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Sunday, May 31, 2020

गंगा दशहरा-- इस पर्व को गंगा दशहरा क्यों कहते हैं, गंगा का अवतरण, सनातन संस्कृति में गंगा का महत्व

    ●●●  इस पर्व को गंगा दशहरा क्यों कहते हैं ? ●●●
इस वर्ष 1 ( एक ) जून को गंगा दशहरा पर्व है।गंगा भारतीय संस्कृति का आधारस्तंभ है ।गंगा दशहरा के दिन माँ गंगा का धरा पर अवतरण हुआ ।इस पर्व को गंगा दशहरा इसलिए कहते हैं ; क्योंकि इस दिन दस विशेष ज्योतिष योग एक साथ होते हैं ।

इस दिन ज्योतिष की दृष्टि से ज्येष्ठ मास ,शुक्ल पक्ष , दशमी तिथि , वार, हस्त नक्षत्र, व्यतिपात योग , गर करण , आनंद योग , कन्या राशि का चन्द्रमा, वृष राशि का सूर्य---- ये दस विशेष योग एक साथ होते हैं, इसी कारण इसे दशहरा अर्थात दस योगों को हरा या प्रसन्न करने वाला कहा जाता है ।इन दस ज्योतिष योगों के कारण इस दिन गंगा नदी के जल में दिव्य प्रकाश का अवतरण होता है, जिसके कारण यह जल भौतिक व आध्यात्मिक दृष्टि से परम लाभकारी होता है।

इस पर्व पर लाखों श्रद्धालु गंगा मैया के पवित्र जल में स्नान करके स्वयं को सौभाग्यशाली समझते हैं ।सभी श्रद्धालु गंगा मैया के आँचल का स्पर्श पाकर संतापमुक्त हो जाते हैं ।ऐसा माना जाता है कि गंगाजल से जीवात्मा के सभी जन्मों के पाप धुल जाते हैं व इसके जल में रोगों को दूर करने की शक्ति भी है।

           ●● ● गंगा का अवतरण ●●●

       " शिव की जटा से प्रकट हुई तेरी निर्मल धारा 
          धरती माँ को पावन कर सारे जग को तारा "

गंगा माँ है , गंगा का धरती पर अवतरण ही शापयुक्त संतानों को सांसारिक संताप से मुक्त करने के लिए हुआ है। शापग्रस्त सगर सुतों को उबारने के लिए भागीरथ ने कठोर तप करके गंगा का आह्वान किया था। अपने दिव्य गुणों के कारण गंगा नदी विश्व की सबसे पवित्रतम नदी मानी जाती है ।गंगा की मान्यता सभी पुराणों में है, सभी स्थानों पर है।

कहते हैं कि राजा भगीरथ के पूर्वज राजा सगर के साठ हजार पुत्र थे ।साठ हजार उनके पुत्र होंगे कि नहीं होंगे , लेकिन साठ हजार उनकी प्रजा तो होगी ही , और ये सभी अपने अहंकार के कारण कपिल मुनि के श्राप से भस्म हो गए थे ।अब सबको शापमुक्त करना था ।देश अभिशाप से मुक्त हो , हमारे पूर्वज अभिशाप से मुक्त हों , हमारा कुल अभिशाप से मुक्त हो और इसके लिए रघुकुल ने , इक्ष्वाकुकुल ने , मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम के पूर्वजों ने अनवरत पीढ़ी-दर-पीढ़ी साधना की, गंगा के अवतरण के लिए ब्रह्मा जी को प्रसन्न किया , भगवान शिव को प्रसन्न किया, ऋषि जनों को प्रसन्न किया और तब गंगा हिमालय की कोख से अवतरित होकर गंगासागर तक पहुँचीं ।

    ●●● सनातन संस्कृति में गंगा का महत्व ●●● 

गंगा शब्द से परिचय होता है -- भारत की पवित्रता का , भारत की 
संस्कृति का।गंगा की गरिमा का उल्लेख भारत के प्राचीन साहित्य में जगह-जगह पर आया है कहते हैं कि आर्य यानी सभ्य मानव हिमालय से आए, हिमालय में जन्मे ।गंगा का उद्गम हिमालय में ही है ।हिमालय और गंगा भारत का परिचय हैं।

सनातन धर्मावलंबियों के घर में गंगा जल को सहेजकर अवश्य रखा जाता है ; क्योंकि बिना गंगा जल के कोई भी पावन कार्य अधूरा माना जाता है ।सनातन धर्म के सभी ग्रन्थों में गंगा की महिमा का गुणगान किया गया है।हर युग के कवि , साहित्यकारों एवं विचारकों ने गंगा का गुणगान  किसी न किसी रूप में अवश्य किया है।

यूरोप के कवियों ने भी गंगा के गुणों का गान किया है।अमेरिका में वाल्डेन के तट से थोरो ने गंगा की पावनता का अहसास किया।
गंगा के दिव्य गुणों के कारण विश्व के कोने-कोने के लोग गंगा से अभिभूत रहे हैं ।हिंदू ही नहीं, मुगल सम्राटों ने भी गंगा के पावन जल का स्पर्श व पान करके अपने जीवन को धन्य किया।
 
गंगा प्रकट रूप में मनुष्य के पापों का शमन कर उसे पवित्र करती है।गंगा माता के रूप में वन्दनीय है ।गंगा किसी के साथ कोई भेदभाव नहीं करती और समान भाव से सबका पालन-पोषण करती है ।गंगा के बिना भारत देश की पवित्रता व महानता अधूरी है।गंगा आध्यात्मिक जीवन का मुख्य सोपान है ; गंगा से हमें पवित्रता मिलती है।

गंगा नदी के 2500 किलोमीटर लंबे मार्ग पर मानव सभ्यता व संस्कृति फलती-फूलती रही ।गंगा एक बड़े भूखंड की जीवन रेखा है ।पूरे भारतवर्ष की संस्कृति के तार गंगा से जुड़े हैं ।हिमालय की कृपा से वनों में विचरण करते हुए जड़ी-बूटियों एवं खनिज तत्वों का सत्व गंगा में मिल जाता है जो इसके जल को औषधीय गुणों से भरपूर कर देता है।

गंगा ठहरी स्वर्ग लोक की वासिनी । इसलिए दैवी गुण तो गंगा को विरासत में मिले हैं ।ब्रह्मा जी के कमंडल , विष्णु के चरण नख से निस्सृत होने व देवाधिदेव शिव की जटाओं से अवतरित होने के कारण गंगा का दिव्यत्व सहज रूप से अद्वितीय रहा है।गंगा के तट पर आत्मानुसंधान में निमग्न ऋषि-मुनियों, यति-तपस्वियों की तपःऊर्जा भी गंगा में समाहित होती रहती है।अनेक तीर्थों का जल गंगा में समाहित होता है जिससे गंगा चलता-फिरता प्रवाहमान तीर्थ बन जाती है ।
       " एक बार तेरे द्वारे आकर , जिसने ज्योति जलाई
             दूर हुए उसके सब संकट , उसने मुक्ति पाई  
                     जय गंगा मैया , जय गंगा मैया "

गंगा नदी हम सबको शीतल, पवित्र, मीठा जल देती है लेकिन आज उसका अस्तित्व खतरे में पड़ गया है ।यदि गंगा नदी की वर्तमान स्थिति को सुधारा नहीं गया तो इतिहास में गंगा नदी के अवतरण व प्रवाहमान होने के समय की एक पौराणिक कथा मात्र रह जाएगी , फिर शायद उसे बहते हुए नहीं देख सकेंगे।

सादर अभिवादन व धन्यवाद ।




Saturday, May 30, 2020

आहार का व्यापक प्रभाव , क्या खाएँ ?, कब खाएँ ?, कैसे खाएँ ? , हितभुक् , मितभुक्, ऋतभुक् ।


            ●●● आहार का व्यापक प्रभाव ●●●
आहार का प्रभाव व्यापक है शारीरिक स्वास्थ्य हो या मानसिक स्थिति,  दोनों में ही आहार के अनुरूप उतार-चढ़ाव आता रहता है।यह एक ऐसा सत्य है,जिसका अनुभव हम सभी करते रहते हैं ।विकृत एवं अनियमित आहार का दुष्प्रभाव शरीर व मन दोनों पर ही पड़ता है ।गरिष्ठ, तीखा , तला-भुना , डब्बा बंद वासी आहार के नुकसानों की यदि गिनती करनी हो तो उन सभी बीमारियों की भी सूची तैयार करनी होगी ; जिनका प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष रूप से सभी बीमारियों का आहार से कोई-न-कोई सम्बन्ध है।आजकल जंक फूड , फास्ट फूड इत्यादि  खान -पान की शैली जो इन दिनों चल पड़ी है, इस कारण भी नए रोग उत्पन्न हो रहे हैं ।

● क्या  खाएँ ? -- आहार जीवन की नैसर्गिक जरूरत है, यह अनुभूति हम सभी को है , पर क्या खाएँ ? यह एक ऐसा सवाल है जिसका जवाब हममें से बहुत कम लोगों को ही पता है ।क्या खाएँ ? इसका उत्तर हमें स्वयं से व संबंधित विशेषज्ञों से बार-बार पूछना चाहिए ।यदि मन में इसका उत्तर जानने की जिज्ञासा उभरे तो उत्तर यही होगा कि हम शरीर का पोषण करने वाली वस्तुओं को ही खाएँ ।

हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि भोजन स्वास्थ्य की जरूरत है , स्वाद की नहीं, एक कहावत भी है -- " खाने के लिए नहीं जीना , जीने के लिए खाना है " ।भोजन की गुणवत्ता की दृष्टि से व्यंजनों की सूची में यदि खाद्य पदार्थों का निर्णय करना हो तो केवल स्वास्थ्य एवं पोषण प्रदान करने वाले आहारों को ही वरीयता देनी होगी और ऐसे आहार बड़ी आसानी से चुने जा सकते हैं ।ताजे फल, ताजी सब्जियाँ, दालें, अनाज इनकी उपयोगिता की जानकारी सभी को होनी चाहिए ।

भोजन तैयार करने में तीखे मिर्च-मसाले का उपयोग कम मात्रा में ही होना चाहिए । अधिक तलना-भूनना भी निरर्थक है।बहुत तीखा खाते रहना व बहुत तले-भुने पदार्थ खाते रहना स्वास्थ्य के लिए अच्छा नहीं । आजकल नशीली चीजें, पान-तम्बाकू आदि अनेक वस्तुओं का चलन बढ़ता जा रहा है और इनके नुकसानों से भी सब भलीभाँति परिचित हैं ।इन दिनों तथाकथित ऊँची सोसायटी के लोगों का भोजन देखकर मन सोचने पर मजबूर हो जाता है कि इन लोगों का विवेक कहाँ गया ।हालाँकि सभी ऐसे नहीं हैं, इनमें से कुछ लोग आहार की गुणवत्ता पर पूरा ध्यान देते हैं ।

क्या खाएँ ? इसका उत्तर यही सही है --  "खाना जितना सादा स्वास्थ्य लाभ उतना ज्यादा ।"

● कब खाएँ--- यदि सवाल यह हो कि कब खाएँ ? तो जबाब एक ही है -- दिन भर में अधिक-से-अधिक दो बार और वह भी कड़ी भूख लगने पर ।आयुर्वेद आचार्यों के अनुसार बार-बार, जब-तब खाते रहना स्वास्थ्य के लिए अच्छा नहीं । 

आधुनिक युग के खान-पान के तौर-तरीके इन दिनों इतने बिगड़ गए हैं कि चिकित्सकों व मनोवैज्ञानिकों ने इसे अपने शोध का विषय बना लिया है ।इनका कहना है कि भूख भी कई तरह की होती है ।उदाहरण के लिए-- 
1  किसी को खाते देखकर खाने के लिए लालायित हो जाना ।
2   चिंता या तनाव के क्षणों बार-बार खाने की इच्छा करना ।        3   जैविक लय के अनुसार सही समय पर भूख लगना।

 विशेषज्ञों का कहना है कि इनमें-- जैविक लय के अनुसार सही समय पर भूख लगना ,  यही तरीका सही है।सही भूख लगने पर ही भोजन करना चाहिए ।

● कैसे खाएँ---   पोषक तत्वों से भरपूर खाना ग्रहण करना चाहिए ।सही भूख लगने पर ही भोजन ग्रहण करना चाहिए ।यह जानने के बाद सवाल उठता है कि भोजन कैसे ग्रहण करें ?

इसका जवाब है स्थिरचित्त होकर , शांत मन से , ईश्वर स्मरण करते हुए भोजन को भगवान के प्रसाद के रूप में ग्रहण करना चाहिए ।भोजन यदि प्रसाद के रूप में किया जाए तो रूखी-सूखी रोटी भी स्वास्थ्य वर्द्धक बन जाती है ।यदि इसके विपरीत चिड़चिड़े मन से हड़बड़ी में खाने पर मेवा-मिष्ठान्न का भी लाभ नहीं मिलता ।उपयुक्त भोजन , उचित रूप से लेना ही अच्छे  स्वास्थ्य का रहस्य है।

     ●●● हितभुक्  , मितभुक्  , ऋतभुक् ●●●

आहार के बारे में तीन शब्द कहे गए हैं, हित , मित और ऋत।हितभोजी वह है, जो स्वास्थ्य के अनुकूल एवं उपयोगी पदार्थ ही ग्रहण करता है ।ऐसा व्यक्ति अपने स्वास्थ्य के प्रति सजगता अपनाते हुए पोषक व उपयोगी आहार ही ग्रहण करता है।ऐसा व्यक्ति स्वाद के लिए नहीं, बल्कि स्वास्थ्य के लिए खाता है।

मितभोजी वह है , जो थोड़ा खाता है ।जितना आवश्यक है , उतना खाता है ।ज्यादा खाने वाले व्यक्ति के शरीर में आलस्य बना रहता है।ज्यादा खाने वाले किसी भी तरह साधना नहीं कर सकते ।वे तो खाने के बाद सिर्फ पचाने वाले चूर्ण एवं हाजमे की गोलियाँ ढूँढ़ते रहते हैं ।

आहार के बारे में तीसरा एवं सबसे महत्वपूर्ण शब्द है ऋत।ऋत का संबंध पवित्रता एवं चेतना की निर्मलता से है।ऋत का अर्थ भोजन में समाई भावनाओं में निहित है।भोजन बनाने वाले की भावनाएँ क्या हैं ?फिर खाने वाले कर्तव्यनिष्ठ हैं भी या नहीं ? 
ऋत भोजन को वही तैयार कर सकता है ,जो भावनाशील है ,जिसमें माँ की ममता है ।अच्छी भावना के साथ बना हुआ भोजन चेतना को परिष्कृत करता है ।

सत्य यही है कि आहार के बड़े व्यापक प्रभाव हैं ।आहार  का मूल्यांकन चेतना के विकास का मूल्यांकन है।अतः जो भोजन स्वास्थ्य के लिए अनुकूल हो वही खाएँ, नियत समय पर खाएँ और शांत व प्रसन्न मनःस्थिति में ईश्वर का स्मरण करते हुए ही खाएँ ।

सादर अभिवादन व धन्यवाद ।



Friday, May 29, 2020

मानस पूजा अर्थात मन से भगवान की पूजा , भाव के भूखे हैं भगवान

 ●●● मानस पूजा अर्थात मन से भगवान की पूजा ●●●
शास्त्रों में ईश्वर की पूजा-आराधना के विविध विधि-विधान बताए गए हैं ।उन्हीं में से एक है " मानस पूजा " । मानस पूजा अर्थात मन से भगवान की पूजा ।कहते हैं कि पूजन के विधि-विधानों में मानस पूजा सर्वश्रेष्ठ व सबसे अधिक प्रभावशाली है ।भौतिक सामग्रियों से की गई पूजा की अपेक्षा मन से की गई ईश्वर की पूजा को करोड़ों गुना अधिक फलदायी व प्रभावकारी बताया गया है ।मन की कल्पना से एक पुष्प भी चढ़ा दिया जाए तो वह एक पुष्प भी करोड़ों बाह्य पुष्पों के बराबर होता है।

ईश्वर सर्वव्यापी है, सर्वशक्तिमान है, सर्वज्ञ है और सर्वसमर्थ भी ।संसार में जो भी कुछ है , वह सब ईश्वर की ही देन है ।यह सारा संसार, यह समस्त सृष्टि भी स्वयं ईश्वर की ही रचना है ।जब सब कुछ ईश्वर का ही है , तब हम ईश्वर की पूजा-आराधना भला किस प्रकार और किन सामग्रियों से करें ; क्योंकि वे सारी सामग्रियाँ, जैसे --- पुष्प, विल्वपत्र , फल आदि तो ईश्वर को स्वतः ही समर्पित हैं ।

पूजन की प्रचलित विधियों में जहाँ भगवान को भोग व अन्य वस्तुएँ अर्पित करने का विधान है ।जिन्हें जुटाने में समय भी लगता है , हरेक के लिए कभी-कभी संभव भी नहीं होता, वहीं मानस पूजा में कल्पना शक्ति के द्वारा ही पल भर में सब कुछ संपन्न हो जाता है।मानस पूजा में सिर्फ भक्ति और भावना के साथ कल्पना शक्ति की जरूरत होती है ।भगवान पदार्थ से परे हैं और फिर सामान्य पूजन में भी तो विविध सामग्रियों को अर्पित करके भक्ति भाव का ही तो प्रदर्शन किया जाता है ।मानस पूजा में न तो सामग्री जुटाने हेतु न तो धन की जरुरत होती है और न ही समय की ।

                   मानस पूजा में पल भर में ही ब्रह्माण्ड की सैर कर आते हैं और इससे भी परे सभी लोकों तक पहुँच अपने आराध्य की आराधना कर आते हैं ।इस प्रक्रिया में हमारा मन निश्चित ही संसार से दूर ईश्वर के चरणों में एकाग्र होने लगता है।इस तरह आराधक जब अपने आराध्य के चरणों में प्रार्थना करता है तब मन को जो आनंद और शान्ति मिलती है इसकी तो बस कल्पना ही की जा सकती है ।

