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Friday, October 30, 2020

चन्द्रशेखर आजाद-जीवन परिचय, बचपन की निर्भीकता, क्रांति के पथ की शुरुआत, चंद्रशेखर की गिरफ्तारी,चन्द्रशेखर की सहनशीलता, लोकप्रिय नेता कैसे बने ?

       ●●●चन्द्रशेखर आजाद का जीवन परिचय ●●●
आजादी पाने के लिए देश की बलिवेदी पर बलिदान होने वालों में एक प्रमुख क्रांतिकारी चन्द्रशेखर आजाद थे।चन्द्रशेखर आज़ाद का जन्म 22 जुलाई 1906 को श्रावण मास में शुक्ल पक्ष की द्वितीया को सोमवार के दिन अलीराजपुर ( मध्यप्रदेश ) के भाँवरा गाँव में हुआ ।अत्यन्त सुन्दर व तेजस्वी होने के कारण उसका नामकरण उसके गुण, रूप के अनुरूप रखा गया " चन्द्रशेखर " ।

     चन्द्रशेखर का जन्म कट्टर सनातनधर्मी ब्राह्मण परिवार में हुआ था ।उनके पिता नेक, धर्मनिष्ठ और ईमानदार थे और उनमें अपने पांडित्य का कोई अहंकार नहीं था ।वे बहुत स्वाभिमानी और दयालु प्रवृत्ति के थे ।घोर गरीबी होने के कारण  चन्द्र शेखर की  शिक्षा-दीक्षा नहीं हो पाई लेकिन पढ़ना-लिखना उन्होंने गाँव के ही एक बुजुर्ग श्री मनोहर लाल त्रिवेदी से सीख लिया था, जो उन्हें घर पर निःशुल्क पढ़ाते थे ।

 ●● चन्द्रशेखर के बचपन की निर्भीकता का एक प्रसंग ●●

बचपन से ही चन्द्रशेखर निर्भीक थे ।एक बार दीवाली के समय चन्द्रशेखर रंगीन रोशनी करने वाली माचिस की एक-एक तीली जलाते और उसकी लौ को कुतूहल की दृष्टि से देखते ।उनके संगी साथी भी यह देख रहे थे ।

चन्द्रशेखर ने अपने मित्रों से कहा -- " जब एक तीली जलाने पर इतनी रोशनी होती है तब सारी तीलियाँ एक साथ जलाने पर कितनी रोशनी होती होगी ? " चन्द्रशेखर ने मित्रों से कहा कि इन सब तीलियों को एक साथ जलाए कौन ? किसी भी मित्र की हिम्मत नहीं हुई , सभी के मन में डर था ।चन्द्रशेखर ने निर्भीकता से कहा -- " देखो मैं जलाकर दिखाता हूँ " ।

ऐसा कहकर चनद्रशेखर ने सारी तीलियाँ एक साथ जला दीं।तीलियाँ फक्क से जल उठीं और तेज रोशनी हुई ।ऐसा करने पर चन्द्रशेखर का हाथ भी जल गया , लेकिन वह रोया नहीं ।उनके साथियों को लगा कि चन्द्रशेखर अपने घाव के इलाज के वक्त शायद रोए , परंतु उन्हें आश्चर्य हुआ जब चन्द्रशेखर ने हँसते-हँसते, उसी निर्भीकता के साथ अपने हाथ की पट्टी कराई।चन्द्रशेखर के बचपन की निर्भीकता की ऐसी अन्य घटनाएँ भी हैं ।

    ●●● चन्द्रशेखर के क्रांति के पथ की शुरुआत ●●●

            बचपन से ही चन्द्रशेखर के मन में भारतमाता को अंग्रेजों से स्वतंत्र कराने की भावना कूट-कूटकर भरी हुई थी ।इसी कारण उन्होंने अपना नाम आजाद रख लिया था ।उनके जीवन की एक महत्वपूर्ण घटना ने उन्हें सदा के लिए क्रांति के पथ पर अग्रसर कर दिया ।

                13 अप्रैल 1919 को जलियाँवाला बाग अमृतसर में जनरल डायर ने जो नरसंहार किया , उसके विरोध में तथा रौलट एक्ट के विरुद्ध जो जन-आंदोलन प्रारंभ हुआ था , वह आंदोलन दिन-प्रतिदिन जोर पकड़ रहा था ।उस आदोलन के तहत बनारस के दशाश्वमेध घाट वाले जुलूस में चन्द्रशेखर अपने साथियों के साथ शामिल हुए ।

                         जलियाँवाला बाग के नरसंहार के विरुद्ध जन-आंदोलन के दौरान प्रिस ऑफ वेल्स बंबई आए , वे जहाँ-जहाँ गए , वहाँ-वहाँ भारतीयों ने उनका वहिष्कार किया ।जब राजकुमार बनारस पहुँचने वाले थे , तो वहाँ उनके वहिष्कार के लिए जुलूस निकाला ।उसी जुलूस में चन्द्रशेखर थे ।पुलिस वाले जुलूस को तितर-बितर करने के लिए लाठी घुमाते हुए आ रहे थे ।लाठी के प्रहार से बचने के लिए चन्द्रशेखर के साथी इधर-उधर हो गए।केवल चन्द्रशेखर ही अपने स्थान पर निडर खड़े रहे ।इसी आंदोलन से चन्द्रशेखर की क्रांति यात्रा शुरु हुई ।

          ●●● चन्द्रशेखर की गिरफ्तारी ●●●

बनारस के दशाश्वमेध घाट वाले जुलूस के समय कुछ आंदोलनकर्ता , जो एक विदेशी कपड़े की दुकान पर धरना दे रहे थे , उन पर पुलिस का एक दरोगा डंडे बरसाने लगा ।इस अत्याचार को देखकर चंद्रशेखर ने पास पड़ा एक पत्थर उठाकर दरोगा के माथे पर दे मारा । दरोगा घायल होकर गिर गया, लेकिन चंद्रशेखर को ऐसा करते हुए एक सिपाही ने देख लिया और चंद्रशेखर को गिरफ्तार कर लिया ।गिरफ्तारी से चंद्रशेखर जरा भी भयभीत नहीं हुए ।

चन्द्रशेखर की गिरफ्तारी के बाद पुलिस वालों ने उनके कमरे की तलाशी ली तो उनके कमरे में, लोकमान्य तिलक, लाला लाजपत राय, महात्मा गाँधी समेत अन्य राष्ट्रीय नेताओं के चित्र मिले , जिसके आधार पर पुलिस वालों ने चन्द्रशेखर पर राष्ट्रदोह का आरोप लगा दिया । दिसम्बर की कड़ाके की ठंड में हवालात में बन्द कर दिया , ओढ़ने-बिछाने के लिए बिस्तर भी नहीं दिया । 

पुलिस ने सोचा कि ठंड से घबराकर यह लड़का माफी माँग लेगा, किंतु ऐसा नहीं हुआ ।आधी रात के समय पुलिस इंस्पेक्टर ने चंद्रशेखर की कोठरी का ताला खोला तो वह इंस्पेक्टर यह देखकर आश्चर्यचकितहो गया कि चंद्रशेखर उठक-बैठक लगा रहे थे और कड़कड़ाती ठंड में भी पसीने से नहा रहे थे ।

●● मजिस्ट्रेट के सामने चंद्रशेखर आजाद की निडरता ●●

बनारस में गिरफ्तारी के अगले दिन चन्द्रशेखर को न्यायालय में मजिस्ट्रेट के सामने ले जाया गया । उन दिनों बनारस में एक कठोर स्वभाव का मजिस्ट्रेट नियुक्त था ।पुलिस वालों ने 15 वर्षीय चन्द्रशेखर को मजिस्ट्रेट के सामने पेश किया ।

मजिस्ट्रेट के चन्द्र शेखर से पूछा --"तुम्हारा नाम ?" ।बालक ने निर्भीकता से उत्तर दिया -- "आजाद"। "पिता का नाम ?" --- मजिस्ट्रेट ने कड़े स्वर में पूछा ।ऊँची गर्दन किए बालक ने तुरन्त उत्तर दिया ---- "स्वाधीन" । युवक का साहस देखकर न्यायाधीश क्रोध से भर उठा ।उसने फिर पूछा --- " तुम्हारा घर कहाँ है ? " इस प्रश्न पर चंद्रशेखर ने गर्व से उत्तर दिया--- " जेल की कोठरी "।न्यायाधीश ने क्रोध में आकर चंद्रशेखर को 15 बेंत लगाने की सजा दी ।

        ●●● चंद्रशेखर की सहनशीलता ●●●

बेंत लगाने के लिए चंद्रशेखर को जेल ले जाया गया ।बनारस का जेलर भी बड़े क्रूर स्वभाव का व्यक्ति था ।कोड़े लगवाने के लिए उसने चंद्रशेखर को एक तख्ते से बँधवा दिया और जल्लाद को आदेश दिया और चंद्रशेखर पर तड़ातड़ बेंत पड़ने लगे ।शरीर पर जबरदस्त पड़ने वाली बेंतों कि मार भी चंद्रशेखर की मुस्कराहट और चेहरे पर चमचमाते देशभक्ति के तेज को न छीन सकी ।हर बेंत पर वह ' भारतमाता की जय' और वंदे मातरम् ' का नारा लगाते रहे ।

यह सब देखकर वह जेलर झुँझला उठा और बोला --- "किस मिट्टी का बना है यह लड़का ?" पास खड़े जेल के अन्य अफसर और उपस्थित लोग भी चंद्रशेखर की सहनशक्ति देखकर आश्चर्यचकित हो गए । 

      ●●●चंद्रशेखर लोकप्रिय नेता कैसे बने ●●●

15 बेंतों की सजा के पश्चात, जेल के नियमानुसार तीन आने पैसे , जेलर ने चंद्रशेखर को दिए, लेकिन चंद्रशेखर ने वह पैसे लेकर जेलर के मुँह पर ही फेंक दिए ।घावों पर जेल के डाॅक्टर ने दवा लगा दी , फिर भी खून बहना बन्द नहीं हुआ ।वह किसी तरह पैदल ही घिसटते हुए जेल से बाहर निकले ,लेकिन अब तक चंद्रशेखर की वीरता की कहानी बनारस के घर-घर में पहुँच गई थी और जेल के दरवाजे पर शहर के लोग फूल-मालाएँ लेकर चंद्रशेखर का स्वागत करने के लिए पहुँच चुके थे ।

