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Thursday, April 30, 2020

डाॅ सर्वपल्ली राधाकृष्णन, जीवन परिचय,विद्यार्थी जीवन, अध्यापन काल , भारत के राष्ट्रपति, महान दार्शनिक, उनकी महत्वपूर्ण कृतियाँ

  ●●● डाॅ सर्वपल्ली राधाकृष्णन का जीवन परिचय ●●●
डाॅ सर्वपल्ली राधाकृष्णन का जन्म 5 सितंबर, 1888 को चेन्नई से लगभग 40 किलोमीटर दूर एक गाँव तिरुत्तणी में एक सामान्य स्थितियों वाले विद्याव्यसनी ब्राह्मण परिवार में हुआ था ।उनके पिता वीरस्वामी उय्या पौरोहित्य कर्म करते थे।जिस सर्वपल्ली शब्द का उपयोग उनके नाम से पहले किया जाता है-- यह गाँव ( सर्वपल्ली) वास्तव में उनके पूर्वजों का गाँव है , परन्तु राधाकृष्णन का जन्म तिरुत्तणी में हुआ था।

       यदि राधाकृष्णन की प्रतिभा और संस्कारों पर दृष्टिपात करें तो यह बोध सहज ही होने लगता है कि उनमें धर्मानुरागता और ईश्वरानुराग बचपन में ही पैदा हो गया था और इसके लिए उनके परिवार का वातावरण का योगदान था ।उनमें प्रारम्भ से ही यह गुण पैदा हो गया था कि वे अज्ञात शत्रु थे अर्थात उनके मन में किसी के प्रति वैर-भाव जन्मा ही नहीं था।न राग , न रोष , न द्वेष ।

       ●●● राधाकृष्णन का विद्यार्थी जीवन●●●

                                उनकी जो शिक्षा हुई उसमें भी समभाव का स्वर गुंजित था।गाँव के स्कूल से लेकर ईसाई मिशनरियों की पाठशालाओं में अध्ययन करने के बावजूद वे सबसे कुछ न कुछ सीखते रहते थे।उन्होंने अपनी शिक्षा केवल भारतीय पाठशालाओं और विश्वविद्यालयों में ही पूरी की ।इस तरह वे समग्र रूप से भारतीयता के पर्याय बने रहे ।अपने छात्र जीवन में मिशन काॅलेज में पढ़ाई करते समय ही उनको बाइबिल को पढ़ने का अवसर मिला था।

डाॅ राधाकृष्णन ने एम.ए. करने के पूर्व वेल्लूर में स्कूली शिक्षा पाई और एम. ए. करने तक उनको कठिनाई के दिनों को भी देखना पड़ा था।शिक्षा प्राप्त करने के दिनों में ही उनमें भारतीय दर्शन के प्रति गहरी आस्था ने जन्म लिया और इसके लिए वे स्वामी विवेकानंद के भाषणों को प्रेरणा का सूत्र मानते थे। वे लोकमान्य तिलक से भी बहुत प्रभावित थे।वे 1911 में एम. ए. हो गए थे।

राधाकृष्णन द्वारा लिखे हुए निबन्ध से प्रभावित होकर उनके एक अध्यापक ए. जी. हाॅग ने टिप्पणी की -- कि एम. ए. की परीक्षा के लिए इस विद्यार्थी ने जो निबंध लिखा है -- वह इस बात का प्रमाण है कि वह मुख्य-मुख्य दार्शनिक समस्याओं को भली भाँति समझता है और उनको उसने हृदयंगम कर लिया है ।वह विकट और पेचीदा तर्कों को बहुत अच्छी तरह से प्रकट करने की योग्यता और क्षमता रखता है ।इसके अतिरिक्त अंग्रेजी भाषा पर उसका विलक्षण प्रभुत्व है।

 ●●● डाॅ सर्वपल्ली राधाकृष्णन का अध्यापन काल ●●●
यह कितना आश्चर्यजनक तथ्य है कि मात्र बीस साल की आयु में वे मद्रास के प्रेसीडेंसी कॉलेज में दर्शन और तर्कशास्त्र के सहायक प्राध्यापक बन गए ।उनका जन्मदिवस 5 सितंबर शिक्षक दिवस के रूप में इसलिए मनाया जाता है ; क्योंकि उनके जीवन का महत्वपूर्ण हिस्सा वह रहा है , जब उन्होंने एक शिक्षाविद् के रूप में शिक्षाएँ प्रदान कीं। एक संवेदनशील शिक्षक के रूप में वे अपने समय के साक्षी रहे।

1931 में वे जब आंध्र विश्वविद्यालय के कुलपति बने तब तक उनकी ख्याति विश्वव्यापी हो चुकी थी। उनकी प्रतिभा को पहचान कर कोलकाता विश्वविद्यालय ने उन्हें प्रोफेसर नियुक्त किया था और इस विश्वविद्यालय के कारण उनकी प्रसिद्धि में अभूतपूर्व वृद्धि हुई थी।इस विश्वविद्यालय ने उन्हें सन् 1936 में ब्रिटिश साम्राज्य के विश्वविद्यालयों के एक सम्मेलन में अपना प्रतिनिधि बनाकर भेजा ।अपने जीवन के प्रारंभिक काल से ही उन्हें चमत्कारिक ख्याति और सम्मान मिलने लगा था जो उनकी जन्मजात प्रतिभा का प्रमाण कहा जाएगा

काशी हिंदू विश्वविद्यालय का उनका कार्यकाल भी अत्यन्त महत्वपूर्ण माना जाता है ।एक महान शिक्षाशास्त्री होने के साथ-साथ दर्शन शास्त्र के मनीषी की यह प्रतिभा विलक्षणता का समुच्चय कही जाएगी। अपने अध्यापन काल में वे हमेशा छात्रों की सहायता करते रहे , इसलिए छात्र उनके प्रति असीम श्रद्धा रखते थे। शिक्षकों के हित की चिन्ता भी उन्हें सदा बनी रहती थी।

            ●●● भारत के  राष्ट्रपति ●●●

वे 12 मई , 1962 को विश्व इस सबसे बड़े प्रजातांत्रिक राष्ट्र के राष्ट्रपति बने ।इस सर्वोच्च पद पर उनका प्रतिष्ठित होना इसलिए भी उल्लेखनीय है ; क्योंकि वे एक दार्शनिक थे और अध्यात्म के प्रति गहरी रुचि रखने वाले प्रतिभाशाली व्यक्ति थे।उन्होंने अनेक गौरवशाली पदों पर रहकर अपनी सूझ-बूझ और विद्वता का परिचय दिया था।सन् 1951 में वे मास्को में न केवल भारत के राजदूत थे , वरन् ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय में प्राच्य धर्मों और आचार संहिता के प्रोफेसर भी थे।

राजनीति, धर्म, संस्कृति, अध्यात्म, दर्शन,समाज शास्त्र और शिक्षा के अद्भुत ज्ञानकोष ने उनकी प्रतिभा को विश्व में प्रसारित किया था।उनकी राजनीतिक सोच में भी जीवनदर्शन और अहिंसा की अनुगूँज सुनाई देती है ।
    
 ●●● डाॅ राधाकृष्णन महान भारतीय दर्शनशास्त्री ●●●

वास्तव में डाॅ राधाकृष्णन भारतीय परंपरा के ही नहीं, भारतीयता के प्रतीक और पर्याय भी थे।वे जब-जब विदेशियों के बीच रहे या उनसे वार्तालाप किया , तो उनके वार्तालापों में अपना देश, उसकी संस्कृति-संस्कार , उसका सम्मान उनके लिए सर्वोपरि रहा ।अपने राष्ट्रपतिकाल में उन्होंने अनेक देशों की यात्रा की , लेकिन प्रत्येक यात्रा में भारतीय संस्कार ही उनके सहचर रहे।वे संस्कृति की अनेक विशेषताओं को स्वीकारते हुए भी उन्हें भारतीय दर्शन का अंग मानते थे।

उनके विभिन्न भाषणों और उनकी पुस्तकों को पढ़ने से लगता है कि डाॅ सर्वपल्ली राधाकृष्णन संस्कृति और राष्ट्रीयता के सबसे बड़े समर्थक थे।उन्हें गर्व होता था कि वे इस पवित्र और ऋषि-मुनियों की धरती पर जन्मे।लोकतंत्र के प्रति उनकी गहरी निष्ठा थी ।पाश्चात्य संस्कृति और संस्कार से उनका मानस कभी प्रभावित नहीं रहा।वे जब अपने देश में रहे तब भी और बाहर गए तब भी ; उनकी वेषभूषा में कोई अंतर नहीं आया।वे अनजाने लोगों, सत्ताधारियों और राजनेताओं के बीच हुए तब भी वे केवल भारतीय ही रहे उनका हर विचार भारतीय जीवनदर्शन की आहट देता रहा।

डाॅ सर्वपल्ली राधाकृष्णन के जीवन के अनेक पक्ष रहे हैं ।उनके जैसी प्रतिभाएँ बहुत कम जन्म लेती हैं ।भारतीय मनीषा के अनेक चमत्कार उनकी बौद्धिक ऊर्जा से झरते थे। एक बार उन्होंने अंग्रेजी सभ्यता को ध्यान में रखकर कहा कि आपने हमें धरती पर तेज दौड़ना , हवा में काफी ऊँचाई तक उड़ना और पानी पर तैरना तो सिखा दिया , लेकिन मनुष्यों की तरह रहना आपको नहीं आया।

एक बार जब वे अमेरिका की यात्रा पर थे तो उन्होंने पत्रकारों से कहा कि भारत में विभिन्न धार्मिक विश्वासों, जातियों और आर्थिक स्तरों के 44 करोड़ लोगों ने पिछली दो शताब्दियों के मध्य राष्ट्रीय सामंजस्य और लोकतंत्रीय भावना उत्पन्न करने में अद्भुत सफलता हासिल की है।इसे देखकर निराशावादी भविष्यवक्ताओं को दाँतों तले उँगली दबानी पड़ी है।अनेक देशों के दर्शन शास्त्री भी उनको महान दार्शनिक और प्राच्य धर्मों की आचार संहिता का गहन अध्येता मानते रहे।

    ●●● डाॅ राधाकृष्णन की महत्वपूर्ण कृतियाँ ●●●

कम आयु में ही उनके दर्शन ने बड़ी-बड़ी प्रतिभाओं और विद्वानों को प्रभावित किया ।32 वर्ष की आयु में उनके दो महत्वपूर्ण ग्रन्थों का प्रकाशन हुआ ।ये ग्रन्थ हैं-- दि रेन ऑफ रिलीजन इन कांटेपरेरी फिलाॅसफी और दी फिलाॅसफी ऑफ रवीन्द्रनाथ।उल्लेखनीय तथ्य यह भी है कि डाॅ सर्वपल्ली राधाकृष्णन हमारे प्राचीन ग्रन्थों-- उपनिषद्, दर्शनशास्त्र और अन्य आध्यात्मिक ग्रन्थों के अध्येता थे।

डाॅ सर्वपल्ली राधाकृष्णन ने जिन महत्वपूर्ण कृतियों का अवदान साहित्य को दिया उनमें भी भारत को देखा जा सकता है, जैसे---- 
दि हिंदू व्यू ऑफ लाइफ , दि हार्ट ऑफ हिन्दुस्तान, दि गौतम बुद्ध ,
दि फिलाॅसफी ऑफ रवीन्द्रनाथ,   महात्मा गाँधी, भगवद्गीता, ब्रह्मसूत्र, इंडिया एंड चाइना, रिलीजन एंड सोसायटी , ग्रेट इंडियन्स , दि धम्मपद , दि प्रिंसिपल ऑफ उपनिषद्, आदि अनेक महत्वपूर्ण ग्रन्थों में उनका सांस्कृतिक प्रेम , राष्ट्रीयता और विभिन्न धर्मों के प्रति सम्मान की झलक मिलती है।

उनकी भावनाएँ जितनी अपने धर्म के लिए उदात्त और उदार रहीं, उतना ही सम्मान वे अन्य धर्मों का भी करते रहे ।वास्तव में वे एक ऐसे महापुरुष थे जिनमें हम समूचे मानव समाज , उनके संस्कार, उनके विचार , जीवन दर्शन और उनकी आस्थाओं को देख सकते हैं ।विश्व के सर्वोत्कृष्ट कथनों और विचारों का ज्ञान ही संस्कृति है , यह कथन ऋषियों की परंपरा में जन्मे डाॅ सर्वपल्ली राधाकृष्णन पर सर्वथा चरितार्थ होता है।
         "उनकी दिव्य प्रतिभा को शत्-शत् नमन।"
 
   सादर अभिवादन व धन्यवाद ।

Sunday, April 26, 2020

संत एकनाथ का जीवन परिचय, संतत्व की परिभाषा, एकनाथ का दिव्य व्यक्तित्व, एकनाथ का आदर्श जीवन समाज के लिए प्रेरणादायी

        ●●● संत एकनाथ का जीवन परिचय ●●●
महाराष्ट्र के पैठण गाँव में चैत्र मास , कृष्ण पक्ष की षष्ठी को ब्राह्मण जाति के उच्च कुल मेंं  संत एकनाथ का जन्म हुआ था ।उस समय भारत में मध्यकाल का दौर था।उस समय समाज में आदर्श क्षीण होने लगे थे , विद्या के उपासक अपना कर्तव्य धर्म भूलकर अपने अधिकारों के लिए सचेष्ट रहने लगे थे, क्षरण के उस दौर में संत एकनाथ का जन्म हुआ ।पैठण गाँव उस समय विद्या और शास्त्रों के अध्ययन का केंद्र था।दूर -दूर से लोग यहाँ इसलिए आते थे , ताकि यहाँ के मनीषियों से ज्ञान प्राप्त कर सकें ।

एकनाथ बचपन से ही तीव्र प्रतिभासंपन्न थे , उन्होंने सात-आठ वर्ष की उम्र में ही संस्कृत में वार्तालाप व विमर्श करना सीख लिया था।बारह वर्ष की अवस्था तक तो उन्होंने रामायण, महाभारत व भागवत के कई अंशों व शास्त्रीय संदर्भों का अध्ययन कर लिया था।ज्ञान पाने की तीव्र उत्कंठा के कारण एक दिन वे घर से निकल पड़े और देवगढ़ जाकर जनार्दन स्वामी के शिष्य बन गए ।

