ध्यान के समान कोई तीर्थ नहीं है।
ध्यान के समान कोई तप नहीं है।
सामान्य रूप से संसार एक भीड़ भरा स्थान है और आध्यात्म एकात्म और एकांत की अंतर्यात्रा है।ध्यान साधना का नियमित अभ्यास जीवनी शक्ति को बढ़ाता है और रोग प्रतिरोधक क्षमता में वृद्धि करता है।यह ध्यान ही परिचय कराता है हमारा अपने आप से।यह शून्य गहनता ही हमारा अपना स्वरूप है।
ध्यान योग का उद्देश्य मस्तिष्कीय बिखराव को रोककर उसे एक चिन्तन बिन्दु पर केन्द्रित कल सकने में प्रवीणता प्राप्त करना है।
गुरु गोरखनाथ---
"हँसिबा खेलिबा धरिबा ध्यान" अर्थात ध्यान में कोई मेहनत नहीं करनी पड़ती ।
मन को केन्द्रित करना ध्यान है।ध्यान विश्राम की अवस्था है।
ध्यान का अर्थ निर्विचार होना है।ध्यान करने से हमारी समस्याओं को हल करने की क्षमता बढ़ती है, विचारों में स्पष्टता आती है।
शुरुआत में ध्यान का अभ्यास करना पड़ता है, बाद में तो स्वतः ही होने लगता है।खाली समय में कभी भी 'ओउम्' जाप करते हुए आज्ञा चक्र में ध्यान लगाएँ तो परम शान्ति का अनुभव होता है।जब भी खाली समय मिले तभी शान्त भाव से अपनी श्वास को सुनने का अभ्यास करें।ऐसा करने से ध्यान जल्दी सधने लगता है।
प्रभु नाम की मीठी- मीठी धुन
इस मधुर प्रीति के राग को सुन ।
मन की वीणा के तारों में
अंतर्मन की झंकार को सुन ।।
महर्षि पतंजलि ने योग - साधनाओं में ध्यान को विशुद्ध रूप से एकाग्रता की प्राप्ति का मुख्य आधार माना है।ध्यान में विचारों को रोकने का प्रयास न करें ।निरंतर अभ्यास करने से विचारों की संख्या कम हो जाएगी, उनकी गुणवत्ता बढ़ जाएगी।
ध्यान योग के कल्पवृक्ष की छाया में सच्चे मन से बैठने वाला व्यक्ति आत्म- बोध का लाभ ले सकता है, नर- नारायण के समकक्ष बन सकता है।मन में कुछ ऐसी चमत्कारिक सामर्थ्य है, जो शरीर से कई गुना ज्यादा है।ध्यान हमारी इसी सामर्थ्य को बढ़ाता है।
मस्तिष्क में एक अद्भुत संसार छिपा है, जिसे यन्त्रों से नहीं ध्यान साधना से ही देखा जा सकता है।ध्यान सिद्धि के माध्यम से हमारी अंतर्दृष्टि प्रकाशित हो जाती है।
ध्यान के इस लेख पर ध्यान देने वालों को सादर धन्यवाद ।
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