इस मनःस्थिति में आराधक को सृष्टि के कण-कण में अपने आराध्य की ही छवि दिखने लगती है।मानस पूजा के सर्वश्रेष्ठ व प्रभावशाली रूप के कारण ही आचार्य शंकर ने आध्यात्म -पिपासुओं के मार्गदर्शन हेतु शिवमानस पूजा स्रोत की रचना की ।जिसमें से कुछ भावानुवाद-- 

हे दयानिधे ! हे पशुपते ! यह रत्ननिर्मित सिंहासन, शीतल जल से स्नान , नाना रत्नावलिविभूषित दिव्य वस्त्र, कस्तूरी की गंध से समन्वित चंदन, जूही, चंपा और विल्पत्र से रचित पुष्पांजलि तथा धूप और दीप यह सब मानसिक ( पूजोपहार ) ग्रहण कीजिए।

हे शंभो ! मेरी आत्मा आप हैं, बुद्धि पार्वती जी हैं, प्राण आपके गण हैं, शरीर आपका मंदिर है, संपूर्ण विषय-भोग की रचना आपकी पूजा है , निद्रा समाधि है , मेरा चलना-फिरना आपकी परिक्रमा है तथा संपूर्ण शब्द आपके स्रोत हैं, इस प्रकार मेरे जो-जो कर्म हैं, वे सब आपकी आराधना ही है।

           ●●● भाव के भूखे हैं भगवान ●●●

वस्तुतः भगवान को किसी वस्तु अथवा पदार्थ की आवश्यकता नहीं, वे तो भाव के भूखे हैं, पदार्थ के नहीं ।यदि वे भाव के भूखे न होते तो शबरी के झूठे बेरों को स्वीकार कर उसे नवधा भक्ति भला क्यों प्रदान करते ? फिर वे सूरदास की बाँह भी क्यों पकड़ते ? दुर्योधन के छप्पन भोग छोड़कर विदुर की पत्नी के हाथों केले के छिलके का भोग भला क्यों स्वीकारते ।

शास्त्रों में ऐसे अनेक भक्तों के उदाहरण हैं जिनसे यह प्रमाणित होता है कि भगवान तो भाव के भूखे हैं, पदार्थ के नहीं ।मानस पूजा में भक्त अपने आराध्य को मुक्तामंडित से सजाकर , स्वर्ण सिंहासन पर विराजमान करता है ।स्वर्गलोक की मंदाकिनी गंगा के शीतल जल से अपने आराध्य को स्नान कराता है, कामधेनु गौ के दुग्ध से पंचामृत का निर्माण करता है ।पृथ्वी रूपी गंध का अनुलेपन करता है ।कुबेर की पुष्पवाटिका से स्वर्णकमल पुष्पों का चयन करता है ।

साधक अपने आराध्य से प्रेम की अनंत गहराइयों में उतरकर भावपूर्वक कहता है - हे प्रभु ! मैं संसार के सभी उपचारों को आपके चरणों में समर्पित करत हूँ ! हे प्रभु ! अब मेरा   अपना  कुछ भी नहीं, मैंने अपना सब कुछ आपको ही समर्पित किया है ।हे प्रभु! आप इसे स्वीकार करें ।

हृदय से निकले ये एक-एक शब्द हमारे अंतस को प्रभुप्रेम की पराकाष्ठा तक पहुँचाते हैं ।चित्त एकाग्र व सरस हो जाता है , इससे बाह्य पूजा में भी आनंद की अनुभूति होने लगती है, साथ ही मन ध्यान व समाधि में डूबने लगता है और इस प्रकार भक्त और भगवान, आराधक और आराध्य, दोनों में एकात्म स्थापित हो जाता है।

कहते हैं कोई भी शुभ कर्म बारह वर्ष तक नियमित करने पर अपना फल अवश्य प्रदान करता है ।अतः प्रचलित पूजन विधि के साथ-साथ उसमें पहले या बाद में मानसिक पूजा भी नियमित करते रहें तो उसका फल मिलता अवश्य है।मानस पूजा में प्रेम, भक्ति, ज्ञान, वैराग्य, ध्यान व समाधि स्वयं ही घटित होने लगते हैं व आराधक को आराध्य के आनंदलोक तक पहुँचा देते हैं, साथ ही आध्यात्म के उच्च शिखर पर भी।

हम कहीं भी हों , जब हमें ईश्वर का स्मरण हो , तभी हम मानस पूजा करके स्वयं को ईश्वर से जोड़ सकते हैं ।मानस पूजा से साधक के अन्दर दिव्य ऊर्जा की वृद्धि होती है, उसका अंतर्मन प्रकाशित होने लगता है, साधक को अलौकिक अनुभूतियाँ होने लगती हैं और अंततः वह समाधि की ओर अग्रसर होने लगता है ।अतः सचमुच बड़ी अद्भुत है , बड़ी अलौकिक है मानस पूजा।

सादर अभिवादन व धन्यवाद ।

Thursday, May 28, 2020

श्रीमद्भगवद्गीता---अर्जुन के श्री कृष्ण के सखा से शिष्य बनने के क्षण

   ●● अर्जुन के श्री कृष्ण के सखा से शिष्य बनने के क्षण ●●
अर्जुन भगवान श्री कृष्ण के सम्बन्धी व अच्छे मित्र थे ।भगवान श्री कृष्ण को भी अर्जुन से विशेष लगाव था ।श्री कृष्ण के दिव्य व्यक्तित्व के बारे में अर्जुन ने सुना था , कुछ अनुभव उन्होंने स्वयं भी किए थे ।विश्वास था उन्हें अपने सखा श्री कृष्ण पर।लेकिन जब श्री मद्भगवद्गीता के ग्यारहवें अध्याय में भगवान ने अर्जुन को विश्व रूप का दर्शन दिखाया ।तब उनका संशय , विश्वास में बदल गया , अर्थात अब उन्हें पूर्ण विश्वास हो गया कि  श्री कृष्ण ही सम्पूर्ण सृष्टि के अधिष्ठाता हैं ।सृष्टि के कण-कण में, समय के क्षण-क्षण में श्री कृष्ण की ही सत्ता है।उन्होंने भगवान की महिमा का स्तवन करते हुए कहा --- 

"वायुर्यमोऽग्निर्वरुणः शशांकः प्रजापतिस्त्वं प्रपितामहश्च ।
नमो नमस्तेऽस्तु सहस्त्रकृत्वः पुनश्च भूयोऽपि नमो नमस्ते ।।"

"हे भगवन ! आप वायु, यम ,अग्नि, वरुण, चंद्रमा, प्रजा के स्वामी ब्रह्मा और ब्रह्मा के भी पिता हैं ।आपके लिए हजारों बार नमस्कार हो ।आपके लिए फिर-फिर , बार-बार नमस्कार ।"  अर्जुन अपने इस स्तवन में भगवान श्री कृष्ण को जीवन के अधिष्ठाता के रूप में नमन करते हैं ।अर्जुन कहते हैं-- हे अनंत सामर्थ्य वाले ! आपके लिए आगे से और पीछे से भी नमस्कार । हे सर्वात्मन ! आपके लिए सब ओर से ही नमस्कार ; क्योंकि अनंत पराक्रमशाली आप सब संसार को व्याप्त किए हुए हैं ।इस तरह आप ही सर्वरूप हैं ।

अब अर्जुन ने सम्पूर्ण को जान लिया था ।अर्जुन को यह लगने लगा कि मैं तो भगवान को सखा मानकर बिना सोचे समझे  कुछ भी कहता रहता था।साथ खाता था , खेलता था , घूमता था । कहीं अनजाने में मुझसे कुछ भूलें तो नहीं हो गईं।ऐसा विचार करके अर्जुन भगवान से क्षमा माँगने लगे ।

   सखेति मत्वा प्रसभं यदुक्तं , हे कृष्ण हे यादव हे सखेति।
     अजानता महिमानं तवेदं, मया प्रमादात्प्रणयेन वापि ।।
    यच्चावहासार्थमसत्कृसोऽसि , विहारशय्यासनभोजनेषु ।
   एकोऽथवाप्यच्युत तत्समक्षं , तत्क्षामये त्वामहमप्रमेयम् ।। 

अर्थात-- हे परमेश्वर ! आपके इस प्रभाव को न जानते हुए , आप मेरे सखा हैं, ऐसा मानकर , प्रेम से अथवा प्रमाद से भी , हे कृष्ण ! हे यादव !  हे सखे ! जो कुछ बिना सोचे समझे मैंने कहा है।हे अच्युत ! जो मेरे द्वारा विनोद में, विहार , शय्या, आसन और भोजनादि के समय में अकेले अथवा उन सखाओं के सामने  भूल वश कोई अपराध किए गए हैं । वे सब अप्रमेय स्वरूप अर्थात अचिंत्य प्रभाव वाले अपराधों के लिए मैं आपसे क्षमा चाहता हूँ ।

श्रीमद्भगवद्गीता में, अर्जुन के द्वारा कहे हुए ये दो श्लोक बड़े विलक्षण हैं ।अर्जुन क्षमा माँग रहे हैं श्री कृष्ण से ।इससे पहले तक
श्रीमद्भगवद्गीता में अर्जुन अपने संशय प्रकट कर रहे थे ।उनके विषाद से शुरू हुई थी यह यात्रा ।उनका यह विषाद मोह से प्रारंभ हुआ था ।पितामह भीष्म व आचार्य द्रोण , जिनकी वह पूजा करते थे , जिनसे उन्हें प्यार व अपनत्व मिला था , उनसे वह युद्ध कैसे करें  ? शंकाओं से घिरे उनके किंकर्तव्यविमूढ़ मन ने श्री कृष्ण से समाधान की याचना की।कहा --

यत्छ्रेयः स्यान्निश्चितं ब्रूहि तन्मे "शिष्यस्तेऽहं शाधि मां त्वां प्रपन्नं ।।"

अर्थात   जो निश्चित कल्याण करने वाली हो , वह बात मुझे कहिए,  मैं आपका शिष्य हूँ, आपकी शरण में हूँ ।आप मुझे शिक्षा दें।

यहीं से प्रारंभ हुई थी गीताकथा , श्री कृष्ण के उपदेश व अर्जुन के कथन । श्री कृष्ण के दिव्य व्यक्तित्व को उन्होंने सुना और कभी-कभी अनुभव भी किया था ।वैसे भी पांडुपुत्रों का सम्पूर्ण जीवन विकट संकटों से गुजरा था ।सदा ही आपदाएँ-विपदाएँ उनके जीवन की परिभाषाएँ बनती रही थीं ।उन आपदाओं में श्री कृष्ण उनके सहयोगी बने थे ।इस पूरे विपदाओं से परिपूर्ण जीवनकाल में उन्हें पितामह भीष्म व आचार्य द्रोण का निश्छल स्नेह व अपनत्व मिला था ।

अब युद्ध भूमि में उन्हीं के साथ युद्ध, ऐसे में कहाँ पाएँ समाधान ? तो श्री कृष्ण को उन्होंने युद्ध भूमि में गुरू रूप में वरण किया ।भगवान श्रीकृष्ण के उपदेशों का श्रवण करते रहे ।बुद्धि की उलझनें शान्त होती गईं ।अंतःकरण के उद्वेग,आवेग भी शान्त होते गए ।इस शांत मनःस्थिति में उन्होंने अनुभव किया कि जिन्हें ( अपने सखा को ) उन्होंने गुरू रूप में वरण किया था , वे तो साक्षात परमेश्वर हैं ।

और तब श्रीमद्भगवद्गीता में, अर्जुन की चेतना में एक नया आयाम प्रकट हुआ ।उन्होंने श्रवण किया श्री कृष्ण की विभूतियों को ।अद्भुत था यह सब अपूर्व व अश्रुतपूर्ण, परंतु अभी भी श्री कृष्ण कह रहे थे और अर्जुन सुन रहे थे ।ईश्वरीयता का साकार होना , इसका साक्षात्कार होना अभी भी बाकी था ।हालाँकि इस दौरान विश्वास दृढ़ हुआ था , आस्था मजबूत हुई थी , शंकाकुल मन शान्त हुआ था , पर स्पष्ट अनुभूति नहीं हुई थी , और अंतर्मन कुछ गहरे में कहने लगा था कि श्री कृष्ण कुछ विशेष हैं ।तब आखिर कौन हैं ये ? और तब अर्जुन का मन आखिर पूछ ही बैठा--- 

'आख्याहि मे को भवानुग्ररूपो ? इस उग्र रूप में आप हैं कौन ? 

यहाँ पर गीता के उपदेश ने और अर्जुन की चेतना ने फिर से नए आयाम का स्पर्श किया ।अर्जुन ने अनुभव की -- श्री कृष्ण की ईश्वरीयता ।उनका ईश्वर रूप ।बड़ी सुस्पष्ट, सर्वथा प्रकट , संपूर्ण रूप से सघन हुई यह अनुभूति ।अब कोई शंका नहीं रही ।सभी शंकाएँ भगवत्ता में विलीन होतीं गईं ।अनुभूतियाँ बदलती हैं, तो अभिव्यक्ति भी बदलती है।

अब अर्जुन को अपना व्यक्तित्व, अपना अस्तित्व श्री कृष्ण में समाता हुआ लगा ।यह सब कुछ ऐसा था कि उससे इन्कार नहीं किया जा सकता था ।इसे स्वीकार किए बिना कोई अन्य उपाय न था ।साक्षात परमेश्वर सम्मुख खड़े होकर अपना परिचय दे रहे थे ।
वही  श्री कृष्ण, जिन्हे वे अब तक  अपने मित्र के रूप में, संबंधी के रूप में समझते थे ।उन्हीं मित्र को अब अर्जुन साक्षात ईश्वर के रूप में अनुभव कर रहे थे ।


           "सारथी बनकर पार्थ को ज्ञान गीता का दिया
           विश्व का दर्शन दिखाकर धन्य अर्जुन को किया"

धन्य है अर्जुन, जिन्होंने  अपने जीवन में  साक्षात परमेश्वर का   सान्निध्य प्राप्त किया । 

सादर अभिवादन व धन्यवाद ।


Wednesday, May 27, 2020

ज्योतिष शास्त्र में जन्म के क्षण का विशेष महत्व क्यों है ?

  ●●ज्योतिष में जन्म के क्षण का विशेष महत्व क्यों है  ?●●
जीवन का हर पल अपने आप में महत्वपूर्ण है लेकिन जन्म का क्षण व्यक्ति को जीवनभर प्रभावित करता रहता है। जब कभी हम किसी ज्योतिषी से अपनी ग्रह-दशा के बारे मे पूछते हैं तो वे हमारे नाम आदि जानकारियों के साथ ।।जन्म स्थान व जन्म के समय का विवरण अवश्य माँगते हैं ।

ज्योतिष को लोग एक धर्मशास्त्र के रूप में देखते हैं, परंतु वास्तविकता यह है कि यह एक महाविज्ञान है।ज्योतिष के मर्मज्ञ एवं आध्यात्मिक ज्ञान के विशेषज्ञ, दोनों ही एक स्वर से इस सत्य को स्वीकारते हैं कि मनुष्य जैसे उच्चस्तरीय प्राणी की स्थिति में परिवर्तन उसके कर्मों, विचारों, भावों एवं संकल्पों के अनुसार होता है।इसीलिए जन्म का क्षण विशेष महत्व रखता है।

 ●-  जन्म के क्षण का विशेष महत्व क्यों है ? इस संदर्भ में कहा जा सकता है कि प्रत्येक क्षण में ब्रह्माण्डीय ऊर्जा की विशिष्ट शक्तिधाराएँ किसी-न-किसी बिन्दु पर किसी विशेष परिमाण में मिलती हैं ।मिलन के इन्हीं क्षणों में मनुष्य का जन्म होता है ।इस क्षण में यही निर्धारित हो पाता है कि ऊर्जा की शक्तिधाराएँ भविष्य में किस क्रम में मिलेंगी और जीवन पर अपना क्या प्रभाव डालेंगी।

मनुष्य के जन्म का क्षण सदा ही उसके साथ रहता है।जन्म के क्षण का विशेष महत्व है ; क्योंकि यह क्षण बताता है कि जीवात्मा किन कर्मबीजों , प्रारब्धों व संस्कारों को लेकर किन और कैसे ऊर्जा-प्रवाहों के मिलन बिंदु के साथ जन्मी है ।

जन्म का क्षण इस विराट ब्रह्मांड में मनुष्य को व उसके जीवन को एक विशेष स्थान देता है।यह कालचक्र में ऐसा स्थान होता है , जो सदा अपरिवर्तनीय है।इनके मिलन के क्रम के अनुरूप ही सृष्टि, व्यक्ति, जन्तु, वनस्पति, पदार्थ, घटनाक्रम इत्यादि जन्म लेते हैं ।इसी क्रम में उनका विलय-विसर्जन भी होता है , जिसे सामान्य भाषा में इन सभी की मृत्यु अथवा स्वरूप का विसर्जन भी कह सकते हैं ।

ज्योतिर्विज्ञान के अन्वेषक महर्षियों ने इस ब्रह्माण्डीय ऊर्जा-प्रवाहों को चार चरणों वाले सत्ताइस नक्षत्रों, बारह राशियों एवं नवग्रहों में वर्गीकृत किया है ।इनमें होने वाले परिवर्तन-क्रम को उन्होंने विंशोत्तर , अष्टोत्तर एवं योगिनी नक्षत्रों के क्रम में देखा है ।इनकी अंतर एवं प्रत्यंतर दशाओं के क्रम में इन ऊर्जा-प्रवाहों के परिवर्तन क्रम की सूक्ष्मता समझी जाती है ।

