head> ज्ञान की गंगा / पवित्रा माहेश्वरी ( ज्ञान की कोई सीमा नहीं है ): संत एकनाथ का जीवन परिचय, संतत्व की परिभाषा, एकनाथ का दिव्य व्यक्तित्व, एकनाथ का आदर्श जीवन समाज के लिए प्रेरणादायी

Sunday, April 26, 2020

संत एकनाथ का जीवन परिचय, संतत्व की परिभाषा, एकनाथ का दिव्य व्यक्तित्व, एकनाथ का आदर्श जीवन समाज के लिए प्रेरणादायी

        ●●● संत एकनाथ का जीवन परिचय ●●●
महाराष्ट्र के पैठण गाँव में चैत्र मास , कृष्ण पक्ष की षष्ठी को ब्राह्मण जाति के उच्च कुल मेंं  संत एकनाथ का जन्म हुआ था ।उस समय भारत में मध्यकाल का दौर था।उस समय समाज में आदर्श क्षीण होने लगे थे , विद्या के उपासक अपना कर्तव्य धर्म भूलकर अपने अधिकारों के लिए सचेष्ट रहने लगे थे, क्षरण के उस दौर में संत एकनाथ का जन्म हुआ ।पैठण गाँव उस समय विद्या और शास्त्रों के अध्ययन का केंद्र था।दूर -दूर से लोग यहाँ इसलिए आते थे , ताकि यहाँ के मनीषियों से ज्ञान प्राप्त कर सकें ।

एकनाथ बचपन से ही तीव्र प्रतिभासंपन्न थे , उन्होंने सात-आठ वर्ष की उम्र में ही संस्कृत में वार्तालाप व विमर्श करना सीख लिया था।बारह वर्ष की अवस्था तक तो उन्होंने रामायण, महाभारत व भागवत के कई अंशों व शास्त्रीय संदर्भों का अध्ययन कर लिया था।ज्ञान पाने की तीव्र उत्कंठा के कारण एक दिन वे घर से निकल पड़े और देवगढ़ जाकर जनार्दन स्वामी के शिष्य बन गए ।

संत एकनाथ ने जनार्दन स्वामी के पास रहकर छह वर्षों तक शास्त्रों का अध्ययन व अभ्यास किया।उसके बाद चौबीस मास तक उन्होंने शूलभंज नामक पर्वत पर तपस्या की ।जब गुरु ने उन्हें भलीभाँति परख लिया , तो तीर्थयात्रा पर जाने व अनुभव अर्जित करने के लिए कहा।मात्र तीन वर्ष में ही उन्होंने लगभग सभी तीर्थों की यात्रा कर ली और फिर पैठण में ही गृहस्थी बसाकर रहने का निश्चय किया ।

            ●●● संतत्व की परिभाषा ●●●

व्यक्ति को अपने कुल के कारण नहीं , बल्कि अपने आचार के कारण जीवन में सिद्धि व सफलता मिलती है ।पूजा पाठ करने से भी व्यक्ति कुलीन नहीं होता, असली कुलीनता आती है , सत्य और पुण्य मार्ग पर चलने से और दूसरों को भी सत्य के मार्ग पर चलने की प्रेरणा देने से।सच्चे संतत्व की यही परिभाषा है ।

निश्चित रूप से तप, त्याग और सेवा का जीवन व्यतीत करना ब्राह्मणत्व का आदर्श है।जिन्होंने इस आदर्श के अनुसार आचरण किया , ऐसे अनेक संतों के नाम आज भी बड़े आदर्श व सम्मान के साथ लिए जाते हैं ।संत एकनाथ का नाम भी ऐसे ही आदर्श ब्राह्मणत्व का उत्कृष्ट उदाहरण है।

    ●●● एकनाथ के दिव्य व्यक्तित्व के उदाहरण ●●●

संत एकनाथ के जीवन की अनेक घटनाओं से उनके दिव्य व्यक्तित्व का परिचय मिलता है।संत एकनाथ प्रतिदिन गोदावरी स्नान के लिए जिस मार्ग से जाते थे , उस रास्ते पर एक उद्दंड व्यक्ति का घर था ।जब भी वह एकनाथ को स्नान से लौटते देखता तो जान-बूझकर ऊपर से उन पर कुल्ला कर देता।एकनाथ उससे कुछ भी नहीं कहकर दोबारा स्नान करने चले जाते।एक दिन तो उसने अपनी उद्दंडता की सीमा लाँघ दी , अति ही कर दी और गोदाबरी स्नान से लौटते हुए संत एकनाथ पर एक सौ आठ बार कुल्ला किया । एक सौ नवीं बार वह थक गया और फिर अपने दुर्व्यवहार के लिए माफी माँगने लगा।एकनाथ ने उसे फिर भी यह कहकर धन्यवाद दिया कि  'आज तुम्हारे कारण मुझे इतनी बार गोदावरी के स्नान का पुण्य प्राप्त हुआ।' यह सुनकर वह इतना अभिभूत हुआ कि उनका शिष्य ही बन गया ।

