head> ज्ञान की गंगा / पवित्रा माहेश्वरी ( ज्ञान की कोई सीमा नहीं है ): मौन---मौन आत्मा का सर्वोत्तम मित्र है, मौन सर्वोत्तम भाषण है।

Saturday, December 21, 2019

मौन---मौन आत्मा का सर्वोत्तम मित्र है, मौन सर्वोत्तम भाषण है।


                              ●● मौन ●●
मौन आत्मा का सर्वोत्तम मित्र है, इसलिए मौन रहने पर ही हम अपने सबसे करीब होते हैं , अंतर्मुखी होते हैं और बोलने पर बहिर्मुखी हो जाते हैं अर्थात मौन के पलों में हम स्वयं से संवाद कर पाते हैं, जब कि बोलने में हम दूसरों से संवाद करते हैं ।वाणी का संयम केवल बाह्य मौन है और मन का मौन अंतःमौन , जब कि वास्तविक मौन वह है जिसमें मन व वाणी दोनों ही पूरी तरह शान्त हों।

               मौन हमारे जीवन के बहुत सारे प्रश्नों का उत्तर है और और इन उत्तरों को जानने का एक ही तरीका है-- कि हम मौन रहने का अभ्यास करके इन उत्तरों को हासिल करें ।अक्सर हम अपने अंतर्मन की उपेक्षा करके बाहर की गतिविधियों में मन रमाते हैं, दूसरों की त्रुटियों की ओर ध्यान देकर अपने लक्ष्य से भटकते हैं।

मौन रहते हुए दैनिक साधना, स्वाध्याय, संयम, सेवा आदि के कार्य भी सरलता से किए जा सकते हैं ।जहाँ जरूरी हो वहाँ अवश्य बोलना चाहिए, सारगर्भित शब्दों में स्वयं को अभिव्यक्त करना चाहिए ।सामान्य जीवन में मौन का पूरी तरह पालन करना संभव नहीं हो पाता, इसलिए इस बात का ध्यान रखें कि जितना आवश्यक है,उतना ही बोलें बाकी समय यथासंभव मन को शान्त रखें ।

    बोलना सुन्दर कला है लेकिन मौन इससे भी ऊँची कला है, मौन सर्वोत्तम भाषण है।जहाँ एक शब्द से काम चले वहाँ दो बोलने की जरूरत ही नहीं ।अनावश्यक बोलने में जितनी गलतफहमियाँ होती हैं, उतनी मौन से नहीं होतीं ।निरर्थक बोलना बहुत थकाने वाली प्रक्रिया है ।जब लोग इतने पढ़े- लिखे नहीं और बुद्धिजीवी नहीं थे तब कम बोलते थे , जो सच्चा भाव होता था उसे ही कहा करते थे।

           जिस प्रकार नदियों की उलझती लहरों में कभी भी यह नहीं देखा जा सकता कि उनके तल में क्या छिपा है उसी प्रकार वाचाल ( अधिक बोलने वाला) व्यक्ति भी अपने मन के अन्दर छिपी पड़ी शक्तियों की क्षमताओं से अनभिज्ञ रहता है । 

जो मौन रहकर स्वयं के बारे में चिंतन मनन करता है , स्वयं को जानने का प्रयास करता है, वही एकांत के आनन्द को अच्छी तरह से अनुभव कर पाता है।अकेले में ही आत्मसाक्षात्कार संभव है।
जिसे आध्यात्म का अनुभव मिल जाता है , वह तो बस मौन हो जाता है और उसके इस मौन में भी आध्यात्म ही अभिव्यक्त होता है।

●मौन का अर्थ है----- कम बोलना और जितना आवश्यक है उतना बोलना ।व्यक्ति की आधे से अधिक शक्ति वाणी का प्रयोग करने में व्यर्थ हो जाती है इसलिए जितना संभव हो सके , मौन रहना चाहिए ।जब भी हमें किसी कार्य को गंभीरता के साथ, एकाग्र मनःस्थिति से करना होता है,तो हम एकांत तलाशते हैं, जहाँ पर कोई हमारे कार्य में दखल न दे सके और हम शांत चित्त से, मौन रहकर अपना कार्य कर सकें ।

जब हम मौन धारण करते हैं तो सहज ही प्रकृति का अंश बन जाते हैं; क्योंकि प्रकृति में तो सर्वत्र मौन व्याप्त है और मौन रहकर प्रकृति भी निरंतर गतिशील रहती है ।जीवन की खोज, जीवन के उद्देश्य एवं समझ की पहचान, जीवन रस का आस्वादन कभी भी भीड़ में सम्भव नहीं है ।भीड़ में भला कोई जीवन रहस्य की खोज कैसे कर सकता है--

एक महान विचारक ने कहा है ------- कि वार्तालाप भले ही बुद्धि को मूल्यवान बनाता हो, किन्तु मौन "प्रतिभा की पाठशाला" है।जिस तरह शान्त नदी का जल इतना स्वच्छ व पारदर्शी होता है कि उसके जल में क्या है, वह आसानी से देखा जा सकता है, उसी प्रकार शान्त मन भी व्यक्ति के सामने अपने विशाल जखीरे को प्रकट करने लगता है।आचार्य विनोबा कहते थे ----" मौन और एकांत आत्मा के सर्वोपरि मित्र हैं ।"

             मौन के बाहर की दुनिया मन की दुनिया है; जब कि मौन की दुनिया, आत्मा की और प्रकृति के रहस्यों की दुनिया है ।संसार में जितने भी तत्वज्ञानी हुए हैं, सभी मौन के साधक रहे हैं ।सभी ज्ञानी महात्मा, संत , साधक एकांत में मौन रहकर ही अपनी साधना सिद्ध कर सके।एकांत एवं मौन ही जीवन के रहस्य को समझने एवं अपने लक्ष्य तक पहुँचने का एकमात्र साधन एवं समाधान है।