ज्योतिर्विज्ञान को यदि अच्छी तरह समझ लिया जाए तो मनुष्य अपनी मौलिक क्षमताओं को पहचान सकता है और उन्हें पहचान कर अपने स्वधर्म की खोज भी कर सकता है ।उस स्थिति में वह कालचक्र में अपनी स्थिति को प्रभावित करने वाले ऊर्जा-प्रवाहों के क्रम को पहचान कर ऐसे अचूक साधना विधान को अपना सकता है, जिससे कालक्रम के अनुसार परिवर्तित होने वाले ऊर्जा-प्रवाहों के क्रम से उसे क्षति न पहुँचे।ज्योतिष के ज्ञान का यही विशेष महत्व है ।

महादशाओं ,अंतर्दशाओं एवं प्रत्यंतरदशाओं में ग्रहों के मंत्र, दान की विधियों, मणियों, औषधियों का प्रयोग करके ग्रहों की दशाओं के दुष्प्रभावों से बचा जा सकता है और जीवन में सफलता अर्जित की जा सकती है ।ज्योतिष ज्ञान की अनभिज्ञता होने पर भी गायत्री मंत्र एवं महामृत्युंजय मंत्र की निरंतर उपासना व्यक्ति को जीवन के शिखर पर पहुँचा कर रहती है।

यदि हम ज्योतिष शास्त्र के ज्ञान नहीं समझ सकते तो गायत्री मंत्र या महामृत्युंजय मंत्र की निरंतर उपासना से अपने जीवन को श्रेष्ठ
बना सकते हैं ।

सादर अभिवादन व धन्यवाद ।

Friday, May 22, 2020

ज्योतिष शास्त्र का अर्थ, सौर जगत में रहने वाले सात ग्रह, महाभारत में शिव के अनुसार ज्योतिष, आधुनिक युग में ज्योतिषशास्त्र का परिवर्तित रूप,

                ●●● ज्योतिष शास्त्र का अर्थ  ●●●
"ज्योतिषां सूर्यादिग्रहाणां बोधकं शास्त्रम्"  -- अर्थात सूर्यादि ग्रह और काल का बोध करानेवाले शास्त्र को ज्योतिष शास्त्र कहा जाता है ।ज्योतिष शास्त्र में मुख्य रूप से ग्रह, नक्षत्र आदि के स्वरूप, संचार , परिभ्रमण काल , ग्रहण और स्थिति से सम्बन्धित घटनाओं का निरूपण एवं शुभाशुभ फलों का कथन किया जाता है । नभमंडल में स्थित ग्रह-नक्षत्रों की गणना एवं निरूपण मनुष्य जीवन के लिए महत्वपूर्ण होते हैं ।

ज्योतिष शास्त्र के कर्म विश्लेषण में अतीत यानी कि पूर्वजन्म , वर्तमान अर्थात यह जन्म एवं भविष्य अर्थात भावी जन्म-- सभी सम्मिलित हैं ।जीवन के दृश्य-अदृश्य सभी आयामों की जितनी सम्यक व्याख्या ज्योतिष में है, वैसी अन्यत्र कहीं नहीं है।अनगिनत वैज्ञानिक प्रयोगों- परीक्षणों से यह प्रमाणित हो चुका है कि खगोल के प्रभाव भूगोल पर पड़ते हैं और यह खगोल-भूगोल एवं प्रकृति के सभी दृश्य-अदृश्य कारक मिलकर मानव-जीवन पर अपना प्रभाव डालते हैं ।

ज्योतिष शास्त्र में व्यक्तित्व को विचार, क्रिया और अनुभव के रूप में निरूपित किया गया है।इसी को दैहिक, मानसिक और आध्यात्मिक रूप भी कहा गया है ।मानव जीवन के बाह्य व्यक्तित्व एवं आंतरिक व्यक्तित्व के तीन-तीन रूप एवं एक अंतःकरण-- इन सात के प्रतीक सौर जगत में रहने वाले सात ग्रह माने गए हैं ।व्यक्तित्व के ये सात आयाम सभी प्राणियों में समान नहीं होते ।कर्मानुसार इनकी स्थिति और परिस्थितियाँ होती हैं ।

ग्रह, नक्षत्र, तारे, राशियाँ, मंदाकिनियाँ , निहारिकाएँ , मनुष्य, अन्य प्राणी, वृक्ष, चट्टानें आदि विश्व ब्रह्माण्डीय घटक---  प्रत्यक्ष व परोक्ष रूप से एक-दूसरे को प्रभावित एवं आकर्षित करते हैं ।इन ग्रह नक्षत्रों का मानव जीवन पर सम्मिलित प्रभाव पड़ता है ।ये कभी कष्ट देते हैं तो सभी कष्ट दूर करते हैं ।हालाँकि यह सब होता है हमारे ही शुभ व अशुभ कर्मों के अनुसार, पर होता अवश्य है।ज्योतिर्विज्ञान के अध्ययन एवं उपयोग से दैवज्ञ को मानव जीवन के सभी क्षेत्रों के बारे में गहरी अंतर्दृष्टि प्राप्त हो जाती है।

     ●●● सौर जगत में रहने वाले सात ग्रह ●●●

●बाह्य व्यक्तित्व के तीन रूप -- बृहस्पति, मंगल और चन्द्रमा●

● बृहस्पति -----बाह्य रूप के तीन रूपों में प्रथम रूप विचार का प्रतीक बृहस्पति है।यह ग्रह प्राणिमात्र के शरीर का प्रतिनिधित्व करता है और शरीर संचालन के लिए रक्त प्रदान करता है।शारीरिक रूप से यह पैर , जंघा, जिगर, पाचन-क्रिया , रक्त एवं नसों का प्रतिनिधित्व करता है।कार्य व्यापार में बृहस्पति का संबंध धर्म और कानून से है।यह पुजारी, मंत्री, न्यायाधीश, दान आदि से संबंधित है ।आध्यात्मिक दृष्टिकोण से यह सौन्दर्य, प्रेम, शक्ति, भक्ति, व्यवस्था, बुद्धि, ज्योतिष, तंत्र-मंत्र आदि को बढ़ावा देता है।

● मंगल --- बाह्य रूप के द्वितीय रूप का प्रतीक मंगल है ।मनुष्य में जितने भी उत्तेजक और संवेदनशील आवेग हैं, वे सभी इसी से नियंत्रित होते हैं ।यह मुख्य रूप से इच्छाओं का प्रतीक है ।कार्यक्षेत्र में मंगल --- सैनिक, चिकित्सक, प्रोफेसर, इंजीनियर, रसायनविद् , मशीन कार्य करने वाले , खेल , कारीगर आदि क्षेत्रों का प्रतिनिधित्व करता है ।इसके कारण व्यक्तित्व में साहस, दृढ़ता, आत्मविश्वास, क्रोध, एवं अधिकार भाव पैदा होते हैं ।

● चन्द्र ----  बाह्य व्यक्तित्व का तृतीय रूप चंद्रमा है।चंद्रमा शारीरिक चेतना पर प्रभाव डालता है तथा मस्तिष्क में उत्पन्न होने वाले परिवर्तनों को नियंत्रित करता है।शारीरिक रूप से इसका संबंध पेट, पाचन शक्ति, आँत , स्तन, गर्भाशय, आँखों से है।चंद्रमा श्वेत रंग , जल , नसों, भोजन पर प्रभाव डालता है।आत्मिक दृष्टि से यह संवेदना, आंतरिक इच्छा, उतावलेपन, भावनाओं, कल्पनाओं एवं सतर्कता में अभिवृद्धि करता है।
 
        ●आंतरिक व्यक्तित्व के तीन रूप-- शुक्र, बुध, सूर्य●

● शुक्र ----- आंतरिक व्यक्तित्व के प्रथम रूप का प्रतीक शुक्र है।   शुक्र -- सूक्ष्म मानव चेतना को प्रभावित करता है ।शुक्र निस्स्वार्थ भाव से जीवमात्र के प्रति मातृत्व भावना का विकास करता है।इसका संबंध नृत्य, गायन, वादन,कलात्मक वस्तुओं व भोगरूपी साधन-सुविधाओं से है।शारीरिक रूप से शुक्र -- गले, गुरदे , आकृति, वर्ण , केश आदि से संबंधित है।यह सौन्दर्य का प्रतिनिधित्व करता है ।आत्मिक रूप से यह व्यक्ति को स्नेह, सौन्दर्य, ज्ञान,आनंद, विशेष प्रेम , स्वच्छता, कुशाग्र बुद्धि,कार्य क्षमता प्रदान करता है ।

● बुध -- आंतरिक व्यक्तित्व के द्वितीय रूप का प्रतिनिधि बुध है ।यह मुख्य रूप से मस्तिष्क, स्नायु क्रिया, जिह्वा, वाणी , भुजाएँ व अन्य अंगों पर प्रभाव डालता है।कार्य व्यापार में यह शिक्षा,विज्ञान, साहित्य संपादन, बुद्धिजीवी भाव एवं व्यापार को बढ़ाता है।यह  समझ, स्मृति, तर्क, विश्लेषण से सम्बन्धित है।

● सूर्य ----आंतरिक व्यक्तित्व के तृतीय रूप का प्रतिनिधि सूर्य है। यह पूर्ण देवत्व की चेतना का प्रतीक है ।यह पूर्ण इच्छा शक्ति, ज्ञान शक्ति, सदाचार, विश्राम, शांति, जीवन की उन्नति एवं विकास का द्योतक है।यह राजा, मंत्री, सेनापति, आविष्कारक, पुरातत्ववेत्ता बनाता है।सूर्य --- शरीर में हृदय , रक्त संचालन, नेत्र, दाँत, कान, आँख आदि अंगों का प्रतिनिधित्व करता है ।आध्यात्मिक रूप से यह प्रभुता, ऐश्वर्य,प्रेम, उदारता, महत्वाकांक्षा, आत्मविश्वास, विचारों एवं भावनाओं के संतुलन का प्रतीक है।
            
                ●अंतःकरण का एक रूप -- शनि●
●शनि ---- शनि अंतःकरण का प्रतीक है ।यह बाह्य चेतना एवं अंतश्चेतना से सम्बन्धित है।मूख्य रूप से यह अहं भावना का प्रतीक है, जो विचार एवं कार्य के बीच संतुलन पैदा करता है ।यह जीवन के विविध रहस्यों को अभिव्यक्त करता है।जन्म स्थान का शनि विचारों एवं भावों को सुदृढ़ करता है।शनि व्यक्ति को कृषक, मठाधीश, कृपण, पुलिस अधिकारी, साधु-संन्यासी बनाता है।शनि --- चट्टानी प्रदेश ,बंजर भूमि, चौरस मैदान का प्रतिनिधित्व करता है ।
आध्यात्मिक दृष्टि से शनि तत्त्वज्ञान , विचार ज्ञान, नेतृत्व क्षमता, कार्यपरायणता , आत्मसंयम, धैर्य, दृढ़ता, गंभीरता, चरित्र, सामर्थ्य आदि का प्रतीक है ।शारीरिक दृष्टि से शनि हड्डियों, नीचे के दाँतों, बड़ी आँतों, मांसपेशियों एवं स्नायुतंत्रों आदि को प्रभावित करता है ।शनि कभी किसी पर कृपा नहीं करता है , वह तो मात्र कर्मफल देता है।सृष्टि में ऐसा कोई नहीं है, जो इसके न्याय से बच पाता हो।
इस प्रकार मानव जीवन के साथ ग्रहों का अभिन्न संबंध है।

●राहु --- राहु में शनि के सूक्ष्म प्रभाव अंतर्निहित हैं ।

● केतु -- इसमें मंगल की सूक्ष्मताएँ समाहित हैं ।

  ●●महाभारत, में ज्योतिषशास्त्र के बारे में  शिव कहते हैं-●●

ज्योतिष शास्त्र में वर्णित ग्रह-नक्षत्र किसी के सुख-दुःख का कारण नहीं हैं ।ये तो बस , इनकी सूचना देते हैं ।इस सम्बन्ध में भगवती पार्वती के प्रश्न पूछने पर स्वयं भगवान शिव ने पार्वती के संशय का निवारण किया--

भगवान शिव कहते हैं-- " हे देवि ! तुम्हारा संशय व प्रश्न उचित है ।इस विषय में जो ज्योतिष का सिद्धांत है उसे सुनो। महाभागे ! ग्रह और नक्षत्र मनुष्यों के शुभ और अशुभ की सूचना भर देते हैं ।वे स्वयं कुछ नहीं करते ।मनुष्यों के हित के लिए ज्योतिषचक्र द्वारा भूत और भविष्य के शुभाशुभ कर्मफल का बोध कराया जाता है ।उनके शुभ कर्मों की सूचना शुभ ग्रहों के द्वारा होती है और बुरे कर्मों के फल की सूचना अशुभ ग्रहों के द्वारा ।ग्रह-नक्षत्र किसी को शुभ या अशुभ फल नहीं देते ।सारा अपना ही किया हुआ कर्म , शुभ व अशुभ फल का उत्पादक होता है ।ग्रहों ने कुछ किया है - यह कथन तो लोगों का मिथ्याप्रवाद है।" ऐसा निश्चित जानकर ज्योतिष के प्रकाश में सदा शुभ कर्मों के लिए तत्पर रहना चाहिए।

यह सत्य है कि भारत में प्रादुर्भाव होकर ज्योतिर्विज्ञान विश्वभर में 
प्रसारित हुआ ।इस महान विज्ञान के विकास के प्रमाण भारत में ही नहीं, विश्व के विभिन्न स्थानों पर विभिन्न भाषाओं में लिपिबद्ध हैं, जो ज्योतिर्विज्ञान की महान गरिमा का बोध कराते हैं ।मनुष्य की प्रकृति एवं उसके स्वभाव का गहरा संबंध ज्योतिर्विज्ञान से है जिसके अंतर्गत पिंड एवं ब्रह्माण्ड, व्यष्टि एवं समष्टि, आत्मा और परमात्मा के संबंधों का अध्ययन सम्मिलित रूप से किया जाता है।

पुरातन अतीत में ज्योतिर्विद्या का न केवल सैद्धान्तिक ज्ञान-विज्ञान दुनिया के कोने-कोने में लोकप्रिय हुआ , बल्कि अनेक स्थानों पर अंतरिक्षीय गतिविधियों के अध्ययन-पर्यवेक्षण के लिए विलक्षण वेधशालाओं का निर्माण भी हुआ, जिनकी निर्माण-प्रक्रिया और उनमें सन्निहित विशेषताएँ अभी भी वैज्ञानिकों के लिए रहस्यमय बनी हुई हैं ।

  ●● आधुनिक युग में ज्योतिषशास्त्र का परिवर्तित रूप ●●

जैसे-जैसे समय बीतता गया, वैसे-वैसे ज्योतिष शास्त्र का रूप भी बदलता रहा , ज्योतिष शास्त्र की विद्या व विज्ञान पर अनेक आघात हुए।अल्पज्ञ तथा निहित स्वार्थी लोगों के हाथ में पहुँच जाने पर इसकी घोर अवनति हुई।ज्योतिषशास्त्र के मूल सिद्धांत कर्मफल विधान एवं इसके आध्यात्मिक तत्त्वदर्शन से अपरिचित लोगों ने इसके रूप को ही परिवर्तित कर दिया ।

आजकल तो फलित ज्योतिष लोगों को डराने-धमकाने और उन्हें अकर्मण्य बनाने का माध्यम बन गया है।ज्योतिषशास्त्र एक व्यवसाय बनकर रह गया है ।यह प्रचलन आज ज्योतिर्विज्ञान का परिहास कर रहा है। आज आवश्यकता इस बात की है कि भारत की संतानें इस गौरवपूर्ण विज्ञान की वैज्ञानिकता को पुनर्जीवित एवं पुनः प्रतिष्ठित करने का प्रयास करें ।
     
      ग्रह-नक्षत्र किसी का शुभ व अशुभ नहीं करते हैं ।हमारा किया हुआ कर्म ही , शुभ व अशुभ फल का उत्पादक होता है ।


सादर अभिवादन व धन्यवाद ।




Thursday, May 21, 2020

समय बड़ा बलवान, महाराज बलि का सुशासन,राजा बलि महान दानी, महाराज बलि के जीवन में समय की विपरीतता (वामन अवतार)


                 ●●● समय बड़ा बलवान ●●●
समय बड़ा बलवान है।समय की महिमा से जो अवगत होते हैं, वे उसको प्रणाम करके समय के अनुकूल स्वयं को ढाल लेते हैं ।काल का साथ होता है तो सब कुछ अनुकूल हो जाता है और जब समय साथ छोड़ देता है तो सब कुछ प्रतिकूल और विपरीत हो जाता है ।समय जब साथ छोड़ता है तो बड़े-बड़े भी धराशायी हो जाते हैं ।

बड़े-बड़े साम्राज्य, जिनकी कहीं कोई सीमा तक नजर नहीं आती है , जिनका सूर्य कभी ढलता नहीं है , इतने बड़े एवं व्यापक साम्राज्य को भी समय क्षण-भर में धूल- धूसरित कर देता है।समय ही है , जो बड़े से बड़े बलशाली को पराजित कर निर्बल कर देता है।समय , समय ही होता है , इससे बड़ा कुछ नहीं ।समय उठाता है तो एक तिनका भी पहाड़ बन जाता है , एक असहाय निर्बल भी समृद्ध एवं सम्पन्न हो जाता है ।

समय जब साथ देता है तो कठिन-से-कठिन परिस्थितियाँ अत्यन्त सहज व सरल हो जाती हैं, लगता है जैसे कुछ हुआ ही न हो।समय का साथ सबसे बड़ा साथ है और समय की विपरीतता सबसे बड़ा दंड है।विपरीत समयमें कोई ज्ञान, कोई तप, कोई साधन काम नहीं आता है।
           ●●● महाराज बलि का सुशासन ●●●

