head> ज्ञान की गंगा / पवित्रा माहेश्वरी ( ज्ञान की कोई सीमा नहीं है ): June 2020

Friday, June 26, 2020

पेड़-पौधे आपस में कैसे संवाद करते हैं ,पीटर वोल्लेबेन के अनुसार, टिम फ्लैनैरी के अनुसार, पेड़ों की संवेदनशीलता, महर्षि चरक की पेड़-पौधों के साथ की जाने वाली संवाद शैली

     ●●●पेड़ पौधे भी आपस में संवाद करते हैं●●●
पेड़ पौधे भी आपस में संवाद करते हैं और अपना संदेश एक-दूसरे तक पहुँचाते हैं, यह बात उतनी ही सत्य है जितना सत्य मनुष्यों का संवाद व अन्य पशु-पक्षियों का संवाद है।वास्तव में वृक्षों का अपना एक संचार तंत्र होता है , जिसके माध्यम से वे अपना संदेश प्रसारित करते हैं ।

हम भले ही वृक्षों के संवाद को न महसूस करते हों, लेकिन वे विभिन्न रूपों में संवाद करते ही हैं और प्रकृति को सतत देने के अपने दायित्व को निभाते रहते हैं ।आखिर पेड़-पौधे आपस में किस तरह बातचीत करते हैं- यह जानने के लिए पर्यावरणविद्
जिज्ञासा वश शोध करते रहते हैं ।

 ●●वृक्षों की संचार व्यवस्था पर पीटर वोल्लेबेन की शोध●●

                                  पेड़-पौधों की संचार व्यवस्था पर गहन शोध करने वाले 'पीटर वोल्लेबेन' ने पेड़-पौधों की संचार व्यवस्था को सत्य प्रमाणित किया है ।पीटर वोल्लेबेन ने पेड़-पौधों व जीव-जन्तुओं पर दो अनूठी किताबें (दि हिडन लाइफ ऑफ ट्रीज, दि इनर लाइफ ऑफ एनीमल्स ) लिखी हैं ।इस कारण अब पीटर दुनिया के पर्यावरणविदों और जीवविज्ञानियों की चर्चा के दायरे में आ गए हैं ।

' दि हिडन लाइफ ऑफ ट्रीज'  पुस्तक में " वर्ल्ड वाइड वेब' की तर्ज पर 'वुड वाइड वेब' शब्द का प्रयोग किया है ।इनका कहना है कि अगर 'वर्ल्ड वाइड वेब' मनुष्यता के इतिहास की सबसे बड़ी संचार क्रांति का आधार है  तो 'वुड वाइड वेब' भी  इसमें पीछे नहीं है ; क्योंकि पेड़-पौधों में भी अद्भुत संचार तंत्र होता है ।पीटर के अनुसार-- वन जैव-विविधता की प्रयोगशाला होते हैं ।

पीटर वोल्लेबेन ने पेड़ों के लिए जो  'वुड वाइड वेब'  की संज्ञा दी है , वह वास्तव में पेड़ों का एक विशिष्ट संचार तंत्र है , जिसका माध्यम होते हैं--- मिट्टी में पाए जाने वाले पादप-कवक। ऊपर से सभी पेड़ चाहे कितने अलग दिखाई देते हों , लेकिन धरती के भीतर जड़ों के माध्यम से और पादप-कवक के नेटवर्क के माध्यम से वे सभी एक-दूसरे के सम्पर्क में रहते हैं ।अगर किसी जंगल को खोद दिया जाए , तो हम यह पाएँगे कि जंगल की उस धरती के भीतर पेडों की जड़ों व कवकों का एक घना संजाल बिछा हुआ है, इसी को पीटर वोल्लेबेन ने  'वुड वाइड वेब'  कहा है।

 वास्तव में पेड़-पौधे हमसे भी संवाद करना चाहते हैं लेकिन उनके पास संवाद करने के लिए हमारी तरह भाषा नहीं है इसलिए वे दूसरे माध्यमों से स्वयं को व्यक्त करते हैं और अपना संवाद संप्रेषित करते हैं ।हालाँकि पीटर के दिए गए पेड़-पौधों से सम्बंधित तथ्यों को पश्चिम के लोगों ने नहीं स्वीकारा और उन पर 
'एंथ्रोपोमोर्फाइजिंग ऑफ ट्रीज'  अर्थात 'वृक्षों के मानुषीकरण' का आरोप लगाया, इसके पीछे यह कारण बताया गया कि पेडों को मनुष्यों की तरह देखना मात्र भावुकता है ।

  ●●●साल वृक्ष सामुदायिक भावना का उदाहरण ●●●

                               पीटर वोल्लेबेन के मूल तथ्यों व संप्रत्ययों के अनुसार--  'वृक्षों में सामुदायिकता की भावना मनुष्यों की तरह ही बहुत प्रबल होती है ।वृक्षों के भी अपने परिवार व समुदाय होते हैं ।'  पीटर के इस तथ्य को दिल्ली की वनसंपदा पर प्रामाणिक व लोकप्रिय शोध करने वाले पर्यावरणविद् प्रदीप कृष्ण स्वीकारते हैं ।अपनी बात व तथ्यों को प्रमाणित करने के लिए वे साल वृक्षों का उदाहरण देते हैं ।

साल वृक्ष की लकड़ियों का इस्तेमाल भारत में बहुत बड़े व्यावसायिक पैमाने पर होता है ।ये वृक्ष हिमालय की तराई से लेकर पश्चिमी उत्तर प्रदेश और बंगाल से लेकर ओडिशा और उत्तर-पूर्वी मध्य प्रदेश तक पाए जाते हैं ।वास्तविकता यह है कि साल वृक्ष बहुत ही सामुदायिक किस्म के होते हैं और यही कारण है कि किसी भी जगह ये अकेले नहीं पैदा होते ।

एक बार ब्रिटिश शासन काल में ब्रिटिश राज्य द्वारा रेल की पटरियाँ बिछाई जा रहीं थीं तब रेलवे स्लीपर्स बनाने के लिए बड़े पैमाने पर साल की लकड़ियों की माँग हुई थी ।उस समय भारतीय वन विभाग ने बहुत कोशिशें कीं कि साल वृक्षों को उनके दायरे के बाहर भी विकसित किया जाए, लेकिन वे कामयाब नहीं हो सके और इस बात को भी वे नहीं समझ पाए कि ये साल के वृक्ष उस क्षेत्र के बाहर क्यों नहीं विकसित हो सकते हैं ।

वन विभाग को यह नहीं पता था कि साल के वृक्ष अकेले पैदा नहीं होते।भारतीय जन-मानस को अच्छी तरह से पता है कि किसी एक साल वृक्ष को अकेले विकसित करना असंभव है और ये सदा छोटे-मोटे वन के रूप में ही विकसित होते हैं तथा ये अपने सघन समुदाय के बाहर नहीं पनप सकते ।अगर किसी विकसित साल वृक्ष को ले जाकर दूसरी जगह रोप दिया जाए तो वह एकाकीपन का शिकार होकर मर जाता है  ; क्योंकि वह अपने समुदाय से बात नहीं कर पाता ।

 ●टिम फ्लैनेरी के अनुसार वृक्षों की संवाद व्यवस्था पर शोध●

एक अन्य पर्यावरणविद् टिम फ्लैनेरी के अनुसार---- बचपन में हम सभी ने ऐसी कहानियाँ पढ़ी हैं, जिनमें वृक्षों की आँखें होती हैं, वे बोल सकते हैं, यहाँ तक कि चल भी सकते हैं ।ये निश्चित ही हमारी कल्पनाएँ हैं, लेकिन वृक्ष कभी भी इतने जड़वत् नहीं रहे, जितना कि हमने उन्हें मान लिया है  अगर हम वृक्षों की जीवन-प्रणाली को समझ जाएँ तो हमारे लिए हरेक जंगल एक अनूठे आश्चर्यलोक में बदल जाएगा।

पेड़-पौधे किस तरह संवाद करते हैं, इस बारे में टिम फ्लैनेरी का कहना है कि पेडों के पास गंध को अनुभव करने की सामर्थ्य होती है ।इस बात का प्रमाण वे अफ्रीका के उदाहरण से देते हैं ।वहाँ यदि कोई जिराफ किसी एक प्रजाति के पेड़ को बार-बार चरने लगता है , तब उस प्रजाति के सारे पेड़ हवा में एक किस्म का रसायन छोड़ते हैं, यह संकेत होता है, अन्य पेडों को खतरे से अवगत कराने का । अन्य पेड़ इस रसायन की गन्ध से खतरे को भाँपने के बाद कहीं भागकर तो नहीं जा सकते , इसलिए इस खतरे की जानकारी होने के बाद वे एक किस्म का विषैला रसायन छोड़ने लगते हैं, जो बाद में उस जिराफ के मन में उन पेडों के प्रति अरुचि उत्पन्न कर देता है ।

          ●●● पेडों की संवेदनशीलता ●●●

पेड़-पौधों भी संवेदनशील होते हैं ।हम यह नहीं जानते कि पेड़-पौधे काटे जाने पर अपना दुःख आपस में किस तरह बाँटते हैं ।लेकिन पर्यावरणविदों के अनुसार--- पेड़ जब भी काटे जाते हैं तो वे अपने दुःख को अन्य पेडों के साथ मिलकर साझा करते हैं ।अगर किसी जंगल में कोई पेड़ काट दिया जाए , तो उसके आस-पास के पेड़ मिलकर उसके कटे हुए तने को पोषित करने का हर संभव प्रयास करते हैं ।

एक अकेला वृक्ष अनेक अर्थों में गूँगा और बहरा होता है ।वह कभी भी उतने लंबे समय तक जीवित नहीं रह सकता, जितने समय तक जंगल का एक वृक्ष जी सकता है ; क्योंकि अकेला वृक्ष अपने समान वृक्षों के समुदाय से अलग हो जाता है ।इस तरह वृक्षों में भी संवाद होता है , यह तथ्य प्रमाणित होता है ।

●महर्षि चरक की पेड़पौधों के साथ की जाने वाली संवादशैली●

हमारे देश भारत में महर्षि चरक वृक्षों से वाकई संवाद करते थे , उनका यह संवाद आध्यात्मिक संवाद की श्रेणी में आता है ।ऐसा कहा जाता है कि वे हर वृक्ष के पास जाते थे और वृक्ष वनस्पतियाँ
सांकेतिक भाषा में उन्हें अपनी उपयोगिता बताते थे ।वृक्ष-वनस्पतियों के इसी संवाद के आधार पर महर्षि चरक ने " चरक-संहिता"  की रचना की , जो कि आयुर्वेद का एक प्रमुख ग्रन्थ है।
मानव जाति के लिए यह ग्रन्थ एक वरदान है।

