head> ज्ञान की गंगा / पवित्रा माहेश्वरी ( ज्ञान की कोई सीमा नहीं है ): November 2019

Saturday, November 30, 2019

"समाधि" समस्त योग साधनाओं का सार,समस्त योग साधनाओं की पराकाष्ठा

                 'समाधि' समस्त योग साधनाओं का सार 
समाधि क्या है ? क्या यह सबके लिए सुलभ है ?  अक्सर ही साधकों के मन में इस तरह के विचार आते रहते हैं ।

'समाधि' वह अवस्था है, जिसमें साधक को जीव,जगत तथा ब्रह्म के बीच पूर्ण एकत्व की अनुभूति होती है।योग की सभी परम्पराओं का ध्येय, आत्मचेतना के भीतर ईश्वरत्व की अनुभूति को प्राप्त करना है।योग सूत्र में राजयोग के आठ अंग हैं---यम , नियम , आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान, समाधि। नियमित योग साधनाओं के द्वारा चित्त का क्रमिक रूप से विकास होता है।इन साधनाओं की पूर्णता समाधि है।
                वैज्ञानिक की अवस्था को 'धारणा', कलाकार की अवस्था को 'ध्यान' एवं योगी की अवस्था को 'समाधि' कहते हैं ।
जब हम शरीर के बाहर-भीतर ,किसी वस्तु, विषय, विचार पर चित्त को केन्द्रित करने का प्रयोग करते हैं तो वह 'धारणा' होती है।धारणा की गहराई में ही 'ध्यान' घटित होता है और फिर ध्यान की गहराई में 'समाधि' घटित होती है।वृत्ति का एक दिशा में चलना ही ध्यान है।ध्यान--मन को विचारों से भरना नहीं, विचारों से रिक्त करना है ।

ध्यान किया नहीं जाता, वरन् स्वयमेव होता है।अंतर्बोध से प्रकट होने वाले ज्ञान की कोई विधि या प्रणाली नहीं होती।ध्यान अंतस् की आकुल पुकार है।ध्यान यात्रा है -- चेतना से परम चेतना की।  महर्षि पतंजलि के योग सूत्र में---
      "तदेवार्थ मात्रनिर्भासं स्वरूपशून्यमिव समाधिः।"
अर्थात जब (ध्यान में ) केवल ध्येय मात्र की ही प्रतीति होती है।चित्त का निजस्वरूप शून्य सा हो जाता है, तब वही ध्यान समाधि बन जाता है।

चित्त की परम आनन्दमयी, चैतन्यमयी, व सत्यमयी अवस्था का नाम ही समाधि है।इसे ही परमानंद, ब्रह्मानंद, मोक्ष, मुक्ति, निर्वाण, कैवल्य, आत्मसाक्षात्कार, ईशदर्शन आदि विभिन्न नामों से जाना जाता है।वर्षों की ध्यान साधना के  फलस्वरूप साधक को स्वतः ही एक अलौकिक, पारलौकिक आनंद की अनुभूति होने लगती है।

साधक मन के भी पार , बहुत पार चला जाता है।बुद्ध भगवान् समाधि के विषय में कहते हैं, कि समाधि सम्यक(संतुलित, सधी हुई) होनी चाहिए- जिसमें होश हो , जाग्रति हो ,बोध हो।
सम्यक समाधि हो या असम्यक समाधि हो, उस अवस्था में स्वप्न जन्म नहीं लेते व विचार की तरंगें भी शान्त हो जाती हैं ।इस अवस्था में साधक सभी प्रकार के क्लेशों से सदा- सदा के लिए मुक्त होकर सदैव आनंदित व प्रफुल्लित रहने लगता है।

प्रभु का ध्याता साधक, प्रभु रूपी समुद्र में स्वयं को विसर्जित कर देता है और मुक्त हो जाता है।इस अवस्था को 'कैवल्य अवस्था' 'निर्विकल्प समाधि' अथवा 'सबीज समाधि' भी कहते हैं ।घटाकाश ही महाकाश है --यह सिर्फ एक विचार नहीं है वरन्  ऋषि अपनी  चेतना की पराकाष्ठा में जाकर इसका अनुभव करता है।

                       ध्यान साधना के बल पर ही बुद्ध पुरुषों ने अध्यात्म के शिखर को छुआ है, अनेक जीवात्माओं ने परमात्मा का साक्षात्कार किया है। स्रहसार चक्र ही चेतना का निवास स्थान है, जहाँ योगीजन ध्यान लगाकर 'समाधिजन्य आनन्द' को प्राप्त करते हैं ।प्राचीन योगशास्त्रों में सम्पूर्ण प्रकाशित मन की अवस्था का  जो वर्णन किया है, उसके अनुसार जब साधक की  चेतना स्रहसार में गतिमान होती है तब वह साधक आनन्द का असीम सागर बन जाता है।यही जीवन चेतना का शिखर है।

जीव की ब्राह्मी स्थिति के विषय में कबीर कहते हैं--
    "आत्म अनुभव जब भयो, तब नहीं हर्ष विषाद"
     
पूर्ण एकाग्रता जिसे शून्यावस्था, योगनिद्रा या समाधि कहते हैं वह बहुत ऊँची स्थिति है।मन एक ही बिन्दु पर केन्द्रित रहे, ऐसा हो सकने को ही 'तुरीयावस्था' कहते हैं ।इससे भी ऊँची स्थिति है - स्वयं में स्थित होना ।जो स्वयं में स्थित है , वही तत्वदर्शी है।समाधि की अनुभूति में साधक को ब्रह्माण्ड के कण- कण में, सूर्य में, चन्द्र में, तारों में, सिंधु में, निर्झर बहती सरिताओं में अपने आराध्य के होने का एहसास होने लगता है।

ध्यान की अनंत गहराई में उतर कर ही समाधि की प्राप्ति होती है ।श्री रामकृष्ण देव हमेशा चलते- फिरते, नाचते-गाते समाधि में चले जाते थे। चैतन्य महाप्रभु कीर्तन करते- करते ध्यान समाधि में डूब जाते थे।संत कबीर जब  निर्विकल्प समाधि लगाते  तो लम्बे समय तक उसी अवस्था में पड़े रहते और फिर स्वतः ही ध्यान की भूमिका से नीचे आते।ऐसे ही अनेक अन्य महापुरुषों के उदाहरण भी हैं ।

आध्यात्म अनुभूति का विषय है ।एक बार समाधि के अलौकिक आनन्द की अनुभूति हो जाने के बाद स्वामी विवेकानन्द प्रायः ध्यान की गहराई में उतरकर समाधि सुख प्राप्त करने लगे।स्वामी विवेकानन्द को शयन के समय आँखें मूँदते ही आज्ञा चक्र में निरंतर परिवर्तनशील रंगों का एक ज्योतिपुंज दिखाई देता था।

ध्यान योग के कल्पवृक्ष की छाया में सच्चे मन से बैठने वाला व्यक्ति आत्म- साक्षात्कार कर सकता है।नर- नारायण के समकक्ष बन सकता है। इस स्थिति को विरले ही प्राप्त कर पाते हैं ।जिन्हें हम इस जीवन में आध्यात्मिक जीवन के परमोच्च शिखर पर देखते हैं, उनके पीछे विगत के कई जन्मों का इतिहास जुड़ा होता है।

        संसार में रहकर सांसारिक जीवन- यापन करते हुए भी     योगसाधक  के भाव, विचार व वृत्तियाँ ब्राह्मी चेतना के साथ एकाकार होकर साधक को समाधि की अनुभूति करा सकती हैं ।
          "मैं सुबह शाम नित ध्यान करूँ 
           प्रभु ध्यान में मेरे बस जाओ "

सादर अभिवादन के साथ धन्यवाद ।




Friday, November 29, 2019

"प्लास्टिक हमारे पर्यावरण व स्वास्थ्य को किस प्रकार नष्ट कर रहा है" आइए , जानने की कोशिश करें ।

●प्लास्टिक हमारे पर्यावरण व स्वास्थ्य के लिए हानिकारक●
पहला प्लास्टिक बैग सन् 1957 में लोगों के सामने आया ।उसके कुछ वर्षों बाद उपभोक्ता वाद शुरु होने के कारण पाॅलीथिन की थैलियाँ कागज की थैलियों से भी सस्ती हो गईं और इनके कारण दूध, जूस जैसे तरल पदार्थों का व्यापार करना भी सरल हो गया।
तब से आज तक हमने खुले दिल से एक नई जीवनशैली का दौर समझकर इन्हें  अपनाया।

आजकल हमारे उपयोग की हर छोटी - बड़ी  वस्तु प्लास्टिक की पैकिंग में ही आती है।आज बाल्टियाँ, कुर्सी, मेज, डिब्बे, पानी , व ड्रिन्क की बोतलें, दूध-दही , तेल- घी की पैकिंग, दवाइयों की पैकिंग सब प्लास्टिक से ही निर्मित है।प्लास्टिक हमारे पर्यावरण व स्वास्थ्य के लिए अत्यंत हानिकारक है। यह जानते हुए भी यह हमारे जीवन का अहम् हिस्सा बना हुआ है।

            सामान्य रूप से प्लास्टिक बैग्स को फाॅसिल फ्यूल्स से बनाया जाता है, जिसकी उत्पादन प्रक्रिया में बाॅयोप्रोडक्ट्स जैसे हैवी मैटल्स, पाॅलीसाइकल एरोमैटिक हाइड्रोकार्बन्स, वोलेटाइल आर्गेनिक कंपाउन्ड्स, सल्फर ऑक्साइड और डस्ट के साथ गहन औद्योगिक प्रक्रिया अपनाई जाती है।ज्यादातर प्लास्टिक बायोडिग्रेडेबल ( विघटित) नहीं होते और सैकड़ों वर्ष तक बने रहते हैं ।प्लास्टिक को फोटोडिग्रेडेशन प्रक्रिया द्वारा या सूर्य के प्रकाश के जरिए नष्ट होने होने में पाँच सौ साल लग जाते हैं ।

     प्लास्टिक से बनी बोतलें या डिब्बों में रखे खाद्य पदार्थों का सेवन स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है ; क्योंकि गर्मी धूप आदि कारणों से रासायनिक क्रियाएँ प्लास्टिक के विषैले प्रभाव उत्पन्न करती हैं।जो कैंसर आदि भयंकर बीमारियों पैदा कर सकती हैं ।प्लास्टिक में अस्थिर प्रकृति का जैविक कार्बनिक एस्सटर ( अम्ल और अल्कोहल से बना घोल)  होता है, जो कैंसर पैदा करने में सक्षम है।सामान्य तौर पर प्लास्टिक को रंग प्रदान करने के लिए उसमें कैडमियम और जस्ता जैसी विषैली धातुओं के अंश मिलाए जाते हैं ।इसलिए प्लास्टिक की रंगीन वस्तुओं में रखे हुए खाद्य या पेय पदार्थ को ग्रहण करने से अनेक रोग उत्पन्न हो सकते हैं ।

  वैज्ञानिकों का कहना है कि प्लास्टिक बोतलों में पाए जाने वाले खास तत्व, जैसे- थैलेट्स हमारी सेहत पर बुरा असर डालते हैं ।इनकी वजह से हार्मोनों का रिसाव करने वाली ग्रन्थियों की कार्यप्रणाली बिगड़ जाती है।घटिया किस्म की पॉलीथिन का प्रयोग करने से साँस व त्वचा सम्बन्धी रोग हो सकते हैं ।

ऐसा अनुमान है कि हर साल बीस लाख से ज्यादा पशु- पक्षी और मछलियाँ पॉलीथिन थैलियों के कारण अपनी जान गँवाते हैं ।पाॅलीथिन नष्ट नहीं होती , इसीलिए यह धरती की उपजाऊ क्षमता को नष्ट करके इसे जहरीला बना रही है और मिट्टी में दबे रहने के कारण मिट्टी की पानी सोखने की क्षमता भी कम कर रही है, जिससे भूजल स्तर कम हो रहा है।

नदियों के जल प्रवाह में भी प्लास्टिक की थैलियाँ तैरती मिल जाती हैं भारत ही नहीं, विश्व भर में अनेक पहाड़ों पर स्थित सभी  पर्यटनस्थलों पर प्लास्टिक व पाॅलीथिन एक समस्या बनी हुई है।
प्लास्टिक से बनी पतंगों व ताँत के धागों का प्रचलन भी हानिकारक है।इनके कारण सड़कों पर अनेक दुर्घटनाएँ हो जाती हैं ।

      हाल ही में हुए शोध के अनुसार सुरक्षित प्लास्टिक यानी बीपीए ( बिस्फेनोल)  फ्री प्लास्टिक भी तीन पीढ़ियों के स्वास्थ्य  लिए खतरनाक है।अध्ययन के अनुसार बीपीए फ्री प्लास्टिक से प्रजनन संबंधी समस्याएँ उत्पन्न हो सकती हैं ।

      हालाँकि हमारी सरकार ने 50 माइक्रोन से पतली प्लास्टिक पन्नी पर बैन लगा दिया है।लेकिन अनुकूल परिणाम न आने का मुख्य कारण है -- इसके अच्छे विकल्प का अभाव। प्लास्टिक से होने वाले नुकसान को कम करने के लिए बायोप्लास्टिक ( जैव प्लास्टिक) को विकसित करना एक अच्छा विकल्प हो सकता है।

पिछले सौ वर्षों में हम लगभग 83 अरब टन प्लास्टिक का उत्पादन कर चुके हैं ।इसमें से लगभग 63 अरब टन प्लास्टिक बेकार हो चुका है। आज हम सब प्लास्टिक से होने वाले नुकसानों से भलीभांति परिचित हैं ।

आइए, हम सब प्लास्टिक का उपयोग कम करके  अपने स्वास्थ्य व पर्यावरण की सुरक्षा करें ।

यह उपयोगी जानकारी पढ़ने के लिए सादर धन्यवाद ।



Thursday, November 28, 2019

श्री मद्भगवद्गीता- साक्षात भगवान् के द्वारा गाया गया गीत (महान योग शास्त्र, सुन्दर उपनिषद् , ब्रह्म विद्या)

               ।। ओउम् श्री परमात्मने नमः ।।
               "ये ब्रह्म शास्त्र खोले प्रभु के द्वार 
                     भगवद्गीता को नमस्कार"
● श्रीमद्भगवद्गीता की महिमा----- 
श्रीमद्भगवद्गीता की महिमा अगाध और असीम है।भगवद्गीता का उपदेश महान अलौकिक है।यह परम पावन ग्रन्थ एक ऐसा रहस्यमय ग्रन्थ है, जिसमें वेदों का सार है। गीता में  धर्म का उपदेश समाहित है, जीवन जीने की कला का ज्ञान है एवं मनुष्य के स्वधर्म का ज्ञान है ।गीता की वाणी दिव्य है।इसे कहते समय भगवान् स्वयं अपने परमात्मस्वरूप में स्थित थे।

