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Saturday, October 10, 2020

"सांसारिक माया", महापुरुष स्तर की जीवात्माएँ माया में लिप्त नहीं होतीं, श्रेष्ठ विचार व सादा जीवन माया से मुक्त करने में सहायक

                 ●●● सांसारिक माया ●●●
    जिस संसार में हम रहते हैं, उसे समझना आसान नहीं है ।यह     रहस्यमय है ।संसार एक तरह की माया है, जो निरंतर परिवर्तन शील है ।जो स्थाई नहीं, टिकाऊ नहीं, जिसका अस्तित्व पानी के बुलबुले की तरह है, उसे पाना भी आसान नहीं है, जैसे -- 
पानी का बुलबुला देखने में तो अच्छा लगता है, लेकिन जब उसे पकड़ने के लिए हाथ बढ़ाया जाए तो वह पानी में ही विलीन हो जाता है ।

रूप, सौन्दर्य, पद, प्रतिष्ठा, सम्मान, यश --- इन सभी में सम्मोहन है, आकर्षण है , लेकिन ये सब सांसारिक माया के रूप हैं, जो कदम-कदम पर व्यक्ति को भ्रमित करते हैं, उसकी परीक्षा लेते हैं और उसके मार्ग को अवरुद्ध कर देते हैं ।जो व्यक्ति माया के इन रूपों के पीछे भागते हैं, माया उसकी पकड़ में नहीं आती, लेकिन जो इनसे अपना पीछा छुड़ाना चाहता है , माया उसके पीछे-पीछे दौड़ती है, भागती है ।शायद इसीलिए संत कबीर ने माया के बारे में कहा है --- " माया महाठगिनी हम जानी ।" 

राजकुमार सिद्धार्थ ने जब इस संसार की सांसारिकता को समझा तो वे बुद्ध हो गए और संसार की असारता का उपदेश लोगों को दिया । जिस रूप सौन्दर्य, स्वास्थ्य, सम्मान, सुख, ऐश्वर्य को प्राप्त करने के लिए लोगों न जाने कितने प्रयास करते हैं, वे सभी प्रयास व्यर्थ ही हैं , इनका कोई स्थाई अस्तित्व नहीं है, जो व्यक्ति को स्थाई तौर पर सुखी कर सके ।

                          इस संसार में रहकर व्यक्ति जीवन के अनेक अनुभवों को इकठ्ठा करता है, बहुत कुछ सीखता है और यदि नहीं सीखना चाहता है तो यह संसार उसको सिखा देता है ।संसार एक तरफ लोभ दिखाता है तो दूसरी तरफ भय भी दिखाता है ।लोभ है ---- आकर्षण का, सब कुछ प्राप्त कर लेने का दूसरा नाम। भय है --- सब कुछ छिन जाने, सब समाप्त हो जाने का दूसरा नाम ।इस प्रकार लोभ व भय के सांसारिक जंजाल से निकलना आसान नहीं होता ।

इस सांसारिक माया के तीन गुण व रूप हैं-- सत्व , तम और रज ।तीनों ही गुण व्यक्ति को बाँधे रखते हैं ।व्यक्ति को अपने कल्याण के लिए, परमेश्वर तक पहुँचने के लिए इन तीनों गुणों को ही पार करना होता है ।परमेश्वर त्रिगुणातीत है ।

  ● महापुरुष स्तर की जीवात्माएँ माया में लिप्त नहीं होतीं ●

महापुरुष स्तर की जीवात्माओं को पता होता है कि इस संसार में कैसे रहना चाहिए, कैसी जीवनशैली होनी चाहिए । वे इस संसार  के लोभ-मोह के आकर्षण में कदापि नहीं फँसतीं , वे तो संसार में रहने वाली जीवात्माओं का उद्धार करने, मार्गदर्शन करने और उन्हें दिशा देने के लिए आतीं हैं ।लेकिन जब घोर सांसारिकता में लिप्त जीवात्माएँ उनके दिव्य स्वरूप का आभास कर लेतीं हैं तो उनसे अपने कल्याण का मार्ग जानने की कोशिश नहीं करतीं अपितु अपनी सांसारिक इच्छाओं को पूरा कराने में लग जातीं हैं ।ऐसा करना महापुरुषों के लिए बहुत कष्टकर होता है।