संत एकनाथ ने जनार्दन स्वामी के पास रहकर छह वर्षों तक शास्त्रों का अध्ययन व अभ्यास किया।उसके बाद चौबीस मास तक उन्होंने शूलभंज नामक पर्वत पर तपस्या की ।जब गुरु ने उन्हें भलीभाँति परख लिया , तो तीर्थयात्रा पर जाने व अनुभव अर्जित करने के लिए कहा।मात्र तीन वर्ष में ही उन्होंने लगभग सभी तीर्थों की यात्रा कर ली और फिर पैठण में ही गृहस्थी बसाकर रहने का निश्चय किया ।

            ●●● संतत्व की परिभाषा ●●●

व्यक्ति को अपने कुल के कारण नहीं , बल्कि अपने आचार के कारण जीवन में सिद्धि व सफलता मिलती है ।पूजा पाठ करने से भी व्यक्ति कुलीन नहीं होता, असली कुलीनता आती है , सत्य और पुण्य मार्ग पर चलने से और दूसरों को भी सत्य के मार्ग पर चलने की प्रेरणा देने से।सच्चे संतत्व की यही परिभाषा है ।

निश्चित रूप से तप, त्याग और सेवा का जीवन व्यतीत करना ब्राह्मणत्व का आदर्श है।जिन्होंने इस आदर्श के अनुसार आचरण किया , ऐसे अनेक संतों के नाम आज भी बड़े आदर्श व सम्मान के साथ लिए जाते हैं ।संत एकनाथ का नाम भी ऐसे ही आदर्श ब्राह्मणत्व का उत्कृष्ट उदाहरण है।

    ●●● एकनाथ के दिव्य व्यक्तित्व के उदाहरण ●●●

संत एकनाथ के जीवन की अनेक घटनाओं से उनके दिव्य व्यक्तित्व का परिचय मिलता है।संत एकनाथ प्रतिदिन गोदावरी स्नान के लिए जिस मार्ग से जाते थे , उस रास्ते पर एक उद्दंड व्यक्ति का घर था ।जब भी वह एकनाथ को स्नान से लौटते देखता तो जान-बूझकर ऊपर से उन पर कुल्ला कर देता।एकनाथ उससे कुछ भी नहीं कहकर दोबारा स्नान करने चले जाते।एक दिन तो उसने अपनी उद्दंडता की सीमा लाँघ दी , अति ही कर दी और गोदाबरी स्नान से लौटते हुए संत एकनाथ पर एक सौ आठ बार कुल्ला किया । एक सौ नवीं बार वह थक गया और फिर अपने दुर्व्यवहार के लिए माफी माँगने लगा।एकनाथ ने उसे फिर भी यह कहकर धन्यवाद दिया कि  'आज तुम्हारे कारण मुझे इतनी बार गोदावरी के स्नान का पुण्य प्राप्त हुआ।' यह सुनकर वह इतना अभिभूत हुआ कि उनका शिष्य ही बन गया ।

संत एकनाथ को कभी क्रोध नहीं आता था ।उनके इस स्वभाव को परखने के लिए एक बार कुछ लोगों ने एक पंडित को उनके पास भेज दिया ।वह पंडित उन्हें ढूँढता हुआ मंदिर पहुँचा, उस समय वे पूजा कर रहे थे ।फिर भी वह उनकी पीठ पर जाकर बैठ गया ।उसकी धृष्टता को नजर अंदाज करते हुए एकनाथ ने उससे कहा --
" वाह भाई ! मेरे पास कई लोग आते हैं, पर तुम्हारे जैसा प्रेम करने वाला मैंने आज तक नहीं देखा , जो आते ही लिपट जाए।" वे उसे अपने घर ले गए।

संत एकनाथ ने उस पंडित को घर पर खाना खाने के लिए बिठाया तो वह उछलकर भोजन परोसती हुई उनकी पत्नी गिरिजाबाई की पीठ पर बैठ गया ।संत एकनाथ हँसने लगे और बोले -- "देखना, कहीं गिर न जाए ।"  गिरिजाबाई भी हँसकर बोलीं-- " मुझे बच्चे को पीठ पर लेकर काम करने का अभ्यास है ,इसे गिरने न दूँगी ।" 
संत एकनाथ के इस व्यवहार ने उस व्यक्ति को सदा के लिए बदल डाला।

                         एक बार संत एकनाथ की कुटिया से एक कुत्ता रोटी लेकर भागा तो संत एकनाथ भी उसके पीछे -पीछे हाथ में घी की कटोरी लेकर भागे,। उनके अंतस ने कहा-- " मेरे प्रभु  ! आप सूखी रोटी कैसे खाएँगे । ऐसी मनःस्थिति में निश्चित ही परोपकार ही पूजा,परोपकार ही प्रेम और परोपकार ही करुणा का सागर बन जाता है ।ऐसा व्यक्ति समष्टि बन जाता है ।उसके विशाल हृदय में धरती और आकाश भी उतर आते हैं ।सचमुच संत एकनाथ का दिव्य व्यक्तित्व था।

 ●●● एकनाथ जातिप्रथा भेदभाव को नहीं मानते थे●●●
                       हमारे देश में छुआछूत व ऊँच-नीच की मान्यता सदियों से चली आ रही है और समाज में यह इस कदर व्याप्त है कि समाज का एक वर्ग इसके कारण नारकीय उपेक्षा का शिकार रहा है ।संत एकनाथ जातिप्रथा के भेदभाव को बिल्कुल नहीं मानते थे ।उच्च कुल और ब्राह्मण जाति का होते हुए भी उन्होंने कभी किसी के साथ अभद्र व्यवहार नहीं किया । एक बार उनकी पत्नी पूर्वजों के श्राद्ध के निमित्त ब्राह्मण भोज के लिए पकवान बना रही थीं। उसी समय कुछ वंचित जाति के लोग उनके घर के पास से गुजरे और पकवानों की खुशबू पाकर कहने लगे कि हम लोगों के ऐसे भाग्य कहाँ हैं कि ऐसे पकवानों का सेवन कर सकें ।

         संयोग से यह बात संत एकनाथ के कानों में पड़ गई। उन्होंने बिना देर किए उन सभी को घर में बुलाकर अच्छी तरह भोजन करा दिया ।फिर रसोईघर और बर्तनों को अच्छी तरह साफ करके  ब्राह्मणों के लिए दोबारा भोजन बनवाया ।जब ब्राह्मणों को,यह बात पता चली तो वे बहुत नाराज हुए और भोजन करने से इन्कार कर दिया ।संत एकनाथ के बार-बार आग्रह करने पर भी वे भोजन ग्रहण करने के लिए तैयार नहीं हुए तो एकनाथ ने अपने पितरों का आवाहन किया ।ऐसा कहते हैं कि पितरों ने वहाँ सशरीर उपस्थित होकर उनका दिया हुआ भोजन ग्रहण किया।

   ●●● एकनाथ का जीवन समाज के लिए आदर्श ●●●

संत एकनाथ का जीवन आज भी समज के लिए एक आदर्श है, प्रेरणादायक है।संत एकनाथ ने शास्त्रों का जो अध्ययन किया, उसके मर्म को उन्होंने अपने जीवन में आत्मसात् किया ।उन्होंने सच्चे अर्थों में धार्मिक व आध्यात्मिक जीवन जिया ।उनके अंदर सच्चे संत के सभी गुण मौजूद थे।उनके जीवन के कई प्रसंग हैं जिनसे यह प्रमाणित होता है कि उन्होंने अपने कुल के कारण नहीं, बल्कि अपने आचरण के कारण समाज में  उच्च स्थान प्राप्त किया।

गृहस्थ जीवन के आदर्श धर्म का पालन करते हुए उन्होंने अपने आचरण से समाज को प्रेरणा व सीख दी ।दिखावे से वे कोसों दूर थे , विकारों का स्पर्श तक उनके जीवन में नहीं था।वे आजीवन सत्यधर्म के पालन का उपदेश देकर , अंत में यह कहते हुए संसार से विदा हुए कि  " भगवद्भक्तो , मेरे बाद तुम लोग भागवत धर्म का प्रचार जारी रखना और लोगों के विरोध की परवाह न करते हुए इस पवित्र कार्य के लिए तैयार रहना ।"

 हमारी भारत भूमि आदर्श संतों की भूमि है।हमें इन संतों के जीवन से प्रेरणा ग्रहण करके अपने जीवन को आदर्श बनाने की कोशिश करनी चाहिए ।

सादर अभिवादन व धन्यवाद ।

Monday, April 20, 2020

एकाग्रता व तल्लीनता, एकाग्रता व तल्लीनता के चमत्कारिक उदाहरण, एकाग्रता एक प्रकार का योग

           ●●● एकाग्रता व तल्लीनता ●●●
                     अपने भावों में, विचारों में, कर्मों में डूबकर जब हम कुछ करते हैं,उसी को एकाग्रता व तल्लीनता से कार्य करना कहते हैं ।इसी एकाग्रता व तल्लीनता से हम आश्चर्यजनक परिणाम प्राप्त करते हैं ।वास्तव में जिस दिशा में हमारा मन गहराई से जुड़ता है , डूबता है, उतरता है, जितनी मात्रा में तल्लीन होकर वह कार्य करता है , उतने ही आश्चर्यजनक परिणाम को वह हस्तगत करता है।

 वास्तविकता यह है कि हम इतने बिखरे हुए हैं कि किसी भी कार्य में पूरी तरह से डूब नहीं पाते , इसलिए उसके प्रभाव व परिणाम भी आधे-अधूरे पाते हैं ।कार्य में डूब जाने का यह रहस्य जिसने जान लिया है, वह निश्चित रूप से अपने जीवन में आगे बढ़ा है, जीवन में उपलब्धियाँ हासिल की हैं ।वास्तव में जिस दिशा में हमारा मन गहराई से जुड़ता है, डूबता है, हम उसी में कुछ बहुमूल्य खोज लेते हैं ।

जिस तरह समुद्र की गहराई में मोती, माणिक्य व बहुमूल्य रत्न मिलते हैं ; जब कि उथले जल में उन्हें न तो देखा जा सकता और न ही पाया जा सकता ।इसी प्रकार एकाग्रता व तल्लीन होकर कार्य करने पर हम चमत्कारिक सफलता प्राप्त कर सकते हैं, लेकिन आधे- अधूरे मन से कार्य करने पर हम सफलता प्राप्त नहीं कर पाते।

वास्तव में अपने कार्य में एकाग्र होकर हम स्वयं से जुड़ते हैं ।जब हमारा अपने कार्य में मन लगता है तो यह जीवन का बहुमूल्य क्षण होता है, जिसमें हम जीवन में उपलब्धियाँ पाते हैं ।किसी कार्य में डूबकर ही हम उसके बारे में संपूर्ण रूप से जान पाते हैं , विशेषज्ञ बन पाते हैं ।

जितने भी सफल व्यक्ति हुए हैं, महान व्यक्ति हुए हैं उन सभी ने अपने कार्य के प्रति एकाग्र व तन्मय होना सीखा है।कार्य के प्रति समर्पण ही उन्हें वह एकाग्रता देता है, जिसके द्वारा वे स्वयं से,  अपने कार्य से एकाकार हो पाते हैं और यही तन्मयता उन्हें सफलताओं व विभूतियों की सौगात प्रदान करती है।

दुनिया में एक-से-एक सफल लोग हुए हैं, एक से बढ़कर एक आश्चर्यजनक कारनामे लोग करते हैं, लेकिन सबकी सफलता का एक ही कारण है कि वे अपने कार्य में तल्लीन होकर कार्य करना सीख लेते हैं ।लेकिन जैसे ही उनकी यह तल्लीनता भंग होती है, वे पुनः डगमगाने लगते हैं, अधीर हो जाते हैं ।

 ●●●एकाग्रता व तल्लीनता के चमत्कारिक उदाहरण ●●●

स्वामी विवेकानंद के बारे में यह कहा जाता है कि वे एक नजर में ही किताब का पूरा पन्ना पढ़ लेते थे।एक बार जब वे कुछ व्यक्तियों के सामने कुछ ही समय में 400 पन्नों की एक किताब पढ़ गए तो आश्चर्यचकित होते हुए लोगों ने उनसे इसके रहस्य के बारे में पूछा   तो इस बारे में स्वामी जी ने उनसे कहा कि  " यह कोई बड़ी बात नहीं ।बस , मैंने दुनिया की सारी बातें एक तरफ रख दीं और किताब पढ़ने में जुट गया ।ऐसा करके मैंने न केवल किताब की सारी बातें जान लीं , बल्कि मूझे सब याद भी हो गया ।

       एक प्रसिद्ध चित्रकार विन्सेंट वाॅन गाॅग का कहना था कि ' मैं चित्र बनाते  हुए उससे एकाकार हो जाता हूँ , इसी से मेरा अस्तित्व है ।' एक अमेरिकी लेखक विलियम फेदर भी इस बारे में कहते थे कि ' जब व्यक्ति तन्मय होकर कार्य करेंगे तो उनके जीवन में आने वाली आपदाएँ निष्प्रभावी हो जाएँगी और फिर उनके रोजमर्रा के तनावों का असर कमतर होता जाएगा।'

एकाग्रता व तन्मयता से ही वैज्ञानिक नए-नए आविष्कार कर पाते हैं, संगीत कार नई-नई धुनें बनाते हैं, साहित्यकार श्रेष्ठ साहित्य का निर्माण करते हैं । अन्य क्षेत्रों में भी एकाग्रता और तल्लीनता से कार्य से सफल होने के उदाहरण देखने मिलते हैं ।विद्यार्थी जीवन में भी यही एकाग्रता व तल्लीनता काम आती है।

         ●●● एकाग्रता एक प्रकार का योग ●●●

एकाग्रता व तल्लीनता एक प्रकार का योग भी है।ध्यान , मंत्रजप आदि यौगिक क्रियाओं में एकाग्र होकर ही हम स्वयं को जान पाते हैं, अंतर्यात्रा कर सकते हैं और इस यात्रा में हम अपनी उस आत्मचेतना से परिचित होते हैं जो हमारी कल्पनाओं से अलग है और हमसे ज्यादा महान भी है।वास्तव में अपने कार्य में तल्लीन होकर ही हम स्वयं की क्षमता का विस्तार कर सकते हैं ।

