head> ज्ञान की गंगा / पवित्रा माहेश्वरी ( ज्ञान की कोई सीमा नहीं है ): समय बड़ा बलवान, महाराज बलि का सुशासन,राजा बलि महान दानी, महाराज बलि के जीवन में समय की विपरीतता (वामन अवतार)

Thursday, May 21, 2020

समय बड़ा बलवान, महाराज बलि का सुशासन,राजा बलि महान दानी, महाराज बलि के जीवन में समय की विपरीतता (वामन अवतार)


                 ●●● समय बड़ा बलवान ●●●
समय बड़ा बलवान है।समय की महिमा से जो अवगत होते हैं, वे उसको प्रणाम करके समय के अनुकूल स्वयं को ढाल लेते हैं ।काल का साथ होता है तो सब कुछ अनुकूल हो जाता है और जब समय साथ छोड़ देता है तो सब कुछ प्रतिकूल और विपरीत हो जाता है ।समय जब साथ छोड़ता है तो बड़े-बड़े भी धराशायी हो जाते हैं ।

बड़े-बड़े साम्राज्य, जिनकी कहीं कोई सीमा तक नजर नहीं आती है , जिनका सूर्य कभी ढलता नहीं है , इतने बड़े एवं व्यापक साम्राज्य को भी समय क्षण-भर में धूल- धूसरित कर देता है।समय ही है , जो बड़े से बड़े बलशाली को पराजित कर निर्बल कर देता है।समय , समय ही होता है , इससे बड़ा कुछ नहीं ।समय उठाता है तो एक तिनका भी पहाड़ बन जाता है , एक असहाय निर्बल भी समृद्ध एवं सम्पन्न हो जाता है ।

समय जब साथ देता है तो कठिन-से-कठिन परिस्थितियाँ अत्यन्त सहज व सरल हो जाती हैं, लगता है जैसे कुछ हुआ ही न हो।समय का साथ सबसे बड़ा साथ है और समय की विपरीतता सबसे बड़ा दंड है।विपरीत समयमें कोई ज्ञान, कोई तप, कोई साधन काम नहीं आता है।
           ●●● महाराज बलि का सुशासन ●●●

महाराज बलि , वैभव-विलास के प्रतीक स्वर्ग में इंद्र के पद को सुशोभित कर रहे थे इंद्रासन पर दैत्यकुल के महाराजा बलि प्रतिष्ठित थे।यह बात देवताओं को प्रीतिकर तो कदापि नहीं थी , परंतु सत्य यही था कि बलि, इंद्र के पद को सुशोभित कर रहे थे।राजा का आचरण जैसा होता है , उसी के अनुरूप उसके मंत्रीगण आचरण करते हैं ।प्रजा भी उसी के अनुसार अपनी जीवनशैली का निर्वहन करती है।

इंद्रासन पर आसीन महाराज बलि की सभा में कई नवीनताएँ ऐसी थीं, जिनकी कभी किसी ने कल्पना भी नहीं की थी।इंद्र की सभा में राग-रंग, हास-विलास, भोग-विलास के साधन उपलब्ध थे , जहाँ त्रैलोक्य सुंदरी अप्सराओं के नर्तन से दसों दिशाएँ गुंजायमान रहती थीं, अब उनकी जगह सत्संग होता था।महाराज बलि इंद्रासन पाकर भी विचलित नहीं हुए थे और उनकी सभा में तप एवं ज्ञान अजस्र धारा बहने लगी थी।

महाराज बलि महान तपस्वी थे ।दीर्घकालिक अखंड तपस्या का उनको अभ्यास था ।महाराज बलि के शासन-काल में मादक द्रव्यों की गंध के स्थान पर यज्ञधूम्र की पवित्र सुगंध फैलने लगी थी।सभी देवता अपने-अपने कर्तव्य में संलग्न रहते थे ।सम्पूर्ण प्रकृति संतुलित होकर सुचारु रूप से चल रही थी ।प्रकृति के संतुलन में ही मानव कल्याण एवं उसकी समस्त संभावनाएँ सम्मिलित होती हैं, अतः महाराज बलि प्रकृति के शोषण में नहीं, पोषण में विश्वास रखते थे और प्रकृति के पोषण के लिए यज्ञानुष्ठानों का आयोजन करते रहते थे।

महाराज बलि का हर पल, हर क्षण -- श्रेष्ठ कर्मों में नियोजित रहता था ।वे एक पल भी खाली नहीं रहते थे ।उनके पास अपार शक्ति थी , अपरिमित बल था , तप की ऊर्जा से वे ऊर्जान्वित थे , उनकी भक्ति भी असाधारण थी ।