बनारस के लोगों ने जेल के दरवाजे पर फूल-मालाएँ पहनाकर चंद्रशेखर का स्वागत किया और उन्हें अपने कंधों पर उठा लिया ।इसके साथ ही इन नारों से आकाश गूँज उठा --- 'चंद्रशेखर आजाद की जय ' ; भारतमाता की जय ' ; 'महात्मा गाँधी की जय ' ।इसके अगले दिन बनारस से प्रकाशित होने वाले  'मर्यादा' नामक समाचारपत्र में एक लेख चंद्रशेखर की फोटो सहित  "वीर बालक आजाद"  शीर्षक से प्रकाशित हुआ। जिसके संपादक बाबू संपूर्णानंद थे । इस तरह 15 बेंतों की सजा ने किशोर अवस्था में ही चंद्रशेखर को एक लोकप्रिय नेता के रूप में प्रसिद्ध कर दिया ।

●● भारतमाता की आजादी के लिए प्राणों का बलिदान ●●  

चंद्रशेखर को मिलने वाली सजा दर्दनाक व क्रूर अवश्य थी, लेकिन इस घटना के बाद भारतमाता के प्रति श्रद्धा और बलवती हुई , उनके मन में  देश आजाद कराने की क्रांति की चिनगारियाँ अब   आग के रूप में परिवर्तित होने लगीं ।अब उनके जीवन का सिर्फ एक ही संकल्प शेष रह गया और वह था ---- देश को अंग्रेजों की गुलामी से आजाद कराना ।

पंद्रह वर्ष की आयु में घटी यह घटना उनके जीवन का महत्वपूर्ण अध्याय थी जिसके कारण वह चंद्रशेखर तिवारी से चंद्रशेखर 'आजाद' बने और स्वतन्त्रता आंदोलन के क्रांतिकारियों में गिने जाने लगे ।हृष्ट-पुष्ट शरीर, दृढ़ प्रतिज्ञ व स्थिर एकाग्र मन वाले आजाद बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे ।

कम उम्र में ही चंद्रशेखर आजाद अनेकानेक युवाओं तथा भगत सिंह, सुखदेव जैसे क्रांतिकारियों के लिए प्रेरणा का स्रोत बने और मातृभूमि की स्वतंत्रता के लिए अपने जीवन की आहुति देकर अपने संकल्प को पूरा किया ।

सादर अभिवादन व धन्यवाद ।







Thursday, October 22, 2020

मैत्रीभाव( मित्रता) क्या है ? वृक्षों से मैत्री भाव , वृक्षों के गुण, वृक्षों की चेतना ध्यान साधना में सहयोगी

           ●●● मैत्री भाव ( मित्रता ) क्या है ? ●●●
मैत्री अपने आप में एक गहन भाव है ।मैत्री का भाव हमें कई दुर्गुणों से यानी ईर्ष्या, द्वेष और वैमनस्य जैसे अनेक दोषों से मुक्त करता है और हमारी चेतना को अनंत विस्तार देता है।मैत्री का भाव हमें स्वार्थ एवं अहं से भी मुक्त करता है। मानव जीवन की पीड़ा एवं अनेक समस्याओं का कारण यही है कि हम मनुष्यों के अंदर मैत्रीभाव कमजोर है।

पुराण कथाओं में, संस्कृत के काव्यों में, नाटकों में जितनी पुरातन कथाएँ हैं, उन सबमें जब ऋषियों का, उनके आश्रमों का वर्णन होता है तो उसमें सबसे अधिक वर्णन मैत्रीभाव का ही होता है अर्थात आश्रमों में जीवजन्तु परस्पर मैत्रीभाव से रहते थे ।

महर्षि कण्व के आश्रम के बारे में कालिदास कहते हैं कि ऋषि कण्व के आश्रम में जो वैर करने वाले जीव-जन्तु थे , वे भी प्रेम से , मैत्री भाव से रहते थे । आश्रम में प्रेम का , शांति का , अहिंसा का और मैत्री का वातावरण था ।सच्ची मित्रता एक तरह से ईश्वरीय भाव हैं ।ये मनुष्य को देवत्व से ओत-प्रोत कर देते हैं ।मन जब उदार होता है , मन जब बड़ा होता है तो उसमें मित्रता का भाव पैदा होता है।

              मैत्री का भाव हमें सहज ही निश्चिंत बनाता है ।मैत्री का भाव हमें सहज ही चिंतामुक्त करता है । हम कल्पना करें कि जब पुरातन काल में, ऋषि-महर्षि तपश्चर्या करते होंगे, घोर अरण्य में, भीषण वन में-- तो क्या वहाँ हिंसक जीवजन्तु नहीं रहते होंगे ? रहते होंगे ।जब साधना करते होंगे, तप करते होंगे तो क्या वन में रहने वाले दस्य और हिंसक  मनुष्य वहाँ नहीं रहते होंगे ? रहते होंगे ।लेकिन वे भी उनके साथ प्रेमपूर्ण होकर रहते होंगे ।

            'अभिज्ञानशाकुन्तलम्' में महाकवि कालिदास कहते हैं कि जब शकुन्तला, ऋषि कण्व के आश्रम से विदा हो रहीं थीं, तो किस तरह वृक्ष, लताएँ उनको आलिंगन करने लगे ।वहाँ के पशु- पक्षी ( हिरन, खरगोश)  उनके प्रति अपनत्व जताने लगे ।इस तरह मैत्री का एक प्रगाढ़ वातावरण ऋषि कण्व के आश्रम में था ।

         ●●● वृक्षों से मैत्री भाव (मित्रता) ●●●

वृक्षों से मित्रता एक तरह से प्रकृति के साथ सामंजस्य व तालमेल का प्रतीक है , वृक्षों  के साथ मैत्री भाव जीवन को सहज व प्राकृतिक बनाता है ।वृक्ष से मित्रता इस बात का प्रतीक है कि हम प्रकृति के साथ, अस्तित्व के साथ --- संपूर्णता के साथ जीना पसन्द करते हैं , इसके साथ ही हमारे विचारों में व्यापकता आने लगती है।

   वृक्षों के रूप में प्रकृति हमें बहुत कुछ प्रदान करती है - भोजन, वस्त्र , लकड़ी , फल इत्यादि सभी कुछ वृक्षों से ही प्राप्त होता है ।वृक्षों के साथ प्रकृति ने एक तरह से हमारी सहजीविता रखी है ।जो विषैली हवा हम उत्सर्जित करते हैं, वृक्ष उसे जीवनदायी हवा ( ऑक्सीजन) में परिवर्तित कर देते हैं ।

जो फलदार वृक्ष हैं, वे फल देते हैं, जो पुष्प वाले वृक्ष हैं, वे पुष्प प्रदान करते हैं ।छाया तो सभी वृक्ष देते हैं ।वृक्षों का सब कुछ दूसरों के लिए ही है।

वृक्षों से मैत्री बड़ी अद्भुत है; वृक्ष सभी से मित्रता करते है।वृक्षों में शत्रुता का भाव है ही नहीं ।वृक्षों की शीतल छाया सबके लिए है , वृक्ष बिना किसी भेदभाव के सबको अपना आश्रय देते हैं ।वृक्षों से जो मैत्री का भाव जड़- चेतन का भेद मिटा देता है । उपनिषद् कहते हैं --  सर्वं खल्विदं ब्रह्म । सब कुछ परमात्मा ही है।

आज वृक्षों से मित्रता खो देने के कारण ही पर्यावरण संकट में है , मानव जीवन में अनेक शारीरिक रोगों की वृद्धि हो रही है ।पुरातन काल में, ऋषिकाल में, वेदकाल में वृक्षों में हम देवी-देवताओं का वास मानकर उनकी पूजा करते थे ।वृक्षों में सूक्ष्म शक्तियों का वास मानते थे ।

          वृक्षों के साथ, वनस्पतियों के साथ नवग्रह की चेतना जुड़ी रहती है ।जैसे - अर्क वृक्ष सूर्य का प्रतीक है ।शमी वृक्ष में शनि की चेतना का वास है , आदि-आदि ।पीपल के वृक्ष में भगवान विष्णु का वास है तो बरगद के वृक्ष में भगवान शिव का वास है, यह वृक्ष शिवत्व को प्रदर्शित करता है ।इस तरह बड़ी स्वाभाविक, बड़ी सघन मित्रता है हमारी, वृक्षों के साथ ।

                ●●● वृक्षों के गुण ●●●

●  1 स्थिरता ---   वृक्षों का पहला गुण है - स्थिरता।वृक्ष सदा स्थिर  रहते हैं ।
●  2 शांति  -----   वृक्ष कभी अशांत और उत्तेजित नहीं होते, शांत रहते हैं ।
●  3 ऊर्ध्वगामिता -- वृक्षों की चेतना सदा ऊर्ध्वगामी  रहती है, वृक्ष हमेशा ऊपर की ओर बढ़ते हैं ।
●  4  प्रकाश धारण करने की क्षमता--- वृक्ष प्रकाश को धारण करते हैं, प्रकाश को ग्रहण करते हैं, प्रकाश ही उनके पोषण का कारण बनता है ।आज का विज्ञान भी यह मानता है कि प्रकाश की सहायता से वृक्ष क्लोरोफिल बनाते हैं और क्लोरोफिल उनको पोषण देता है ।जितना पोषण वृक्ष अपनी  जड़ों से प्राप्त करते हैं, उतना ही पोषण उन्हें प्रकाश से भी प्राप्त होता है ।प्रकाश को धारण करने की क्षमता वृक्षों में सबसे अधिक है।
●5  प्रसन्नता---  वृक्षों का एक यह भी गुण है कि वृक्ष अपनी प्रसन्नता झूम करके , एक अद्भुत नृत्य करके अभिव्यक्त करते हैं ।
● 6 परोपकारिता ----     वृक्ष कभी अपना फल स्वयं नहीं खाते ।वृक्षों का जीवन दूसरों के लिए ही है।वे सभी को उदारता के साथ अपनी शीतल छाया प्रदान करते हैं ।जो वृक्षों को काटने का प्रयास करता है ,उसे भी वह अपनी शीतल छाया का सुख प्रदान करते हैं।
 ● 7 आश्रयदाता ---- वृक्ष सहज रूप से सभी को आश्रय देते हैं ।वृक्षों की छाया में कोई भी विश्राम कर सकता है ।वृक्षों की डालियों पर अनेक पक्षियों का बसेरा होता है।उनकी छाया तले  कोई भी विश्राम कर सकता है ।वृक्षों के नीचे पशु विश्राम करते हैं, मनुष्य विश्राम करते हैं ।इस तरह वृक्षों की डालियाँ और डालियों की छाया , अपने आप में आश्रयप्रदाता हैं ।

    ●●● वृक्षों की चेतना ध्यान साधना में सहयोगी ●●●
वृक्षों में कुछ ऐसी चेतना है , जो ध्यान साधना में सहयोगी है,जो  ध्यान साधना को गति प्रदान करती है, सुपथ प्रदान करती है।जब हम आध्यात्मिक कथाएँ व पुराणकथाएँ पढ़ते हैं तो पाते हैं कि अधिकांश साधकों की साधना वृक्षों के सान्निध्य में सम्पन्न हुई है।