महाराज बलि , वैभव-विलास के प्रतीक स्वर्ग में इंद्र के पद को सुशोभित कर रहे थे इंद्रासन पर दैत्यकुल के महाराजा बलि प्रतिष्ठित थे।यह बात देवताओं को प्रीतिकर तो कदापि नहीं थी , परंतु सत्य यही था कि बलि, इंद्र के पद को सुशोभित कर रहे थे।राजा का आचरण जैसा होता है , उसी के अनुरूप उसके मंत्रीगण आचरण करते हैं ।प्रजा भी उसी के अनुसार अपनी जीवनशैली का निर्वहन करती है।

इंद्रासन पर आसीन महाराज बलि की सभा में कई नवीनताएँ ऐसी थीं, जिनकी कभी किसी ने कल्पना भी नहीं की थी।इंद्र की सभा में राग-रंग, हास-विलास, भोग-विलास के साधन उपलब्ध थे , जहाँ त्रैलोक्य सुंदरी अप्सराओं के नर्तन से दसों दिशाएँ गुंजायमान रहती थीं, अब उनकी जगह सत्संग होता था।महाराज बलि इंद्रासन पाकर भी विचलित नहीं हुए थे और उनकी सभा में तप एवं ज्ञान अजस्र धारा बहने लगी थी।

महाराज बलि महान तपस्वी थे ।दीर्घकालिक अखंड तपस्या का उनको अभ्यास था ।महाराज बलि के शासन-काल में मादक द्रव्यों की गंध के स्थान पर यज्ञधूम्र की पवित्र सुगंध फैलने लगी थी।सभी देवता अपने-अपने कर्तव्य में संलग्न रहते थे ।सम्पूर्ण प्रकृति संतुलित होकर सुचारु रूप से चल रही थी ।प्रकृति के संतुलन में ही मानव कल्याण एवं उसकी समस्त संभावनाएँ सम्मिलित होती हैं, अतः महाराज बलि प्रकृति के शोषण में नहीं, पोषण में विश्वास रखते थे और प्रकृति के पोषण के लिए यज्ञानुष्ठानों का आयोजन करते रहते थे।

महाराज बलि का हर पल, हर क्षण -- श्रेष्ठ कर्मों में नियोजित रहता था ।वे एक पल भी खाली नहीं रहते थे ।उनके पास अपार शक्ति थी , अपरिमित बल था , तप की ऊर्जा से वे ऊर्जान्वित थे , उनकी भक्ति भी असाधारण थी ।

       ●●● महाराज बलि महान दानवीर ●●●

महाराज बलि महान दानवीर थे , उनके द्वार से कभी कोई याचक निराश होकर नहीं लौटता था। उनकी दानवीरता की ख्याति समस्त जगत में फैली हुई थी ।एक बार भगवान विष्णु वामन के भेष में बलि के द्वार पर आए  और कहा --- " बलि ! मुझे तीन पग जमीन  दान में दे दो।  दान में मुझे सिर्फ तीन पग जमीन ही चाहिए ।क्या मुझ ब्राह्मण के लिए तुम्हारे पास तीन पग जमीन नहीं है।"

बलि का हृदय निश्छल और निष्पाप था , परंतु भगवान विष्णु वामन के भेष में बलि को छलने आए थे।बलि को उनके गुरू शुक्राचार्य ने इस छल के प्रति बलि को आगाह भी किया, परंतु बलि ने कहा-- " हे गुरुवर ! स्वयं भगवान मेरे द्वार पर याचक बनकर , हाथ फैलाकर कुछ माँगने आए हैं, मैं इन्हें मना कैसे कर सकता हूँ ? मैं तो अपना दान देने का कर्तव्य अवश्य पूरा करूँगा।"
और महाराज बलि ने वामन भगवान से कहा -- "मैं आपको तीन पग जमीन दान देता हूँ ।तब भगवान विष्णु ने वामन रूप से विराट रूप में परिवर्तित होकर धरती-आसमान को नाप लिया और तीसरे पग से बलि को पाताल भेज दिया।

●●● महाराज बलि के जीवन में समय की विपरीतता ●●●

जब भगवान ने विराट रूप में आकर राजा बलि का सारा साम्राज्य ले लिया और बलि को पाताल भेज दिया तब बलि ने समझ लिया कि यह कालचक्र  ( समय ) की विपरीतता ही है जो ऐसी अवस्था का सामना करना पड़ रहा है ।वे अब एक साधारण इन्सान बनकर पाताललोक में रहने लगे ।वे इस अवस्था में भी अत्यन्त प्रसन्न थे , उन्हें किसी प्रकार की कोई परेशानी नहीं थी ।वे एक सच्चे भक्त थे और एक भक्त को भक्ति के अलावा और क्या चाहिए ? 

महाराज बलि का साधारण जीवन- यापन करना उनके परिजनों को मंजूर नहीं था। उनके परिजन कहने लगे -- " महाराज आपने एक घूँसे से इंद्र के ऐरावत को मूर्च्छित कर दिया था।आपमें अपरिमित बल है ।आप अब भी एक महान तपस्वी हैं ।आप ज्ञानी भी हैं और काल के चक्र को समझते हैं तो फिर क्यों ऐसी साधारण स्थिति में रह रहे हैं ।

महाराज बलि ने अपने परिजनों को सांत्वनापूर्ण बातों से समझाया ।उन्होंने काल की महत्ता को स्पष्ट किया कि कैसे काल का साथ होता है तो सब कुछ अनुकूल हो जाता है और काल जब साथ छोड़ता है तो सब कुछ विपरीत हो जाता है ।महाराज बलि ने काल के विषय को भली-भाँति समझाया और आगे बोले -- " आज काल हमारे साथ नहीं खड़ा है, अतः ऐसे विपरीत समय में कोई ज्ञान, कोई तप , कोई साधन काम नहीं आता है ।सब कुछ धरा -का-धरा रह जाता है ।"

महाराज बलि ने कहा -- "काल की इस विपरीत दशा में हमें शांत एवं स्थिर बने रहना चाहिए, जो कि स्थिर रहना असंभव है, इसके अलावा और कोई विकल्प नहीं है।प्रभु द्वारा निर्धारित स्थान पर रहकर और अपनी भक्ति के सहारे आने वाले अनुकूल समय की प्रतीक्षा के अलावा और कोई विकल्प नहीं है ।कोई प्रयास-पुरुषार्थ काम नहीं आता है ।इस समय कोई अपना भी साथ नहीं देता है।केवल भगवान ही सुनता है और साथ देता है , अतः इस कठिन समय में भगवान की भक्ति के साथ अपना जीवन व्यतीत कर रहा हूँ ।यही सत्य है।"    ऐसा सुनकर परिजनों को बलि की ईश्वरभक्ति का भाव समझ में आ गया था।

इतिहास में व हमारे शास्त्रों में अनेक ऐसे प्रसंग हैं, जिनसे ज्ञात होता है कि समय बड़ा बलवान है, समय के आगे किसी का वश नहीं चलता ।
सादर अभिवादन व धन्यवाद ।


Wednesday, May 20, 2020

योग का लक्ष्य "कैवल्य" , कैवल्य क्या है ?, अंतर्यात्रा का आरंभ, "कैवल्य" अंतस की आनंद अवस्था

        ●●●   योग का लक्ष्य  कैवल्य ●●●
कैवल्य का अर्थ है-- स्वतंत्र होना, संपूर्ण होना ।अकेले होना , अकेले होने की परम स्वतंत्रता ।किसी वस्तु, किसी व्यक्ति अथवा किसी घटनाक्रम या परिस्थिति पर निर्भरता नहीं ।अपने में, अपने आप से पूरी तरह से संतुष्ट, यही योग का लक्ष्य है ।योगसूत्र में इसी के लिए विधियाँ हैं, विज्ञान हैं, प्रक्रियाएँ हैं ।इन सबका सम्मिलित परिणाम कैवल्य है।

महर्षि पतंजलि ने अपने योगदर्शन को चार अध्यायों में विभाजित किया है ।सूत्रकार ऋषि ने योगसूत्र को चार चरणों या चार पादों में वर्गीकृत किया है ।कैवल्य पाद इनमें से चौथा पाद है इसे चतुर्थ अध्याय भी कह सकते हैं ।पहले के तीन अध्याय-- समाधिपाद, साधनपाद एवं विभूतिपाद -- ये कैवल्यपाद में स्वतः ही समाविष्ट हो जाते हैं ।

 ●●● कैवल्य क्या  है ? महर्षि पतंजलि के अनुसार ●●●

एक बार महर्षि पतंजलि ने अपने आश्रम में साधनारत शिष्यों को प्रश्नों के लिए आमंत्रित किया ।शिष्य उनसे अपनी जिज्ञासा के अनुरूप तरह-तरह के प्रश्न पूछने लगे , इस पर ऋषि पतंजलि ने कहा -- " वही प्रश्न पूछो , जो तुम्हें तुम्हारे स्वरूप का परिचय दे।वही प्रश्न पूछो , जो स्वयं के केन्द्र के निकट हो।"  तब एक शिष्य ने प्रश्न पूछा कि स्वयं के केन्द्र के निकट का प्रश्न पूछने का क्या अर्थ है ? उसकी जिज्ञासा के समाधान हेतु महर्षि पतंजलि ने कहा--- 

   " दूर देखने के पहले अपने निकट देखो ।वर्तमान क्षण के प्रति सचेत रहो ; क्योंकि वर्तमान अपने में भविष्य और अतीत के उत्तर लिए रहता है।अभी तुम्हारे मन में कौन सा विचार आया ? अभी तुम मेरे सामने विश्रांत अवस्था में बैठे हो या तुम्हारा शरीर तनावपूर्ण है ? अभी तुम्हारा ध्यान पूरी तरह से मेरी ओर है या थोड़ा-बहुत ही है ? इस तरह के प्रश्न पूछकर स्वकेन्द्र के निकट आओ । निकट के प्रश्न ही दूर के उत्तरों तक ले जाते हैं ।स्वकेन्द्र की निकटता ही स्वकेन्द्र का परिचय कराती है और स्वकेन्द्र का परिचय ही स्वकेन्द्र में प्रतिष्ठा प्रदान करता है ।"स्वकेन्द्र में हुई यही प्रतिष्ठा कैवल्य है।"

           ●●●अंतर्यात्रा का आरंभ ●●●


योग अंतर्यात्रा के प्रति जागरूकता उत्पन्न करने का साधन है।योग ही जीवन में एक विशिष्ट दृष्टिकोण विनिर्मित करता है।प्रचलित अर्थों में योग, दार्शनिक ज्ञान तक सीमित नहीं है।योग दूर के , सुदूर के प्रश्नों की फिक्र नहीं करता।योग का संबंध स्वकेन्द्र के निकट के प्रश्नों से है।जितने निकट का प्रश्न होता है , उतनी ही अधिक संभावना उसे सुलझाने की होती है।जब हम निकट के प्रश्न का उत्तर पा लेते हैं तो पहला कदम अपने आप उठ जाता है।तब समझो कि अंतर्यात्रा का आरंभ हो गया।

अंतर्यात्रा के आरंभ होने पर धीरे-धीरे वे प्रश्न भी सुलझने लगते हैं, जो दूर के होते हैं।योगसूत्र में अंतर्यात्रा के दौरान गुजरने वाली अवस्थाओं में कैवल्य, समाधिपाद में वर्णित सभी तरह की समाधियों का शिखर अनुभव है।कैवल्य, दूसरी अवस्था साधनपाद में वर्णित सभी साधनाओं का शिखर परिणाम है।यह कैवल्य तृतीय अवस्था अर्थात विभूतिपाद में वर्णित सभी विभूतियों के मध्य शिखर विभूति है।इसके सर्वोच्च शिखर कैवल्यपाद में सभी कुछ अंतर्निहित है।

    ●●● कैवल्य अंतस् की आनंद अवस्था ●●●
अंतस् की आनंद अवस्था के लिए सब लालायित रहते हैं, लेकिन केवल केंद्रस्थ व्यक्ति ही आनंदित हो सकता है, भीड़ भला कैसे आनंदित हो सकती है।भीड़ का कोई व्यक्तित्व नहीं होता।आनंद का अर्थ है -- एक परम मौन और ऐसा मौन तभी संभव है , जब भीतर लयबद्धता हो।जब सारे बेमेल टुकड़ों का मेल हो जाए , वे एक बन जाएँ ।जब हमारे अंदर कोई न हो , बस हम अकेले हों ।तब अपने आप हम आनंदित हो जाएँगे।

कैवल्य शब्द में प्रेरणा है, सचेतना है ।कैवल्य शब्द में केवल समाविष्ट है।इसमें अकेलापन है।अभी तक हम भीड़ की तरह जिए हैं ।कैवल्य की ओर बढ़ने का मतलब यह हुआ कि अब लयबद्ध होने लगे ।भीड़ से अकेलेपन की ओर बढ़ने लगे ।अनेक से एक होने लगे।हमारा एकजुट होना , हमारा केन्द्रीकृत होना हमारी नैसर्गिक आवश्यकता है और जब तक हम केन्द्र को नहीं पा लेते, तब तक हमारे प्रयास व्यर्थ हैं ।इसलिए पहली आवश्यकता है-- केन्द्रबिंदु पर होना और जिसके पास यह केन्द्र है वही अंतस की आनंद अवस्था का अनुभव कर सकता है।

महर्षि पतंजलि के सारे निर्देश, सारे अनुशासन अंतस की आनंद अवस्था के लिए ही हैं ।सभी का हेतु यही कैवल्य है।अंग्रेजी का डिसिप्लिन शब्द भी अनुशासन की भाँति ही सुन्दर है।इसकी जड़, इसका उद्गम वही है , जहाँ डिसाइपल यानी कि शिष्य -- सीखने के लिए प्रतिबद्ध ।

●● कैवल्य का बोध कराने वाली एक प्रेरक बुद्ध कथा ●●

एक बार एक समाज सुधारक भगवान बुद्ध के पास आया ।उसने भगवान से कहा-- " संसार बहुत दुःख में है , आपकी इस बात से मैं सहमत हूँ ।" बुद्ध ने कभी यह कहा ही नहीं कि" संसार दुःख में है।"  बुद्ध का तो वचन है -- " तुम दुःख में हो , संसार नहीं ।जीवन दुःख में है ,संसार नहीं ।लेकिन उस समाज सुधारक ने कहा--"संसार बड़ी पीड़ा में है ।मैं आपसे सहमत हूँ ।अब मुझे बताइए कि मैं क्या कर सकता हूँ  ? बड़ी गहरी करुणा है मुझमें और मैं मानवता की सेवा करना चाहता हूँ ।"
भगवान बुद्ध उसकी ओर देखकर मौन ही रहे ।बुद्ध के शिष्य आनंद ने कहा-- " भगवान यह व्यक्ति सच्चा जान पड़ता है ।इसे राह दिखाइए ।"तब  बुद्ध ने उससे कहा--- तुम संसार की सेवा करना चाहते हो , लेकिन तुम हो कहाँ ?  मैं तुम्हारे भीतर किसी को नहीं देख रहा ।मैं देखता हूँ और वहाँ कोई नहीं है ।तुम्हारा कोई केन्द्र नहीं ।और जब तक तुम्हारे भीतर कोई ठोस केन्द्र नहीं बनता , तब तक तुम्हें कार्य में सफलता नहीं मिलेगी।"  

कह सभी रहे हैं कि संसार बड़े दुःख में है , किंतु वे जो कर रहे हैं, उससे यह दुःख बढ़ रहा है , लेकिन सभी आदत से मजबूर हैं ।दुःख को मिटाने के लिए कैवल्य मंदिर में प्रवेश करना होगा ।स्वयं में, स्वयं को प्रतिष्ठित करना होगा । महर्षि पतंजलि के योगसूत्र के चतुर्थ अध्याय में इसी कैवल्य के सत्य की स्पष्टता है।

सादर अभिवादन व धन्यवाद ।





Sunday, May 17, 2020

सूर्य नमस्कार एक पूर्ण यौगिक अभ्यास , सूर्य नमस्कार के तीन आवश्यक अंग

   ●●●सूर्य नमस्कार एक पूर्ण यौगिक अभ्यास ●●●
सूर्य नमस्कार संपूर्ण स्वास्थ्य को प्रभावित करने वाला एक विशिष्ट यौगिक अभ्यास है , जिसमें बारह आसनों का समावेश है , साथ ही श्वसन प्रक्रिया एवं मंत्र विज्ञान भी इसके साथ जुड़ा है।सूर्य नमस्कार में आसन, प्राणायाम और मंत्रयोग तीनों ही सम्मिलित हैं।
इसका न्यूनतम बीस मिनट का अभ्यास भी संपूर्ण स्वास्थ्य प्रदान करने वाला माना गया है ।

भारतीय योगाचार्यों के अनुसार- सूर्य नमस्कार स्वयं में एक पूर्ण यौगिक अभ्यास है।मात्र सूर्य नमस्कार के नियमित अभ्यास से व्यक्ति सम्पूर्ण स्वास्थ्य लाभ प्राप्त कर सकता है।इस यौगिक अभ्यास को करने में समय भी कम लगता है और इस अभ्यास की प्रक्रिया भी सरल है।इससे शरीर व मन तो स्वस्थ बनते ही हैं, साथ ही व्यक्ति की रोगप्रतिरोधक क्षमता में भी वृद्धि होती है।

वैज्ञानिकों की दृष्टि में सूर्य हमारी पृथ्वी के लिए ऊर्जा का सबसे बड़ा स्रोत है ।प्रातःकाल सूर्य नमस्कार करने से सूर्य की किरणें प्रचुर मात्रा में शरीर में प्रवेश करती हैं, जो स्वास्थ्य के लिए अत्यन्त लाभदायक हैं ।योगशास्त्रों में ऐसा उल्लेख है कि सूर्य नमस्कार मनुष्य के सम्पूर्ण व्यक्तित्व को प्रभावित करता है।इसके नियमित अभ्यास से मस्तिष्क में एक प्रकार की शक्ति आती है , जो मनुष्य को बुद्धिमान बना देती है तथा मनुष्य अपने तनाव , चिंता , द्वंदों का निराकरण करने में सक्षम हो जाता है ।