हम अनुभव करें या न करें लेकिन यह सत्य है कि पेड़-पौधे भी आपस में संवाद करते हैं तथा वे संवेदनशील व सामुदायिक किस्म के होते हैं ।  अतः हमारा कर्तव्य है कि हम सदा पेड़-पौधों का सम्मान करें ।बिना जरूरत उनकी कटाई न करें ।

सादर अभिवादन व धन्यवाद ।


Friday, June 19, 2020

विश्व योग दिवस का प्रस्ताव कब पारित एवं लागू हुआ, संयुक्त राष्ट्र के महासचिव व 69 अधिवेशन के अध्यक्ष के संदेश, श्री नरेन्द्र मोदी जी के आह्वान पर विश्व योग दिवस का शुभारंभ

●● विश्व योग दिवस का प्रस्ताव कब पारित एवं लागू हुआ●●
विश्व योग दिवस का अर्थ है--- स्वस्थ जीवन-स्वच्छ जीवन के लिए विश्वव्यापी अलख जगाना । प्रतिवर्ष 21 जून को योग दिवस मनाया जाता है । यह इस सत्य का उद्घोष है कि भारतीय संस्कृति विश्वसंस्कृति बनने की ओर गतिशील हो चुकी है ।

माननीय प्रधानमंत्री जी ने संयुक्त राष्ट्र महासभा में अपने पहले संबोधन में अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस मनाने की बात उठाई थी ।बाद में संयुक्त राष्ट्र महासभा में भारत के राजदूत अशोक मुखर्जी ने विधिवत् प्रस्ताव पेश किया ।इस प्रस्ताव में कहा गया था कि योग स्वास्थ्य को समग्रता प्रदान करता है ।इस प्रस्ताव में इक्कीस जून को अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस घोषित करने के अलावा कहा गया कि योग के लाभ की जानकारियाँ फैलाना सम्पूर्ण विश्ववासियों के स्वास्थ्य के हित में होगा।प्रस्ताव में सभी सदस्य देशों, संयुक्त राष्ट्र से जुड़े संगठनों, अन्य अंतर्राष्ट्रीय एवं क्षेत्रीय निकायों से योग के फायदों  के बारे में जागरूकता फैलाने के लिए योग दिवस मनाने की अपील की गई ।

भारत ने यह प्रस्ताव तैयार किया और इस विषय में भारतीय मिशन ने अक्टूबर 2014 में संयुक्त राष्ट्र महासभा में एक अनौपचारिक परिचर्चा आयोजित की , जिसमें अन्य प्रतिनिधियों ने योग के विषय पर अपनी राय रखी ।भारतदेश को अपने इस प्रयास में भारी सफलता प्राप्त हुई और 193 सदस्यीय महासभा में 172 सदस्य, नौ दिसम्बर 2014 को उसके इस प्रस्ताव के सहप्रायोजक बन गए।

संयुक्त राष्ट्र के सभी सदस्यों ने इस सत्य को स्वीकार किया कि योग 5000 वर्ष से भी अधिक पुरानी भारतीय शारीरिक-मानसिक एवं आध्यात्मिक पद्यति है , जो मानव जीवन को सम्पूर्णता प्रदान करती है।

योग दिवस मनाने के इस प्रस्ताव को उत्तरी अमेरिका के 23 देशों ने , दक्षिणी अमेरिका के 11 देशों ने , यूरोप के 42 देशों ने , एशिया के 40 देशों ने , अफ्रीका के 46 देशों ने एवं प्रशांत महासागरीय क्षेत्र के 12 द्वीपीय देशों ने समर्थन दिया है।इसे हम अदृश्य शक्तियों का दृश्य प्रभाव कहेंगे कि संयुक्त राष्ट्र महासभा में इतने विराट बहुमत से प्रस्ताव पारित होने का रिकॉर्ड बन गया।इतना ही नहीं, संयुक्त राष्ट्र में विश्व योग दिवस के प्रस्ताव ने एक दूसरा रिकाॅर्ड भी कायम किया , यह रिकाॅर्ड बना 90 दिन में किसी देश के प्रस्ताव को पारित होने का ।

●संयुक्त राष्ट्र महासचिव व 69 अधिवेशन के अध्यक्ष के संदेश●

विश्व योग दिवस के प्रस्ताव पारित होने और लागू होने पर संयुक्त राष्ट्र महासचिव बान की मून ने कहा--- " 21 जून को अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस के तौर पर स्वीकार किए जाने पर आधुनिक दुनिया में स्वास्थ्य और मानव कल्याण के क्षेत्र में योग के लाभों पर ध्यान खिंचेगा।"  मून ने आगे कहा -- "योग एक ऐसी परंपरा है , जिससे शांति व विकास में योगदान मिलेगा ।" 

संयुक्त राष्ट्र महासभा के 69 वें अधिवेशन के अध्यक्ष सैम कुटेसा ने अपने संदेश में कहा कि  " 172 से भी अधिक देशों द्वारा योग दिवस के प्रस्ताव को समर्थन देने से पता चलता है कि दुनिया भर के लोगों को योग कितना प्रभावित करता है।" कुटेसा ने इस योग दिवस के प्रस्ताव को पारित होने पर हमारे प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी जी को बधाई दी ।

प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी जी ने योग दिवस के प्रस्ताव पारित और लागू होने पर खुश होकर प्रतिक्रिया व्यक्त की --- " प्रफुल्लित ! संयुक्त राष्ट्र द्वारा 21 जून को विश्व योग दिवस के रूप में मनाने की स्वीकृति दी गई है ।मेरे पास खुशी को बयाँ करने के लिए शब्द नहीं हैं ।मैं इस फैसले का स्वागत करता हूँ ।"  इसी के साथ उन्होंने दुनिया भर के उन 172 से भी अधिक देशों का शुक्रिया कहा , जिन्होंने 21 जून को विश्व योग दिवस के रूप में मनाए जाने के प्रस्ताव पर मोहर लगाई।

●●श्री नरेन्द्र मोदी के आह्वान पर योग दिवस का शुभारंभ●●

प्रधानमंत्री मोदी जी ने कहा कि----- "योग में पूरी मानवता को एकजुट करने की शक्ति है।योग में ज्ञान, कर्म और भक्ति का समागम है।मैं वर्षों से योग करता रहा हूँ और आप विश्वास नहीं करेंगे कि इससे मेरे जीवन में कितना सकारात्मक बदलाव आया ।योग मेरे जीवन का सहारा है, इसलिए मैं खासकर युवाओं से अपील करता हूँ कि वे इसे दैनिक जीवन में अपनाएँ ।मुझे पूरा भरोसा है कि इससे उनका जीवन बदल जाएगा।"  प्रधानमंत्री के इस आह्वान के साथ ही भारत सरकार ने  'विश्व योग दिवस ' मनाने की तैयारियाँ शुरु कर दीं।

भारत सरकार की तत्कालीन विदेश मंत्री  " श्रीमती सुषमा स्वराज" ने  योग दिवस के शुभारम्भ हेतु 9 मार्च 2015 को जवाहरलाल नेहरू भवन में एक मीटिंग बुलाई ।इस मीटिंग में शांतिकुंज और देव संस्कृति विश्वविद्यालय को विशेष रूप से आमंत्रित किया गया ।इसमें माननीय विदेश मंत्री के साथ विदेश सचिव एसo जयशंकर एवं आयुष सचिव की उपस्थिति विशेष रही।इस मीटिंग में  'विश्व योग दिवस' से सम्बंधित कई प्रस्ताव रखे गए ।
 
इसके बाद समस्त देश में 21 जून योग दिवस के रूप में मनाया जाएगा - यह घोषणा कर दी गई और सभी राजनीतिक संस्थान , शैक्षणिक संस्थान व धार्मिक संस्थानों को योग दिवस की तैयारी के लिए निर्देश दिए गए ।सभी ने इस योग दिवस पर बड़े उत्साह के साथ भाग लिया और प्रथम विश्व योग दिवस को सफलता दिलाने में अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया ।

सभी स्कूलों के बच्चों ने सामूहिक योग कार्यक्रमों में हिस्सा लिया , सभी प्रदेशों के राजनीतिक संस्थानों के शीर्ष नेताओं व अधिकारियों ने  भी योग दिवस पर सामूहिक रूप से योग किया।
भारत में ही नहीं इस दिन पूरे विश्व में योग कार्यक्रम आयोजित किए गए ।धार्मिक संस्थाओं के योग गुरुओं ने विशाल जन-समूह के साथ योग कार्यक्रमों का आयोजन किया।

         2015 के बाद अब प्रति वर्ष 21 जून को "विश्व योग दिवस "  सम्पूर्ण विश्व में पूरे उत्साह से मनाते हैं और योग से लाभ उठाते हैं ।इस दिन टीवी पर पूरे विश्व के योग कार्यक्रमों की झलक देखने मिलती है।
   
●● योग में मानवीय चिंतन को देवत्व में बदलने के तत्व●●

योग के आसन-प्राणायाम से जुड़ी योग की जीवन शैली में मानवीय चिंतन और चरित्र को देवत्व में बदलने के सभी तत्व विद्यमान हैं ।भारत का पुरातन अतीत इस सत्य का सदा से साक्षी रहा है ।इसका सहारा लेकर पुरातन युग के निवासी स्वर्गीय परिस्थितियों का लाभ उठाते रहे हैं ।विश्व योग दिवस की बेला में वही पुरातन पुनर्जीवित हो रहा है।जो हो रहा है , वह पुनरावर्तन मात्र है ।इसमें सतयुग की वापसी के सभी संकेत समाहित हैं ।

योग का प्रकट रूप भले ही आसन-प्राणायाम जैसी क्रियाओं में दिखता है , पर इसका अदृश्य आधार यम-नियम में ही समाहित है।जनमानस का परिष्कार और देवयुग का निर्धारण, योग के तत्वज्ञान के आलोक से ही संभव है।हाँ यह सच है कि कुछ लोगों ने योग की प्रक्रियाओं व प्रयासों को शारीरिक व्यायाम तक सीमित कर दिया है ।वस्तुतः यह इतना स्वल्प व सीमित नहीं है।

इक्कीसवीं सदी की गंगोत्तरी में उमगती उमंगें अब न केवल दृश्य रूप लेने लगी हैं, बल्कि उनके व्यापक व विस्तृत होने का क्रम भी आरंभ हो चुका है।प्रभात का शुभारंभ पूर्व से होता है ।अग्रणी होने का सौभाग्य उसी को प्राप्त होता है।भारत पूर्व में है और अग्रणी भी ।आध्यात्म उसकी अपनी प्रकृति और परंपरा है ।अतएव शुभारंभ का दायित्व उसी के कंधे पर आता है , सो आ रहा है।