ऐसा माना जाता है कि पीपल के पेड़ के नीचे ध्यान सबसे ज्यादा प्रगाढ़ होता है।कई साधकों का अनुभव है, कि पीपल किसी भी रूप में आस-पास हो तो साधना जल्दी सिद्ध होती है।विजय कृष्ण गोस्वामी अपने शिष्यों को सिखाते थे कि पीपल नहीं हो तो कोई बात नहीं, यदि हम पीपल वृक्ष का एक पत्ता भी अपने हाथ में या गोद में रखकर करें तो ध्यान जल्दी लगने लगता है।

                    भगवान बुद्ध की साधना भी पीपल के वृक्ष के नीचे सम्पन्न हुई थी ।निरंजना नदी के पास पीपल की छाँह में, पीपल के नीचे बैठकर उन्होंने बोधि ज्ञान प्राप्त किया था ।साधुओं ने, संतों ने, ध्यानियों ने ,ध्यान सिद्धों ने अपनी साधना वन में की और सिद्धियाँ प्राप्त कींऔर अपने ज्ञान से मानव जाति का कल्याण किया ।

वृक्षों से मैत्री, वृक्षों से तादात्म्य, वृक्षों के साथ जुड़ाव मनुष्य को सच्चा साधक बना देता है ।इसीलिए वृक्षों से मैत्री बड़ा पवित्र भाव है , जो मनुष्य के ध्यान को प्रगाढ़ बनाता है।

वृक्षों से मैत्री ध्यान का एक उन्नत प्रतीक है, ध्यान की एक श्रेष्ठ भावना है ।यह जड़- चेतन को एकाकार करने की भावना है ।प्रकृति से तादात्म्य करने की भावना है ।इसी मैत्रीभाव से हम वृक्षोंके सद्गुण अपना सकते हैं ।

सादर अभिवादन व धन्यवाद ।



Sunday, October 18, 2020

योग क्या है? योग-परम्पराओं की तीन मुख्य धाराएँ

                  ●●● योग क्या है ●●●
भारतीय चिंतकों एवं विशारदों ने भिन्न-भिन्न समयों पर योग की जो परिभाषाएँ दी हैं, यदि उन्हें समुचित रूप से समझा जाए तो योग स्वतः ही मुक्ति का मार्ग बन जाता है ।योग का शाब्दिक अर्थ है-- मिलन , संयोग , परम चेतना के साथ एकाकार की अवस्था ।

योग शब्द संस्कृत की 'युज्' धातु से उत्पन्न हुआ है , जिसका अर्थ मिलन का संयोग होता है ।इसीलिए महर्षि पतंजलि, योगसूत्र में योग को परिभाषित करने के बाद ---  योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः 
( योगसूत्र 1/2 )---- अर्थात चित्त की वृत्तियों का निरोध ही योग है।--- ऐसा कहने के बाद बोलते हैं कि-- तदा दृष्टुः स्वरूपेऽवस्थानम् ।( योगसूत्र 1/3 ) अर्थात योग को उपलब्ध हुआ व्यक्ति अपने मूलस्वरूप या परमात्मस्वरूप में प्रतिष्ठित हो जाता है ।

भारतीय चिंतन की , भारतीय संस्कृति की , भारतीय संस्कृति की, भारतीय परम्पराओं की नींव की मजबूती पर कोई शंका नहीं कर सकता ।लाखों ऋषि-मुनियों, चिंतकों, विचारकों, संतों, सुधारकों का ज्ञान, बोध , तपस्या एवं पुण्य-- इस भारतीय चिंतन के वटवृक्ष की जडों को सींचने में लगा है।भारतीय मनीषियों के अनुसंधानों ने यह प्रमाणित किया है कि योग , मानवीय संभावनाओं को उत्कर्ष के शिखर पर पहुँचा सकता है।

ऐसा माना जाता है कि योग के आदिवक्ता या उपदेष्टा आचार्य हिरण्यगर्भ हैं एवं उनसे पुरातन अन्य कोई नहीं है।महाभारत में ऋषि वेदव्यास कहते हैं--- हिरण्यगर्भो योगस्य वक्ता नान्यः पुरातनः। ( महाभारत 2/ 394/ 65 ) यहाँ आचार्य हिरण्यगर्भ कहने का आशय सृष्टिकर्ता ब्रह्मा से लगाया जाता है ।

योग सम्पूर्ण भारतीय चेतना का ऊर्ध्वीकरण , विकास का विज्ञान है ।जिसे महर्षि पतंजलि ने योग कहा , उसे आज हमने सिर्फ कुछ शारीरिक क्रियाओं (आसनों) तक ही सीमित मान लिया है ; जब कि योग एक गहन आध्यात्मिक ज्ञान है।

●●● भारतीय योग परंपराओं की तीन मुख्य धाराएँ ●●●

प्राचीन काल से चली आ रहीं योग परंपराओं को अध्यापन की सुविधा की दृष्टि से विद्वानों ने तीन मुख्य धाराओं में विभक्त किया है।सर्वविदित है कि सृष्टि के आदिकाल में तीन शक्तियाँ उपस्थित थीं, जिनके कार्य सृष्टि ( सृजन ) , स्थिति ( पोषण ) एवं प्रलय ( संहार) कहे जा सकते हैं ।ये तीन शक्तियाँ हैं-- ब्रह्मा, विष्णु एवं महेश ।

●1 राजयोग----        भगवान ब्रह्मा सृष्टि के सृजनकर्ता एवं सृष्टि के आदिपुरुष हैं ।उनसे योग की जो धारा विकसित हुई, वह राजयोग के नाम से जानी जाती है ।इस परंपरा के प्रवर्तक के रूप में महर्षि पतंजलि का आगमन हुआ एवं उनके द्वारा राजयोग की परंपरा की प्रतिष्ठा के लिए जिस ग्रन्थ की रचना की गई, उसे पातंजलि योगसूत्र के नाम से जाना जाता है ।इस योगसूत्र में योग की तीन तरह की विधाओं का वर्णन है--
1 - समाधि योग (अभ्यास एवं वैराग्य)
2 - क्रिया  योग  ( तप, स्वाध्याय एवं ईश्वरप्रणिधान )
3 - अष्टांग योग  ( यम, नियम, आसन,प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि)

●2  वैदिक योग---- योग की द्वितीय धारा भगवान विष्णु से जन्मी है ।भगवान विष्णु सृष्टि के पालनकर्ता हैं ।भगवान विष्णु से निस्सृत हुई योग की धारा वैदिक योग के नाम से जानी जाती है तथा इस धारा को सुव्यवस्थित रूप देने का कार्य भगवान श्री कृष्ण द्वारा किया गया ।वैदिक योग की परंपरा की प्रतिष्ठापना के लिए भगवान श्री कृष्ण के द्वारा उपदिष्ट ग्रंथ श्रीमद्भगवद्गीता है । श्री मद्भगवद्गीता में भी योग के तीन मार्ग बताए गए हैं--
1  ज्ञान योग
2  कर्म योग
3  भक्ति योग 

● 3 हठ योग ---   योग-परंपरा की तीसरी धारा भगवान शिव के द्वारा निस्सृत हुई है और इसीलिए उन्हें योगीराज के नाम से पुकारा जाता है ।भगवान शिव के पास से निकली योग की धारा हठयोग के नाम से जानी जाती है , जिसके प्रवर्तन का कार्य महायोगी गोरखनाथ द्वारा किया गया ।

हठ योग की परम्परा के उन्नयन के लिए गोरखनाथ जी ने अनेक ग्रन्थों की रचना की, जिनमें गोरक्षशतक, गोरक्षपद्धति एवं गोरक्षसंहिता प्रमुख हैं ।आज योग के अनेक प्रचलित आयाम होने के बाद भी जिन योगधाराओं को लोग जानते हैं, उनमें इन प्रामाणिक ग्रन्थों का उल्लेख बहुत कम ही मिलता है ।

सत्य तो यह है कि यदि योग के किसी एक अर्थ या परिभाषा पर ही ध्यान केन्द्रित कर दिया जाए तो जीवन में उत्कर्ष के मार्ग स्वतः ही खुलने लगते हैं ।

Tuesday, October 13, 2020

शहीद होने का अर्थ , ऋषि एवं सैनिक दोनों का ही 'पर' के प्रति समर्पण

              ●●● शहीद होने का अर्थ ●●●
शहीद होने का अर्थ है -- 'स्व'  का 'पर' के लिए समग्र समर्पण ।जो स्वार्थ को परमार्थ में उत्सर्ग कर दे, वही शहीद कहलाता है ।इसका तात्पर्य यह है कि लोभ और मोह के बंधनों को काटकर फेंक देना , जड़-मूल से नष्ट कर देना ।अपने सीमित दायरे को तोड़कर आगे चले जाना , शरीर के मोह को एवं परिवार के मोह को उखाड़ कर फेंक देना ।

                       हमारे देश की रक्षा में स्वयं को समर्पण करने वाले वीर सच्चे अर्थों में शहीद का दर्जा दिया जाता है ; क्योंकि वे अपने उद्देश्य एवं लक्ष्य के प्रति अडिग एवं अविचलित होकर खड़े रहते हैं ।वे अपने आस-पास की परिस्थितियों से सर्वथा अप्रभावित रहते हैं ।जहाँ  औरों के लिए अपना सर्वस्व उत्सर्ग करने की भावदशा होती है , वहाँ व्यवहार भी वैसा ही होगा ।उनका दृष्टिकोण दूसरों के प्रभाव-परामर्श से नहीं बनता ।वे अपनी नीति स्वयं निर्धारित करते हैं ।ऐसे महामानवों को ही आत्मबलिदानी , शहीद कहा जा सकता है ।

शहीद स्वार्थपरता का अंत करके परमार्थ को ही अपनी आकांक्षा का केन्द्र बनाकर उसी चिंतन में तन्मय रहता है ।शहीद स्तर के व्यक्ति लोक-प्रवाह से विरत एवं अलग-थलग पड़ जाते हैं ; क्योंकि इनका जीवन सामान्य लौकिक जीवन के समान नहीं होता ।वे सर्वथा अपने कर्तव्यों के प्रति सजग रहते हैं ।वे किसी वस्तु की इच्छा नहीं करते , और न ही मोहग्रस्त होते हैं ।हर एक को यह कार्य इतना सरल नहीं होता ।

शहीदों का मापदंड एवं मूल्यांकन किया जाता है--- जब किसी महान प्रयोजन के लिए वे अपना सर्वोच्च बलिदान कर देते हैं ।जिन्होंने परमार्थ के लिए प्राण त्यागे , जीवन दाँव पर लगाया , उनके चरणों में श्रद्धा अर्पित करनी ही चाहिए ।उनकी जीवनगाथा का गायन आदर्शों के प्रति, आदर्शवादियों के प्रति नतमस्तक होने का अवसर प्रदान करता है ।

