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Wednesday, December 25, 2019

वाणी ----हमारे मन का दर्पण , हमारे व्यक्तित्व की पहचान, बैखरी वाणी , मध्यमा वाणी, पश्यंती वाणी , परा वाणी

            ●●●  वाणी, हमारे मन का दर्पण ●●●
                         "बोली सुन्दर भाषा सुन्दर 
                         प्रभु सबका जीवन हो सुन्दर "
ईश्वर द्वारा मनुष्य को दिया गया सबसे अनुपम उपहार वाणी है।वाणी की ओजस्विता व तेज से व्यक्ति का व्यक्तित्व झलकता है।जिस प्रकार  संगीत वाद्य-यंत्र की पहचान उसके स्वर से होती है, उसी प्रकार मनुष्य की पहचान उसकी वाणी से होती है।बोलने का अंदाज, वाणी में झलकता भाव सुनने वाले व्यक्तियों पर अपना प्रभाव डालता है।

वाणी मनुष्य के अन्दर से स्वर रूप में प्रकट होती है।वाणी की इसी विशेष अभिव्यक्ति के कारण ही रंगमंच व फिल्म उद्योग बने, जहाँ वाणी व अभिनय के माध्यम से कलाकार जीवन के विभिन्न- विभिन्न पहलुओं के दृश्यों का अंकन करते हैं, समाज को प्रेरित व प्रभावित करते हैं ।

 वाणी के माध्यम से व्यक्ति अपने विचारों व भावों को प्रकट कर सकता है तथा अपनी प्रसन्नता व दुख को भी बता सकता है।वाणी का प्रभाव बड़ा गहरा होता है।वाणी की कठोरता मन को चुभ जाती है, लेकिन इसकी मधुरता औषधि का काम करती है।वाणी के माध्यम से व्यक्ति अपनी गीत- संगीत की कुशलता का प्रदर्शन करता है ।

हालाँकि वाणी के साथ- साथ व्यक्ति के चेहरे की भावभंगिमा आदि भी महत्वपूर्ण होती है, लेकिन शब्दों के जानकार केवल वाणी सुनकर ही व्यक्ति के विषय में बहुत कुछ जान जाते हैं ।वाणी एक तरह से धनुष से छोड़े हुए तीर के समान मुख से बाहर निकलती है और मन के भावों के अनुसार सामने वाले मनुष्य पर अपना असर डालती है।मुँह से एक बार जो बात बाहर आ गई वह वापस नहीं ली जा सकती।अतः हम सभी को बोलने में सदा सतर्कता बरतनी चाहिए ।

         जिस प्रकार विभिन्न जीव-जन्तु अपने स्वरों को नहीं बदल सकते अपने स्वभाव को नहीं बदल सकते, उसी प्रकार मनुष्य भी अपने बोलने की शैली को व स्वभाव को सामान्य तौर पर नहीं बदल पाते ।चूँकि मनुष्य का जीवन जीव- जंतुओं से अलग व उच्च स्तर का है, उसमें सोचने-समझने-विचारने की शक्ति है इसलिए यदि उसे कोई सीख मिलती है या प्रेरणा मिलती है तो वह अपनी वाणी व स्वभाव को बदलने की कोशिश करता है।

जब कोई क्रोध में बोलता है तो उसका स्वर बदल जाता है, लेकिन वही व्यक्ति जब शान्त व प्रसन्न मुद्रा में होता है तो उसकी वाणी मधुर होकर वातावरण में शान्ति व आनन्द बिखेरती है।वाणी के बल पर मनुष्य किसी को भी अपना मित्र बना सकता है तो किसी को भी अपना शत्रु बना सकता है ।प्रभावशाली बातचीत एक दुर्लभ गुण है।   
     
       ●●● वाणी हमारे व्यक्तित्व की पहचान ●●●

        मधुर वाणी से ही हमारा व्यक्तित्व श्रेष्ठ बनता है।हमारी वाणी हमारे मन का दर्पण है ।हमारी वाणी से ही हमारा परिचय मिलता है।कम और सुन्दर शब्दों में कही गई बात हमारे चिंतन को सम्पूर्ण करती है व विचारों को प्रभावशाली भी बनाती है ।वाणी से व्यक्तित्व की आंतरिक सामर्थ्य उजागर होती है, व्यवहार कौशल प्रकट होता है।
        " अनुपम ईश्वरीय उपहार है वाणी"
पूर्व राष्ट्रपति डाॅ राधाकृष्णन का कहना था कि  " भविष्य बनाने के लिए बातचीत की कला में निपुणता से अच्छी कोई डिग्री नहीं हो सकती ।