सूर्य नमस्कार से मनुष्य की सुप्त क्षमताओं का विकास होता है साथ ही अनेक रोगों के निवारण में भी सहायता मिलती है ।'सूर्य नमस्कार'  मन की स्थिरता व आत्मनियंत्रण अथवा आधुनिक जीवन शैली से उत्पन्न तनाव से मुक्ति दिलाने में भी सहायक होता है।वैज्ञानिक दृष्टि से सूर्य नमस्कार में आसनों से शारीरिक स्तर पर, श्वसन से प्राणिक स्तर पर तथा मंत्र ( बीज मंत्रों) से सूक्ष्म सुप्त ग्रन्थियों, उपत्यिकाओं , चक्रों पर प्रभाव पड़ता है।

     ●●● सूर्य नमस्कार के तीन आवश्यक अंग ●●●

       सूर्य नमस्कार के तीन आवश्यक मुख्य अंग हैं--- (1) आसन, (2) श्वसन , (3 ) मंत्र ।

● आसन --- सूर्य नमस्कार में बारह आसनों को सम्मिलित किया गया है, जिनका संबंध सूर्य की खगोलीय यात्रा में पड़ने वाली बारह राशियों से बताया गया है ।इन बारह आसनों के क्रमशः नाम हैं----
प्रणामासन , हस्तोत्थानासन , पादहस्तासन , अश्वसंचालनासन , 
पर्वतासन, अष्टांगासन , भुजंगासन , पर्वतासन , अश्वसंचालनासन,
पादहस्तासन, हस्तोत्थानासन, प्रणामासन ।

● श्वसन --- सूर्य नमस्कार की समस्त गतिविधियाँ श्वसन प्रक्रिया के नियंत्रण के साथ संपन्न की जाती हैं ।प्रत्येक आसन का संबंध पूरक, रेचक, और कुंभक में से किसी एक के साथ निर्धारित है।

● मंत्र---   सूर्य नमस्कार के बारह आसनों में प्रत्येक के साथ एक बीजाक्षर युक्त मंत्र संबद्ध है ।आसनों की स्थिति के अनुरूप ही अभ्यास कर्ता को मंत्रों का उच्चारण एवं मंत्र भावना को आत्मसात् करना होता है । योगाचार्य इन मंत्रों की विवेचना के साथ ही इनकी प्रक्रिया एवं लाभों को भी समझाते हैं ।

अनेक प्रसिद्ध योगकेन्द्रों में सूर्य नमस्कार पर महत्वपूर्ण शोध कार्य किए जाते हैं  ।सूर्य नमस्कार के रूप में योग की विशिष्ट तकनीक के द्वारा शरीर के साथ-साथ मानसिक और भावनात्मक स्वास्थ्य की वृद्धि की विधियों पर शोध अध्ययन किया जाता है ।

अतः यह कहा जा सकता है कि सूर्य नमस्कार एक संपूर्ण यौगिक अभ्यास है।जो नियमित सूर्य नमस्कार का अभ्यास करते हैं वे इस यौगिक प्रक्रिया से अवश्य ही लाभान्वित होते हैं ।

       ॐ सूर्याय नमः, ॐ सूर्याय नमः, ॐ सूर्याय नमः 

सादर अभिवादन व धन्यवाद ।


Saturday, May 16, 2020

चातुर्मास्य, विष्णु तत्व क्या है ? हरिशयनी एकादशी से चातुर्मास्य का प्रारंभ,चातुर्मास्य में आत्मसंयम व त्याग का महत्व,चातुर्मास्य में उपवास, स्वाध्याय व भजन-कीर्तन, स्कंदपुराण में चातुर्मास्य

          ●●● चातुर्मास्य,  विष्णुतत्व क्या है ?  ●●●
वर्षाकाल के चार महीने ( श्रावण, भाद्रपद, आश्विन और कार्तिक )
का समय भगवान विष्णु का योगनिद्रा काल कहलाता है।भगवान विष्णु सर्वव्यापक परमात्मा हैं ।वैदिक पुरुषसूक्त में जिस परमात्मतत्व का निरूपण किया गया है, वह विष्णु तत्व ही है।
ऋग्वेद, श्री हरि की महिमा का गुणगान करते हुए कहता है -- न ते विष्णो जायमानो न जातो देव महिम्नः परमन्तमाप ।अर्थात-- ' हे विष्णु देव ! कोई ऐसा प्राणी न तो उत्पन्न हुआ है और न होने वाला है , जिसने आपकी महिमा का अंत पाया हो।'

भगवान विष्णु निर्गुण हैं और सगुण भी ।वैचारिक दृष्टि में जो परमेश्वर निराकार-निर्गुण है , भाव दृष्टि से वही साकार- सगुण बन जाता है।अव्यक्त ईश्वर भक्तों की भक्ति के वशीभूत होकर व्यक्त भी हो जाता है।धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष प्रदान करने के लिए भगवान विष्णु अपने चारों हाथों में शंख, चक्र, गदा एवं पद्म धारण करते हैं ।उनके सर्वाधिक लोकप्रिय 'ध्यान ' में उन्हें क्षीरसागर में शेषनाग की शय्या पर योगनिद्रालीन दर्शाया गया है ।

   ●●● हरिशयनी एकादशी से चातुर्मास्य का प्रारंभ●●●

भारतीय धर्मशास्त्रों के अनुसार आषाढ़ मास के शुक्ल पक्ष की एकादशी से भगवान विष्णु की योगनिद्रा प्रारंभ होती है ।इसीलिए इस तिथि को  'हरिशयनी एकादशी ' भी कहते हैं ।वैष्णव मन्दिरों में इस तिथि को श्री हरि ( विष्णु भगवान) का शयनोत्सव अत्यन्त श्रद्धा के साथ मनाया जाता है ।श्रद्धालु इस दिन उपवास रखते हैं और रात्रि में भगवान के नाम का स्मरण करने  के साथ जागरण करते हैं ।

आषाढ़ शुक्ल एकादशी, द्वादशी, अथवा पूर्णिमा को चातुर्मास्य उपवास का प्रारंभ किया जाता है ।जब सूर्य कर्क राशि में प्रविष्ट होता है , तब चातुर्मास्य का आरंभ होता है ।आषाढ़ शुक्ल एकादशी से शुरु हुई श्री हरि की योगनिद्रा कार्तिक शुक्ल दशमी तक रहती है।इस चार मास के शयन काल को " चातुर्मास्य " कहा जाता है । 

प्रत्येक मांगलिक कार्य के शुभारंभ के समय पूजन करते समय भगवान विष्णु को साक्षी मानकर ' संकल्प '  किया जाता है । चातुर्मास्य में श्री हरि के योगनिद्रालीन होने के कारण विवाह, मुंडन, यज्ञोपवीत, शिलान्यास, नवगृह प्रवेश व अन्य मांगलिक कार्य नहीं किए जाते हैं ।

    ●●● चातुर्मास्य, आध्यात्मिक साधना काल ●●●

सनातन संस्कृति में चातुर्मास्य का काल आध्यात्मिक साधना काल कहलाता है।भारतीय ऋषि-मुनियों ने चातुर्मास्य में सांसारिक कार्यों का निषेध करके इस काल को आध्यात्मिक साधना हेतु आरक्षित कर दिया है।साधु-महात्मा इन दिनों एक ही स्थान पर रहकर आध्यात्मिक क्रियाओं जैसे भजन , तप आदि में संलग्न रहते हैं ।सनातन धर्मावलंबी चातुर्मास्य के समय का सदुपयोग आध्यात्मिक ऊर्जा एवं पुण्य को अर्जन करने के लिए करते हैं ।

धर्म शास्त्रों के अनुसार चातुर्मास्य में किसी एक वस्तु को त्यागना अवश्य चाहिए ।श्रावण में शाक, भाद्रपद में दही , आश्विन में दूध और कार्तिक में दाल, चना , मटर के त्याग का विधान शास्त्रों में निर्दिष्ट है।इसके अतिरिक्त श्रद्धालु किसी अन्य वस्तु का भी त्याग कर सकते हैं ।जिस वस्तु को त्यागें, उसका दान जरूर करें, तभी उसका पुण्यफल प्राप्त होता है ।इस नियम का पालन करने से व्यक्ति में आत्मसंयम व त्याग की भावना का विकास होता है।

शास्त्रों के अनुसार-- चातुर्मास्य में जिस किसी भी नियम का पालन आस्था के साथ किया जाता है, उसका अनंत फल प्राप्त होता है ।जो लोग आर्थिक परेशानी में हों , वे चातुर्मास्य में लक्ष्मी पति श्री हरि की आराधना करते हुए, केवल फलाहार कर सकते हैं ।

● चातुर्मास्य में उपवास, स्वाध्याय व भजन-कीर्तन का महत्व ●

चातुर्मास्य में श्रद्धालु, संत-महात्मा अपनी-अपनी क्षमता के अनुसार व्रत-उपवास रखते हैं ।सामान्य व्यक्ति चातुर्मास्य में सात्विक भोजन के साथ यथायोग्य धर्माचरण करते हैं, तो भी उन्हें भगवान विष्णु की प्रसन्नता प्राप्त होती है ।

चातुर्मास्य में प्रतिदिन तारों को देखने के उपरांत मात्र एक बार भोजन करने वाला धनवान, रूपवान और माननीय होता है ।जो एक दिन के अंतराल में भोजन करते हुए चातुर्मास्य बिताता है, वह देहावसान के पश्चात सद्गति प्राप्त करता है।भगवान विष्णु के शयन करने पर निरंतर पाँच दिन उपवास करके जो व्यक्ति छठे दिन भोजन ग्रहण करता है , उसे राजसूय, अश्वमेध जैसे महायज्ञों का फल मिलता है।

 जो श्रद्धालु तीन रात उपवास करके चौथे दिन भोजन ग्रहण करते हुए चातुर्मास्य बिताता है, वह भवबंधन से मुक्त होता है ।जो भक्त हरि के श्रवण काल में अयाचित अन्न का सेवन करता है , उसका अपने प्रियजनों से कभी वियोग नहीं होता।

चातुर्मास्य में धर्मग्रंथों के स्वाध्याय द्वारा भगवान विष्णु की अर्चना करने वाला विद्यार्थी महाविद्वान बन जाता है।श्री हरि के सामने बैठकर ' पुरुष-सूक्त' का पाठ करने से बुद्धि का विकास तथा विद्या की प्राप्ति होती है ।जो अपने हाथ में फल लेकर मौन रहते हुए श्रीविग्रह की 108 बार परिक्रमा करता है,वह निष्पाप हो जाता है। 
जो श्रद्धालु चातुर्मास्य में भगवान के मंदिर में भाव-भक्ति से भजन-कीर्तन व नृत्य करते हैं वे श्री हरि की कृपापात्र बनते हैं ।चातुर्मास्य में प्रतिदिन विष्णुसूक्त के मंत्रों द्वारा तिल और चावल की आहुति देने से साधक रोग मुक्त हो जाता है ।क्षीरसागर में योगनिद्रा में अवस्थित जगदीश्वर की उपासना से भक्त के समस्त मनोरथ पूर्ण होते हैं ।

जैन धर्म के अनुयायी चातुर्मास्य को बहुत महत्व देते हैं ।बस , अंतर इतना है कि सनातन धर्म में आषाढ़ शुक्ल एकादशी से कार्तिक शुक्ल दशमी तक चातुर्मास्य माना जाता है; जबकि जैन धर्म में आषाढ़ शुक्ल चतुर्दशी से कार्तिक शुक्ल चतुर्दशी तक चातुर्मास्य काल माना जाता है ।जैन मतावलंबी इन तिथियों को 
चौमासी चौदस कहते हैं ।

           ●●● स्कंद पुराण में चातुर्मास्य ●●●

स्कंद पुराण में चातुर्मास्य के दौरान  'पुरुषोत्तम क्षेत्र'  में आवास का अतिशय माहात्म्य वर्णित है।श्री जगन्नाथ पुरी के समुद्र के पवित्र जल में स्नान करके पुरुषोत्तम श्री कृष्ण ( जगन्नाथ जी ) का दर्शन करते हुए, चातुर्मास्य व्रत का पालन मुक्ति का साधन माना गया है ।जो आस्तिक जन चातुर्मासपर्यंत  'पुरुषोत्तम क्षेत्र' में  रह सकते हों , उन्हें जीवन में कम-से-कम एक बार यह अनुष्ठान  (चातुर्मास व्रत ) अवश्य संपन्न करना चाहिए ।पुरी में रहकर जगन्नाथ मंदिर के दर्शन से भी कृपा प्राप्त होती है ।

चौमासे में अन्नदान को रत्न, आभूषण, वस्त्र, चाँदी , सोने के दान से भी अधिक महत्वपूर्ण बताया गया है ।जो साधक सात्विक आहार -विहार एवं व्रत-उपवास के साथ चातुर्मास्य व्यतीत करता है उसका जीवन सुख, शांति एवं समृद्धि से भर जाता है ।अतः अपनी क्षमता व सामर्थ्य के अनुसार चातुर्मास्य में आध्यात्मिक क्रियाओं से जुड़ने  से भगवत्कृपा अवश्य प्राप्त होती है।

पुराने समय में आधुनिक विद्युत संसाधन नहीं होते थे और चौमासा बिशेष रूप से बरसात का मौसम होता है ।इन दिनों में बहुत बरसात होती है ।इसलिए चातुर्मास्य के शुरू होने के पहले ही जीवन-यापन की जरूरी वस्तुओं का संग्रह कर लिया जाता था ।
और शायद इसी कारण  चातुर्मास्य  का समय भगवद्भक्ति , स्वाध्याय एवं भजन-कीर्तन में संलग्न रहने का विधान बना होगा ; क्योंकि बरसात के मौसम में कहीं आना-जाना और व्यापार आदि करना आसान नहीं होता होगा।आजकल हममें से ज्यादातर लोग चातुर्मास्य अर्थात बरसात का मौसम-- बस इतना ही समझते हैं ।

           " गाऊँ प्रभु तेरा नाम, भजूँ प्रभु तेरा नाम "

सादर अभिवादन व धन्यवाद ।



Thursday, May 14, 2020

पंचतत्वों में संतुलन,पंचतत्वों के असंतुलन से स्वास्थ्य पर दुष्प्रभाव,पंचतत्वों के असंतुलन से पर्यावरण प्रदूषित,जलतत्व के संरक्षण से सभी तत्वों में संतुलन संभव ।

       
        ●●● पंचतत्वों में संतुलन जरूरी ●●●
गोस्वामी तुलसीदास जी कृत श्रीरामचरितमानस के अनुसार----
छिति जल पावक गगन समीरा।पंच रचित अति अधम सरीरा।।
अर्थात् पृथ्वी, जल , अग्नि, आकाश और वायु-- इन पाँच तत्वों से यह शरीर रचा गया है।हमारी प्रकृति व पर्यावरण में भी ,ये पाँच तत्व मुख्य रूप से घुले हुए हैं ।यदि इन तत्वों में प्रदूषण होता है तो इससे न केवल हमारा पर्यावरण दूषित होता है , बल्कि हमारे शरीर व मन भी अस्वस्थ बनते हैं ।

प्रकृति में घुले हुए ये पंचतत्व आपस में एक-दूसरे से जुड़े हुए हैं ।इनमें से किसी भी तत्व में आया संतुलन अथवा असंतुलन दूसरे तत्व को प्रभावित करता है।किसी भी तत्व में प्रदूषण व्याप्त होने पर वह अन्य दूसरे तत्व को प्रभावित करता है।ठीक इसी प्रकार यदि हमारे शरीर में पंचतत्वों में से किसी भी तत्व में कमी या वृद्धि होती है तो उससे संबंधित रोग शरीर में पनप जाते हैं।

  ●●●पंचतत्वों के असंतुलन के स्वास्थ्य पर दुष्प्रभाव ●●●
 
शरीर में वायु तत्व की अधिकता से वातरोग पनपते हैं व वायु तत्व के असंतुलन से शरीर की क्रियाविधि में गड़बड़ी पैदा होती है।अग्नि तत्व की अधिकता से अम्लता या एसिडिटी होती है व अग्नि तत्व की कमी से मंदाग्नि होने से भोजन ठीक से नहीं पचता।पृथ्वी तत्व की अधिकता से मोटापा हो जाता है और पृथ्वी तत्व की कमी से शरीर दुर्बल हो जाता है । 

जल तत्व की अधिकता से शरीर के किन्हीं अंगों में पानी भर जाता है व जल तत्व की कमी से शरीर में सूखापन प्रतीत होता है ।आकाश तत्व की अधिकता से शरीर के अंगों में दर्द की शिकायत हो सकती है व आकाश तत्व की कमी से बहरापन एवं  हड्डियों के जोड़ के लचीलेपन में कमी आ सकती है।

इस तरह पंचतत्वों में संतुलन बहुत जरूरी है, चाहे वह शरीर की बात हो या हमारे पर्यावरण की।वर्तमान समय की यह दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति है कि हमारा शरीर व हमारा पर्यावरण --- दोनों ही इस समय प्रदूषण की मार को झेल रहे हैं, जिसके कारण प्रकृति व पर्यावरण में अनेक समस्याएँ उत्पन्न हो रही हैं ।