इस क्रम में चंद्रशेखर आजाद, भगतसिंह, रामप्रसाद विस्मिल , राजगुरु आदि का जितना गुणगान किया जाए , जितना सम्मान दिया जाए -- उतना ही कम है ।उनका जीवन राष्ट्र की स्वतंत्रता के लिए समर्पित होकर सदा औरों के लिए प्रेरणा का कार्य करता है।इन सभी के साथ ही जो अपनी स्वार्थ के दायरे को छोड़कर औरों की सेवा एवं पीड़ित मानवता के लिए अपना सब कुछ लुटा देता है , परमार्थ कार्य में सदा निरत रहता है, तथा उसी चिंतन में डूबा रहता है , वस्तुतः वह भी एक शहीद है ; क्योंकि वह परमार्थ के लिए स्वयं के सुख को त्याग देता है ।

 ●● ऋषि एवं सैनिक दोनों का ही 'पर' के प्रति समर्पण ●● 

ऋषि एवं सैनिक दोनों ही सदा प्रकाशस्तंभ की तरह ज्योतिर्मय रहते हैं ।दोनों ही 'स्व' का 'पर' के लिए समर्पण करते हैं, अनंत अंतरिक्ष में ध्रुव तारे के समान जगमगाते रहते हैं और अपने कर्तव्य की गरिमा से असंख्यों को प्रभावित करते हैं । उनका चिंतन व चरित्र इतना उत्कृष्ट हो जाता है ; क्योंकि उनके जैसी समर्पण की साधना करना सबके वश की बात नहीं ।

समर्पण एक ऐसा शब्द है -- जो सुनने,पढ़ने एवं बोलने में तो आसान प्रतीत होता है, परन्तु समर्पण एक गहन साधना है , समर्पण एक उत्कृष्ट भाव है , जिसमें लोभ, मोह, अहंकार इन सभी का विसर्जन करना होता है और आदर्शों के लिए चिंतन व चरित्र को पूरी तरह नियोजित करना होता है।लोभ को त्यागना आसान नहीं है, और लोभ छूट भी जाए तो मोहपाश अपने बंधन में बाँध लेता है ।

मोह टूटता है बड़ी कठिनाई से ।अगर यह भी टूट जाता है तो अहंता जागने लगती है । अपने कर्म में कर्तापन आ जाता है ।यह आ ही जाता है कि इसे मैंने किया है , मैं कुछ तो हूँ ।इस 'मैं' में ही तो अहंकार बसता है , पनपता है और जब इस अहंकार का विसर्जन होता है, जब यह अहंकार विलीन होता है , तब समर्पण की साधना आरंभ होती है ।इसके पश्चात ही अपने चिंतन एवं चरित्र को श्रेष्ठ बनाया जा सकता है ।अपने को इस साँचे में ढाल लेने वाले व्यक्ति ही आध्यात्मिक शब्दावली में ऋषि कहे जाते हैं ।शहादत का यह आध्यात्मिक रूपांतरण है।

  शहीद--- जीवन के हर मोड़ पर क्रांति का एक नया अध्याय लिखते हैं और अनेक को साहस भरे पथ पर चलने की प्रेरणा देते हैं ।

        मातृभूमि की रक्षा करने वीर सिपाही जाते हैं ।
        रक्षा करते हम सब की पर अपने प्राण गँवाते हैं ।।

Saturday, October 10, 2020

"सांसारिक माया", महापुरुष स्तर की जीवात्माएँ माया में लिप्त नहीं होतीं, श्रेष्ठ विचार व सादा जीवन माया से मुक्त करने में सहायक

                 ●●● सांसारिक माया ●●●
    जिस संसार में हम रहते हैं, उसे समझना आसान नहीं है ।यह     रहस्यमय है ।संसार एक तरह की माया है, जो निरंतर परिवर्तन शील है ।जो स्थाई नहीं, टिकाऊ नहीं, जिसका अस्तित्व पानी के बुलबुले की तरह है, उसे पाना भी आसान नहीं है, जैसे -- 
पानी का बुलबुला देखने में तो अच्छा लगता है, लेकिन जब उसे पकड़ने के लिए हाथ बढ़ाया जाए तो वह पानी में ही विलीन हो जाता है ।

रूप, सौन्दर्य, पद, प्रतिष्ठा, सम्मान, यश --- इन सभी में सम्मोहन है, आकर्षण है , लेकिन ये सब सांसारिक माया के रूप हैं, जो कदम-कदम पर व्यक्ति को भ्रमित करते हैं, उसकी परीक्षा लेते हैं और उसके मार्ग को अवरुद्ध कर देते हैं ।जो व्यक्ति माया के इन रूपों के पीछे भागते हैं, माया उसकी पकड़ में नहीं आती, लेकिन जो इनसे अपना पीछा छुड़ाना चाहता है , माया उसके पीछे-पीछे दौड़ती है, भागती है ।शायद इसीलिए संत कबीर ने माया के बारे में कहा है --- " माया महाठगिनी हम जानी ।" 

राजकुमार सिद्धार्थ ने जब इस संसार की सांसारिकता को समझा तो वे बुद्ध हो गए और संसार की असारता का उपदेश लोगों को दिया । जिस रूप सौन्दर्य, स्वास्थ्य, सम्मान, सुख, ऐश्वर्य को प्राप्त करने के लिए लोगों न जाने कितने प्रयास करते हैं, वे सभी प्रयास व्यर्थ ही हैं , इनका कोई स्थाई अस्तित्व नहीं है, जो व्यक्ति को स्थाई तौर पर सुखी कर सके ।

                          इस संसार में रहकर व्यक्ति जीवन के अनेक अनुभवों को इकठ्ठा करता है, बहुत कुछ सीखता है और यदि नहीं सीखना चाहता है तो यह संसार उसको सिखा देता है ।संसार एक तरफ लोभ दिखाता है तो दूसरी तरफ भय भी दिखाता है ।लोभ है ---- आकर्षण का, सब कुछ प्राप्त कर लेने का दूसरा नाम। भय है --- सब कुछ छिन जाने, सब समाप्त हो जाने का दूसरा नाम ।इस प्रकार लोभ व भय के सांसारिक जंजाल से निकलना आसान नहीं होता ।

इस सांसारिक माया के तीन गुण व रूप हैं-- सत्व , तम और रज ।तीनों ही गुण व्यक्ति को बाँधे रखते हैं ।व्यक्ति को अपने कल्याण के लिए, परमेश्वर तक पहुँचने के लिए इन तीनों गुणों को ही पार करना होता है ।परमेश्वर त्रिगुणातीत है ।

  ● महापुरुष स्तर की जीवात्माएँ माया में लिप्त नहीं होतीं ●

महापुरुष स्तर की जीवात्माओं को पता होता है कि इस संसार में कैसे रहना चाहिए, कैसी जीवनशैली होनी चाहिए । वे इस संसार  के लोभ-मोह के आकर्षण में कदापि नहीं फँसतीं , वे तो संसार में रहने वाली जीवात्माओं का उद्धार करने, मार्गदर्शन करने और उन्हें दिशा देने के लिए आतीं हैं ।लेकिन जब घोर सांसारिकता में लिप्त जीवात्माएँ उनके दिव्य स्वरूप का आभास कर लेतीं हैं तो उनसे अपने कल्याण का मार्ग जानने की कोशिश नहीं करतीं अपितु अपनी सांसारिक इच्छाओं को पूरा कराने में लग जातीं हैं ।ऐसा करना महापुरुषों के लिए बहुत कष्टकर होता है।

इसी कारण अधिकतर उच्चस्तरीय जीवात्माएँ गुमनाम ढंग से अपना जीवन व्यतीत करतीं हैं ।संसार में रहकर अपने पूर्व कर्मों का क्षय करतीं हैं, कठोर तप में लीन रहतीं हैं, अपना चित्त परिष्कृत कर भगवान के निर्देशानुसार कार्य करतीं हैं और इसके लिए बड़े से बड़ा त्याग करतीं हैं ।

महापुरुष स्तर की जीवात्माएँ मानवता के हित के लिए, जन्म-जन्मांतरों से संचित किए गए तप की पूँजी का अंश लगाकर सृष्टि के कल्याण में मदद करतीं हैं और इस तरह संसार में अपना सहयोग देतीं हैं ।महान जीवात्माओं की तपस्या, स्वार्थपूर्ति व महत्वाकांक्षाओं की पूर्ति में न लगकर लोक-कल्याण के कार्य में लगतीं हैं तो उन्हें भी परम तृप्ति मिलती है और साथ में भगवान का वरदहस्त व स्नेह आशीष भी मिलता है  ।

ज्ञानी जनों ने कहा है कि इस संसार का सुख मत भोगो , बल्कि इस संसार की सेवा करो , मानवता की सेवा और ईश्वर की भक्ति के द्वारा अपने चित्त को स्वच्छ निर्मल , प्रकाशित व हलका करो ।
ऋषियों ने इस संसार की सेवा करने के लिए कहा है, न कि सेवा लेने के लिए ।सुख-ऐश्वर्य लुटाने व बाँटने के लिए कहा है न कि बटोरने के लिए ।दुःखी व्यक्तिओं की मदद के लिए कहा है न कि व्यक्तिओं को दुःखी करने के लिए ।

● श्रेष्ठ विचार व सादा जीवन माया से मुक्त करने में सहायक ●

              यही कारण है कि महापुरुषों ने कभी भी सुखों का भोग नहीं किया ।सादा जीवन अपनाकर त्यागमय जीवन जिया ।कठिन साधना , तपश्चर्या को अपनी जीवनशैली को अभिन्न अंग बनाया ।महापुरुषों के जीवन को पहचानने की यही विधि व्यवस्था है कि वे उच्च स्थान पर पहुँच कर भी सादगीपूर्ण जीवन को अंगीकार करते हैं ।

यदि हम अपने जीवन को सफल बनाना चाहते हैं,अपने चित्त को स्वच्छ व निर्मल बनाना चाहते हैं तो उच्च विचारों के साथ सादा जीवन शैली अपनाते हुए , परमात्मा का स्मरण करते रहना है ; क्योंकि संसार में कुछ भी स्थाई नहीं है ।भगवान से की गई आर्त पुकार व सच्ची प्रार्थना ही हमारे मन को स्वच्छ व निर्मल करती है और फिर जीवात्मा के कल्याण के लिए आवश्यक साधन स्वतः जुटने लगते हैं ।

