भारतीय ऋषि-मुनियों ने प्राचीन काल में ही वास्तुविज्ञान के बारे में पता लगा लिया था और वास्तुशास्त्र के नियम बनाए थे। हमारा शरीर भी एक प्रकार का घर है, जो कि आत्मा का निवास स्थल है।यह शरीररूपी घर तो परमात्मा स्वयं प्रदान करते हैं, लेकिन इस संसार में रहने के लिए घर हमें स्वयं बनाना पड़ता है।हमारा घर हमारे लिए स्वास्थ्यबर्द्धक व ब्रह्मांडीय ऊर्जा से लाभान्वित कर सके , इसके लिए हमें वास्तुशास्त्र के नियमों को जानना आवश्यक है।
वास्तुशास्त्र को भारतीय संस्कृति में चौंसठ महत्वपूर्ण विधाओं में से एक माना गया है , जिसका मूल स्रोत वेद ( स्थापत्य वेद) हैं ।
वास्तुशास्त्र के नियमों के अतिरिक्त और कोई ऐसा नियम नहीं है, जिससे यह पता लगाया जा सके कि कोई भवन सही ढंग से बना हुआ है या नहीं ।इसलिए समरांगण सूत्रधार में यह बात कही गई है कि--
वास्तुशास्त्रदूते तस्य न स्याल्डः क्षणनिश्चयः।
थस्माल्लोकस्य कृपयाशास्त्रमते दुरीर्यते ।।
यह भौतिक जगत पाँच महत्वपूर्ण तत्वों - अग्नि, जल, वायु, पृथ्वी, आकाश से बना है ।हमारा शरीर भी अग्नि, जल, वायु, पृथ्वी और आकाश इन पाँच तत्वों से निर्मित है।अतः वास्तु ( भवन) एवं काया वास्तु ( मानव शरीर) दोनों में पाँचों तत्वों का सही संतुलन है तो उनमें रहने वालों को स्वास्थ्य के साथ-साथ सुख- शान्ति का भी अनुभव होता है।वास्तुशास्त्र में यही मूल तत्त्व निहित है।
भगवान विश्वकर्मा जो कि विश्व के प्रथम स्थपति कहे गए हैं वे ब्रह्मा के मानस पुत्रों में से एक हैं।देवताओं के लिए समस्त निर्माण कार्य वे ही किया करते थे।
वास्तुशास्त्र का ऐतिहासिक रूप ----
वैदिक काल में वास्तुशास्त्र विद्या का विकास ब्राह्मण, आरण्यक, उपनिषद् एवं पौराणिक कालमें हुआ ।इसके बाद उत्तर वैदिक काल जिसे रामायण एवं महाभारत काल भी कहते हैं ।इस काल में वास्तुशास्त्र का और भी विस्तार हुआ।अयोध्या नगरी, लंका नगरी , द्वारका एवं हस्तिनापुर आदि की स्थापत्य कला बड़ी उत्कृष्ट थी।
इन नगरों की सुंदरता, निर्माण कला अनुपम एवं अद्वितीय थी।
अयोध्या के निर्माता भगवान् मनु थे ; जब कि अन्य नगरों के निर्माता विश्वकर्मा व मय थे।इसके बाद छठवीं शताब्दी ईसा पूर्व तक इसका अधिक विकास नहीं हुआ; क्योंकि चौथी शताब्दी में भारतीय संस्कृति को भारी नुकसान हुआ ।इसके बाद चाणक्य काल में वास्तुशास्त्र को नया आधार मिला।इस काल में भवनों, महलों, सभागारों, अस्त्रालयों, मन्दिरों व अतिथिगृहों को नया स्वरूप प्रदान किया गया।
मध्यकाल में विदेशी आक्रांताओं एवं मुगल आक्रमणकारियों के कारण भारतीय वास्तुकला संक्रमण काल से गुजरी।यही क्रम अंग्रेजों के शासन काल में रहा और धीरे-धीरे वास्तुकला पर दूसरी शिल्पकलाओं का प्रभाव हो गया।आधुनिक समय में विद्वानों एवं सामान्यजनों के मन में पुनः वास्तुशास्त्र के नियमों के प्रति उत्कंठा जाग्रत हुई है।
वास्तुशास्त्र का ज्ञान केवल भारत देश तक ही सीमित नहीं था , बल्कि विश्व के अनेक देशों में वास्तुशास्त्र के सिद्धांतों का पालन किया जाता था और वास्तुशास्त्र को विभिन्न नामों से जाना जाता था ।लैटिन में वास्तुशास्त्र को 'जियोमेंशिया' व अरब में इसे 'रेत का शास्त्र' कहते हैं ।तिब्बत में वास्तुशास्त्र को 'बगुवातन्त्र' कहते हैं और द्क्षिण- पूर्व एशिया में वास्तुशास्त्र को 'फेंगशुई' कहते हैं ।
वास्तुशास्त्र के नियमों का मूल आधार-----