      
  ●●● पंचतत्वों के असंतुलन से पर्यावरण प्रदूषित ●●●

इस समय पृथ्वी पर सबसे बड़ा संकट जलसंकट है, जलसंकट के कारण भूगर्भ का जलस्तर बहुत कम हो गया है, इसके साथ ही वर्षा ऋतु के अतिरिक्त अन्य ऋतुओं में नदी-तालाबों व झरनों में भी जल का स्तर बहुत कम हो गया है ।वर्तमान में अधिकांश नदियों का जल भी प्रदूषित हो गया है ।ज्यादातर कुँए , तालाब आदि सूख गए हैं ।

जलसंकट के साथ ही ग्लोबल वार्मिंग के कारण पृथ्वी का जो तापमान बढ़ रहा है , उससे ध्रुवों में जमी हुई बरफ धीरे-धीरे पिघल रही है, इससे समुद्र का जलस्तर अगर एक निश्चित मानदंड से बढ़ेगा, तो उससे समुद्रतट पर बसे हुए शहर जलमग्न हो जाएँगे ।
वातावरण में ऊष्मा बढ़ने से ग्रीष्म ऋतु में प्रायः जंगलों में आग लग जाती है , जो अत्यंत भयंकर होती है जिससे कि हमारी बहुत सारी वनस्पतियाँ, जीव-जंतु जलकर नष्ट हो जाते हैं ।

पेड़-पौधों की अंधाधुंध कटाई से वर्षा ऋतु में मिट्टी का कटाव होने से भूमि बंजर हो रही है, वह वर्षा ऋतु के जल को अवशोषित नहीं कर पा रही है ।पेड़-पौधों की कमी होने से समय पर बारिश नहीं हो रही है ; क्योंकि पेड़-पौधे ही बादलों को बारिश करने के लिए आकर्षित करते हैं ।इसके साथ ही हरियाली में कमी होने से वातावरण में प्रदूषक तत्वों की वृद्धि हो रही है ; क्योंकि पेड़-पौधों
की हरियाली वातावरण के प्रदूषक तत्वों को सोख लेती हैं और उसे स्वच्छ बनाती हैं ।

● जल तत्व के संरक्षण से अन्य सभी तत्वों में संतुलन संभव ●

जल ही जीवन है ।इस तरह यदि हमें अपने पर्यावरण को बचाना है, तो इसकी शुरुआत जल तत्व से करनी होगी ; क्योंकि यदि हमारे पर्यावरण में जल नहीं होगा तो जीवन भी नहीं बचेगा ।किसी भी ग्रह में जीवन की खोज करने के लिए वहाँ सबसे पहले जलतत्व को खोजा जाता है।यदि वहाँ जल तत्व की मौजूदगी है , तो वहाँ  जीवन संभव होने के आसार होते हैं ।

जल तत्व के कारण ही हमारी विभिन्न संस्कृतियाँ व सभ्यताएँ प्रायः नदियों के किनारे ही पुष्वित-पल्लवित हुईं और इसीलिए यदि हमें अपने पर्यावरण को बचाना है, उसे सुरक्षित करने में योगदान देना है , तो सबसे पहले हमें अपनी प्रकृति व पर्यावरण में मौजूद जल तत्व को संरक्षित करना होगा और स्वच्छ करना होगा।

जल तत्व से ही भूमि में नमी आएगी, इससे भूमि में वृक्ष-वनस्पतियाँ पनपेंगी , हरियाली बढ़ेगी ।हरियाली बढ़ने से वातावरण में निरंतर बढ़ती हुई ऊष्मा व अन्य प्रदूषक तत्व पेड़-पौधों में अवशोषित होंगे,पेड़-पौधों की पत्तियों के भूमि पर गिरने से व खाद-पानी से पृथ्वी की उर्वरा शक्ति बढ़ेगी, वातावरण में हरियाली बढ़ने से व जल तत्व के संतुलन से अग्नि व आकाश तत्व भी संतुलित हो जाएँगे। 

  इस तरह पर्यावरण की रक्षा हेतु  सभी तत्वों में संतुलन आवश्यक है और सभी तत्वों में संतुलन बनाने के लिए सबसे पहले जल तत्व को बचाना होगा , प्रकृति के जल तत्व को बचाने की ओर अधिक ध्यान देना होगा । जल तत्व से पृथ्वी में हरियाली बढ़ेगी और हरियाली बढ़ने से अन्य तत्व स्वयं ही संतुलित हो जाएँगे , बस , हमें इसमें अपना सहयोग देना होगा।

पेड़-पौधों की यदि सुरक्षा की जाए तो वे भी हमारे जीवन को सुरक्षित करेंगे व हमें स्वस्थ रखने में अपना सहयोग देंगे ।इस तरह पंचतत्वों का संतुलन ही पर्यावरण को संतुलित व मानव स्वास्थ्य की रक्षा  का कार्य संपन्न कर सकता है ।

पंचतत्वों में संतुलन आवश्यक है।

सादर अभिवादन व धन्यवाद ।

Saturday, May 9, 2020

श्रावणी पूर्णिमा, रक्षाबंधन , रक्षाबंधन का इतिहास, रक्षाबंधन का आधुनिक रूप

             ●●● श्रावणी पूर्णिमा रक्षाबंधन ●●●
रक्षाबंधन अर्थात रक्षा के लिए बँध जाना।रक्षाबंधन भाई और बहन के मध्य एक अटूट विश्वास का प्रतीक है ।इसका वास्तविक अर्थ स्नेह है।रक्षाबंधन पर्व से जुड़े कई आख्यान हैं ।रक्षाबंधन केवल एक सूत्र का नाम नहीं, बल्कि इसका एक प्रतीक भी है , जो एक उत्तरदायित्व से बँधा हुआ है ।जिसमें सम्मान भी है और जिम्मेदारी भी।

            ●●● रक्षाबंधन का इतिहास ●●●

मान्यता है कि देवासुर संग्राम में जब देवता पराजित होने लगे , तो देवगुरु बृहस्पति ने आक के रेशों का धागा बनाकर इंद्र की कलाई पर बाँध दिया था।यह रक्षाकवच वरदान साबित हुआ।इस प्रकार मानव संस्कृति में प्रथम रक्षासूत्र बाँधने वाले वृहस्पति देवगुरु के पद पर प्रतिष्ठित हुए ।इस घटना से रक्षासूत्र बाँधने का प्रचलन शुरु हुआ। एक अन्य कथा के अनुसार वामन ने राजा बलि को इसी दिन रक्षासूत्र बाँधकर दक्षिणा ली थी।

रक्षाबंधन का इतिहास काफी पुराना है , जो सिंधु घाटी की सभ्यता से जुड़ा हुआ है ।वस्तुतः रक्षाबंधन की परंपरा उन बहनों ने डाली थी , जो सगी नहीं थीं ।इसलिए इतिहास के पन्नों को देखें तो इस त्यौहार की शुरुआत 6,000 साल पहले हुई-- ऐसा माना जाता है ।इसके कई साक्ष्य हैं ।

रक्षाबंधन का साक्ष्य रानी कर्णावती और सम्राट हुमायूँ का भी है। मध्यकालीन युग में राजपूत और मुसलिमों के बीच संघर्ष चल रहा था , तब चित्तौड़ के राजा की विधवा रानी कर्णावती ने गुजरात के सुल्तान बहादुरशाह से अपनी और अपनी प्रजा की सुरक्षा का कोई रास्ता न निकलता देख हुमायूँ को राखी भेजी थी।तब हुमायूँ ने रानी कर्णावती की रक्षा करके उन्हें अपनी बहन का दरजा दिया था।

                                      एक बार भगवान कृष्ण पांडवों के साथ पतंग उड़ा रहे थे ।उस समय धागे से कृष्ण की उँगली कट गई ।तब उँगली से निकले खून को रोकने के लिए द्रोपदी ने अपनी साड़ी फाड़कर कृष्ण की उँगली पर बाँध दी थी।द्रोपदी के इस प्रेम से भगवान इतने भावुक हुए और द्रोपदी को जीवन- भर सुरक्षा का वचन दिया ।भरी सभा में जब द्रोपदी का वस्त्र हरण हो रहा था तब भगवान ने अपने वचन को निभाते हुए द्रोपदी की साड़ी को अक्षय एवं असीमित कर दिया ।

        ●●● रक्षाबंधन का आधुनिक रूप ●●●

आधुनिक युग में रक्षाबंधन एक पर्व के रूप में मनाया जाता है ।
इस दिन बहनें भाई की कलाई में धागा ( राखी ) बाँधती हैं और भाई अपनी-अपनी बहनों को उपहार भेंट करते हैं ।घर-घर पकवान बनाए जाते हैं ।रक्षाबंधन के एक महीने पहले से ही बाजारों में तरह- तरह की सुन्दर राखियाँ मिलने लगती हैं ।आज तकनीकी युग में इंटरनेट के माध्यम से भी राखियाँ भेजने का प्रचलन हो गया है। विवाह के बाद बहनें दूर होती हैं तो डाक के द्वारा अपने-अपने भाइयों को राखी भेजती हैं । अब तकनीकी युग में वीडियो काॅल करके भी भाई- बहन एक-दूसरे को बधाई दे देते हैं ।

सनातन संस्कृति में सबसे पहले मंदिर में भगवान को रक्षासूत्र समर्पित करते हैं । वर्तमान में यह पर्व केवल प्रतीतात्मक बनकर रह गया है इसका अर्थ और उद्देश्य कहीं खो गए हैं ।इतना अवश्य है कि इस बहाने लोग एक-दूसरे से मिल लेते हैं । आज व्यस्तता के युग में लोग एक ही शहर में रहते हुए भी मिल नहीं पाते ।ऐसे में रक्षाबंधन परिवार को समीप लाने और संबंधों को मजबूत करने का काम करता है।

पुराने समय में और आज के समय में भाई- बहन के रिश्तों की परिभाषा में परिवर्तन हो गया है ।पुराने समय में -- जब बहन के सुख-दुःख में भाई ही सहायता करता था , लेकिन अब बहनें भी भाइयों की मदद करने को तत्पर रहती हैं ।आज समाज में लड़के और लड़की को बराबरी का सम्मान प्राप्त है ।उनकी परिवरिश में अब कोई अन्तर नहीं किया जा रहा ।वे कंधे-से-कंधा मिलाकर चलना जानती हैं ।अब यह रिश्ता बराबरी का हो गया है ।

आज दिखावे का युग है , भावनाओं को भी अब मँहगे उपहारों में नापा जाने लगा है ।फिर भी रस्मों -रिवाजों से बँधा राखी का पर्व - स्नेह के बंधन से संसार को निरंतर जोड़े हुए है।यह निश्चित रूप से लड़कियों के प्रति समाज के बदलते नजरिए को दर्शाता है।हमारे पारंपरिक मूल्य अब भी जीवित हैं ।

       " राखी धागों का त्यौहार, राखी धागों का त्यौहार 
         इस धागे में बँधा हुआ है, भाई -बहन का प्यार "

सादर अभिवादन व धन्यवाद ।

Thursday, May 7, 2020

फ्रांस के प्रसिद्ध भविष्यवक्ता नाॅस्त्रेदेमस, जीवन परिचय ,भविष्यवाणियों का संग्रह व लेखन विधि, प्रसिद्ध भविष्यवाणियाँ , भविष्यवक्ता ' कीरो ' ( विलियम वार्नर )

        ●●●  नाॅस्त्रेदेमस का जीवन परिचय ●●●
 विश्व इतिहास में ऐसे अनेक भविष्यवक्ता हुए हैं, जिनकी भविष्यवाणियों की सत्यता समय ने प्रमाणित की।ऐसे ही भविष्यवक्ताओं में फ्रांस के प्रसिद्ध भविष्यवक्ता नाॅस्त्रेदेमस का नाम आता है। इनका जन्म 14 दिसम्बर 1503 को रेमी दे प्रोवे नामक कस्वे में हुआ था। नाॅस्त्रेदेमस किशोरावस्था से ही भविष्यवाणियाँ करने लगे थे । किशोरावस्था से ही इनकी भविष्यवाणियाँ ख्याति प्राप्त करने लगी थीं ।

नाॅस्त्रेदेमस के पिता क्षेत्र के प्रसिद्ध चिकित्सक थे ,इसलिए 15 वर्ष की उम्र में नाॅस्त्रेदेमस को एविनिऑन विश्वविद्यालय में चिकित्सा विज्ञान के पाठ्यक्रम में प्रवेश दिया गया ।एक दिन उन्होंने अपने मित्र से बातचीत के दौरान कहा कि मैं इस विश्वविद्यालय से अपनी शिक्षा पूर्ण नहीं कर पाऊँगा।उनकी यह बात सच साबित हुई और शहर में प्लेग फैल जाने के कारण उनको माॅटेपियेर विश्वविद्यालय जाकर अपनी शिक्षा पूर्ण करनी पड़ी ।यहीं से उनके भविष्य दर्शन के दौर की शुरुआत हुई ।

●● नाॅस्त्रेदेमस की भविष्यवाणियों का संग्रह, लेखन विधि●●

नाॅस्त्रेदेमस की प्रथम पुस्तक "अल्मेनक"  रातोंरात प्रसिद्ध हो गई ।अल्मेनक की सफलता से उत्साहित होकर उन्होंने अपनी दूसरी पुस्तक "ले प्राॅफीसे" लिखी , जिसमें 6338 प्राॅफिसिज या भविष्यवाणियों का संकलन है।कालांतर में इनमें से कई भविष्यवाणियाँ लुप्त या नष्ट हो गईं, पर जितनी भी भविष्य वाणियाँ उपलब्ध हैं, वे सभी समय-समय पर विश्व भर में उत्सुक लोगों का ध्यान अपनी ओर खींचती हैं ।

माना जाता है कि नाॅस्त्रेदेमस ध्यान की चरम अवस्था में स्थित होकर जो दृश्य देखते थे , उन्हें ही लिपिबद्ध कर लेते थे और वे कथन ही भविष्यवाणियों के नाम से विख्यात हुए।नाॅस्त्रेदेमस के लेखन में चार से ज्यादा भाषाओं का समावेश होने के कारण एवं लिखने का तरीका अत्यन्त रहस्यमय होने के कारण उनकी भविष्यवाणियों का सीधा अर्थ निकाल पाना संभव नहीं हो पाया है। आज नाॅस्त्रेदेमस की पुस्तक पर विश्व भर में 2000 से ज्यादा टिप्पणियाँ उपलब्ध हैं, जिनसे सिद्ध होता है कि उनके एक कथन के कितने अलग-अलग अर्थ निकाले जा सकते हैं।

       ●●●नाॅस्त्रेदेमस की प्रसिद्ध भविष्यवाणियाँ●●●
नाॅस्त्रेदेमस द्वारा की गईं प्रसिद्ध भविष्यवाणियों में लंदन की भीषण आगजनी , नैपोलियन के उत्थान और पतन , हिटलर की मृत्यु, प्रथम एवं द्वितीय विश्वयुद्धों से लेकर 11 सितंबर को अमेरिका में हुए आतंकवादी हमले सम्मिलित हैं ।नास्त्रेदेमस की भविष्यवाणियों का अध्ययन करने पर अनेक विशेषज्ञों का मत है कि नाॅस्त्रेदेमस ने 21वीं सदी में भारत के पुनरुत्थान की एवं विश्वशक्ति बनने की घोषणा की है, जिस संभावना को कदापि नकारा नहीं जा सकता ।

नाॅस्त्रेदेमस ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक में घोषणा की कि 21वीं सदी नई सदी होगी और इस सदी में यूरोप अपने पुराने धर्म को त्यागकर नए धर्म को अंगीकार करेगे तथा एक आध्यात्मिक नेता सम्पूर्ण विश्व का नेतृत्व करेगा ।कौन जाने कि कल का सूर्य यही समाचार लेकर आ रहा हो।

 सारे विश्व का भविष्य देखन वाले नाॅस्त्रेदेमस की मृत्यु भी उनकी स्वयं की भविष्यवाणी से हुई ।कहते हैं कि 2 जुलाई, 1566 की रात को उन्होंने अपने सबसे विश्वस्त साथी एवं शिष्य शेविनी को कहा कि कल सुबह हमारी-तुम्हारी मुलाकात नहीं हो पाएगी।अगली सुबह नाॅस्त्रेदेमस अपने कक्ष में मृत पाए गए ।

 ●● आयरिश भविष्यवक्ता 'कीरो' ( विलियम वार्नर )

प्रसिद्ध भविष्यवक्ताओं में एक नाम आयरिश भविष्यवक्ता विलियम वार्नर का आता है, जो कीरो के नाम से प्रसिद्ध हुए।सर्वविदित है कि कीरो का हस्तरेखा ज्ञान भारत देश में ही विकसित हुआ जहाँ उन्होंने कोंकणी विद्वान "श्री नारायण जोशी " 
से हस्तरेखा विज्ञान का ज्ञान प्राप्त किया ।लेटिन भाषा में "कीरो" शब्द का अर्थ हाथ की रेखाओं का ज्ञान है।

भविष्यवक्ता कीरो ने अनेक भविष्यवाणियाँ कीं ,जो सच निकलीं ।कीरो की भविष्यवाणियों से लाभान्वित लोगों की कड़ी में विख्यात साहित्यकार मार्क ट्वेन, जासूस माताहारी, ऑस्कर वाइल्ड, प्रसिद्ध वैज्ञानिक थाॅमस एडीसन से लेकर इंग्लैंड के राजा एडवर्ड सप्तम का नाम आता है , जिनके सम्राट बनने की एकदम सही घोषणा भविष्यवक्ता कीरो ने की थी ।

                                  आचार्यों के अनुसार भूत और भविष्य का ज्ञान और कुछ नहीं, वरन् मनुष्य के कर्मों और संस्कारों का सम्यक ज्ञान है ।चित्त का परिष्कार करते हुए जब मनुष्य उस अवस्था में पहुँचता है , जहाँ उसे अपने एवं अन्य के द्वारा किए गए शुभ-अशुभ कर्मों का पूर्ण ज्ञान हो जाता है तो उसी गणना के आधार पर उस व्यक्ति के अतीत और भविष्य का सही आंकलन कर पाना संभव हो पाता है ।

