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Wednesday, May 20, 2020

योग का लक्ष्य "कैवल्य" , कैवल्य क्या है ?, अंतर्यात्रा का आरंभ, "कैवल्य" अंतस की आनंद अवस्था

        ●●●   योग का लक्ष्य  कैवल्य ●●●
कैवल्य का अर्थ है-- स्वतंत्र होना, संपूर्ण होना ।अकेले होना , अकेले होने की परम स्वतंत्रता ।किसी वस्तु, किसी व्यक्ति अथवा किसी घटनाक्रम या परिस्थिति पर निर्भरता नहीं ।अपने में, अपने आप से पूरी तरह से संतुष्ट, यही योग का लक्ष्य है ।योगसूत्र में इसी के लिए विधियाँ हैं, विज्ञान हैं, प्रक्रियाएँ हैं ।इन सबका सम्मिलित परिणाम कैवल्य है।

महर्षि पतंजलि ने अपने योगदर्शन को चार अध्यायों में विभाजित किया है ।सूत्रकार ऋषि ने योगसूत्र को चार चरणों या चार पादों में वर्गीकृत किया है ।कैवल्य पाद इनमें से चौथा पाद है इसे चतुर्थ अध्याय भी कह सकते हैं ।पहले के तीन अध्याय-- समाधिपाद, साधनपाद एवं विभूतिपाद -- ये कैवल्यपाद में स्वतः ही समाविष्ट हो जाते हैं ।

 ●●● कैवल्य क्या  है ? महर्षि पतंजलि के अनुसार ●●●

एक बार महर्षि पतंजलि ने अपने आश्रम में साधनारत शिष्यों को प्रश्नों के लिए आमंत्रित किया ।शिष्य उनसे अपनी जिज्ञासा के अनुरूप तरह-तरह के प्रश्न पूछने लगे , इस पर ऋषि पतंजलि ने कहा -- " वही प्रश्न पूछो , जो तुम्हें तुम्हारे स्वरूप का परिचय दे।वही प्रश्न पूछो , जो स्वयं के केन्द्र के निकट हो।"  तब एक शिष्य ने प्रश्न पूछा कि स्वयं के केन्द्र के निकट का प्रश्न पूछने का क्या अर्थ है ? उसकी जिज्ञासा के समाधान हेतु महर्षि पतंजलि ने कहा--- 

   " दूर देखने के पहले अपने निकट देखो ।वर्तमान क्षण के प्रति सचेत रहो ; क्योंकि वर्तमान अपने में भविष्य और अतीत के उत्तर लिए रहता है।अभी तुम्हारे मन में कौन सा विचार आया ? अभी तुम मेरे सामने विश्रांत अवस्था में बैठे हो या तुम्हारा शरीर तनावपूर्ण है ? अभी तुम्हारा ध्यान पूरी तरह से मेरी ओर है या थोड़ा-बहुत ही है ? इस तरह के प्रश्न पूछकर स्वकेन्द्र के निकट आओ । निकट के प्रश्न ही दूर के उत्तरों तक ले जाते हैं ।स्वकेन्द्र की निकटता ही स्वकेन्द्र का परिचय कराती है और स्वकेन्द्र का परिचय ही स्वकेन्द्र में प्रतिष्ठा प्रदान करता है ।"स्वकेन्द्र में हुई यही प्रतिष्ठा कैवल्य है।"

           ●●●अंतर्यात्रा का आरंभ ●●●


योग अंतर्यात्रा के प्रति जागरूकता उत्पन्न करने का साधन है।योग ही जीवन में एक विशिष्ट दृष्टिकोण विनिर्मित करता है।प्रचलित अर्थों में योग, दार्शनिक ज्ञान तक सीमित नहीं है।योग दूर के , सुदूर के प्रश्नों की फिक्र नहीं करता।योग का संबंध स्वकेन्द्र के निकट के प्रश्नों से है।जितने निकट का प्रश्न होता है , उतनी ही अधिक संभावना उसे सुलझाने की होती है।जब हम निकट के प्रश्न का उत्तर पा लेते हैं तो पहला कदम अपने आप उठ जाता है।तब समझो कि अंतर्यात्रा का आरंभ हो गया।

अंतर्यात्रा के आरंभ होने पर धीरे-धीरे वे प्रश्न भी सुलझने लगते हैं, जो दूर के होते हैं।योगसूत्र में अंतर्यात्रा के दौरान गुजरने वाली अवस्थाओं में कैवल्य, समाधिपाद में वर्णित सभी तरह की समाधियों का शिखर अनुभव है।कैवल्य, दूसरी अवस्था साधनपाद में वर्णित सभी साधनाओं का शिखर परिणाम है।यह कैवल्य तृतीय अवस्था अर्थात विभूतिपाद में वर्णित सभी विभूतियों के मध्य शिखर विभूति है।इसके सर्वोच्च शिखर कैवल्यपाद में सभी कुछ अंतर्निहित है।

