवान विष्णु आँख खुलते ही महर्षि भृगु के चरणों को हाथ में लेकर बोले -- "ऋषिवर ! मेरा हृदय तो पत्थर के समान कठोर है पर आपके चरणों को चोट पहुँची होगी ।लाइए मैं आपकी पीड़ा दूर कर दूँ " । भगवान विष्णु को शान्त रूप में देखकर महर्षि भृगु, भगवान विष्णु को नमन करते हुए बोले --  " प्रभु ! आप ही सृष्टि के अधिपति हैं ।आपको ही क्रोध दिला पाना संभव नहीं है ।" कहते हैं कि उसी समय भगवान विष्णु ने महर्षि भृगु को तीनों कालों को देख पाने का ज्ञान दिया था , उसी ज्ञान के आधार पर उन्होंने दूसरे ग्रंथ " भृगु संहिता " की रचना की एवं त्रिकालदृष्टा के नाम से विख्यात हुए।

    ●●● हमारा भाग्य हमारे ही कर्मों से निर्मित ●●●

विश्वभर के सभी भविष्यवक्ताओं के आंकलन का सार भी यही है कि-- मनुष्य का भाग्य उसके किए कर्मों से ही निर्मित होता है।
महाभारत के अनुशासन पर्व -- 145 में महर्षि वेदव्यास जी कहते हैं कि----     केवलं ग्रह नक्षत्रं न करोति शुभाशुभम् ।
                 सर्वमात्मकृतं कर्म लोकवादो ग्रहा इति ।।
अर्थात केवल नक्षत्र किसी का शुभ व अशुभ नहीं करते ।उसके अपने किए हुए कर्मों को ही लोग ग्रहों का नाम दे देते हैं ।

अपना भविष्य जानने में सबको रुचि हो सकती है , पर मनुष्य को यह जानना भी आवश्यक है कि हमारा भाग्य हमारे कर्मों से ही बनता है।यदि हमारी भावनाएँ शुभ होंगी तो हमारे कर्म भी शुभ होंगे और यदि हमारे कर्म शुभ होंगे तो हमारा भविष्य भी श्रेष्ठ बनेगा।अच्छे भविष्य की आकांक्षा रखने वालों को मात्र अच्छे कर्म करने पर विश्वास रखना चाहिए ; क्योंकि कर्मबीज से ही भविष्य का वृक्ष जन्म लेता है।

महर्षि पतंजलि  " योगसूत्र " के तृतीय अध्याय में कहते  हैं---
"परिणाम त्रयसंयमादतीतानागतज्ञानम्।" अर्थात संस्कारों या कर्मों के परिणामों का संयम करने से योगी को अतीत तथा अनागत का साक्षात्कार हो जाता है ।जिन वक्तव्यों को हम भविष्यवाणियों के रूप में जानते हैं उनमें से अनेक अपने चित्त के परिष्कार से प्राप्त ज्ञान का परिणाम है।

सादर अभिवादन व धन्यवाद ।




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