सादर अभिवादन व धन्यवाद ।

भविष्यवदृष्टाओं की विलक्षणता ( भारतीय ज्योतिष के प्रथम प्रवक्ता महर्षि भृगु ) , हमारा भाग्य हमारे ही कर्मों से निर्मित

            ●●●भविष्यदृष्टाओं की विलक्षणता  ●●●
मानव मन में अज्ञात के प्रति सदा से ही आकर्षण रहा है । हर मनुष्य के मन में यह जिज्ञासा जन्म लेती रहती है कि आने वाले कल में क्या सम्भावनाएँ हो सकती हैं ।सामान्यतः यह संभव नहीं है कि मनुष्य अपना भविष्य जान सके ।शायद परमात्मा ने मनुष्य की इस जिज्ञासा के समाधान के लिए कुछ व्यक्तियों को भविष्यदर्शिता की  विलक्षण क्षमता से सम्पन्न करके पृथ्वी पर भेजा है ।जो मनुष्य की भविष्य जानने की जिज्ञासा का समाधान कर सकें ।

           जब हम भविष्य वक्ताओं की भविष्यवाणियों को सत्य होता देखते हैं, तब हम यह सोचने पर भी मजबूर हो जाते हैं कि भविष्य- वक्ताओं में ऐसा क्या होता है , जो उनके अंदर भविष्य को देखने की सामर्थ्य प्रदान करता है , यह बात पता लगाना कठिन है लेकिन कुछ भविष्यवक्ताओं की भविष्यवाणियों का अध्ययन करने से यह अवश्य पता चलता है कि परमात्मा ने मनुष्य को अनेक दिव्य संभावनाओं से समृद्ध करके भेजा है । 

विश्व के इतिहास का हर दृष्टि से अध्ययन करने पर यह ज्ञात हो ही  जाता है कि भविष्य को पढ़ने, जानने, समझने, देखने और आँकने की क्षमता समय-समय पर विभिन्न रूपों में, विभिन्न देशों में विभिन्न व्यक्तियों के माध्यम से प्रकट होती रही है।हमारे देश भारत में प्राचीन काल से ही ज्योतिष शास्त्र को महत्व दिया गया है।   प्रसिद्ध ज्योतिष शास्त्र के ज्ञाताओं में व्यक्ति के तीनों कालों ( भूत, वर्तमान, भविष्य) को देखने की क्षमता होती है।

 ●●● भारतीय ज्योतिष के प्रथम प्रवक्ता महर्षि भृगु ●●●

भारतीय ज्योतिष के प्रथम प्रवक्ता महर्षि भृगु त्रिकालदृष्टा के नाम 
से जाने जाते हैं ।पौराणिक काल से ही भविष्य को देख पाने में सक्षम व्यक्तियों में महर्षि भृगु का नाम सर्वप्रथम आता है ; क्योंकि उनके द्वारा रचितृ "भृगु संहिता" ज्योतिष का आदिग्रंथ है और ऐसा माना जाता है कि वर्तमान संवत्सर में ऐसा  कुछ भी घटित नहीं  होता, जिसका  पूर्वानुमान महर्षि भृगु ने न किया हो।

भृगु संहिता वास्तव में महर्षि भृगु एवं उनके पुत्र शुक्राचार्य के मध्य हुए वार्तालाप के रूप में है; जिसमें महर्षि भृगु ,उनके पुत्र शुक्राचार्य के द्वारा पूछे गए प्रश्नों का क्रमानुसार देते प्रतीत होते हैं ।
भृगु संहिता में अनेक स्थानों पर महर्षि भृगु  उतर देते समय अपने वक्तव्य में 'दृशेत् ' शब्द का उपयोग करते हैं, जिससे यही समझा जा सकता है कि वे भविष्य का आंकलन अपनी दिव्य दृष्टि से देखते हुए ही कर रहे थे।
भृगु संहिता अत्यन्त विलक्षण है ; क्योंकि उसमें उन सभी व्यवसायों, पदों, विधाओं का वर्णन है , जो कि उस काल में विकसित ही नहीं हुईं थीं । उनके विषय में पढ़कर यह प्रश्न उठना स्वाभाविक ही है कि ऐसा कैसे सम्भव हुआ ? 

                                                पुराणों  में  कथा आती है कि अपना प्रथम ग्रंथ " ज्योतिष संहिता " पूर्ण करने के उपरांत महर्षि भृगु त्रिदेव से मिलने पहुँचे।उनके आगमन का उद्देश्य यह परखना भी था कि कौन से देवता को क्रोध दिला पाना संभव नहीं है? कथा के अनुसार, महर्षि भृगु  ने भगवान शिव और ब्रह्मा जी को तो तुरंत क्रोधित कर दिया।
 
                               तदुपरांत जब वे भगवान विष्णु के पास पहुँचे तो भगवान क्षीरसागर पर निद्रामग्न थे।उन्हें क्रोध दिलाने के उद्देश्य से महर्षि भृगु ने उनकी छाती पर जोर से पैर मारा , जिसका निशान आज भी भगवान के हृदयस्थल पर अंकित माना जाता है । भगवान विष्णु आँख खुलते ही महर्षि भृगु के चरणों को हाथ में लेकर बोले -- "ऋषिवर ! मेरा हृदय तो पत्थर के समान कठोर है पर आपके चरणों को चोट पहुँची होगी ।लाइए मैं आपकी पीड़ा दूर कर दूँ " । भगवान विष्णु को शान्त रूप में देखकर महर्षि भृगु, भगवान विष्णु को नमन करते हुए बोले --  " प्रभु ! आप ही सृष्टि के अधिपति हैं ।आपको ही क्रोध दिला पाना संभव नहीं है ।" कहते हैं कि उसी समय भगवान विष्णु ने महर्षि भृगु को तीनों कालों को देख पाने का ज्ञान दिया था , उसी ज्ञान के आधार पर उन्होंने दूसरे ग्रंथ " भृगु संहिता " की रचना की एवं त्रिकालदृष्टा के नाम से विख्यात हुए।

    ●●● हमारा भाग्य हमारे ही कर्मों से निर्मित ●●●

विश्वभर के सभी भविष्यवक्ताओं के आंकलन का सार भी यही है कि-- मनुष्य का भाग्य उसके किए कर्मों से ही निर्मित होता है।
महाभारत के अनुशासन पर्व -- 145 में महर्षि वेदव्यास जी कहते हैं कि----     केवलं ग्रह नक्षत्रं न करोति शुभाशुभम् ।
                 सर्वमात्मकृतं कर्म लोकवादो ग्रहा इति ।।
अर्थात केवल नक्षत्र किसी का शुभ व अशुभ नहीं करते ।उसके अपने किए हुए कर्मों को ही लोग ग्रहों का नाम दे देते हैं ।

अपना भविष्य जानने में सबको रुचि हो सकती है , पर मनुष्य को यह जानना भी आवश्यक है कि हमारा भाग्य हमारे कर्मों से ही बनता है।यदि हमारी भावनाएँ शुभ होंगी तो हमारे कर्म भी शुभ होंगे और यदि हमारे कर्म शुभ होंगे तो हमारा भविष्य भी श्रेष्ठ बनेगा।अच्छे भविष्य की आकांक्षा रखने वालों को मात्र अच्छे कर्म करने पर विश्वास रखना चाहिए ; क्योंकि कर्मबीज से ही भविष्य का वृक्ष जन्म लेता है।

महर्षि पतंजलि  " योगसूत्र " के तृतीय अध्याय में कहते  हैं---
"परिणाम त्रयसंयमादतीतानागतज्ञानम्।" अर्थात संस्कारों या कर्मों के परिणामों का संयम करने से योगी को अतीत तथा अनागत का साक्षात्कार हो जाता है ।जिन वक्तव्यों को हम भविष्यवाणियों के रूप में जानते हैं उनमें से अनेक अपने चित्त के परिष्कार से प्राप्त ज्ञान का परिणाम है।

सादर अभिवादन व धन्यवाद ।




Tuesday, May 5, 2020

धरती के गर्भ से निकले प्राकृतिक गरम जल के स्रोत, बदरीनाथ, केदारनाथ,यमुनोत्री,गंगोत्री, शिमला, मणिकर्ण घाटी, मनाली,लद्दाख व सिक्किम इन सभी क्षेत्रों के गरम जलस्रोतों का वर्णन

●● धरती के गर्भ से निकले प्राकृतिक गरम जल के स्रोत●●
                       धरती के गर्भ से निकले प्राकृतिक गरम जल के स्रोत प्रकृति द्वारा मानव के लिए विशिष्ट उपहार हैं,खासकर ठंडे-बरफीले क्षेत्रों के लिए, जहाँ तापमान माइनस में चला जाता है ।ठन्डे क्षेत्रों में गरम जल के स्रोत दैवी उपहार जैसे प्रतीत होते हैं, जो पहाडों पर रहने वालों का जीवन आसान कर देते हैं ; क्योंकि पहाड़ों पर अत्यधिक ठन्ड होने के कारण वहाँ का जीवन अस्त-व्यस्त हो जाता है।उत्तराखंड के हिमालयी क्षेत्र में कई प्राकृतिक गरम जल के स्रोत हैं ।भारत के लगभग हर क्षेत्र में ऐसे जलस्रोत न्यूनाधिक मात्रा में उपलब्ध हैं ।

●● बदरीनाथ में अलकनंदा के किनारे गरम जल स्रोत ●●

बदरीनाथ तीर्थ क्षेत्र में अलकनंदा नदी के किनारे ऐसे गरम जल का प्राकृतिक स्रोत है , जिसे एक कुंड में संगृहीत किया गया है, बाहर पाइपों के माध्यम से यह नलकों में प्रवाहित होता है।दूर-दूर से लंबी यात्रा से आए थके यात्री इसमें स्नान करके तरोताजा अनुभव करते हैं फिर बदरी-विशाल के दर्शन करते हैं ।हाँलाकि शुरुआत में कुंड का जल थोड़ा गरम प्रतीत होता है , लेकिन थोड़ी देर में सहने योग्य हो जाता है ।

 ●●● केदारनाथ के गौरीकुंड में गरम जल के स्रोत ●●●

केदारनाथ धाम की यात्रा के शुरुआती पड़ाव गौरीकुंड में भी ऐसे गरम जल के स्रोत विद्यमान हैं, हालाँकि 2013 की प्राकृतिक त्रासदी में ये तहस-नहस हो गए थे , लेकिन अभी भी यहाँ से जल निस्सृत हो रहा है।हलका गरम जल शरीर के लिए सहनीय होता था , जिनके स्नान से पावन होकर तीर्थयात्री केदारनाथ धाम की
आगे की यात्रा करते थे ।ऐसी मान्यता है कि यहाँ माता पार्वती ने अपने आराध्य शिव के लिए तप किया था।

●●● यमुनोत्री धाम में गरम जल का स्रोत (तप्तकुंड)●●●

यमुनोत्री धाम में भी तप्तकुंड है ,जिसे सूर्यकुंड के नाम से जाना जाता है ।इस कुंड में खौलता हुआ पानी रहता है।इसमें चावल या आलू डालने पर पक जाते हैं और इन्हें प्रसाद रूप में तीर्थयात्री उपयोग करते हैं ।

  ●● गंगोत्री के मार्ग में गंगनानी में गरम जल का स्रोत ●●

उत्तराखंड के चारधामों में से एक गंगोत्री धाम के रास्ते में गंगनानी स्थान पर गरम जल का स्रोत है ।श्रद्धालु एवं पर्यटक इसका आनंद उठाते हैं ।जोशीमठ के आगे मलांग के रास्ते में तपोवन स्थान पर भी ऐसा गंधकयुक्त गरम जल का स्रोत है ।

 ●मुन्स्यारी,मदकोट में गौरीगंगा नदी के किनारे गरमजल स्रोत●

कुमायूँ के मुनस्यारी क्षेत्र में शहर से 20 किमीo दूर मदकोट स्थान पर गौरीगंगा नदी के बाएँ तट पर गरम जल का स्रोत हैं, जिनका जल गंधक व चूने का विशेष अंश लिए होता है , जिसकी झलक यहाँ के जलस्रोत की तह में सफेद एवं लाल-भूरे रंग के अवशिष्ट एवं चट्टानों को देखकर पाई जा सकती है।इसका जल त्वचा रोगों में विशेष रूप से उपयोगी बताया जाता है।

  ● शिमला में  सतलुज के किनारे ततापानी में  गरमजलस्रोत ●

हिमाचल के पहाड़ी राज्य में गरम जल के कई स्रोत हैं, जो सैलानियों की यात्रा को सरल व रोचक बनाते हैं ।शिमला के समीप सतलुज नदी के किनारे, ततापानी स्थान पर नदी के तट पर गरम जल के स्रोत हैं-- जहाँ खुली हवा में यात्री स्नान का आनंद उठाते हैं ।एक ओर सतलुज का बरफीला जल बह रहा होता है ,तो दूसरी ओर इसी के साथ तट पर गरम जल उफन रहा होता है।इस कुंड का जल औषधीय गुणों से भरपूर है।यह त्वचा रोगों में लाभकारी है ।

●● मणिकर्णघाटी में खीरगंगास्थल पर गरम जल का स्रोत●●

मणिकर्ण घाटी में, खीरगंगा स्थल पर गरम जल का एक अनोखा कुंड है ।प्रकृति की गोद में, ऊँचे पहाड़ों के बीच खुली जगह में स्थित यह कुंड पर्यटकों एवं तीर्थयात्रियों को बहुत आकर्षित करथा है। यहाँ समीप में ही शिवमंदिर है ।इस तीर्थ स्थल को शिव- पार्वती नंदन कार्तिकेय से सम्बन्धित माना जाता है ।

                                        मणिकर्ण गाँव गरम जल स्रोतों के लिए प्रख्यात है।यहाँ के गुरुद्वारे एवं राममंदिर परिसर में कई गरम जल के कुंड हैं ।यहाँ मन्दिर व गुरुद्वारे , दोनों ही स्थलों पर कुंड बने हुए हैं, साथ ही दोनों जगह खौलते पानी के कुंड भी हैं। जिनमें तीर्थयात्रियों को आलू, आटा व चावल आदि को पोटली में बाँधकर पकाते हुए देखा जा सकता है ।जो बाद में प्रसाद के रूप में वितरित किया जाता है ।मणिकर्ण गाँव के घरों में पाइपों से इसी गरम जल की आपूर्ति होती है।

     ●●● मनाली के समीप गरम जल के स्रोत ●●●

मनाली के समीप वशिष्ठ गाँव में भी ऐसे ही गरम जल के स्रोत हैं ।यहीं ऋषि वशिष्ठ एवं भगवान राम को समर्पित मंदिर भी हैं ।यहाँ के जल को भी औषधीय गुणों से भरपूर माना जाता है ।मनाली के 6- 7 किमीo पहले क्लाथ नामक स्थान पर भी ऐसे ही गरम जल के स्रोत हैं , हालाँकि पिछले दिनों बाढ़ में नदी के किनारे इन स्रोतों को काफी क्षति हुई है ।

 ●●● लद्दाख व सिक्किम क्षेत्र में गरम जल के स्रोत ●●●

हिमालय के लद्दाख क्षेत्र में पनामिक स्थान पर नुब्रा घाटी में भी ऐसे गरम जल के स्रोत हैं ।यहाँ का पानी इतना गरम होता है कि कोई इसको छू नहीं सकता ।इसी तरह पूर्वोत्तर क्षेत्र में भी कई ऐसे गरम पानी के जलस्रोत हैं ।

सिक्किम के 15,500 फीट की ऊँचाई पर स्थित यूमेसमडोग स्थान पर गंधकयुक्त जल के दर्जन से अधिक स्रोत हैं, जिनका ताप 59 डिग्री सेंटीग्रेड तक रहता है।इसके अलावा सिक्किम में रेशि, बोरोंग, रेलोंग व यूमथंग स्थान पर गरम जल के स्रोत हैं, जो अपने औषधीय गुणों के कारण प्रसिद्ध हैं ।

इनके अतिरिक्त भारत में अन्य राज्यों में भी ऐसे अनेक जलस्रोत हैं, जो औषधीय गुणों के साथ अपना धार्मिक महत्व भी रखते हैं ।इन सभी स्थलों के भौगोलिक कारण तो पृथ्वी की कोख में सुलग रहे मेग्मा में देखे जा सकते हैं, जो पृथ्वी की सतह पर विद्यमान जल को गरम करता है व दबाव के कारण धरती पर गरम जलस्रोत के रूप में फूटता है।

सभी गरम जल के स्रोतों से जुड़े आध्यात्मिक प्रसंग इन्हें आस्था का केंद्र बनाते हैं ।साथ ही अधिक ठन्ड के दिनों में ये गरमजल के स्रोत मनुष्यों के लिए ही नहीं अन्य जीवधारियों के लिए भी राहत पहुँचाते हैं ।इनमें स्नान करके सहज ही हमें अपनी प्रकृति की उदारता स्मरण हो उठती है और मन प्रकृति के प्रति कृतज्ञता के भाव से भर जाता है।

 सचमुच हमारी प्रकृति हमें बहुत कुछ प्रदान करती है।हम भी उसका आदर करना सीखें और सदा अपनी प्रकृति को हरा-भरा रखें ।

सादर अभिवादन व धन्यवाद ।

Saturday, May 2, 2020

भारतीय गुफा मंदिरों का अद्भुत व रोचक संसार, बाराबर गुफाएँ, एलीफेंटा गुफाएँ, उदयगिरि एवं खंडागिरि गुफाएँ, कान्हेरी गुफाएँ, बादामी गुफा मंदिर, भाजा गुफाएँ, राॅक कट मंदिर काँगड़ा, महाबलीपुरम पंचरथ मंदिर, कार्ला गुफाएँ, अजंता गुफाएँ, ऐलोरा गुफाएँ ।

