ग्लोबल वार्मिंग से धरती के अस्तित्व को भारी खतरा पैदा हो गया है ।ग्लोबल वार्मिंग मानव एवं प्रकृति के लिए भयावह है।ग्लोबल वार्मिंग के कारण वातावरण में घुलने वाली जहरीली गैसों की मात्रा सामान्य से अधिक हो गई है।भविष्य में इसके खतरे बढ़ सकते हैं।ग्लोबल वार्मिंग ने प्रकृति में अनगिनत पीड़ादायक एवं आश्चर्यजनक परिवर्तन किए हैं ।इनके अनेक भयावह दुष्परिणाम हुए हैं ।
पिछले कई वर्षों से इसके बढ़ते दुष्प्रभाव का दर्द इसी मानवता ने देखे हैं ।सुनामी की भीषण तबाही इसी का परिणाम माना जाता है ।वस्तुतः प्रकृति में एक गहरी साम्यावस्था एवं सुव्यवस्था है ,प्रकृति का प्रत्येक घटक प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष रूप से आपस में जुड़ा हुआ है ।पारिस्थितिक तंत्र में इसे भोजन, ऊर्जा आदि क्रम के रूप में निरूपित एवं प्रतिपादित किया जाता है ।
ग्लोबल वार्मिंग से पारिस्थितिकी तंत्र की ये संवेदनशील कड़ियाँ आपस में टूटने , बिखरने, एवं दरकने लगती हैं और इसी का दुष्परिणाम अनेक प्राकृतिक प्रकोपों , महामारी , दुर्घटनाओं आदि के रूप में सामने आता है।ग्लोबल वार्मिंग से न केवल इन्सान ही प्रभावित है , बल्कि जड़ एवं जीव , सभी इसके दुष्प्रभाव से आक्रांत हैं ।ग्लोबल वार्मिंग हम मनुष्यों की बढ़ती स्वार्थपरता एवं शोषण का ही परिणाम है।
●●●ग्लेशियर किसे कहा जाता है ?●●●
सामान्य तौर पर बरफ के किसी विशाल भंडार को हिमनद कहा जाता है ।ग्लोबल वार्मिंग के प्रभाव से हिमनदों के अस्तित्व पर खतरा मँडराने लगा है ।ये हिमनद जल आपूर्ति के सतत स्रोत होने के साथ-साथ जलवायु चक्र में भी अहम भूमिका का निर्वाह करते हैं ।
सदियों से पृथ्वी के कुछ विशिष्ट स्थानों पर निरंतर हिमपात होते रहने से बरफ की जो ठोस परतें सतह, पर्वतों, घाटियों और समुद्रों के किनारे बन जाती हैं, इन्हें ही ग्लेशियर कहा जाता है ।ग्लेशियर अपने आकार , प्रकार एवं प्रकृति के आधार पर अनेक प्रकार के होते हैं ; जैसे --- ग्रीनलैंड, अंटार्कटिका, पृथ्वी ध्रुवों पर , माउंटेन ग्लेशियर्स आदि ।
पृथ्वी की अधिकतर बरफ अर्थात 3.3 करोड़ घन किलोमीटर ( 90 प्रतिशत बरफ ) ग्रीनलैंड एवं अंटार्कटिका की बरफ की चादरों में विद्यमान है।धरती के ताजे पानी का 75 प्रतिशत भाग इन ग्लेशियरों में बरफीले रूप में विद्यमान है ।इतनी भारी मात्रा में पानी को ये अपने भीतर रखते हैं, अतः ये समुद्र के जल-स्तर की वृद्धि पर नियंत्रण करते हैं ।ग्लेशियरों को छूकर बहने वाली हवा पृथ्वी का तापमान नियंत्रित करने में सहायक होती है।
पृथ्वी के दोनों ध्रुव भी समस्त विश्व की जलवायु पर नियंत्रण करते हैं ग्लोबल वार्मिंग से ये ग्लेशियर पिघलने लगे हैं ।तापमान की वृद्धि से बरफ पिघलने की दर बढ़ और बारिश भी तेज होने लगती है।
●●ग्लेशियर पिघलने से समुद्री सतह के जलस्तर में वृद्धि●●
