head> ज्ञान की गंगा / पवित्रा माहेश्वरी ( ज्ञान की कोई सीमा नहीं है ): 2019

Sunday, December 29, 2019

वास्तुशास्त्र एक संपूर्ण विज्ञान है- वास्तुशास्त्र के सिद्धांतों व नियमों को अपनाकर भवन को सकारात्मक ऊर्जा का स्रोत बनाया जा सकता है ।

                  ●●●वास्तुशास्त्र क्या है ?●●●
भारतीय ऋषि-मुनियों ने प्राचीन काल में ही वास्तुविज्ञान के बारे में पता लगा लिया था और वास्तुशास्त्र के नियम बनाए थे। हमारा  शरीर भी एक प्रकार का घर है, जो कि आत्मा का निवास स्थल है।यह शरीररूपी घर तो परमात्मा स्वयं प्रदान करते हैं, लेकिन इस संसार में रहने के लिए घर हमें स्वयं बनाना पड़ता है।हमारा घर हमारे लिए स्वास्थ्यबर्द्धक व ब्रह्मांडीय ऊर्जा से लाभान्वित कर सके , इसके लिए हमें वास्तुशास्त्र के नियमों को जानना आवश्यक है।
वास्तुशास्त्र को भारतीय संस्कृति में चौंसठ महत्वपूर्ण विधाओं में से एक माना गया है , जिसका मूल स्रोत वेद ( स्थापत्य वेद) हैं ।
वास्तुशास्त्र के नियमों के अतिरिक्त और कोई ऐसा नियम नहीं है, जिससे यह पता लगाया जा सके कि कोई भवन सही ढंग से बना हुआ है या नहीं ।इसलिए समरांगण सूत्रधार में यह बात कही गई है कि--
    वास्तुशास्त्रदूते तस्य न स्याल्डः क्षणनिश्चयः।
    थस्माल्लोकस्य  कृपयाशास्त्रमते  दुरीर्यते  ।।

                  यह भौतिक जगत पाँच महत्वपूर्ण तत्वों - अग्नि, जल, वायु, पृथ्वी, आकाश से बना है ।हमारा  शरीर भी  अग्नि, जल, वायु, पृथ्वी और आकाश इन पाँच तत्वों से निर्मित है।अतः वास्तु ( भवन) एवं काया वास्तु ( मानव शरीर) दोनों में पाँचों तत्वों का सही संतुलन है तो  उनमें रहने वालों को स्वास्थ्य के साथ-साथ सुख- शान्ति का भी अनुभव होता है।वास्तुशास्त्र में यही मूल तत्त्व निहित है।

भगवान विश्वकर्मा जो कि विश्व के प्रथम स्थपति कहे गए हैं वे ब्रह्मा के मानस पुत्रों में से एक हैं।देवताओं के लिए समस्त निर्माण कार्य वे ही किया करते थे।

वास्तुशास्त्र का ऐतिहासिक रूप ----

वैदिक काल में वास्तुशास्त्र विद्या का विकास ब्राह्मण, आरण्यक, उपनिषद् एवं पौराणिक कालमें हुआ ।इसके बाद उत्तर वैदिक काल जिसे रामायण एवं महाभारत काल भी कहते हैं ।इस काल में वास्तुशास्त्र का और भी विस्तार हुआ।अयोध्या नगरी, लंका नगरी , द्वारका एवं हस्तिनापुर आदि की स्थापत्य कला बड़ी उत्कृष्ट थी।
इन नगरों की सुंदरता, निर्माण कला अनुपम एवं अद्वितीय थी।

     अयोध्या के निर्माता भगवान् मनु थे ; जब कि अन्य नगरों के निर्माता विश्वकर्मा व मय थे।इसके बाद  छठवीं शताब्दी ईसा पूर्व तक इसका अधिक विकास नहीं हुआ; क्योंकि चौथी शताब्दी में भारतीय संस्कृति को भारी नुकसान हुआ ।इसके बाद चाणक्य काल में वास्तुशास्त्र को नया आधार मिला।इस काल में भवनों, महलों, सभागारों, अस्त्रालयों, मन्दिरों व अतिथिगृहों को नया स्वरूप प्रदान किया गया।

मध्यकाल में विदेशी आक्रांताओं एवं मुगल आक्रमणकारियों के  कारण भारतीय वास्तुकला संक्रमण काल से गुजरी।यही क्रम अंग्रेजों के शासन काल में रहा और धीरे-धीरे वास्तुकला पर दूसरी शिल्पकलाओं का प्रभाव हो गया।आधुनिक समय में विद्वानों एवं सामान्यजनों  के मन में पुनः वास्तुशास्त्र के नियमों के प्रति उत्कंठा जाग्रत हुई है।