 ●●●भारत के गुफा मंदिरों का अद्भुत व रोचक संसार●●●
विश्व में चट्टानों को काटकर या तराशकर बनाई गई गुफाओं की कमी नहीं ।भारत में भी  अनेक गुफा मंदिर हैं। राॅक कट स्थापत्य जितना भारत में प्रचलित रहा है, उतना शायद ही विश्व के किसी कोने में रहा हो।भारतीय गुफा मंदिर आध्यात्मिक, ऐतिहासिक व    कलात्मकता की दृष्टि से अपना विशिष्ट स्थान रखते हैं ।भारत के गुफा मंदिर भारत के प्राचीन कलाकारों की अविश्वसनीय उपलब्धियों का  प्रतिनिधित्व करते हैं ।

अंतर्राष्ट्रीय संगठन यूनेस्को द्वारा भारत के कई गुफा मंदिरों को वैश्विक सांस्कृतिक धरोहरों के रूप में सम्मानित किया गया है ।
निस्संदेह भारत के गुफा मंदिरों का संसार अद्भुत, रोचक व रोमांचकारी है।जिनका राॅक कट स्थापत्य विविधतापूर्ण एवं अत्यन्त समृद्ध है।हमारे लिए बड़े गर्व का विषय है कि हमारे गुफा मंदिर विश्व भर की प्राचीन संस्कृतियों की आश्चर्यजनक उपलब्धियों में शुमार हैं ।

     ●●●  भारतीय प्रसिद्ध गुफा मंदिरों का वर्णन  ●●●

          1--   ●●●  बिहार की बाराबर गुफाएँ-●●●
बिहार की बाराबर गुफाएँ भारत की सबसे प्राचीन राॅक कट गुफाएँ हैं। ये बिहार में गया से 20 किलोमीटर दूरी पर स्थित हैं।इन गुफाओं का निर्माण तीसरी सदी ईसा पूर्व प्रारंभ हो गया था , जिन्हें अधिकांशतः 322 से 185 ईसा पूर्व मौर्यकाल में पूरा किया गया।वृहत् ग्रेनाइट चट्टानों से तराशी गईं इन गुफाओं को देखकर लगता है कि जैसे ये लेजर से तराशी गईं हों।

ये गुफाएँ बौद्ध धर्म से जुड़ी रहीं, लेकिन जैन धर्म की गुफाएँ भी यहाँ विद्यमान हैं, जो उस काल की धार्मिक सहिष्णुता को उजागर करती हैं ।कुछ गुफाओं में अशोक के शिलालेख भी निहित हैं ।इन्हें बौद्ध भिक्षुओं एवं जैन साधकों द्वारा पूजा एवं आवास केंद्र के रूप में प्रयुक्त किया गया है।

       2--  ●●● एलीफेंटा गुफाएँ मुंबई  ●●●

मुंबई के इंडिया गेट से दस किमी दूर टापू पर स्थित एलीफेंटा गुफाएँ भी स्वयं में उल्लेखनीय हैं, जो प्रमुखतया भगवान शिव को समर्पित हैं, जिन्हें हिंदू कालाचुरी राजाओं द्वारा छठी शताब्दी के मध्य तक तैयार किया गया था।इन गुफाओं में अधिक जानकारियाँ नहीं हैं, लेकिन इन गुफाओं की विलक्षण कलात्मकता देखकर प्राचीन कलाविदों की अद्भुत प्रतिभा का परिचय मिलता है।

इस टापू का नाम मूलतः धारापुरी था, जिसे पुर्तगालियों द्वारा एलीफेंटा नाम दिया गया ; क्योंकि उन्हें यहाँ पहुँचने पर पत्थर के बने हुए बड़े हाथी दिखे थे।इस टापू में पाँच हिन्दू तथा दो बौद्ध मंदिर हैं ।इसमें सबसे रोचक एवं प्रभावशाली महान गुफा है, जिसमें कलात्मक गुणवत्ता से भरपूर कई संरचनाओं के बीच 6.1 मीटर ऊँची भगवान शिव की प्रख्यात त्रिमूर्ति उल्लेखनीय एवं दर्शनीय है।साथ ही यहाँ अर्द्धनारीश्वर, रावण द्वारा कैलाश पर्वत को ले जाते हुए तथा नटराज शिव की उल्लेखनीय छवियाँ दिखाई गई हैं ।

3-●● उड़ीसा में उदयगिरि व खंडागिरि पहाड़ी की गुफाएँ●●

उदयगिरि एवं खंडागिरि के पास दो पहाडियों में 27 राॅक कट जैन मंदिर बने हुए हैं, जिन्हें पहली सदी ईसा पूर्व की मानी जाती हैं ।इनमें से कुछ गुफाएँ तो प्राकृतिक हैं और कुछ तराशी गईं हैं ।ये गुफाएँ ऐतिहासिक,धार्मिक एवं स्थापत्य की दृष्टि से अत्यंत महत्वपूर्ण हैं ।ये दो पहाड़ियाँ पूर्वी भारत के स्थापत्य, कला एवं धर्म-क्षेत्र में जैन राॅक कट स्थापत्य के सबसे प्राचीन समूह का प्रतिनिधित्व करती हैं ।

इन गुफाओं के अभिलेखों के आधार पर यह स्पष्ट होता है कि ये गुफाएँ कलिंग के प्रसिद्ध राजा खारवेल द्वारा सर्वप्रथम तराशी गईं थीं और उसके बाद प्रथम ईसापूर्व काल में उसके जैनभक्त शासकों द्वारा आगे बढ़ाया गया ।इनमें से आज कुछ हिंदू मंदिर हैं । इन गुफाओं में सबसे अधिक प्रभावी है रानी गुफा ( नं .1 ), जो अद्भुत नक्काशी वाली दो मंजिला संरचना है। व्याघ्र गुफा ( नं.10)
का द्वार अद्भुत एवं दर्शनीय है। हाथी गुफा ( नं. 14 ) राजा खारवेल के शासन की महत्वपूर्ण ऐतिहासिक जानकारियों से भरी हैं ।
         4--  ●●● कान्हेरी गुफाएँ मुंबई ●●●

कान्हेरी गुफाएँ, मुंबई शहर के बाहर स्थित संजय गाँधी राष्ट्रीय पार्क के जंगल में स्थित अद्भुत एवं दर्शनीय 109 गुफाओं का समूह है, जिन्हें बौद्ध मंदिर एवं मठ के रूप में प्रथम सदी ईसा पूर्व से नौवीं ईसवी तक तराशा गया ।आज तो ये मुंबई शहर के छोर पर स्थित हैं, लेकिन 2000 वर्ष पहले वीरान जंगलों का क्षेत्र रहा होगा। जब बौद्ध भिक्षुओं ने वीरान जंगलों में बनी इन गुफाओं में रहना शुरू किया, तो व्यापारियों को राहत मिली और उन्होंने फिर वसाल्ट चट्टानों को काटकर कमरे तराशने शुरु किए ।

कान्हेरी गुफाओं में सबसे महत्वपूर्ण कार्य यहाँ पाँचवीं एवं छठी शताब्दी के मध्य हुए , जब इन गुफाओं को मौर्य एवं कुशाणकाल में शिक्षा के प्रमुख केंद्र के रूप में विकसित किया गया ।यहाँ की गुफा नं 3 में सात मीटर ऊँची बुद्ध भगवान की प्रतिमा दर्शनीय    है। यहाँ की अधिकांश गुफाएँ मठ का हिस्सा रही होंगी  ; जहाँ रहने , अध्ययन करने व ध्यान करने की व्यवस्था थी।पूजा के लिए यहाँ चट्टानों को काटकर बनाए गए स्तूप भी हैं ।

      5---  ●●● बादामी गुफा मंदिर कर्नाटक ●●●

बादामी गुफा मंदिर, चालुक्य राजाओं द्वारा छठी-सातवीं सदी में अपनी सत्ता की शक्ति के प्रतीक के रूप में बनाए गए थे।ये गुफा मंदिर कर्नाटक के उत्तरी हिस्से में जिला बागलकोट में हैं ।यहाँ चार गुफा मंदिर हैं, जिनमें तीन हिंदू तथा एक जैन मंदिर है।सौन्दर्य से भरपूर ये गुफाएँ भारतीय कला एवं वास्तु शिल्प में चालुक्य शैली का प्रतिनिधित्व करते हैं ।

बादामी गुफा मंदिरों के भित्तिचित्रों में की गई बारीक नक्काशी इस काल की संस्कृति का परिचय देती है।बादामी गुफाएँ शासकों की धार्मिक सहिष्णुता को दर्शाती हैं, जिसमें हिंदू , बौद्ध एवं जैन धर्म साथ-साथ पनपे ।गुफा नं. 1 भगवान शिव के लिए समर्पित है, गुफा 2 और 3 भगवान विष्णु के लिए तथा गुफा नं. 4 में जैन मंदिर हैं ।
        
          6--  ●●● भाजा गुफाएँ, महाराष्ट्र ●●●

भाजा गुफाएँ 22 गुफाओं का समूह है , जो दो सौ ईसा पूर्व निर्मित की गईं थीं ।ये गुफाएँ बौद्ध धर्म को समर्पित हैं ।महाराष्ट्र पूणे में लोनावाला के समीप स्थित इन गुफाओं में बृहत् चैत्यगृह , एक प्रार्थना कक्ष तथा एक कोने में बना स्तूप है।यहाँ की अन्य प्रसिद्ध संरचना 14 स्तूपों का समूह है , जिसमें 5 स्तूप अंदर हैं तो 9 स्तूप बाहर ।इनमें 12 नं. की गुफा सबसे प्रभावशाली है , यह भारत का सबसे बड़ा चट्टानों से बना हुआ मंदिर है।

   7-- ●●● मशहूर राॅक कट मंदिर , काँगड़ा ●●●

मशहूर राॅक कट मंदिर ,काँगड़ा----   आठवीं और नौवीं सदी में काँगड़ा घाटी के सेंडस्टोन ( बलुआ पत्थर) रिज को तराशकर पिरामिड आकार के दर्जनों मंदिर बनाए गए, जिनमें जटिल नक्काशी की गई है ।एक ही चट्टान से तराशे मंदिर समूह के कारण इसे मिनी एलोरा भी कहा जाता है ।इनके सामने एक बहुत बड़ा 50 मीटर लंबा तालाब है, जिसमें मंदिर का अक्स परछाईं के रूप में सदा  दीखता रहता है।संभवतः यह भारतीय नागर शैली के स्थापत्य का प्राचीनतम नमूना है। माना जाता है कि 1905 के भयावह काँगड़ा भूकंप में मंदिर का कुछ हिस्सा क्षतिग्रस्त हो गया था।

 8--- ●●● महाबलीपुरम के पंचरथ राॅक कट मंदिर ●●●

महाबलीपुरम के पंचरथ भी दक्षिण भारत की स्वयं में अद्भुत संरचनाएँ हैं ।चट्टानों से तराशे गए मंदिर एवं पशुओं ( शेर,हाथी, नंदी) के स्थापत्य एक ही चट्टान से तराशे गए हैं, जिनको सातवीं सदी का माना जाता है ।यह प्राचीन पल्लव साम्राज्य की प्राचीन मंदिर नगरी महाबलीपुरम के नाम से प्रख्यात है।पंचरथ राॅक कट स्थापत्य का यह एक बहुत ही दुर्लभ उदाहरण है ; जहाँ भवन का बाहरी एवं भीतरी भाग -- सब एक ही चट्टान से तराशे गए हैं ।

      9--  ●●● कार्ला गुफाएँ, महाराष्ट्र ●●●

कार्ला गुफाएँ, महाराष्ट्र के लोनावाला में स्थित हैं ।ये भारत के सबसे प्राचीन गुफा मंदिरों में से हैं तथा हिंदू और बौद्ध गुफा स्थापत्य का प्रतिनिधित्व करते हैं ।ये भारत के सबसे विलक्षण राॅक कट चैत्य हैं ।बौद्ध धर्म को समर्पित इन गुफाओं का निर्माण 120 ईसा पूर्व किया गया , जो दूसरी सदी ईसवी तक चलता रहा ।कुछ कार्य पाँचवीं से दसवीं सदी तक चले ।अत्यन्त प्राचीन होते हुए भी इनकी कलात्मक बारीकियाँ बहुत उन्नत किस्म की हैं ; जो प्राचीनकला के श्रेष्ठ उदाहरणों में से हैं ।

यहाँ पर भारत का सबसे बड़ा राॅक कट हाल बना है ; जिसे पहली सदी ईसा पूर्व बनाया गया, जो 45 मीटर लंबा एवं 14 मीटर ऊँचा है ।विशेषज्ञों के अनुसार-- यह रचना कई हजार वर्ष बाद बने ईसाई कैथेड्रल के लिए सृजन-प्रेरणा रही होगी।इन गुफाओं की सीलिंग लकड़ी की बनी हैं, जिन्हें 2000 वर्ष पूर्व काटा गया था और वे आज भी संरक्षित हैं ।

     10---   ●●● अजंता गुफाएँ , महाराष्ट्र ●●●

अजंता गुफाएँ महाराष्ट्र के औरंगाबाद में स्थित हैं ।अजंता गुफाओं को वघोरा नदी के किनारे एक ठोस चट्टान से तराशा गया है ।अजंता गुफाएँ 29 गुफाओं की एक माला है, जिन्हें दो चरणों में, क्रमशः दूसरी सदी ईसा पूर्व एवं छठी शताब्दी में बनाया गया ।ये गुफाएँ भारत में बौद्ध कला के उत्कृष्टतम नमूनों में से एक हैं ।ये गुफाएँ 650 ईसवी से खाली रहीं व सन् 1819 में एक अंग्रेज अफसर द्वारा इन्हें खोजा गया।

ये गुफाएँ प्राचीनकाल की समृद्ध विरासत लिए हुए हैं और मानवता की अभूतपूर्व उपलब्धियों का प्रतिनिधित्व करती हैं ।1200 वर्षों की गुमनामी के बाद जब इन गुफाओं को खोजा गया तो इनके स्थापत्य ने यूरोपीय एवं अमेरिकी कला को गहराई से प्रभावित किया , यूरोप और अमेरिका के कई कलाकार तो अजंता गुफाओं की पेंटिंग एवं मूर्तियों के जैसे दीवाने ही हो गए।

अजंता गुफाओं में जहाँ एक ओर दूसरी सदी ईसा पूर्व में बनी सबसे पुरानी भारतीय पेंटिंग हैं, तो वहीं गुफा नं . 17 में भारत की कुछ सर्वश्रेष्ठ गुफा पेंटिंग भी मौजूद हैं ।अजंता की गुफाएँ इंजीनियरिंग की अद्भुत उपलब्धियोंका प्रतिनिधित्व करती हैं ।कुछ गुफाओं के बड़े-बड़े हाॅल बिना किसी खंभे की सहायता से बने हैं ।
ये हाॅल बाॅस्केट बाल के मैदान जितने बड़े हैं और 1500 वर्षों से बिना किसी परिवर्तन के यथावत् स्थिर हैं ।

अजंता गुफाओं को यूनेस्को द्वारा वर्ल्ड हैरिटेज साइट घोषित किया गया है और ये आर्कियलोजिकल सर्वे ऑफ इंडिया द्वारा भी संरक्षित हैं ।अनेक पर्यटक इन्हें देखने जाते हैं ।

        11--- ●●● ऐलोरा गुफाएँ महाराष्ट्र ●●●

महाराष्ट्र के औरंगाबाद जिले में स्थित ऐलोरा गुफाएँ दो वर्ग किलोमीटर के क्षेत्र में फैली हुई हैं । 34 मठों एवं मन्दिरों को समाहित करती ये संरचनाएँ भारत के अंतिम राॅक कट मन्दिरों में से एक हैं ।ये गुफाएँ निर्माण कौशल एवं कलात्मक दृष्टि से मानवता की सर्वोच्च उपलब्धियों में से एक हैं ।यहाँ तीन धर्मों के मन्दिर विद्यमान हैं ।  12 बौद्ध मंदिर एवं मठ , जिनको 630 से 700 ईसवी में बनाया गया ।  17 हिन्दू मन्दिर, जिनको 550 से 780 ईसवी में बनाया गया और 5 जैन मंदिर, जिनको 800 से 1000 ईसवी में तैयार किया गया ।

ऐलोरा गुफाओं की सबसे अद्भुत रचना है -- कैलास मंदिर, जो लगभग 84 मीटर लंबी एवं 29 मीटर ऊँची संरचना है ।इसे एक ही चट्टान को ऊपर से तराशकर बनाया गया है, जिसमें 100 वर्ष लगे और दो लाख टन चट्टानी पत्थर बारीकी से तराशते हुए हटाए गए ।मन्दिर को कैलास पर्वत के रूप में आकार देने की कोशिश की गई है।

इसके अतिरिक्त कई कलात्मक गुफाएँ हैं , जिनमें कोर्पेटर गुफा  10 , दोताल गुफा  11 , दशावतार गुफा  15 , 
रामेश्वर गुफा 21 तथा अभूतपूर्व रूप में सुसज्जित इंद्रसभा गुफा 32 उल्लेखनीय एवं दर्शनीय हैं । ऐलोरा में विद्यमान मूर्तियों, पेंटिंग्स तथा उत्कीर्ण संदेशों में निहित कलात्मक एवं दार्शनिक संदेशों की अद्भुत समृद्धता को शब्दों में व्यक्त करना कठिन है।

इसी तरह भारत में अन्य और भी गुफा मंदिर हैं, जो प्राचीन भारत की उन्नत स्थापत्य कला, सर्वधर्म समभाव एवं तकनीकी कौशल पर प्रकाश डालते हैं ।सचमुच गुफा मंदिरों का अद्भुत व रोचक संसार है।

   सादर अभिवादन व धन्यवाद ।