महात्मा गाँधी जी  के लिए मौन एक प्रार्थना के समान था , जो उनके लिए आध्यात्मिक सुख लेकर आता था।संत एमर्सन का कहना था ---" आओ हम मौन रहें ताकि फ़रिश्तों की कानाफूसियाँ सुन सकें ।" तीर्थंकर महावीर स्वामी बारह वर्ष तक एकांत में रहकर गहन मौन रहे ।मौन ही उनका साथी, सहचर था।महर्षि अरविन्द सन्  1910  में पांडिचेरी गए थे ।वहाँ सन् 1950  में उन्होंने शरीर का त्याग किया ।इन चालीस वर्षों में वे प्रायः एकांत में मौन ही रहे।

भगवान् बुद्ध जब सत्य की खोज के लिए निकले तो वर्षों तक उन्होंने तरह- तरह की साधनाएँ व उपाय किए, किन्तु सत्य नहीं मिला ।अंततः वह मौन के सरोवर में डूबे और सत्य का मोती पा लिया।बाद में उनके अनुयायियों ने जब उनसे परमात्मा के बारे में प्रश्न किया तो यह 'मौन'  ही उनका उत्तर था ।महर्षि रमण ने  भी मौन रहकर ही अपनी महत्वपूर्ण साधनाओं को संपन्न किया।

                     एकांत और मौन का प्रभाव कितना विलक्षण है, "महाकवि सूर्यकांत त्रिपाठी निराला" की भावांजलि में गहनता से अनुभव अनुभव किया जा सकता है-----
       बैठ लें कुछ देर
       आओ, एक पथ के पथिक से
        प्रिय, अंत और अनंत के
         तम गहन जीवन घेर।
          सरल अति स्वच्छ 
          जीवन प्रात के लघु पात से
          उत्थान पत्नाधात से
          रह जा, चुप निर्द्वन्द्व 
        
मौन के माध्यम से शान्ति का साम्राज्य फैलेगा ।मौन के माध्यम से हम साधना जगत में प्रवेश कर पाएँगे और अध्यात्म जगत के रहस्यों का अनावरण भी कर पाएँगे ।अकेले में ही हम परम शान्त और मौन हो सकते हैं, और अकेले में ही हम उस द्वार को खोज सकते हैं, जो 'परमात्मा का द्वार' है। थियोसोफी के जन्मदाताओं के अनुसार मौन रहने की स्थिति में दैवी वाणी सुनने का अवसर मिलता है।

                     जब हम शान्त और मौन बैठे होते हैं, तब ही अन्तरात्मा की वाणी सुनाई देती है, परमात्मा का स्वर निखर उठता है।मौन साधना का वह पथ है , जिस पर चलकर व्यक्ति के आन्तरिक विकास का पथ खुलता है और ऊर्जा का संरक्षण होता है।मौन व्यक्ति को साधना की अतल गहराइयों में ले जाता है, व्यक्ति को स्थिर व एकाग्र करता है।

                               आध्यात्मिक जीवन में मौन का बहुत महत्व बताया गया है; क्योंकि मौन के माध्यम से हमें एकाग्र रहने में सहायता मिलती है।मौन के माध्यम से ही आध्यात्मिक जीवन की शुरुआत होती है ।आध्यात्मिक जीवन में रुझान रखने वाले लोग अपनी दिनचर्या में मौन को शामिल करते हैं और मौन के समय वे पूरी तरह से शांत चित्त रहते हैं ।

              जितना अधिक व्यक्ति का मौन सधने लगता है , उसकी क्षमताएँ उतनी ही बढ़ती चली जाती हैं । मौन रहने व कम बोलने से न केवल हमारी वाणी का संयम होता है अपितु इससे हमारी जीवनी शक्ति का भी संचय होता है।मौन रहने से भी अभिव्यक्तियाँ प्रकट होती हैं, इसके लिए किसी भाषा की जरूरत नहीं होती ।बिना भाषा के ही मौन अपना प्रभाव दिखाता है।

जो व्यक्ति अपने मुख व जीभ पर संयम रखता है , वह अपनी आत्मा को कई संतापों से बचा लेता है, आदिकाल से ही मौन की महिमा गाई गई है ।मौन रहकर ही अपनी गतिविधियों, क्रियाओं व व्यवहारों का सूक्ष्म विश्लेष्ण किया जा सकता है ।आत्मनिरीक्षण, आत्मविश्लेषण मौन रहकर ही संभव है।मौन हमें कई बार व्यर्थ के विवादों से बचा लेता है ।

मौन को आत्मा का सर्वोत्तम मित्र मानकर हम सभी अपने जीवन में मौन का अभ्यास करना सीखें; क्योंकि स्वयं को जानने का यही एकमात्र रास्ता है ।श्रुति कहती है कि- स्वयं को जानो और अमृतत्व में लीन हो जाओ।

सादर अभिवादन व धन्यवाद ।


3 comments:

  1. स्वयं‌ को जानो‌ और अमृत्व में लीन‌ हो जाओ
    एक और बहुत ही अच्छे ब्लाग के लिए धन्यवाद आपका 🙏

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  2. सादर अभिवादन व जय श्री कृष्ण
    सादर धन्यवाद ।

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  3. जितना अधिक मौन सधने लगता है, उसकी क्षमताएं उतनी ही बढ़ती चली जाती है....
    जितनी बार पढ़ो अच्छा लगता है
    धन्यवाद परम आदरणीया 🙏

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