भारतीय चिंतकों एवं विशारदों ने भिन्न-भिन्न समयों पर योग की जो परिभाषाएँ दी हैं, यदि उन्हें समुचित रूप से समझा जाए तो योग स्वतः ही मुक्ति का मार्ग बन जाता है ।योग का शाब्दिक अर्थ है-- मिलन , संयोग , परम चेतना के साथ एकाकार की अवस्था ।
योग शब्द संस्कृत की 'युज्' धातु से उत्पन्न हुआ है , जिसका अर्थ मिलन का संयोग होता है ।इसीलिए महर्षि पतंजलि, योगसूत्र में योग को परिभाषित करने के बाद --- योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः
( योगसूत्र 1/2 )---- अर्थात चित्त की वृत्तियों का निरोध ही योग है।--- ऐसा कहने के बाद बोलते हैं कि-- तदा दृष्टुः स्वरूपेऽवस्थानम् ।( योगसूत्र 1/3 ) अर्थात योग को उपलब्ध हुआ व्यक्ति अपने मूलस्वरूप या परमात्मस्वरूप में प्रतिष्ठित हो जाता है ।
भारतीय चिंतन की , भारतीय संस्कृति की , भारतीय संस्कृति की, भारतीय परम्पराओं की नींव की मजबूती पर कोई शंका नहीं कर सकता ।लाखों ऋषि-मुनियों, चिंतकों, विचारकों, संतों, सुधारकों का ज्ञान, बोध , तपस्या एवं पुण्य-- इस भारतीय चिंतन के वटवृक्ष की जडों को सींचने में लगा है।भारतीय मनीषियों के अनुसंधानों ने यह प्रमाणित किया है कि योग , मानवीय संभावनाओं को उत्कर्ष के शिखर पर पहुँचा सकता है।
ऐसा माना जाता है कि योग के आदिवक्ता या उपदेष्टा आचार्य हिरण्यगर्भ हैं एवं उनसे पुरातन अन्य कोई नहीं है।महाभारत में ऋषि वेदव्यास कहते हैं--- हिरण्यगर्भो योगस्य वक्ता नान्यः पुरातनः। ( महाभारत 2/ 394/ 65 ) यहाँ आचार्य हिरण्यगर्भ कहने का आशय सृष्टिकर्ता ब्रह्मा से लगाया जाता है ।
योग सम्पूर्ण भारतीय चेतना का ऊर्ध्वीकरण , विकास का विज्ञान है ।जिसे महर्षि पतंजलि ने योग कहा , उसे आज हमने सिर्फ कुछ शारीरिक क्रियाओं (आसनों) तक ही सीमित मान लिया है ; जब कि योग एक गहन आध्यात्मिक ज्ञान है।
●●● भारतीय योग परंपराओं की तीन मुख्य धाराएँ ●●●
प्राचीन काल से चली आ रहीं योग परंपराओं को अध्यापन की सुविधा की दृष्टि से विद्वानों ने तीन मुख्य धाराओं में विभक्त किया है।सर्वविदित है कि सृष्टि के आदिकाल में तीन शक्तियाँ उपस्थित थीं, जिनके कार्य सृष्टि ( सृजन ) , स्थिति ( पोषण ) एवं प्रलय ( संहार) कहे जा सकते हैं ।ये तीन शक्तियाँ हैं-- ब्रह्मा, विष्णु एवं महेश ।
●1 राजयोग---- भगवान ब्रह्मा सृष्टि के सृजनकर्ता एवं सृष्टि के आदिपुरुष हैं ।उनसे योग की जो धारा विकसित हुई, वह राजयोग के नाम से जानी जाती है ।इस परंपरा के प्रवर्तक के रूप में महर्षि पतंजलि का आगमन हुआ एवं उनके द्वारा राजयोग की परंपरा की प्रतिष्ठा के लिए जिस ग्रन्थ की रचना की गई, उसे पातंजलि योगसूत्र के नाम से जाना जाता है ।इस योगसूत्र में योग की तीन तरह की विधाओं का वर्णन है--
1 - समाधि योग (अभ्यास एवं वैराग्य)
2 - क्रिया योग ( तप, स्वाध्याय एवं ईश्वरप्रणिधान )
3 - अष्टांग योग ( यम, नियम, आसन,प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि)
●2 वैदिक योग---- योग की द्वितीय धारा भगवान विष्णु से जन्मी है ।भगवान विष्णु सृष्टि के पालनकर्ता हैं ।भगवान विष्णु से निस्सृत हुई योग की धारा वैदिक योग के नाम से जानी जाती है तथा इस धारा को सुव्यवस्थित रूप देने का कार्य भगवान श्री कृष्ण द्वारा किया गया ।वैदिक योग की परंपरा की प्रतिष्ठापना के लिए भगवान श्री कृष्ण के द्वारा उपदिष्ट ग्रंथ श्रीमद्भगवद्गीता है । श्री मद्भगवद्गीता में भी योग के तीन मार्ग बताए गए हैं--
1 ज्ञान योग
2 कर्म योग
3 भक्ति योग
● 3 हठ योग --- योग-परंपरा की तीसरी धारा भगवान शिव के द्वारा निस्सृत हुई है और इसीलिए उन्हें योगीराज के नाम से पुकारा जाता है ।भगवान शिव के पास से निकली योग की धारा हठयोग के नाम से जानी जाती है , जिसके प्रवर्तन का कार्य महायोगी गोरखनाथ द्वारा किया गया ।
हठ योग की परम्परा के उन्नयन के लिए गोरखनाथ जी ने अनेक ग्रन्थों की रचना की, जिनमें गोरक्षशतक, गोरक्षपद्धति एवं गोरक्षसंहिता प्रमुख हैं ।आज योग के अनेक प्रचलित आयाम होने के बाद भी जिन योगधाराओं को लोग जानते हैं, उनमें इन प्रामाणिक ग्रन्थों का उल्लेख बहुत कम ही मिलता है ।
सत्य तो यह है कि यदि योग के किसी एक अर्थ या परिभाषा पर ही ध्यान केन्द्रित कर दिया जाए तो जीवन में उत्कर्ष के मार्ग स्वतः ही खुलने लगते हैं ।
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