वास्तुशास्त्रियों ने अपने अनुसंधान एवं प्रकृति के अनेक रहस्यमयी ऊर्जाओं के संतुलन के ज्ञान के आधार पर वास्तुशास्त्र के नियमों को बनाया था।उनका मानना है कि आकाश से वायु, वायु से जल, जल से अग्नि और अग्नि से पृथ्वी का निर्माण हुआ है।वास्तुशास्त्र के नियमों के मूल में इन सभी ऊर्जाओं का समावेश है, जिनका विभिन्न दिशाओं से विकरण एवं उत्सर्जन होता है।
इस ब्रह्माण्ड में चुंबकीय ऊर्जा का प्रवाह मुख्यतः उत्तर से दक्षिण की ओर रहता है।आकाश से अंतरिक्ष ऊर्जाएँ प्राप्त होती हैं, पूर्व से सूर्य की ऊर्जा प्राप्त होती है जो कि प्राणियों के प्राणों का मूलस्रोत है।सूर्योदय के साथ ही विश्व में प्राणाग्नि का संचार होता है, स्वर विज्ञान में प्राणवायु को ही आत्मा माना गया है ।इन समस्त ऊर्जाओं के संतुलन के लिए प्राचीन विद्वानों ने ईश्वरीय प्रकृति की रचना के मूल सिद्धांतों को जानने की कोशिश की ।तब उन्होंने जाना कि इस भौतिक जगत का निर्माण एक निश्चित गणितीय माप के आकार के अंतर्गत हुआ है तथा सभी प्रकार की ऊर्जाओं का प्रभाव निर्धारित समय पर संपन्न होता है, जिसमें कहीं भी कोई भेदभाव नहीं है।
प्राचीन विद्वानों ने जाना कि मानव, जीव, जन्तु, पशु, पक्षी एवं वनस्पति सभी निश्चित माप में, आकार में निर्धारित तंत्रिका के अंतर्गत बने हैं ।उनके पोषण व वंशवृद्धि की समुचित विराट व्यवस्था प्रकृति में विद्यमान है। वास्तुशास्त्रियों ने अपने दीर्घकालीन अनुसंधानों, अनुभवों के आधार पर इन्हीं सारी विधाओं एवं प्राकृतिक रहस्यों को वास्तुशास्त्र के नियमों का मूल आधार माना है।
वास्तुशास्त्र के सिद्धांतों में काल्पनिक वास्तुपुरुष की कल्पना----
वास्तुशास्त्र के सिद्धांतों में एक वास्तुपुरुष की कल्पना की गई है, जो एक भूखंड पर निर्मित भवन का अधिष्ठाता होता है।अनेक अनुसंधानों से यह ज्ञात होता है कि जो तत्व पृथ्वी के वृहद आकार में है, वही तत्व एक छोटे भूखंड में भी पाया जाता है ।जब किसी भूखंड के चारों ओर दीवार बनाकर भवन निर्माण किया जाता है तो ऐसे स्थल में निश्चित ऊर्जा एवं अंतरिक्ष की अनेक शक्तियाँ विद्यमान हो जाती हैं , जिनका संतुलन भवन में करना आवश्यक हो जाता है।
वास्तुपुरुष के बारे में अनेक कथानक प्रचलित हैं- वृहदसंहिता में यह कथा है कि प्राचीन काल में अपने शरीर से पृथ्वी और आकाश को ढकने वाला कोई अपरिचित व्यक्ति उत्पन्न हुआ।उसे सहसा देखकर देवताओं ने पकड़कर नीचे मुख करके पृथ्वी पर स्थापित कर दिया। उस देवतुल्य अपरिचित व्यक्ति को ब्रह्मा जी ने 'वास्तुपुरुष' की संज्ञा दी ।वास्तुपुरुष के संबंध में विभिन्न तरह के विवरण वृहद संहिता, पुष्कर संहिता, समरांगण सूत्रधार, मयमत, एवं मानसार आदि में उपलब्ध हैं ।
वास्तुपुरुष मंडल का वैज्ञानिक आधार भी है।वैज्ञानिक अनुसंधान से यह पता चलता है कि ऑक्सीजन की मात्रा पृथ्वी की सतह के नीचे भी उपलब्ध है ।यदि हम पृथ्वी को एक जीवित वस्तु मान लें तो वास्तुशास्त्र के विभिन्न सिद्धान्तों को आसानी से समझ सकते हैं ।वास्तुपुरुष के बारे में कल्पना यह भी है कि वह उत्तर- पूर्व ईशान कोण में अपना सिर रखे हुए है अतः वास्तुशास्त्र में उत्तर- पूर्व दिशा को सर्वाधिक महत्व दिया गया है।
वास्तुशास्त्र के नियम, सिद्धान्त व प्रभाव-----
आज समस्त विश्व के लोग वास्तुशास्त्र के नियमों, सिद्धान्तों व प्रभावों को स्वीकारते हैं ।एक यूरोपीय वास्तुविद के अनुसार-- किसी भी देश की संस्कृति और उसके राष्ट्रीय चरित्र की झलक उस देश की स्थापत्य कला के आंकलन से जानी जा सकती है।
