हिमालय का सौन्दर्य अलौकिक, शाश्वत व सनातन है। हिमालय प्रकृति का विस्तार है वह आकाश को छू लेने की अभिलाषा है, हिमालय ऐसा स्थान है जहाँ से क्षितिज थोड़ा और स्पष्ट होता है।लगता है कि 'ईश्वर' सारे ऐश्वर्य व खूबसूरती के साथ हिमालय में विद्यमान है। ऋग्वेद के महान ऋषियों ने हिमालय की महिमा का गान किया है, उसका स्तवन किया है।श्वेत, हिम से ढका हुआ उत्तुंग शिखरों वाला हिमालय सृष्टि का पूर्वज है।
हिमालय आध्यात्म चेतना का ध्रुव केंद्र है।"वाइब्रेंट पाॅवर हाउस ऑफ स्प्रिचुअल एनर्जी है यह"। उत्तराखंड को श्रेय जाता है हिमालय का हृदय कहाने का। ' हिमालयानाम् नगाधिराज पर्वतः।'
सदियों से हिमालय की कन्दराओं व गुफाओं में ऋषि- मुनियों का वास रहा है, वे यहाँ समाधिस्थ होकर तपस्या करते हैं ।हिमालय की पर्वतश्रंखलाएँ 'शिवालिक' कहलाती हैं ।
वनों के सारे सरोकार हिमालय से ही हैं ।वन से आच्छादित हिमालय ही हमारे देश की प्राणवायु व पानी का सबसे बड़ा कारक है।हिमालय ' हिम' का ही नहीं ' हम' सबका आलय अर्थात घर है।यह देश का मुकुट ही नहीं देश का प्राण है।अपनी जिस सभ्यता पर हमें गर्व है, वह हिमालय की और उससे निकलीं नदियों की ही देन है।
नारद पुराण में कहा है -- ' शैलानां हिमवन्तो च'अर्थात पर्वतों में हिमालय भगवान् का रूप है। श्री मद्भगवद्गीता-- 10/25 में भगवान् श्रीकृष्ण हिमालय को अपना ही रूप बताते हैं ---
यज्ञानां जपयज्ञोऽस्मि स्थावराणां हिमालयः। अर्थात सब प्रकार के यज्ञों में मैं जप यज्ञ और स्थिर रहने वालों में हिमालय पर्वत हूँ ।
'कैलाश' हिमालय का ही पावनतम शिखर है, जिस पर भवानी और शंकर निवास करते हैं ।गोस्वामी तुलसीदास जी ने लिखा है-
परम रम्य गिरिवर कैलासू।
सदा जहाँ शिव उमा निवासू।।
हिमालय कोई सामान्य शिलाखंड या पर्वत मात्र नहीं है।यह चैतन्य है,दैवी सृष्टि है। यह विश्व के पर्वतों में सर्वोच्च है।यह भारत के ऋषियों, मनीषियों की संसद है तथा एक आध्यात्मिक प्रयोगशाला है।कविवर कालिदास ने अपनी रचना ' कुमारसंभव' का प्रारम्भ ही हिमालय की महिमा से किया है--
"अस्त्युत्तरस्यां दिशि देवतात्मा हिमालयो नाम नगाधिराजः।"
कालिदास आगे लिखते हैं-- मनीषिताः सन्ति गृहेषु देवताः।अर्थात-
हिमालय में समस्त देवताओं का वास है।
महाकवि कालिदास ने कहा है -- 'हिमालय अनेक रत्नों का जन्मदाता है (अनन्तरत्न प्रभवस्य यस्य), ।उसकी श्रंखलाओं में जीवन औषधियाँ उत्पन्न होती हैं ।(भवन्ति यत्रौषधयो रजन्याय तैल पुरत सुरत प्रदीपः),वह पृथ्वी में रहकर भी स्वर्ग है ( भूमिर्दिवभि वारूढं)।
हिमालय की गुफाओं से युगों- युगों से वेद की ज्योतिर्मय ऋचाएँ प्रस्फुटित होती व गुंजायमान होती रही हैं ।यहाँ नीलवर्ण अमृतजल से भरे ब्रह्मसरोवरों व ब्रह्मकमलों को देखकर साधकों को योगनिद्रा व सहज समाधि लगती है।पूर्णिमा की चाँदनी रात में हिमालय में बैठकर तप- साधना करने का भाव-ध्यानआध्यात्मिक ऊर्जा से ओतप्रोत कर सकता है।
हिमालय में ही महर्षि व्यास ने महाभारत जैसे आध्यात्मिक कोष की रचना की ।आद्यशंकराचार्य को ब्रह्मज्योति यहीं के ज्योतिर्मठ में मिली।उन्होंने बद्रीनाथ धाम में भगवान् विष्णु एवं केदारनाथ तीर्थ में भगवान् भोलेनाथ के ज्योतिर्मय रूप को स्थापित किया।
गौरीशंकर, कृष्णशैल, धौलागिरी, कंचनजंघा, पंचाचुली, केदारनाथ, नीलकंठ जैसे हिमालय के विराट शिखर सारे संसार को सत्य, शान्ति, करुणा व प्रेम का शाश्वत संदेश देते हैं तो वहीं दूसरी ओर गंगा, यमुना, सरस्वती, सिंधु, झेलम, रावी, गंडकी आदि इसकी आत्मजा नदियाँ भारत को शस्य- स्यामल ही नहीं बल्कि भारत को महान भारत, देवभूमि व जीवन तीर्थ भी बनाती हैं ।भारत की इस पुण्यधरा पर जन्म लेना भी बहुत सौभाग्य माना जाता है।
राष्ट्र कवि रामधारीसिंह 'दिनकर' हिमालय को भारत का भाल कहकर पुकारते हैं--
मेरे नगपति ! मेरे विशाल !
साकार दिव्य, गौरव विराट !
पौरुष के पुंजीभूत ज्वाल !
मेरी जननी के हिमकिरीट !
मेरे भारत के दिव्य भाल !
वहीं जयशंकर प्रसाद जी ' कामायनी ' में अपनी भावनाएँ व्यक्त करते हैं---
उमड़ रही जिसके चरणों में
नीरवता की विमल विभूति।
शीतल झरनों की धाराएँ
बिखरती जीवन - अनुभूति।।
हिमालय के शिखर पर छिटक- छिटककर आ रहीं भगवान भास्कर की उषाकालीन स्वर्णिम रश्मियों में स्नान करते हुए, जप, तप करने का भाव- ध्यान किसी को सदा- सदा के लिए भाव- समाधि में भिगो सकता है।
हिमालय के शस्य- स्यामल मुग्धकारी रूप- लावण्य का क्या कहना! हिमालय के कण- कण में, अणु- अणु में, जर्रे- जर्रे में दिव्य चेतना व दैवी शक्तियों का वास है, इसलिए यह धरती का स्वर्ग और आध्यात्म चेतना का ध्रुव केंद्र है।
सादर अभिवादन व धन्यवाद ।
Nice
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