 यदि एक बार हमें अपने सभी कार्य  एकाग्र व तल्लीन होकर करने की आदत बन जाए तो कठिन समय में भी हम कार्य करने से पीछे नहीं हटते।परेशानियों में भी अपने कार्य में लगे रहकर जीवन में महत्वपूर्ण उपलब्धियों के स्वामी बन सकते हैं ।ध्यान साधना से भी हमारी एकाग्रता का विकास होता है। 

जिस तरह सोने को निखारने के उसे तपाया जाता है और आग की इस तपन में स्वर्ण की अशुद्धियाँ जलकर भस्म हो जाती हैं व केवल शुद्ध स्वर्ण बचता है उसी तरह जीवन के कठिन मार्ग हमें निखारने आते हैं, हमारे व्यक्तित्व को तपाकर उसे श्रेष्ठ बनाते हैं ।इसलिए जरूरी है कि हम बड़ी लगन और परिश्रम से अपने कार्य करते रहें ।कार्य करने का यह तरीका ही हमें वह सब कुछ हासिल करा देगा , जो हम चाहते हैं ।

जो अपनी दृष्टि अपने लक्ष्य पर रखते है , बाहरी परिस्थितियों से अपने आंतरिक मन की एकाग्रता भंग नहीं होने देते , सदा आगे बढ़ते रहते हैं, अपने कार्य में इतना डूबकर कार्य करते हैं कि किसी भी तरह की समस्याओं से खुद को दूर कर लेते हैं ।परेशानियाँ आती भी हैं तो उन्हें तन्मय देखकर लौट जाती हैं ।अपने आप में इतने एकाग्र, अपने कार्य में इतने तल्लीन व्यक्ति ही अपने कार्यों में चमत्कारिक परिणाम प्राप्त कर पाते हैं ।

एकाग्रता व तल्लीनता से कार्य करने पर सदा ही अच्छे परिणाम हासिल होते ही हैं ।इसी एकाग्रता से ही अनेक व्यक्तियों ने जीवन में महानता हासिल की है ।हम सब भी एकाग्रता से कार्य करने का अभ्यास करके अपने जीवन के हर क्षेत्र में सफलता प्राप्त करें ।एकाग्रता साधने में यौगिक क्रियाएँ सदा ही लाभदायक हैं ।

सादर अभिवादन व धन्यवाद ।

वर्तमान का महत्व, वर्तमान के समय का सदुपयोग

             ●●●वर्तमान का महत्व ●●●
                  वर्तमान ही सच है । इस सच्चाई का अनुभव सभी करते हैं ।इसे छू सकते हैं, इसमें जी सकते हैं, परंतु यह जब चला जाता है, तो अतीत का कालखंड बन जाता है फिर यह हमारा नहीं रहता।इसलिए वर्तमान समय का अधिक महत्व है ; यही समय हमारे हाथ में है, चाहे उसका सदुपयोग किया जाए या दुरुपयोग । 

विरले ही होते हैं, जो वर्तमान क्षण में खड़े रहकर कुछ कर पाने का साहस रखते हैं ;क्योंकि सामान्यतः मन वर्तमान में टिकता नहीं है , मन इतना चंचल है कि या तो यह अतीत की अच्छी-बुरी स्मृतियों में भटकता रहता है या फिर भविष्य के सपनों का ताना-बाना बुनता रहता है।

                जिस प्रकार नदी के बहते हुए जल को दोबारा छू पाना संभव नहीं उसी प्रकार वर्तमान के पल को भी रोक कर नहीं रखा जा सकता ।समय सदा प्रवाहमान है , बह रहा है , इस बहाव एवं प्रवाह का उपयोग कर पाना बोध द्वारा ही सम्भव है अन्यथा मन या तो पीछे की ओर भागता है या फिर किंकर्तव्यविमूढ़ सा बैठे हुए भविष्य के बारे में सोचता रहता है। 

वर्तमान पल से आगे भविष्य है ।भविष्य वर्तमान का प्रतिफल एवं परिणाम है।वर्तमान ही भविष्य को गढ़ता , सँबारता या बिगाड़ता है।वर्तमान ही भविष्य को आधार प्रदान करता है वर्तमान के पीछे अतीत है और आगे भविष्य, दोनों ही हमसे दूर हैं, केवल वर्तमान का पल ही हमारे पास है।

      ●●● वर्तमान के समय का सदुपयोग ●●●

समय का हर पल महत्वपूर्ण है लेकिन इसे पहचानना , स्वीकारना , इसका उपयोग करना व्यक्ति के ऊपर निर्भर करता है ।हर मनुष्य को परमात्मा ने समय रूपी उपहार दिया है , उसका उपयोग करके अनेक लोगों ने जीवन में महानता हासिल की है।अतीत अच्छा है , यदि इससे सीख ली जाए और इस सीख से वर्तमान के सदुपयोग करने का कौशल प्राप्त किया जाए।

सूफी अपने सूफियाना अंदाज में कहते हैं --- पल का सदुपयोग कर लो, वरना पल पराया हो जाएगा और पराया कभी अपना नहीं हो सकता । विख्यात सूफी संत जलालुद्दीन रूमी कहते हैं -- " ऐ मन ! वर्तमान में ठहर जा , अतीत एवं भविष्य की बातें मत बना ।

उपनिषद् कहता है कि क्षण में शाश्वत छिपा हुआ है और अणु में विराट ।जो क्षण को पहचान लेता है वह शाश्वत अर्थात कभी समाप्त नहीं होने वाले सत्य को जान जाता है।इसी तरह जिसने क्षण का तिरस्कार किया , उसका शाश्वत से नाता टूट जाता है।अणु को जो अणु मानकर छोड़ दे , वह विराट की व्यापकता को ही खो बैठता है।

वर्तमान समय में जीना परम साहस का कार्य है ।जो इस साहसिक कार्य को कर पाते हैं अर्थात वर्तमान का सदुपयोग कर लेते हैं, वे सफलता के सर्वोच्च शिखर पर आरूढ़ हो जाते हैं ।वर्तमान का सदुपयोग करने वाले योद्धा वीर जाँबाज ही नहीं, अपितु भविष्य को बदलने की प्रबल क्षमता रखते हैं ।इनको यह पता होता है कि भविष्य गढ़ने के लिए होता है और यह भी वर्तमान के सदुपयोग     ही से संभव एवं साकार हो सकता है।

वर्तमान का सदुपयोग कैसे हो , इसके लिए सर्वप्रथम अपना लक्ष्य स्पष्ट एवं साफ होना चाहिए ।हमें पता तो चले कि हमें करना क्या है ।हम केवल हम बनें, किसी के जैसा नहीं ।इसके लिए अपनी मौलिकता को विकसित करें ।इस लक्ष्य के लिए अपनी क्षमता एवं सामर्थ्य का आंकलन करें कि क्या हमारा लक्ष्य हासिल करने योग्य है। हमें हमारी क्षमता समुचित ज्ञात होनी चाहिए, नहीं तो हमारा लक्ष्य हमसे दूर होता चला जाएगा ।

लक्ष्य को कुछ भागों में बाँटकर फिर प्राथमिकता के आधार पर वरीयता दें और फिर उनको कार्यान्वित करना शुरू करें तो लक्ष्य की प्राप्ति आसान हो जाती है ।जो कार्य पहले करना है , उसे पहले करें, भविष्य के लिए न टालें अन्यथा समय का सार्थक सदुपयोग संभव नहीं हो सकेगा एवं लक्ष्य की उपलब्धि भी नहीं हो पाएगी।समय का सदुपयोग करने के लिए आवश्यक है - पल-पल का अनुशासन मानें एवं इसे क्रियान्वित करें ।

लक्ष्य प्राप्त करने एवं आनन्द प्राप्ति के लिए किसी विशेष समय की प्रतीक्षा करना व्यर्थ है ।जीवन का प्रत्येक क्षण महत्वपूर्ण है, किसी भी  क्षण का मूल्य किसी दूसरे क्षण से न तो ज्यादा है और न ही कम।जो इस बात को जानते हैं, वे अपने प्रत्येक पल को ही आनंदमय बना लेते हैं , और जो विशेष समय की , किसी खास अवसर की प्रतीक्षा करते रहते हैं, वे अपना बहुमूल्य समय गँवा देते हैं ।अवसर चूक न जाए , इसलिए वर्तमान पल-क्षण का सार्थक एवं समुचित सदुपयोग करना सीख लेना चाहिए ।

          ●●● 'अब' की परिभाषा वर्तमान  ●●●

वर्तमान का क्षण 'अब' को परिभाषित करता है । ' अब' का परिचय वर्तमान की गहनता में है। 'अब ' में संभावनाएँ हैं, अनंत उपलब्धियों की धरोहर छिपी है इसमें । फिर भी हम अब को भूले हुए रहते हैं ।अब के स्वर्णिम सत्य को छोड़कर गहरी भ्रांति में जीते रहते हैं , बीती हुई बातों की भ्रांति, आने वाले कल की आशा की भ्रांति । इन्हीं भ्रान्तियों के कारण हम वर्तमान के अवसर का लाभ नहीं ले पाते ।

उपलब्धियाँ प्राप्त करने के लिए  'अब ' में जीना पड़ता है । जीवन की कठिनाइयों को स्वीकार करते हुए पुरुषार्थ करना पड़ता है ।अब का क्षण कर्म के लिए है ; नवजागरण के लिए है ; भ्रांतिमुक्त होने के लिए है।जिसने 'अब ' के लिए स्वयं को तैयार किया , समझो कि उसने जीवन को जान लिया , जीवन को पा लिया और अब रूपी वर्तमान के पल का सदुपयोग करना सीख लिया।

  हर पल बहुमूल्य है।इसे व्यर्थ न गँवाएँ।गया वक़्त वापस नहीं आता ।

सादर अभिवादन व धन्यवाद ।

Saturday, April 18, 2020

पृथ्वी के दो ध्रुव , उत्तरी ध्रुव ( आर्कटिक महासागर) , दक्षिणी ध्रुव ( अंटार्कटिका महासागर ), दोनों ध्रुवों में आइसबर्ग

           ●●● पृथ्वी के दो ध्रुव ●●●
                  पृथ्वी के दो सिरे , उत्तरी एवं दक्षिणी ध्रुव ऐसे स्थान हैं, जहाँ हमेशा बरफ जमी रहती है , तापमान शून्य से भी नीचे के स्तर पर रहता है ।इन कठिन परिस्थितियों में भी यहाँ विशिष्ट जीव-जन्तु एवं वृक्ष- वनस्पतियों के रूप में जीवन गतिशील है, जिसकी अपनी एक रहस्य-रोमांच भरी सृष्टि है।मानवीय जीवन इन ध्रुवों के आस-पास एक अनूठे ढंग से चल रहा है ।

पृथ्वी के दोनों ध्रुवों में बरफ की एक मोटी परत का होना स्वयं में एक अजूबा है।ध्रुवीय क्षेत्रों में बरफ की टोपी बनने का कारण इन उच्चतर क्षेत्रों पर सूर्य की किरणों का तिरछा गिरना है ; जबकि भूमध्य क्षेत्रों में सूर्य की किरणें सीधी बरसती हैं ।इसलिए ध्रुवों पर तापमान शून्य के निकट बना रहता है और वहाँ सदा बरफ की पर्त बनी रहती है।

        ●●● उत्तरी ध्रुव ( आर्कटिक महासागर) ●●●
                          
उत्तरी ध्रुव की खोज सबसे पहले कमांडर राॅबर्ट पीयरे ने सन् 1909 में की थी । उत्तरी ध्रुव में आर्कटिक महासागर है।उत्तरी ध्रुव बरफ के तैरते टुकड़ों एवं आर्कटिक महा- सागर की बरफ से मिलकर बनता है ।यहाँ सागरीय बरफ का क्षेत्रफल लगभग 90 से 120 लाख वर्ग किलोमीटर तथा बरफ की मोटाई तीन से चार मीटर तक तथा रिज की ऊँचाई 20 मीटर तक रहती है।उत्तरी ध्रुव का न्यूनतम तापमान साइबेरिया के एक गाँव में माइनस 67.8 तक मापा गया था।

  बरफ से ढके होने के कारण आर्कटिक क्षेत्र में वनस्पति कम उगती है और जीव- जन्तु के नाम पर यहाँ सील और ध्रुवीय भालू ही मुख्यतया पाए जाते हैं ।उत्तरी ध्रुव के आस-पास रहने वालों को एस्किमोज कहते हैं ।ये एस्किमोज ध्रुवीय क्षेत्र के चारों ओर ग्रीनलैंड से लेकर पश्चिम में अलास्का और बेरिंग जलडमरू मध्य के पार साइबेरिया के उत्तरी-पूर्वी चुकची प्रायद्वीप क्षेत्र तक निवास करते पाए गए हैं ।

एस्किमोज बरफ की सिल्लियों से बने अर्द्धगोलाकार घर में रहते हैं, इन घरों को इग्लू कहते हैं ।इनका प्रमुख आहार मछलियाँ हैं ।रेंडियर इनका प्रमुख पालतू जानवर है , जिनसे इनकी दूध, घी, मक्खन , मांस , वस्त्र आदि की आवश्यकताएँ पूरी होती हैं ।ये स्लेज पर यात्रा करते हैं, जिन्हें पोलर कुत्ते खींचते हैं ।रेंडियर का उपयोग भी इन स्लेजों को खींचने में किया जाता है ।
               
               
    ●●● दक्षिणी ध्रुव ( अंटार्कटिका महासागर) ●●●

दक्षिणी ध्रुव में अंटार्कटिका महासागर है ।अंटार्कटिका सागर की परत लगभग 140 लाख वर्ग किलोमीटर क्षेत्र तक व्याप्त है और पृथ्वी का 90 प्रतिशत ताजा पानी इसमें मौजूद है।दक्षिणी ध्रुव में 3 किलोमीटर तक की मोटी बरफ की चादर ढकी है ।आर्कटिक और अंटार्कटिक की बरफ में एक मौलिक अंतर है ।उत्तरी ध्रुव में बरफ की परत सागर के ऊपर जमी परत से मिलकर बनती है  ; जबकि दक्षिणी ध्रुव की बरफ जमीन पर जमी गहरी बरफ की राशि से बनती है।