इसका विशेष नाम श्रीमद्भगवद्गीता है ;क्योंकि यह भगवान् के द्वारा गाया गया गीत है।यह सूपनिषद् ( सुन्दर उपनिषद्) है।उपनिषद् वह है, जिसमें शिष्य गुरू के समीप बैठकर ज्ञान प्राप्त करता है।गीता में शिष्य अर्जुन जगद्गुरु भगवान् श्रीकृष्ण के पास बैठकर
ज्ञान प्राप्त करता है , जो कि सर्वोत्कृष्ट पल हैं ।

● श्रीमद्भगवद्गीता  महान योग शास्त्र----  श्री मद्भगवद्गीता को महान योगशास्त्र कहा गया है । आत्मा के परमात्मा से मिलन का नाम योग है।गीता देह की नश्वरता और आत्मा की अमरता- शाश्वतता का संदेश देती है । इसमें योगशास्त्र की परिभाषा,साधना की विधियाँ, तत्व विवेचना आदि सभी निहित हैं। इसमें कर्म योग, भक्ति योग एवं ज्ञान योग का अद्भुत संगम है।

कर्मयोग का तात्पर्य है-- 'शुभ व निष्काम कर्म करना' , भक्तियोग है---'भगवच्चेतना को धारण करना'  और ज्ञानयोग है-- 'भगवद्तत्व को जानना' । 

श्रीमद्भगवद्गीता ब्रह्म विद्या है।ब्रह्म अर्थात जो जीवन का आधार व सार है, और इसी कारण ब्रह्म विद्या वेदांत का आधार है, वेदों का सार है।गीता में भी यह निहित है।
           "पावन पुनीत है शान्ति गीत
           मनभावनी है भक्तों की प्रीति "

मार्गशीष शुक्ल एकादशी थी।मध्यान्ह के समय सूर्य देव सम्पूर्ण तेज के साथ विद्यमान हो रहे थे।अर्जुन के प्रश्न प्रकट हुए, जिज्ञासाएँ जगीं।तब अर्जुन की  जिज्ञासाओं के समाधान के लिए श्री भगवान् ने  "श्रीमद्भगवद्गीता" के अठारह सोपानों में ,अर्जुन को निमित्त बनाकर,  सम्पूर्ण मानव जाति को जीवन का तत्वदर्शन दिया।
           सारथी बनकर पार्थ को ज्ञान गीता का दिया ।
           विश्व का दर्शन दिखाकर धन्य अर्जुन को किया ।।

श्रीमद्भगवद्गीता के अठारह अध्यायों में कुल सात सौ (700) श्लोक हैं ।700 श्लोकों तक एक ही धारा व चिंतन को बनाए रखने की अद्भुत विशेषता के कारण हर श्लोक एक महामंत्र है।
गीता के श्लोकों में दिव्य ऊर्जाओं के स्रोत समाए हैं ; क्योंकि भगवान् ने अपने दिव्य रूप में, चेतना के उच्चतम शिखर पर स्थिर होकर इसे गाया है।

●श्रीमद्भगवद्गीता में मुख्यतः चार पात्र हैं-----

श्रीमद्भगवद्गीता श्रीकृष्ण और अर्जुन के संवाद के रूप में कही गई है।इनके बीच में जो संवाद हो रहे हैं, जो जिज्ञासा व समाधान हो रहे हैं---उन संवादों को संजय, धृतराष्ट्र को सुनाते हैं ।

धृतराष्ट्र, संजय और अर्जुन--- ये मनुष्यता के तीन तल हैं ।मनुष्यता के ये तीनों तल हमारे चारों ओर भी हैं ।कहीं हमें मोहग्रस्त धृतराष्ट्र खड़े मिलेंगे, तो कहीं साधना , तपस्या, ऋषि की कृपा में लीन संजय मिलेंगे, लेकिन अर्जुन कहीं- कहीं ही मिलेंगे। अर्जुन वे हैं, जिनकी चेतना भगवान् की ओर उन्मुख है, वे भगवान् श्रीकृष्ण को सब कुछ समर्पित करने का साहस रखते हैं ।श्री कृष्ण, भगवान् रूप में सर्वत्र व्याप्त हैं ।

महाभारत में अनेक पात्र हैं लेकिन श्रीमद्भगवद्गीता को सुनने का निमित्त केवल अर्जुन ही बन सके ; क्योंकि शिष्य बनने के लिए विवेक और भावना दोनों चाहिए । अर्जुन प्रतिभाशाली हैं, शास्त्रज्ञानी हैं,  शस्त्रज्ञानी हैं ,महानधनुर्धर हैं, निरंतर सीखते रहते हैं, झुकना जानते हैं   उनमें सत्य को पाने की अभीप्सा है।वे कहते हैं---शिष्यस्तेऽहं ! भगवन् मैं आपका शिष्य हूँ ।इसी के साथ आरंभ होता है --- श्रीमद्भगवद्गीता का  दिव्य ज्ञान व दिव्य गान।

श्रीमद्भगवद्गीता आरंभ में ही याद दिलाती है--
       धर्मक्षेत्रे  कुरुक्षेत्रे   समवेता   युयुत्सवाः।
        मामकाः  पाणडवाश्चैव  किमकुर्वत संजय ।।

यह संसार भी एक तरह का धर्मक्षेत्र व कुरुक्षेत्र है, जिसमें हर व्यक्ति हर पल- हर क्षण युद्ध कर रहा है, स्वयं से व अन्य लोगों से।

श्रीमद्भगवद्गीता के श्लोकों को हम जितना गहराई से आत्मसात् करेंगे, उतना ही हमारे व्यक्तित्व में परिमार्जन, परिवर्तन, रूपान्तरण हो जाएगा।

भगवान् आश्वासन देते हैं, जहाँ धर्म होगा, वहाँ मैं उपस्थिति रहूँगा। भगवान् अनन्त हैं, उनका सब कुछ अनन्त है, फिर उनके मुखारविंद से निकली हुई गीता के भावों का अन्त आ ही कैसे सकता है।
               "भगवद्गीता को नमस्कार 
                भगवद्गीता को नमस्कार "





Wednesday, November 27, 2019

"पेड़-पौधे क्यों जरूरी हैं पर्यावरण को संतुलित करने के लिए "

 ●●● पर्यावरण संतुलन के लिए पेड़-पौधे जरूरी ●●●
पेडों के अस्तित्व पर ही मनुष्य एवं अन्य प्राणियों का जीवन आधारित है।इसीलिए हमारी भारतीय संस्कृति में वृक्ष- वनस्पतियों की पूजा- आराधना की जाती रही है।"श्री मद्भगवद्गीता" में स्वयं "भगवान् श्रीकृष्ण" ने पीपल के वृक्ष को अपनी विभूतियों में शामिल किया है--"अश्वस्थः सर्ववृक्षाणां" ।भगवान् बुद्ध ने अपने जातक उपदेशों में स्वयं को 'वृक्ष देवता' कहकर इंगित किया है।

धरती पर जीवन संतुलन के लिए प्रकृति ने जीव कोशिका ( जीव- जगत) उत्पत्ति के साथ ही पादप कोशिका (पेड़- पौधे) की भी रचना की थी।प्रकृति को यह अच्छी तरह से पता था कि मनुष्य व पेड़ दोनों ही  अपने अस्तित्व के लिए एक दूसरे पर आश्रित रहेंगे।

आज जब आबादी विस्तार ले रही है, पेड़-पौधे काटे जा रहे हैं, इस कारण हमारी धरती की हरियाली कम हो गई है।कहीं-कहीं तो वृक्ष -वनस्पतियों के दर्शन भी नहीं होते।आज प्राकृतिक असंतुलन के  कारण जलवायु प्रदूषित हुई है, परिणाम- स्वरूप पूरे विश्व में प्राकृतिक आपदाओं में बढ़ोतरी हो रही है ।इस जलवायु-असंतुलन को पेड- पौधे ही संतुलित कर सकते हैं ।

पेड़-पौधे हमारे वातावरण को शुद्ध करने के साथ जलवायु के बीच आवश्यक संतुलन भी बैठाते हैं ।इसलिए हर स्तर पर इन्हें बचाने, उगाने व देखभाल करने की कोशिश करनी है।

पेड़-पौधों की शाखाएँ व पत्ते छाया देते हैं व हवा की रफ्तार तेज करते हैं ।इनकी पत्तियाँ हवा में मौजूद हानिकारक तत्वों को छानने में सक्षम होती हैं और वाष्पोत्सर्जन द्वारा वातावरण को नम रखने में सहायक होती हैं ।पेड़ों की जड़ें मिट्टी के स्थिरीकरण के द्वारा क्षरण को रोकती हैं ।पेड़ों की पत्तियाँ, टहनियाँ व शाखाएँ ध्वनि प्रदूषण को सोखती हैं ।इनकी जड़ें, पत्तियाँ व तने पक्षियों, जानवरों व कीटपतंगों के लिए आवास का माध्यम बनते हैं ।

नीम, पीपल, बरगद, तुलसी आदि अधिक ऑक्सीजन छोड़ते हैं ।इनके साथ और भी कई ऐसे वृक्ष हैं जिनके औषधीय गुणों का महत्व है, इनकी जड़, शाखा, पत्ते, फल ,बीज आदि विभिन्न रोगों को दूर करने में उपयोगी होते हैं ।वनस्पतियों का औषधि विज्ञान बहुत प्रसिद्ध है।महर्षि चरक व महर्षि सुश्रुत ने इस क्षेत्र में अनेक अनुसंधान किए और आयुर्वेद विज्ञान का विकास किया।महर्षि धन्वंतरि औषधियों के देवता माने जाते हैं ।

वृक्ष लगाना , उनकी सेवा करना अत्यन्त पुण्य का कार्य है ।हमारे पूर्वजों ने जो वृक्ष लगाए , आज वे ही बड़े होकर हमें फल, फूल, लकड़ियाँ प्रदान करते हैं ।यदि हमें किसी कारणवश पेड़ काटना पड़े तो उसके बदले में दस पेड़ और लगाने चाहिए ।

हमें प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से सभी कुछ प्रकृति से ही प्राप्त होता है और पेड़- पौधों से ही प्रकृति का संरक्षण व संवर्धन किया जा सकता है।वृक्ष- वनस्पतियों की सेवा से ही हमें प्रकृति माँ, धरती माता का दुलार मिलता है।

एक सर्वेक्षण के अनुसार एक स्वस्थ वृक्ष जो शीतलता देता है, वह 10 वातानुकूलित संयंत्रों के 20 घंटे लगातार चलने के बराबर होता है।एक एकड़ क्षेत्र में लगे वन 6 टन कार्बन-डाइऑक्साइड 
अवशोषित करते हैं और 4  टन ऑक्सीजन उत्पन्न करते हैं ।पीपल जैसे वृक्षों में धुँआ तथा धूल को सोखने की असीमित शक्ति होती है।तुलसी हमें शुद्ध वायु प्रदान करती है तथा घातक कृमि,

कीटों को नष्ट करती है।

आधुनिक युग में भौतिकता का विकास तो बहुत हुआ लेकिन प्रकृति के महत्व को भुला दिया गया।इस कारण आज मानव जीवन अनेक प्रकार के प्रदूषणों का सामना कर रहा है।अनेक प्रकार की समस्याएँ व रोग उत्पन्न हो रहे हैं ।समाधान एक ही है- अधिक से अधिक पेड़-पौधे लगा कर समग्र पर्यावरण को दूषित होने से बचाएँ ।

एक अध्ययन के निष्कर्ष के अनुसार विश्व में लगभग  तीन लाख करोड़ पेड़ हैं परंतु इनकी संख्या अब लगातार सिमटती जा रही है।विश्व में प्रतिवर्ष 70 लाख हेक्टेयर की गति से वन नष्ट हो रहे
हैं ।यदि इस गति से वन क्षेत्र कम होते रहे तो आगामी 15 वर्षों में वृक्षों की 15 प्रतिशत प्रजातियाँ लुप्त हो सकती हैं ।पेड़ों की विलुप्ति मानव जीवन के लिए घातक है।वनों की कटाई, भूमि के उपयोग में बदलाव, वन प्रबंधन और मानवीय हस्तक्षेप के कारण विश्व में लाखों पेड़ प्रतिवर्ष कम हो रहे हैं ।

हमें भविष्य में आने वाली पीढ़ियों के सुख के लिए जीवनदायी पेड़ों को बचाना होगा।हमारी संस्कृति में वनों को देवता व पेड़ों  को पूज्य, इसके बावजूद वनों का विनाश व पेड़ों  की कटाई अत्यन्त चिंतनीय विषय है।पेड़ एक ऐसी प्राकृतिक संपदा है जिसका यदि विनाश होता है तो मनुष्य जीवन की सुखद संभावनाओं की आशा नहीं की जा सकती ।

वृक्ष हमारे लिए जीवन तत्वों का सृजन करते हैं इसलिए हमें भी वृक्षों के विकास में सहायक होना चाहिए।हमारे देश में कई तरह के वृक्षारोपण अभियान चलाए जा रहे हैं ।इन अभियानों को सफल बनाने के लिए उन पेड़- पौधों की विशेष देखभाल करने की भी जरूरत है।

हमें अधिक से अधिक पेड़-पौधे लगा कर अपनी वसुधा  के सौन्दर्य को पुनः स्थापित करना है।प्रकृति हमें सदा देती ही रहती है-     
    "पेड़ लगाकर धरती माँ की हरियाली लौटाएँ
          पर्यावरण को प्रदूषित होने से बचाएँ "

सादर अभिवादन व जय श्री कृष्ण 
        





 


Tuesday, November 26, 2019

पृथ्वी एक जीवित तंत्र है ( भारतीय दर्शन की यह बात अब विज्ञान भी स्वीकारने लगा है)

पृथ्वी माँ!
            धन धान्य भरे फल फूल सजे 
             तुम शोभित हो वन उपवन से 
             चहुँ ओर सजी है हरियाली 
             तुम भरी हुई जल धारों से 
पृथ्वी को समूचे सौरमण्डल में, विश्व ब्रह्माण्ड में अनुपम स्थान प्राप्त है ।भारतीय चिंतन में आदिकाल से यही बोध है कि हमारी पृथ्वी मात्र भूमि का टुकड़ा न होकर जीती-जागती-जीवंत माँ है।इसी संवेदना से अभिभूत होकर वेदों के ऋषि यह घोषणा कर पाने में सक्षम हो पाए कि---
      " माता पृथ्वीः पुत्रोऽहं पृथिव्याः।"
धरती हम सभी जीवों की धरणी है अर्थात वह हम सभी को पैदा करती है  हमें धारण करती है और हमारा पोषण भी करती है 
सोना,  चाँदी , हीरा, मोती, अन्न, जल , हवा पैट्रोल सभी तो हमें पृथ्वी से मिलता है ;क्योंकि यह धरती रत्नगर्भा है और हम सब इसकी संतानें हैं ।
              " हम सब तेरी ही सन्तानें 
                पृथ्वी माता तेरी जय हो 
               ममता की छांव हमें देती 
               पृथ्वी माता तेरी जय हो "
श्री वंकिम चन्द्र चटर्जी की सुन्दर शब्दावली से हम धरती की वंदना करते हैं-- 'वन्दे मातरम्'। सुजलाम् सुफलाम, मलयज शीतलाम् । धरती की यह कल्पना सचमुच ही बड़ी मनोहारी है ।वह जीवन दायनी, स्रोतस्विनी है, पावन है और बिना किसी भेदभाव के अपना असीमित प्रेम लुटाती है।
 
