शहीद होने का अर्थ है -- 'स्व' का 'पर' के लिए समग्र समर्पण ।जो स्वार्थ को परमार्थ में उत्सर्ग कर दे, वही शहीद कहलाता है ।इसका तात्पर्य यह है कि लोभ और मोह के बंधनों को काटकर फेंक देना , जड़-मूल से नष्ट कर देना ।अपने सीमित दायरे को तोड़कर आगे चले जाना , शरीर के मोह को एवं परिवार के मोह को उखाड़ कर फेंक देना ।
हमारे देश की रक्षा में स्वयं को समर्पण करने वाले वीर सच्चे अर्थों में शहीद का दर्जा दिया जाता है ; क्योंकि वे अपने उद्देश्य एवं लक्ष्य के प्रति अडिग एवं अविचलित होकर खड़े रहते हैं ।वे अपने आस-पास की परिस्थितियों से सर्वथा अप्रभावित रहते हैं ।जहाँ औरों के लिए अपना सर्वस्व उत्सर्ग करने की भावदशा होती है , वहाँ व्यवहार भी वैसा ही होगा ।उनका दृष्टिकोण दूसरों के प्रभाव-परामर्श से नहीं बनता ।वे अपनी नीति स्वयं निर्धारित करते हैं ।ऐसे महामानवों को ही आत्मबलिदानी , शहीद कहा जा सकता है ।
शहीद स्वार्थपरता का अंत करके परमार्थ को ही अपनी आकांक्षा का केन्द्र बनाकर उसी चिंतन में तन्मय रहता है ।शहीद स्तर के व्यक्ति लोक-प्रवाह से विरत एवं अलग-थलग पड़ जाते हैं ; क्योंकि इनका जीवन सामान्य लौकिक जीवन के समान नहीं होता ।वे सर्वथा अपने कर्तव्यों के प्रति सजग रहते हैं ।वे किसी वस्तु की इच्छा नहीं करते , और न ही मोहग्रस्त होते हैं ।हर एक को यह कार्य इतना सरल नहीं होता ।
शहीदों का मापदंड एवं मूल्यांकन किया जाता है--- जब किसी महान प्रयोजन के लिए वे अपना सर्वोच्च बलिदान कर देते हैं ।जिन्होंने परमार्थ के लिए प्राण त्यागे , जीवन दाँव पर लगाया , उनके चरणों में श्रद्धा अर्पित करनी ही चाहिए ।उनकी जीवनगाथा का गायन आदर्शों के प्रति, आदर्शवादियों के प्रति नतमस्तक होने का अवसर प्रदान करता है ।
इस क्रम में चंद्रशेखर आजाद, भगतसिंह, रामप्रसाद विस्मिल , राजगुरु आदि का जितना गुणगान किया जाए , जितना सम्मान दिया जाए -- उतना ही कम है ।उनका जीवन राष्ट्र की स्वतंत्रता के लिए समर्पित होकर सदा औरों के लिए प्रेरणा का कार्य करता है।इन सभी के साथ ही जो अपनी स्वार्थ के दायरे को छोड़कर औरों की सेवा एवं पीड़ित मानवता के लिए अपना सब कुछ लुटा देता है , परमार्थ कार्य में सदा निरत रहता है, तथा उसी चिंतन में डूबा रहता है , वस्तुतः वह भी एक शहीद है ; क्योंकि वह परमार्थ के लिए स्वयं के सुख को त्याग देता है ।
●● ऋषि एवं सैनिक दोनों का ही 'पर' के प्रति समर्पण ●●
ऋषि एवं सैनिक दोनों ही सदा प्रकाशस्तंभ की तरह ज्योतिर्मय रहते हैं ।दोनों ही 'स्व' का 'पर' के लिए समर्पण करते हैं, अनंत अंतरिक्ष में ध्रुव तारे के समान जगमगाते रहते हैं और अपने कर्तव्य की गरिमा से असंख्यों को प्रभावित करते हैं । उनका चिंतन व चरित्र इतना उत्कृष्ट हो जाता है ; क्योंकि उनके जैसी समर्पण की साधना करना सबके वश की बात नहीं ।
समर्पण एक ऐसा शब्द है -- जो सुनने,पढ़ने एवं बोलने में तो आसान प्रतीत होता है, परन्तु समर्पण एक गहन साधना है , समर्पण एक उत्कृष्ट भाव है , जिसमें लोभ, मोह, अहंकार इन सभी का विसर्जन करना होता है और आदर्शों के लिए चिंतन व चरित्र को पूरी तरह नियोजित करना होता है।लोभ को त्यागना आसान नहीं है, और लोभ छूट भी जाए तो मोहपाश अपने बंधन में बाँध लेता है ।
मोह टूटता है बड़ी कठिनाई से ।अगर यह भी टूट जाता है तो अहंता जागने लगती है । अपने कर्म में कर्तापन आ जाता है ।यह आ ही जाता है कि इसे मैंने किया है , मैं कुछ तो हूँ ।इस 'मैं' में ही तो अहंकार बसता है , पनपता है और जब इस अहंकार का विसर्जन होता है, जब यह अहंकार विलीन होता है , तब समर्पण की साधना आरंभ होती है ।इसके पश्चात ही अपने चिंतन एवं चरित्र को श्रेष्ठ बनाया जा सकता है ।अपने को इस साँचे में ढाल लेने वाले व्यक्ति ही आध्यात्मिक शब्दावली में ऋषि कहे जाते हैं ।शहादत का यह आध्यात्मिक रूपांतरण है।
शहीद--- जीवन के हर मोड़ पर क्रांति का एक नया अध्याय लिखते हैं और अनेक को साहस भरे पथ पर चलने की प्रेरणा देते हैं ।
मातृभूमि की रक्षा करने वीर सिपाही जाते हैं ।
रक्षा करते हम सब की पर अपने प्राण गँवाते हैं ।।
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