दक्षिणी ध्रुव में सबसे पहला शोध केन्द्र अमेरिका द्वारा 1956- 57 में स्थापित हुआ था ।भारत ने इसकी शुरुआत सन् 1983 में दक्षिण गंगोत्तरी स्टेशन के रूप में की , जो वहाँ की बदलती भौगोलिक परिस्थितियों के बीच आज अस्तित्व में नहीं है।इसके बाद सन् 1989 में 'मैत्री'  एवं सन् 2012 में 'भारती' नाम से दो शोध केन्द्र वहाँ स्थापित हुए और आज भी सक्रिय हैं । 

दक्षिणी ध्रुव का औसत तापमान माइनस 49 डिग्री सेंटीग्रेड रहता है ।यहाँ पृथ्वी का  मापा गया अभी तक का न्यूनतम तापमान माइनस 89 डिग्री सेंटीग्रेड है।साल में छः मास सूर्य यहाँ चौबीसों घंटे चमकता है , लेकिन इसका तापमान इतना नहीं होता कि खास गरमाहट दे सके ।यहाँ हवा 320 किलोमीटर प्रतिघंटा की रफ्तार से बहती रहती हैं।बाकी के छः मास यहाँ अंधकार छाया रहता है ।

               अंटार्कटिका ( दक्षिणी ध्रुव ) में वनस्पति के नाम पर ज्यादातर मोस और लीबरबाॅर्ट पनपती है ।इनके अलावा एल्गी , फफूँद , ब्रायोफाइट्स और लाइकेन भी पाए जाते हैं ।जल के रोटिफर,  क्रिल, नेमाटोड और सप्रिंगटेल जैसे सूक्ष्म जीव यहाँ पाए जाते हैं। सबसे बड़ा जमीनी जन्तु यहाँ 12 मिलीमीटर लंबा मिज बेल्जिका है।कई जलीय जन्तुओं ने अंटार्कटिका को अपना बसेरा बनाया है , जैसे--- सील, नीली व्हेल , शार्क्स और पेंग्विन ।

दक्षिणी ध्रुव की विषम परिस्थितियों में प्राकृतिक रूप में मानवीय जीवन की संभावनाएँ दुष्कर हैं, इसके बाबजूद इसके निकटवर्ती क्षेत्रों में लोग बसे हैं, जिनका अपना एक जोखिमों से भरा रोमांचक संसार है ।यहाँ मानवीय जीवन न के बराबर है ।यहाँ वर्ष में एक ही बार सूर्योदय होता है , जो सितंबर माह में होता है।

जो वैज्ञानिक लोग दक्षिणी ध्रुव में किन्हीं प्रयोग-परीक्षणों के लिए वहाँ जाते हैं, वे ध्रुव की टोपी से सैकड़ों किलोमीटर दूर रहते हैं ।गर्मियों के मौसम में तो लोग ज्यादा संख्या में जाते हैं, लेकिन ठंड पड़ते ही बहुत सीमित लोग ही विशेष तकनीकी संरक्षण में वहाँ रह पाते हैं ।

        ●●● दोनों  ध्रुवों में आइस बर्ग ●●●

आइसबर्ग ध्रुव क्षेत्रों की एक खास विशेषता हैं ।ये बरफ के भारी पर्वत तुल्य खंड हैं, जिनका थोड़ा सा हिस्सा ही पानी के बाहर दिखता है व अधिकांश हिस्सा पानी में डूबा रहता है ।हर वर्ष ग्लेशियर से टूटकर हजारों आइसबर्ग बनते हैं और पानी के बहाव के संग सैकड़ों मील दूर तक तैरते देखे गए हैं और अंततः सागर में पिघलकर विलीन होते हैं ।अतः इन्हें गरम क्षेत्रों में भी विचरण करते देखा गया है।।हर वर्ष ग्लेशियर से छिटककर बनते ये हिमखंड धरती पर ताजा जल के सबसे बड़े स्रोत के रूप में करोड़ों लोगों की आवश्यकता पूरी करते हैं ।

                              आर्कटिक क्षेत्र के हिमखंड स्पेन जैसे दक्षिणी देशों तक देखे गए हैं ; जब कि अंटार्कटिका के हिमखंड उत्तर में दक्षिण अफ्रीका के तटों तक पहुँचते देखे गए हैं ।अब तक का सबसे बड़ा आइसबर्ग अंटार्कटिका क्षेत्र से छिटककर सन् 2000 में बना आइसबर्ग माना जाता है, जिसकी लंबाई 295 किलोमीटर और चौड़ाई 37 किलोमीटर थी इसका क्षेत्रफल 11000 वर्ग किलोमीटर था , जो जांबिया , कतार या बहमोस के जितना था।

 इस तरह ध्रुवीय जगत की इन विषम परिस्थितियों के बीच भी इनसानी जीवन मनुष्य की अपरिमित क्षमता को दर्शाता है, जिसके बल पर वह किन्हीं भी परिस्थितियों में रह-बस सकता है और इनके रहस्य को अनावृत कर सकता है ।

सचमुच ध्रुव जगत का बड़ा अनूठा संसार है।

सादर अभिवादन व धन्यवाद ।

Wednesday, April 15, 2020

एकांत और अकेलेपन का अन्तर, अकेलेपन की समस्याएँ, अकेलापन महसूस करने के कारण, अकेलापन दूर करने के उपाय, अकेलेपन को एकांत में परिवर्तित करने के लाभ

  ●●●●● एकांत और अकेलेपन का अन्तर ●●●●●
एकांत और अकेलेपन में बहुत अन्तर होता है।दोनों एक जैसे लगते हैं, पर ऐसा है नहीं ।एकांत और अकेलापन दोनों में ही हम अकेले होते है, परंतु भारी अन्तर है दोनों में ।अकेलापन तब होता है जब हम अपने अकेलेपन से दुखी होते हैं ।हमारा मन उस अकेलेपन से भागने लगता है और अपनों की भीड़ में समा जाना चाहता है।अकेलेपन में एक दुःखद और कष्टप्रद अनुभव होता है।इसके विपरीत एकांत वह है जहाँ हम अकेले होने में प्रसन्न एवं खुश होते हैं ।एकांत हमें शान्ति एवं सुकून प्रदान करता है।एकांत में हमारे जीवन में सुमधुर संगीत फूटता है।

     अकेलापन एक सामान्य व्यक्ति के जीवन की सहज घटना है।सामान्य रूप से व्यक्ति अकेलेपन का अनुभव करता है  ; जबकि एकांत योगी का साथी-सहचर है।सामान्य व्यक्ति अकेलेपन से घबराता है और इससे बचने के लिए वह भीड़ की ओर भागता है।उसके लिए अकेलापन किसी दंड से कम नहीं है ; क्योंकि उसका मन अकेलेपन के इस अनुभव को बरदाश्त नहीं कर पाता है।इसके विपरीत योगी को कभी भी अकेलेपन का एहसास नहीं होता है।योगी एकांत में ही अपनी अंतर्यात्रा की शुरुआत करता है, उसकी सभी आंतरिक विभूतियाँ उसे एकांत में ही उपलब्ध होती हैं ।

           ●●● अकेले पन की समस्याएँ ●●●

सामान्य रूप से अकेलेपन का एहसास हर कोई अपने जीवन में करता है , लेकिन लंबी अवधि तक इसको अनुभव करना अनगिनत समस्याओं को जन्म देता है।अधिक समय तक अकेले पन का अनुभव हमारे मन मस्तिष्क पर नकारात्मक प्रभाव डालता है।अकेलापन-- तनाव, चिंता , व्यग्रता और अवसाद का कारण बनता है । ये मनोविकार हमारे समग्र व्यक्तित्व को प्रभावित करते हैं  और हमारा व्यक्तित्व कुंठाग्रस्त हो जाता है।

      ●●● अकेलापन महसूस करने के कारण●●●

अकेलापन महसूस करने के कई कारण होते हैं , जैसे पारिवारिक परेशानी , सामाजिक समस्या, व्यक्तिगत उलझन , अपनों से दूर होना आदि।कई बार तो ऐसा होता है कि व्यक्ति भीड़ में भी स्वयं को अकेला पाता है और भीड़ में भी व्यक्ति किसी कोने में खड़े रहने के लिए विवश हो जाता है।भीड़ में अकेलापन इसलिए होता है ; क्योंकि व्यक्ति लोगों से अर्थपूर्ण संबंध स्थापित नहीं कर पाता, संबंध नहीं बना पाता और सामंजस्य नहीं बैठा पाता।जब व्यक्ति दूसरों से सामंजस्य एवं सहज संबंध बनाने में सक्षम हो जाता है, तो फिर भीड़ में अकेलापन महसूस नहीं करता।

अकेलापन विशुद्ध रूप से मानसिक एवं भावनात्मक समस्या है ।अकेलापन अर्थात अधूरापन एवं खालीपन ।अकेलापन हमें भावनात्मक रूप से अतृप्त करता है ।
   
        ●●● अकेलापन दूर करने के उपाय ●●●

 हम अकेलापन दूर करने के लिए तरह-तरह के उपाय सोचते हैं ।संगीत सुनते हैं, किसी से मोबाइल पर बात करने लगते हैं या फिर कहीं और व्यस्त रहने की कोशिश करते हैं ।अकेलापन दूर करने के लिए हमें  किसी मनपसंद काम में व्यस्त हो जाना चाहिए ।

अकेलेपन का समुचित एवं सहज समाधान है कि हम अपने मन को शान्त एवं भावनाओं को स्थिर करें ।जो अपने मन पर नियंत्रण रखना सीख जाता है और जो अपनी भावनाओं को स्थिर करना समझ जाता है वह कभी भी अकेलेपन का एहसास नहीं करता और एकांत में रमने लगता है।अब उसके लिए एकांत एक महत्वपूर्ण उपलब्धि बन जाता है ।एकांत में वह अपने जीवन के उद्देश्य एवं अपने लक्ष्य से परिचित होने लगता है।वह अपने जीवन का दिव्य संगीत इसी एकांत में सुन पाता है।

अकेलेपन को एकांत में परिवर्तित करने में कुछ योग-साधनाएँ बड़ी सहायक हो सकती हैं ।जब कभी अकेले हों तो थोड़ी देर ' ॐ' का उच्चारण करके , फिर श्वास को सुनते हुए ध्यान करे।ऐसा करने से धीरे-धीरे आप अपने मन को शान्त रखना व भावनाओं को स्थिर रखना सीख सकते हैं ।यदि आपको पढ़ने का शौक हो तो कुछ अच्छी किताबें पढें ।किताबें अकेलेपन में एक मित्र की तरह साथ देती हैं ।यदि संगीत , चित्रकला या लेखन का शौक हो तो जब भी आप अकेले हों तो इन कलाओं में व्यस्त होने की कोशिश करें ।
 
●●●अकेलेपन को एकांत में परिवर्तित करने के लाभ●●●

अकेलेपन को सकारात्मक कार्यों में व्यस्त रहते हुए एकांत में परिवर्तित किया जा सकता है , रूपांतरित किया जा सकता है ।जब मन को शान्त एवं भावना को स्थिर किया जाता है तो अकेलापन ,  एकांत के सरगम में बदलकर एक दिव्य संगीत का निर्माण करता है और संगीत के इस स्वर में अकेलापन बुलबुले के समान विलीन हो जाता है, फिर कहीं भी किसी को खोजने की जरूरत नहीं पड़ती और नही कहीं जाने की आवश्यकता पड़ती, न किसी को बुलाने की और न किसी में अपनेपन की तलाश रहती है।

अकेलेपन में जिसे सोचकर भय उत्पन्न होने लगता है , उससे भागने का मन करता है, वही अकेलापन जब एकांत में रूपांतरित हो जाता है तो जीवन की वास्तविकता से हमारा परिचय होता है कि हमारे अन्दर कितनी अद्भुत एवं आश्चर्यजनक विभूतियाँ भरी पड़ी हैं, कितने रहस्य समाए हुए हैं, कितनी परतें पड़ी हुई हैं, वे सब एकांत में धीरे-धीरे प्रकट होने लगती हैं ।एकांत में अनगिनत रहस्यों से सिमटा हुआ जीवन परत-दर-परत खुलने लगता है और अज्ञात के विविध आयाम प्रकट होने लगते हैं ।

   एकांत में ही जीवन की गहराई में प्रवेश पाने का प्रारंभ किया जा सकता है ।जिस प्रकार समुद्र की अपार लहरों की जलधाराओं को देखकर यह कल्पना नहीं की जा सकती कि समुद्र के अंदर बहुमूल्य रत्नराशियाँ होगीं , वेशकीमती वस्तुएँ होंगी, परंतु जो इन लहरों को चीरकर समुद्र के अंदर प्रवेश करता है , उसे वह सब हासिल हो जाता है ।ठीक उसी प्रकार बाहरी जीवन के कोलाहल से दूर एकांत में प्रवेश करने पर अपने अंदर दबी हुई सुप्त क्षमताओं का पता चलता है।यह सब एकांत में ही संभव है।

           इसलिए सांसारिक जीवन में ऐसी बहुत सी परिस्थितियाँ आती हैं जब हम अकेलापन अनुभव करते हैं लेकिन हमें अपने इस अकेलेपन से भागने की जरूरत नहीं है, बल्कि आवश्यकता है कि इस अकेलेपन को सहजता से एकांत में परिवर्तित कर दिया जाए ।एकांत में जीवन का सौन्दर्य मुखर उठता है।

हम अकेलेपन और एकांत का अन्तर समझते हुए अपने कुछ अल्प प्रयासों से अकेलेपन को एकांत में परिवर्तित करके महत्वपूर्ण उपलब्धियों के स्वामी बन सकते हैं और अपने जीवन को श्रेष्ठता की ओर अग्रसर कर सकते हैं ।