                वास्तुशास्त्र का ज्ञान केवल भारत देश तक ही सीमित नहीं था , बल्कि विश्व के अनेक देशों में वास्तुशास्त्र के सिद्धांतों का पालन किया जाता था और वास्तुशास्त्र को विभिन्न नामों से जाना जाता था ।लैटिन में वास्तुशास्त्र को  'जियोमेंशिया'  व अरब में इसे 'रेत का शास्त्र' कहते हैं ।तिब्बत में वास्तुशास्त्र को 'बगुवातन्त्र' कहते हैं और द्क्षिण- पूर्व एशिया में वास्तुशास्त्र को  'फेंगशुई' कहते हैं ।

वास्तुशास्त्र के नियमों का मूल आधार-----

वास्तुशास्त्रियों ने अपने अनुसंधान एवं प्रकृति के अनेक रहस्यमयी ऊर्जाओं के संतुलन के ज्ञान के आधार पर वास्तुशास्त्र के नियमों को बनाया था।उनका मानना है कि आकाश से वायु, वायु से जल, जल से अग्नि और अग्नि से पृथ्वी का निर्माण हुआ है।वास्तुशास्त्र के नियमों के मूल में इन सभी ऊर्जाओं का समावेश है, जिनका विभिन्न दिशाओं से विकरण एवं उत्सर्जन होता है।

इस ब्रह्माण्ड में चुंबकीय ऊर्जा का प्रवाह मुख्यतः उत्तर से दक्षिण की ओर रहता है।आकाश से अंतरिक्ष ऊर्जाएँ प्राप्त होती हैं, पूर्व से सूर्य की ऊर्जा प्राप्त होती है जो कि प्राणियों के प्राणों का मूलस्रोत है।सूर्योदय के साथ ही विश्व में प्राणाग्नि का संचार होता है, स्वर विज्ञान में प्राणवायु को ही आत्मा माना गया है ।इन समस्त ऊर्जाओं के संतुलन के लिए प्राचीन विद्वानों ने ईश्वरीय प्रकृति की रचना के मूल सिद्धांतों को जानने की कोशिश की ।तब उन्होंने जाना कि इस भौतिक जगत का निर्माण एक निश्चित गणितीय माप के आकार के अंतर्गत हुआ है तथा सभी प्रकार की ऊर्जाओं का प्रभाव निर्धारित समय पर संपन्न होता है, जिसमें कहीं भी कोई भेदभाव नहीं है।

प्राचीन विद्वानों ने जाना कि मानव, जीव, जन्तु, पशु, पक्षी एवं वनस्पति सभी निश्चित माप में, आकार में निर्धारित तंत्रिका के अंतर्गत बने हैं ।उनके पोषण व वंशवृद्धि की समुचित विराट व्यवस्था प्रकृति में विद्यमान है। वास्तुशास्त्रियों ने अपने दीर्घकालीन अनुसंधानों, अनुभवों के आधार पर इन्हीं सारी विधाओं एवं प्राकृतिक रहस्यों को वास्तुशास्त्र के नियमों का मूल आधार माना है।

वास्तुशास्त्र के सिद्धांतों में काल्पनिक वास्तुपुरुष की कल्पना----

               वास्तुशास्त्र के सिद्धांतों में एक वास्तुपुरुष की कल्पना की गई है, जो एक भूखंड पर निर्मित भवन का अधिष्ठाता होता है।अनेक अनुसंधानों से यह ज्ञात होता है कि जो तत्व पृथ्वी के वृहद आकार में है, वही तत्व एक छोटे भूखंड में भी पाया जाता है ।जब किसी भूखंड के चारों ओर दीवार बनाकर भवन निर्माण किया जाता है तो ऐसे स्थल में निश्चित ऊर्जा एवं अंतरिक्ष की अनेक शक्तियाँ विद्यमान हो जाती हैं , जिनका संतुलन भवन में करना आवश्यक हो जाता है।


                       वास्तुपुरुष के बारे में अनेक कथानक प्रचलित हैं- वृहदसंहिता में यह कथा है कि प्राचीन काल में अपने शरीर से पृथ्वी और आकाश को ढकने वाला कोई अपरिचित व्यक्ति उत्पन्न हुआ।उसे सहसा देखकर देवताओं ने पकड़कर नीचे मुख करके पृथ्वी पर स्थापित कर दिया। उस देवतुल्य अपरिचित व्यक्ति को ब्रह्मा जी ने 'वास्तुपुरुष' की संज्ञा दी ।वास्तुपुरुष के संबंध में विभिन्न तरह के विवरण वृहद संहिता, पुष्कर संहिता, समरांगण सूत्रधार, मयमत, एवं मानसार आदि में उपलब्ध हैं ।