ग्लोबल वार्मिंग के कारण अधिक वर्षा और हिमपात से हिमशैलों का वजन इतना बढ़ जाता है कि वे सागर के नीचे चले जाते हैं और समुद्री सतह का जल-स्तर बढ़ जाता है ।हिमशैलों के पिघलने से भी समुद्री जल-स्तर बढ़ रहा है ।ग्लेशियर पिघलने के कारण समुद्र की मूलभूत संरचना में भारी उथल-पुथल एवं बदलाव होने लगता है ।
ग्लोबल वार्मिंग के विषय पर शोध करने वाले वैज्ञानिकों का मानना है कि पिछले कुछ दशकों में ही समुद्र का जल-स्तर काफी कुछ बढ़ गया है और उसका प्रमुख कारण है- हिमशैलों का पिघलना एवं नष्ट होना ।प्रसिद्ध साइंस 'नेचर' में प्रकाशित एक अध्ययन के अनुसार इससे तटीय सीमाएँ समाप्त हो सकती हैं, जो मानव जीवन के लिए खतरा हो सकता है।
●●ग्लोबल वार्मिंग से तापमान में वृद्धि का विश्व पर प्रभाव ●●
जैसे-जैसे पृथ्वी के तापमान में वृद्धि होगी और तापमान यदि 3 से 4 डिगरी बढ़ेगा तो ग्लेशियर और पहाड़ों की बरफ भी पिघलेगी और इससे सम्पूर्ण विश्व प्रभावित होगा ।पहाड़ों और ग्लेशियर की बरफ पिघलेगी तो स्वाभाविक है कि इसका पानी मैदानी क्षेत्रों की ओर और कृषि भूमि की ओर बहेगा ।कई देशों पर इसका दुष्प्रभाव पड़ेगा ।कुछ देश बाढ़ से प्रभावित होंगे , जिससे विश्व में खाद्यान्न संकट गहरा सकता है।गरम हवाओं के चलने से फसलें नष्ट हो सकती हैं
ग्लोबल वार्मिंग के कारण यदि तापमान में 4 से 5 डिगरी वृद्धि होती है तो ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन बढ़ सकता है।इससे साइबेरिया का बरफ रेगिस्तान पिघल सकता है इस कारण कई देशों के साथ सब ट्रापिकल क्षेत्रों में जीव-जन्तुओं एवं पेड़-पौधों की कई प्रजातियाँ लुप्त हो जाएँगी ।एंडीज, ऐल्प्स, राॅकी और माउंट एवरेस्ट जैसे शिखरों के श्वेत शुभ्र हिमनद पिघलकर बह सकते हैं ।सर्वेक्षण एवं अध्ययन से पता चला है कि औसत वैश्विक तापमान 5 करोड़ वर्षों में सबसे अधिक स्तर पर पहुँच चुका है।
बढ़ते तापमान से न केवल बड़े ग्लेशियर पिघल रहे हैं, बल्कि पृथ्वी की सतह के अन्दर की जमीन भी गल रही है ।इस कारण भूस्खलन की समस्याएँ बढ़ रही हैं ।ग्लेशियर की बरफ पिघलने से पृथ्वी पर दबाव कम होगा और इस कारण पहाड़ों के आकारों में परिवर्तन हो सकता है।
●● ग्लोबल वार्मिंग से आर्कटिक क्षेत्र के तापमान में वृद्धि●●
ग्लोबल वार्मिंग के कारण आर्कटिक क्षेत्र के तापमान में भी वृद्धि हुई है ।तापमान बढ़ने के कारण बरफ पिघलने से ये क्षेत्र भी रहने लायक नहीं रहेंगे ।यदि भविष्य में तापमान 6 डिगरी से ऊपर बढ़ा तो सामुद्रिक मीथेन हाइट्रेट की वजह से ग्लोबल वार्मिंग बढ़ेगी जो पृथ्वी की सतह के लिए हानिकारक है जिससे मानवीय अस्तित्व खतरे में पड़ सकता है ।पृथ्वी की अनेक प्रजातियों के लिए भी खतरा है।
पिछले एक दशक से आर्कटिक की लगभग 125 झीलें गुम हो गई हैं ।इन गुम होती झीलों के पानी से झील के नीचे का मजबूत धरातल नष्ट हो रहा है ।पिछले दशक से आर्कटिक में बायोलाॅजिकल बूम देखने में आ रहा है ।विभिन्न शोधों के अनुसार--- आर्कटिक की मिट्टी में क्लोरोफिल की मात्रा बढ़ी है ।
