चैत्र शुक्ल पूर्णिमा का पवित्र पल आ पहुँचा --
(... प्रादुरासीत्तदा तां वै भाषमाणो महामतिः । मेघसंक्रमणं भानौ सम्प्राप्ते मुनिसत्तमाः।पूर्णिमाख्ये तिथौ पुण्ये चित्रानक्षत्रसंयुते ।।---
स्कंदपुराण, वैष्णव खंड 39/ 42-43 ;
महाचैत्रीपूर्णिमायां समुत्पन्नोऽञ्जनीसुतः -- आनंद रामायण, सारकांड 13/ 163 , ----- देवी अंजनी के हृदय में विगत कई दिनों से हर्ष हुलस रहा था ।उनके शरीर की कांति में आश्चर्यजनक वृद्धि हो रही थी ।उन्हें अनुभव होने लगा था कि उनकी निरंतर की गई तप-साधना, अब तक की सभी आध्यात्मिक अनुभूतियाँ, ऋषियों एवं देवों के द्वारा मिले वरदान अब साकार रूप लेने ही वाले हैं ।
●अंजनी के शिशु के स्वागतार्थ प्रकृति द्वारा स्वागत आयोजन●
अंजनी के अंतःकरण की ही भाँति बाह्य प्रकृति में अनेक अनोखे सुखद परिवर्तन हो रहे थे ।उद्यानों एवं बगीचों में विविध रंगों के सुमनोहर पुष्प अपनी सुगन्ध बिखेर रहे थे ।पर्वतमालाओं की शोभा भी अपूर्व हो उठी थी ।नदी, तालाब एवं झरनों के जल की निर्मलता बढ़ गई थी ।अरण्य में रहकर तप करने वाले तपस्वी भी प्रकृति की सुन्दरता देखकर चकित थे।ऐसा लगता था कि अंजनी के शिशु का स्वागत करने के लिए प्रकृति ने अपनी सारी सुरम्यता का कोश लुटा दिया था।
हनुमान का स्वागत करने के लिए भूगत संपदा अनायास ही उभरकर ऊपर आ गई थी ।वृक्षों और लताओं ने सब ओर कोमल कोंपल एवं किसलयों के बंदनवार सजा रखे थे ।प्रकृति के अद्भुत सौन्दर्य को देखकर जहाँ सामान्य जन हर्षित हो रहे थे , वहीं महर्षियों के बीच यह उत्सुकतापूर्ण चर्चा थी कि प्रकृति ने यह स्वागत आयोजन किसके लिए किया है ?
●हनुमान के जन्म के समय महर्षि मतंग की भावविह्वलता ●
प्रकृति के अद्भुत परिवर्तनों को देखकर महर्षि जन के मन में उत्सुकता भरी जिज्ञासा जागी , इस जिज्ञासा के समाधान के लिए वे महर्षि मतंग के आश्रम में गए ।महर्षि मतंग उस समय ध्यान में तल्लीन थे ।उनके मुखमंडल पर दैवी दीप्ति की सघनता थी ।इसका प्रभाव सम्पूर्ण कक्ष में अनुभव हो रहा था ।
ऋषियों के आगमन की सूचना लेकर जब आश्रम का एक अंतेवासी महर्षि मतंग के कक्ष में पहुँचा तो उसकी आँखें महर्षि के मुख की दीप्ति को देखतीं ही रह गईं । वह कुछ देर तक यूँ ही खड़ा रहा ।फिर वह उस कक्ष से बाहर जाने के लिए मुड़ा ; क्योंकि वह गुरुदेव की साधना में व्यवधान पैदा नहीं करना चाहता था।
वह बाहर जाने के लिए मुड़ा ही था कि महर्षि मतंग के मुख से निकले अस्फुट से स्वर उसके कानों में पड़े-- " शिव ! शिव !! शिव !!! जय हो भोलेनाथ ! जय करुणानिधान !!" इन दिव्य स्वरों को सुनकर वह रुक गया ।उसे शायद इस बात का अनुभव हो गया था कि तपस्वियों में श्रेष्ठ मतंग मुनि की ध्यान साधना विलीन हो चुकी है ।वह पीछे मुड़कर कुछ कह पाता , इससे पहले महर्षि के मुख से उच्चारित हो रही एक गीत की कुछ पंक्तियाँ उसके कानों में पड़ीं ।महर्षि भावविह्वल होकर अपने आप में ही मग्न होकर गा रहे थे ---
पूर्ण हैं नौ मास, मंगल ग्रह सभी एकत्र हैं ।
मांगलिक लक्षण , सुशोभित दीखते सर्वत्र हैं ।
प्रसव पीड़ा के बिना , अद्भुत गुणों के लाल को ।
अंजना जन्मा रही है , राक्षसों के काल को ।।
महर्षि के इन शब्दों में भक्ति थी, विह्वलता थी, अनुराग था, प्रेम था ।ऐसा लग रहा था जैसे उनका सम्पूर्ण हृदय गीत की इन पंक्तियों में उमड़ आया था ।महर्षि मतंग इस दिन बहुत प्रसन्न थे ।वैसे भी वे अंजनी को अपनी सगी बेटी की ही भाँति मानते थे और भोले नाथ तो उनके इष्ट-आराध्य थे ही।
