समाधि क्या है ? क्या यह सबके लिए सुलभ है ? अक्सर ही साधकों के मन में इस तरह के विचार आते रहते हैं ।
'समाधि' वह अवस्था है, जिसमें साधक को जीव,जगत तथा ब्रह्म के बीच पूर्ण एकत्व की अनुभूति होती है।योग की सभी परम्पराओं का ध्येय, आत्मचेतना के भीतर ईश्वरत्व की अनुभूति को प्राप्त करना है।योग सूत्र में राजयोग के आठ अंग हैं---यम , नियम , आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान, समाधि। नियमित योग साधनाओं के द्वारा चित्त का क्रमिक रूप से विकास होता है।इन साधनाओं की पूर्णता समाधि है।
वैज्ञानिक की अवस्था को 'धारणा', कलाकार की अवस्था को 'ध्यान' एवं योगी की अवस्था को 'समाधि' कहते हैं ।
जब हम शरीर के बाहर-भीतर ,किसी वस्तु, विषय, विचार पर चित्त को केन्द्रित करने का प्रयोग करते हैं तो वह 'धारणा' होती है।धारणा की गहराई में ही 'ध्यान' घटित होता है और फिर ध्यान की गहराई में 'समाधि' घटित होती है।वृत्ति का एक दिशा में चलना ही ध्यान है।ध्यान--मन को विचारों से भरना नहीं, विचारों से रिक्त करना है ।
ध्यान किया नहीं जाता, वरन् स्वयमेव होता है।अंतर्बोध से प्रकट होने वाले ज्ञान की कोई विधि या प्रणाली नहीं होती।ध्यान अंतस् की आकुल पुकार है।ध्यान यात्रा है -- चेतना से परम चेतना की। महर्षि पतंजलि के योग सूत्र में---
"तदेवार्थ मात्रनिर्भासं स्वरूपशून्यमिव समाधिः।"
अर्थात जब (ध्यान में ) केवल ध्येय मात्र की ही प्रतीति होती है।चित्त का निजस्वरूप शून्य सा हो जाता है, तब वही ध्यान समाधि बन जाता है।
चित्त की परम आनन्दमयी, चैतन्यमयी, व सत्यमयी अवस्था का नाम ही समाधि है।इसे ही परमानंद, ब्रह्मानंद, मोक्ष, मुक्ति, निर्वाण, कैवल्य, आत्मसाक्षात्कार, ईशदर्शन आदि विभिन्न नामों से जाना जाता है।वर्षों की ध्यान साधना के फलस्वरूप साधक को स्वतः ही एक अलौकिक, पारलौकिक आनंद की अनुभूति होने लगती है।
साधक मन के भी पार , बहुत पार चला जाता है।बुद्ध भगवान् समाधि के विषय में कहते हैं, कि समाधि सम्यक(संतुलित, सधी हुई) होनी चाहिए- जिसमें होश हो , जाग्रति हो ,बोध हो।
सम्यक समाधि हो या असम्यक समाधि हो, उस अवस्था में स्वप्न जन्म नहीं लेते व विचार की तरंगें भी शान्त हो जाती हैं ।इस अवस्था में साधक सभी प्रकार के क्लेशों से सदा- सदा के लिए मुक्त होकर सदैव आनंदित व प्रफुल्लित रहने लगता है।
प्रभु का ध्याता साधक, प्रभु रूपी समुद्र में स्वयं को विसर्जित कर देता है और मुक्त हो जाता है।इस अवस्था को 'कैवल्य अवस्था' 'निर्विकल्प समाधि' अथवा 'सबीज समाधि' भी कहते हैं ।घटाकाश ही महाकाश है --यह सिर्फ एक विचार नहीं है वरन् ऋषि अपनी चेतना की पराकाष्ठा में जाकर इसका अनुभव करता है।
ध्यान साधना के बल पर ही बुद्ध पुरुषों ने अध्यात्म के शिखर को छुआ है, अनेक जीवात्माओं ने परमात्मा का साक्षात्कार किया है। स्रहसार चक्र ही चेतना का निवास स्थान है, जहाँ योगीजन ध्यान लगाकर 'समाधिजन्य आनन्द' को प्राप्त करते हैं ।प्राचीन योगशास्त्रों में सम्पूर्ण प्रकाशित मन की अवस्था का जो वर्णन किया है, उसके अनुसार जब साधक की चेतना स्रहसार में गतिमान होती है तब वह साधक आनन्द का असीम सागर बन जाता है।यही जीवन चेतना का शिखर है।
जीव की ब्राह्मी स्थिति के विषय में कबीर कहते हैं--
"आत्म अनुभव जब भयो, तब नहीं हर्ष विषाद"
पूर्ण एकाग्रता जिसे शून्यावस्था, योगनिद्रा या समाधि कहते हैं वह बहुत ऊँची स्थिति है।मन एक ही बिन्दु पर केन्द्रित रहे, ऐसा हो सकने को ही 'तुरीयावस्था' कहते हैं ।इससे भी ऊँची स्थिति है - स्वयं में स्थित होना ।जो स्वयं में स्थित है , वही तत्वदर्शी है।समाधि की अनुभूति में साधक को ब्रह्माण्ड के कण- कण में, सूर्य में, चन्द्र में, तारों में, सिंधु में, निर्झर बहती सरिताओं में अपने आराध्य के होने का एहसास होने लगता है।
ध्यान की अनंत गहराई में उतर कर ही समाधि की प्राप्ति होती है ।श्री रामकृष्ण देव हमेशा चलते- फिरते, नाचते-गाते समाधि में चले जाते थे। चैतन्य महाप्रभु कीर्तन करते- करते ध्यान समाधि में डूब जाते थे।संत कबीर जब निर्विकल्प समाधि लगाते तो लम्बे समय तक उसी अवस्था में पड़े रहते और फिर स्वतः ही ध्यान की भूमिका से नीचे आते।ऐसे ही अनेक अन्य महापुरुषों के उदाहरण भी हैं ।
आध्यात्म अनुभूति का विषय है ।एक बार समाधि के अलौकिक आनन्द की अनुभूति हो जाने के बाद स्वामी विवेकानन्द प्रायः ध्यान की गहराई में उतरकर समाधि सुख प्राप्त करने लगे।स्वामी विवेकानन्द को शयन के समय आँखें मूँदते ही आज्ञा चक्र में निरंतर परिवर्तनशील रंगों का एक ज्योतिपुंज दिखाई देता था।
ध्यान योग के कल्पवृक्ष की छाया में सच्चे मन से बैठने वाला व्यक्ति आत्म- साक्षात्कार कर सकता है।नर- नारायण के समकक्ष बन सकता है। इस स्थिति को विरले ही प्राप्त कर पाते हैं ।जिन्हें हम इस जीवन में आध्यात्मिक जीवन के परमोच्च शिखर पर देखते हैं, उनके पीछे विगत के कई जन्मों का इतिहास जुड़ा होता है।
संसार में रहकर सांसारिक जीवन- यापन करते हुए भी योगसाधक के भाव, विचार व वृत्तियाँ ब्राह्मी चेतना के साथ एकाकार होकर साधक को समाधि की अनुभूति करा सकती हैं ।
"मैं सुबह शाम नित ध्यान करूँ
प्रभु ध्यान में मेरे बस जाओ "