आषाढ़ शुक्ल पूर्णिमा को गुरुपूर्णिमा पर्व मनाया जाता है । गुरु पूर्णिमा सद्गुरु की पूर्णता की अनुभूति का महोत्सव है।आकृति में वे भी हम सब की भाँति सामान्य लगते हैं, परंतु उनकी प्रकृति सदा ही दैवी और दिव्य होती है।गुरू पूर्णिमा के दिन गुरुचेतना अंतरिक्ष में सघन होकर शिष्यों के अंतस में बरसती है।गुरू पूर्णिमा अपने प्रभु के स्मरण एवं समर्पण का महापर्व है।इस अवसर पर शिष्य अपने अधूरेपन को , अपने अनगढ़ जीवन को पूर्णता में समर्पित करता है और सद्गुरु भी अपनी पूर्णता शिष्य में उढ़ेलता है ।यही मधुर पल-क्षण होते हैं गुरू पूर्णिमा महोत्सव के, जिन्हें शिष्य एवं सद्गुरु की चेतना समन्वित रूप से मनाती है।
इस पावन धरा पर इसी दिन ऋषि भगवान वेद व्यास का अवतरण हुआ था।भगवान वेद व्यास ने ज्ञान के प्रकाश को प्रचारित- प्रसारित किया ।एक द्वीप में उनका आविर्भाव हुआ था, इसलिए उन्हें द्वैपायन भी कहते हैं ।उन्होंने वेद का वर्गीकरण कर चार भागों में विभक्त किया ।उन्होंने वेद के अखंड एवं एकांत ज्ञान का सरलीकरण करके उसको चार भागों में ( ऋक्, यजु, साम और अथर्ववेद के रूप में) ज्ञान को वर्गीकृत किया।वेद का अर्थ ज्ञान होता है।
भगवान वेद व्यास को गुरु के रूप में वरेण्य किया जाता है ; क्योंकि उन्होंने सबके अंतर में आवृत अज्ञान को , अंधकार को मिटाकर ज्ञान का आलोक फैलाया ।गुरु स्वरूप भगवान वेद व्यास ने इस अपौरुषेय एवं अप्रतिम ज्ञान को प्रकाशित किया ।ज्ञान के मूल स्वरूप को सर्वसामान्य के मध्य प्रसारित किया, इसलिए उनको भगवान वेदव्यास कहा जाता है और उनके जन्मदिवस को गुरु पूर्णिमा के रूप में मनाया जाता है ।
वेदव्यास जी ने वेदों के अलावा अठारह पुराण , महापुराण और ब्रह्मसूत्र आदि आर्ष ग्रंथों का सृजन किया-- जो संपूर्ण मानवता के लिए पथ प्रदर्शन का कार्य करते हैं ।भगवान वेदव्यास ने ज्ञान के दिव्य प्रकाश को सबके अंतर में प्रज्ज्वलित किया ।इसलिए गुरू के रूप में उनका वंदन किया जाता है ।शिष्य की जडवत् चेतना को पारस बनाने का कार्य गुरु के करुणामय एवं स्नेहिल हाथों से होता है।
गुरु को साक्षात् परब्रह्म का स्वरूप माना जाता है ।भारतीय संस्कृति में गुरु और शिष्य के संबंध को सर्वश्रेष्ठ एवं दिव्य संबंध कहा गया है। गुरु पूर्णिमा के आगमन का अनुभव कुछ ऐसा अजब होता है कि शिष्यों के मन को बरबस सद्गुरु की चेतना की ओर खींच लेता है।गुरु कृपा भी इस अवसर पर सद्विचार, सद्विवेक, एवं सद्ज्ञान बनकर अवतरित होती है।शिष्य के समर्पण के अनुरूप गुरु की चेतना उसके जीवन में बोध बनकर प्रकट होती है।समर्पण जितना समग्र होता है , बोध उतना ही संपूर्ण होता है।
जिस तरह से शिष्य ढूँढता है सद्गुरु को , ठीक उसी भाँति सद्गुरु भी खोजते हैं अपने सत्पात्र शिष्य को। सच्चे शिष्य अपने आराध्य की परिचेतना की उस अपूर्व वृष्टि को अनुभव करते हैं और कृतकृत्य होते हैं ।गुरु की स्मृति मात्र से ही शिष्य की आँखें छलक उठती हैं , भाव भीगने लगते हैं ।गुरु अंधकार से प्रकाश की ओर ले जाता है , अज्ञान से ज्ञान की ओर ले चलता है और मृत्यु से मोक्ष की ओर अग्रसर करता है।
●●● भारतीय संस्कृति में गुरु का महत्व ●●●
भारतीय संस्कृति में गुरु की महिमा अवर्णनीय एवं अपरंपार है ।गुरु ज्ञान का प्रकाश पुंज है ।गुरु सबसे पहले होता है , माता-पिता तो उसके पश्चात होते हैं ।गुरु स्वयं वेद के समान होता है।वेद शब्द का अर्थ ज्ञान है ।ज्ञान की कोई सीमा नहीं है ।ज्ञान अनंत है, इसका कोई अंत नहीं है।वेद का ज्ञान गुरु कृपा से ही पाया जा सकता है ।
गुरु ज्ञान का दिव्यपुंज है, ऊर्जा का स्वरूप है, करुणा और दया का स्रोत है।गुरु हमारी चेतना को परिष्कृत एवं परिमार्जित करता है और उसे दिव्य व पावन बनाता है।गुरु हमारे अन्दर आध्यात्मिक चेतना को जाग्रत करके, सत्य से, शिव से साक्षात्कार कराता है।गुरु ही आत्मचेतना को विकसित कर परमात्मचेतना में विलय- विसर्जन करने के लिए शिष्य को समग्र रूप से तैयार करता है।