संत एकनाथ को कभी क्रोध नहीं आता था ।उनके इस स्वभाव को परखने के लिए एक बार कुछ लोगों ने एक पंडित को उनके पास भेज दिया ।वह पंडित उन्हें ढूँढता हुआ मंदिर पहुँचा, उस समय वे पूजा कर रहे थे ।फिर भी वह उनकी पीठ पर जाकर बैठ गया ।उसकी धृष्टता को नजर अंदाज करते हुए एकनाथ ने उससे कहा --
" वाह भाई ! मेरे पास कई लोग आते हैं, पर तुम्हारे जैसा प्रेम करने वाला मैंने आज तक नहीं देखा , जो आते ही लिपट जाए।" वे उसे अपने घर ले गए।

संत एकनाथ ने उस पंडित को घर पर खाना खाने के लिए बिठाया तो वह उछलकर भोजन परोसती हुई उनकी पत्नी गिरिजाबाई की पीठ पर बैठ गया ।संत एकनाथ हँसने लगे और बोले -- "देखना, कहीं गिर न जाए ।"  गिरिजाबाई भी हँसकर बोलीं-- " मुझे बच्चे को पीठ पर लेकर काम करने का अभ्यास है ,इसे गिरने न दूँगी ।" 
संत एकनाथ के इस व्यवहार ने उस व्यक्ति को सदा के लिए बदल डाला।

                         एक बार संत एकनाथ की कुटिया से एक कुत्ता रोटी लेकर भागा तो संत एकनाथ भी उसके पीछे -पीछे हाथ में घी की कटोरी लेकर भागे,। उनके अंतस ने कहा-- " मेरे प्रभु  ! आप सूखी रोटी कैसे खाएँगे । ऐसी मनःस्थिति में निश्चित ही परोपकार ही पूजा,परोपकार ही प्रेम और परोपकार ही करुणा का सागर बन जाता है ।ऐसा व्यक्ति समष्टि बन जाता है ।उसके विशाल हृदय में धरती और आकाश भी उतर आते हैं ।सचमुच संत एकनाथ का दिव्य व्यक्तित्व था।

 ●●● एकनाथ जातिप्रथा भेदभाव को नहीं मानते थे●●●
                       हमारे देश में छुआछूत व ऊँच-नीच की मान्यता सदियों से चली आ रही है और समाज में यह इस कदर व्याप्त है कि समाज का एक वर्ग इसके कारण नारकीय उपेक्षा का शिकार रहा है ।संत एकनाथ जातिप्रथा के भेदभाव को बिल्कुल नहीं मानते थे ।उच्च कुल और ब्राह्मण जाति का होते हुए भी उन्होंने कभी किसी के साथ अभद्र व्यवहार नहीं किया । एक बार उनकी पत्नी पूर्वजों के श्राद्ध के निमित्त ब्राह्मण भोज के लिए पकवान बना रही थीं। उसी समय कुछ वंचित जाति के लोग उनके घर के पास से गुजरे और पकवानों की खुशबू पाकर कहने लगे कि हम लोगों के ऐसे भाग्य कहाँ हैं कि ऐसे पकवानों का सेवन कर सकें ।

         संयोग से यह बात संत एकनाथ के कानों में पड़ गई। उन्होंने बिना देर किए उन सभी को घर में बुलाकर अच्छी तरह भोजन करा दिया ।फिर रसोईघर और बर्तनों को अच्छी तरह साफ करके  ब्राह्मणों के लिए दोबारा भोजन बनवाया ।जब ब्राह्मणों को,यह बात पता चली तो वे बहुत नाराज हुए और भोजन करने से इन्कार कर दिया ।संत एकनाथ के बार-बार आग्रह करने पर भी वे भोजन ग्रहण करने के लिए तैयार नहीं हुए तो एकनाथ ने अपने पितरों का आवाहन किया ।ऐसा कहते हैं कि पितरों ने वहाँ सशरीर उपस्थित होकर उनका दिया हुआ भोजन ग्रहण किया।

   ●●● एकनाथ का जीवन समाज के लिए आदर्श ●●●

संत एकनाथ का जीवन आज भी समज के लिए एक आदर्श है, प्रेरणादायक है।संत एकनाथ ने शास्त्रों का जो अध्ययन किया, उसके मर्म को उन्होंने अपने जीवन में आत्मसात् किया ।उन्होंने सच्चे अर्थों में धार्मिक व आध्यात्मिक जीवन जिया ।उनके अंदर सच्चे संत के सभी गुण मौजूद थे।उनके जीवन के कई प्रसंग हैं जिनसे यह प्रमाणित होता है कि उन्होंने अपने कुल के कारण नहीं, बल्कि अपने आचरण के कारण समाज में  उच्च स्थान प्राप्त किया।

गृहस्थ जीवन के आदर्श धर्म का पालन करते हुए उन्होंने अपने आचरण से समाज को प्रेरणा व सीख दी ।दिखावे से वे कोसों दूर थे , विकारों का स्पर्श तक उनके जीवन में नहीं था।वे आजीवन सत्यधर्म के पालन का उपदेश देकर , अंत में यह कहते हुए संसार से विदा हुए कि  " भगवद्भक्तो , मेरे बाद तुम लोग भागवत धर्म का प्रचार जारी रखना और लोगों के विरोध की परवाह न करते हुए इस पवित्र कार्य के लिए तैयार रहना ।"

 हमारी भारत भूमि आदर्श संतों की भूमि है।हमें इन संतों के जीवन से प्रेरणा ग्रहण करके अपने जीवन को आदर्श बनाने की कोशिश करनी चाहिए ।

सादर अभिवादन व धन्यवाद ।

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