 
सादर अभिवादन व धन्यवाद ।





Wednesday, June 17, 2020

ईयरफोन व हेडफोन का अधिक इस्तेमाल कानों के लिए हानिकारक,ईयरफोन के उपयोग पर शोधकर्ताओं के अध्ययन, विश्व स्वास्थ्य संगठन की चेतावनी, कानों की सुरक्षा के लिए सावधानियाँ

●● ईयरफोन व हेडफोन का अधिक इस्तेमाल हानिकारक●●
आज की पीढ़ी को 'मल्टीमीडिया जनरेशन' कहा जाता है ।सूचना क्रांति के इस दौर ने लोगों का जीवन ही बदल दिया है।मोबाइल फोन धीरे-धीरे, ज्यादा से ज्यादा सुविधाओं से जुड़ते जा रहे हैं ।
आजकल सभी जगहों पर संगीत के दीवाने लोग कानों में हैडफोन या ईयरफोन लगाए हुए मिल जाते हैं ।मेट्रो, बस, ट्रेन,कार और यहाँ तक कि साइकिल पर ही क्यों न हों, उनके कान में ईयरफोन लगे दिख ही जाते हैं ।उन्हें यह नहीं पता होता कि ये गैजेट्स उनके स्वास्थ्य को , उनके सुनने की क्षमता को कितना नुकसान पहुँचाते हैं और इसके साथ ही सड़क पर घटने वाली दुर्घटनाओं की संभावनाओं को कितना बढ़ाते हैं ।

गैजेट्स आज हमारी जिंदगी का हिस्सा बन चुके हैं लेकिन ये धीरे-धीरे हमारी सेहत को ही नुकसान पहुँचा रहे हैं ।युवा पीढ़ी आज इन उपकरणों के प्रति अत्यन्त आकर्षित है और इनसे कुछ क्षणों के लिए भी दूर नहीं होना चाहती ।मोबाइल फोन, कंम्प्यूटर आदि के कारण सभी के कार्य करने की गति में तीव्रता आई है , अब घंटों में पूरे होने वाले काम मिनटों में होने लगे हैं ।

आजकल पेमेंट से लेकर ऑनलाइन शाॅपिंग और बुकिंग सब कुछ मोबाइल पर होने लगा है।छोटे से मोबाइल भी संचार का ऐसा माध्यम है , जिसमें गीत-संगीत, फोटो, वीडियो व सूचनाओं का बड़ा भंडार हो सकता है ।हालाँकि इन तकनीकों से हमें अनेक लाभ हैं लेकिन इसका एक ऐसा पहलू भी है , जो हमारे लिए नुकसानदेह है और इसकी जानकारी भी हमें होनी चाहिए ।

   ●●ईयरफोन के उपयोग पर  शोधकर्ताओं के अध्ययन●●

शोध के अनुसार, ईयरफोन के लगातार उपयोग से व्यक्ति के सुनने की क्षमता में 40 से 50 डेसीबल तक की कमी हो जाती है ।इससे कान का परदा हिलने लगता है , जिससे दूर की आवाज़ सुनने में परेशानी होने लगती है ।हमारे देश में 50 % युवाओं में कान संबंधी समस्याओं का कारण ईयरफोन का अत्यधिक इस्तेमाल है ।ईयरफोन का अत्यधिक उपयोग करने से कान में दर्द, सिरदर्द या नींद न आने जैसी सामान्य समस्याएँ पैदा हो सकती हैं ।

वैज्ञानिकोंके अनुसार, मनुष्य के कान आमतौर पर 65 डेसिबल तक की ध्वनि को ही सहन कर सकते हैं, लेकिन ईयरफोन पर अगर 90 डेसिबल की ध्वनि 40 घंटे से ज्यादा सुनी जाए तो कान की नसों को नुकसान हो सकता है।शोधकर्ताओं के अनुसार, ईयरफोन के अधिक इस्तेमाल से कानों में अनेक समस्याएँ हो सकती हैं, जैसे ---- कान में छन-छन की आवाजें आना, चक्कर आना, सनसनाहट, नींद न आना आदि प्रमुख हैं ।

हेडफोन व ईयरफोन बनाने वाली कंपनियाँ आजकल बेहतर परिणाम देने के चक्कर में ऐसे उपकरण तैयार करती हैं, जिससे श्रोता बाहर की दुनिया से कट जाए और उसे संगीत का आनंद बिना किसी रुकावट के मिले।लेकिन इन उपकरणों द्वारा जब कान पूरी तरह से बन्द हो जाते हैं, तो उनके अंदर हवा नहीं जा पाती और इससे कान में संक्रमण पनपने का खतरा बढ़ जाता है ।ईयरफोन के अधिक इस्तेमाल से ईयर वैक्स बनता है , जिससे कान में टिनिटस ( कुछ बजने जैसी आवाज़ )का खतरा बढ़ जाता है ।ईयरफोन के अधिक इस्तेमाल से कान के सुन्न पड़ जाने की भी आशंका पैदा हो जाती है।

ईयरफोन व हेडफोन के इस्तेमाल होने पर जो तरंगें पैदा होती हैं, उनका सीधा असर हमारे मस्तिष्क पर पड़ता है ।हमारे कान का भीतरी हिस्सा सीधे मस्तिष्क से जुड़ा हुआ है ।तेज आवाज़ का स्वर हमारे कानों के बाहरी भाग के परदे को नुकसान पहुँचाने के साथ-साथ अंदरूनी कोशिकाओं को भी क्षति पहुँचाता है।

मनोवैज्ञानिक ब्लूटूथ, हेडफोन, या ईयरफोन लगाकर चलना अच्छा नहीं मानते । सड़क पर ईयरफोन व हेडफोन लगाकर चलने के कारण लोग पीछे से आने वाली आवाजों को नहीं सुन पाते और इससे हादसों की आशंका रहती है।भारतीय रेल अधिकारियों का भी यह कहना है कि ट्रैक पर हादसों का शिकार होने वालों में बड़ी संख्या में वे लोग होते हैं, जो कान में ईयरफोन लगाकर चलते हैं ।

बहुत से लोग ईयरफोन व हेडफोन लगाकर गाना सुनते-सुनते सो जाते हैं, यह कान के लिए और भी नुकसानदायक है।इससे व्यक्ति के गहरी नींद में जाने में बाधा पड़ती है और इस कारण व्यक्ति लंबे समय तक रेडिएशन के संपर्क में रहते हैं, जिससे रोगों का खतरा बढ़ जाता है ।

 ●●● विश्व स्वास्थ्य संगठन की युवाओं को चेतावनी●●●

विश्व स्वास्थ्य संगठन ( डबल्यू एच ओ) की एक रिपोर्ट ने युवा पीढ़ी को यह चेतावनी दी है कि वे ब्लूटूथ, ईयरफोन या हेडफोन के अत्यधिक इस्तेमाल से बचें ।उनकी रिपोर्ट के अनुसार, विश्व में 1.1 अरब युवा तेज आवाज़ सुनने की आदतों के कारण कानों की समस्या से जूझ रहे हैं अर्थात उनकी श्रवणशक्ति प्रभावित हो रही है।इसलिए यह सावधानी बरतनी जरूरी है कि लोग ईयरफोन का इस्तेमाल कम-से-कम करने की आदत डालें ।

जो लोग कॉल सेंटर या ऐसी जगह काम करते हैं, जहाँ हेडफोन जरूरी है, तो वहाँ हरेक घंटे पर कम-से-कम पाँच मिनट का ब्रेक जरूर लें।साथ ही अच्छी गुणवत्ता के हेडफोन या ईयरफोन का ही इस्तेमाल करें ।ईयरबड के बजाय ईयरफोन का उपयोग करें, क्योंकि ये बाहरी कान में लगे होते हैं ।

 ●●● कानों की सुरक्षा के लिए क्या सावधानियाँ बरतें ●●●

विशेषज्ञों का ऐसा मानना है कि इस तरह के गैजेट्स का इस्तेमाल तीस मिनट से अधिक नहीं करना चाहिए और न ही तेज स्वर में इसे सुनना चाहिए । 24 घंटे में एक घंटे से ज्यादा ईयरफोन का इस्तेमाल नहीं करना चाहिए और कान संबंधी किसी भी तरह की परेशानी होने पर तुरंत चिकित्सकों से संपर्क करना चाहिए और उनकी सलाह माननी चाहिए ।साथ ही एक बार में लंबे समय तक किसी से फोन पर बात नहीं करनी चाहिए।

कान ही वह माध्यम है, जिसके द्वारा हम आवाजों को सुन सकते हैं, दूसरों से संपर्क कर सकते हैं, विभिन्न तरह की आवाजों का अन्तर समझ सकते हैं ।यदि किसी कारणवश हमारी श्रवणशक्ति प्रभावित होती है ,तो हमें अनेक समस्याओं का सामना करना पड़ सकता है इसलिए कान की सुरक्षा के लिए हमें ईयरफोन व हेडफोन के इस्तेमाल की सीमा तय कर लेनी चाहिए व सावधानीपूर्वक इस्तेमाल करना चाहिए ।

समय के साथ चलना भी आवश्यक होता है।आधुनिक युग में सभी मोबाइल, लैपटॉप आदि का उपयोग जीवन की सुगमता के लिए 
जरूरी हैं, साथ ही हमें पूर्ण स्वस्थ रहना भी जरूरी है।इसलिए इन सभी उपकरणों का इस्तेमाल जरूर करें लेकिन सावधानी से ; क्योंकि स्वस्थ रहना आवश्यक है।

सादर अभिवादन व धन्यवाद ।



Tuesday, June 16, 2020

सूर्यग्रहण और चन्द्रग्रहण काल में आहार क्यों नहीं ग्रहण क्यों नहीं करते ? ग्रहण काल में किए गए वैज्ञानिक प्रयोग

●सूर्यग्रहण व चन्द्रग्रहण काल में आहार क्यों नहीं ग्रहण करते●
सूर्यग्रहण व चन्द्रग्रहण काल में आहार क्यों नहीं करते - इस विषय पर वैज्ञानिक शोध होते रहते हैं ।वैज्ञानिकता का तात्पर्य वैज्ञानिक मानसिकता एवं वैज्ञानिक प्रयोगधर्मिता से है।यह तथ्य अनगिनत वैज्ञानिक प्रयोगों-परीक्षणों से प्रमाणित हो चुका है कि खगोल के प्रभाव भूगोल पर पड़ते हैं और यह खगोल-भूगोल एवं प्रकृति के सभी दृश्य-अदृश्य कारक मिलकर मानव जीवन पर अपना प्रभाव डालते हैं ।सूर्यग्रहण व चन्द्रग्रहण के समय भी वातावरण में कुछ परिवर्तन होता है।इस समय वातावरण में बैक्टीरिया व घातक कीटाणु प्रचुर मात्रा में होते हैं ।

