शास्त्रों में ईश्वर की पूजा-आराधना के विविध विधि-विधान बताए गए हैं ।उन्हीं में से एक है " मानस पूजा " । मानस पूजा अर्थात मन से भगवान की पूजा ।कहते हैं कि पूजन के विधि-विधानों में मानस पूजा सर्वश्रेष्ठ व सबसे अधिक प्रभावशाली है ।भौतिक सामग्रियों से की गई पूजा की अपेक्षा मन से की गई ईश्वर की पूजा को करोड़ों गुना अधिक फलदायी व प्रभावकारी बताया गया है ।मन की कल्पना से एक पुष्प भी चढ़ा दिया जाए तो वह एक पुष्प भी करोड़ों बाह्य पुष्पों के बराबर होता है।
ईश्वर सर्वव्यापी है, सर्वशक्तिमान है, सर्वज्ञ है और सर्वसमर्थ भी ।संसार में जो भी कुछ है , वह सब ईश्वर की ही देन है ।यह सारा संसार, यह समस्त सृष्टि भी स्वयं ईश्वर की ही रचना है ।जब सब कुछ ईश्वर का ही है , तब हम ईश्वर की पूजा-आराधना भला किस प्रकार और किन सामग्रियों से करें ; क्योंकि वे सारी सामग्रियाँ, जैसे --- पुष्प, विल्वपत्र , फल आदि तो ईश्वर को स्वतः ही समर्पित हैं ।
पूजन की प्रचलित विधियों में जहाँ भगवान को भोग व अन्य वस्तुएँ अर्पित करने का विधान है ।जिन्हें जुटाने में समय भी लगता है , हरेक के लिए कभी-कभी संभव भी नहीं होता, वहीं मानस पूजा में कल्पना शक्ति के द्वारा ही पल भर में सब कुछ संपन्न हो जाता है।मानस पूजा में सिर्फ भक्ति और भावना के साथ कल्पना शक्ति की जरूरत होती है ।भगवान पदार्थ से परे हैं और फिर सामान्य पूजन में भी तो विविध सामग्रियों को अर्पित करके भक्ति भाव का ही तो प्रदर्शन किया जाता है ।मानस पूजा में न तो सामग्री जुटाने हेतु न तो धन की जरुरत होती है और न ही समय की ।
मानस पूजा में पल भर में ही ब्रह्माण्ड की सैर कर आते हैं और इससे भी परे सभी लोकों तक पहुँच अपने आराध्य की आराधना कर आते हैं ।इस प्रक्रिया में हमारा मन निश्चित ही संसार से दूर ईश्वर के चरणों में एकाग्र होने लगता है।इस तरह आराधक जब अपने आराध्य के चरणों में प्रार्थना करता है तब मन को जो आनंद और शान्ति मिलती है इसकी तो बस कल्पना ही की जा सकती है ।
इस मनःस्थिति में आराधक को सृष्टि के कण-कण में अपने आराध्य की ही छवि दिखने लगती है।मानस पूजा के सर्वश्रेष्ठ व प्रभावशाली रूप के कारण ही आचार्य शंकर ने आध्यात्म -पिपासुओं के मार्गदर्शन हेतु शिवमानस पूजा स्रोत की रचना की ।जिसमें से कुछ भावानुवाद--
हे दयानिधे ! हे पशुपते ! यह रत्ननिर्मित सिंहासन, शीतल जल से स्नान , नाना रत्नावलिविभूषित दिव्य वस्त्र, कस्तूरी की गंध से समन्वित चंदन, जूही, चंपा और विल्पत्र से रचित पुष्पांजलि तथा धूप और दीप यह सब मानसिक ( पूजोपहार ) ग्रहण कीजिए।