                             वास्तुपुरुष मंडल का वैज्ञानिक आधार भी है।वैज्ञानिक अनुसंधान से यह पता चलता है कि ऑक्सीजन की मात्रा पृथ्वी की सतह के नीचे भी उपलब्ध है ।यदि हम पृथ्वी को एक जीवित वस्तु मान लें तो वास्तुशास्त्र के विभिन्न सिद्धान्तों को आसानी से समझ सकते हैं ।वास्तुपुरुष के बारे में कल्पना यह भी है कि वह उत्तर- पूर्व ईशान कोण में अपना सिर रखे हुए है अतः वास्तुशास्त्र में उत्तर- पूर्व दिशा को सर्वाधिक महत्व दिया गया है।

वास्तुशास्त्र के नियम, सिद्धान्त व प्रभाव-----

आज समस्त विश्व के लोग वास्तुशास्त्र के नियमों, सिद्धान्तों व प्रभावों को स्वीकारते हैं ।एक यूरोपीय वास्तुविद के अनुसार-- किसी भी देश की संस्कृति और उसके राष्ट्रीय चरित्र की झलक उस देश की स्थापत्य कला के आंकलन से जानी जा सकती है।
जैसे - ग्रीस की वास्तुकला में सैनिक अनुशासन की झलक मिलती है। इटली की वास्तुकला में नज़ाकत, सुंदरता  और मानवीय ऊर्जा को अनुभव किया जा सकता है ।

भारतीय वास्तुकला में ईश्वर के प्रति समर्पण की भावना , सुंदरता का गूढ़ ज्ञान और प्रकृति के संतुलन का ज्ञान झलकता है।भारतीय वास्तुकला का लक्ष्य परम तत्व की अनुभूति है।इसे समझने के लिए स्थूल नहीं सूक्ष्म दृष्टि की आवश्यकता है।

                    वैज्ञानिक सोच के अनुसार वास्तु में मुख्य ऊर्जा का स्रोत पूर्व एवं उत्तर को ही माना गया है।इसी सिद्धांत के आधार पर पूर्व एवं उत्तर दिशा के भाग को अधिक से अधिक खुला रखने के निर्देश हैं ।उत्तर- पूर्व में ईशान कोण ईश्वर का स्थान है, जिसे साफ़-सुथरा व खुला रखने का निर्देश है तथा दक्षिण पश्चिम में यम का स्थान है, जिसे बन्द रखने के लिए कहा गया है ।

                                         सर्वप्रथम ईशान कोण से आने वाली ऊर्जा उत्तर- पश्चिम में जाती है, जिसे वायव्य कोण कहते हैं और ईशान कोण से ही ऊर्जा दक्षिण- पश्चिम में जाती है, जिसे नैऋत्य कोण कहते हैं ।दक्षिण- पूर्व को अग्नि कोण माना गया है, जिसे भोजन पकाने के लिए सबसे उपयुक्त माना गया है।

चल वास्तुपुरुष की भी कल्पना वास्तुसिद्धान्त में की गई है, जिसके अंतर्गत सूर्य की स्थिति के अनुसार वास्तुपुरूष की स्थिति बदलती रहती है ।अतः इसके अंतर्गत प्रत्येक दिशा में दरवाजे, खिड़की, बालकनी आदि की स्थितियाँ बनानी होती हैं तथा मौसम के अनुसार इनका उपयोग करना होता है।

                  हमारे ऋषि-मुनियों को ब्रह्मांड से आने वाली ऊर्जाओं का ज्ञान था ।इस ज्ञान के आधार पर वास्तुशास्त्र के नियम इस प्रकार गढ़े गए हैं कि प्राकृतिक ऊर्जा मनुष्य के लिए हितकर हो।वास्तु नियम है कि उत्तर और पूर्व में निर्माण हल्का होना चाहिए, दक्षिण और पश्चिम में भारी।इसका मुख्य कारण है कि उत्तर और पूर्व से सौर ऊर्जा का समुचित प्रवेश हो और दक्षिण और पश्चिम का भारी निर्माण इस ऊर्जा का ह्रास होने से बचा सके और यह ऊर्जा घर और घर के सदस्यों को स्वस्थ रख सके।

एक और वास्तुनियम यह है कि सोते समय सिर दक्षिण की ओर रहना चाहिए ।वैज्ञानिक तथ्य है कि चुंबकीय क्षेत्र उत्तर से दक्षिण की ओर प्रवाहित होता है।हमारे शरीर में चुंबकीय क्षेत्र सिर से पैर की ओर प्रवाहित होता है ।दक्षिण में सिर और उत्तर में पैर करने से ऊर्जा का चक्र पूरा हो जाता है ।इस ऊर्जा से मनुष्य के मस्तिष्क की लाखों कोशिकाएँ तीव्र गति से सक्रिय हो जाती हैं, इससे गहरी नींद आती है   और तन- मन दोनों स्वस्थ हो जाते हैं ।