मनुष्य का सारा चिंतन वाणी पर आधारित है।दर्शन शास्त्र भी  विचारों की प्रस्तुति उत्तम वाणी के माध्यम से करने की बात कहता है।सारे विश्व से मैत्री की इच्छा रखने वाले विश्वामित्र की प्रार्थना है कि " अमृतं मे आसनं अर्थात मेरी वाणी में अमृत हो।" बुद्धिमान लोग कम व मधुर बोलते हैं ।उनका विश्वास बोलने के बजाय करने में अधिक होता है।महर्षि पतंजलि ने चित्तशुद्धि के लिए 'योगसूत्र' लिखे, शरीर शुद्धि के लिए चरक रूप में 'वैद्यक' लिखा और वाक्शुद्धि के लिए "व्याकरण- महाभाष्य" लिखा।
         
●●● ऋषियों द्वारा वाणी के चार भाग ●●●

वैदिक युग के ऋषियों ने वाणी को चार भागों में विभाजित किया है-- वैखरी वाणी, मध्यमा वाणी, पश्यंती वाणी और परा वाणी।

 वैखरी वाणी----- यह हमारी प्रतिदिन की बोलचाल की भाषा है।बहुत से लोग बिना सोचे- समझे इसका प्रयोग करते हैं और बोल-चाल में  कुछ बातें ऐसी भी होती हैं, जिनको बोलने के लिए बहुत सोचने - विचारने की आवश्यकता नहीं होती ।जैसे हम अपने घर में सामान्य व्यवहार, बर्ताव में बोलते हैं ।

मध्यमा वाणी----- मध्यमा वाणी वह है , जो सोच- विचार कर बोली जाती है।घर के बाहर  हमें सभी के साथ सोच- विचार कर ही बोलना होता है।

पश्यंती वाणी---- पश्यंती वाणी वह है , जो हृदयस्थल से बोली जाती है ।यह वाणी गहन, निर्मल, निश्छल और रहस्यमय होती है, इसे बोलने के लिए शब्दों की आवश्यकता नहीं होती ।इसमें मौन रहकर भी हृदयस्थल से वार्तालाप हो जाता है।

परा वाणी---- परा वाणी दैवीय होती है।यह निर्विचार की अवस्था में बोली गई वाणी होती है।जब मन शून्य अवस्था में हो और उस समय किसी दैवीय शक्ति का अवतरण हो , तो यह वाणी प्रकट होती है।जैसे--- "श्री मद्भगवद्गीता" में भगवान् ने अर्जुन को उपदेश दिया था , वह परा वाणी में दिया गया उपदेश है।

भक्ति मार्ग कहता है, कि वाणी से हरि का नाम लेते रहना चाहिए अर्थात् साधक का शरीर संसार के कार्यों में लगा रहे लेकिन वाणी में सदा प्रभु का नाम रहे।
        " नाम जपते रहें, काम करते रहें "
जिस वाणी को धारण करने से संसार में यश प्रतिष्ठा होती है और जिससे मनुष्य पंडित विद्वान कहलाता है , उसे वाक् कहते हैं ।
नाम जपते - जपते हमारी जिह्वा परिष्कृत हो जाती है।परिष्कृत जिह्वा में वह शक्ति रहती है , जिसके बल पर मंत्र भी प्रचंड व प्रभावशाली हो उठता है।इसी परिष्कृत जिह्वा को " सरस्वती" कहते हैं ।

                              वाणी , मनुष्य के चिंतन का उद्गार भी है और साधन भी है।चिंतन के बग़ैर वाणी प्रभावपूर्ण नहीं हो सकती और वाणी के बग़ैर चिंतन भी प्रतिफलित नहीं हो सकता है।मनुष्य जीवन का समाधान वाणी के संयम और उसके सदुपयोग पर निर्भर है।मधुर वाणी बोलने वालों के मित्र भी अधिक होते हैं ।

गोस्वामी तुलसीदास जी कहते हैं कि-'
          राम नाम मनिदीप धरु, जीह देहरीं द्वार ।
          तुलसी भीतर बाहेरहुँ, जौं चाहसि उजियार ।।

अर्थात अंतर की आत्मा और बाहर का जगत , इन दोनों के मध्य यह वाणी  देहरी के समान है अंदर और बाहर , दोनों ओर यदि प्रकाश चाहिए, तो वाणी की इस देहरी पर राम- नाम का मणिदीपक रख देना चाहिए, जो कभी बुझता नहीं, स्वयं प्रकाशित रहता है, जो अपना उजियारा अंदर भी फैलाता है और बाहर भी।  

  मनुष्य शरीर  सभी का एक समान है, लेकिन वाणी से मनुष्य की पहचान होती है; क्योंकि वाणी मनुष्य के मन का दर्पण है ।वाणी से ही इस बात का परिचय मिल जाता है कि व्यक्ति कैसे मन का और कैसे स्वभाव का है।इस बात का ध्यान रखते हुए हमें मधुर वाणी में बोलना चाहिए, ताकि हमारा व्यक्तित्व भी श्रेष्ठ बना रहे।

आज से ही हम मधुर वाणी का अभ्यास करें और अपने जीवन को श्रेष्ठता की ओर अग्रसर करें ।


सादर अभिवादन व धन्यवाद ।




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