सादर अभिवादन व धन्यवाद ।

Monday, April 13, 2020

गुरू पूर्णिमा ( व्यास पूर्णिमा) भारतीय संस्कृति में गुरु का महत्व, शिष्यत्व का अर्थ, गुरू व शिष्य का मिलन

     ●●●●● गुरु पूर्णिमा, ( व्यास पूर्णिमा) ●●●●●
                   आषाढ़ शुक्ल पूर्णिमा को गुरुपूर्णिमा पर्व मनाया जाता है । गुरु पूर्णिमा सद्गुरु की पूर्णता की अनुभूति का महोत्सव है।आकृति में वे भी हम सब की भाँति सामान्य लगते हैं, परंतु उनकी प्रकृति सदा ही दैवी और दिव्य होती है।गुरू पूर्णिमा के दिन गुरुचेतना अंतरिक्ष में सघन होकर शिष्यों के अंतस में बरसती है।गुरू पूर्णिमा अपने प्रभु के स्मरण एवं समर्पण का महापर्व है।इस अवसर पर शिष्य अपने अधूरेपन को , अपने अनगढ़ जीवन को पूर्णता में समर्पित करता है और सद्गुरु भी अपनी पूर्णता शिष्य में उढ़ेलता है ।यही मधुर पल-क्षण होते हैं गुरू पूर्णिमा महोत्सव के, जिन्हें शिष्य एवं सद्गुरु की चेतना समन्वित रूप से मनाती है।

इस पावन धरा पर इसी दिन  ऋषि भगवान वेद व्यास का अवतरण हुआ था।भगवान वेद व्यास ने ज्ञान के प्रकाश को प्रचारित- प्रसारित किया ।एक द्वीप में उनका आविर्भाव हुआ था, इसलिए उन्हें द्वैपायन भी कहते हैं ।उन्होंने वेद का वर्गीकरण कर चार भागों में विभक्त किया ।उन्होंने वेद के अखंड एवं एकांत ज्ञान का सरलीकरण करके उसको चार भागों में ( ऋक्, यजु, साम और अथर्ववेद के रूप में) ज्ञान को वर्गीकृत किया।वेद का अर्थ ज्ञान होता है।

भगवान वेद व्यास को गुरु के रूप में वरेण्य किया जाता है ; क्योंकि उन्होंने सबके अंतर में आवृत अज्ञान को , अंधकार को मिटाकर ज्ञान का आलोक फैलाया ।गुरु स्वरूप भगवान वेद व्यास ने इस अपौरुषेय एवं अप्रतिम ज्ञान को प्रकाशित किया ।ज्ञान के मूल स्वरूप को सर्वसामान्य के मध्य प्रसारित किया, इसलिए उनको भगवान वेदव्यास कहा जाता है और उनके जन्मदिवस को गुरु पूर्णिमा के रूप में मनाया जाता है ।

वेदव्यास जी ने वेदों के अलावा अठारह पुराण , महापुराण और ब्रह्मसूत्र आदि आर्ष ग्रंथों का सृजन किया-- जो संपूर्ण मानवता के लिए पथ प्रदर्शन का कार्य करते हैं ।भगवान वेदव्यास ने ज्ञान के दिव्य प्रकाश को सबके अंतर में प्रज्ज्वलित किया ।इसलिए गुरू के रूप में उनका वंदन किया जाता है ।शिष्य की जडवत् चेतना को पारस बनाने का कार्य गुरु के करुणामय एवं स्नेहिल हाथों से होता है।

गुरु को साक्षात् परब्रह्म का स्वरूप माना जाता है ।भारतीय संस्कृति में गुरु और शिष्य के संबंध को सर्वश्रेष्ठ एवं दिव्य संबंध कहा गया है। गुरु पूर्णिमा के आगमन का अनुभव कुछ ऐसा अजब होता है कि शिष्यों के मन को बरबस सद्गुरु की चेतना की ओर खींच लेता है।गुरु कृपा भी इस अवसर पर सद्विचार, सद्विवेक, एवं सद्ज्ञान बनकर अवतरित होती है।शिष्य के समर्पण के अनुरूप गुरु की चेतना उसके जीवन में बोध बनकर प्रकट होती है।समर्पण जितना समग्र होता है , बोध उतना ही संपूर्ण होता है।

जिस तरह से शिष्य ढूँढता है सद्गुरु को , ठीक उसी भाँति सद्गुरु भी खोजते हैं अपने सत्पात्र शिष्य को। सच्चे शिष्य अपने आराध्य की परिचेतना की उस अपूर्व वृष्टि को अनुभव करते हैं और कृतकृत्य होते हैं ।गुरु की स्मृति मात्र से ही शिष्य की आँखें छलक उठती हैं , भाव भीगने लगते हैं ।गुरु अंधकार से प्रकाश की ओर ले जाता है , अज्ञान से ज्ञान की ओर ले चलता है और मृत्यु से मोक्ष की ओर अग्रसर करता है।

       ●●● भारतीय संस्कृति में गुरु का महत्व ●●●

भारतीय संस्कृति में गुरु की महिमा अवर्णनीय एवं अपरंपार है ।गुरु ज्ञान का प्रकाश पुंज है ।गुरु सबसे पहले होता है , माता-पिता तो उसके पश्चात होते हैं ।गुरु स्वयं वेद के समान होता है।वेद शब्द का अर्थ ज्ञान है ।ज्ञान की कोई सीमा नहीं है ।ज्ञान अनंत है, इसका कोई अंत नहीं है।वेद का ज्ञान गुरु कृपा से ही पाया जा सकता है ।

गुरु ज्ञान का दिव्यपुंज है, ऊर्जा का स्वरूप है, करुणा और दया का स्रोत है।गुरु हमारी चेतना को परिष्कृत एवं परिमार्जित करता है और उसे दिव्य व पावन बनाता है।गुरु हमारे अन्दर आध्यात्मिक चेतना को जाग्रत करके, सत्य से, शिव से साक्षात्कार कराता है।गुरु ही आत्मचेतना को विकसित कर परमात्मचेतना में विलय- विसर्जन करने के लिए शिष्य को समग्र रूप से तैयार करता है।

अमूर्त ब्राह्मी चेतना जब रूपाकार होती है तो वह सद्गुरु के रूप में मूर्त होती है। शिष्य तो अमूर्त की कल्पना नहीं कर सकता है ।वह तो सहज- सरल साकार स्वरूप की कल्पना कर सकता है ।समस्त मानवता से प्रेम करना संभव नहीं है उसके लिए ।इसलिए शिष्य मूर्त रूप से गुरु को समर्पण करता है और सद्गुरु उसे समष्टि चेतना के स्वरूप परमात्मा तक पहुँचा देता है।

             ●●●   शिष्यत्व का अर्थ ●●●

शिष्यत्व का अर्थ है-- एक गहन विनम्रता ।शिष्य वही है, जो अपने को झुकाकर स्वयं के हृदय को पात्र बना लेता है। शिष्यत्व तो समर्पण की साधना है , जिसका एक ही अर्थ है-- अहंकार का अपने सद्गुरु के चरणों में विसर्जन ।शिष्य तो वह है , जो जीवन के तत्व को सीखने के लिए तैयार व तत्पर है ; इसके सत्य को समझने के लिए प्रतिबद्ध है।शिष्य का मन लालसाओं के लिए नहीं ललकता, उसकी चेतना कामनाओं के लिए कीलित नहीं होती।

शिष्य यथार्थ में जिज्ञासु होता है और अपनी अनगढ़ प्रकृति को।सुगढ़ एवं सुसंस्कृत करना चाहता है।जो शिष्य अपने गुरूके दिव्य रूप को पहचानता है , वही शिष्य होने के योग्य है।स्वार्थ और अहंकार का विलय और विसर्जन किए बिना शिष्य में शिष्यत्व का उदय संभव नहीं ।जब शिष्य को लगने लगता है कि उसका सर्वस्व गुरु है, उसे ही यह अनुभव होता है कि गुरु का सब कुछ शिष्य का है।सद्गुरु भी शिष्य के सच्चेपन एवं पक्केपन को कई ढंगों से परखते हैं ।

शिष्य को सुपात्र बनने के लिए कड़ी परीक्षाओं के दौर से गुजरना पड़ता है ।शिष्य इन परीक्षाओं को भी अपने गुरू का अनुदान मानते हैं ।यही सच्चाई है ; क्योंकि प्रत्येक परीक्षा के बाद शिष्य की चेतना में एक नया निखार आता है, एक नई चमक एवं आत्मविश्वास पैदा होता है।ये परीक्षाएँ शिष्य को अधिक सुयोग्य एवं सुपात्र बनाती हैं ।

सद्गुरु के प्रति असीम त्याग और सर्वस्व समर्पण के द्वारा ही इन दोनों से मुक्त हुआ जा सकता है।गुरु के प्रति यह समर्पित भाव एवं श्रद्धा-सुमन ही हमारे अंदर सच्चे शिष्यत्व को जन्म देगा।गुरु द्वार है उससे तो जाना है , गुजर जाना है , परंतु हम द्वार से भी गुजरने को तैयार नहीं, तो हम परमात्मारूपी मंदिर में कैसे पहुचेंगे।

            ●●● गुरु व शिष्य का मिलन ●●●

                        शिष्य का गुरु के प्रति समर्पण जन्म-जन्म की साधना का प्रतिफल होता है।गुरु व शिष्य का मिलन तो सामान्य परिचय से होता है।इस प्रारंभिक परिचय में ही सद्गुरु अपने शिष्य की चेतना का मैल हटाना शुरु कर देते हैं ।धीरे-धीरे शिष्य में सद्गुरु के व्यक्तित्व के प्रति आकर्षण बढ़ता है।फिर भी उसके मन में कुछ शंकाएँ रहती हैं ।ऐसे में वह स्वयं को बचाते हुए, अपनी कुछ मान्यताओं के साथ गुरु से जुड़ता है।

परिचय के बाद यह अनुबंध की अवस्था है।जब शर्तें, मान्यताएँ , प्रतिबंध विलीन होते हैं, तब अनुबंध संबंध बनता है।संबंध में बाहरी नहीं आंतरिक प्रगाढ़ता अधिक होती है। गुरु, शिष्य के अंतर्मिलन के द्वार इसी अवस्था में खुलते हैं ।परिचय अब प्रेम में बदल जाता है।गुरु के द्वारा दी गई जीवन की प्रत्येक अवस्था शिष्य को स्वीकार होती है।तब समर्पण की यात्रा शुरू होती है।इसी के अनुरूप प्रारंभ होता है , बोध का क्रम ।इस अनुभव में सद्गुरु एवं परमेश्वर घुले-मिले महसूस होते हैं ।

             सद्गुरु शिष्य को प्रेम करना सिखाते हैं।सद्गुरु सिखाते हैं समर्पण । वे कहते हैं कि 'मैं' मैं नहीं हूँ , बल्कि साकार रूप में उस निराकार का प्रतिनिधि हूँ और तुम्हें साकार से होकर निराकार में समा जाना है।तुम आकार में निराकार को खोजो , तभी तुम्हारा निराकार से मिलन हो पाएगा।सद्गुरु नानक ने अपने मंदिरों को गुरुद्वारा कहा है ।गुरुद्वारा अर्थात गुरु का द्वार।

   गुरुदेव के प्रति यह समर्पित भाव एवं श्रद्धा- सुमन ही हमारे अंदर सच्चे शिष्यत्व को जन्म देगा।हमें अपने सद्गुरु के प्रति अपने अंदर के शिष्यत्व को जाग्रत करने का कार्य इस पर्व पर करना चाहिए ।

सादर अभिवादन व धन्यवाद 

Wednesday, April 8, 2020

" एकांत " में अंतर्मुखी होकर सृजनात्मक शक्ति का उदय करें , सृजनात्मक शक्ति क्या है ?, एकांत के लाभों के पीछे छिपा विज्ञान

 ● एकांत में अंतर्मुखी होकर सृजनात्मक शक्ति का उदय करें ●
अंतर्मुखी होने का अर्थ है-- अपनी वास्तविकता के साथ , अपने वर्तमान के साथ , अपनी संभावनाओं के साथ , अपनी संपूर्णता के साथ होना।

प्रायः लोग अंतर्मुखता को एक अवगुण समझते हैं ; क्योंकि उन्हें अंतर्मुखी होने का वास्तविक अर्थ ही पता नहीं ।लोग अंतर्मुखी होने का मतलब यह समझते हैं कि किसी से बात न करना, अपनी अभिव्यक्ति न देना , शांत व मौन रहना , सामाजिक क्रियाकलापों में भाग न लेना ।जबकि अंतर्मुखी होने का वास्तविक अर्थ है -- अपने साथ होना, और यह तभी संभव है , जब व्यक्ति भीड़ का हिस्सा न हो , भीड़ से दूर एकांत व शान्त हो।

यह सच है कि अंतर्मुखी होकर हम संपूर्ण रूप से एकाग्र हो सकते हैं, अपनी क्षमताओं व शक्तियों का सही आंकलन करके उनका सही उपयोग कर सकते हैं और अपनी अंतश्चेतना का विकास कर सकते हैं, लेकिन इसके लिए सबसे पहले उपयुक्त मनोभूमि तैयार करना आवश्यक है।बिना उपयुक्त मनोभूमि के एकांत वास व्यर्थ की समस्याओं के विषय में सोचने का माध्यम बन जाएगा और उसके कोई सकारात्मक परिणाम नहीं मिल पाएँगे।

हमें धीरे-धीरे एकांत वास का अभ्यास करना चाहिए और प्रारंभ में दिन के कुछ मिनटों से बढ़ाकर अपनी क्षमता के अनुसार उसे एक निर्धारित अवधि तक ले जाना चाहिए ।अवधि बढ़ाने के साथ एकांत वास में अंतर्मुखी चिंतन को प्राथमिकता देनी चाहिए, ताकि
उस समय का सर्वश्रेष्ठ उपयोग किया जा सके ।

जब व्यक्ति अपनी संपूर्णता के साथ होता है और इसके आधार पर अपने लक्ष्य का निर्धारण करता है, अपनी समस्याओं का समाधान ढूँढता है तो इसके परिणाम चमत्कारी होते हैं ।जब व्यक्ति एकांत में शान्त होता है तो वह अपनी संपूर्णता के साथ होता है।तब उसमें सृजनात्मक शक्ति का उदय होता है।