पृथ्वी निरंतर घूम रही है, लेकिन हम में से किसी को उसकी गतिशीलता का कोई एहसास नहीं है; क्योंकि अन्य सब कुछ भी तो उसी के साथ गतिशील है ।पृथ्वी की गतिशीलता का तो तब पता चला जब उसे सूर्य की स्थिरता के परिप्रेक्ष्य में अनुभव किया गया।धरती पर सभी कार्य समय पर होते हैं, निर्धारित समय पर वर्षा होती है,निर्धारित समय पर सर्दी, गर्मी की ऋतुएँ आती हैं ।

विगत दो- तीन शताब्दियों से जब से औद्योगीकरण ने अपने पैर पसारने शुरु किए तब से  धरती माँ के सीने को छीलने की विकृति भी पूरे ज़ोर से पनपने लगी।  तभी से स्वार्थ के वशीभूत तथाकथित  बुद्धिवाद ने यह दलील दावे के साथ प्रस्तुत की कि पृथ्वी एक निर्जीव भूमि का टुकड़ा है ।इसके बाद से अब तक पृथ्वी का बहुत अधिक मात्रा में दोहन हुआ है।

विगत कुछ वर्षों में हुए वैज्ञानिक प्रयोग ऐसे तथ्यों का प्रतिपादन करते नज़र आते हैं कि धरती और कुछ नहीं बल्कि एक जीवित तंत्र है जो अपने वातावरण का न केवल निर्माण करती है बल्कि उसी सक्षमता के साथ उसका संतुलन भी बनाए रखती है ।

इन्हीं दिनों अमेरिका के अंतरिक्ष अनुसंधान केन्द्र नासा में कार्यरत जेम्स लवस्टाॅक ने मंगल पर जीवन की संभावना का पता लगाने के लिए वहाँ के वातावरण का अध्ययन किया । जब उस अध्ययन से प्राप्त निष्कर्षों की तुलना धरती के वातावरण से की तो उनके आश्चर्य का ठिकाना न रहा ।उन्होंने पाया कि मंगल ग्रह के वायुमंडल में बहुत कम ऑक्सीजन, बहुत ज्यादा कार्बन-डाइऑक्साइड एवं न के बराबर मीथेन गैसें थीं; जबकि धरती के वायुमंडल में बहुत ज्यादा ऑक्सीजन, कम कार्बन-डाइऑक्साइड 
और संतुलित मात्रा में मीथेन गैसें उपस्थित थीं ।

डाॅ लवस्टाॅक जानते थे कि पिछले चालीस करोड़ वर्षों में सूर्य का तापमान 25 प्रतिशत बढ़ गया है, जिसके कारण हमारे सौरमण्डल के प्रत्येक ग्रह का तापमान 25 प्रतिशत बढ़ा है, लेकिन मात्र पृथ्वी ही ऐसी है जो अपना तापमान उसी स्तर तक रोके हुए है, जैसा आज से चालीस करोड़ वर्ष पूर्व था।उन्होंने इसके आधार पर अनुमान लगाया कि धरती एक जीवित प्राणी की तरह सोचती है और स्वप्रबंधन के माध्यम से आवश्यकता के अनुसार अपने वातावरण और तापमान को संतुलित करती रहती है, ताकि यहाँ प्राणी मात्र का जीवन निर्बाध चलता रहे।

इस वैज्ञानिक सोच को संतुष्ट करने के लिए उन्होंने प्रसिद्ध माइक्रोबायलोजिस्ट लिव मार्ग्यूलिस के साथ प्रमाण एकत्रित करने प्रारम्भ किए।उन्होंने पाया कि धरती के वातावरण में ऑक्सीजन एवं कार्बन-डाइऑक्साइड सदा एक निश्चित अनुपात में बनी रहती है; क्योंकि जितनी ऑक्सीजन हमारे शरीर के भीतर जाती है, उतनी ही कार्बन-डाइऑक्साइड बाहर आ जाती है।इसी प्रकार पहाड़ों के और ज्वालामुखी आदि के अध्ययन में पाया कि ये सब भी धरती के वातावरण में संतुलन बनाने में सहयोग करते हैं ।

धरती के वायुमंडल एवं वातावरण के संतुलन को बनाए रखने में मात्र जीवित प्राणी जैसे--मनुष्य, पौधे, बैक्टीरिया आदि ही भाग नहीं लेते, बल्कि पहाड़, चट्टानें, समुद्र एवं ज्वालामुखी भी अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं ।आज के समय में जरूरत है - विज्ञान के आध्यात्म सम्मत होने की, और आध्यात्म  के वैज्ञानिक सम्मत होने की ।वैदिक काल के ऋषियों के अनुसंधान से जो दर्शन विकसित हुआ, उसी दर्शन के आधार पर समाज की उन्नति सम्भव है।
वैदिक ऋषियों ने बड़े आत्मविश्वास के साथ अथर्ववेद
( 12/ 1/12) में यह उद्घोषणा की है---

               यत् ते मध्यं पृथिवि यच्च नभ्यं 
               यास्त   ऊर्जस्तन्वः  संबभूवुः।
               तासु  नो  धेह्यभिः नः पवस्व 
                पर्जन्यः पिता स उ नः पिपर्तुः।।

आज जब विज्ञान भी इसी वैदिक चिंतन का प्रतिपादन करता नज़र आता है तो हम भी प्रकृति और पृथ्वी को माता मान कर उसका आदर करें ।
       पृथ्वी माता तेरी जय हो, पृथ्वी माता तेरी जय हो ।

सादर अभिवादन के साथ धन्यवाद ।









Monday, November 25, 2019

"गायत्री मंत्र साधना द्वारा शरीर में स्थित सुषुप्त शक्ति केंद्रों का जागरण सम्भव "

            ●●● गायत्री मंत्र साधना ●●●
           
                   "जय- जय हो माँ गायत्री की 
                      जय हो वेदों की माता की" 

इस सृष्टि के आदि से अब तक जितना उच्चारण गायत्री मंत्र का हुआ है, उतना किसी का नहीं हुआ।गायत्री 'वैदिक संस्कृति' का एक छन्द है।गायत्री का अर्थ है- "प्राण रक्षक"।
गय =प्राण
त्री = त्राण ( संरक्षण करने वाली)

गायत्री मंत्र केवल पूजा-उपासना का या जप- ध्यान करने का छोटा सा 'मंत्र' मात्र नहीं है।यह मंत्र तो विश्व-ब्रह्मांड की सर्वोपरि शक्ति का प्रतिनिधित्व करता है।शब्द शक्ति ( मंत्र शक्ति )वस्तुतः मानवीय काया तथा 'अंतरिक्ष जगत' को प्रभावित करने वाली एक समर्थ ऊर्जा शक्ति है, यह मन एवं अंतःकरण से प्रकट होती है।

भारतीय ज्ञान- विज्ञान की उत्पत्ति वेदों से हुई ।वेद ज्ञान को कहते हैं ।वेद चार हैं' ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद व अथर्ववेद ।ये चारों वेद वस्तुतः गायत्री मंत्र के तीन चरण व एक शीर्ष ही हैं, जिन्होंने कालान्तर में चारों वेदों के रूप में विस्तार पाया है।इसलिए माँ गायत्री को 'वेदमाता' कहकर पुकारा गया है।

ऋषि-मुनियों ने 'गायत्री महामंत्र' के तीन चरण बताए हैं, इसलिए गायत्री को त्रिपदा भी कहा गया है।
गायत्री के प्रारंभ व अंत में "ओउम् " यह स्पष्ट करता है कि मानव- जीवन का 'अथ' व 'इति' केवल परमात्मा है।
गायत्री का  प्रथम चरण "तत्सवितुर्वरेण्यं"  की शक्ति को धारण करने वाला साधक तेजस्वी बनता है।
गायत्री महामंत्र का दूसरा चरण "भर्गोदेवस्यधीमहि" देवत्व का वरण करने की, शालीनता को अपनाने की एवं सन्मार्ग पर चलने की प्रेरणा देता है।
इस मंत्र के तृतीय चरण "धियो यो नः प्रचोदयात् " में बुद्धि को परिमार्जित करने वाला 'गीता' का दर्शन है।

गायत्री मंत्र तत्वज्ञान एवं दर्शन का सार है, इसका प्रत्येक अक्षर जाग्रत बीजमंत्र है।गायत्री मंत्र की 'सूक्ष्म शक्ति' ऊर्जा रूप में ओंकार गुंजन के रूप में समग्र अंतरिक्ष में व्याप्त है।इसलिए इस मंत्र के उच्चारण का प्रभाव द्विगुणित हो जाता है।क्योंकि समधर्मी कंपन एक दूसरे को प्रभावित करते हैं ।गायत्री मंत्र के रहस्यों का अध्ययन करने पर जीवन के अनेक रहस्य उद्घाटित होते हैं ।इस तरह प्रकाश का स्रोत, ज्ञान का स्रोत है 'गायत्री' ।

असंभव को संभव करने वाली शक्ति- साधना की परम विद्या गायत्री महामंत्र के चौबीस अक्षरों में समाई है।जो अनुभवी हैं, वे इस सच्चाई को जानते हैं ।मंत्र जप का लाभ मंत्र को आत्मसात करने वाले को ही मिलता है।इसके सभी  अक्षर ऐसे सद्गुणों की ओर संकेत करते हैं , जो साधक के व्यक्तित्व के हर पक्ष का सम्यक रूप से विकास करते हैं।गायत्री मंत्र की शक्ति संपदाओं को अर्जित करने के लिए उससे जुड़े तत्वज्ञान को समझकर अपने व्यक्तित्व में आत्मसात् करना पड़ता है।

मंत्र की शक्ति उसके क्रमबद्ध रूप से बहुत समय तक जप करने से उभरती है।गायत्री मंत्र के अनुष्ठान व पुरश्चरण का यही रहस्य है।निराकार ब्रह्म के उपासक नियमित अपने घर में गायत्री मंत्र की पाँच या सात आहुतियों के साथ हवन करते हैं ।ओउम् एवं गायत्री मंत्र के जप से एक प्रकार के सुखद वातावरण का निर्माण होता है।

गायत्री का प्रत्येक अक्षर एक विशेष यौगिक ग्रन्थि को खोलता है 
एवं उसको जाग्रत करने के साथ ही निहित शक्ति को जगाता है।
विभिन्न प्रकार के शोधों के अनुसार- गायत्री मंत्र जप से मस्तिष्क की पिट्यूटरी ग्रन्थि से बारह प्रकार के हार्मोन्स स्रावित होते हैं।वस्तुतः मंत्र जप से एक प्रकार की विद्युत चुम्बकीय (इलेक्ट्रो मैग्नेटिक) तरंगें उत्पन्न होती हैं ।इससे प्राणऊर्जा की क्षमता एवं शक्ति में वृद्धि होती है ।गायत्री में महामंत्र के सभी आयाम हैं ।
गायत्री मंत्र की साधना के आरंभ से ही 'तेजपुंज सूर्य'  की आध्यात्मिक चेतना का अंतःकरण में, चित्तभूमि में अवतरण होने लगता है।अनुसंधान कर्ताओं के अनुसार गायत्री मंत्र के नियमित जप से शरीर और मन के बीच एक लयात्मकता उत्पन्न होती है।

गायत्री महामंत्र छोटा सा शब्द- समुच्चय मात्र दिखाई पड़ता है किन्तु इसमें सृष्टि का समूचा ज्ञान एवं शक्तियाँ- सभी बीज रूप में सन्निहित हैं ।महर्षि विश्वामित्र बनने से पूर्व राजा विश्वरथ ने जब कठिन तप किया तो उन्होंने यह अनुभव किया कि विश्वामित्र अर्थात विश्व का मित्र बनकर ही गायत्री मंत्र तक पहुँचा जा सकता है ।
गायत्री मंत्र साधना आरंभ होते ही शरीर में स्थित चक्रों, ग्रन्थियों एवं उपत्यिकाओं को प्रभावित करने लगती है।चित्त में जन्म- जन्मांतरों से जमी संस्कारों व कर्मराशि के मैल की परतें टूटती हैं ।

गायत्री साधना अंधविश्वास नहीं, एक ठोस वैज्ञानिक कृत्य है और उसके द्वारा लाभ भी सुनिश्चित ही होता है।भविष्य में अचानक एक दैवी प्रवाह उमड़ेगा जो त्रिपदा गायत्री की महिमा को पुनः स्थापित करेगा।
गायत्री महामंत्र--भारतीय संस्कृति की परिभाषा, परिचय व पर्याय की पूर्णता है।
            "जय हो ब्रह्माण्ड प्रकाशिनी की
            जय हो वेदों की माता की 
            जय सिद्धि दायनी माता की
             जय हो वेदों की माता की" 
 सादर धन्यवाद ।

Sunday, November 24, 2019

"श्री गंगा भारत की संस्कृति और भारत की पवित्रता"

  ●●● श्री गंगा भारत की संस्कृति और पवित्रता ●●●
 
           "शिव की जटा से प्रकट हुई, तेरी निर्मल धारा
              धरती माँ को पावन कर, सारे जग को तारा 
                    जय गंगा मैया  जय गंगा मैया" 
          ● गंगा का आध्यात्मिक स्वरूप--

गंगा हमारी संस्कृति का स्रोत हैं तभी तो वे हम सबकी गंगा मैया
हैं ।भारतीय परंपराओं में श्री गंगा का सम्बन्ध देवलोक से है जो प्राणिमात्र के कल्याण हेतु स्वर्ग से धरा पर अवतरित हुई है।
स्कंध पुराण में श्री गंगा को परंब्रह्म का द्रव्य रूप कहा गया है।ब्रह्मवैवर्त पुराण में गंगा को प्रकृति का अंश एवं ब्रह्म पुराण में इनकी उत्पत्ति शिव जी द्वारा कही गई है।

आदिकाल से गंगा के पवित्र आँचल ने एक माँ  की तरह , हमारे मूल्यों, हमारी संस्कृति और चेतना को  पोषित किया है।भारतीय ऋषियों ने सभी नदियों में गंगा का दर्शन कर सर्वव्यापी रूप में गंगा की महिमा बताई है।अनेक प्रसिद्ध  शासकों ने भी गंगा का महत्व स्वीकारा है।

भारत के ऐतिहासिक और सांस्कृतिक इतिहास में गंगा एक शाश्वत साक्ष्य के समान हैं ।हमारी प्राचीन आर्य सभ्यता का तो यह केंद्र स्थल हैं ।इतिहास के सभी कालों में श्री गंगा का भारतीय कलाओं से अभिन्न सम्बन्ध रहा है।श्री गंगा भारत की सांस्कृतिक, सांप्रदायिक और राष्ट्रीय एकता की प्रतीक हैं ।सभी विषमताओं और विविधताओं से पूर्ण होने के बावजूद हर भारतीय गंगा के प्रति आस्थावान, श्रद्धावान है।