परमेश्वर त्रिगुणातीत है ।उस तक पहुँचने के लिए प्रकृति के तीन गुण सत्व, रज और तम को पार करना होता है ।सत्य यही है कि जो संसार को प्रकृति के गुणों का खेल समझकर उससे अनासक्त रहते हुए त्रिगुणातीत हो जाता है, वह स्वयं परमेश्वर हो जाता है और संसार के भवबंधनों से मुक्त हो जाता है ।

सादर अभिवादन व धन्यवाद ।


Thursday, October 8, 2020

"देवहूति"-- मनु एवं शतरूपा की पुत्री, महर्षि कर्दम की पत्नी, देवहूति के गर्भ से कपिल मुनि अवतरित, महामुनि कपिल द्वारा महर्षि कर्दम को उपदेश,कपिल मुनि द्वारा देवहूति को मोक्षप्राप्ति हेतु उपदेश, देवहूति को योगमार्ग द्वारा परमपद की प्राप्ति ।

             ●●●●● देवहूति  ●●●●●
●● मनु एवं शतरूपा की पुत्री एवं महर्षि कर्दम की पत्नी ●●

देवहूति, मनु एवं शतरूपा की पुत्री थीं ।देवहूति का विवाह महर्षि कर्दम के साथ हुआ था ।प्रकृति के सुरम्य वातावरण में महर्षि कर्दम का आश्रम था ।उनकी पत्नी देवहूति भी अपने पति के साथ ही रहतीं थीं ।देवहूति, अत्यन्त राजसी सुख-सुविधाओं  में पली-बढ़ी थीं , इसके बावजूद भी वे आश्रम में तपोनिष्ठ जीवन जीते हुए अपने पति के पदचिन्हों पर चलने यथासंभव प्रयास किया करतीं थीं ।

    जब महर्षि कर्दम संन्यास धर्म में दीक्षित होने का विचार करने लगे ।उनके इस विचार को जानकर देवहूति उनसे बोलीं---"स्वामी ! आप आत्मकल्याण के लिए गृहत्याग कर वन में जाना चाहते हैं, मैं आपके मार्ग में बाधक नहीं बनना चाहती , परन्तु मेरी एक छोटी सी प्रार्थना है कि आपके वन चले जाने पर मुझे आत्मकल्याण का मार्ग बताने वाला एक ब्रह्मज्ञानी पुत्र चाहिए और वह मुझे प्रभुभक्ति का मार्ग बताए , ऐसी मेरी अभिलाषा है।

     देवहूति के विनम्र एवं वैराग्ययुक्त वचनों को सुनकर महर्षि ने कहा ----- " हे राजपुत्री ! तुम चिंतित मत हो ।तुम्हारे माध्यम से भगवान जगदीश्वर शीघ्र ही अवतरित होंगे और तुम्हें ब्रह्मज्ञान का उपदेश देकर तुम्हारी मुक्ति का मार्ग प्रशस्त करेंगे ।"

  ●देवहूति के कोख से भगवान 'कपिल' के रूप में अवतरित●

समयानुसार देवहूति के गर्भ से भगवान मधुसूदन प्रकट हुए और सब दिशाओं में जय-जयकार की ध्वनि गुंजायमान होने लगी ।उसी समय मरीचि आदि ऋषियों के साथ ब्रह्मा जी कर्दम ऋषि के आश्रम में पहुँचे। ब्रह्मा जी देवहूति से बोले -- " देवहूति ! तुम्हारी कोख से साक्षात् पूर्णपुरुष ने अवतार लिया है ।इनके केशकलाप सुवर्ण के समान कपिलवर्ण होने के कारण यह जगत में कपिल नाम से विख्यात होंगे ।यह सिद्ध-मुनियों में अग्रगण्य होंगे और सांख्यशास्त्र का प्रचार करेंगे। 

भगवान का नामकरण करने के बाद ब्रह्मा जी अपने लोक को चले गए । महर्षि कर्दम ने अपने यहाँ पुत्र रूप में अवतीर्ण हुए भगवान कपिल की अनेक प्रकार से स्तुति की और उनसे संन्यास धर्म को स्वीकार करने की आज्ञा माँगी । 

●महामुनि कपिल द्वारा महर्षिकर्दम को मोक्षप्राप्ति हेतु उपदेश●

जब महर्षि कर्दम ने महामुनि कपिल से संन्यास धर्म को स्वीकार करने की आज्ञा माँगी , तब महामुनि कपिल बोले -- " हे प्रजापते ! आप अब सभी प्रकार के ऋणानुबंधनों से मुक्त हो गए हैं ।अतः आप अब संन्यास ग्रहण कर सकते हैं ।यद्यपि आपके लिए घर में भी मुक्ति की प्राप्ति कठिन नहीं है, परन्तु आप परब्रह्म का निरंतर स्मरण करते हुए अपने समस्त कर्मों को उन्हें अर्पण कर मोक्षप्राप्ति निमित्त उपासना में लगे रहना -- यही मोक्ष का सर्वश्रेष्ठ उपाय है ।

महर्षि कर्दम ने कपिलमुनि को वचनों को श्रद्धा के साथ सुना और अत्यन्त प्रसन्न हुए और उनकी प्रदक्षिणा कर  मोक्षप्राप्ति हेतु वन में उपासना करने चले गए ।कर्दम ऋषि के वन में चले जाने पर महामुनि कपिल अपनी माता का हित करने की इच्छा कुछ दिन तक अपने पिता के आश्रम में ही रहे ।

●कपिल मुनि द्वारा मातादेवहूति को मोक्षप्राप्ति हेतु उपदेश●

एक दिन देवहूति महामुनि कपिल से बोलीं--- " आप शरणागतों के रक्षक और भक्तों के संसार रूप वृक्ष को छेदन करने में कुठार के समान हैं । हे भगवन ! आप मुझे मुक्ति का मार्ग बताइए ।"  माता देवहूति का प्रश्न सुनकर कपिल मुनि प्रसन्न हुए और मुस्कराते हुए बोले -- " हे माता ! इस आत्मा के बंधन और मुक्ति का कारण चित्त ही है ।यह चित्त विविधभोगों में आसक्त होने पर बंधन का कारण होता है और वहीं चित्त ईश्वर के प्रति समर्पित होने पर मोक्ष प्राप्ति करा सकता है।

कपिल मुनि बोले -- "माता !  सत्पुरुषों के संग को शास्त्रों में मोक्ष का द्वार कहा गया है । अतः हे माता ! आपको सत्पुरुषों का ही संग करना चाहिए । साधुओं के सत्संग से ही ईश्वर के प्रभाव का यथार्थ ज्ञान कराने वाली और अंतःकरण को सुख देने वाली कथाएँ सुनने को मिलती हैं , जिनके श्रवण से भगवान में श्रद्धा और भक्ति दृढ़ होती है ।उस भक्ति से लौकिक और पारलौकिक , दोनों सुखों के प्रति वैराग्य उत्पन्न होता है और फिर वैराग्य से बढ़े हुए ज्ञान व भक्ति के द्वारा व्यक्ति इसी शरीर में अंतर्यामी परमात्मा को प्राप्त कर लेता है।

अपने पुत्र के उपदेश को सुनकर देवहूति के अज्ञान का परदा हट गया और वह श्रद्धा के साथ कपिल मुनि की स्तुति करने लगीं ।भगवान कपिल उनकी स्तुति सुनकर बड़े प्रसन्न हुए और स्नेहपूर्ण 
वाणी से इस प्रकार बोले --- " हे माता ! यदि आप मेरे बताए हुए इस मार्ग पर चलेंगी तो बहुत शीघ्र ही जीवनमुक्ति रूप श्रेष्ठ फल को प्राप्त करेंगी ।हे जननी ! ब्रह्म ज्ञानियों द्वारा सेवनीय मेरे इस अनुशासन पर आप विश्वास रखें  ।मेरे बताए मार्ग का अनुसरण करने से आप संसार के बंधनों से मुक्त होकर जन्म-मरण रहित स्वरूप को प्राप्त होंगी ।मेरे इस मत को न जानने वाले लोग मृत्यरूप संसार में बार-बार आते हैं ।" 

●●● देवहूति को योगमार्ग द्वारा परमपद की प्राप्ति ●●●

अपनी माता को मोक्षप्राप्ति के लिए श्रेष्ठ योग मार्ग का उपदेश देकर महामुनि कपिल अपनी माता से विदा लेकर चल दिए ।देवहूति भी अपने पुत्र के बताए हुए योगमार्ग से अपने चित्त को एकाग्र करके अपने पति के आश्रम में तपस्या करते हुए समय व्यतीत करने लगीं और शीघ्र ही अंतर्यामी, नित्य, मुक्त एवं ब्रह्म रूप भगवान के साथ एकत्व को प्राप्त हो गईं ।देवहूति ने योग साधना द्वारा परमपद को प्राप्त किया ।

मनुष्य जीवन का यही उद्देश्य होना चाहिए कि इस संसार के कर्तव्यों का भली-भाँति निर्वहन करते हुए अपने चित्त को एकाग्र करके परमेश्वर का स्मरण करते रहें और परमेश्वर की अनुभूति रूप प्रसाद प्राप्त करें ।

सादर अभिवादन व धन्यवाद ।

Tuesday, October 6, 2020

सफलता का मूलमंत्र, हर कार्य को सम्मान देना, अपने हर कार्य को सम्मान देने वाले शीर्ष पद प्राप्त करने वाले व्यक्तियों के उदाहरण ( वनिता नारायणन, रोनाल्ड रेगन, अब्राहम लिंकन, रवींद्रनाथ टैगोर, जाॅन्सन, चार्ल्स स्पीलबर्ग )

●●● सफलता का मूलमंत्र, हर काम को सम्मान देना ●●●
हर कार्य के प्रति सदैव सम्मान का भाव रखना , यही जीवन में सफलता का मूल मंत्र है ।हर कार्य मूल्यवान होता है , कोई भी कार्य छोटा या बड़ा नहीं होता ।कार्य चाहे जो भी हो , उसे सम्मान के साथ करना हमारे व्यक्तित्व निर्माण का एक बड़ा हिस्सा है।

किसी भी कार्य को करते समय यह महत्वपूर्ण नहीं होता कि वह छोटा है या बड़ा, वरन यह महत्वपूर्ण होता है कि उसे किस भावना व किस दृष्टिकोण से किया गया है।निश्चित रूप से कार्यकुशलता जरूरी है ।हमारी कार्यकुशलता ही कार्य को सही से करने व अच्छे परिणाम देने में हमारी मदद करती है और हमारी उन्नति के द्वार भी खोलती है।इसलिए चाहे जो भी कार्य किया जाए, उसे पूरे मन से, पूरी कुशलता के साथ किया जाए, तभी हमें उस काम का यथोचित लाभ मिलता है और हमारा मन संतुष्ट रहता है।