अमूर्त ब्राह्मी चेतना जब रूपाकार होती है तो वह सद्गुरु के रूप में मूर्त होती है। शिष्य तो अमूर्त की कल्पना नहीं कर सकता है ।वह तो सहज- सरल साकार स्वरूप की कल्पना कर सकता है ।समस्त मानवता से प्रेम करना संभव नहीं है उसके लिए ।इसलिए शिष्य मूर्त रूप से गुरु को समर्पण करता है और सद्गुरु उसे समष्टि चेतना के स्वरूप परमात्मा तक पहुँचा देता है।
●●● शिष्यत्व का अर्थ ●●●
शिष्यत्व का अर्थ है-- एक गहन विनम्रता ।शिष्य वही है, जो अपने को झुकाकर स्वयं के हृदय को पात्र बना लेता है। शिष्यत्व तो समर्पण की साधना है , जिसका एक ही अर्थ है-- अहंकार का अपने सद्गुरु के चरणों में विसर्जन ।शिष्य तो वह है , जो जीवन के तत्व को सीखने के लिए तैयार व तत्पर है ; इसके सत्य को समझने के लिए प्रतिबद्ध है।शिष्य का मन लालसाओं के लिए नहीं ललकता, उसकी चेतना कामनाओं के लिए कीलित नहीं होती।
शिष्य यथार्थ में जिज्ञासु होता है और अपनी अनगढ़ प्रकृति को।सुगढ़ एवं सुसंस्कृत करना चाहता है।जो शिष्य अपने गुरूके दिव्य रूप को पहचानता है , वही शिष्य होने के योग्य है।स्वार्थ और अहंकार का विलय और विसर्जन किए बिना शिष्य में शिष्यत्व का उदय संभव नहीं ।जब शिष्य को लगने लगता है कि उसका सर्वस्व गुरु है, उसे ही यह अनुभव होता है कि गुरु का सब कुछ शिष्य का है।सद्गुरु भी शिष्य के सच्चेपन एवं पक्केपन को कई ढंगों से परखते हैं ।
शिष्य को सुपात्र बनने के लिए कड़ी परीक्षाओं के दौर से गुजरना पड़ता है ।शिष्य इन परीक्षाओं को भी अपने गुरू का अनुदान मानते हैं ।यही सच्चाई है ; क्योंकि प्रत्येक परीक्षा के बाद शिष्य की चेतना में एक नया निखार आता है, एक नई चमक एवं आत्मविश्वास पैदा होता है।ये परीक्षाएँ शिष्य को अधिक सुयोग्य एवं सुपात्र बनाती हैं ।
सद्गुरु के प्रति असीम त्याग और सर्वस्व समर्पण के द्वारा ही इन दोनों से मुक्त हुआ जा सकता है।गुरु के प्रति यह समर्पित भाव एवं श्रद्धा-सुमन ही हमारे अंदर सच्चे शिष्यत्व को जन्म देगा।गुरु द्वार है उससे तो जाना है , गुजर जाना है , परंतु हम द्वार से भी गुजरने को तैयार नहीं, तो हम परमात्मारूपी मंदिर में कैसे पहुचेंगे।
शिष्य का गुरु के प्रति समर्पण जन्म-जन्म की साधना का प्रतिफल होता है।गुरु व शिष्य का मिलन तो सामान्य परिचय से होता है।इस प्रारंभिक परिचय में ही सद्गुरु अपने शिष्य की चेतना का मैल हटाना शुरु कर देते हैं ।धीरे-धीरे शिष्य में सद्गुरु के व्यक्तित्व के प्रति आकर्षण बढ़ता है।फिर भी उसके मन में कुछ शंकाएँ रहती हैं ।ऐसे में वह स्वयं को बचाते हुए, अपनी कुछ मान्यताओं के साथ गुरु से जुड़ता है।
परिचय के बाद यह अनुबंध की अवस्था है।जब शर्तें, मान्यताएँ , प्रतिबंध विलीन होते हैं, तब अनुबंध संबंध बनता है।संबंध में बाहरी नहीं आंतरिक प्रगाढ़ता अधिक होती है। गुरु, शिष्य के अंतर्मिलन के द्वार इसी अवस्था में खुलते हैं ।परिचय अब प्रेम में बदल जाता है।गुरु के द्वारा दी गई जीवन की प्रत्येक अवस्था शिष्य को स्वीकार होती है।तब समर्पण की यात्रा शुरू होती है।इसी के अनुरूप प्रारंभ होता है , बोध का क्रम ।इस अनुभव में सद्गुरु एवं परमेश्वर घुले-मिले महसूस होते हैं ।
सद्गुरु शिष्य को प्रेम करना सिखाते हैं।सद्गुरु सिखाते हैं समर्पण । वे कहते हैं कि 'मैं' मैं नहीं हूँ , बल्कि साकार रूप में उस निराकार का प्रतिनिधि हूँ और तुम्हें साकार से होकर निराकार में समा जाना है।तुम आकार में निराकार को खोजो , तभी तुम्हारा निराकार से मिलन हो पाएगा।सद्गुरु नानक ने अपने मंदिरों को गुरुद्वारा कहा है ।गुरुद्वारा अर्थात गुरु का द्वार।
गुरुदेव के प्रति यह समर्पित भाव एवं श्रद्धा- सुमन ही हमारे अंदर सच्चे शिष्यत्व को जन्म देगा।हमें अपने सद्गुरु के प्रति अपने अंदर के शिष्यत्व को जाग्रत करने का कार्य इस पर्व पर करना चाहिए ।
सादर अभिवादन व धन्यवाद
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