माघ मास, कार्तिक मास , महाशिवरात्रि, गंगादशहरा व प्रत्येक अमावस्या और पूर्णिमा पर गंगा के तटों पर स्नानादि के लिए पूरे विश्व के कोने-कोने से श्रृद्धालु आते हैं ।भारतीय धर्मशास्त्रों में गंगा की स्तुति, स्रोत , मंत्र आदि को स्थान- स्थान पर देखा जा सकता है।गंगा के आध्यात्मिक गुणों में पवित्रता, निर्मलता, शीतलता, प्रवाहशीलता, करुणा, कर्तव्यपरायणता,समर्पण इत्यादि प्रमुख हैं ।
         "एक बार तेरे द्वारे आकर जिसने विनय सुनाई
          दूर हुए उसके सब संकट उसने मुक्ति पाई"

गंगा पहाडों से शुभविचार व वनौषधियों का गुण लेकर नीचे आती है।कुंभ में करोड़ों लोग ऐसे ही शुभविचार लेकर आते हैं ये विचार गंगा के जल में ऊर्जा की वृद्धि करते हैं ।

   ● गंगा का भौगोलिक स्वरूप

गंगा का भौगोलिक स्वरूप गोमुख से गंगासागर तक अत्यन्त विस्तृत है।यह भारत की सबसे लम्बी नदी हैं ।इनकी कुल लम्बाई 
2525 किलोमीटर है।अपने सफर में गंगा माँ उत्तराखंड, उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखंड व पश्चिम बंगाल के भरण-पोषण में मुख्य भूमिका निभाती हैं ।

   ●गंगा का भौतिक स्वरूप

भौतिक दृष्टि से श्री गंगाजल में आरोग्यवर्धक गुणों की पुष्टि की गई है ।आयुर्वेद शास्त्र में भी इनके जल को अमृत तुल्य माना है।आर्थिक महत्व की दृष्टि से भी गंगा का जल गोमुख से गंगासागर तक एक विशाल भू-भाग को सिंचित करता है।कृषि के साथ ही बिजली उत्पादन, पर्यटन, व अन्य उद्योगों के माध्यम से राष्ट्रीय आय बढ़ाने में गंगा का महत्वपूर्ण योगदान है ।

  ●पर्यटन की दृष्टि से गंगा का स्वरूप 

गंगा तट पर अनेक आध्यात्मिक पर्यटन स्थल भी हैं ।पर्यटकों के लिए गंगा का शीतल जल और लौकिक स्वरूप तो आकर्षित करने वाला है ही ,साथ ही इन तीर्थों में अलौकिक लाभ भी प्राप्त होता है।गंगोत्री, ऋषिकेश, हरिद्वार, काशी, प्रयाग, गंगासागर जैसे भारत के प्रमुख तीर्थस्थलों का यहाँ के तीर्थाटन और पर्यटन में सर्वाग्रणी स्थान है।
गंगा के बिना हमारा जीवन अधूरा व एकांगी है।अतः हम सबका परम कर्तव्य है कि हम  हमारी गंगा मैया की पवित्रता व शुद्धता सदा बनाए रखें ।
       " नित- नित करें  आरती वन्दन  दीपक धूप जलाएँ  
        निर्मल- निर्मल जलधाराओं को नित शीश झुकाएँ
                       जय गंगा मैया  जय गंगा मैया"

सादर धन्यवाद ।

       

Saturday, November 23, 2019

मन क्या है ? -- "मन है विचारों का एक रोमांचक एवं आश्चर्यजनक यंत्र" महर्षि अरविंद मन के विकास की यात्रा के पाँच भाग

                       ●●● मन क्या है? ●●●
मन के बारे में हमारे अंतर्मन में अनेक प्रश्न बिजली के समान कौंधते रहते हैं ।लेकिन समुचित उत्तर नहीं मिलने के कारण ये प्रश्न हमारे लिए एक पहेली बन जाते हैं ।इनका समाधान उनसे मिलता है, जिनकी दृष्टि स्वच्छ, सूक्ष्म एवं पारदर्शी होती है, जिन्हें हम "ऋषि"  कहते हैं ।

ऋषि की अंतर्दृष्टि कहती है कि- मन है विचारों का एक बेहद ही रोमांचक एवं आश्चर्यजनक यंत्र ।इस यंत्र का ईंधन है- विचारों का अर्जन।मन में कुछ ऐसी चमत्कारिक सामर्थ्य है जो शरीर की सामर्थ्य से कई गुना ज्यादा है ।

● महर्षि पतंजलि के अनुसार मन का निरूपण---  
सामान्य मन तमस् से आच्छादित होता है ।जिसका प्रमुख लक्षण है- जड़ता, निष्क्रियता ।तमोगुण मन की मूढ़ अवस्था को कहते हैं।
जब मन में रजोगुण का संचार होता है तो उसे क्षिप्तावस्था कहते हैं ।जिसका लक्षण है - क्रियाशीलता ।रजोगुण में विचारों की क्रियाशीलता अपने चरम पर होती है।जब सतोगुण की वृद्धि होती है तो यह मन की विक्षिप्त अवस्था होती है।

 ● महान ऋषि अरविन्द के अनुसार मन का निरूपण---
सामान्य मन में विचार नकारात्मक एवं सकारात्मक, दो छोरों के बीच झूलते हैं, या कहें तो नकारात्मक विचारों के प्रभाव अधिक दीखते हैं ।विचारों की प्रकृति को देखकर मन की स्थिति एवं स्तर का पता चलता है ।सामान्य मन में विचार अस्पष्ट एवं अत्यन्त क्रियाशील होते हैं ।श्री अरविन्द का यह भी कहना है कि सतोगुण में आते ही मन में बहने वाले विचारों की अवस्था में परिवर्तन आने लगता है।

महर्षि अरविन्द ने मन की विकास यात्रा को पाँच वर्गों में वर्गीकृत किया है।
●1---  ऊर्ध्व मानस   (Higher Mind)
महर्षि अरविन्द सामान्य मन के आगे ऊर्ध्व मानस की चर्चा करते हैं, यहाँ विचारों का प्रवाह ऐसा होता है जैसे पूर्णिमा की चाँदनी में चमकती हुई गंगा की धारा।यहाँ विषय की  सही एवं समुचित ढंग से समझ विकसित होती है।यहाँ संकल्प उठते हैं और प्रतिफलित भी होते हैं ।यहाँ आनन्द अधिक टिकाऊ एवं प्रेम अधिक व्यापक होता है।मानस की यह झलक दार्शनिकों एवं चिंतकों में दिखाई देती है।परंतु मन अभी भी बोझिल होता है जो ऊपर से आने वाले पारदर्शी प्रकाश को अपने में समा लेता है।

● 2  उद्भासित मानस  ( Illumined Mind )
महर्षि अरविन्द के अनुसार जैसे- जैसे मन शान्त एवं स्थिर होने लगता है, वह ऊर्ध्व मन से उद्भासित मानस की ओर बढ़ने लगता है।ऊर्ध्व मन में विचार प्रकाशित होते हैं जब कि उद्भासित मन में विचार शान्त हो जाते हैं और दृष्टि विकसित होती चली जाती है।
दृष्टि विकसित होने के कारण घटने वाली घटनाओं के कारणों को स्पष्ट देखा जा सकता है, साथ ही मन के सभी विचार दीपमाला के समान ज्वलंत हो उठते हैं ।उद्भासित मन की नवीन चेतना में सृजनात्मक शक्तियाँ स्वतः ही प्रस्फुटित हो जाती हैं ।यहाँ प्रकाश का रंग सुनहला होता है जो नदी की धारा के समान निरंतर बहने लगता है।

श्री अरविन्द कहते हैं कि उद्भासित अवस्था में बोध और अनुभव बड़ी तेजी से होने लगता है।लेखन व रचनात्मक कला विकसित हो जाती है।श्री अरविन्द ने अपनी कृति "फ्यूचर पोयट्री"  में उद्भासित मानस से सम्बंधित कविताओं के अनेक उदाहरण प्रस्तुत किए हैं-
इसमें वर्डस्वर्थ, मिल्टन ,शेक्सपियर, शैली, श्री रविन्द्रनाथ टैगोर , महादेवी वर्मा की कविताएँ दिखाई देती हैं ।उद्भासित मन का सार है -आनन्द ।

● 3---   अंतर्बोधी मानस  (Intuitive Mind )
महर्षि अरविन्द के अनुसार उद्भासित मानस के पार अंतर्बोधी मानस है यह  सत्य का साक्षात्कार, स्पर्श एवं अनुभव कराता है।इन अनुभवों से साधक ज्ञान की खोज बाहर नहीं , स्वयं में ही करता है ।मन की इस अवस्था में ऋषियों ने उपनिषदों का दर्शन किया था लेकिन यहाँ भी  बौद्धिक ज्ञान के सहारे परमात्मा के अनुभव को पाने का प्रयास निष्फल सिद्ध होता है, क्योंकि यहाँ सत्य तो है परन्तु सम्पूर्ण रूप में नहीं ।

● 4---  अधिमानस  (Over Mind )
श्री अरविन्द के अनुसार अंतर्बोधी मानस के उच्चतम शिखर पर अधिमानस झलकता है, जो कि किसी मनुष्य के लिए अति दुर्लभ है।इस अवस्था में भगवान् श्रीकृष्ण के द्वारा श्री मद्भगवद्गीता का प्रवाह निःसृत हुआ था। यहाँ कला का विशेष महत्व है ।ऋषियों ने इसी अवस्था में मंत्रों को ऋचाओं के रूप में छन्दबद्ध किया था।लेकिन यहाँ भी संपूर्णता नहीं ।


● 5--- अतिमानस  (Super Mind)
महर्षि अरविन्द के अनुसार अधिमानस के ऊपर अतिमानस का साम्राज्य है। जहाँ सब कुछ एक है, प्रकृति और परमेश्वर में कोई भेद नहीं है। यहीं आकर पता चलता है कि मानसिक चेतना अविभाजित एवं अखंड है।सृष्टि केवल परमात्म तत्व से विनिर्मित है।यहाँ आकर मानसिक चेतना अतिमानसिक चेतना में रूपांतरित हो सकती है ।मनुष्य जीवन की सभी समस्याओं का समाधान इसमें सन्निहित है।

मन की शक्ति प्रचंड है।वह एकाग्र होने पर ही जीवंत- जाग्रत रहती है।यदि ध्यान द्वारा उसे एक केंद्र पर इकट्ठा कर लिया जाए तो उसका प्रभाव, परिणाम चमत्कारी होता है।
सचमुच मन बड़ा अद्भुत यंत्र है।
        "प्रभु नाम की मीठी- मीठी धुन
        इस मधुर प्रीति के राग को सुन 
        मन की वीणा के तारों में
        अंतर्मन की झंकार को सुन"



मन के बारे में यह जानकारी पढ़ने के लिए सादर धन्यवाद ।


Friday, November 22, 2019

"जीवन दायनी नदियों का संरक्षण आवश्यक"

 

          "हम नदियों के पावन जल की महिमा नहीं घटाएँ 
           जीवन दायनी नदियों को हम निर्मल पुनः बनाएँ"
प्रकृति  की सभी कड़ियाँ एक श्रंखला की तरह आपस में जुड़ी हुई हैं, एक की भी अवमानना करना इस श्रंखला को तोड़ना है।नदी भी इस श्रंखला की अहम् कड़ी है।नदियों के बिना हमारा जीवन अधूरा है ।नदियाँ हमारी संस्कृति व सभ्यता की मूलाधार हैं। हमारी प्राचीन सभ्यता उत्तर में  सिंधु ,सतलज और सरस्वती नदी के किनारे विकसित हुई तो दक्षिण में यह कृष्णा, कावेरी और गोदावरी के किनारे विकसित हुई।

हमारे ऋषि-मुनियों ने पर्यावरण संरक्षण के लिए प्रकृति के सभी घटकों का आदर करना सिखाया।ऋषि- मुनियों ने नदियों, पहाडों, तालाबों, झीलों व पेड़- पौधों को दैवीय शक्तियों का रूप दिया, इसीलिए तालाबों, कुओं आदि जलस्रोतों की पूजा की जाने लगी और नदियों को माता कहा गया।हिमालय से निकलने वाली गंगा के पवित्र जल का स्पर्श करके भारत ही नहीं, दुनिया के लोग अपने आप को धन्य मानते हैं। विदेशी नागरिक बताते हैं कि गंगा किनारे बैठकर उनका ध्यान सहज लग जाता है, इस प्रकार के अनुभव गंगा की मनोवैज्ञानिक शक्ति की देन हैं ।

नदियों ने हजारों वर्षों से हमारा पालन- पोषण किया है।लेकिन आज हमने इन्हें इतना प्रदूषित कर दिया है कि ये नदियाँ अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष कर रही हैं ।यदि नदियों के जल को स्वच्छ नहीं किया गया तो यह प्रदूषित जल मनुष्य व अन्य जीव-जन्तुओं के लिए तरह-तरह के संकट पैदा कर सकता है।

हम सोचते हैं कि पानी के कारण पेड़ हैं जब कि सच्चाई यह है कि पेडों के कारण पानी है।भारत की नदियों में पाए जाने वाले जल का चार प्रतिशत जल ही ग्लेशियरों से आता है।शेष सभी नदियाँ वनों पर आधारित हैं ।इसलिए नदियों का अस्तित्व बचाने के लिए बड़े पैमाने पर वृक्षारोपण करना होगा।

नदियों के आसपास की मिट्टी नम होनी चाहिए, यह तभी संभव है जब वहाँ पेड़- पौधे हों, क्योंकि पेड़- पौधे आकाश से और आसपास से जल खींचकर धरती को हरा-भरा रखते हैं ।
    
पिछले बीस वर्षों में जल में रहने वाली मछलियाँ व अन्य जीवों की प्रजातियाँ लुप्त हो गईं हैं।जल में रहने वाली डाॅलफिन अब मुश्किल से दिखाई देती है।घडियालों की प्रजातियाँ खतरे में हैं।
इन सभी के अस्तित्व के लिए नदियों का शुद्ध जल  से परिपूर्ण  होकर बारह महीने लगातार बहना आवश्यक है।

भू जल बढ़ाना, प्रदूषण फैलाने वाले तत्वों को बेअसर कर, स्वयं को निर्मल रखना, मिट्टी की उर्वरा शक्ति बढ़ाना नदियों के ही कार्य हैं, अतः फैक्ट्रियों से निकलने वाले दूषित जल को नदियों में जाने से रोकना होगा, नदियों में गन्दे नाले का प्रवाह भी रोकना होगा।
इसके बाद नदियों की तलों 


की सफाई करनी पड़ेगी ।बरसात के मौसम में गंदगी, रेत आदि भी नदी के प्रवाह में अवरोध बनते हैं और जल को प्रदूषित करते हैं ।
      यदि नदियों को समृद्ध बनाना है तो हमें इन्हें प्रदूषित करने वाले सभी कारणों की रोकथाम करनी होगी ।नदियाँ कभी स्वयं के लिए नहीं बहतीं।
               "नदिया न पिए कभी अपना जल 
                वृक्ष न खाए कभी अपना फल"
यदि हम नदियों का माँ के रूप में अनुभव करेंगे तो उनकी जलधारा हमें समृद्धि, संपन्नता और पवित्रता स्वतः ही देती चली जाएँगीं।
          "कहीं न कोई तट नदियों का रहे वृक्ष से खाली
          "भारत की नदियों के तट पर सजी रहे हरियाली"
सादर अभिवादन व धन्यवाद ।
          