भारतीय ऋषि इस तथ्य से भली-भाँति परिचित थे कि सूर्यग्रहण और चन्द्रग्रहण के समय वातावरण में कुछ परिवर्तन होता है, कुछ विषाक्तता होती है इसीलिए उन्होंने निर्देश दिया था कि सूर्य व चंद्रग्रहण के समय किसी भी प्रकार का अन्न अथवा आहार ग्रहण न किया जाए।उन्होंने उस दिन उपवास करने की परंपरा स्थापित की। तत्त्ववेत्ता ऋषि ग्रहण काल में पृथ्वी पर पड़ने वाले अंतर्ग्रहीय दुष्प्रभावों से अच्छी तरह से परिचित थे ।वे यह जानते थे कि ग्रहण के समय खान-पान का शरीर पर हानिकारक प्रभाव पड़ता है ।

भारतीय ऋषियों ने ग्रहण काल में ग्रहण के समय अंतरिक्ष से आने वाले दुष्प्रभावों से बचने के लिए उपासना , साधना आदि के निर्देश दिए हैं , जो आज भी विभिन्न स्थानों पर प्रचलित हैं ।सूर्य एवं चंद्रग्रहण के अवसर पर नदियों आदि में स्नान की परंपरा है।वैज्ञानिक भी मानते हैं कि प्रवाहित जल में प्राण-ऊर्जा की प्रचुरता रहती है।

   ●●● ग्रहण काल में किए गए वैज्ञानिक प्रयोग ●●●

अंतर्ग्रहीय प्रभावों के अध्ययन के क्रम में बोस इंस्टीट्यूट कोलकाता के माइक्रोबाॅयोलाजी के वैज्ञानिकों का निष्कर्ष है कि सौरमण्डल के विकिरण से वायुमंडल के जीवाणुओं का नियंत्रण होता है ।  16 फरवरी , 1980 के पूर्ण सूर्यग्रहण के अवसर पर कोलकाता के प्रख्यात 'बोटेनिकल गार्डन' के वायुमंडल में बैक्टीरिया,फंजाई एवं घातक जीवाणु प्रचुर मात्रा में पाए गए थे।

सूर्यग्रहण से पहले और उसके बाद विभिन्न जीवाणुओं का अध्ययन करने पर पाया गया कि सूर्यग्रहण के समय न केवल इनकी संख्या में वृद्धि हुई , बल्कि इनकी मारक क्षमता पहले से अधिक थी ।इस तथ्य की पुष्टि रीवा विश्वविद्यालयके 'विक्रम फिजिक्स सेंटर ऑफ एन्वायरन्मेंटल बाॅयोलाॅजी' के वैज्ञानिक प्रयोगों से हुई ।इन वैज्ञानिकों ने देखा कि #सूर्यग्रहण के अवसर पर पानी को खुला छोड़ देने पर उसमें विभिन्न प्रकार के विषाणु और जीवाणु आकर उसे विषाक्त कर देते हैं ।

आधुनिक युग में ग्रहण के समय के लिए बनाए नियमों का कम ही लोग पालन करते हैं ।ग्रहण के समय उपवास, स्नान, उपासना को कुछ लोग महत्वपूर्ण नहीं मानते , लेकिन नवीन वैज्ञानिक तथ्य इस बात की पुष्टि करते हैं कि ये सभी क्रियाएँ वैज्ञानिक हैं, जो शरीर सुरक्षा व उपचार के लिए सशक्त एवं सक्षम माध्यम हैं ।इसलिए स्थूल अध्ययन, विश्लेषण एवं उपचार के लिए किए गए प्रयत्नों के साथ-साथ अंतर्ग्रहीय प्रभावों की जानकारी रखना तथा उपचार के  उपाय ढूँढना भी आवश्यक हो जाता है ।वस्तुतः यह सभी ज्ञान ज्योतिर्विज्ञान से सम्बंधित है।
भारतीय सनातन संस्कृति में ग्रहण के दौरान खाद्यान्न और दूध आदि में तुलसी के पत्ते डाले जाते हैं ।तुलसी कृमिनाशक होती है।
ग्रहण के दौरान मंदिरों के कपाट भी बन्द कर दिए जाते हैं ।सनातन संस्कृति में ग्रहण के समय दान की भी परम्परा है।

सभी तथ्यों को जान लेने के बाद अब हम सभी को ग्रहण के दौरान अन्न ग्रहण नहीं करना चाहिए एवं कुछ और नियम भी हैं जिनका पालन करना चाहिए ।

सादर अभिवादन व धन्यवाद ।



Friday, June 12, 2020

सौन्दर्य बोध, उपभोक्ता वादी संस्कृति में सौन्दर्य का आंकलन, सच्ची सुन्दरता

                     ●●● सौन्दर्य बोध ●●●
सौन्दर्य बोध मनुष्य की जन्मजात विशेषता है ।सौन्दर्य सर्वत्र व्याप्त है , बस उसे देखने के लिए हमें अपनी आँखें खोलनी हैं ।बचपन की किलकारियों में, यौवन के रस व उमंग में, बुढ़ापे की अनुभवी झुर्रियों में सौन्दर्य के अलग-अलग रूप दिखाई देते हैं ।भगवान की बनाई इस दुनिया में कण-कण में सुन्दरता विद्यमान है।
सुन्दरता उसे कहते हैं जो हमारे मन को आकर्षित करे तथा हमें एक आंतरिक प्रसन्नता और खुशी का एहसास कराए।सुन्दरता के मायने सबके अपने-अपने व्यक्तिगत होते हैं ।एक ही वस्तु किसी को सुंदर और किसी को कुरूप लग सकती है, यह पूर्णतया व्यक्ति के सौन्दर्य बोध की क्षमता पर निर्भर है।सत्य यही है कि व्यक्ति या वस्तु का कोई भी गुण , जो हमें सुखद अनुभव प्रदान करे , वही सुन्दर है , वही खूबसूरत है।
 
●●● उपभोक्ता वादी संस्कृति में सौन्दर्य का आंकलन●●●

आज उपभोक्तावादी संस्कृति के प्रभाव में हमारे सौन्दर्यबोध की दृष्टि एकांगीपन का शिकार हो चुकी है।सुन्दरता के मूल्य और मानदंड, दैहिक सौन्दर्य के धरातल पर सिमट कर रह गए हैं ; जब कि देह तो सुन्दरता का एक माध्यम मात्र है।सुन्दर दीखने और सुन्दर होने में बहुत अन्तर है।प्रयः लोग शारीरिक सौन्दर्य, विशेषकर त्वचा के गोरेपन को ही सुन्दरता का मापदंड मान बैठते हैं और इसी भ्रांति के आधार पर अपना समय , ऊर्जा व धन सौन्दर्य प्रसाधनों में व्यर्थ ही नष्ट करते रहते हैं ।

हम लोग सुन्दरता का आंकलन त्वचा के गोरेपन से लगाते हैं ।सुन्दर होने के लिए कृतिमता का आवरण ओढ़े रहते हैं ।हमारे देश में न जाने कितने लोग ऐसे हैं, जो साँवले हैं और गोरा होना चाहते हैं ।लोग यह सोचते हैं कि गोरा दीखना ही सुन्दरता की पहचान है
और इसीलिए आजकल बाजार में न जाने कितने इस तरह के सौन्दर्य प्रसाधनों की भीड़ सी आ गई है।

त्वचा की खूबसूरती बढ़ाने का झूठा लालच देते सौन्दर्य प्रसाधन मनुष्य की मनोवैज्ञानिक कमजोरियों का लाभ उठाते हैं और मनुष्य इन प्रसाधनों पर अपना धन खर्च करता है और दिखावटी सौन्दर्य बढ़ाने के प्रयास में आंतरिक सौन्दर्य को बढ़ाने के प्रयासों से भी वंचित रह जाता है ।

               अश्वेत और साँवला रंग भी सुन्दर हो सकता है , ऐसा लोग सोच नहीं पाते और गोरा होना चाहते हैं ।मैक्सिको सिटी में पैदा हुई अश्वेत लुपिटा न्योंगो को हाॅलीवुड फिल्म  '12 इयर्स ए स्लेव' में बेहतरीन अदाकारी के लिए सर्वश्रेष्ठ सह-अभिनेत्री का पुरस्कार मिला ।इससे प्रभावित होकर एक अन्य लड़की ने लुपिटा को एक पत्र लिखा-- पत्र लिखने वाली लड़की भी अश्वेत थी और उसे लगता था कि काले रंग वाली लड़कियों को सफलता नहीं मिलती ।

 'प्रिय लुपिटा , तुम बहुत किस्मत वाली हो ।तुम अश्वेत हो फिर भी तुम्हें इतनी शोहरत और सफलता मिली ।मैं अपने बाहरी सौन्दर्य को बढ़ाने के प्रयास में समय बिगाड़ती , उससे पहले तुम्हें मिली सफलता ने मुझे यह एहसास कराया कि सुंदरता बाहर की नहीं अंदर की होनी चाहिए ।तुमने मुझे बचा लिया ।

                ●●● सच्ची सुन्दरता ●●●

सच्ची सुन्दरता का मतलब है -- खूबसूरत एहसास और अच्छी भावनाएँ ।सच्ची सुन्दरता वही है , जो दिल और आत्मा को सुकून दे ।सुन्दरता वह नहीं जो बाहर से दीखती है, सुन्दरता एक एहसास है, जो इन्सान के अन्दर होती है।व्यक्ति की असली सुन्दरता उसके अच्छे कार्यों में निहित है।सुन्दरता का संबंध व्यक्तित्व की चमक से है और यह चमक तभी पैदा होती है जब व्यक्ति के भाव ,विचार व 
व्यवहार अच्छे हों।

गोरा रंग और बाह्य सौन्दर्य के आधार पर लोगों को कुछ देर के लिए आकर्षित किया जा सकता है किन्तु केवल बाह्य सौन्दर्य के द्वारा आत्मीयता भरे संबंध बना पाना संभव नहीं होता। आत्मीय संबंध स्थापित करने के लिए आंतरिक सौन्दर्य ही आवश्यक है।

इस सदी की यह एक विडंबना ही है कि दैहिक सुंदरता की अपेक्षा आंतरिक सुन्दरता के महत्व से प्रायः सभी परिचित हैं, परंतु फिर भी दैहिक सुन्दरता को अधिक सफल समझा जाने लगा है और इस एकांगी सौन्दर्य दृष्टि ने देह सौन्दर्य का भी व्यवसाय और व्यापार बना डाला है।अनेक सौन्दर्य प्रतियोगिताएँ आयोजित होती रहती हैं जिनमें देह सौन्दर्य का ही आंकलन किया जाता है।

विश्व में विभिन्न स्थानों पर पैदा होने वाले लोगों के नाक-नक्श भिन्न-भिन्न होते हैं, जैसे --- जापानी , चीनी , अमेरिकी, रशियन, फ्रेंच, अफ्रीकी, भारतीय आदि।सभी लोगो की शारीरिक व चेहरे की बनावट में कुछ खास होता है, जो उन्हें उस स्थान विशेष की पहचान देता है।