वास्तुशास्त्र का एक उदाहरण दिल्ली और आगरा के लालकिलों में देखने को मिलता है-- वास्तु का नियम है कि यदि भूखंड अथवा भवन का ईशान कोण बढ़ा हुआ हो तो वह अत्यन्त शुभ होता है।आगरा के लाल किले का ईशान कोण बढ़ा हुआ है और इतिहास साक्षी है कि आगरा के जिन मुगलशासकों ने राज किया , वे अत्यन्त सफल हुए।दूसरी ओर दिल्ली के लाल किले में बहुत से वास्तु दोष हैं, इतिहास दिल्ली के शासकों की असफलता का भी गवाह है।

इस तरह वास्तुशास्त्र एक संपूर्ण विज्ञान है और यदि इसके सिद्धान्तों व नियमों को अपनाया जाए तो अपने घर को सकारात्मक ऊर्जा का स्रोत बनाया जा सकता है, जो कि घर में रहने वाले सदस्यों के लिए उन्नति का द्वार खोल सकता है।

सादर अभिवादन व धन्यवाद ।







Saturday, December 28, 2019

"नववर्ष" ---- नए सपनों, नई योजनाओं, नए संकल्प का वर्ष

नववर्ष ---
 
                 ●●●● नववर्ष का आगमन●●●●
         
          "करें स्वागत सभी मिलकर फिर नया साल आया है"
 नववर्ष ने सुबह के उजाले के साथ द्वार पर दस्तक दी है , अनेक संभावनाएँ हैं इसमें, उज्जवल भविष्य के अनेक संकेत हैं इसमें ।इसमें सुखी जीवन के शुभ-संकेत हैं ।
           "अब तो अमृत बेला आई है" 
 असतो मा सद्गमय, तमसो मा ज्योतिर्गमय, का गान हवाओं में गूँज रहा है।धरती की कक्षा से अँधियारा हटने की शुरुआत हो रही है ।साधना का अमृतपान करने की बेला आई है।

नववर्ष उल्लास व हर्ष का उत्सव है। यह नवसृजन, नवजीवन, नवकल्पना, नवधारणा का समन्वय है।नई शक्ति और नई चेतना के संचार का उद्गम है।सद्भावना एवं अपनत्व का अनुपम उपहार है, जिसे हम नववर्ष पर बिखेरते हैं, लोगों के लिए शुभकामनाएँ व बधाइयाँ देते हैं ।नववर्ष पर पूरे विश्व में शुभभावना का संचार व प्रसार एक साथ होता है।

नववर्ष की शुभकामनाएँ-----
आद्यशक्ति का मंगलप्रवाह इस नववर्ष में सबके जीवन में प्रकाश फैलाए- सभी को सुख-शान्ति- समृद्धि प्रदान करे।

  नववर्ष की  प्रार्थना ------
हे परमपिता परमेश्वर ! इस नववर्ष में आपकी अनुकंपा से विश्व में ऐसी परिस्थितियाँ उत्पन्न हों कि हम सब सर्वत्र शुभ देखें, शुभ ही सुनें, सर्वत्र मंगलमय वातावरण उत्पन्न हो, आपका अनुसरण करते हुए स्वास्थ्य एवं दीर्घायु प्राप्त करें ।

नववर्ष की बधाई-----
प्राची के स्वर्णिम एवं उदीयमान सूर्य की किरणों की नरम छुअन में शुभ्र हिमालय के हिमशिखरों से प्रवाहित हवाओं के सर्द स्पर्श में, पक्षियों के कलरव में आज केवल नववर्ष की बधाई गूँज रही है ।

नववर्ष की हार्दिक बधाई के साथ इस साल शुरू किए जाने वाले सभी विजय- अभियानों के लिए बधाई ।

नववर्ष का संदेश-----
कोरा वाद-विवाद निरर्थक है।कल्पना नहीं कर्म चाहिए ।नकारात्मक निराशा नहीं, सकारात्मक साहस चाहिए ।

नवयोजनाओं के लिए नववर्ष के समय का सदुपयोग-----

  समय की धारा कभी किसी के लिए नहीं रुकती, निरंतर बहती रहती है और इसी क्रम में नया साल हमारे सामने है।न जाने कितने साल हमने गुजार दिए हैं, अब यह सोचने का समय है कि इस वर्ष के समय का हम बेहतर उपयोग कैसे करें, ताकि हम महत्वपूर्ण उपलब्धियाँ प्राप्त कर सकें ।इसलिए नववर्ष के शुरुआत में ही हम अपनी दिनचर्या सुव्यवस्थित करें ।