Thursday, November 21, 2019

"जीवन के अस्तित्व के लिए पर्यावरण संतुलन की उपयोगिता"


                ●●●पर्यावरण क्या है ?●●●
 पर्यावरण 'परि' तथा 'आ' उपसर्ग में 'वरण' शब्द को जोड़कर बना है- जिसका अर्थ है, चारों ओर से वरण अर्थात आवरण।
      
पर्यावरण तथा प्राणी एक दूसरे पर आश्रित हैं।भारतीय संस्कृति पर्यावरण के संरक्षण एवं विकास के प्रति पूर्णतः जागरूक रही है। भगवान् श्रीकृष्ण ने श्रीमद्भगवद्गीता में स्वयं को ऋतुस्वरूप, वृक्ष स्वरूप, नदीस्वरूप एवं पर्वतस्वरूप कहकर प्रकृति के इन सभी घटकों का महत्व दर्शाया है।क्योंकि ये तत्व मानव जीवन के आधार हैं ।श्रीकृष्ण की गोवर्धन पूजा की शुरुआत का लौकिक पक्ष यही है कि जनसामान्य  मिट्टी, पर्वत, वृक्ष, वनस्पति सभी का आदर सीखें।

ऋग्वेद के अनुसार- प्रकृति का अतिक्रमण तो देवों के लिए भी निषिद्ध है।अथर्ववेद के अनुसार- जिस प्रकार हृदय की धड़कन पर प्राणी का जीवन निर्भर है, उसी प्रकार अंतरिक्ष की सुरक्षा में ही पृथ्वी और पर्यावरण की सुरक्षा है।'ऋग्वेद' के ऋषि प्रदूषण रहित वायु को औषधि के समान दीर्घ जीवन प्रदायक तथा अमृत स्वरूप मानते हैं ।

वैदिक ऋषि प्रार्थना करता है--पृथ्वी, जल, औषधि एवं वनस्पतियाँ
हमारे लिए शान्त हों।ये शान्त तभी हो सकते हैं जब हम इनका सभी स्तरों पर संरक्षण करें ।
पर्यावरण संरक्षण क्या है-- हम अपने चारों ओर के आवरण को सुरक्षा प्रदान करें, उसके घेरे को अभेद्य बनाएँ तथा उसको अनुकूल बनाए रखें। जैवमंडल(बायोस्फियर)प्राणीजगत के जीवन के लिए अति उपयोगी है।सम्पूर्ण प्राणीजगत 'जलमंडल' से जल 'स्थलमंडल' से भोजन एवं निवास तथा 'वायुमंडल' से प्राणवायु ग्रहण करता है। ये तीनों मंडल एक दूसरे के पूरक हैं।
     
पर्यावरण संरक्षण के लिए हमें वन- जंगलों को बचाना है, नदियों को प्रदूषित होने से बचाना है।हिमालय की रक्षा करनी है। क्योंकि   हिमालय अनेक रत्नों का जन्मदाता है।उसकी पर्वतश्रंखलाओं में जीवनदायनी औषधियाँ उत्पन्न होती हैं । प्लास्टिक का उपयोग भी कम करना है।प्लास्टिक का प्रयोग भी पर्यावरण के लिए अति हानिकारक है।

'पर्यावरण संरक्षण के लिए वृक्षों का सर्वाधिक महत्व है।पृथ्वी सूक्त के अनुसार वन तथा वृक्ष वर्षा लाते हैं, मिट्टी को बहने से बचाते हैं, बाढ़ तथा सूखे को रोकते हैं तथा दूषित गैसों को खींचते हैं।यही कारण है कि पुरातन काल में वृक्षों का देवता के समान पूजन किया जाता था।

पर्यावरण संरक्षण एवं प्रदूषण निराकरण के लिए सर्वोपरि आवश्यकता है- 'एक अखंडित अनुशासन'। प्रकृति के सारे घटक अनुशासित एवं नियमबद्ध तरीके से परिचालित हैं।पर्यावरण के संरक्षण एवं पोषण से ही मानव जीवन  सुखी, शांत एवं समृद्ध हो सकता है।
                   पर्यावरण असंतुलन के कारण मौसम की असामान्यता मानव जीवन के लिए भीषण खतरा एवं चुनौती बन रही है।  पर्यावरण असंतुलन का एक प्रमुख कारण है जनसंख्या वृद्धि। क्योंकि जनसंख्या बढ़ी तो पेड़ कटे, पेड़ कटे तो भूमि की उर्वरता घटी, संसाधन घटे। उनके घटने से जो एक समस्या बढ़ी, वह पर्यावरण में घुलता जहर है।यहाँ तक कि पर्यावरण की शुद्धि में सहायक सुदूर आकाश में उड़ने वाले गिद्धों की अनेक प्रजातियाँ समाप्त हो गईं ।पर्यावरण की सुरक्षा व भावी पीढ़ी के सुख के लिए हर वर्ग व हर धर्म को छोटे परिवार का महत्व समझना होगा।
     
पर्यावरण की रक्षा के लिए नदियों को बचाना भी जरूरी है, क्योंकि जीव- जन्तुओं की ऐसी अनेक प्रजातियाँ होती हैं जिनके लिए नदियों का प्रदूषण मुक्त होना जरूरी है।भूमिगत जलस्तर के लिए भी पर्याप्त वन क्षेत्र आवश्यक है।जंगल न होने से ही वर्षा का जल धरती में न समाकर धरती के ऊपर बहने लगता है।जिसके परिणाम बाढ़ और सूखे के रूप में हमारे सामने आते हैं ।
         
इलेक्ट्रॉनिक क्रान्ति ने हमारी जिंदगी को सुविधापूर्ण जीने का लालच  दिया है लेकिन हमारा पर्यावरण प्रदूषित कर दिया।
प्रकृति, पर्यावरण एवं हम मनुष्य सभी एक दूसरे के परिपूरक हैं।अतः कर्तव्यनिष्ठ संतान के रूम में पर्यावरण की रक्षा के लिए धरती को पोषण, संरक्षण एवं सुरक्षा प्रदान करना हमारा परम कर्तव्य है।
  
पेड़ लगाकर, हरीतिमा संबर्धन करके हम पर्यावरण असंतुलन से उत्पन्न प्रदूषण का स्तर कम कर सकते हैं।पर्यावरण संतुलन में ही मानव जीवन की खुशहाली है।
           "पेड़ लगाकर पर्यावरण बचाएँ
            जीवन को खुशहाल बनाएँ" 
पर्यावरण के बारे में यह जानकारी पढ़ने के लिए सादर धन्यवाद ।


धरती के तापमान में वृद्धि (ग्लोबल वार्मिंग), जलवायु परिवर्तन

                               ग्लोबल वार्मिंग
आज विश्व में ग्लोबल वार्मिंग एक गंभीर समस्या बन चुकी है।जलवायु परिवर्तन के दुष्प्रभावों से निपटने की लाख कोशिशों के बावजूद हमारी पृथ्वी का तापमान लगातार बढ़ रहा है।
   
वायु में विभिन्न गैसें एक निश्चित मात्रा में होती हैं।इनकी मात्रा में जरा सा भी अन्तर आने पर यह असंतुलित हो जाती हैं ।वर्तमान समय में पर्यावरण में ग्रीनहाउस गैसों का घनत्व बढ़ने के कारण पृथ्वी का तापमान खतरनाक स्तर तक बढ़ने लगा है।कार्बनडाइऑक्साइड, मीथेन, नाइट्रस ऑक्साइड व ओजोन जैसी गैसों का गुण ही यह है कि वे हमारे वातावरण को खतरनाक बना देती हैं ।इन्हें ही ग्रीनहाउस गैसें कहते हैं ।

पर्यावरण असंतुलन के कारण ग्लेशियर्स पिघल रहे हैं, परिणाम स्वरूप समुद्र का जलस्तर बढ़ सकता है।हम काफी समय से खेती- बारी व शहरों को बसाने के लिए वन्यक्षेत्रों को नष्ट करते रहे हैं ।इस गतिविधि ने भी जमीन के गरमी सोखने के व्यवहार को बदला है।इन्हें हम 'एंथ्रोपोजेनिक' यानी मानवीय गतिविधियों का नतीजा कहते हैं ।
         
  विगत अठारह वर्षों में जैविक ईंधन के जलने के कारण कार्बनडाइऑक्साइड का उत्सर्जन 40 प्रतिशत तक बढ़ चुका है और पृथ्वी का तापमान 0.7 डिग्री सेल्सियस तक बढ़ा है।वनों के नष्ट होने से कार्बनडाइऑक्साइड की मात्रा बढ़ रही है ।

कार्बनडाइऑक्साइड की जितनी मात्रा आज है, उतनी पहले कभी नहीं थी।हम मनुष्यों ने अपने स्वार्थ के लिए प्रकृति का इतना अधिक शोषण कर लिया है, जिसके कारण प्राकृतिक असंतुलन हुआ और ग्लोबल वार्मिंग की समस्या उत्पन्न हो गई है।आंकड़ों के आईने में देखें तो जब से मानव सभ्यता का विकास क्रम आरंभ हुआ है, तब से अब तक पेडों की संख्या में लगभग 46% तक की कमी आई है।

जैसे ही धरती पर इन्सानों ने जीवाश्म ईंधन, तेल और प्राकृतिक गैस का बड़े पैमाने पर इस्तेमाल शुरु किया, हवा में कार्बनडाइऑक्साइड की सघनता बढ़ती गई ।इस गैस ने वातावरण के ऊपर एक कंबल का काम किया, जिससे धरती की गर्मी बाहर नहीं निकल रही और धरती का तापमान बढ़ता जा रहा है।

वातावरण में होने वाले तापमान में बदलाव का अध्ययन करने पर यह पाया गया है कि सन् 1950 के दशक तक तो तापमान में कोई खास बदलाव नहीं हुआ, लेकिन उसके बाद से यह बढ़ता गया है और इस वृद्धि का प्रमुख कारण ग्रीनहाउस गैसें ही रही हैं ।अध्ययन में यह भी पाया गया कि देश के अलग-अलग हिस्सों में तापमान में वृद्धि की दर एक जैसी नहीं है और कारण भी एक जैसे नहीं  हैं ।

 वैज्ञानिकों के अनुसार यदि तापमान दो डिग्री सेल्सियस से ज्यादा बढ़ गया तो सन्  2030 तक आर्कटिक महासागर की बरफ की चादर पिघल जाएगी तथा पृथ्वी पर ऊर्जा का भार अनियंत्रित हो जाएगा।संयुक्त राष्ट्र पैनल की रिपोर्ट में यह चेतावनी दी गई है कि हिमालय के हिमनद अत्यधिक पिघल रहे हैं और संभवतः सन् 2035 तक उनका निशान तक नहीं रहेगा।

डेनमार्क के कोपेनहेगन में 192 देशों के प्रतिनिधियों ने पर्यावरण पर चर्चाओं के बाद यह निष्कर्ष निकाला कि ग्लोबल वार्मिंग वातावरण में कार्बनडाइऑक्साइड की मात्रा बढ़ने के कारण हुई है फिर पर्यावरण  की रक्षा के लिए यह समाधान निकाला कि हर देश ग्रीन हाउस गैस उत्सर्जन कम करे, लेकिन बड़े देश जो कि सर्वाधिक प्रदूषण फैला रहे हैं, वे झुके नहीं, वे अपने विकास की दर को प्रभावित करना नहीं चाहते।
 
हमारे देश में पश्चिमी हिमालय के बढ़ते तापमान से बरफ पिघलेगी,  जिससे नदियों में जल प्रवाह अत्यधिक बढ़ेगा ।मैदानी इलाकों में बढ़ता तापमान से अत्यधिक गर्मी बढ़ेगी और कृषिकार्यों
पर भी संकट बढ़ेगा ।

अतः आज समस्त विश्व को जलवायु परिवर्तन, विशेषकर धरती पर बढ़ते हुए तापमान को नियंत्रित व संतुलित करने हेतु सबसे पहले हरियाली बढानी होगी और ग्रीनहाउस गैसों उत्सर्जन के लिए जिम्मेदार कारकों पर अंकुश लगाना होगा।

हालाँकि दुनिया के कई देशों और उनके नेतृत्व द्वारा ग्लोबलवार्मिंग से निपटने के लिए अनेकानेक प्रयास किए जा रहे हैं ।धरती में तापमान में वृद्धि का सबसे अधिक दुष्प्रभाव दक्षिण एशिया के देशों पर पड़ सकता है।
"आओ सब मिलकर पेड़- पौधे लगाकर धरतीमाता का श्रृंगार करें"
धरती को गर्म होने से बचाएँ ।

वर्तमान युग की समस्या ' ग्लोबल वार्मिंग' पर यह लेख पढ़ने के लिए सादर धन्यवाद ।




Wednesday, November 20, 2019

सूर्य जगत की आत्मा (सूर्य का वैज्ञानिक व आध्यात्मिक महत्व)

              ●●● 'सूर्य' जगत की आत्मा ●●●
                        "भोर हुई, चाँद तारे छिपे
                        संसार में तेज प्रकाश हुआ
                         हे सूर्यदेव! तुमको प्रणाम"
 सूर्य इस जगत की आत्मा है, जगत का केंद्र है।सूर्य समस्त जगत का आदिकारण है।इसलिए उसे आदित्य कहते हैं।सबको उत्पन्न करता है।इसलिए सविता कहते हैं ।
         
          ●●● सूर्य का वैज्ञानिक महत्व ●●●

वैज्ञानिक गणनाओं के अनुसार 4.5 अरब वर्ष पहले सूर्य व ग्रहों का निर्माण हुआ। 3.5 अरब वर्ष पहले पृथ्वी पर प्राथमिक सूक्ष्म जीवाणुओं की उत्पत्ति हुई ।प्रकाश के रूप में सूर्य से आने वाली प्राणशक्ति द्वारा ही पृथ्वी पर जीवन का आविर्भाव हुआ।
    
स्थूल विज्ञान की दृष्टि से सूर्य  'स्पाइरल' नामक आकाश गंगा के परिवार के लगभग डेढ़ खरब तारों में से एक छोटा सा तारा है।सूर्य परिवार में नौ ग्रह, ग्रहों के अनेक उपग्रह हैं।इसके अतिरिक्त हजारों छोटे ग्रह तथा ग्रहिकाएँ धूमकेतु, पुच्छल तारे इस सौर परिवार में सम्मिलित हैं।यह सब सूर्य की प्रबल आकर्षण शक्ति में जकड़े हुए निरन्तर उसकी परिक्रमा करते रहते हैं।
    