             विश्व के हर कोने में ऐसे लोग मिल ही जाते हैं, जिनमें से किसी की मुस्कान सुन्दर होती है , तो किसी की वाणी , किसी का व्यवहार तो किसी की प्रतिभा ।कोई जरूरी नहीं कि जो दिखने में सुन्दर हो , उसे ही सुन्दर कहा जाए ।सुन्दरता तो मनुष्य में किसी भी रूप में हो सकती है।

जो व्यक्ति जितने अच्छे भाव के साथ अपने कार्यों में लगा रहता है वह अपनी आंतरिक सुन्दरता को और निखारता है क्योंकि शारीरिक सुन्दरता तो उम्र बढ़ने के साथ-साथ कम हो जाती है।अपने अंदर सुन्दरता का एहसास जगाने के लिए सबसे पहले अपने आत्मविश्वास को जगाना होगा, फिर अपने अंदर के अच्छे गुणों को देखना होगा और फिर अपनी आंतरिक सुन्दरता को निहारना होगा।

सुखद एहसासों से मन को प्रसन्न कर देने सौन्दर्य बोध की दृष्टि कहीं खो सी गई है ।अब आवश्यकता है पुनः इसे प्राप्त कर लेने की , असली सुन्दरता के प्रति सजग हो जाने की।इसलिए सुन्दरता केवल शारीरिक सौन्दर्य तक सीमित नहीं है, इसकी सीमाएँ असीमित हैं ।

प्रकृति और परमात्मा ने मिलकर हरेक के जीवन में कुछ खास सुन्दरता को गढ़ा है , बस इसे महसूस करने व अभिव्यक्त करने की जरुरत है।तो आइए ! अपनी सौन्दर्यबोध की दृष्टि में इस वैभवशाली जीवन और प्रकृति के अनुपम सौन्दर्य को निहारें और सच्ची सुन्दरता के एहसासों को अंतःकरण में उतरने दें।

सादर अभिवादन व धन्यवाद ।


Sunday, June 7, 2020

ग्लोबल वार्मिंग ( धरती के तापमान में वृद्धि),ग्लेशियर क्या हैं?, ग्लोबल वार्मिंग से समुद्री सतह के जल-स्तर में वृद्धि, तापमान वृद्धि का विश्व पर प्रभाव,आर्कटिक क्षेत्र के तापमान में वृद्धि,ग्लेशियर पिघलने के अन्य दुष्प्रभाव

   ●●● ग्लोबल वार्मिंग ( धरती के तापमान में वृद्धि ●●●
ग्लोबल वार्मिंग से धरती के अस्तित्व को भारी खतरा पैदा हो गया है ।ग्लोबल वार्मिंग मानव एवं प्रकृति के लिए भयावह है।ग्लोबल वार्मिंग के कारण वातावरण में घुलने वाली जहरीली गैसों की मात्रा सामान्य से अधिक हो गई है।भविष्य में इसके खतरे बढ़ सकते हैं।ग्लोबल वार्मिंग ने प्रकृति में अनगिनत पीड़ादायक एवं आश्चर्यजनक परिवर्तन किए हैं ।इनके अनेक भयावह दुष्परिणाम हुए हैं ।
                पिछले कई वर्षों से इसके बढ़ते दुष्प्रभाव का दर्द इसी मानवता ने देखे हैं ।सुनामी की भीषण तबाही इसी का परिणाम माना जाता है ।वस्तुतः प्रकृति में एक गहरी साम्यावस्था एवं सुव्यवस्था है ,प्रकृति का प्रत्येक घटक प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष रूप से आपस में जुड़ा हुआ है ।पारिस्थितिक तंत्र में इसे भोजन, ऊर्जा आदि क्रम के रूप में निरूपित एवं प्रतिपादित किया जाता है ।


ग्लोबल वार्मिंग से पारिस्थितिकी तंत्र की ये संवेदनशील कड़ियाँ आपस में टूटने , बिखरने, एवं दरकने लगती हैं और इसी का दुष्परिणाम अनेक प्राकृतिक प्रकोपों , महामारी , दुर्घटनाओं आदि के रूप में सामने आता है।ग्लोबल वार्मिंग से न केवल इन्सान ही प्रभावित है , बल्कि जड़ एवं जीव , सभी इसके दुष्प्रभाव से आक्रांत हैं ।ग्लोबल वार्मिंग हम मनुष्यों की बढ़ती स्वार्थपरता एवं शोषण का ही परिणाम है।

         ●●●ग्लेशियर किसे कहा जाता है ?●●●

सामान्य तौर पर बरफ के किसी विशाल भंडार को हिमनद कहा जाता है ।ग्लोबल वार्मिंग के प्रभाव से हिमनदों के अस्तित्व पर खतरा मँडराने लगा है ।ये हिमनद जल आपूर्ति के सतत स्रोत होने के साथ-साथ जलवायु चक्र में भी अहम भूमिका का निर्वाह करते हैं ।

सदियों से पृथ्वी के कुछ विशिष्ट स्थानों पर निरंतर हिमपात होते रहने से बरफ की जो ठोस परतें सतह, पर्वतों, घाटियों और समुद्रों के किनारे बन जाती हैं, इन्हें ही ग्लेशियर कहा जाता है ।ग्लेशियर अपने आकार , प्रकार एवं प्रकृति के आधार पर अनेक प्रकार के होते हैं ; जैसे --- ग्रीनलैंड, अंटार्कटिका, पृथ्वी ध्रुवों पर , माउंटेन ग्लेशियर्स आदि ।

      पृथ्वी की अधिकतर बरफ अर्थात 3.3 करोड़ घन किलोमीटर ( 90 प्रतिशत बरफ ) ग्रीनलैंड एवं अंटार्कटिका की बरफ की चादरों में विद्यमान है।धरती के ताजे पानी का 75 प्रतिशत भाग इन ग्लेशियरों में बरफीले रूप में विद्यमान है ।इतनी भारी मात्रा में पानी को ये अपने भीतर रखते हैं, अतः ये समुद्र के जल-स्तर की वृद्धि पर नियंत्रण करते हैं ।ग्लेशियरों को छूकर बहने वाली हवा पृथ्वी का तापमान नियंत्रित करने में सहायक होती है।

पृथ्वी के दोनों ध्रुव भी समस्त विश्व की जलवायु पर नियंत्रण करते हैं ग्लोबल वार्मिंग से ये ग्लेशियर पिघलने लगे हैं ।तापमान की वृद्धि से बरफ पिघलने की दर बढ़ और बारिश भी तेज होने लगती है।

 ●●ग्लेशियर पिघलने से समुद्री सतह के जलस्तर में वृद्धि●●

ग्लोबल वार्मिंग के कारण अधिक वर्षा और हिमपात से हिमशैलों का वजन इतना बढ़ जाता है कि वे सागर के नीचे चले जाते हैं और समुद्री सतह का जल-स्तर बढ़ जाता है ।हिमशैलों के पिघलने से भी समुद्री जल-स्तर बढ़ रहा है ।ग्लेशियर पिघलने के कारण समुद्र की मूलभूत संरचना में भारी उथल-पुथल एवं बदलाव होने लगता है ।

ग्लोबल वार्मिंग के विषय पर शोध करने वाले वैज्ञानिकों का मानना है कि पिछले कुछ दशकों में ही समुद्र का जल-स्तर काफी कुछ बढ़ गया है और उसका प्रमुख कारण है- हिमशैलों का पिघलना एवं नष्ट होना ।प्रसिद्ध साइंस 'नेचर' में प्रकाशित एक अध्ययन के अनुसार इससे तटीय सीमाएँ समाप्त हो सकती हैं, जो मानव जीवन के लिए खतरा हो सकता है।

●●ग्लोबल वार्मिंग से तापमान में वृद्धि का विश्व पर प्रभाव ●●

    जैसे-जैसे पृथ्वी के तापमान में वृद्धि होगी और तापमान यदि 3 से 4 डिगरी बढ़ेगा तो ग्लेशियर और पहाड़ों की बरफ भी पिघलेगी और इससे सम्पूर्ण विश्व प्रभावित होगा ।पहाड़ों और ग्लेशियर की बरफ पिघलेगी तो स्वाभाविक है कि इसका पानी मैदानी क्षेत्रों की ओर और कृषि भूमि की ओर बहेगा ।कई देशों पर इसका दुष्प्रभाव पड़ेगा ।कुछ देश बाढ़ से प्रभावित होंगे , जिससे विश्व में खाद्यान्न संकट गहरा सकता है।गरम हवाओं के चलने से फसलें नष्ट हो सकती हैं 

ग्लोबल वार्मिंग के कारण यदि तापमान में  4 से 5 डिगरी वृद्धि होती है तो ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन बढ़ सकता है।इससे साइबेरिया का बरफ रेगिस्तान पिघल सकता है इस कारण कई देशों के साथ सब ट्रापिकल क्षेत्रों में जीव-जन्तुओं एवं पेड़-पौधों की कई प्रजातियाँ लुप्त हो जाएँगी ।एंडीज, ऐल्प्स, राॅकी और माउंट एवरेस्ट जैसे शिखरों के श्वेत शुभ्र हिमनद पिघलकर बह सकते हैं ।सर्वेक्षण एवं अध्ययन से पता चला है कि औसत वैश्विक तापमान 5 करोड़ वर्षों में सबसे अधिक स्तर पर पहुँच चुका है।

बढ़ते तापमान से न केवल बड़े ग्लेशियर पिघल रहे हैं, बल्कि पृथ्वी की सतह के अन्दर की जमीन भी गल रही है ।इस कारण भूस्खलन की समस्याएँ बढ़ रही हैं ।ग्लेशियर की बरफ पिघलने से पृथ्वी पर दबाव कम होगा और इस कारण पहाड़ों के आकारों में परिवर्तन हो सकता है।

●● ग्लोबल वार्मिंग से आर्कटिक क्षेत्र के तापमान में वृद्धि●●

ग्लोबल वार्मिंग के कारण आर्कटिक क्षेत्र के तापमान में भी वृद्धि हुई है ।तापमान बढ़ने के कारण बरफ पिघलने से ये क्षेत्र भी रहने लायक नहीं रहेंगे ।यदि भविष्य में तापमान 6 डिगरी से ऊपर बढ़ा तो सामुद्रिक मीथेन हाइट्रेट की वजह से ग्लोबल वार्मिंग बढ़ेगी जो पृथ्वी की सतह के लिए हानिकारक है जिससे मानवीय अस्तित्व खतरे में पड़ सकता है ।पृथ्वी की अनेक प्रजातियों के लिए भी खतरा है।
पिछले एक दशक से आर्कटिक की लगभग 125 झीलें गुम हो गई हैं ।इन गुम होती झीलों के पानी से झील के नीचे का मजबूत धरातल नष्ट हो रहा है ।पिछले दशक से आर्कटिक में बायोलाॅजिकल बूम देखने में आ रहा है ।विभिन्न शोधों के अनुसार--- आर्कटिक की मिट्टी में क्लोरोफिल की मात्रा बढ़ी है ।