              नए साल से हम सभी को अपेक्षाएँ व आशाएँ रहती हैं, लेकिन वे तभी पूरी होंगी, जब हम अपने लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए एक अच्छी, सधी हुई जीवनशैली अपनाएँ ।महात्मा गाँधी से लेकर दुनिया के सभी महान लोगों में जो एक विशेष बात रही है , 
वह है-- उनका अपनी दिनचर्या के प्रति सजग रहना।

           नया साल वह समय होता है, जब मन में आशा का संचार होता है और नई ऊँचाइयों तक पहुँचने की आकांक्षाएँ हमारे भीतर पैदा होती हैं ।नए साल का अर्थ है-- एक नई शुरुआत।यह वर्तमान की वह दस्तक है जिसे सब महसूस करते हैं ।

नववर्ष के नए संकल्पों के लिए समर्पित भाव------

           नववर्ष अनेकानेक क्षणों को जीने का समय है; जीवन की क्षमताओं को विकसित करने की प्रेरणा है।यह वह संभावना है जो समझ आने पर सक्रिय होती , कार्य करने पर साकार होती और सम्मान करने पर वरदान लुटाती है।नववर्ष का संदेश यही है, कि जो भी हम संकल्प करें, उनको दृढ़ निश्चय और विश्वास के साथ 
पूरा करें ।

समय के प्रारम्भ व अंत के मध्य अनेक वर्ष आते हैं और विलीन हो जाते हैं ।नववर्ष वास्तव में  नवसंकल्पों , स्वप्नों, आशाओं एवं उत्साह के जागरण का माध्यम है।नववर्ष अतीत से सीख, वर्तमान के लिए सक्रियता एवं भविष्य के लिए उम्मीद लेकर आता है।नववर्ष की बेला में  उत्साहपूर्ण मनःस्थिति से व उल्लासयुक्त वातावरण में कुछ ऐसा किया जाना चाहिए जो हमारे जीवन को सही दिशा में अग्रसर होने का सुअवसर दे सके।

                  नववर्ष भारत के विविध धर्मों व विविध राज्यों में अलग-अलग दिन अलग-अलग ढंग से मनाया जाता है।, लेकिन प्रतीक रूप में पूरे भारत में एक जनवरी को मनाया जाता है।एक जनवरी से वर्ष की शुरुआत मानते हुए यही कामना होनी चाहिए कि सभी के लिए नया वर्ष शुभ हो व मंगलमय हो।

नववर्ष न केवल वर्ष का शुभारम्भ है, बल्कि यह नए-नए विचारों के अंकुरित होने और छोटी-बड़ी आशाओं को क्रियान्वित करने का सुअवसर भी है। यह वर्ष सभी के लिए खुशियों से भरपूर,स्वास्थ्य व आनंद प्रदान करने वाला हो।हम इस वर्ष फिर से एक नई सकारात्मक शुरुआत करें और सतत आगे बढें ।

फिर से एक नया साल हम सभी के समक्ष अनगिनत आशाओं, उपलब्धियों, उपहारों, उमंगों की सौगात के साथ स्वागत के लिए उपस्थित है।

              "आया आया नया साल आया
               सबके मन में आनन्द छाया
               आया आया नया साल आया "

सादर अभिवादन व जय श्री कृष्ण ।

               
                





Friday, December 27, 2019

"संस्कृत"-- भाषाओं की जननी है संस्कृत , देववाणी है संस्कृत, भारतीय संस्कृति की विरासत है संस्कृत।

            ●●●●संस्कृत भाषाओं की जननी●●●●
 संस्कृत भारतीय मानव विकास क्रम से जुड़ी भाषा है।यह भाषा देश की ही नहीं अपितु विश्व की अनेक भाषाओं का उद्गम स्रोत है। विशेषज्ञ मानते हैं कि संस्कृत यूरोपीय भाषाओं की जननी है ।यही हमारी पुरातन व समृद्ध भाषा है।विशेषज्ञों से लेकर सामान्य जन तक सभी इस सत्य की अनुभूति करते हैं कि यह भाषा माता की भाँति सभी श्रेत्रीय भाषाओं को ' शब्द- दुग्ध' से  पालती- पोषती है।

                              संस्कृत साहित्य हजारों वर्ष पुरानी भारतीय सभ्यता का सजीव व मूर्त रूप है।हमारी संस्कृति के प्रणेता ऋषियों ने जो ज्ञान प्राप्त किया था,  वह उन्होंने संस्कृत में सहेज कर रख दिया था।इसीलिए तो वेदसंहिता, अरण्यक, उपनिषद्, दर्शन, स्मृति, रामायण, महाभारत आदि सभी संस्कृत में ही रचे गए हैं ।