          ●●●सृजनात्मक शक्ति क्या है ?●●●

सृजनात्मक शक्ति वह है , जो नए समाधान देने में सक्षम है ।यही कारण है कि श्रेष्ठ व महान आत्माएँ अपने जीवन का अधिकांश समय एकांत में व्यतीत करती हैं ।जीवन में सफल होना है, कुछ श्रेष्ठ व कुछ नया करना है तो अंतर्मुखी होना होगा अर्थात अपने साथ, अपने वर्तमान के साथ, अपनी वास्तविकता के साथ, अपनी संपूर्णता के साथ होना होगा और इसके लिए आवश्यकता है एकांत व शान्ति की।

सामान्य जीवन से कुछ अलग कुछ देर अपने साथ समय बिताना अद्भुत एहसासों से भरा होता है।प्रतिदिन कुछ समय एकांत में बिताने से हमारा संपर्क हमारी उन शक्तियों से होता है ,जो हमें सफलता के नजदीक ले जाती हैं ।व्यक्ति जैसे ही आधुनिक संसार के बंधनों से बाहर निकलकर प्रकृति में हरियाली के बीच कुछ समय गुजारना शुरू करता है , मस्तिष्क सामान्य विचारों की बेड़ियों से मुक्त होने लगता है व उसमें रचनात्मकता जन्म लेने लगती है।

   ●●● एकांत के लाभों के पीछे छिपा विज्ञान ●●●

             एकांत में रहने के लाभों के पीछे छिपा विज्ञान बड़ा ही विलक्षण है ।एकांत स्व-आलोचना करने वाले मस्तिष्क को शान्त कर देता है और नैसर्गिक प्रतिभा के अब तक के दबे हिस्सों को सक्रिय कर देता है ।इसे अंग्रेजी में " ट्रांजिएंट हाइपोफ्रंटैलिटी " कहते हैं ।इस तरह व्यक्ति जीवन की चुनौतियों के लिए सही मायने में तैयार हो जाता है ।

       जब कोई व्यक्ति एकांत में होता है, तो उसके मस्तिष्क की बीटा तरंगें धीमी होकर अल्फा में बदल जाती हैं ।एकांत पाते ही जब ऐसा होता है , तो स्व-आलोचना , चिंता, द्वंद आदि के लिए जिम्मेदार मस्तिष्क का हिस्सा निष्क्रिय पड़ने लगता है ।इसके आगे की प्रक्रिया में ही एकांत का अभ्यास करने का लाभ छिपा है।

एकांत, शांत व प्रसन्न मनःस्थिति की अवस्था में व्यक्ति की न्यूरोकेमिस्ट्री भी बदल जाती है ।ऐसी अवस्था में प्रसन्नता, आनंद और चेतना जगाने वाले न्यूरोकेमिकल तेजी से बनने लग जाते हैं और नए रचनात्मक विचार आने शुरू हो जाते हैं; रचनात्मकता बढ़ने लगती है ।ऐसी-ऐसी समस्याओं के समाधान मिलते हैं; जिनके समाधान निकालना साधारणतया संभव नहीं हो पाता है ।इसलिए ऋषियों का यह कथन है कि शांत व प्रसन्न मनःस्थिति में दिव्य चेतना अवतरित होती है ।

        आज के समय में छोटे परिवार होते हैं, काम के सिलसिले में सबको अलग-अलग जाना आना पड़ता है अतः इस कारण से कुछ व्यक्तियों को काफी समय अकेले भी रहना पड़ता है , कभी नकारात्मक विचार भी सताने लगते हैं ।इसलिए ऐसे लोग एकांत के समय को सकारात्मक कार्यों में व्यस्त रहते हुए एकांत में अपनी सृजनात्मक शक्ति का उदय कर सकते हैं ।जीवन को खुशहाल बना सकते हैं ।एकांत में उत्पन्न होने वाले भय से भी बच सकते हैं ।
 
एकांत के पलों का समुचित उपयोग करके सृजनात्मक शक्ति का उदय करें ।

     सादर अभिवादन व धन्यवाद ।

Tuesday, April 7, 2020

"एकांत" में ही आत्मसाक्षात्कार संभव, एकांत में ही जीवन की व सत्य की खोज संभव

       ●●● एकांत में ही आत्मसाक्षात्कार संभव ●●●
एकांत में ही आत्मसाक्षात्कार संभव है।एकांत में ही हम परम शान्त और मौन हो सकते हैं और एकांत में ही हम उस द्वार को खोज सकते हैं, जो परमात्मा का द्वार है।सभी ज्ञानी महात्मा, संत , साधक एवं सिद्ध अपनी साधना एकांत में ही पूर्ण कर सके।फिर ये ज्ञानी चाहे बुद्ध हों, चाहे महावीर हों , चाहे मोहम्मद या फिर महर्षि रमण, श्री अरविन्द ।ये सभी परमात्मा की अनुभूति पाने के लिए पहले एकांत में चले गए थे ।

भगवान बुद्ध छह वर्ष तक निरंजना नदी के किनारे जंगल में एकांत में रहे।उनके साथ कोई नहीं था और न ही उन्होंने किसी का साथ खोजा।तीर्थंकर महावीर स्वामी बारह वर्ष तक एकांत में रहकर गहन मौन रहे।मोहम्मद की कथाओं में आता है कि वे तीस दिनों तक एक पर्वत पर एकांत में रहे।ईसा मसीह तीस वर्ष एकांत में रहे।

आधुनिक युग में महर्षि रमण की एकांत साधना की कथा कही जाती है ।उन्होंने अपने जीवन का अधिकांश समय तिरुवन्नामलाई के अरुणाचलम् पर्वत की विरुपाक्षी गुफा में एकांत में गुजारा।एकांत में मौन रहकर उन्होंने अपनी समस्त साधनाओं को संपन्न किया।महर्षि अरविन्द सन् 1910 में पांडिचेरी गए थे ।वहाँ उन्होंने सन् 1950 ईo में शरीर त्याग किया।इन चालीस वर्षों में वे प्रायः एकांत में ही रहे।

एकांत एवं मौन ही जीवन के रहस्य को समझने एवं अपने लक्ष्य तक पहुँचने का एकमात्र साधन एवं समाधान है।जो एकांत प्रिय हैं वे एकांत में ही प्रसन्न रहते हैं, आनंदित रहते हैं ।वे एकांत में ही आनंद को जान पाते हैं ; क्योंकि अकेले में ही स्वयं को परखा और पहचाना जा सकता है ।भीड़ में भला कोई स्वयं की पहचान कैसे कर सकता है।

जो आत्मसाक्षात्कार करने की चाह रखते हैं वे एकांत मिलते ही धयान का अभ्यास करते हैं, आपनी श्वास के प्रति सजग रहते हैं और आध्यात्मिक साधनाएँ करते हैं ।मंत्र, स्वाध्याय का भी सहारा लेते हैं ।ये सभी प्रक्रियाएँ एकांत में ही अच्छी तरह से हो पाती हैं ।अपनी लगन से साधक आत्मसाक्षात्कार की अनुभूति करके ही रहते हैं ।

 ●●● एकांत में ही जीवन की व सत्य की खोज संभव●●●

एकांत में जीवन को अच्छे से जाना जा सकता है।जीवन के आनंद को एकांत में ही सही से अनुभव किया जा सकता है ।एकांत में जो रस है , उस रस की अनुभूति का आस्वासन केवल एकांत में रहकर ही किया जा सकता है ।जो अकेला रहता है, स्वयं के बारे में चिंतन मनन करता है , स्वयं को जानने का प्रयास करता है , वही इस जीवन की सच्चाई को समझ पाता है।

भीड़ में हम दूसरों को पाते हैं, दूसरों को खोजते हैं और दूसरों के साथ खो जाते हैं ।हमारा मन भीड़ में रचने- बसने का अभ्यस्त हो गया है।इसीलिये हम एकांत में काल्पनिक भय से ग्रसित हो जाते हैं और भीड़ में अपने आप को सुखी महसूस करने लगते हैं ; जब कि सुख तो एकांत में है, भीड़ में नहीं ।

मानवीय मन को शान्ति और स्थिरता की जरूरत होती है ।जब मन शान्त और स्थिर होता है तो ही वह अपने विषय में सोच-विचार कर पाता है।तभी वह विचार करता है कि उसे यह जीवन क्यों मिला , किन संस्कारों के कारण वह इस जीवन के सुख और दुःख भोग रहा है , किन संस्कारों के कारण उसे अपने माता-पिता, स्वजन-संबंधी मिले हैं ।

संसार का आकर्षण हमें अपनी ओर खींचता है ।और मन संसार की इच्छाओं में आसक्त रहता है जिसके कारण हम एकांतसेवन का लाभ नहीं उठा पाते ।न हम महत्वपूर्णं सत्य को जान पाते न ही तत्व का संधान कर पाते। यदि हम शान्त होकर अपने पूरे दिन की बातों का विश्लेषण करें तो यह सच्चाई अपने आप प्रकट हो जाएगी कि हम भीड़ में रहना ज्यादा पसंद करते हैं ।भीड़ न मिलने पर हम परेशान हो जाते हैं ।

जीवन की खोज , जीवन के उद्देश्य एवं समझ की पहचान, जीवन रस का आस्वादन कभी भी भीड़ में संभव नहीं है।भीड़ में भला कोई जीवन और जीवन से जुड़े सत्य  की खोज कैसे की जा सकती है।सांसारिक जीवन में भी हम अपने सांसारिक कार्यों को करते हुए भी कुछ समय एकांत में व्यतीत करते ही हैं बस जरूरत है उस एकांत के समय का महत्व समझने की।

एकांत का प्रभाव कितना विलक्षण है, इसे महाकवि सूर्यकांत त्रिपाठी निराला की भावांजलि में इन शब्दों के द्वारा गहनता से अनुभव किया जा सकता है--
       बैठ लें कुछ देर
      आओ , एक पथ के पथिक से 
       प्रिय, अंत और अनंत के,
       तम गहन जीवन घेर।

"एकांत" एक वरदान , सामान्य व्यक्ति एकांत को वरदान कैसे बनाएँ -

            ●●● एकांत एक वरदान●●●
एकांत एक वरदान है ।एकांत हमारे मन की प्रकृति के अनुरूप परिभाषित होता है ।एकांत हमें आनंदित भी करता है और डराता भी है।एक साधक एवं योगी के लिए एकांत के पल ध्यान एवं समाधि का सोपान है, एक भक्त के लिए भगवान से मिलन का मधुर अनुभव और एक वैज्ञानिक एवं चिंतक के लिए ये ही शोध एवं विचार के पल हैं परंतु कुछ लोगों के लिए ये पल अकेलेपन के बोझ की तरह हो जाते हैं ।

मन यदि मजबूत हो तो एकांत में ही सर्वश्रेष्ठ कार्य का संपादन किया जा सकता है ।इतिहास गवाह है कि विश्व के श्रेष्ठतम कार्य एकांत में संपन्न हुए हैं, जिस एकांत से लोग डरते हैं, उसी एकांत में महान विचारकों ने आश्चर्यचकित करने वाले आविष्कार एवं अनुसंधान संपन्न किए हैं ।

जीवन को गंभीरता से समझने वाले संत, महात्मा जीवन को ही सर्वोच्च ग्रंथ मानते हैं, जिसके पन्नों में रहस्य- रोमांच के अद्भुत सूत्र समाहित हैं ।जीवन सूत्रों की विवेचना , विश्लेषण एवं व्याख्या लोगों की भीड़ में संभव नहीं, केवल एकांत में ही की जा सकती है।इसीलिये तो कविवर रविन्द्रनाथ टैगोर ने " एकला चलो रे " का नारा दिया।

स्वामी विवेकानंद ने अकेले रहने का उपदेश देते हूए कहा - कि अकेले रहो ।जो अकेला रहता है, न तो वह दूसरों को परेशान करता है और न दूसरों से परेशान रहता है।जीवन में अकेलेपन को वरदान बनाओ न कि अभिशाप।अतः हमें श्रेष्ठ विचार, पवित्र भाव एवं सदाचरण के द्वारा अकेलेपन को दूर कर उसे बहुमूल्य क्षण में परिवर्तित करना चाहिए ।

लौकिक जगत में किए गए वैज्ञानिक आविष्कार हों अथवा अलौकिक जगत में संपन्न की गई साधनाएँ , ये सभी एकांत के दुर्लभ क्षणों में ही सम्भव हैं ।जिन क्षणों में सामान्य व्यक्ति घबराए और चिंतातुर हो, उन क्षणों को प्रभु का वरदान मानकर उन्हें साधना की अनुभूति में बदल लेने का कार्य महान तपस्वियों द्वारा ही संभव है।

 ●●● सामान्य मानस एकांत को वरदान कैसे बनाएँ ●●●

मनोविज्ञान भी कहता है कि यदि हम सकारात्मक कार्यों में व्यस्त रहें तो बहुत सी चिन्ताओं और तनाव से बचे रह सकते हैं ; क्योंकि यदि हम खाली बैठे रहने की आदत बना लें तो मन में अक्सर नकारात्मक भाव उत्पन्न होने लगते हैं ।अतः हमें कोशिश करनी चाहिए कि अपने आवश्यक कार्यों को करने के अलावा हमें जो खाली समय मिले उसका सदुपयोग करने की कोशिश करनी चाहिए ।

एकांत को वरदान बनाने के लिए सकारात्मक सोच, रचनात्मक चिंतन एवं सदाचरण की आवश्यकता है।सकारात्मक सोच से हम सदा स्वयं के प्रति सावधान एवं जागरूक बने रहते हैं ।इसके लिए हमें अपनी रुचि के अनुसार किसी भी कार्य में व्यस्त रहने की आदत बनानी चाहिए ।जैसे-- किसी को संगीत में, किसी को चित्रकला में, किसी को लेखन में, किसी को पढ़ने में, किसी को खेल में आदि-आदि अर्थात अकेलेपन से जन्मी समस्याओं से बचने के लिए हमें स्वयं को रचनात्मक एवं अच्छे कार्यों में नियोजित करना चाहिए ।