सामान्य रूप से आर्कटिक में उगने वाले पौधे वर्ष भर बरफ से ढके रहते हैं।कुछ वर्षों से वसंत ऋतु में ही बरफ के कारण यहाँ के पौधों में लेवी की बढोत्तरी होने लगी है ।आँकड़ों की मानें तो आर्कटिक क्षेत्र में घास कई सेंटीमीटर लंबी हो गई थी ।यह पर्यावरण की दृष्टि से अत्यंत चिंतनीय स्थिति है।बढ़ते तापमान का दुष्प्रभाव कैलिफोर्निया, दक्षिण अफ्रीका, आस्ट्रेलिया, चिली पर अधिक हो सकता है।यहाँ पर पेड़-पौधों की 20 प्रतिशत प्रजातियाँ स्थित हैं ।अतः इनकी विलुप्ति एवं नष्ट होने की आशंका बढ़ जाएगी।

     ●●●ग्लेशियरों के पिघलने के अन्य दुष्प्रभाव ●●●
       
                ग्लेशियरों के पिघलने से चक्रवातों की संख्या में भारी इजाफा होगा ।कई देशों में चक्रवाती तूफानों से काफी जन-धन की हानि हो जाती है ।अमेरिका के जंगलों में इसके दुष्परिणाम देखने में आ रहे हैं, जहाँ पिछले कई वर्षों से जंगलों में आग के मामले बढ़ रहे हैं ; विशेष रूप से मध्य यूरोप में वर्षा की कमी तथा सूखे के बढ़ते प्रभाव एवं जंगलों में लगी आग का कारण ग्लोबल वार्मिंग को माना जाता है ।जंगलों में आग लगने के कारण वहाँ धुँए के गुबार से कार्बन-डाइऑक्साइड का उत्सर्जन बढ़ गया है।इससे पेड़-पौधों की दुर्लभ प्रजातियाँ नष्ट होने लगी हैं ।

सन् 1900 में गिलहरी, चूहे, साँप आदि इकोसिस्टम के घटकों की संख्या पर्याप्त मात्रा में थी , परंतु 'नेचर' पत्रिका के अनुसार विश्वमें जीव-जन्तुओं की 1103 प्रजातियाँ हैं ।क्रिस थाॅमस के अनुसार इनमें से 15 से 36 प्रतिशत विलुप्ति के कगार पर हैं ।डाॅo थाॅमस यूनिवर्सिटी ऑफ यार्क में जीवविज्ञानी हैं ।उनका मानना है कि ये प्रजातियाँ अत्यन्त संवेदनशील होती हैं तथा ग्लोबल वार्मिंग की वजह से इनका विकास अवरुद्ध हुआ है।2050 तक कई प्रजातियाँ नष्ट हो जाएँगी।

बढ़ते तापमान से अनेक रोग भी बढ़ रहे हैं ।साँस सम्बन्धी रोग व आँखों में खुजली , दमा आदि रोगों के बढ़ने की सम्भावना है।इस प्रकार ग्लोबल वार्मिंग अनेक प्रकार की शारीरिक एवं मानसिक बीमारियों का कारण बन गई है ।ग्लोबल वार्मिंग से न केवल इन्सान ही प्रभावित है बल्कि जड़ एवं जीव , सभी इसके दुष्प्रभाव से आक्रांत हैं । आज यह हमारे एवं धरती के अस्तित्व के लिए खतरि बनकर मँडरा रही है ।यह हम मनुष्यों की बढ़ती स्वार्थपरता एवं शोषण का ही परिणाम है।

           पर्यावरण की वर्तमान परिस्थिति मानवकृत है अतः इसके
समाधान में इन्सान को ही भागीरथ प्रयास करना पड़ेगा ।पर्यावरण के प्रति जागरूकता पैदा कर परिस्थिति तंत्र को स्वस्थ रखने में सहायक बनना होगा ।धरती के तापमान में वृद्धि करने वाले कारणों को घटाना होगा तथा इसके विपरीत तापमान को कम करने वाले कारक , जैसे --- पेड़-पौधे लगाकर हरीतिमा संवर्द्धन आदि को बढ़ाना होगा। 

यह सम्पूर्ण विश्व की समस्या है सभी विश्व-वासियों को मिलजुलकर ग्लोबल वार्मिंग की समस्या के निपटने की कोशिश करनी पड़ेगी ।इसीसे इस वसुधा पर मानव जीवन खुशहाल हो सकता है।

सादर अभिवादन व धन्यवाद ।


Tuesday, June 2, 2020

इलेक्ट्रॉनिक कचरा ( ई- वेस्ट )क्या है ? भारत में इलेक्ट्रॉनिक कचरा, ई-वेस्ट पर्यावरण को कैसे दूषित करता है ,बढ़ते मोबाइल फोन, ई-वेस्ट निस्तारण के लिए स्थाई नीति जरूरी,


   ●●●इलेक्ट्रॉनिक कचरा ( ई-- वेस्ट ) क्या है ? ●●●
एक समय था , जब मानव जीवन एकदम सादा था ; क्योंकि तब सभी लोग पूर्ण प्राकृतिक जीवन जीते थे ; यहाँ तक कि बिजली का आविष्कार भी नहीं हुआ था ।रात्रि के समय दीपक जलाते थे ।
गर्मी के मौसम में प्राकृतिक हवा पर ही निर्भर रहते थे। 

आज का समय इलेक्ट्रॉनिक क्रान्ति का है ।तरह-तरह की इलेक्ट्रॉनिक सुविधाएँ हमें उपलब्ध हैं । आज हमारे जीवन को सुविधापूर्ण बनाने वाली इलेक्ट्रॉनिक्स वस्तुओं की लंबी सूची है , जैसे -- फैक्स मशीन, फोटो काॅपी, स्कैनर मशीन, डिजिटल कैमरे, लैपटॉप, आयपैड , प्रिंटर , इलेक्ट्रॉनिक खिलौने व गैजेट , एअर कंडीशनर, माइक्रोवेव कुकर , इन्डक्शन कुकर , फ्रिज, वाॅशिंग मशीन इत्यादि उपकरणों ने हमें सुविधापूर्ण जीने का लालच दिया है।लेकिन जब इन्हीं उपकरणों के पुराना होने पर या खराब होने पर ये हमारे कुछ काम के नहीं रहते , यही इलेक्ट्रॉनिक कचरे  ( ई - वेस्ट ) कहलाते हैं ।

ई-वेस्ट से वैसे तो किसी को कोई खास मतलब नहीं है, लेकिन जब यह बड़ी समस्या बनकर हमें नुकसान पहुँचाएगा , तब इसे नजरअंदाज करना मुश्किल होगा ।अभी तो सिर्फ सभी देशों का ध्यान विकास की ओर है ; क्योंकि इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों के प्रयोग से मनुष्य का जीवन बहुत आसान हो गया है । कंम्प्यूटर और मोबाइल फोन आदि से हम घर बैठे कई काम कर सकते हैं ।यहाँ तक कि ऑनलाइन कुछ भी खरीदा जा सकता है ।बाजारों और दुकानों में जाने की जरूरत अब नहीं रही।

   ●●● भारत में इलेक्ट्रॉनिक कचरा ( ई-वेस्ट )●●●

      वर्ष 2013 में इन्स्टीट्यूट ऑफ टेक्निकल एजुकेशन एंड रिसर्च ( आईटीईआर ) द्वारा  'मैनेजमेंट एंड हैंडलिंग ऑफ ई-वेस्ट'
विषय पर आयोजित सेमिनार में पर्यावरण एवं वन मंत्रालय के विज्ञानियों ने एक सर्वेक्षण के आधार पर यह बताया कि भारत में हर साल 8 लाख टन इलेक्ट्रॉनिक कचरा उत्पन्न हो रहा है ।

भारत में यद्यपि देश के 65 प्रमुख शहरों का योगदान है , परंतु , सबसे अधिक ई-वेस्ट देश की वाणिज्यिक राजधानी मुंबई में पैदा हो रहा है।इस बारे में संयुक्त राष्ट्र की एक रिपोर्ट के अनुसार-- चीन दुनिया का सबसे बड़ा ई-वेस्ट डंपिंग ग्राउन्ड है ; क्योंकि जो भी टीवी, फ्रिज , एअर कंडीशनर, मोबाइल फोन , कंम्प्यूटर आदि दुनिया में भेजे जाते हैं ; कुछ वर्षों बाद चलन से बाहर हो जाने और कबाड़ में तब्दील हो जाने पर वे सारे उपकरण मुख्यतया चीन और कुछ हद तक भारत में भी लौट आते हैं ।

 ●●● ई- वेस्ट पर्यावरण को कैसे दूषित कर सकता है ●●●

ई-वेस्ट हमारे पर्यावरण को बहुत नुकसान पहुँचा सकता है, यहाँ तक कि मानव जीवन पर संकट खड़ा कर सकता है।इसका अंदेशा इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि कबाड़ में फेंके गए मात्र एक मोबाइल फोन में इस्तेमाल हुआ प्लास्टिक और विकिरण पैदा करने वाले कल-पुरजे सैकड़ों साल तक नष्ट नहीं होते।सिर्फ एक मोबाइल फोन की बैटरी अपनी मौजूदगी से हजारों लीटर पानी को दूषित कर सकती है।

एक  पर्सनल कंम्प्यूटर में 3.8 पौंड घातक सीसा और फास्फोरस , कैडमियम व मरकरी जैसे तत्व होते हैं, जो जलाए जाने पर सीधे वातावरण में घुलकर अपना विषैला प्रभाव उत्पन्न करते हैं ।कंप्यूटरों की स्क्रीन के रूप में इस्तेमाल की जाने वाली कैथोड-रे पिक्चर ट्यूब भी जिस मात्रा में लेड ( सीसा ) पर्यावरण में उत्सर्जित करती है , वह भी काफी नुकसानदायक है।

    ●●● मोबाइल फोनों की बढ़ती संख्या ●●●

यह सत्य है कि आज बिना मोबाइल के एक दिन भी गुजारना मुश्किल हो जाता है।मोबाइल फोन आज की मुख्य आवश्यकता है।भारत में मोबाइल फोन इंडस्ट्री को अपने पहले दस लाख ग्राहक जुटाने में करीब वर्ष लग गए, लेकिन अब भारत में मोबाइल फोनों की संख्या इन्सानी आबादी के करीब पहुँचती दीख रही है।यह आँकड़ा इंटरनेशनल टेलीकम्यूनिकेशंस यूनियन ( आईटीयू) का है।इन आँकड़ों से यह तो स्पष्ट है कि अब भारत जैसे विकासशील देश में गरीब-से-गरीब परिवार भी संचार सेवाओं का लाभ ले रहे हैं ।