अपने इस सारे परिवार को लेकर सूर्य 'स्पाइरल' आकाश गंगा की परिक्रमा करता है।एक परिक्रमा में सूर्य को पच्चीस करोड़ वर्ष लगते हैं।ज्योतिषियों का अनुमान है कि जब से सूर्य पैदा हुआ है, तब से अब तक वह ऐसी सोलह परिक्रमाएँ कर चुका है।
         
        ●●●सूर्य का आध्यात्मिक महत्व ●●●

सूर्य की गर्मी और रोशनी सबको दीखती है, यह उसकी स्थूल शक्ति है।एक और सूक्ष्म सत्ता उसके अन्तर में मौजूद है वह है--जीवन शक्ति ।सूर्य की आत्मा को ही 'महाप्राण' कहा गया है।हर व्यक्ति के अन्दर उसकी जीवात्मा में सूर्य के समान प्रकाश मौजूद है।जो साधक आत्मदर्शन कर पाते हैं, वे उस प्रकाश तक पहुँचते हैं और तब उनका व्यक्तित्व आलोकित हो उठता है।
      '
सूर्य नमस्कार' एक प्रभावी यौगिक क्रिया है।सूर्य नमस्कार स्वयं में सूर्य आराधना भी है और स्वास्थ्य का व्यायाम भी।इससे अनेक प्रकार के रोगों का निराकरण भी होता है।
वैज्ञानिक अब तक सूर्य प्रकाश की स्थूल गतिविधि को ही जान सके हैं। हमारा मानसिक सम्बन्ध भी सूर्य से है, जिसे मंत्र साधना के द्वारा अनुभव किया जा सकता है।गायत्री महाविज्ञान वस्तुतः सूर्य का ही विवेचन है।
      "गायत्री के देव तुम्हीं हो
       ध्यान के हो विज्ञान 
       हे सूर्यदेव ! तुमको प्रणाम" 

सूर्य सर्वव्यापी और सर्वान्तर्यामी तत्व है।अब चाहे उसे आत्मा या प्राणपुञ्ज कह लें या हाइड्रोजन का जलता हुआ गोला ।आत्मा का स्वरूप भी प्रकाशयुक्त माना गया है, ध्यान प्रयोजन में आत्मा को सदा ज्योति मानकर ही चला जाता है।परम योगियों को 'आत्मसाक्षात्कार' सदा ज्योति पुँञ्ज के रूप में ही होता है।ध्यान में सबसे ऊँची स्थिति में तो ब्रह्म ज्योति ही एक मात्र अवलम्बन रह जाती है ।यही आध्यात्मिक यज्ञाग्नि है , इसी को आदित्य, दिव्य आभा कहते हैं ।
   
निरंतर ध्यान करते - करते यह दिव्य आभा जिसे जितनी मात्रा में मिलती चली जाती है, वह परब्रह्म परमात्मा के साथ एकाकार होता चला जाता है।संसार के समस्त जड़- चेतन में यही ज्योति प्रकाशमान है, इसी से देवशक्तियाँ और पंचतत्व अपना कार्य कर सकने में समर्थ होती हैं ।ग्रह- नक्षत्रों में यही प्रकाश जगमगा रहा है।

प्रकाश सूर्य से ही मिलता है, गर्मी सूर्य से ही मिलती है, वर्षा सूर्य कराता है।भूमि और पानी को अलग- अलग तरह की गर्मी भी वही देता है।लकड़ी, पत्थर का कोयला, जलप्रपात और पैट्रोल आदि सभी तत्व सूर्य ही देता है।यह सब वह अपनी बाहरी क्रिया और गर्मी से करता है।उसके तल का तापमान 11000 फारेनहाइट है।
पृथ्वी पर किसी वस्तु को 11000फारेनहाइट की गर्मी में सेकेन्ड तक ही रखा जा सकता है।वनस्पति का 95% भाग सूर्य से ही विकसित होता है।

हमें शायद इस बात का अन्दाजा नहीं है, कि हम एक ग्रह होने के नाते अपने सौरमण्डल के कितने श्रेष्ठ स्थान पर हैं ।हमारी सूर्य से दूरी भी एकदम ऐसी है, जैसे किसी ने स्केल से खींचकर तय की हो।सूर्य निरंतर हमें अनुशासन, संतुलन व निरंतरता की सीख देता है।वैज्ञानिकों का कहना है कि सूर्य इन दिनदिनों बदलाव के दौर से गुजर रहा है ।दुनिया भर के वैज्ञानिक इसका अध्ययन करने में जुटे हैं ।इस जगत में सूर्य भगवान् ही हमें साक्षात दर्शन देते हैं ।
    " सुबह सबेरे सूर्य रूप में प्रभु आते हैं
     जग में प्रकाश फैलाते हैं।"

हे सूर्यदेव !आप ही इस जगत को धारण करते हैं।आपसे ही यह लोक प्रकाशित होता है।आप ही इस जगत की आत्मा हैं ।
       "हे जग के नयन,    मेरे जीवन धन
       करूँ तुमको नमन,करूँ तुमको नमन"
आप सभी पढ़ने वालों को सादर धन्यवाद।


 

Tuesday, November 19, 2019

प्रकृति का अर्थ (प्रकृति के बिना जीवन की कल्पना संभव नहीं)


              ●●●●●प्रकृति का अर्थ●●●●●
अंग्रेजी भाषा में प्रायः प्रकृति का अनुवाद नेचर या क्रिएशन के रूप में किया जाता है।जब कि ये दोनों शब्द प्रकृति का ठीक-ठीक परिचय देने व इसे परिभाषित करने में असमर्थ हैं ।
सृजन होने से पहले किसी की शाश्वत उपस्थिति रही, वही प्रकृति है।जब कुछ भी विनिर्मित नहीं था, तब जो भी था---प्रि-क्रिएशन।
इसलिए अंग्रेजी भाषा में प्रि- क्रिएशन (कृति से पहले) शब्द प्रकृति को परिभाषित करने में समर्थ है।
प्रकृति शब्द अद्भुत है- भारत, भारतीय संस्कृति व भारतीय मनीषा ने इसे गढ़ा है।ऐसा अनूठा शब्द दुनिया की किसी दूसरी भाषा में नहीं है।
प्रकृति व शक्ति दोनों ही हमारे जीवन का मूल आधार हैं, उनके बिना जीवन की कल्पना संभव नहीं।हमारा शरीर प्रकृति के तत्वों से मिलकर बना है और यह संचालित भी होता है, प्रकृति की शक्ति से।भारतीय मनीषियों को इस सत्य का अहसास हो गया था कि इस परिवर्तनशील भौतिक जगत के पीछे एक शाश्वत और अपरिवर्तनीय सत्ता है।जिसे उन्होंने ब्रह्मांडीय अंतश्चेतना या परम आत्मा कहा।प्रकृति को जगज्जननी व परमेश्वर को परमपिता कहा गया है।
सूरज , चाँद , सितारे, पर्वत, नदियाँ, पृथ्वी आदि सब प्रकृति का ही तो स्वरूप हैं।भगवान् श्रीकृष्ण ने श्रीमद्भगवद्गीता में कहा है कि इस सृष्टि में हर वस्तु तीन गुणों से युक्त है।
इस सृष्टि की संपूर्ण रोचकता, रोमांचकता व रहस्यमयता तात्विक रूप से प्रकृति के तीन गुणों से ही निर्मित की गई है।
प्रकृति ही इन तीनों गुणों (सतोगुण, रजोगुण, तमोगुण )के मध्य संतुलन स्थापित करते हुए सृष्टि के चक्र को माँ की तरह चलाती है।भारतीय दर्शन ने सदा से ही मनुष्य, प्रकृति एवं परमेश्वर को एक समग्र दृष्टि से देखने का प्रयत्न किया है ।
प्रकृति वह है, जिसमें से सब निकलता है और जिसमें सब विलीन हो जाता है।सभी रूप व आकारों के उद्गम व विसर्जन का स्थान है।प्रकृति के सभी नियम शाश्वत एवं चिरस्थायी हैं, जैसे कि-- हमारे सौरमण्डल के सभी ग्रहों में सदा से ही एक नियमबद्धता है।सभी ग्रह एक नियमित तरीके से सूर्य की परिक्रमा कर रहे हैं, लेकिन इस संसार में मनुष्य द्वारा निर्मित कुछ भी स्थाई नहीं है।
   हमारी संपूर्ण प्रकृति ही इस संसार की अनमोल धरोहर है, क्योंकि जीवन के लिए शुद्ध हवा, शुद्ध जल सभी कुछ तो हमें प्रकृति से प्राप्त होता है।यदि हम गहराई से विचार करें तो हम प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से संपूर्णता से अपनी प्रकृति पर ही निर्भर हैं अर्थात सब कुछ हमें प्रकृति से ही प्राप्त होता है। अतः आज पृथ्वी पर जीवन के अस्तित्व के लिए प्रकृति में संतुलन अति आवश्यक है ।
           वर्तमान समय में प्रकृति में असंतुलन पैदा हो गया है।उद्योगों के अवशिष्ट से हवा, पानी व जमीन सभी प्रदूषित होते चले जा रहे हैं।पेड़ों की कटाई से वर्षा चक्र बाधित हो रहा है।धरती की अधिक खुदाई से भूकंप जैसी आपदाएँ बढ़ रही हैं।ऐसे में स्वस्थ जीवन की कल्पना करना मुश्किल है।
      बढ़ता तापमान अर्थात ग्लोबल वार्मिंग के कारण पृथ्वी पर खतरा मँडरा रहा है।पर्यावरण से हम जीवन का अमृत रस तो ले रहे हैं लेकिन बदले में उसमें विष घोल रहे हैं।
  आज सम्पूर्ण विश्व को यह समझना होगा कि प्रकृति में इसी तरह असंतुलन बढता रहा तो मानव- जीवन के अस्तित्व के लिए खतरा पैदा हो सकता है।
    वर्तमान युग में सभी तरह के प्रदूषणों को देखते हुए यही कहा जा सकता है कि प्रकृति के बिना जीवन का अस्तित्व नहीं अर्थात प्रकृति से ही जीवन है।प्रकृति की अनदेखी के कारण ही सभी तरह के प्रदूषणों की मार झेलनी पड़ रही है।
    गोवर्धन पूजा के माध्यम से भगवान् ने प्रकृति का महत्व दर्शाया है।अतः अपनी प्रकृति का सौन्दर्य बनाए रखने के लिए हम सभी पर्यावरण की सुरक्षा के प्रति जागरूक बनें ।
धरती माता का पेडों से श्रृंगार करें और नदियों के जल को स्वच्छ रखें ।
प्रकृति ही जगज्जननी है।



Wednesday, November 13, 2019

"जल है तो कल है' शुद्ध जल के संरक्षण में पेड़-पौधे कितने आवश्यक


                      ●●● जल है तो कल है ●●●
प्रकृति ही जल का मूल स्रोत है, अतः शुद्ध जल के संरक्षण के लिए व जल प्रदूषण दूर करने के लिए प्रकृति का संतुलन अति आवश्यक है।पेड़ ऐसी प्राकृतिक संपदा है, जिसका यदि विनाश होता है, तो मनुष्य जीवन की सुखद संभावनाओं की आशा नहीं की जा सकती।
  सामान्यतः हम सोचते हैं कि पानी के कारण पेड़ हैं जब कि सच्चाई यह है कि पेडों के कारण पानी है।यदि जंगल नहीं होंगे तो कुछ समय बाद नदियाँ भी नहीं बचेंगी।
   पानी को व्यर्थ न बहाना - यह अति आवश्यक है, साथ ही पानी के स्थाई समाधान के लिए समग्र पर्यावरण की रक्षा अनिवार्य है।
     वर्षा ऋतु के बादल त्याग का उदाहरण प्रस्तुत करते हुए अपना अस्तित्व मिटाकर हमें जल प्रदान करते हैं- अतः हमारा भी कर्तव्य है कि जीवन में जल की उपयोगिता को समझते हुए जल संरक्षण करें ।
शहरीकरण के साथ शहर में पेडों की वृद्धि हो और हरे-भरे वन- उपवन बनाए जाएँ ।देश भर में नदियों के किनारे भवन-निर्माण कार्य रोककर वृक्ष लगाए जाएँ ।आज की वास्तविकता यह है कि हमारे देश की 70% नदियाँ प्रदूषित हैं।हम सब की प्राथमिकता होनी चाहिए कि जीवन-दायनी नदियों को प्रदूषित होने से बचाएँ ।
   शुद्ध जल के स्थाई समाधान के लिए वन व जंगलों का विस्तार होना आवश्यक है।
    पर्यावरण संतुलन के लिए जनसँख्या को नियंत्रित करने की कोशिश भी अनिवार्य है क्योंकि जनसँख्या वृद्धि से हमारी जरूरतें बढ़ती हैं और हमारे वन - जंगल कम होते चले जाते हैं ।अधिक भवन- निर्माण के कारण भू जल- स्तर कम हो रहा है।
  भूमिगत जल- स्तर के संतुलन के लिए 33% वन- जंगल ( कच्ची भूमि) होना जरूरी है।
   भारत में औसतन 110 सेंटीमीटर वर्षा होती है जो अधिकांश देशों से बहुत ज्यादा है परंतु हम इस बरसात के जल का महज 15% ही संचित कर पाते हैं ।शेष जल नदियों से होते हुए समुद्र में जाकर मिल जाता है।धरती पर पानी सदा एक निश्चित मात्रा में रहता ही है बस संतुलन बिगड़ गया है।
   भारत समेत 14 देशों के पीने के पानी पर किए गए विश्लेषण में यह पाया गया कि 83 % पानी में माइक्रोप्लास्टिक शामिल है।अतः शुद्ध जल बचाने के लिए प्लास्टिक का उत्पादन व उपयोग कम करना पड़ेगा ।
       हमने भौतिक विकास पर ध्यान दिया लेकिन पर्यावरण की सुरक्षा के लिए कदम नहीं उठाए।अब धीरे-धीरे लोगों में जल - संरक्षण हेतु जागरूकता बढ़ रही है।सरकारें भी इस ओर ध्यान दे रही हैं ।
      आने वाली पीढ़ियों को जल- संकट का सामना न करना पड़े- इसके लिए जल संरक्षण हेतु पेड़- पौधो का महत्व समझना ही पड़ेगा ।
      " हम प्रकृति के बनें पुजारी "

Tuesday, November 12, 2019

हारमोनियम(casio) का बेसिक प्रशिक्षण (बच्चों को कैसियो कैसे सिखाएँ)

"सुर के बिना अधूरा जीवन
सात सुरों की है अगणित धुन"
बच्चों के समय का सदुपयोग हो, वे व्यस्त रहें, उनका मन प्रसन्न रहे, इसके लिए संगीत से अच्छा और क्या हो सकता है।
    यदि  आपके घर में कैसियो या हारमोनियम है तो सर्वप्रथम छोटे बच्चों को अलंकार( सरगम) सिखना चाहिए।यहाँ कुछ अलंकार दिए जा रहे हैं।
1 आरोह-  सा रे ग म प ध नी सां।
  अवरोह- सां नी ध प म ग रे सा।
2 हर एक स्वर को दो दो बार जैसे 
   आरोह-  सासा,  रेरे, गग,  मम, पप,  धध, नीनी, सांसां।
   अवरोह- सांसां, नीनी, धध, पप, मम, गग, रेरे, सासा।
3 हर एक स्वर को तीन तीन बार
   आरोह- सासासा, रेरेरे, गगग, ममम, पपप,धधध, नीनीनी, सांसांसां।
   अवरोह-सांसांसां, नीनीनी, धधध, पपप, ममम, गगग,                 रेरेरे,सासासा।
4 तीन तीन स्वरों के समूह में 
   आरोह-  सरेग, रेगम, गमप, मपध, पधनी, धनीसां।
    अवरोह- सांनीध, नीधप, धपम, पमग, मगरे, गरेसा