अपने भावों में खोए हुए महर्षि ने जब देखा कि उनका प्रिय शिष्य सुव्रत उनके कक्ष में संकुचित सा खड़ा है तब महर्षि ने कहा -- " अरे सुव्रत ! आज संकोच की नहीं, बल्कि प्रसन्नता की घड़ी है ।हम सब अभी तुरंत वानर यूथपति केसरी के भवन चलेंगे।"
इधर जब महर्षि मतंग अपने शिष्यों व तपस्वियों के संग अपने कक्ष से निकलने को हुए, उधर महावीर केसरी के भवन में अंजनी ने अपने शिशु को जन्म दिया ।यह शिशु इतना तेजोमय था , लगता था जैसे कि माता अंजनी ने अपने गर्भ से स्वयं बालसूर्य को प्रकट किया हो।अपरिमित तेज, अनोखी दीप्ति और देह से निकलती सुरभित सुरभि।
इस आश्चर्य के साथ एक आश्चर्य यह भी था कि नवजात अंजनीपुत्र के रोम-रोम से रामधुन निस्सृत हो रही थी ।यह राम नाम का अनाहत संगीत था, जो अंजनी तनय के अंतःकरण के साथ रोम-रोम से भी झर रहा था ।यह अनोखापन केवल माता अंजनी ने ही पहचाना ।अंजनी समझ गई कि भगवान सदाशिव का वरदान आज अपनी संपूर्णता के साथ सच और साकार हुआ है ।अंजनी ने अनुभव किया कि जिस रामभक्त शिशु को उन्होंने जन्म दिया , उस शिशु ने अपनी श्री रामभक्ति की साधना का प्रारंभ जीवन की पहली श्वास के साथ ही कर दिया ।
अपने तेजोमय शिशु को पाकर अंजनी पुलकित थी और वानरराज केसरी आह्लादित ।इस धर्मप्राण दंपति को अपना मनोवांछित मिल गया था ।दोनों ही बहुत खुश थे ।सेविकाएँ प्रसूतिगृह में बालक की परिचर्या में लगीं थीं ।सेविकाओं को हर्ष के साथ यह आश्चर्य भी था कि बालक का जन्म होते समय अंजनी को बिल्कुल भी पीड़ा नहीं हुई ।प्रसव होने के तुरन्त बाद भी वे सम्पूर्ण स्वस्थ हैं ।
अंजनी पुत्र के जन्म के बाद आश्चर्यचकित होकर एक सेविका कहने लगी -- " ये अंजनीनन्दन अनोखे मातृभक्त हैं, तभी तो इन्होंने अपनी माँ को प्रसवकाल की भी पीड़ा नहीं अनुभव होने दी ।" तभी किसी सेवक ने आकर समाचार दिया कि महर्षि मतंग अंतेवासियों व आश्रम के शिष्यों के साथ पधारे हैं ।
●● वानरराज केसरी द्वारा ऋषिमंडली का स्वागत ●●
जब वानरराज केसरी ने महर्षि , तपस्वियों व शिष्यों के आगमन का समाचार सुना तो वे द्वार की ओर दौड़े ।महर्षि मतंग उनके लिए आराध्य देव की भाँति थे ।इधर मुनिश्रेष्ठ मतंग द्वार पर खड़े ऋषियों से कह रहे थे --- " हे महर्षिगण ! तुम सबकी समस्त जिज्ञासाओं का समाधान वानरराज केसरी के इस भवन में है ।अंजनी के नवजात शिशु के स्वागत के लिए ही प्रकृति ने खुद को सजाया है ।" महर्षि की इस वाणी को न मानने का कोई प्रश्न ही नहीं था , वे जानते थे कि महर्षि मतंग के मुख से मिथ्या वचन उच्चरित हो ही नहीं सकता ।हाँ, उन्हें यह जिज्ञासा अवश्य हो रही थी कि अंजनी का पुत्र आखिर कौन है ?
यह जिज्ञासा सघन हो पाती , इसके पहले केसरी द्वार पर आ पहुँचे ।उन्होंने आदर के साथ ऋषिगण का यथोचित सत्कार किया ।उनके स्वागत को स्वीकारते हुए महर्षि मतंग ने कहा-- " वानरराज ! हम सब तुम्हारे शिशु के दर्शन के लिए आए हैं ।"
तब केसरी ने थोड़ा हिचकिताते हुए कहा -- " मुनिवर! अंजनी ने अभी प्रसूति स्नान नहीं किया है ।"
केसरी के इस कथन को सुनकर महर्षि थोड़ा हँसे और बोले --- " जिनका नाम त्रिभुवन को पावन करता है, वे जब स्वयं तुम्हारे घर में बालरूप में पधारे हैं तो भला प्रसूति की अपवित्रता कैसी ! फिर भी हम तुम्हारे संकोच को समझते हुए दूर से ही माता और पुत्र को देख लेंगे ।
सचमुच हनुमान जी के जन्म का प्रसंग सभी को हर्षित करने वाला है।
"हे ज्ञानिकों में श्रेष्ठ हनुमत ज्ञान हमको दीजिए
हे अंजनी के पुत्र प्रिय विनती मेरी सुन लीजिए "
सादर अभिवादन व धन्यवाद ।
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