 ●अपने हर कार्य को सम्मान देने वाले व्यक्तियों के उदाहरण●
                          ( वनिता नारायणन)
1   ● आईबीएम में शीर्षपद पर रह चुकीं  प्रसिद्ध एक्जेक्यूटिव  वनितानारायणन का कहना है -- " कामयाबी के पीछे कई वजहें होती हैं,लेकिन इसमें जो सबसे बड़ी वजह है, वह है --- छोटे-से-छोटे काम को करने को लेकर सम्मान का भाव ।"  और इसी कारण वह अपनी रसोई में खाना बनाने, पोंछा लगाने, कपड़े धोने में भी स्वयं को उतना ही सम्मानित महसूस कर पाती हैं, जितना अपने ऑफिस में कंम्प्यूटर के सामने बैठकर काम करने में ।

2    ● अमेरिका के राष्ट्रपति रह चुके जाॅनसन ने भी अपने बचपन में आर्थिक तंगी के कारण मात्र नौ साल की उम्र में दूसरों के जूते पाॅलिश किए, कपास के खेतों में काम किया, बाद में बस चालक भी बने और वेटर का भी काम उन्होंने बखूबी सँभाला।उनका कहना था कि " आर्थिक परेशानियों में किए कार्यों और राष्ट्रपति बनने के बाद किए जाने वाले कामों में उनके लिए कोई खास फरक नहीं था ।"

जॅनसन का लक्ष्य सभी कामों के लिए एक ही था -- हर कार्य को कुशलता के साथ उन्हें पूरा करना ।और इसी कार्य कुशलता के कारण वे एक सामान्य व्यक्ति से अमेरिका के राष्ट्रपति बन गए।

                         (  रोनाल्ड रेगन )
3  ● पूर्व अमेरिकी राष्ट्रपति  रोनाल्ड रेगन भी इसी विचारधारा से अभिप्रेरित थे ।उन्होंने मामूली से कई कार्य किए , जैसे उन्होंने सर्कस में काम किया , लाइफगार्ड का काम करते हुए 77 लोगों को डूबने से बचाया, कैफेटेरिया में टेबल साफ करने का काम भी किया , धीरे-धीरे वे तरक्की करते गए और एक दिन वे राष्ट्रपति भी बन गए।

राष्ट्रपति बनने के बाद रोनाल्ड रेगन अपनी जिंदगी के सफर को भूले नहीं, संघर्षों-कठिनाइयों और उनसे मिलने वाले सबकों को उन्होंने याद रखा ।वे कभी भी अपने बीते समय में किए गए संघर्ष व छोटे समझे जाने वाले कार्यों के प्रति शर्मिंदा नहीं हुए , बल्कि गौरवान्वित ही हुए और उनकी यह आत्मनिर्भरता ही उन्हें शिखर पर ले जा सकी
                           ( रवींद्रनाथ टैगोर)
4  ● प्रसिद्ध साहित्यकार एवं नोबेल पुरस्कार विजेता रवीन्द्रनाथ टैगोर के पिता के पास बहुत सारी बग्घियाँ , घोड़े आदि थे , लेकिन उनके पिता ने उनके विद्यालय जाने के लिए एक भी बग्घी की व्यवस्था नहीं की , रवीन्द्रनाथ टैगोर को अन्य विद्यार्थियों के साथ पैदल ही जाने को कहा गया ; जबकि उनका विद्यालय घर से काफी दूर था ।

उनको पैदल स्कूल भेजने के पीछे उनके पिता का मकसद यह था कि रवीन्द्रनाथ के मन में परिश्रम के प्रति सम्मान भाव पैदा हो तथा वे हर कार्य स्वयं करने पर विश्वास रखें ।इसका दूसरा उद्देश्य यह था कि ऐसा करने से उनके मन में सामान्य कार्य करने वाले लोगों के दुःख-दर्द , कष्ट-परेशानी को समझने का भाव भी पैदा हो , ताकि वे जरूरत के समय उनकी मदद कर सकें ।

                          ( अब्राहम लिंकन)
5  ● ऐसा ही एक घटनाक्रम अमेरिका के राष्ट्रपति अब्राहम लिंकन के जीवन के साथ जुड़ा है ।एक दिन उनके पास एक युवक आया , जो अपनी बेकारी से तंग आ चुका था ।वह इतना परेशान था कि उसे लगने लगा कि अब उसके पास भीख माँगने के अलावा और कोई विकल्प नहीं है ।उसने अपनी परेशानी अब्राहम लिंकन को बताई ।

            अब्राहम लिंकन ने उसकी परेशानी को अच्छी तरह सुना और समझा और उसे बड़े अपनेपन के साथ समझाते हुए कहा------ " देखो युवक ! जब ईश्वर ने तुम्हें कीमती शरीर दिया है, तो तुम गरीब कैसे हुए ? क्या तुम्हें यह कहना शोभा देता है कि तुम्हारे पास कुछ नहीं है ।जाओ मेहनत-मजदूरी करो ।मैं खुद भी मजदूरी करता था और आज उसी परिश्रम और लगन से यहाँ तक पहुँचा हूँ ।ये हाथ भीख माँगने के लिए नहीं हैं ।इन्हें काम के लिए उठाओ या प्रभु की प्रार्थना के लिए ।सब कुछ ठीक हो जाएगा।" इसके बाद उस युवक ने लिंकन की सलाह पर चलते हुए जीवन में महत्वपूर्ण मुकाम हासिल किया ।

6  ●  मनोवैज्ञानिक चार्ल्स स्पीलबर्ग के अनुसार-- " हर कार्य को सम्मान देने वाले लोग ज्यादा शालीन , ज्यादा विनम्र, अधिक संवेदनशील व समझदार होते हैं ।"  इसलिए यह जरूरी है कि परिवार में बच्चों को कार्य का महत्व समझाया जाए , कार्य के प्रति उनके मन में सम्मान का भाव पैदा किया जाए और छोटे-बड़े सभी तरह के कार्यों समान भाव से करने के लिए उन्हें प्रेरित किया जाए।ऐसा करने पर ही बच्चों का कार्य के प्रति सम्मान का भाव पैदा होगा और भविष्य में वे समाज को अपनी उत्कृष्ट सेवाएँ दे सकेंगे ।

जीवन में सफलता का मूलमंत्र यही है कि हम सभी अपने हर कार्य को सम्मान के साथ करें ।

सादर अभिवादन व धन्यवाद ।

Monday, October 5, 2020

(हनुमान जयन्ती) माता अंजनी की तप साधना साकार होने के पल, अंजनी के शिशु के स्वागतार्थ प्रकृति द्वारा स्वागत आयोजन , हनुमान के जन्म के समय महर्षि मतंग की भावविह्वलता,हनुमान का जन्म, वानरराज केसरी द्वारा ऋषिमंडली का स्वागत ।

              ●●●श्री हनुमान जयन्ती●●●     <<< माता अंजनी की तप साधना साकार होने के पल>>>

चैत्र शुक्ल पूर्णिमा का पवित्र पल आ पहुँचा --
  (... प्रादुरासीत्तदा तां वै भाषमाणो महामतिः । मेघसंक्रमणं भानौ सम्प्राप्ते मुनिसत्तमाः।पूर्णिमाख्ये तिथौ पुण्ये चित्रानक्षत्रसंयुते ।।---
स्कंदपुराण, वैष्णव खंड 39/ 42-43 ;
महाचैत्रीपूर्णिमायां समुत्पन्नोऽञ्जनीसुतः -- आनंद रामायण, सारकांड 13/ 163 , ----- देवी अंजनी के हृदय में विगत कई दिनों से हर्ष हुलस रहा था ।उनके शरीर की कांति में आश्चर्यजनक वृद्धि हो रही थी ।उन्हें अनुभव होने लगा था कि उनकी निरंतर की गई तप-साधना, अब तक की सभी आध्यात्मिक अनुभूतियाँ, ऋषियों एवं देवों के द्वारा मिले वरदान अब साकार रूप लेने ही वाले हैं ।

●अंजनी के शिशु के स्वागतार्थ प्रकृति द्वारा स्वागत आयोजन●

अंजनी के अंतःकरण की ही भाँति बाह्य प्रकृति में अनेक अनोखे सुखद परिवर्तन हो रहे थे  ।उद्यानों एवं बगीचों में विविध रंगों के सुमनोहर पुष्प अपनी सुगन्ध बिखेर रहे थे ।पर्वतमालाओं की शोभा भी अपूर्व हो उठी थी ।नदी, तालाब एवं झरनों के जल की निर्मलता बढ़ गई थी ।अरण्य में रहकर तप करने वाले तपस्वी भी प्रकृति की सुन्दरता देखकर चकित थे।ऐसा लगता था कि अंजनी के शिशु का स्वागत करने के लिए प्रकृति ने अपनी सारी सुरम्यता का कोश लुटा दिया था।

हनुमान का स्वागत करने के लिए भूगत संपदा अनायास ही उभरकर ऊपर आ गई थी ।वृक्षों और लताओं ने सब ओर कोमल कोंपल एवं किसलयों के बंदनवार सजा रखे थे ।प्रकृति के अद्भुत सौन्दर्य को देखकर जहाँ सामान्य जन हर्षित हो रहे थे , वहीं महर्षियों के बीच यह उत्सुकतापूर्ण चर्चा थी कि प्रकृति ने यह स्वागत आयोजन किसके लिए किया है ?