         पाणिनि, कात्यायन, भर्तृहरि जैसे विद्वानों, पतंजलि जैसे योगगुरु आर्यभट्ट, ब्रह्मगुप्त, भास्कर, वराहमिहिर जैसे गणितज्ञों, चरक, सुश्रुत जैसे महान चिकित्सकों ने अपने शास्त्रों में संस्कृत भाषा का ही प्रयोग किया है ।इस आधार पर पूर्णरूपेण कहा जा सकता है कि संस्कृत भाषाओं की जननी है ।संस्कृत भाषा के रूप में हमारी जननी है, जो हमें ज्ञान से पोषित करती है, भावनाओं से तृप्त करती है और सतकर्म करने की शिक्षा देती है।

● संस्कृत का शाब्दिक अर्थ --

संस्कृत का शाब्दिक अर्थ है-- शुद्ध, परिष्कृत, श्रेष्ठ, सुगढ़ आदि।संस्कृत का प्रयोग हमें पवित्रता की ओर उन्मुख करता है, श्रेष्ठता का बोध कराता है और हमारी अनगढ़ता को सुगढ़ता में बदलता है।यह भाषा अत्यन्त सूक्ष्म, गंभीर, व्यापक एवं वैज्ञानिक है।

              ●●● संस्कृत देववाणी●●●

            संस्कृत देववाणी है अर्थात देवता अपनी अभिव्यक्ति के लिए जिस भाषा का प्रयोग करते हैं, वह संस्कृत ही है।संस्कृत में ऋषियों द्वारा अन्वेषित ज्ञान- विज्ञान का संपूर्ण ख़जाना है।भरत जैसे नाट्यविद् एवं वाल्मीकि, कालिदास, भवभूति, भास , व्यास, वाणभट्ट, भारती, दंडी ऐसे अनेक साहित्य- शिल्पियों के अनेक विशिष्ट एवं उल्लेखनीय अनुदान भी इसी भाषा में निहित हैं ।

       चारों वेद, रामायण, महाभारत, श्री मद्भगवद्गीता, महाकवि कालिदास कृत अभिज्ञान शाकुन्तलम्  , मेघदूतम्, वात्स्यायन का कामसूत्र, भरतमुनि का नाट्यशास्त्र आदि अनेक ऐसे ग्रन्थ हैं, जिनका अध्ययन  के लिए दूर देशों के अनेक विद्वान भारत आते रहे हैं और यह प्रक्रिया आज भी गतिशील है। ये सभी ग्रन्थ और ज्योतिष तथा आयुर्वेद जैसी अनूठी  विधाएँ, संस्कृत भाषा में ही रचित, वर्णित हैं ।इन ग्रंथों के मूल तत्व का ज्ञान संस्कृत का अध्ययन किए बिना असंभव है।

              संस्कृत भाषा ने हमें जीवन जीने की कला सिखाई है।
जीवन क्या है ? जीवन का उद्देश्य एवं लक्ष्य क्या है और कैसे इस लक्ष्य को प्राप्त किया जाए - संस्कृत भाषा ने इस महान ज्ञान से हमें परिचित कराया है।

   ●●●संस्कृत भारतीय संस्कृति की विरासत●●●
  
भारतीय संस्कृति एवं संस्कार की जननी संस्कृत आज भी एक जीवंत एवं जाग्रत भाषा है।अपने देश की समृद्ध संस्कृति, आचार- विचार, जीवनमूल्य और दर्शन हमारे संस्कृत ग्रन्थों में आदर के साथ समाहित हैं ।इसीलिए तो संस्कृत को भारतीय ज्ञान का कोष कहा जाता है।प्राचीन ऋषि- महर्षियों द्वारा सौंपी गई इस समृद्ध राष्ट्रीय विरासत को समझने और उसे अगली पीढ़ी तक प्रवाहित करने के लिए संस्कृत एक प्रबल व सक्षम माध्यम है।

          संस्कृत में प्रवाह है और इसकी ग्रहणता असंदिग्ध रूप से उच्चस्तरीय है- यही वजह है कि हमारे देश के करोड़ों निरक्षर लोग जो विविध भाषा व बोलियाँ बोलते हैं वे रामायण, महाभारत गीता और संस्कृत के अनेक 

रहस्यों से परिचित हैं एवं उनके मर्म को आत्मसात करते हैं । यह हमारी उत्कृष्ट विरासत है और जब तक यह जीवित है - हमारे सामाजिक, नैतिक , धार्मिक एवं आध्यात्मिक जीवन को प्रभावित करती रहेगी । संस्कृत ही हमारी संस्कृति और संस्कारों को जीवित रख सकेगी।