    ●●● कैवल्य अंतस् की आनंद अवस्था ●●●
अंतस् की आनंद अवस्था के लिए सब लालायित रहते हैं, लेकिन केवल केंद्रस्थ व्यक्ति ही आनंदित हो सकता है, भीड़ भला कैसे आनंदित हो सकती है।भीड़ का कोई व्यक्तित्व नहीं होता।आनंद का अर्थ है -- एक परम मौन और ऐसा मौन तभी संभव है , जब भीतर लयबद्धता हो।जब सारे बेमेल टुकड़ों का मेल हो जाए , वे एक बन जाएँ ।जब हमारे अंदर कोई न हो , बस हम अकेले हों ।तब अपने आप हम आनंदित हो जाएँगे।

कैवल्य शब्द में प्रेरणा है, सचेतना है ।कैवल्य शब्द में केवल समाविष्ट है।इसमें अकेलापन है।अभी तक हम भीड़ की तरह जिए हैं ।कैवल्य की ओर बढ़ने का मतलब यह हुआ कि अब लयबद्ध होने लगे ।भीड़ से अकेलेपन की ओर बढ़ने लगे ।अनेक से एक होने लगे।हमारा एकजुट होना , हमारा केन्द्रीकृत होना हमारी नैसर्गिक आवश्यकता है और जब तक हम केन्द्र को नहीं पा लेते, तब तक हमारे प्रयास व्यर्थ हैं ।इसलिए पहली आवश्यकता है-- केन्द्रबिंदु पर होना और जिसके पास यह केन्द्र है वही अंतस की आनंद अवस्था का अनुभव कर सकता है।

महर्षि पतंजलि के सारे निर्देश, सारे अनुशासन अंतस की आनंद अवस्था के लिए ही हैं ।सभी का हेतु यही कैवल्य है।अंग्रेजी का डिसिप्लिन शब्द भी अनुशासन की भाँति ही सुन्दर है।इसकी जड़, इसका उद्गम वही है , जहाँ डिसाइपल यानी कि शिष्य -- सीखने के लिए प्रतिबद्ध ।

●● कैवल्य का बोध कराने वाली एक प्रेरक बुद्ध कथा ●●

एक बार एक समाज सुधारक भगवान बुद्ध के पास आया ।उसने भगवान से कहा-- " संसार बहुत दुःख में है , आपकी इस बात से मैं सहमत हूँ ।" बुद्ध ने कभी यह कहा ही नहीं कि" संसार दुःख में है।"  बुद्ध का तो वचन है -- " तुम दुःख में हो , संसार नहीं ।जीवन दुःख में है ,संसार नहीं ।लेकिन उस समाज सुधारक ने कहा--"संसार बड़ी पीड़ा में है ।मैं आपसे सहमत हूँ ।अब मुझे बताइए कि मैं क्या कर सकता हूँ  ? बड़ी गहरी करुणा है मुझमें और मैं मानवता की सेवा करना चाहता हूँ ।"
भगवान बुद्ध उसकी ओर देखकर मौन ही रहे ।बुद्ध के शिष्य आनंद ने कहा-- " भगवान यह व्यक्ति सच्चा जान पड़ता है ।इसे राह दिखाइए ।"तब  बुद्ध ने उससे कहा--- तुम संसार की सेवा करना चाहते हो , लेकिन तुम हो कहाँ ?  मैं तुम्हारे भीतर किसी को नहीं देख रहा ।मैं देखता हूँ और वहाँ कोई नहीं है ।तुम्हारा कोई केन्द्र नहीं ।और जब तक तुम्हारे भीतर कोई ठोस केन्द्र नहीं बनता , तब तक तुम्हें कार्य में सफलता नहीं मिलेगी।"  

कह सभी रहे हैं कि संसार बड़े दुःख में है , किंतु वे जो कर रहे हैं, उससे यह दुःख बढ़ रहा है , लेकिन सभी आदत से मजबूर हैं ।दुःख को मिटाने के लिए कैवल्य मंदिर में प्रवेश करना होगा ।स्वयं में, स्वयं को प्रतिष्ठित करना होगा । महर्षि पतंजलि के योगसूत्र के चतुर्थ अध्याय में इसी कैवल्य के सत्य की स्पष्टता है।

सादर अभिवादन व धन्यवाद ।





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