                          हमें अपने मन को उस कार्य में व्यस्त रखना चाहिए, जिसे हम पसन्द करें,हमारा मन उसमें रम जाए।हमें अच्छे व रचनात्मक कार्यों की सूची रखनी चाहिए; ताकि मन को कभी अनियंत्रित होने का अवसर न मिले।व्यस्त रहने से हम कुछ नया सृजन कर पाएँगे ।जिससे हमारा मन भी प्रफुल्लित रहेगा।रचनात्मक सृजन से हम जीवन में बड़ी उपलब्धियाँ भी हासिल कर सकते हैं ।

अपने एकांत के प्रति जागरूक रहने से हम अपने नकारात्मक विचारों को सकारात्मक विचारों में परिवर्तित कर सकते हैं ।यदि हमें स्वाध्याय में रुचि हो तो हमको अपने एकांत के पलों में स्वाध्याय करना चाहिए ।स्वाध्याय मन का स्नान है जिससे नकारात्मक विचार मिटते रहते हैं ।अच्छी पुस्तकें अकेलेपन की सच्ची मित्र होती हैं ।जिनकी मित्रता अच्छी किताबों से हो गई, समझो वे कभी अकेले हो ही नहीं सकते ; क्योंकि उनका मन सदा सद्विचारों से भरा रहता है।

यदि हमारा मन स्वस्थ, सुदृढ़ एवं शान्त होता है तो एकाकीपन हमारा सबसे बड़ा मित्र एवं शुभेच्छु बन जाता है ।जो धार्मिक प्रवृत्ति के होते हैं वे अकेले में हर्षविभोर होकर कीर्तन करते हैं और सकारात्मक ऊर्जा से परिपूर्ण रहते हैं ।योगी, महात्मा एवं संत अपने जीवन में कभी अकेलेपन का एहसास नहीं करते ।वे अकेले हो ही नहीं सकते।

यदि एकांत के क्षणों का सम्यक उपयोग किया जा सके तो उन्हें सामान्य व्यक्ति भी जीवन के महत्वपूर्ण क्षणों में परिवर्तित कर सकते हैं और सदा सकारात्मक चिंतन बनाए रख सकते हैं ।आवश्यक है कि सामान्य मनुष्य भी एकांत के इन बहुमूल्य क्षणों का महत्व समझे और उन्हें सौभाग्य में परिवर्तित करने के लिए प्रयत्नशील हो।

हम अपने समय का सदुपयोग करते हुए, रचनात्मक कार्यों में व्यस्त रहते हुए एकांत को वरदान बना सकते हैं ।एकांत में व्यस्त रहकर हम स्वयं को बहुत सी समस्याओं से बचा सकते हैं ।
              "  एकांत को वरदान बना लें "

सादर अभिवादन व धन्यवाद ।

Saturday, April 4, 2020

स्वास्थ्य-- प्राणों का संतुलन, श्वास में असंतुलन रोगों का कारण , प्राणायाम विधि द्वारा प्राणों के संतुलन से लाभ, श्वास के संतुलन के लिए प्राणायाम के मुख्य तीन अंग

                  ●●●प्राणों का संतुलन ●●●
हम सभी का जीवन श्वास की डोर से बँधा हुआ है।जन्म से ही हम अनवरत श्वास लेते और छोड़ते रहते हैं और जीवन भर यह प्रक्रिया चलती रहती है।शरीर व मन का संतुलन प्राण के द्वारा होता है।

श्वास का संतुलन ही प्राणायाम कहलाता है।योग शास्त्रों में प्राणायाम की कई तरह की विधियाँ हैं, जिनके माध्यम से प्राणवायु ग्रहण किया जाता है और इसका आश्चर्यजनक प्रभाव हमारे शरीर में देखने को मिलता है।प्राण हमारे शरीर में विभिन्न केन्द्रों में उपप्राण के रूप में निवास करता है और शरीर की कई गति- विधियों के संचालन में अपनी भूमिका भी निभाता है।

      ●● श्वास में असंतुलन रोगों का कारण ●●

शारीरिक कष्ट-परेशानी होने पर अथवा मन में विक्षोभ होने पर श्वास की लय में भी व्यतिरेक उत्पन्न हो जाता है ।आजकल अस्वस्थता बहुत बढ़ गई है; क्योंकि आज शरीर, प्राण व मन में संतुलन व सामंजस्य नहीं रहा है।शरीर में ऊर्जाओं के आवर्तन हैं ।ऊर्जा की किरणों को श्वास-प्रकिया समृद्ध बनाती है।आज हमें श्वास लेने का सही तरीका नहीं मालूम है।

प्राणों का संतुलन बनाए रखने के लिए श्वास का सधा रहना बहुत आवश्यक है।जब भी हमारे शरीर में कष्ट होता है तो हमारे श्वास की लय स्वतः ही गड़बड़ा जाती है ।ऐसी स्थिति में हमारा प्राण दूषित हो जाता है और इस प्राण को परिष्कृत करने के लिए व मन के विक्षोभों को दूर करने के लिए श्वास को सँभालना सुधारना जरूरी होता है।इस दृष्टि से देखा जाए तो शरीर , मन व प्राण की डोर श्वास के साथ गहराई से जुड़ी है।

शरीर स्थूल है तो मन सूक्ष्म ।शरीर दृश्य है , पर मन अदृश्य ।इन दोनों में सही तारतम्य न होने के कारण ही शरीर में रोग व मन में शोक होता है तथा प्राण का स्तर प्रदूषित होता है।वर्तमान समय में शारीरिक- मानसिक अस्वस्थता का एक बड़ा कारण शरीर, मन व प्राण में असंतुलन व असामंजस्य है।

योगाचार्य बताते हैं कि हमारी बहुत सी स्वास्थ्य संबंधी समस्याएँ प्राणायाम यानी श्वास साधने से ही ठीक हो सकती हैं ।आज मनुष्य क्रोध , अनिद्रा , मानसिक उद्वेगों आदि विकारों से परेशान है ; क्योंकि उसका अपने श्वास पर नियंत्रण नहीं है।यदि श्वास संतुलित हो जाएगा , तो व्यक्ति की अन्य समस्याएँ भी आसानी से सुलझ जाएँगी।गहरे श्वास के अनेक शारीरिक व मानसिक लाभ भी हैं ।
गहरे श्वास से हम अधिक ऊर्जा या ऑक्सीजन ग्रहण कर पाते हैं ।

     ●●प्राणायाम विधि द्वारा प्राणों के संतुलन से लाभ●●

जीवन जीने की कला का प्रथम चरण श्वास सही ढंग से लेने के तरीके से तय होना चाहिए ।यदि मनुष्य ने लयबद्ध, तालबद्ध ढंग से श्वास लेना सीख लिया तो उसे शारीरिक और मानसिक, दोनों ही प्रकार के विकार नहीं होंगे।अन्य समस्याएँ भी दूर हो सकती हैं ।जो अपनी श्वास के प्रति सजग रहते हैं, वे स्वयं को बहुत से रोगों से दूर रखते हैं ।

जब मनुष्य श्वास के आने-जाने के प्रति सजग होता है तो न केवल शारीरिक क्रियाएँ संतुलित होती हैं, वरन मनुष्य का मन इधर-उधर भटकने के स्थान पर उस क्षण विशेष के लिए वर्तमान में आबद्ध हो जाता है, जिसके कारण उसके व्यक्तित्व में समग्र रूप से एकाग्रता का समावेश हो जाता है ।

योगियों ने श्वास पर गहन , गंभीर प्रयोग किए और यह निष्कर्ष निकाला कि प्राण को साध लेने पर सब कुछ साधा जा सकता है।प्राण के नियंत्रण द्वारा मन पर भी नियंत्रण पाया जा सकता है और मन के सध जाने से शरीर स्वतः ही संतुलित हो जाता है।श्वास के हमारे अस्तित्व में इतना अधिक महत्व होने के कारण ही हिंदू, बौद्ध व सूफी आदि अन्य सभी मतों में श्वास को साधने की विधियाँ, आध्यात्मिक प्रकियाओं का अनिवार्य अंग रही है।

  ●●श्वास के संतुलन के लिए प्राणायाम के मुख्य तीन अंग●●

श्वास के संतुलन के लिए यों तो अनेक विधियाँ प्रचलित हैं, परंतु इसका सबसे सहज व सुलभ तरीका प्राणायाम ही है।प्राणायाम के तीन अंग होते हैं-- पूरक ( श्वास लेना ), कुंभक ( श्वास रोकना ), रेचक (श्वास बाहर निकालना)। इन तीनों में सबसे महत्वपूर्ण क्षण , श्वास के रुकने का क्षण कुंभक है ।कुंभक भी दो प्रकार का होता है --- बाह्य कुंभक ( श्वास को बाहर रोकना ) और अंतः कुंभक ( श्वास को अंदर रोकना )।कुछ दिनों के नियमित अभ्यास से हम बड़ी आसानी से प्राणायाम कर पाते हैं ।जैसे-जैसे हमारे श्वास में संतुलन होने लगता है वैसे-वैसे हमारा मन शान्त होने लगता है।

यह आवश्यक है कि शारीरिक व मानसिक दोनों ही रूप से स्वस्थ रहने के लिए शरीर में स्थित प्राण का परिष्कार किया जाए, उच्च स्तरीय प्राण को ग्रहण किया जाए ।यह प्रक्रिया मंत्र जप, प्राणायाम, उच्च चिंतन व भावमयी पुकार के आधार पर संभव है ।इसके साथ ही शरीर, मन व प्राण इन तीनों में संतुलन सामंजस्य जरूरी है ।ऐसा करके ही हम मानव-जीवन को सही अर्थों में समझ पाएँगे , अपने शरीर, मन और प्राण का सही उपयोग कर पाएँगे, अपनी समस्याओं को सुलझा पाएँगे।

 स्वस्थ और शान्त जीवन के लिए स्वास में संतुलन होना अति आवश्यक है ।इसके लिए प्राणायाम की कोई भी विधियाँ अपनाई जा सकती हैं ।जब भी खाली बैठे हों तो अपनी श्वास को सुनने का अभ्यास करें ।आजकल हमारे देश में योग के प्रति जागरूकता बढ़ रही है और लोग श्वास के संतुलन का महत्व भी समझ रहे हैं ।कोई भी यौगिक क्रिया सदा अपनी क्षमता के आधार पर ही करें ।
          " प्राणायाम से जीवन सधता, प्राणायाम करें "
                           'स्वस्थ हमेशा रहें'
सादर अभिवादन व धन्यवाद । 



Friday, April 3, 2020

स्वास्थ्य- जीवन में नमक की उपयोगिता, नमक का प्रादुर्भाव, नमक के प्रकार ( सामान्य नमक, सेंधा नमक, काला नमक), नमक ऊर्जा का स्रोत

   <<<<<<<<< जीवन में नमक की उपयोगिता >>>>>>>>
नमक का स्वाद न केवल भोजन में जरूरी है, बल्कि यह हमारे जीवित रहने के लिए भी अनिवार्य है।नमक की न्यून ( अल्प) मात्रा से हमारे मस्तिष्क में अतिसूक्ष्म विद्युत-प्रक्रियाओं का संचालन होता है।इसके अलावा, हमारे शरीर में जलसंचय-संतुलन बनाए रखने में यह निर्णायक भूमिका निभाता है।नमक सिर्फ स्वाद प्रदान करने वाला तत्व ही नहीं बल्कि चीनी की तरह बेहतरीन कुदरती संरक्षक भी है।

स्वाद के मामले में नमक का संतुलित मात्रा में होना आवश्यक है ।भोजन में यदि नमक कम हो या ज्यादा हो , दोनों ही स्थितियों में यह स्वाद को बिगाड़ता है , लेकिन भोजन में ठीक-ठीक नमक की मात्रा भोजन के स्वाद को कई गुना बढ़ा देती है।संतुलित मात्रा में नमक का सेवन स्वास्थ्य के लिए लाभकारी व आयु में वृद्धि करने वाला होता है , वहीं नमक का कम या अधिक मात्रा में सेवन स्वास्थ्य को बिगाड़ने वाला व आयु को घटाने वाला होता है।

हमारी लोक संस्कृति में भी नमक से जुड़े हुए कई तरह के मुहावरे प्रचलित हैं , जो नमक के साथ भोजन का संबंध बताने के साथ-साथ मानवीय संबंधों को भी दर्शाते हैं । जैसे -- नमक का कर्ज अदा करना , नमक हलाली करना आदि।नमक के साथ सौन्दर्य का अंतरंग संबंध  ' सूरत के नमकीन होने ' , ' रूप लावण्य 'जैसे प्रचलित मुहावरों से भी स्पष्ट होता है।

          <<<<<<<< नमक का प्रादुर्भाव >>>>>>>>>

वैज्ञानिकों का यह मानना है कि धरती पर जीवन नमकीन जल वाले महासागर में हुआ था ।इसलिए धरती पर जो भी खाद्य पदार्थ व साग-सब्जियाँ हैं, उनमें भी नमक की अल्प मात्रा घुली मिली है, जो हमारे शरीर के संपोषण के लिए जरूरी है ।स्पष्ट है कि नमक का प्रादुर्भाव समुद्र से ही हुआ है।

नमक हमें सागर के जल के वाष्पीकरण से प्राप्त होता है।इसे जहाँ चट्टान से काटकर निकाला जाता है , वहाँ कभी समुद्र या खारे जल का भारी संग्रहण रहा होगा। सदियों से नमक का व्यापार अंतर्राष्ट्रीय व्यापार व संबंधों को प्रेरित करता रहा है।

             <<<<<<< नमक के प्रकार >>>>>>>>
नमक कई प्रकार के होते हैं; जैसे सेंधा नमक( पहाड़ी नमक) समुद्री नमक, काला नमक , सामान्य नमक।

●● सामान्य नमक -- आमतौर पर भोजन में जो नमक प्रयोग होता है वही सामान्य नमक है।भोजन में प्रयोग किए जाने वाले इस नमक में प्रायः सोडियम होता है।सोडियम हमारे शरीर में उच्च रक्तचाप को जन्म देता है तो पोटेशियम उसे कम करता है।इसके अलावा इसमें कुछ अन्य तत्व व रसायन भी होते हैं। आजकल बाजार में यही रिफाइंड आयोडाइज्ड के नाम से मिलता है।इस नमक के अनेक ब्रांड मिलते हैं ।