हे शंभो ! मेरी आत्मा आप हैं, बुद्धि पार्वती जी हैं, प्राण आपके गण हैं, शरीर आपका मंदिर है, संपूर्ण विषय-भोग की रचना आपकी पूजा है , निद्रा समाधि है , मेरा चलना-फिरना आपकी परिक्रमा है तथा संपूर्ण शब्द आपके स्रोत हैं, इस प्रकार मेरे जो-जो कर्म हैं, वे सब आपकी आराधना ही है।
●●● भाव के भूखे हैं भगवान ●●●
वस्तुतः भगवान को किसी वस्तु अथवा पदार्थ की आवश्यकता नहीं, वे तो भाव के भूखे हैं, पदार्थ के नहीं ।यदि वे भाव के भूखे न होते तो शबरी के झूठे बेरों को स्वीकार कर उसे नवधा भक्ति भला क्यों प्रदान करते ? फिर वे सूरदास की बाँह भी क्यों पकड़ते ? दुर्योधन के छप्पन भोग छोड़कर विदुर की पत्नी के हाथों केले के छिलके का भोग भला क्यों स्वीकारते ।
शास्त्रों में ऐसे अनेक भक्तों के उदाहरण हैं जिनसे यह प्रमाणित होता है कि भगवान तो भाव के भूखे हैं, पदार्थ के नहीं ।मानस पूजा में भक्त अपने आराध्य को मुक्तामंडित से सजाकर , स्वर्ण सिंहासन पर विराजमान करता है ।स्वर्गलोक की मंदाकिनी गंगा के शीतल जल से अपने आराध्य को स्नान कराता है, कामधेनु गौ के दुग्ध से पंचामृत का निर्माण करता है ।पृथ्वी रूपी गंध का अनुलेपन करता है ।कुबेर की पुष्पवाटिका से स्वर्णकमल पुष्पों का चयन करता है ।
साधक अपने आराध्य से प्रेम की अनंत गहराइयों में उतरकर भावपूर्वक कहता है - हे प्रभु ! मैं संसार के सभी उपचारों को आपके चरणों में समर्पित करत हूँ ! हे प्रभु ! अब मेरा अपना कुछ भी नहीं, मैंने अपना सब कुछ आपको ही समर्पित किया है ।हे प्रभु! आप इसे स्वीकार करें ।
हृदय से निकले ये एक-एक शब्द हमारे अंतस को प्रभुप्रेम की पराकाष्ठा तक पहुँचाते हैं ।चित्त एकाग्र व सरस हो जाता है , इससे बाह्य पूजा में भी आनंद की अनुभूति होने लगती है, साथ ही मन ध्यान व समाधि में डूबने लगता है और इस प्रकार भक्त और भगवान, आराधक और आराध्य, दोनों में एकात्म स्थापित हो जाता है।
कहते हैं कोई भी शुभ कर्म बारह वर्ष तक नियमित करने पर अपना फल अवश्य प्रदान करता है ।अतः प्रचलित पूजन विधि के साथ-साथ उसमें पहले या बाद में मानसिक पूजा भी नियमित करते रहें तो उसका फल मिलता अवश्य है।मानस पूजा में प्रेम, भक्ति, ज्ञान, वैराग्य, ध्यान व समाधि स्वयं ही घटित होने लगते हैं व आराधक को आराध्य के आनंदलोक तक पहुँचा देते हैं, साथ ही आध्यात्म के उच्च शिखर पर भी।
हम कहीं भी हों , जब हमें ईश्वर का स्मरण हो , तभी हम मानस पूजा करके स्वयं को ईश्वर से जोड़ सकते हैं ।मानस पूजा से साधक के अन्दर दिव्य ऊर्जा की वृद्धि होती है, उसका अंतर्मन प्रकाशित होने लगता है, साधक को अलौकिक अनुभूतियाँ होने लगती हैं और अंततः वह समाधि की ओर अग्रसर होने लगता है ।अतः सचमुच बड़ी अद्भुत है , बड़ी अलौकिक है मानस पूजा।
सादर अभिवादन व धन्यवाद ।
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