जैसे - ग्रीस की वास्तुकला में सैनिक अनुशासन की झलक मिलती है। इटली की वास्तुकला में नज़ाकत, सुंदरता और मानवीय ऊर्जा को अनुभव किया जा सकता है ।
भारतीय वास्तुकला में ईश्वर के प्रति समर्पण की भावना , सुंदरता का गूढ़ ज्ञान और प्रकृति के संतुलन का ज्ञान झलकता है।भारतीय वास्तुकला का लक्ष्य परम तत्व की अनुभूति है।इसे समझने के लिए स्थूल नहीं सूक्ष्म दृष्टि की आवश्यकता है।
वैज्ञानिक सोच के अनुसार वास्तु में मुख्य ऊर्जा का स्रोत पूर्व एवं उत्तर को ही माना गया है।इसी सिद्धांत के आधार पर पूर्व एवं उत्तर दिशा के भाग को अधिक से अधिक खुला रखने के निर्देश हैं ।उत्तर- पूर्व में ईशान कोण ईश्वर का स्थान है, जिसे साफ़-सुथरा व खुला रखने का निर्देश है तथा दक्षिण पश्चिम में यम का स्थान है, जिसे बन्द रखने के लिए कहा गया है ।
सर्वप्रथम ईशान कोण से आने वाली ऊर्जा उत्तर- पश्चिम में जाती है, जिसे वायव्य कोण कहते हैं और ईशान कोण से ही ऊर्जा दक्षिण- पश्चिम में जाती है, जिसे नैऋत्य कोण कहते हैं ।दक्षिण- पूर्व को अग्नि कोण माना गया है, जिसे भोजन पकाने के लिए सबसे उपयुक्त माना गया है।
चल वास्तुपुरुष की भी कल्पना वास्तुसिद्धान्त में की गई है, जिसके अंतर्गत सूर्य की स्थिति के अनुसार वास्तुपुरूष की स्थिति बदलती रहती है ।अतः इसके अंतर्गत प्रत्येक दिशा में दरवाजे, खिड़की, बालकनी आदि की स्थितियाँ बनानी होती हैं तथा मौसम के अनुसार इनका उपयोग करना होता है।
हमारे ऋषि-मुनियों को ब्रह्मांड से आने वाली ऊर्जाओं का ज्ञान था ।इस ज्ञान के आधार पर वास्तुशास्त्र के नियम इस प्रकार गढ़े गए हैं कि प्राकृतिक ऊर्जा मनुष्य के लिए हितकर हो।वास्तु नियम है कि उत्तर और पूर्व में निर्माण हल्का होना चाहिए, दक्षिण और पश्चिम में भारी।इसका मुख्य कारण है कि उत्तर और पूर्व से सौर ऊर्जा का समुचित प्रवेश हो और दक्षिण और पश्चिम का भारी निर्माण इस ऊर्जा का ह्रास होने से बचा सके और यह ऊर्जा घर और घर के सदस्यों को स्वस्थ रख सके।
एक और वास्तुनियम यह है कि सोते समय सिर दक्षिण की ओर रहना चाहिए ।वैज्ञानिक तथ्य है कि चुंबकीय क्षेत्र उत्तर से दक्षिण की ओर प्रवाहित होता है।हमारे शरीर में चुंबकीय क्षेत्र सिर से पैर की ओर प्रवाहित होता है ।दक्षिण में सिर और उत्तर में पैर करने से ऊर्जा का चक्र पूरा हो जाता है ।इस ऊर्जा से मनुष्य के मस्तिष्क की लाखों कोशिकाएँ तीव्र गति से सक्रिय हो जाती हैं, इससे गहरी नींद आती है और तन- मन दोनों स्वस्थ हो जाते हैं ।
वास्तुशास्त्र का एक उदाहरण दिल्ली और आगरा के लालकिलों में देखने को मिलता है-- वास्तु का नियम है कि यदि भूखंड अथवा भवन का ईशान कोण बढ़ा हुआ हो तो वह अत्यन्त शुभ होता है।आगरा के लाल किले का ईशान कोण बढ़ा हुआ है और इतिहास साक्षी है कि आगरा के जिन मुगलशासकों ने राज किया , वे अत्यन्त सफल हुए।दूसरी ओर दिल्ली के लाल किले में बहुत से वास्तु दोष हैं, इतिहास दिल्ली के शासकों की असफलता का भी गवाह है।
इस तरह वास्तुशास्त्र एक संपूर्ण विज्ञान है और यदि इसके सिद्धान्तों व नियमों को अपनाया जाए तो अपने घर को सकारात्मक ऊर्जा का स्रोत बनाया जा सकता है, जो कि घर में रहने वाले सदस्यों के लिए उन्नति का द्वार खोल सकता है।
सादर अभिवादन व धन्यवाद ।