आयुर्वेदाचार्यों के अनुसार-- रिफाइंड नमक में सोडियम व अन्य रसायन अधिक मात्रा में होते हैं, इसलिए यह स्वास्थ्य की दृष्टि से अच्छा नहीं है।व्रत- उपवास के दिनों में नमक से परहेज करने का विधान है।

●● सेंधा नमक ( पहाड़ी नमक) -- सेंधा नमक साधारण नमक से थोड़ा भिन्न है और यह शाकाहार के लिए उपयुक्त समझा जाता है।सेंधा नमक में कैल्सियम, आयरन, मैग्नीशियम, काॅपर जैसे लगभग 94 तरह के खनिज तत्व पाए जाते हैं, इसलिए स्वास्थ्य की दृष्टि से यह नमक अच्छा माना जाता है ।इसे ही पहाड़ी या हिमालयन नमक भी कहते हैं ।

सेंधा नमक हृदय व पेट के लिए अच्छा माना जाता है और कई तरह की बीमारियों से बचाता है, जैसे-- ब्लडप्रेशर, त्वचा रोग, आर्थराइटिस, ऑस्टियोपोरोसिस, डिप्रेशन , स्ट्रेस आदि।इस नमक के स्तेमाल से मांसपेशियों के खिंचाव व जकड़न में भी राहत मिलती है।व्रत-उपवास में भी इस नमक का प्रयोग किया जाता है ।

●● काला नमक-- काला नमक लौहतत्व से भरपूर होता है।ठन्डी व रेचक प्रकृति के इस नमक से कब्ज, एसिडिटी, पाचन समस्याएँ, गैस, सीने में जलन , हिस्टीरिया, मंददृष्टि , हाई ब्लडप्रेशर, रक्त की कमी व अन्य कई बीमारियों के इलाज में लाभ मिलता है।आयुर्वेद में कई पाचक चूर्णों में काला नमक इस्तेमाल होता है ।

काला नमक के अन्य औषधीय उपयोग भी हैं ।दही  या छाछ में भी काला नमक डालते हैं ।गंधक की गंध वाले काले नमक का इस्तेमाल भोजन का स्वाद बढ़ान के लिए भी किया जाता है।बाजार में साबित व पिसा हुआ- दोनों ही रूपों में काला नमक  उपलब्ध होता है।

       <<<<<<<<< ऊर्जा का स्रोत नमक>>>>>>>>>>

नमक केवल एक खाद्य पदार्थ ही नहीं है, बल्कि ऊर्जा का एक अच्छा स्रोत भी है।नमक हमारे शरीर के लिए आवश्यक तत्व है, जो रक्तशोधक के रूप में काम करता है और शरीर के हानिकारक जीवाणुओं को नष्ट करके होने वाली बीमारियों से हमारी रक्षा भी करता है ।यदि लम्बे समय तक नमक का सेवन न किया जाए तो शरीर में दुर्बलता आ जाती है, लेकिन नमक का अधिक मात्रा में सेवन हानिकारक है ।हर दिन चार ग्राम मात्रा तक नमक का सेवन एक सामान्य शरीर के लिए पर्याप्त माना जाता है ।

गरमी के मौसम में डीहाइड्रेशन  ( शरीर में पानी की कमी) की समस्या में, नमक-चीनी के मिश्रण द्वारा ओरल रिहाइड्रेशन थेरेपी के माध्यम से उपचार किया जाता है ।हालाँकि रक्तचाप के रोगियों या क्षतिग्रस्त गुरदे वालों को नमक से परहेज करना पड़ता है या उन्हें कम सोडियम वाले ( पोटेशियम जनित) नमक का नुस्खा अपनाना पड़ता है।
 
नमक कुदरती संरक्षक है इसलिए दुनिया में पिछले कई वर्षों से अचार, जैम आदि बनाने में नमक का इस्तेमाल किया जाता रहा है।सभी साग- सब्जियाँ, फल व अन्य खाद्य पदार्थ इत्यादि में कुदरती तौर पर नमक की अल्प मात्रा रहती है इसी कारण जो व्यक्ति बिना नमक का ( अस्वाद ) भोजन लेते हैं उनके शरीर में नमक की आपूर्ति इन फल, सब्जियाँ व खाद्य पदार्थों से किसी न किसी रूप में हो जाती है।इसलिए वे सामान्य जीवन जी पाते हैं ।

नमक के बारे में जानकारी प्राप्त करने के बाद हम कह सकते हैं  कि नमक की जीवन में बहुत उपयोगिता है ।इसलिए हमें अपने भोजन में  सभी प्रकार के नमक संतुलित मात्रा में ग्रहण करने चाहिए ।जिस तरह भोजन में नमक की मात्रा संतुलित होनी चाहिए, उसी तरह हमें अपने जीवन के हर आयाम में संतुलन बैठाना चाहिए और अतिवाद या न्यूनवाद से बचना चाहिए ।

भोजन में नमक का संतुलन स्वास्थ्य के लिए लाभदायक है।

सादर अभिवादन व धन्यवाद ।

Thursday, April 2, 2020

शंख - भारतीय धर्मशास्त्रों में शंख का महत्व, शंख के प्रकार, शंख स्थापना एवं शंख ध्वनि ,शंख के विभिन्न लाभ

●●●●● भारतीय धर्मशास्त्रों में शंख का महत्व●●●●●
भारतीय धर्मशास्त्रों में शंख का विशिष्ट एवं महत्वपूर्ण स्थान है।मंदिरों एवं मांगलिक कार्यों में शंखध्वनि का प्रचलन है।माना जाता है कि शंख का प्रादुर्भाव समुद्रमंथन से हुआ था।समुद्रमंथन से प्राप्त चौदह रत्नों में शंख भी एक है।विष्णु पुराण के अनुसार माता लक्ष्मी समुद्रराज की पुत्री हैं तथा शंख उनका सहोदर भाई है।अतः यह भी मान्यता है कि जहाँ शंख है , वहीं लक्ष्मी का वास होता है ।स्वर्गलोक में अष्टसिद्धियों एवं नवनिधियों में शंख का महत्वपूर्ण स्थान है।भगवान विष्णु इसे अपने हाथों में धारण करते हैं ।

शंख निधि का प्रतीक है ।इस मंगल चिन्ह को घर में पूजास्थल पर रखने से स्वयमेव अरिष्टों एवं अनिष्टों का नाश होता है और सौभाग्य की वृद्धि होती है ।धार्मिक कृत्यों में शंख का उपयोग किया जाता है ।प्राचीनकाल में प्रत्येक घर में शंख की स्थापना की जाती थी।शंख को देवता का प्रतीक मानकर पूजन करते एवं इसके माध्यम से अभीष्ट की प्राप्ति करते थे।पूजा-आराधना, अनुष्ठान-साधना , आरती, महायज्ञ एवं तांत्रिक क्रियाओं के साथ शंख का आयुर्वेदिक व वैज्ञानिक महत्व भी है।शंख की विशिष्ट पूजन पद्धति एवं साधना का विधान भी है।

            <<<<<<<< शंख के प्रकार >>>>>>>>>

                                         शंख की आकृति के आधार पर इसके प्रकार माने जाते हैं ।मुख्यतः शंख तीन प्रकार के होते हैं--- दक्षिणावृत्ति शंख, मध्यावृत्ति शंख, वामावृत्ति शंख।जो शंख दाहिने हाथ से पकड़ा जाता है , वह दक्षिणावृत्ति शंख कहलाता है।जिस शंख का मुँह बीच में खुलता है , वह मध्यावृत्ति शंख होता है तथा जो शंख बाएँ हाथ से पकड़ा जाता है, वह वामावृत्ति शंख कहलाता है।

                             मध्यावृत्ति एवं दक्षिणावृत्ति शंख सहज रूप से उपलब्ध नहीं होते हैं ।इनकी दुर्लभता एवं चमत्कारिक गुणों के कारण ये अधिक मूल्यवान होते हैं ।इनके अलावा लक्ष्मी शंख, गोमुखी शंख, कामधेनु शंख, विष्णु शंख, सुघोष शंख, गरुड़ शंख, मणिपुष्पक शंख , राक्षस शंख, शनि शंख, राहु शंख, केतु शंख, शेषनाग शंख, कच्छप शंख आदि अनेक प्रकार पाए जाते हैं ।उच्च श्रेणी के शंख कैलास मानसरोवर, मालद्वीप, लक्षद्वीप, कोरामंडल द्वीप समूह , श्री लंका एवं भारत में पाए जाते हैं ।

महाभारत में सभी योद्धाओं ने युद्घ घोष के लिए अलग-अलग शंख बजाए थे।श्री मद्भगवद्गीता के प्रथम अध्याय के श्लोक 15 - 19  में इसका वर्णन मिलता है--
श्री कृष्ण भगवान ने पांचजन्य नामक, अर्जुन, देवदत्त और भीमसेन ने पौंड्र शंख बजाया ।कुंती -पुत्र राजा युधिष्ठिर ने अनंतविजय शंख , नकुल ने सुघोष एवं सहदेव ने मणिपुष्पक नामक शंखनाद किया। इसके अलावा काशीराज, शिखंडी , धृष्टद्युम्न , राजा विराट , सात्यिक , राजा द्रुपद , द्रोपदी के पाँचों पुत्रों और अभिमन्यु आदि सभी ने अलग-अलग शंखनाद किया।

       <<<<<<<< शंख स्थापना और शंख ध्वनि >>>>>>>>>>


घर में पूजा वेदी पर शंख की स्थापना की जाती है ।निर्दोष एवं पवित्र शंख को दीपावली, होली , महाशिवरात्रि, नवरात्र, रवि-पुष्य, गुरु-पुष्य नक्षत्र आदि शुभ मुहूर्त में विशिष्ट कर्मकांड के साथ स्थापित किया जाता है ।विष्णु शंख को दुकान, ऑफिस, फैक्टरी आदि में स्थापित करने पर वहाँ के वास्तुदोष दूर होते हैं तथा व्यवसाय में लाभ होता है।रुद्र , गणेश, भगवती, विष्णु भगवान आदि के अभिषेक के समान शंख का भी गंगाजल, दूध, घी , शहद, गुड़, पंचद्रव्य आदि से अभिषेक किया जाता है ।इसका धूप दीप नैवेद्य से नित्य पूजन करना चाहिए और लाल वस्त्र के आसन में स्थापित करना चाहिए ।

शंखराज सबसे पहले वास्तुदोष दूर करते हैं ।मान्यता है कि शंख में कपिला ( लाल) गाय का दूध भरकर भवन में छिड़काव करने से वास्तुदोष दूर होते हैं ।परिवार के सदस्यों द्वारा आचमन करने से असाध्य रोग एवं दुःख - दुर्भाग्य दूर होते हैं ।

                        शंख को विजय, समृद्धि, सुख, यश, कीर्ति तथा लक्ष्मी का प्रतीक माना गया है । वैदिक अनुष्ठानों में विभिन्न प्रकार के शंख का प्रयोग किया जाता है ।पारद शिवलिंग, पार्थिव शिवलिंग एवं मन्दिरों में शिवलिंगों पर रुद्राभिषेक करते समय शंख ध्वनि की जाती है।आरती में, धार्मिक उत्सव में, हवन-क्रिया में, राज्याभिषेक , गृहप्रवेश, वास्तुशान्ति आदि शुभ-अवसरों पर शंख ध्वनि से लाभ मिलता है ।पितृ तर्पण में शंख की अहम् भूमिका होती है ।

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पूजास्थली पर दक्षिणावृत्ति शंख की स्थापना करने एवं पूजा-आराधना करने से माता लक्ष्मी का चिरस्थायी वास होता है।इस शंख की स्थापना के लिए नर-मादा शंख का जोड़ा होना चाहिए ।स्वयं लक्ष्मी माता कहती हैं कि शंख जहाँ होगा वहाँ पर वे भी होंगी।देव प्रतिमा के चरणों में शंख को रखा जाता है।

अन्नपूर्णा शंख की व्यापारी व सामान्य वर्ग द्वारा अन्नभंडार में स्थापना करने से अन्न, धन,लक्ष्मी, वैभव की उपलब्धि होती है।मणिपुष्पक एवं पांचजन्य शंख की स्थापना से भी वास्तुदोषों का निराकरण होता है।

वैज्ञानिकों के अनुसार शंखध्वनि से वातावरण का परिष्कार होता है ।इसकी ध्वनि के प्रसार-क्षेत्र तक सभी कीटाणुओं का नाश हो जाता है ।इस संदर्भ में अनेक प्रयोग- परीक्षण भी हुए हैं ।पुराणों में उल्लेख मिलता है कि मूक एवं श्वास रोगी हमेशा शंख बजाएँ तो बोलने की शक्ति पा सकते हैं ।दूध का आचमन कर कामधेनु शंख को कान के पास लगाने से " ॐ " की ध्वनि का अनुभव किया जा सकता है ।यह सभी मनोरथों को पूर्ण करता है।

वर्तमान समय में वास्तुदोष के निवारण के लिए जिन चीजों का प्रयोग किया जाता है, उनमें से यदि शंख आदि का उपयोग किया जाए तो कई प्रकार के लाभ हो सकते हैं ।यह न केवल वास्तुदोषों को दूर करता है बल्कि आरोग्य वृद्धि भी करता है।

आज विज्ञान का युग है इसलिए कभी-कभी हमें यह संदेह होता है कि क्या यह अन्धविश्वास तो नहीं ।लेकिन यह भी सच है कि हमारी वैदिक परम्परा अत्यन्त श्रेष्ठ है।हमारे ऋषि-मुनियों ने पूजा पद्धति में प्रयोग होने वाली सभी वस्तुओं पर शोध की है ।इसलिए हमें संदेह नहीं करनी चाहिए ।

आज भी हम देखते हैं कि हवन और पूजन में शंखध्वनि का प्रचलन है ।घरों में पूजा स्थान पर शंख स्थापित किए ही जाते हैं ।
वैज्ञानिक इन विषयों पर अनुसंधान भी करते रहते हैं ।

सादर अभिवादन व धन्यवाद ।