कुछ दिनों तक नियमित एक घंटा इन्हीं चार अलंकारों का अभ्यास करबाते रहें ।उसके बाद ही कैसियो पर गाना सिखाएँ ।
अगले ब्लाग में आगे के अलंकारों की जानकारी रहेगी।
सा के ऊपर जहाँ बिन्दु का निशान है वह तार सप्तक का ( तेज ध्वनि का) सा है।
छोटे बच्चों को अपनी देखरेख में ही सिखाएँ ।आशा करती हूँ कि मेरे ब्लाग के माध्यम से आप अपने बच्चों को आसानी से हारमोनियम ( कैसियो) सिखा सकते हैं ।
मेरा  ब्लाग पढ़ने के लिए सादर धन्यवाद ।
स्वरों के चढ़ते क्रम को आरोह कहते हैं और स्वरों के उतरते क्रम को अवरोह कहते हैं ।


 


Monday, November 11, 2019

"वर्तमान में जल की कमी व जल प्रदूषण के कारण"

                  ●●●जल ही जीवन है●●●
जल के बिना जीवन की कल्पना भी नहीं की जा सकती।
  भगवान् का एक नाम नारायण भी है।
नार- जल को कहते हैं और अयण - घर को अर्थात् जल भगवान् का घर है ।जल शुद्ध हो तो वहाँ नारायण वास करते हैं।लेकिन आज के समय में एक तो पर्याप्त मात्रा में जल नहीं है और दूसरा जो बचा हुआ है, उसका रूप- रंग और स्वाद तेजी से बिगड़ रहा है।
नासा के अनुसार- भारत में हर वर्ष जलस्तर 0.3मीटर की दर से लगातार गिर रहा है।नगर हो , महानगर हो या देश, जो जितना अधिक विकसित है, उतना ही प्रदूषित है।
     
 ●●●जल की कमी व जल प्रदूषण के प्रमुख कारण●●●

जनसंख्या की वृद्धि के कारण हमारी जरूरतें बढीं और हम पृथ्वी का दोहन करते चले गए।शहरीकरण के नाम पर जो विकास हुआ उसमें धरती और जल का संपर्क ही न्यून हो गया।
 
 उद्योग बढ़ते गए और उनका प्रदूषित जल व कचरा नदियों में बहाया जाने लगा जिससे नदियों का जल प्रदूषित हो गया।
  पाॅलीथिन का उत्पादन जीरीलीर प्रक्रिया से जुड़ा है, जो बड़े पैमाने पर जल को प्रदूषित करने वाला कचरा उत्पन्न करता है।
वन- जंगल, खेत- खलिहान निरन्तर कम होते जा रहे हैं जिसके कारण पृथ्वी,  बरसात का जल अपने में सोख नहीं पाती ।

हिमालय की अनदेखी भी जल संकट का प्रमुख  कारण है।गोमुख ग्लेशियर प्रतिवर्ष तीन मीटर पीछे छूट रहा है।हिमालय के क्षेत्र में विस्फोट करके वहाँ चारलाइन सड़कें बना रहे हैं।सैकडों बाँध इनके माध्यम से बना रहे हैं और बदले में भयानक विप्लव का सामना कर रहे हैं ।

पेडों की कटाई के कारण धरती को रेगिस्तान बनते, भूमि की उर्वरता कम होते,वर्षा का अनुपात कम होते देर नहीं लगती। जल की कमी व जल प्रदूषण के अन्य कारण भी हैं।देश की कुल बरसात के जल का सिर्फ़ 15% जल का ही संरक्षण हो पाता है, शेष समुद्र में मिल जाता है।जल संचयन की तकनीकों पर बहुत ध्यान नहीं दिया गया।

कहते हैं कि यदि तीसरा विश्वयुद्ध होगा तो वह पानी के लिए ही होगा।
जल की समस्याओं के समाधान के  लिए पर्यावरण की रक्षा अनिवार्य है।
धन्यवाद ।

Sunday, November 10, 2019

प्राणायाम का स्वास्थ्य से सम्बन्ध

             ●●● प्राणयोग अथवा प्राणायाम●●●
प्राणायाम प्राण व आयाम इन दो शब्दोंके समायोजन से बना है।'प्राण' वायु का शुद्ध और सात्विक अंश है।वस्तुतः यह एक प्रबल जीवनी शक्ति है।
आयाम का अर्थ है-विस्तार करना या नियंत्रण करना।
प्राणों के सम्यक व संतुलित प्रवाह को ही प्राणायाम कहते हैं ।
   
योगियों ने श्वास पर गहन,गंभीर प्रयोग किए और यह निष्कर्ष निकाला-  "श्वास सधे तो सब सधे"। जैसे आहार हमारे स्थूल शरीर को पुष्ट करता है, उसी तरह प्राणायाम हमारे सूक्ष्म शरीर को पुष्ट करता है।प्राणायाम से रक्त- परिभ्रमण की गति में तेजी आती है, फलतः मस्तिष्क की सूक्ष्म नाड़ियों तक वह ( रक्त) आसानी से पहुँच जाता है।
    
वस्तुतः प्राणयोग(श्वास पर ध्यान देना)एक ऐसा सीधा,सरल योगाभ्यास है जो बिना किसी बाधा के कभी भी और कहीं भी किया जा सकता है ।गहरी श्वासों से एकाग्रता में वृद्धि होती है।
   
यदि मनुष्य ने लयबद्ध, तालबद्ध ढंग से श्वास लेना सीख लिया तो शारीरिक और मानसिक दोनों ही प्रकार के विकारों से बच सकता है।योगाभ्यास एवं प्राणायाम की प्रक्रिया से प्राण की क्षमता को अद्भुत रूप से बढाया जा सकता है।
   
विद्यार्थियों के लिए भ्रामरी प्राणायाम अति उपयोगी है इससे स्मृति क्षमता, स्थिरता व एकाग्रता बढ़ती है।कपालभाति व अनुलोम-विलोम प्राणायाम का अभ्यास करने से रक्त का संचार पूरे शरीर के साथ- साथ मस्तिष्क क्षेत्र की ओर अधिक होता है ।जिससे हार्मोन्स संतुलित होते हैं, मानसिक सामर्थ्य बढ़ती है।
    
नाड़ी- शोधन प्राणायाम के अभ्यास से न्यूरोट्रांसमीटर प्रभावित होते हैं।मनोदशा का हमारे श्वासों से गहरा सम्बन्ध है।यदि व्यक्ति अपने श्वासों को बदलने की कला सीख ले, तो मन की दशा को सरलता से काबू में लाया जा सकता है।प्राणायाम करते समय मन शान्त एवं प्रसन्न होना चाहिए ।प्राणायाम के दौरान संपूर्ण शरीर ऊर्जा से भर जाता है।
  
 मनुष्य ईश्वर का वरिष्ठ राजकुमार है।उसके भीतर अपने सृजेता  की तरह ही शक्तियों का अनंत भंडार प्रसुप्त अवस्था में छिपा पड़ा है।योग से जिसका जागरण सम्भव है।
  
प्राणायाम से जीवन में ध्यान का संगीत एवं समाधि की सरगम झंकृत होने लगती है।प्राणायाम से पूर्व 'ओउम्' का लम्बा उच्चारण करने से मन को शान्ति मिलती है।
     " प्राणायाम से जीवन सधता 
      लोम- अनुलोम करो स्वस्थ हमेशा रहें
      योग की राह चलें "
'स्वास्थ्य के लिए उपयोगी है प्राणयोग'  इस विषय पर मेरा लेख पढ़ने के लिए सादर धन्यवाद । 
        


Saturday, November 9, 2019

मंत्र विज्ञान

    ●●●मंत्र जप के द्वारा ईश्वरीय चेतना से एकाकार●●●
मंत्र जप के द्वारा साधक परमेश्वर को पुकारता है।निर्मल चित्त से उठी पुकार एक तरह से परमेश्वर के लिए आमंत्रण बन जाती है और उन्हें आना ही पड़ता है।गज ने भगवान् का हजार बार नाम लिया, तब भगवान् उसे बचाने आए थे।नन्हे ध्रुव ने "ओउम् नमो भगवते वासुदेवाय" इस मन्त्र के जाप से भगवान् के साक्षात् दर्शन किए ।
क्यों न हम भी मंत्रों द्वारा परमेश्वर को पुकारते रहें।

'पुकार सुन लो दया के सागर तुम्हारे चरणों में आ गए हैं'
     
 विज्ञान के विद्यार्थी जानते हैं कि ताप की तरह ही शब्द में भी एक प्रचंड शक्ति है।हमारे ऋषि-मुनियों ने जिन मंत्रों का उच्चारण किया, पहले उन्हें अंतर्मन में देखा, अनुभव किया और फिर उन्हें प्रकट किया, इसलिए वे मंत्रदृष्टा कहे जाते हैं, रचयिता नहीं। मंत्र जप के आधार पर ही ऋषि , मनीषियों, योगियों आदि ने ब्रह्माण्ड की अनंत शक्तियों पर विजय पाई थी।
 
   मंत्र का प्रत्यक्ष रूप ध्वनि है।ध्वनि के क्रमबद्ध, लयबद्ध और वृत्ताकार क्रम से निरंतर एक ही मंत्र के उच्चारण से शब्द- तरंगें वृत्ताकार घूमने लगती हैं।इसके फलस्वरूप उत्पन्न हुए परिणामों को मंत्र का चमत्कार कहा जा सकता है।हमारे मुख से निकला प्रत्येक शब्द आकाश के सूक्ष्म परमाणुओं में कंपन उत्पन्न करता है और इस कंपन से लोगों में अदृश्य प्रेरणाएँ जाग्रत होती हैं ।
     
 किन्हीं शब्द विशेषों को बोल देना ही मात्र 'मंत्र' नहीं है उसमें वाक्शक्ति, चिन्तन तथा प्राण एवं भावशक्ति का समावेश भी अनिवार्य है।
  
  वस्तुतः मंत्र विज्ञान में इन्फ्रासोनिक स्तर की सूक्ष्म ध्वनियाँ काम करती हैं।मंत्र जप से एक प्रकार की विद्युत चुम्बकीय (इलेक्ट्रो मैग्नेटिक) तरंगें उत्पन्न हो जाती हैं, जो समूचे शरीर में फैल कर अनेक गुना विस्तृत हो जाती हैं।इससे प्राणऊर्जा की क्षमता एवं शक्ति में अभिवृद्धि होती है ।
    
हम जो कुछ भी बोलते हैं, उसका प्रभाव व्यक्तिगत और समष्टिगत रूप से सारे ब्रह्माण्ड पर पड़ता है।जप से उत्पन्न प्रकंपन, शरीर के सूक्ष्म तंत्रों तथा हार्मोन प्रणाली पर अपना गहरा प्रभाव डालते हैं जिससे उनकी सक्रियता बढ़ जाती है और समुचित मात्रा में हार्मोन का स्राव होने लगता है।
   मंत्र का चयन साधक अपनी रुचि और श्रद्धा के अनुसार भी कर सकते हैं या अपने गुरू से भी मंत्र ले सकते हैं ।

प्रणव (ओंकार) का जाप अत्यन्त प्रभावशाली यौगिक अभ्यास है।ओंकार परमात्मा का नाम, मंत्रों का अधिपति है।गायत्री मंत्र व महामृत्युंजय मंत्र भी प्रभावशाली हैं।

मंत्र जप तो बहुत लोग करते हैं लेकिन उसका लाभ व उसमें आनन्द उन्हीं को मिलता है जो मंत्र को अपने अन्दर आत्मसात् कर लेते हैं।
  "तेरे नाम का जाप करूँ भगवन 
  प्रभु ध्यान में मेरे बस जाओ"

मंत्र जप एक विज्ञान इस लेख को पढ़ने वालों को सादर धन्यवाद 

Friday, November 8, 2019

ध्यान योग के द्वारा मन की शक्ति में वृद्धि

ध्यान योग-
ध्यान के समान कोई तीर्थ नहीं है।
ध्यान के समान कोई तप नहीं है।
ध्यान के समान कोई यज्ञ नहीं है।
सामान्य रूप से संसार एक भीड़ भरा स्थान है और आध्यात्म एकात्म और एकांत की अंतर्यात्रा है।ध्यान साधना का नियमित अभ्यास जीवनी शक्ति को बढ़ाता है और रोग प्रतिरोधक क्षमता में वृद्धि करता है।यह ध्यान ही परिचय कराता है हमारा अपने आप से।यह शून्य गहनता ही हमारा अपना स्वरूप है।
 
  ध्यान योग का उद्देश्य मस्तिष्कीय बिखराव को रोककर उसे एक चिन्तन बिन्दु पर केन्द्रित कल सकने में प्रवीणता प्राप्त करना है।
गुरु गोरखनाथ---
"हँसिबा खेलिबा धरिबा ध्यान" अर्थात ध्यान में कोई मेहनत नहीं करनी पड़ती ।
   मन को केन्द्रित करना ध्यान है।ध्यान विश्राम की अवस्था है।
ध्यान का अर्थ निर्विचार होना है।ध्यान करने से हमारी समस्याओं को हल करने की क्षमता बढ़ती है, विचारों में स्पष्टता आती है।
      
शुरुआत में ध्यान का अभ्यास करना पड़ता है, बाद में तो स्वतः ही होने लगता है।खाली समय में कभी भी 'ओउम्' जाप करते हुए आज्ञा चक्र में ध्यान लगाएँ तो परम शान्ति का अनुभव होता है।जब भी खाली समय मिले तभी शान्त भाव से अपनी श्वास को सुनने का अभ्यास करें।ऐसा करने से ध्यान जल्दी सधने लगता है।
        प्रभु नाम की मीठी- मीठी धुन
        इस मधुर प्रीति के राग को सुन ।
        मन की वीणा के तारों में 
        अंतर्मन की झंकार को सुन ।।
   महर्षि पतंजलि ने योग - साधनाओं में ध्यान को विशुद्ध रूप से एकाग्रता की प्राप्ति का मुख्य आधार माना है।ध्यान में विचारों को रोकने का प्रयास न करें ।निरंतर अभ्यास करने से विचारों की संख्या कम हो जाएगी, उनकी गुणवत्ता बढ़ जाएगी।
     
ध्यान योग के कल्पवृक्ष की छाया में सच्चे मन से बैठने वाला व्यक्ति आत्म- बोध का लाभ ले सकता है, नर- नारायण के समकक्ष बन सकता है।मन में कुछ ऐसी चमत्कारिक सामर्थ्य है, जो शरीर से कई गुना ज्यादा है।ध्यान हमारी इसी सामर्थ्य को बढ़ाता है।
    