आईटीयू के अनुसार--- भारत, रूस, ब्राजील समेत करीब दस ऐसे देश हैं, जहाँ मानव आबादी के मुकाबले मोबाइल फोनों की संख्या ज्यादा है।रूस में करीब 25 करोड़ से अधिक मोबाइल फोन हैं, जो वहाँ की आबादी से 1.8 गुना ज्यादा हैं ।ब्राजील में 24 करोड़ मोबाइल फोन हैं, जो वहाँ की आबादी से 1.2 गुना ज्यादा हैं ।इसी तरह मोबाइल फोन धारकों के मामले में अमेरिका और रूस को पीछे छोड़ चुके भारत की यह स्थिति है कि करीब आधी आबादी के पास मोबाइल फोन हैं ।
 
●●● ई-वेस्ट के निस्तारण के लिए स्थाई नीति जरूरी●●●

ई-वेस्ट के कबाड़ के निस्तारण के लिए स्थाई नीति बनाने  की आवश्यकता है ।वैसे तो हमारे देश में ई-कबाड़ पर रोक लगाने वाले कानून हैं ।खतरनाक कचरा प्रबंधन और निगरानी नियम 1989 की धारा 11 (1) के तहत ऐसे कबाड़ की खुले में रीसाइक्लिंग और इसके आयात पर रोक है , लेकिन इन नियमों का पालन पूर्ण रूप से नहीं हो पा रहा ।

ब्रिटेन और अमेरिका जैसे विकसित देशों में ई-वेस्ट जैसी कोई समस्या नहीं है ; क्योंकि इन विकसित देशों ने ई-कचरे से निपटने के लिए पहले ही प्रबंध कर लिए हैं  और इसीलिए ये अपनी क्षमता से अधिक का ई-वेस्ट विकासशील देशों को निर्यात कर देते हैं ।हमारे देश में यह समस्या है कि हमारा खुद का ई-वेस्ट निकलता है  और फिर दूसरे देशों से भी आयात कर लेते हैं। इसलिए भविष्य में ई-वेस्ट के निस्तारण की अधिक समस्या आ सकती है ।

इस बारे में पर्यावरण स्वयंसेवी संस्था ग्रीनपीस ने अपनी एक रिपोर्ट  'टाॅक्सिक टेक, रिसाइक्लिंग इलेक्ट्रॉनिक वेस्ट इन चाइना एंड इंडिया'  में यह स्पष्ट किया है कि जिस ई-कबाड़ की रिसाइक्लिंग पर यूरोप में 20 डाॅलर का खरचा आता है, वही रिसाइक्लिंग भारत-चीन जैसे देशों में मात्र 4 ( चार ) डाॅलर में हो जाती है ।

जब तक समस्याएँ  सामने आकर खड़ी नहीं हो जातीं , मनुष्य इनके प्रति सजग नहीं होता है ।हमारी तरक्की हमारे लिए मुसीबत के दरवाजे न खोले और हमारा देश इलेक्ट्रॉनिक कचरे की समस्या न झेले , इसके लिए समय से पहले जागरूक होने की जरुरत है ।ताकि हम समय रहते इलेक्ट्रॉनिक सुविधाओं के कारण होने वाली समस्याओं से बच सकें ।

इलेक्ट्रॉनिक कचरा पर्यावरण के लिए बहुत खतरनाक हो सकता है ।प्लास्टिक की तरह यह भी नष्ट नहीं होता अतः इसके निस्तारण के सही तरीके अपनाने की जरूरत है।

सादर अभिवादन व धन्यवाद ।

Monday, June 1, 2020

'सूर्य' ---- शास्त्रों में सूर्यदेव की विविध उपमाएँ , सूर्योपासना से आध्यात्मिक लाभ व रोगों से मुक्ति, समस्त विश्व में अनादिकाल से सूर्योपासना

      ●●● शास्त्रों में सूर्यदेव की विविध उपमाएँ ●●●
शास्त्रों में सूर्यदेव को अनेक रूपों से अलंकृत किया गया है । "सूर्यो वै सर्वेषां देवानामात्मा" अर्थात सूर्य ही समस्त देवों की आत्मा है ।'सर्वदेवामय रविः' अर्थात सूर्य सर्वदेवमय हैं।मनुस्मृति के अनुसार-  ' सूर्य से वर्षा , वर्षा से अन्न और अन्न से प्राणी का जन्म होता है।पौराणिक कथाओं के अनुसार सूर्य महर्षि कश्यप के पुत्र होने के कारण ' काश्यप ' कहलाए ।उनका लोकावतरण महर्षि की पत्नी अदिति के गर्भ से हुआ, अतः सूर्य का नाम 'आदित्य' भी लोकविख्यात एवं प्रसिद्ध हुआ।उपनिषदों में आदित्य को ब्रह्म के रूप में दर्शाया गया है ।

ऋग्वेद में सर्वव्यापक ब्रह्म तथा सूर्य में समानता का स्पष्ट रूप से बोध होता है ।यजुर्वेद सूर्य और भगवान में भेद नहीं करता ।कपिला तंत्र में सूर्य को ब्रह्मांड के मूलभूत पंचतत्वों में से वायु का अधिपति घोषित किया गया है ।हठयोग के अंतर्गत श्वास ( वायु ) को प्राण माना गया है और सूर्य इन प्राणों का मूलाधार है , अतः 
' आदित्यो वै प्राणः '  कहा गया है ।स्कंद पुराण में सविता की गायत्री के साथ एकरूपता- समरूपता प्रदर्शित की गई है।

      योगसाधना में प्रतिपादक मणिपूर चक्र को "सूर्य चक्र" भी कहते हैं । भविष्योत्तर पुराण में कृष्ण-अर्जुन के संवाद में सूर्य को त्रिदेवों के गुणों से विभूषित किया गया है ।इस संवाद के अनुसार सूर्य उदयकाल में ब्रह्मा, मध्यान्हकाल में महेश्वर और सांयकाल में विष्णु रूप हैं ।शतपथ ब्राह्मण में  'असौ व आदित्यो देवः'  सविता कहकर सूर्यदेव की प्रतिष्ठा की गई है।

छांदोग्योपनिषद्  'आदित्यो ब्रह्म' कहता है तो तैत्तिरीयारण्यक 
'असावादित्यो ब्रह्मः'  की उपमा देता है ।अथर्ववेद की भी यही मान्यता है ।अथर्ववेद के अनुसार आदित्य ही ब्रह्म का साकार 
स्वरूप है ।हमारा नाभिकेन्द्र ( सूर्य चक्र ) प्राण का उद्गम स्थल ही नहीं बल्कि अचेतन मन के संस्कारों तथा चेतना का संप्रेषण केन्द्र 
भी है।सूर्य इस चराचर जगत में प्राणों का प्रबल संचार करते हैं--
' प्राणः प्रजानामुदयत्येषं सूर्यः।' 

सूर्य भगवान को मार्तण्ड भी कहते हैं, क्योंकि ये जगत को अपनी ऊष्मा तथा प्रकाश से ओत-प्रोत कर जीवनदान देते हैं ।सूर्यदेव कल्याण के उद्गम स्थान होने के कारण शंभु कहलाते हैं ।भक्तों का दुःख दूर करने अथवा जगत का संहार करने के कारण इन्हें त्वष्टा भी कहते हैं ।सूर्यदेव किरणों को धारण करने वाले हैं इसलिए ये अंशुमान् के नाम से भी जाने जाते हैं ।

 ●● सूर्योपासना से आध्यात्मिक लाभ व रोगों से मुक्ति ●●

●सूर्योपासना से आध्यात्मिक लाभ---   भारतीय सूर्योपासना के मूल में आध्यात्मिक लाभ ,शारीरिक स्वास्थ्य एवं भौतिक लाभ का भाव निहित हे।सूर्य कालचक्र के महाप्रणेता हैं ।सूर्य से ही दिन-रात , मास, अयन एवं संवत्सर का निर्माण होता है ।भारतीय संस्कृति में किसी वार का प्रारंभ सूर्योदय से ही होता है।

योगशास्त्र में पतंजलि उल्लेख करते हैं कि  "भुवनज्ञानं सूर्य संयमात्"  अर्थात  "सूर्य का ध्यान और उपासना करने से समस्त संसार का स्पष्ट ज्ञान हो जाता है । वैदिक साहित्य में सूर्यदेव की महिमा-गरिमा का भावभरा गायन किया गया है।

सनातन संस्कृति में प्रातःकाल सूर्यदेव को अर्ध्य समर्पण करने का विधान है।उगते हुए सूर्य के दर्शन करने से भी आध्यात्मिक लाभों का अनुदान मिलता है।गायत्री उपासक प्रातः गायत्री मंत्र का जाप करते हुए सूर्योपासना करते हैं ।नियमित सूर्य दर्शन करते हुए गायत्री मंत्र का जप करने से भी चमत्कारिक लाभ होते हैं ।

यदि हम अपने शास्त्रों का अध्ययन करें तो पता चलता है कि भगवान राम, भगवान कृष्ण आदि सभी नियमित सूर्योपासना करते रहे हैं ।सूर्य समस्त जगत की आत्मा है , सूर्य से ही यह सृष्टि संचालित होती है।नियमित सूर्योपासना से साधक की आंतरिक शक्ति में वृद्धि होती है ।

 ●सूर्योपासना से रोगों से मुक्ति----   सूर्योपासना कई रोगों से मुक्ति दिलाती है।सूर्य की दिव्य किरणों में कुष्ठ तथा अन्य चर्मरोगों के कीटाणुओं को नष्ट करने की अपार क्षमता एवं शक्ति सन्निहित है ।ऋग्वेद में सूर्य की रश्मियों को हृदयरोग तथा पीलिया की चिकित्सा में लाभकारी बताया गया है ।कुष्ठरोग का शमन भी सूर्यदेव की कृपा से हो जाता है ।श्रीकृष्ण एवं जांबवती के पुत्र सांब सूर्य की उपासना से ही रोग मुक्त हुए थे।

कृष्ण यजुर्वेदीय  'चाक्षुषोपनिषद्' में सभी प्रकार के नेत्ररोगों से मुक्ति का उपाय सूर्योपासना को बताया गया है ।तंत्र शास्त्र की यह मान्यता है कि नित्य सूर्य नमस्कार करने पर सात पीढ़ियों से चली आ रही महादरिद्रता दूर हो जाती है ।सूर्य नमस्कार स्वयं में सूर्य आराधना भी है और स्वास्थ्य का व्यायाम भी ।इससे अनेक प्रकार की बीमारी एवं विकृतियों का निराकरण एवं शमन होता है।