                  यह अनूठी भाषा विश्व के 260 विश्वविद्यालयों में अभी भी पढाई जाती है।भारत में चार ग्राम ऐसे हैं, जहाँ संस्कृत व्यवहार में बोली जाती है।उत्तराखंड के  दो ग्राम भी संस्कृत ग्राम बनने की दिशा में अग्रसर हैं ।हिमालय के शिखरों से लेकर सागर की गहराइयों के तट पर बसे सभी प्रान्तों के विद्वानों की वाणी संस्कृत भाषा है ।

देश की एकता-अखंडता की रक्षा के लिए भी संस्कृत भाषा का अध्ययन-अध्यापन जरूरी है।भारत की सभी भाषाएँ संस्कृत से संजीवनी प्राप्त करती हैं ।देश के संविधान में राज्यभाषा हिन्दी के शब्द' भंडार में वृध्दि के लिए मुख्य रूप से 'संस्कृत' तथा गौण रूप से क्षेत्रीय भाषा के शब्दों को स्वीकार करने का प्रावधान किया गया है ।हिंदू , जैन, बौद्ध और अनेक मुसलमान विद्वानों ने संस्कृत साहित्य को समृद्ध बनाया है।

     ●●●संस्कृत की  महत्ता व वैज्ञानिकता ●●●

                 संस्कृत भाषा की महत्ता, वैज्ञानिकता एवं सर्वमान्य उपयोगिता असंदिग्ध है। विशेषज्ञों का मानना है कि संस्कृत स्वरों के उच्चारण से मस्तिष्क की निपुणता के विकास में बड़ी सहायता प्राप्त होती है।संस्कृत व्याकरण के अनुपम ग्रन्थ 'पाणिनीकृत अष्टाध्यायी' को अनेक विदेशी विद्वान मानव मस्तिष्क की चरम विकसित अवस्था का परिचायक मानते हैं ।

                 लंदन शहर के  सेंटजेम्स इंडिपेंडेंट स्कूल में संस्कृत विभाग के अध्यक्ष 'मार्टिन ब्लूमफील्ड' का कहना था-- " हम प्राथमिक कक्षाओं में संस्कृत को अनिवार्य रूप से इसलिए पढ़ाते हैं ; क्योंकि इससे गणित, विज्ञान और अन्य भाषाओं की ग्रहणशक्ति बढ़ जाती है।यह भाषा संसार की सर्वोत्तम व तर्कसंगत भाषा है।विद्यालय के अध्यक्ष 'श्री जेरेमी सिन्क्लेयर' ने कहा---
" देवनागरी लिपि और बोलने वाली संस्कृत भाषा उँगलियों और जिह्वा की कठोरता को नियंत्रित करने का सर्वोत्तम उपाय है।"

       संस्कृत व्याकरण की सर्वश्रेष्ठता इसके लेखन और वाचन में एकरूपता होने के कारण ही संस्कृत भाषा को पश्चिमी विद्वान 
संगणक ( कम्पयूटर) हेतु सर्वश्रेष्ठ भाषा मानते हैं ।

संस्कृत भाषा की उत्कृष्टता के विषय में देश- विदेश के विद्वानों व भारतीय महापुरुषों के विचार----

योगीराज श्री अरविन्द, संस्कृत को भाषाओं में सर्वश्रेष्ठ मानते थे।
महात्मा गांधी ने अपने पुत्र को पत्र लिखा कि तुम फ्रांसीसी भाषा के स्थान पर संस्कृत का अध्ययन करो।उन्होंने कहा कि संस्कृत के अध्ययन के बिना कोई सच्चा भारतीय नहीं हो सकता।

            भारतीय संविधान के निर्माता डाॅ.भीमराव अंबेडकर संस्कृत के पक्षधर थे।संविधान सभा में संस्कृत को भारतीय संघ की राज्यभाषा बनाने का समर्थन करते समय डॉ.अंबेडकर ने संस्कृत में व्याख्यान भी दिया था।

भारत के पहले प्रधानमंत्री पं.नेहरू जी ने कहा है- " यदि कोई मुझसे भारत की महानतम निधि और धरोहर के बारे में पूछे तो मैं निर्द्वन्द्व रूप से कह सकता हूँ कि संस्कृत भाषा और उससे सम्बन्धित सभी वांगमय ही हमारी महानतम निधि और धरोहर हैं ।

सर विलियम जोन्स, प्रो. मैकडोनल, प्रो.ड्यूबोई, विलड्यूरां आदि अनेक ऐसे विद्वान हैं, जिन्होंने संस्कृत को विश्व की सर्वश्रेष्ठ भाषा घोषित किया है।अनेक भारतीय महापुरुषों ने भी संस्कृत की मुक्त- कंठ से प्रशंसा की है।