मस्तिष्क में एक अद्भुत संसार छिपा है, जिसे यन्त्रों से नहीं ध्यान साधना से ही देखा जा सकता है।ध्यान सिद्धि के माध्यम से हमारी अंतर्दृष्टि प्रकाशित हो जाती है।
     "नित ध्यान करें , प्राणायाम करें जीवन अपना चमकाएँ "
     ध्यान के इस लेख पर ध्यान देने वालों को सादर धन्यवाद ।

Thursday, November 7, 2019

"यज्ञ" एक महान वैज्ञानिक प्रयोग प्रक्रिया, सर्वव्यापी परम अक्षर परमात्मा सदा ही यज्ञ में प्रतिष्ठित, यज्ञ स्वास्थ्य एवं वातावरण के लिए लाभदायक, यज्ञ जीवन की विधा


      ●●● यज्ञ एक महान वैज्ञानिक प्रयोग,प्रक्रिया ●●●
आज जब हम प्रदूषण की भीषण त्रासदी से गुज़र रहे हैं ऐसे में हमें यज्ञों की वैज्ञानिकता समझने की जरूरत है,कि किस प्रकार यज्ञ हमारे वायुमंडल को शुद्ध रखते हैं।हमारे ऋषि-मुनियों ने दीर्घकाल तक यज्ञ विज्ञान पर व्यापक, सूक्ष्म एवं गहन अन्वेषण किया।
   
यज्ञ एक महान वैज्ञानिक प्रयोग प्रक्रिया है, यज्ञ प्रक्रिया में यज्ञ कुंड का बड़ा महत्व है, क्योंकि यह अपने आकार- प्रकार के आधार पर यज्ञ से उत्पन्न ऊर्जा को अंतरिक्ष में प्रक्षेपित करता है।यज्ञ प्रयोग में भौतिक एवं आध्यात्मिक दोनों शक्तियों का सामंजस्य पूर्ण, संतुलित एवं सर्वोत्कृष्ट उपयोग होता है।यज्ञ में समिधाओं का चुनाव एवं हवन सामग्री का निर्धारण ऋतुओं, रोगों एवं देवताओं के निमित्त होता है।
   
मंत्रों के साथ हवन- सामग्री की आहुति देने से इनकी सूक्ष्म संरचना बदल जाती है।हवन- सामग्री को जलाने से जो रासायनिक पदार्थ निकलते हैं, वे हैं--एल्केलाइड, अमाइन्स, पिलोनिमिक, साइक्लिक, टारमेनिक आदि।ये वातावरण को परिष्कृत करने में महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह करते हैं ।
  
●● यज्ञ स्वास्थ्य एवं वातावरण दोनों के लिए लाभदायक ●

यज्ञ में मंत्रों का चुनाव एक विशिष्ट प्रक्रिया है।यज्ञ में अग्नि प्रज्ज्वलित करने के लिए गाय का घी प्रयोग किया जाता है जो अग्नि के ताप को नियंत्रित एवं मर्यादित कर देता है।घृत वाष्पीकृत होकर हवन सामग्रियों के सूक्ष्म कणों को चारों ओर से घेर लेता है और इसमें विद्युत शक्ति का ऋणात्मक प्रभाव उत्पन्न करता है जो कि स्वास्थ्य एवं वातावरण दोनों के लिए लाभदायक होता है।
    
हवन में मंत्रों का प्रभाव तब और बढ़ जाता है, जब विशिष्ट तिथियों एवं मुहूर्तों में किया जाता है, जैसे गायत्री यज्ञ का प्रभाव रविवार और बृहस्पतिवार को प्रातःकाल करने पर अधिक होता है।
यज्ञ में तीव्र ध्वनि के साथ अच्छी तरह से प्रज्जवलित अग्नि में सामग्री अर्पण करनी चाहिए ।
  महर्षि याज्ञवल्क्य का आश्रम महाराजा जनक के मिथिला राज्य में स्थित था जिसमें वे यज्ञ अनुसंधान कार्य करते रहते थे।निःसंदेह ही यज्ञ की वैज्ञानिकता अद्भुत एवं आश्चर्यजनक है।

●●सर्वव्यापी परमअक्षर परमात्मा सदा ही यज्ञ में प्रतिष्ठित●●

सर्वव्यापी परम अक्षर परमात्मा सदा ही  यज्ञ में प्रतिष्ठित हैं ।अतः यज्ञ में हम जो आहुति देते हैं, वो हम व्यक्ति के लिए नहीं देते, बल्कि समष्टि के लिए देते हैं ।यज्ञ की प्रक्रिया में हम समस्त लोकों के साथ , समस्त चराचर के साथ एक हो जाते हैं ।

श्रीमद्भगवद्गीतामें भगवान कहते हैं कि सभी यज्ञों का भोक्ता मैं हूँ---- तो वो यज्ञ की आहुति भगवान तक पहुँचाता कौन है ? कहते हैं कि देवों का मुख अग्नि है और अग्नि के स्वामी, समस्त लोकों के स्वामी यज्ञपुरुष भगवान नारायण हैं ।जब हम यज्ञपुरुष को आहुतियाँ देते हैं तो यज्ञपुरुष परमेश्वर, वो हमारी आहुति, वो हमारी चुटकीभर हवन सामग्री, वो हमारी स्वाहा समस्त लोकों तक पहुँचा देते हैं ।एक साथ , सुगंध के रूप में, सत्कर्म के रूप में, सद्भाव के रूप में, समस्त लोकों में वो भाव फैल जाता है।

           ●●● 'यज्ञ' जीवन की विधा ●●●

भगवान कहते हैं कि जो अपना हिस्सा दूसरों को देता है , वह भी यज्ञ करता है ।जो इदं न मम का उद्घोष करता है , वो यज्ञ करता है कि यह मेरे लिए नहीं है ।यज्ञ केवल यज्ञकुंड में हवन करने की प्रक्रिया नहीं है, बल्कि यह जीवन की विधा है, जीवन का विधान है ।यज्ञ जीवन सबके लिए जीने का नाम है, यज्ञ सबके लिए प्रेम गीत गाने का नाम है।हमारी संस्कृति ने हमको दधीचि दिए , उन्होंने कहा कि अगर बात देवशक्तिओं के, शुभ शक्तियों के हित की है, अगर बात लोकहित की है , तो हम अपनी अस्थियाँ भी दान करते हैं ।

जब यज्ञ चलता है और उसमें वेदमंत्रों का गायन हो रहा होता है , जब सामगीत गाए जाते हैं, जब वेदमंत्रों की ध्वनि गूँजती है, तो यह वेदमंत्रों की ध्वनि क्या है ? ये प्रेमगीत हैं जो सबके लिए गाए जा रहे हैं, किसी व्यक्ति के लिए नहीं ये समष्टि के लिए होते हैं, ये यज्ञपुरुष के लिए होते हैं ।यज्ञ के रूप में हमारी संस्कृति ने हमको अमूल्य धरोहर दी है। ऐसे आदर्श जीवन की कल्पना, ऐसे उन्नत जीवन की कल्पना हमारी संस्कृति ने की ।यज्ञ मनुष्य जीवन की सामाजिक श्रेष्ठता का प्रतीक है।
    वस्तुतः यज्ञ एक पूर्णाहुति कर्म भी है अर्थात साधक का अनुष्ठान तभी पूर्ण एवं सफल होता है, जब विधि- विधान पूर्वक यज्ञ किया जाता है।
आज प्रदूषण के समय में हमारे देश को पर्यावरण की रक्षा के लिए अपने ऋषि- मुनियों के बताए मार्ग पर चलना पड़ेगा ।
सादर धन्यवाद 

Tuesday, November 5, 2019

'तुलसी' एक सर्वश्रेष्ठ औषधि ( White Bezil) तुलसी के विभिन्न नाम , तुलसी विवाह

            ●●●तुलसी एक सर्वश्रेष्ठ औषधि●●●


अमृतेऽमृतरूपासि अमृत तत्व प्रदायिनि ।
        त्वंमामुद्धर संसारात्  क्षीरसागर कन्यके।।
अर्थात हे विष्णुप्रिये (तुलसी) तुम अमृत स्वरूप हो,अमृतत्व प्रदान करती हो, मेरा उद्धार करो।

जब से संसार में संस्कृति का उदय हुआ, तभी से तुलसी को रोग- निवारक औषधि के रूप में मान्यता प्राप्त है।तुलसी भारत की सबसे पवित्र जड़ी- बूटी मानी जाती है।भारतीय संस्कृति में आदिकाल से घर में तुलसी का पौधा लगाने की परम्परा रही है।
  
          तुलसी शब्द का अर्थ है--- अतुलनीय पौधा।तुलसी भारत की सबसे पवित्र जड़ी-बूटी मानी जाती है।यह एक ऐसा पौधा है, जिसके जड़, तना , पत्ते , बीज, मंजरी सभी का औषधि में उपयोग होता है।तुलसी का पौधा गुणों की खान है, पूजनीय है।इसलिए हर घर में  भोजन को प्रसाद बनाने , भगवान को भोग लगाने में तुलसी की पत्तियाँ प्रयोग में लाई जाती हैं ।
  
तुलसी के पौधे केवल हमारे देश में ही होते हैं।यह एक ऐसी वनस्पति है जो भारतीय जन- जीवन के साथ एक रूप हो गई है।
तुलसी का पौधा हानिकारक कीटाणुओं को नष्ट करने की क्षमता रखता है।इसकी पत्तियों के रस को ग्रहण करने से शरीर की रोग प्रतिरोधक क्षमता भी बढ़ जाती है।

तुलसी के दस- बारह पत्तों का नित्य सेवन किया जाए, तो इससे रक्त शुद्ध होता है साथ ही कई बीमारियों में भी लाभ मिलता है।
सदा तुलसी की कंठी धारण करने वाले को संक्रमित रोगों का खतरा कम हो जाता है ।
  
ग्रहण के समय वातावरण में जो विषाक्तता फैलती है तो तुलसी के प्रभाव से विषाक्तता फैलाने वाले कीटाणु समाप्त हो जाते हैं इसलिए ग्रहण के समय तुलसी के पत्तों को खाद्य सामग्री में डाला जाता है।तुलसी का पौधा दूर तक अपनी सुगंध फैलाता है और कृमियों को नष्ट करता है ।अपनी इस उपकार प्रियता के कारण ही तुलसी एक वंदनीय पौधा है।

          वर्तमान समय में ग्रीस में एक विशेष दिन तुलसी का उत्सव मनाया जाता है, जिसे "सैन्ट बैसिल डे" कहते हैं ।इस दिन वहाँ की महिलाएँ , तुलसी की शाखाएँ लाकर अपने घर के दरवाजों पर टाँगती हैं, उनका ऐसा विश्वास है कि ऐसा करने से उनकी परेशानियाँ दूर होंगी ।

   तुलसी के सन्दर्भ में लोगों द्वारा अपनाई जाने वाली ये मान्यताएँ अंधविश्वास पर आधारित नहीं हैं ; क्योंकि अब प्रयोगशालाओं में भी यह सिद्ध हो गया है कि तुलसी का सान्निध्य सात्विकता और पुण्य भाव के साथ आरोग्य की शक्ति को भी बढ़ाता है ।इससे आत्मिक गुण बढ़ते हैं ।विभिन्न अध्ययनों से यह पता चलता है कि तुलसी की पत्तियाँ तनाव के खिलाफ महत्वपूर्ण सुरक्षा प्रदान करतीं हैं ।

           ●●● तुलसी के विभिन्न नाम ●●●

            तुलसी के गुणों के आधार पर विभिन्न  नाम हैं ।तुलसी के पत्तों में भूख बढ़ाने वाला तत्व होता है , इसलिए इसका एक नाम सुरसा भी है।दूषित वायु , रोग और बीमारी को मार भगाने के कारण इसे भूतघ्नी, अपेतराक्षसी तथा दैत्यध्वनि भी कहते हैं ।तुलसी का सेवन रोगों में चमत्कारिक रूप से लाभ पहुँचाता है इसलिए इसे पापघ्नी भी कहते हैं ।इसकी चिकित्सा अत्यन्त सरल व जल्दी से प्रभाव डालने वाली है , इसलिए इसे सरला नाम से भी जाना जाता है। तुलसी का पौधा जगत के पालक भगवान विष्णु को अत्यन्त प्रिय है , इसलिए इसे हरिप्रिया भी कहते हैं ।तुलसी को वृन्दा भी कहते हैं ।

                           शास्त्रानुसार -- तुलसी के विभिन्न प्रकार के पौधे मिलते हैं ।इनमें श्री कृष्ण तुलसी , तुलसी , लक्ष्मी तुलसी, राम तुलसी,भू तुलसी, नील तुलसी,श्वेत तुलसी, रक्त तुलसी, वन तुलसी, ज्ञान तुलसी, नींबू तुलसी मुख्य हैं ।लेकिन इनमें भी पाँच प्रकार की तुलसी प्रायः देखने मिलती हैं--- श्याम तुलसी , राम तुलसी, श्वेत/विष्णु तुलसी, वन तुलसी, नींबू तुलसी ।इन सभी तुलसियों के अलग-अलग गुण होते हैं ।

               ●●● तुलसी विवाह ●●●

तुलसी विवाह का सीधा अर्थ है--- तुलसी के माध्यम से भगवान का आह्वान । भारत में कार्तिक शुक्ल एकादशी के दिन तुलसी पूजन का उत्सव मनाया जाता है ।तुलसी के सम्बंध में कई तरह की अंतर्कथाएँ प्रचलित हैं ।इन्हीं में से एक कथा के अनुसार-- तुलसी भगवान विष्णु की पत्नी भी हैं ।कन्या की तरह हर घर में तुलसी को पवित्र दायित्व की तरह पाला-पोषा जाए और फिर उसके गुणों को औरों ( प्रतीक स्वरूप भगवान विष्णु ) को सौंप दिया जाए , यही इस कथा का मुख्य संदेश है।

विष्णु पुराण के अनुसार, कार्तिक शुक्ल एकादशी ( देवोत्थानी ) 
के दिन भगवान विष्णु के साथ तुलसी का विवाह किया जाता है ।इस दिन गोधूलि बेला में भगवान शालग्राम , तुलसी व शंख के पूजन का विधान है ।देवोत्थानी एकादशी के दिन मनाया जाने वाला तुलसी विवाह विशुद्ध रूप से मांगलिक व आध्यात्मिक प्रसंग है।

                  ऋषि-मुनियों ने वातावरण को स्वच्छ करने के लिए आरंभ से ही घरों में तुलसी का पौधा लगाने व इसकी पूजा करने के निर्देश दिए हैं ।यह पौधा हमारे लिए हर दृष्टि से लाभकारी व पूजनीय है ।
  हे कृष्ण प्रिया प्यारी तुलसी
  हम करते हैं तुमको वन्दन
  अमृत का हो भंडार तुम्हीं 
  हम करते हैं तुमको वन्दन

स्वास्थ्य प्रद लेख पढ़ने के लिए सादर धन्यवाद ।