       ●●● महाराज बलि महान दानवीर ●●●

महाराज बलि महान दानवीर थे , उनके द्वार से कभी कोई याचक निराश होकर नहीं लौटता था। उनकी दानवीरता की ख्याति समस्त जगत में फैली हुई थी ।एक बार भगवान विष्णु वामन के भेष में बलि के द्वार पर आए  और कहा --- " बलि ! मुझे तीन पग जमीन  दान में दे दो।  दान में मुझे सिर्फ तीन पग जमीन ही चाहिए ।क्या मुझ ब्राह्मण के लिए तुम्हारे पास तीन पग जमीन नहीं है।"

बलि का हृदय निश्छल और निष्पाप था , परंतु भगवान विष्णु वामन के भेष में बलि को छलने आए थे।बलि को उनके गुरू शुक्राचार्य ने इस छल के प्रति बलि को आगाह भी किया, परंतु बलि ने कहा-- " हे गुरुवर ! स्वयं भगवान मेरे द्वार पर याचक बनकर , हाथ फैलाकर कुछ माँगने आए हैं, मैं इन्हें मना कैसे कर सकता हूँ ? मैं तो अपना दान देने का कर्तव्य अवश्य पूरा करूँगा।"
और महाराज बलि ने वामन भगवान से कहा -- "मैं आपको तीन पग जमीन दान देता हूँ ।तब भगवान विष्णु ने वामन रूप से विराट रूप में परिवर्तित होकर धरती-आसमान को नाप लिया और तीसरे पग से बलि को पाताल भेज दिया।

●●● महाराज बलि के जीवन में समय की विपरीतता ●●●

जब भगवान ने विराट रूप में आकर राजा बलि का सारा साम्राज्य ले लिया और बलि को पाताल भेज दिया तब बलि ने समझ लिया कि यह कालचक्र  ( समय ) की विपरीतता ही है जो ऐसी अवस्था का सामना करना पड़ रहा है ।वे अब एक साधारण इन्सान बनकर पाताललोक में रहने लगे ।वे इस अवस्था में भी अत्यन्त प्रसन्न थे , उन्हें किसी प्रकार की कोई परेशानी नहीं थी ।वे एक सच्चे भक्त थे और एक भक्त को भक्ति के अलावा और क्या चाहिए ? 

महाराज बलि का साधारण जीवन- यापन करना उनके परिजनों को मंजूर नहीं था। उनके परिजन कहने लगे -- " महाराज आपने एक घूँसे से इंद्र के ऐरावत को मूर्च्छित कर दिया था।आपमें अपरिमित बल है ।आप अब भी एक महान तपस्वी हैं ।आप ज्ञानी भी हैं और काल के चक्र को समझते हैं तो फिर क्यों ऐसी साधारण स्थिति में रह रहे हैं ।

महाराज बलि ने अपने परिजनों को सांत्वनापूर्ण बातों से समझाया ।उन्होंने काल की महत्ता को स्पष्ट किया कि कैसे काल का साथ होता है तो सब कुछ अनुकूल हो जाता है और काल जब साथ छोड़ता है तो सब कुछ विपरीत हो जाता है ।महाराज बलि ने काल के विषय को भली-भाँति समझाया और आगे बोले -- " आज काल हमारे साथ नहीं खड़ा है, अतः ऐसे विपरीत समय में कोई ज्ञान, कोई तप , कोई साधन काम नहीं आता है ।सब कुछ धरा -का-धरा रह जाता है ।"

महाराज बलि ने कहा -- "काल की इस विपरीत दशा में हमें शांत एवं स्थिर बने रहना चाहिए, जो कि स्थिर रहना असंभव है, इसके अलावा और कोई विकल्प नहीं है।प्रभु द्वारा निर्धारित स्थान पर रहकर और अपनी भक्ति के सहारे आने वाले अनुकूल समय की प्रतीक्षा के अलावा और कोई विकल्प नहीं है ।कोई प्रयास-पुरुषार्थ काम नहीं आता है ।इस समय कोई अपना भी साथ नहीं देता है।केवल भगवान ही सुनता है और साथ देता है , अतः इस कठिन समय में भगवान की भक्ति के साथ अपना जीवन व्यतीत कर रहा हूँ ।यही सत्य है।"    ऐसा सुनकर परिजनों को बलि की ईश्वरभक्ति का भाव समझ में आ गया था।

इतिहास में व हमारे शास्त्रों में अनेक ऐसे प्रसंग हैं, जिनसे ज्ञात होता है कि समय बड़ा बलवान है, समय के आगे किसी का वश नहीं चलता ।
सादर अभिवादन व धन्यवाद ।


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