●हनुमान के जन्म के समय महर्षि मतंग की भावविह्वलता ●

प्रकृति के अद्भुत परिवर्तनों को देखकर महर्षि जन के मन में उत्सुकता भरी जिज्ञासा जागी , इस जिज्ञासा के समाधान के लिए वे महर्षि मतंग के आश्रम में गए ।महर्षि मतंग उस समय ध्यान में तल्लीन थे ।उनके मुखमंडल पर दैवी दीप्ति की सघनता थी ।इसका प्रभाव सम्पूर्ण कक्ष में अनुभव हो रहा था ।

ऋषियों के आगमन की सूचना लेकर जब आश्रम का एक अंतेवासी महर्षि मतंग के कक्ष में पहुँचा तो उसकी आँखें महर्षि के मुख की दीप्ति को देखतीं ही रह गईं । वह कुछ देर तक यूँ ही खड़ा रहा ।फिर वह उस कक्ष से बाहर जाने के लिए मुड़ा ; क्योंकि वह गुरुदेव की साधना में व्यवधान पैदा नहीं करना चाहता था।

 वह बाहर जाने के लिए मुड़ा ही था कि महर्षि मतंग के मुख से निकले अस्फुट से स्वर उसके कानों में पड़े--  " शिव ! शिव !! शिव !!! जय हो भोलेनाथ ! जय करुणानिधान !!"   इन दिव्य स्वरों को सुनकर वह रुक गया ।उसे शायद इस बात का अनुभव हो गया था कि तपस्वियों में श्रेष्ठ मतंग मुनि की ध्यान साधना विलीन हो चुकी है ।वह पीछे मुड़कर कुछ कह पाता , इससे पहले महर्षि के मुख से उच्चारित हो रही एक गीत की कुछ पंक्तियाँ उसके कानों में पड़ीं ।महर्षि भावविह्वल होकर अपने आप में ही मग्न होकर गा रहे थे ---

        पूर्ण हैं नौ मास, मंगल ग्रह सभी एकत्र हैं ।
        मांगलिक लक्षण , सुशोभित दीखते सर्वत्र हैं ।
         प्रसव पीड़ा के बिना , अद्भुत गुणों के लाल को ।
         अंजना जन्मा रही है , राक्षसों के काल को  ।।

        महर्षि के इन शब्दों में भक्ति थी, विह्वलता थी, अनुराग था, प्रेम था ।ऐसा लग रहा था जैसे उनका सम्पूर्ण हृदय गीत की इन पंक्तियों में उमड़ आया था ।महर्षि मतंग इस दिन बहुत प्रसन्न थे ।वैसे भी वे अंजनी को अपनी सगी बेटी की ही भाँति मानते थे और भोले नाथ तो उनके इष्ट-आराध्य थे ही।

 अपने भावों में खोए हुए महर्षि ने जब देखा कि उनका प्रिय शिष्य सुव्रत उनके कक्ष में संकुचित सा खड़ा है तब महर्षि ने कहा -- " अरे सुव्रत ! आज संकोच की नहीं, बल्कि प्रसन्नता की घड़ी है ।हम सब अभी तुरंत वानर यूथपति केसरी के भवन चलेंगे।" 

       ●● अंजनी के तेजोमय पुत्र हनुमान का जन्म ●●
इधर जब महर्षि मतंग अपने शिष्यों व तपस्वियों के संग अपने कक्ष से निकलने को हुए, उधर महावीर केसरी के भवन में अंजनी ने अपने शिशु को जन्म दिया ।यह शिशु इतना तेजोमय था , लगता था जैसे कि माता अंजनी ने अपने गर्भ से स्वयं बालसूर्य को प्रकट किया हो।अपरिमित तेज, अनोखी दीप्ति और देह से निकलती सुरभित सुरभि। 

इस आश्चर्य के साथ एक आश्चर्य यह भी था कि नवजात अंजनीपुत्र के रोम-रोम से रामधुन निस्सृत हो रही थी ।यह राम नाम का अनाहत संगीत था, जो अंजनी तनय के अंतःकरण के साथ रोम-रोम से भी झर रहा था ।यह अनोखापन केवल माता अंजनी ने ही पहचाना ।अंजनी समझ गई कि भगवान सदाशिव का वरदान आज अपनी संपूर्णता के साथ सच और साकार हुआ है ।अंजनी ने अनुभव किया कि जिस रामभक्त शिशु को उन्होंने जन्म दिया , उस शिशु ने अपनी श्री रामभक्ति की साधना का प्रारंभ जीवन की पहली श्वास के साथ ही कर दिया ।

अपने तेजोमय शिशु को पाकर अंजनी पुलकित थी और वानरराज केसरी आह्लादित ।इस धर्मप्राण दंपति को अपना मनोवांछित मिल गया था ।दोनों ही बहुत खुश थे ।सेविकाएँ प्रसूतिगृह में बालक की परिचर्या में लगीं थीं ।सेविकाओं को हर्ष के साथ यह आश्चर्य भी था कि बालक का जन्म होते समय अंजनी को बिल्कुल भी पीड़ा नहीं हुई ।प्रसव होने के तुरन्त बाद भी वे सम्पूर्ण स्वस्थ हैं ।

              अंजनी पुत्र के जन्म के बाद आश्चर्यचकित होकर एक सेविका कहने लगी -- " ये अंजनीनन्दन अनोखे मातृभक्त हैं, तभी तो इन्होंने अपनी माँ को प्रसवकाल की भी पीड़ा नहीं अनुभव होने दी ।"  तभी किसी सेवक ने आकर समाचार दिया कि महर्षि मतंग अंतेवासियों व आश्रम के शिष्यों के साथ पधारे हैं ।

  ●● वानरराज केसरी द्वारा ऋषिमंडली का स्वागत ●●

जब वानरराज केसरी ने महर्षि , तपस्वियों व शिष्यों के आगमन का समाचार सुना तो वे द्वार की ओर दौड़े ।महर्षि मतंग उनके लिए आराध्य देव की भाँति थे ।इधर मुनिश्रेष्ठ मतंग द्वार पर खड़े ऋषियों से कह रहे थे --- " हे महर्षिगण ! तुम सबकी समस्त जिज्ञासाओं का समाधान वानरराज केसरी के इस भवन में है ।अंजनी के नवजात शिशु के स्वागत के लिए ही प्रकृति ने खुद को सजाया है ।" महर्षि की इस वाणी को न मानने का कोई प्रश्न ही नहीं था , वे जानते थे कि महर्षि मतंग के मुख से मिथ्या वचन उच्चरित हो ही नहीं सकता ।हाँ, उन्हें यह जिज्ञासा अवश्य हो रही थी कि अंजनी का पुत्र आखिर कौन है ?

          यह जिज्ञासा सघन हो पाती , इसके पहले केसरी द्वार पर आ पहुँचे ।उन्होंने आदर के साथ ऋषिगण का यथोचित सत्कार किया ।उनके स्वागत को स्वीकारते हुए महर्षि मतंग ने कहा-- " वानरराज ! हम सब तुम्हारे शिशु के दर्शन के लिए आए हैं ।" 
तब केसरी ने थोड़ा हिचकिताते हुए कहा -- " मुनिवर! अंजनी ने अभी प्रसूति स्नान नहीं किया है ।"  

     केसरी के इस कथन को सुनकर महर्षि थोड़ा हँसे और बोले --- " जिनका नाम त्रिभुवन को पावन करता है, वे जब स्वयं तुम्हारे घर में बालरूप में पधारे हैं तो भला प्रसूति की अपवित्रता कैसी ! फिर भी हम तुम्हारे संकोच को समझते हुए दूर से ही माता और पुत्र को देख लेंगे ।

सचमुच हनुमान जी के जन्म का प्रसंग सभी को हर्षित करने वाला है।
  "हे ज्ञानिकों में श्रेष्ठ हनुमत ज्ञान हमको दीजिए
         हे अंजनी के पुत्र प्रिय विनती मेरी सुन लीजिए "
सादर अभिवादन व धन्यवाद ।





Sunday, October 4, 2020

(आत्मशक्ति) शक्ति के विविध रूप, स्थूल शक्तियाँ, सूक्ष्म शक्तियाँ, मनुष्य की सबसे बड़ी शक्ति "आत्मशक्ति"

                ●● शक्ति के विविध रूप ●●
इस जगत में सब ओर शक्ति का वर्चस्व है ।शक्ति का ही राज है ।शक्ति के बल पर ही मनुष्य संसार में विचरण कर पाता है।शक्ति के विविध रूप हैं, जैसे -- शारीरिक शक्ति, मानसिक शक्ति, आर्थिक शक्ति, सामाजिक शक्ति, आध्यात्मिक शक्ति आदि ।जिन शक्तियों को हम देख सकते हैं, वे स्थूल शक्तियाँ हैं ।जिन शक्तियों को हम देख नहीं सकते, लेकिन वे अपना प्रभाव दिखाती हैं, वे सूक्ष्म शक्तियाँ हैं ।

हम लोग शक्ति की उपासना करते हैं ।शक्ति का संग्रह करते हैं ।अपनी शक्ति को बढ़ाने व विकसित करने के लिए तरह-तरह के उपाय अपनाते हैं ? क्या यह शक्ति हमेशा हमारा साथ देती है ?
यह जरूरी नहीं ।जो आज शक्तिशाली है, वह आने वाले समय में कमजोर भी हो सकता है और जो आज कमजोर दीखता प्रतीत हो रहा है, वह कल शक्तिशाली भी बन सकता है।
                 
      ●●● बाह्य शक्तियाँ ( स्थूल शक्तियाँ) ●●●

ज्यादातर लोगों का ध्यान बाह्य शक्तियों व स्थूल शक्तियों की ओर अधिक होता है और वे इनकी ओर सहजता से आकर्षित हो जाते हैं, जैसे आज भी लोग यह मानते हैं कि जिनके पास धन-दौलत है, प्रसिद्धि है, बहुत सारी सम्पत्ति है, वे बहुत ताकतवर लोग हैं ।सदा से ही दुनिया इस ताकत या शक्ति को मानती रही है और इसे स्वीकारती रही है ।इसलिए दुनिया के लोग इस दौलत की शक्ति को पाना चाहते हैं , लेकिन यह एक बाह्य शक्ति है और इसकी एक निश्चित सीमा है ।

बाहरी शक्तियों में खूबियों के साथ कुछ ख़ामियाँ भी हैं, जैसे बाह्य शक्तियाँ लंबे समय तक व्यक्ति को खुशी नहीं दे सकतीं और न ही उसे बेहतर इन्सान बना सकतीं ।यह व्यक्ति को कभी संपूर्ण संतुष्टि नहीं दे सकतीं ।हाँ, इतना जरूर है कि व्यक्ति अपनी इस बाह्य शक्ति को बढ़ाने की पुरजोर कोशिश में लगा रहता है और अपनी वास्तविक व मूलभूत शक्ति को भूल जाता है ।

●●● सूक्ष्म शक्तियाँ (आत्मशक्ति या अंदरूनी शक्ति) ●●●

हमारी आत्मशक्ति हमें भले ही अन्य बाह्य शक्तियों की तरह दिखाई न दे , लेकिन यह हमारे व्यक्तित्व पर, हमारी सोच व क्रियाकलापों पर जबरदस्त प्रभाव डालती है।इसी प्रभाव के बल पर सामान्य सा दीखने वाला व्यक्ति महामानव बनता है और अपने व्यक्तित्व से असंख्य लोगों को प्रभावित करता है ।आत्मशक्ति के बल पर ही व्यक्ति किसी भी तरह के संकट व झंझावातों से जूझने में नहीं घबराता , जरा भी विचलित नहीं होता और कठिन से कठिन परिस्थितियों का डटकर सामना करता है।

ऐसा नहीं है कि किसी विशेष व्यक्ति में ही यह अंदरूनी ताकत या आत्मशक्ति होती है ।सभी लोगों में यह शक्ति विद्यमान है, लेकिन सब लोग इसे पहचान नहीं पाते और न ही इसका उपयोग कर पाते ।जो व्यक्ति जितना अधिक आत्मस्थ रहता है , स्वयं के प्रति एकाग्र हो पाता है , वह उतना ही अधिक आत्मशक्ति के बारे में जान पाता है।यदि व्यक्ति इस शक्ति के बारे में जानकर इसे प्राप्त करने व अनुभव करने का प्रयास करे तो स्वयं को सशक्त व्यक्तित्व का धनी बना सकता है।

