आज विश्व में ग्लोबल वार्मिंग एक गंभीर समस्या बन चुकी है।जलवायु परिवर्तन के दुष्प्रभावों से निपटने की लाख कोशिशों के बावजूद हमारी पृथ्वी का तापमान लगातार बढ़ रहा है।
वायु में विभिन्न गैसें एक निश्चित मात्रा में होती हैं।इनकी मात्रा में जरा सा भी अन्तर आने पर यह असंतुलित हो जाती हैं ।वर्तमान समय में पर्यावरण में ग्रीनहाउस गैसों का घनत्व बढ़ने के कारण पृथ्वी का तापमान खतरनाक स्तर तक बढ़ने लगा है।कार्बनडाइऑक्साइड, मीथेन, नाइट्रस ऑक्साइड व ओजोन जैसी गैसों का गुण ही यह है कि वे हमारे वातावरण को खतरनाक बना देती हैं ।इन्हें ही ग्रीनहाउस गैसें कहते हैं ।
पर्यावरण असंतुलन के कारण ग्लेशियर्स पिघल रहे हैं, परिणाम स्वरूप समुद्र का जलस्तर बढ़ सकता है।हम काफी समय से खेती- बारी व शहरों को बसाने के लिए वन्यक्षेत्रों को नष्ट करते रहे हैं ।इस गतिविधि ने भी जमीन के गरमी सोखने के व्यवहार को बदला है।इन्हें हम 'एंथ्रोपोजेनिक' यानी मानवीय गतिविधियों का नतीजा कहते हैं ।
विगत अठारह वर्षों में जैविक ईंधन के जलने के कारण कार्बनडाइऑक्साइड का उत्सर्जन 40 प्रतिशत तक बढ़ चुका है और पृथ्वी का तापमान 0.7 डिग्री सेल्सियस तक बढ़ा है।वनों के नष्ट होने से कार्बनडाइऑक्साइड की मात्रा बढ़ रही है ।
कार्बनडाइऑक्साइड की जितनी मात्रा आज है, उतनी पहले कभी नहीं थी।हम मनुष्यों ने अपने स्वार्थ के लिए प्रकृति का इतना अधिक शोषण कर लिया है, जिसके कारण प्राकृतिक असंतुलन हुआ और ग्लोबल वार्मिंग की समस्या उत्पन्न हो गई है।आंकड़ों के आईने में देखें तो जब से मानव सभ्यता का विकास क्रम आरंभ हुआ है, तब से अब तक पेडों की संख्या में लगभग 46% तक की कमी आई है।
जैसे ही धरती पर इन्सानों ने जीवाश्म ईंधन, तेल और प्राकृतिक गैस का बड़े पैमाने पर इस्तेमाल शुरु किया, हवा में कार्बनडाइऑक्साइड की सघनता बढ़ती गई ।इस गैस ने वातावरण के ऊपर एक कंबल का काम किया, जिससे धरती की गर्मी बाहर नहीं निकल रही और धरती का तापमान बढ़ता जा रहा है।
वातावरण में होने वाले तापमान में बदलाव का अध्ययन करने पर यह पाया गया है कि सन् 1950 के दशक तक तो तापमान में कोई खास बदलाव नहीं हुआ, लेकिन उसके बाद से यह बढ़ता गया है और इस वृद्धि का प्रमुख कारण ग्रीनहाउस गैसें ही रही हैं ।अध्ययन में यह भी पाया गया कि देश के अलग-अलग हिस्सों में तापमान में वृद्धि की दर एक जैसी नहीं है और कारण भी एक जैसे नहीं हैं ।
वैज्ञानिकों के अनुसार यदि तापमान दो डिग्री सेल्सियस से ज्यादा बढ़ गया तो सन् 2030 तक आर्कटिक महासागर की बरफ की चादर पिघल जाएगी तथा पृथ्वी पर ऊर्जा का भार अनियंत्रित हो जाएगा।संयुक्त राष्ट्र पैनल की रिपोर्ट में यह चेतावनी दी गई है कि हिमालय के हिमनद अत्यधिक पिघल रहे हैं और संभवतः सन् 2035 तक उनका निशान तक नहीं रहेगा।
डेनमार्क के कोपेनहेगन में 192 देशों के प्रतिनिधियों ने पर्यावरण पर चर्चाओं के बाद यह निष्कर्ष निकाला कि ग्लोबल वार्मिंग वातावरण में कार्बनडाइऑक्साइड की मात्रा बढ़ने के कारण हुई है फिर पर्यावरण की रक्षा के लिए यह समाधान निकाला कि हर देश ग्रीन हाउस गैस उत्सर्जन कम करे, लेकिन बड़े देश जो कि सर्वाधिक प्रदूषण फैला रहे हैं, वे झुके नहीं, वे अपने विकास की दर को प्रभावित करना नहीं चाहते।
हमारे देश में पश्चिमी हिमालय के बढ़ते तापमान से बरफ पिघलेगी, जिससे नदियों में जल प्रवाह अत्यधिक बढ़ेगा ।मैदानी इलाकों में बढ़ता तापमान से अत्यधिक गर्मी बढ़ेगी और कृषिकार्यों
पर भी संकट बढ़ेगा ।
अतः आज समस्त विश्व को जलवायु परिवर्तन, विशेषकर धरती पर बढ़ते हुए तापमान को नियंत्रित व संतुलित करने हेतु सबसे पहले हरियाली बढानी होगी और ग्रीनहाउस गैसों उत्सर्जन के लिए जिम्मेदार कारकों पर अंकुश लगाना होगा।
हालाँकि दुनिया के कई देशों और उनके नेतृत्व द्वारा ग्लोबलवार्मिंग से निपटने के लिए अनेकानेक प्रयास किए जा रहे हैं ।धरती में तापमान में वृद्धि का सबसे अधिक दुष्प्रभाव दक्षिण एशिया के देशों पर पड़ सकता है।
"आओ सब मिलकर पेड़- पौधे लगाकर धरतीमाता का श्रृंगार करें"
धरती को गर्म होने से बचाएँ ।
वर्तमान युग की समस्या ' ग्लोबल वार्मिंग' पर यह लेख पढ़ने के लिए सादर धन्यवाद ।
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