एकांत में ही आत्मसाक्षात्कार संभव है।एकांत में ही हम परम शान्त और मौन हो सकते हैं और एकांत में ही हम उस द्वार को खोज सकते हैं, जो परमात्मा का द्वार है।सभी ज्ञानी महात्मा, संत , साधक एवं सिद्ध अपनी साधना एकांत में ही पूर्ण कर सके।फिर ये ज्ञानी चाहे बुद्ध हों, चाहे महावीर हों , चाहे मोहम्मद या फिर महर्षि रमण, श्री अरविन्द ।ये सभी परमात्मा की अनुभूति पाने के लिए पहले एकांत में चले गए थे ।
भगवान बुद्ध छह वर्ष तक निरंजना नदी के किनारे जंगल में एकांत में रहे।उनके साथ कोई नहीं था और न ही उन्होंने किसी का साथ खोजा।तीर्थंकर महावीर स्वामी बारह वर्ष तक एकांत में रहकर गहन मौन रहे।मोहम्मद की कथाओं में आता है कि वे तीस दिनों तक एक पर्वत पर एकांत में रहे।ईसा मसीह तीस वर्ष एकांत में रहे।
आधुनिक युग में महर्षि रमण की एकांत साधना की कथा कही जाती है ।उन्होंने अपने जीवन का अधिकांश समय तिरुवन्नामलाई के अरुणाचलम् पर्वत की विरुपाक्षी गुफा में एकांत में गुजारा।एकांत में मौन रहकर उन्होंने अपनी समस्त साधनाओं को संपन्न किया।महर्षि अरविन्द सन् 1910 में पांडिचेरी गए थे ।वहाँ उन्होंने सन् 1950 ईo में शरीर त्याग किया।इन चालीस वर्षों में वे प्रायः एकांत में ही रहे।
एकांत एवं मौन ही जीवन के रहस्य को समझने एवं अपने लक्ष्य तक पहुँचने का एकमात्र साधन एवं समाधान है।जो एकांत प्रिय हैं वे एकांत में ही प्रसन्न रहते हैं, आनंदित रहते हैं ।वे एकांत में ही आनंद को जान पाते हैं ; क्योंकि अकेले में ही स्वयं को परखा और पहचाना जा सकता है ।भीड़ में भला कोई स्वयं की पहचान कैसे कर सकता है।
जो आत्मसाक्षात्कार करने की चाह रखते हैं वे एकांत मिलते ही धयान का अभ्यास करते हैं, आपनी श्वास के प्रति सजग रहते हैं और आध्यात्मिक साधनाएँ करते हैं ।मंत्र, स्वाध्याय का भी सहारा लेते हैं ।ये सभी प्रक्रियाएँ एकांत में ही अच्छी तरह से हो पाती हैं ।अपनी लगन से साधक आत्मसाक्षात्कार की अनुभूति करके ही रहते हैं ।
●●● एकांत में ही जीवन की व सत्य की खोज संभव●●●
एकांत में जीवन को अच्छे से जाना जा सकता है।जीवन के आनंद को एकांत में ही सही से अनुभव किया जा सकता है ।एकांत में जो रस है , उस रस की अनुभूति का आस्वासन केवल एकांत में रहकर ही किया जा सकता है ।जो अकेला रहता है, स्वयं के बारे में चिंतन मनन करता है , स्वयं को जानने का प्रयास करता है , वही इस जीवन की सच्चाई को समझ पाता है।
भीड़ में हम दूसरों को पाते हैं, दूसरों को खोजते हैं और दूसरों के साथ खो जाते हैं ।हमारा मन भीड़ में रचने- बसने का अभ्यस्त हो गया है।इसीलिये हम एकांत में काल्पनिक भय से ग्रसित हो जाते हैं और भीड़ में अपने आप को सुखी महसूस करने लगते हैं ; जब कि सुख तो एकांत में है, भीड़ में नहीं ।
मानवीय मन को शान्ति और स्थिरता की जरूरत होती है ।जब मन शान्त और स्थिर होता है तो ही वह अपने विषय में सोच-विचार कर पाता है।तभी वह विचार करता है कि उसे यह जीवन क्यों मिला , किन संस्कारों के कारण वह इस जीवन के सुख और दुःख भोग रहा है , किन संस्कारों के कारण उसे अपने माता-पिता, स्वजन-संबंधी मिले हैं ।
संसार का आकर्षण हमें अपनी ओर खींचता है ।और मन संसार की इच्छाओं में आसक्त रहता है जिसके कारण हम एकांतसेवन का लाभ नहीं उठा पाते ।न हम महत्वपूर्णं सत्य को जान पाते न ही तत्व का संधान कर पाते। यदि हम शान्त होकर अपने पूरे दिन की बातों का विश्लेषण करें तो यह सच्चाई अपने आप प्रकट हो जाएगी कि हम भीड़ में रहना ज्यादा पसंद करते हैं ।भीड़ न मिलने पर हम परेशान हो जाते हैं ।
जीवन की खोज , जीवन के उद्देश्य एवं समझ की पहचान, जीवन रस का आस्वादन कभी भी भीड़ में संभव नहीं है।भीड़ में भला कोई जीवन और जीवन से जुड़े सत्य की खोज कैसे की जा सकती है।सांसारिक जीवन में भी हम अपने सांसारिक कार्यों को करते हुए भी कुछ समय एकांत में व्यतीत करते ही हैं बस जरूरत है उस एकांत के समय का महत्व समझने की।
एकांत का प्रभाव कितना विलक्षण है, इसे महाकवि सूर्यकांत त्रिपाठी निराला की भावांजलि में इन शब्दों के द्वारा गहनता से अनुभव किया जा सकता है--
बैठ लें कुछ देर
आओ , एक पथ के पथिक से
प्रिय, अंत और अनंत के,
तम गहन जीवन घेर।
अद्वितीय लेख
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