सूर्य रश्मियाँ नदी की निर्मल धारा के समान पावन हैं, जो अपने संपर्क-सान्निध्य में आने वाले हरएक व्यक्ति को तेजस्विता, प्रखरता
एवं पवित्रता से भर देतीं हैं ।सूर्य को आरोग्य का देवता कहा गया है और उसकी किरणों को पवित्र,तेजस्वी एवं अक्षत माना गया है ।
'आरोग्यं भास्करादिच्छेत्' से स्वतः ही विदित होता है कि सूर्य आरोग्य प्रदान करने वाले देवता हैं ।यह आरोग्य केवल शरीर के धरातल तक ही सीमित नहीं है, वरन् मानसिक एवं आत्मिक स्तर पर प्रभाव छोड़ने में समर्थ एवं सक्षम है।अतः सूर्योपासना सभी रूपों में लाभदायक है।
  
●●● समस्त विश्व में अनादिकाल से सूर्योपासना ●●●

सूर्योपासना भिन्न-भिन्न रूपों में अनादिकाल से भारतवर्ष में ही नहीं, बल्कि समस्त विश्व के विभिन्न भागों में भक्ति एवं श्रद्धापूर्वक की जाती रही है।अमेरिका के रेड इंडियनों द्वारा आबाद क्षेत्रों में अनेक सूर्य मन्दिर पाए जाते हैं ।हवाई द्वीप , जापान, दक्षिण अमेरिका तथा कैरिबियन द्वीपों में कई प्रकार की सूर्यगाथाएँ प्रचलित हैं, जो बताती हैं कि सूर्य सबका उपास्य रहा है।

जापान सूर्य पूजक राष्ट्र है तथा दिनमान का आगमन सर्वप्रथम उसी देश से हुआ माना जाता है ।चीन के विद्वान सूर्य को  'यांग' मानते हैं ।बौद्ध जातकों में सूर्य का प्रसंग वाहन के रूप में स्थान-स्थान पर आया है तथा अजवीथि, नागवीथि एवं गोवीथि नाम के मार्गों के आधार पर उसकी तीन मतियाँ मानी गई हैं ।

इस्लाम में सूर्य को  'इल्म अहकाम अननजुमे'  का केन्द्र माना गया है ।अर्थात सूर्य इच्छाशक्ति को बढ़ाने वाली चैतन्य सत्ता का प्रतीक है ।ईसाई धर्म में न्यूटेस्टामेंट में सूर्य के धार्मिक महत्व का विशद एवं विस्तृत वर्णन है।सेंटपाल ने इसीलिए रविवार का दिन पवित्र घोषित कर इस दिन प्रभु की आराधना व दान करने को अत्यन्त फलदायी माना है।ग्रीक और रोमन विद्वानों ने भी रविवार को पूजा का दिन स्वीकार किया है।

यद्यपि कालचक्र के दुष्प्रभाव से वर्तमान समय में सूर्योपासना का महत्व उतना नहीं रह गया है परंतु धर्मप्रधान भारतवर्ष में सनातन धर्म को मानने वाले लोग आज भी किसी-न-किसी रूप में सूर्य को देवता मानकर उनकी पूजा-अभ्यर्थना करते हैं ।

  "हे सूर्यदेव तुमको प्रणाम,  हे सूर्यदेव तुमको प्रणाम"

सादर अभिवादन व धन्यवाद । 

आध्यात्मिकता का अर्थ, आध्यात्मिकता का संबंध अंतर्यात्रा से, आध्यात्मिक जीवन की कसौटियाँ, आध्यात्मिकता द्वारा परमात्मा की अनुभूति

         ●●● आध्यात्मिकता  का अर्थ ●●●

        आध्यात्मिक होने का अर्थ है कि व्यक्ति अपने अनुभव के धरातल  यह जाने कि वह स्वयं अपने आनंद का स्रोत है ।आध्यात्मिकता का वास्तविक संबंध व्यक्तित्व की अतल गहराई से है।आध्यात्मिकता की निधि उनके लिए है , जो जीवन के हर आयाम को पूर्ण जीवंतता के साथ जीते हैं और हर पल सजग व सक्रिय रहते हैं ।

 आध्यात्म का विषय ही मनुष्य के आंतरिक जीवन से जुड़ा हुआ है ।मनुष्य की वे सभी गतिविधियाँ जो मनुष्य को परिष्कृत,निर्मल बनाती हैं, आनंद से भरपूर करती हैं, पूर्णता का एहसास देती हैं, स्वयं का परिचय कराती हैं---- वे सब आध्यात्म के अंतर्गत आती हैं ।

लोगों ने अभी तक अध्यात्म व आध्यात्मिकता का सही अर्थ नहीं समझा है ।अधिकांश लोग यह समझते हैं कि आध्यात्मिकता का अर्थ है -- अभावग्रस्त जीवन जीना व स्वयं को कष्ट देना अर्थात आध्यात्मिकता जीवन-विरोधी व जीवन से पलायन है ; जबकि आध्यात्मिकता मूलतः व्यक्तित्व के सर्वांगीण विकास की प्रक्रिया है।
   ●●● आध्यात्मिकता का संबंध अंतर्यात्रा से ●●●

आध्यात्मिकता का संबंध मनुष्य के आंतरिक जीवन से है और इसकी शुरुआत होती है -- उसकी अंतर्यात्रा से ।मनुष्य पूरी दुनिया में भ्रमण करता है लेकिन अंतर्यात्रा नहीं करता तथा अपने अंतर में प्रवेश ही नहीं कर पाता ।विरले ही होते हैं, जो इस अंतर्यात्रा में प्रवेश के अधिकारी होते हैं, इसके लिए सत्पात्र होते हैं। सामान्य जन आध्यात्मिक जीवन की पात्रता की कसौटी को जाने बिना ही अध्यात्म के मार्ग को कठिन समझ लेते हैं ।

बाहरी वेशभूषा व रहन-सहन से आध्यात्मिकता का कोई लेना-देना नहीं है ।आध्यात्मिक प्रक्रिया व्यक्ति की एक ऐसी अंतर्यात्रा है जिसमें निरंतर परिवर्तन घटित होता है और  इन परिवर्तनों के कारण उपजे उतार-चढ़ाव को सहने के लिए भी तैयार रहना चाहिए ।इसी कारण जो व्यक्ति आध्यात्मिक डगर पर आगे बढ़ते हैं, उनमें अदम्य साहस, सशक्त मन , स्वस्थ शरीर व संतुलित भावनाओं का होना जरूरी है।

अंतर्यात्रा के माध्यम से हम अपने व्यक्तित्व में जन्म-जन्मांतरों से पड़ी हुई गाँठों को खोल पाते हैं और अपने जीवन लक्ष्य को प्राप्त कर पाते हैं ।आध्यात्मिक मार्ग अपनाकर हम अपने बंधनों से मुक्त हो सकते हैं , स्वतंत्र हो सकते हैं  , स्वाधीन हो सकते हैं ।
 
                 आध्यात्मिकता न तो वैज्ञानिक क्रिया है और न ही सामाजिक ।यह शत-प्रतिशत हमारे अस्तित्व से संबंधित है।जब हम किसी कार्य में पूरी तन्मयता से डूब जाते हैं तो वहीं पर आध्यात्मिक प्रक्रिया की शुरुआत हो जाती है ; क्योंकि किसी चीज को सतही तौर पर जानना सांसारिकता है और उसे गहराई तक जानना आध्यात्मिकता है।

       ●●● आध्यात्मिक जीवन की कसौटियाँ ●●●

आध्यात्मिक जीवन की बहुत सी कसौटियाँ हैं , लेकिन कुछ ऐसी प्रमुख बातें हैं, जिन्हें जानकर यह  आंकलन किया जा सकता है कि हमारे अंदर आध्यात्मिकता का कितना अंश है ? जैसे किए जाने वाले कार्यों का उद्देश्य स्वार्थ न होकर परमार्थ है , तो यह आध्यात्मिकता की राह है ।यदि व्यक्ति अपने अहंकार, क्रोध , नाराज़गी, लालच, ईर्ष्या और पूर्वाग्रहों को गला चुका है तो समझ लो , वह आध्यात्मिक जीवन की डगर पर बढ़ रहा है ।

व्यक्ति की बाहरी परिस्थितियाँ चाहे जैसी भी हों, पर यदि वह आंतरिक रूप से प्रसन्न रहता है तो इसका अर्थ है कि वह आध्यात्मिक जीवन को महसूस करने लगा है।यदि वह इस विशाल सृष्टि के सामने स्वयं को नगण्य और क्षुद्र मानने का एहसास कर पाता है तो वह आध्यात्मिक बन रहा है।

व्यक्ति के पास जो कुछ भी है , उसके लिए यदि वह सृष्टि या परमसत्ता के प्रति कृतज्ञता महसूस कर पाता है तो वह आध्यात्मिकता की ओर बढ़ रहा है । व्यक्ति में अपने संबंधियों के प्रति जितना प्रेम उमड़ता है , उतना ही अन्य सभी लोगों के लिए उमड़ता है तो वह आध्यात्मिक है।

 ●● आध्यात्मिकता द्वारा अदृश्य परमात्मा की अनुभूति ●●

आध्यात्मिक व्यक्ति को अपना संबंध परमात्मा से बनाना चाहिए ; क्योंकि वे ही एकमात्र पूर्ण हैं, जो उसके जीवन को पूर्णता की ओर ले जा सकते हैं ।परमात्मा यद्यपि प्रत्यक्ष दिखाई नहीं देते, लेकिन व्यक्ति अपनी पवित्र भावनाओं के माध्यम से उन अदृश्य परमात्मा तक पहुँच सकता है और सतत उनके सान्निध्य को प्राप्त कर सकता है।

ज्ञानी जन कहते हैं कि " शून्य में विराट समाया है और इस विराट में भी शून्य है ।"  जो इस शरीर में ही रहकर परमात्मा के इस विराट रूप को समझ पाता है , उसे अनुभव कर पाता है , वही आध्यात्मिक है ।आध्यात्मिक दृष्टिकोण ही मनुष्यों को सही राह दिखा पाने में सक्षम है और यही हम सबके जीवन जीवन का ध्येय होना चाहिए ।

एक संसारी मनुष्य केवल सांसारिक कार्यों को कर पाने में सक्षम होता है  ; जबकि आंतरिक संतुष्टि के लिए उसे दूसरों पर निर्भर रहना पड़ता है ।इसके विपरीत एक आध्यात्मिक व्यक्ति अपनी आंतरिक संतुष्टि स्वयं अर्जित करता है और मात्र सांसारिक कार्यों के लिए संसार पर निर्भर रह सकता है ।

  "आध्यात्मिक मार्ग ही सर्वश्रेष्ठ और सर्वोत्तम है ।"