सामान्य रूप से आर्कटिक में उगने वाले पौधे वर्ष भर बरफ से ढके रहते हैं।कुछ वर्षों से वसंत ऋतु में ही बरफ के कारण यहाँ के पौधों में लेवी की बढोत्तरी होने लगी है ।आँकड़ों की मानें तो आर्कटिक क्षेत्र में घास कई सेंटीमीटर लंबी हो गई थी ।यह पर्यावरण की दृष्टि से अत्यंत चिंतनीय स्थिति है।बढ़ते तापमान का दुष्प्रभाव कैलिफोर्निया, दक्षिण अफ्रीका, आस्ट्रेलिया, चिली पर अधिक हो सकता है।यहाँ पर पेड़-पौधों की 20 प्रतिशत प्रजातियाँ स्थित हैं ।अतः इनकी विलुप्ति एवं नष्ट होने की आशंका बढ़ जाएगी।
●●●ग्लेशियरों के पिघलने के अन्य दुष्प्रभाव ●●●
ग्लेशियरों के पिघलने से चक्रवातों की संख्या में भारी इजाफा होगा ।कई देशों में चक्रवाती तूफानों से काफी जन-धन की हानि हो जाती है ।अमेरिका के जंगलों में इसके दुष्परिणाम देखने में आ रहे हैं, जहाँ पिछले कई वर्षों से जंगलों में आग के मामले बढ़ रहे हैं ; विशेष रूप से मध्य यूरोप में वर्षा की कमी तथा सूखे के बढ़ते प्रभाव एवं जंगलों में लगी आग का कारण ग्लोबल वार्मिंग को माना जाता है ।जंगलों में आग लगने के कारण वहाँ धुँए के गुबार से कार्बन-डाइऑक्साइड का उत्सर्जन बढ़ गया है।इससे पेड़-पौधों की दुर्लभ प्रजातियाँ नष्ट होने लगी हैं ।
सन् 1900 में गिलहरी, चूहे, साँप आदि इकोसिस्टम के घटकों की संख्या पर्याप्त मात्रा में थी , परंतु 'नेचर' पत्रिका के अनुसार विश्वमें जीव-जन्तुओं की 1103 प्रजातियाँ हैं ।क्रिस थाॅमस के अनुसार इनमें से 15 से 36 प्रतिशत विलुप्ति के कगार पर हैं ।डाॅo थाॅमस यूनिवर्सिटी ऑफ यार्क में जीवविज्ञानी हैं ।उनका मानना है कि ये प्रजातियाँ अत्यन्त संवेदनशील होती हैं तथा ग्लोबल वार्मिंग की वजह से इनका विकास अवरुद्ध हुआ है।2050 तक कई प्रजातियाँ नष्ट हो जाएँगी।
बढ़ते तापमान से अनेक रोग भी बढ़ रहे हैं ।साँस सम्बन्धी रोग व आँखों में खुजली , दमा आदि रोगों के बढ़ने की सम्भावना है।इस प्रकार ग्लोबल वार्मिंग अनेक प्रकार की शारीरिक एवं मानसिक बीमारियों का कारण बन गई है ।ग्लोबल वार्मिंग से न केवल इन्सान ही प्रभावित है बल्कि जड़ एवं जीव , सभी इसके दुष्प्रभाव से आक्रांत हैं । आज यह हमारे एवं धरती के अस्तित्व के लिए खतरि बनकर मँडरा रही है ।यह हम मनुष्यों की बढ़ती स्वार्थपरता एवं शोषण का ही परिणाम है।
पर्यावरण की वर्तमान परिस्थिति मानवकृत है अतः इसके
समाधान में इन्सान को ही भागीरथ प्रयास करना पड़ेगा ।पर्यावरण के प्रति जागरूकता पैदा कर परिस्थिति तंत्र को स्वस्थ रखने में सहायक बनना होगा ।धरती के तापमान में वृद्धि करने वाले कारणों को घटाना होगा तथा इसके विपरीत तापमान को कम करने वाले कारक , जैसे --- पेड़-पौधे लगाकर हरीतिमा संवर्द्धन आदि को बढ़ाना होगा।
यह सम्पूर्ण विश्व की समस्या है सभी विश्व-वासियों को मिलजुलकर ग्लोबल वार्मिंग की समस्या के निपटने की कोशिश करनी पड़ेगी ।इसीसे इस वसुधा पर मानव जीवन खुशहाल हो सकता है।
सादर अभिवादन व धन्यवाद ।
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