इसी कारण अधिकतर उच्चस्तरीय जीवात्माएँ गुमनाम ढंग से अपना जीवन व्यतीत करतीं हैं ।संसार में रहकर अपने पूर्व कर्मों का क्षय करतीं हैं, कठोर तप में लीन रहतीं हैं, अपना चित्त परिष्कृत कर भगवान के निर्देशानुसार कार्य करतीं हैं और इसके लिए बड़े से बड़ा त्याग करतीं हैं ।

महापुरुष स्तर की जीवात्माएँ मानवता के हित के लिए, जन्म-जन्मांतरों से संचित किए गए तप की पूँजी का अंश लगाकर सृष्टि के कल्याण में मदद करतीं हैं और इस तरह संसार में अपना सहयोग देतीं हैं ।महान जीवात्माओं की तपस्या, स्वार्थपूर्ति व महत्वाकांक्षाओं की पूर्ति में न लगकर लोक-कल्याण के कार्य में लगतीं हैं तो उन्हें भी परम तृप्ति मिलती है और साथ में भगवान का वरदहस्त व स्नेह आशीष भी मिलता है  ।

ज्ञानी जनों ने कहा है कि इस संसार का सुख मत भोगो , बल्कि इस संसार की सेवा करो , मानवता की सेवा और ईश्वर की भक्ति के द्वारा अपने चित्त को स्वच्छ निर्मल , प्रकाशित व हलका करो ।
ऋषियों ने इस संसार की सेवा करने के लिए कहा है, न कि सेवा लेने के लिए ।सुख-ऐश्वर्य लुटाने व बाँटने के लिए कहा है न कि बटोरने के लिए ।दुःखी व्यक्तिओं की मदद के लिए कहा है न कि व्यक्तिओं को दुःखी करने के लिए ।

● श्रेष्ठ विचार व सादा जीवन माया से मुक्त करने में सहायक ●

              यही कारण है कि महापुरुषों ने कभी भी सुखों का भोग नहीं किया ।सादा जीवन अपनाकर त्यागमय जीवन जिया ।कठिन साधना , तपश्चर्या को अपनी जीवनशैली को अभिन्न अंग बनाया ।महापुरुषों के जीवन को पहचानने की यही विधि व्यवस्था है कि वे उच्च स्थान पर पहुँच कर भी सादगीपूर्ण जीवन को अंगीकार करते हैं ।

यदि हम अपने जीवन को सफल बनाना चाहते हैं,अपने चित्त को स्वच्छ व निर्मल बनाना चाहते हैं तो उच्च विचारों के साथ सादा जीवन शैली अपनाते हुए , परमात्मा का स्मरण करते रहना है ; क्योंकि संसार में कुछ भी स्थाई नहीं है ।भगवान से की गई आर्त पुकार व सच्ची प्रार्थना ही हमारे मन को स्वच्छ व निर्मल करती है और फिर जीवात्मा के कल्याण के लिए आवश्यक साधन स्वतः जुटने लगते हैं ।

परमेश्वर त्रिगुणातीत है ।उस तक पहुँचने के लिए प्रकृति के तीन गुण सत्व, रज और तम को पार करना होता है ।सत्य यही है कि जो संसार को प्रकृति के गुणों का खेल समझकर उससे अनासक्त रहते हुए त्रिगुणातीत हो जाता है, वह स्वयं परमेश्वर हो जाता है और संसार के भवबंधनों से मुक्त हो जाता है ।

सादर अभिवादन व धन्यवाद ।


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