        ●●● सबसे बड़ी शक्ति आत्मशक्ति ●●●

मनुष्य की सबसे बड़ी शक्ति आत्मशक्ति है ।इस आत्मशक्ति के सामने दुनिया के सारे ऐश्वर्य, सुख-सुविधा के साधन , तुच्छ दिखाई पड़ते हैं ।ऐसी जबर्दस्त ऊर्जा व चमक होती है-- आत्मशक्ति में ।आत्मशक्ति की उपासना करने वालों को किसी साधन की आवश्यकता नहीं होती, वे बिना किसी साधन के ही अपना व्यक्तित्व इतना चुंबकीय बना लेते हैं कि सारे साधन, सभी लोग वहीं खिंचे चले आते हैं ।उनके एक इशारे पर लोग कुछ भी करने को तैयार हो जाते हैं ।

इस आत्मशक्ति को विकसित करने के लिए कुछ नियम हैं, जिनका पालन करना होता है , इस आत्मशक्ति का विकास तभी होता है, जब व्यक्ति के इरादे नेक हों, वह सही राह पर चले, सच्चाई का साथ दे, अपने कर्तव्यों के प्रति ईमानदार रहे ।इस राह पर चलकर जब व्यक्ति अपनी आत्मशक्ति को महत्व देता है, इसके विकास के लिए प्रयत्न करता है, तो उसका व्यक्तित्व विकसित होने लगता है और वह व्यक्ति देश-समाज व मनुष्यता के प्रति संवेदनशील हो जाता है ।और इसके साथ ही उसके मन में सकारात्मकता बढ़ने लगती है।

हमारे देश में अनेक ऐसे महापुरुष हुए हैं जो इस आत्मशक्ति अथवा अंदरूनी शक्ति के स्वामी रहे हैं, जैसे -- स्वामी विवेकानंद, श्री राम कृष्ण परमहंस, श्री अरविंद, श्री राम शर्मा आचार्य व अन्य भी।इन महापुरुषों के प्रखर व्यक्तित्व, दिव्य अंदरूनी शक्ति का प्रभाव ऐसा था कि आज भी उनके कक्षों पर जाने पर उस दिव्य ऊर्जा का एहसास होता है ।उनकी सामान्य सी दीखने वालीं वस्तुएँ  भी ऊर्जाओं से ओतप्रोत लगती हैं ।एक प्रकार से आज भी इनका व्यक्तित्व जीवित है और लोगों के लिए इनका जीवन प्रेरणादायक है।

इन अंदरूनी शक्ति (आत्मशक्ति) के बल पर कोई भी व्यक्ति अपनी पहचान बना सकता है, अपने महत्व को जान सकता है और अपनी क्षमताओं का सही उपयोग कर सकता है ।परिस्थितियाँ कितनी भी विषम क्यों न हों इस शक्ति के बल पर परिस्थितियों में परिवर्तन लाया जा सकता है ।

महात्मा गांधी का व्यक्तित्व इसी आत्मशक्ति से भरपूर था , उनके द्वारा अहिंसा का मार्ग अपनाने के बावजूद अँग्रेजों को उनके सामने झुकना पड़ा, हार माननी पड़ी ।जब महात्मा गाँधी जी की मृत्यु हुई , तब उनके पास जो सामान था, उनमें उनका चश्मा, दो जोड़ी चप्पलें, एक चरखा , एक घड़ी और ऐसी ही कुछ सामान्य वस्तुएँ थीं ।कुछ विशेष-बहुमूल्य कही जाने वाली कोई भी चीज उनके पास से नहीं मिली । लेकिन सबसे बहुमूल्य चीज उनके पास थी वह उनकी अंदरूनी शक्ति ( आत्मशक्ति) ही थी।

इसी तरह हम अन्य महापुरुषों जैसे - स्वामी विवेकानंद, स्वामी रामकृष्ण परमहंस, श्री अरविंद के जीवन पर प्रकाश डालें तो पाएँगे कि इन सभी के पास एक बहुमूल्य वस्तु थी तो केवल उनका आत्मबल ही था।इसके साथ ही हम कुछ खिलाडियों को देखें तो पाएँगे कि शारीरिक रूप से कमजोर होने पर भी उन्होंने इस आत्मशक्ति के बल पर दुनिया में अपना लोहा मनवाया है ।

हम सभी भी अपनी आत्मशक्ति को पहचानें और जीवन में ऊँचाई हासिल करें ।इस आत्मशक्ति के बल पर हम भी अपनी क्षमताओं को पहचान कर अपनी पहचान बना सकते हैं।

सादर अभिवादन व धन्यवाद ।

Thursday, October 1, 2020

अनुभव ही सच्चा ज्ञान है, ऋषियों के अनुसार विचार नहीं अनुभव ही श्रेष्ठ है ।

                  ●● अनुभव ही सच्चा ज्ञान ●●
अनुभव ही सच्चा ज्ञान है ।अनुभव, जीवन का अनुभव। जो स्वयं का सच है, खुद का देखा ,परखा, जाना-पहचाना है, इसी में अपने अस्तित्व की अभिव्यक्ति होती है ।जो व्यक्त होता है, वही अपना होता है, शेष तो कागज का लिखा है अर्थात-- दूसरों का सच है, अपना नहीं ।
          कबीर दास के अंतस् की अंतर्कथा में अनुभव का पुट गहरा है--
       " मैं कहता आँखन की देखी, तू कहता कागद की लेखी "--

                       अनुभव, जीवन का अनुभव ! इसके फलक के विविध पहलुओं को जिसने संस्पर्श किया है, अंतस् की गहराई में जिसने पाया है, वही सच्चा ज्ञानी है, और उसका अनुभव ही सच्चा अनुभव है।वह ज्ञान चाहे किसी अनपढ़ हल चलाने वाले किसान का हो या आजीविका के साधन के लिए रिक्शा खींचने वाले का । वह ज्ञान आधुनिकता के श्रंगार में थिरकते पाँवों का हो या जनसेवा के लिए लगे स्वच्छता अभियान में लगे हाथों का , वही सच्चा ज्ञान है, शेष तो अज्ञान है, क्योंकि वह दूसरों कि सच्चाई की व्याख्या और बखान है।

अनुभव अपने अंतर्मन में उतरकर ही पाया जाता है।अनुभवी का ज्ञान अंतस् को प्रकाशित करता है, भावनाओं को पोषण देता है, क्योंकि वह उसका बोध करता है ।यहाँ भ्रम नहीं होता ।'शायद यह है या वह'  का सन्देह नहीं होता ।अनुभवी के नेत्र आर-पार देखते हैं ।उसके नेत्र ऐसा देखते हैं, जैसे किताबों के पृष्ठों में उभरे हुए स्पष्ट अक्षर ।अनुभवी अनोखा देखता है और बोलता भी ऐसा, जिसे न कभी बोला गया और न कभी सुना ही गया । इस अनबोले , अनकहे और अनसुने को जगत नकारता है अर्थात प्रमाण माँगता है।

  ●● ऋषियों के अनुसार विचार नहीं, अनुभव श्रेष्ठ है ●●

भारत के प्राचीन ऋषि सिद्धान्तों के आग्रही नहीं थे ।ऋषियों का कथन है -- विचार धोखा दे सकते हैं, लेकिन अनुभूति कभी भी धोखा नहीं देती ।विचार में डर है ।विचार में हम प्रायः उस बात को मान लेते हैं, जो हम मानना चाहते हैं ।विचार में कभी-कभी हमारी कामनाओं की तृप्ति छिपी रहती है ।

अनुभवी जो देखता है, वही बोलता है ।उसके देखने और बोलने में तारतम्य है, उसकी दृष्टि और वाणी में सच्चाई है, श्रंगार है, संगीत है ; क्योंकि संगीत तो भावों से फूटता है, सिंदूरी श्रंगार की आभा इसी से झलकती है ।अनुभवी की वाणी वही बोलती है, जिसे आँखों ने गहराई से देखा हो और जीवन में वही करता भी है।ऐसी दुर्लभ घटना विरलों में घटती है, परंतु घटती अवश्य है और जिसके जीवन में अनुभव की सच्चाई घटती है, वही तो सुन्दर आँखों वाला है।

पंखुड़ियों में गिरती ओस की बूँदें प्राची से आती सुनहली किरणें कभी भी पुरानी और बासी नहीं होतीं हैं ।ठीक उसी प्रकार जीवन के विविध आयाम सदा-सर्वदा अभिनव नयनाभिराम होते हैं ।यह कागज की लिखी नहीं, आँखों की देखी है।

अनुभवी अनोखा देखता है और बोलता भी ऐसा,जिसे न कभी बोला गया और न कभी सुना ही गया ।इस अनबोले, अनकहे और अनसुने को जगत नकारता है,अस्वीकार करता है और कहता है कि जो आज तक कभी हुआ नहीं, देखा-जाना नहीं गया, वो कैसे सच हो सकता है ।संसार के लिए वही सच है, जो लोग कहते हैं और झूठ वही है, जो लोक मान्यता में प्रचलन न हो।

अंतर का दिव्य आनन्द, हृदय में उपजी संवेदनाएँ, सेवा सहकार से उपजा उमंग-उल्लास सब कुछ अनुभव की सच्चाई है।इन दिव्य तत्वों का सच, मात्र अनुभव का सच है, जिसे हम में से हर कोई पा , देख और जान सकता है ।बस अपने अंतर में उतरने की बात है ।हर व्यक्ति अपनी स्थिति-परिस्थिति के अनुरूप, कुशल मार्गदर्शक एवं सलाहकार के मार्गदर्शन से अपने भावों की गहराई में डूबकर वह सब कुछ पा सकता है, जिसकी प्राप्ति के अभाव में सब मात्र कपोल कल्पना लगता है।
कबीर की वाणी, नानक के बोल, सूरदास के सुर, मीरा के गीत सब कुछ अनुभव का सच है, आँखन देखी है।चाहें तो इसे हम भी अनुभव कर सकते हैं ।बस, हमें बाहर से अन्दर की ओर मुड़ना होगा, अंदर मुड़कर जब गति और लय बन जाती है, अंदर-बाहर का भेद समाप्त हो जाता है, सब एक हो जाता है, उस परम आनन्द की अनुभूति होने लगती है।

           अतः हमें अपने ही अन्दर उतरकर ( ध्यान साधना के द्वारा) अनुभव के दिव्य प्रसाद से आनंदित होने का प्रयास करना चाहिए ।

    " मन की वीणा के तारों में अंतर्मन की झंकार को सुन "

सादर अभिवादन व धन्यवाद ।