प्रो. मैक्समूलर कहते --- संस्कृत के अध्ययन में कुछ विशेष है ।इसे पढ़ते समय , सीखते समय मैं जैसे ऋषिलोक में पहुँच जाता हूँ ।  मेरी भावनाओं में भारत का प्रगाढ़ता से अनुभव होने लगता है।मुझे स्वयं में पावनता की सुगन्ध महसूस होने लगती है।इसे सीखकर मैंने जाना कि यह जीवन- निर्माण की भाषा है।

हम बड़े गर्व के साथ कह सकते हैं कि भारतमाता की , भारत देश की अनुभूति तथा इसकी समग्र अभिव्यक्ति जितनी संस्कृत भाषा व साहित्य में है , उतनी अन्यत्र कहीं नहीं है।

जो भारत की धरती से प्यार करते हैं, उन्हें संस्कृत भाषा को सीखने, सिखाने और स्वीकारने के लिए सदा तत्पर रहना चाहिए ।
               "भाषाओं की जननी संस्कृत को प्रणाम"

सादर अभिवादन व धन्यवाद ।





 










Thursday, December 26, 2019

ओउम् अक्षर ब्रह्म है -- "ओउम् के उच्चारण से निकली तरंगों का शरीर और मन पर प्रभाव"

                                  " ओउम् "
                        "ओउम् ही जग का सार है
                        जीवन है जीवन आधार है"
ओउम् परमात्मा का नाम, मंत्रों का अधिपति है।यही वह स्वरूप है जिसका सृष्टि के प्रारम्भ के लिए उद्भव हुआ ।ओउम् का स्वरूप तीन अक्षरों से बना है- त्रिअक्षरमय (अ उ म्) ओंकार साक्षात  परमात्मब्रह्म का वाचक हो जाता है।ओउम् में 'अकार' विष्णु का वाचक है, ' उकार' महेश्वर का और 'मकार' ब्रह्मा का वाचक है--
         ओंकारस्य तस्य नादश्च प्राणौ भूत्वा चराचरे।
         सृष्टा  धर्ताऽपहर्ता यस् तस्मै सर्वात्मने नमः ।।

ओंकार का नाद विश्व में, 
                            जड़ चेतन के प्राणों संग।
            ब्रह्मा विष्णु और शिव होकर,
                           सबकी आत्मा की तरंग ।।


मन्त्र तो कई हैं, पर ओउम् अक्षर ब्रह्म है, यह परमाक्षर है।ओउम् को परमात्मा के समान मान्यता प्राप्त है ।यह नाद का रूप है।सृष्टि का प्रारम्भ इसी प्रणव नाद से हुआ है।मन्त्र में असीम शक्ति व सामर्थ्य सन्निहित है।मंत्र जपकर्ता की प्राणरक्षा करता है।इष्ट से एकाकार होने का व तादात्म्य स्थापित करने का माध्यम भी वही है।

श्री मद्भगवद्गीता में भगवान् कृष्ण कहते हैं--
        तस्मादोमित्युदाहृत्य  यज्ञ दान तपः क्रिया।
        प्रवर्तन्ते विधानोक्ताः  सततं ब्रह्म वादिनाम्।।
अर्थात वैदिक सिद्धांतों को मानने वाले पुरुषों की शास्त्र विधि से नियत यज्ञ, दान और तप रूप क्रियाएँ   'ओउम्'  इस परमात्मा के नाम का उच्चारण करके प्रारम्भ होतीं हैं ।

                      ओउम् जिसको प्रणव भी कहते हैं-- शास्त्र इसे     ब्रह्म की शक्ति से समन्वित मानते हैं ।सम्पूर्ण वेद जिस पद का कथन करते हैं, सम्पूर्ण तपस्याएँ जिस लक्ष्य का बोध कराती हैं वह परमपद ओउम् ही है।शब्द में संव्याप्त शक्ति को समझने के लिए ही उसके प्रतिनिधिस्वरूप " ओउम् " की महत्ता अनेक शास्त्रों में गाई गई है।

         महर्षि पतंजलि ने उस परमात्मा का वाचक प्रणव ओउम् को माना है और कहा है कि ओउम् मंत्र का जप सभी प्रकार की सिद्धियों और मुक्ति का प्रदाता है।महाभारत में महर्षि वेदव्यास कहते हैं कि जिस प्रकार किसी व्यक्ति का नाम लेकर पुकारने से वह प्रसन्न हो जाता है, उसी प्रकार परमात्मा भी अपने प्रिय नाम " ओउम् " के उच्चारण से प्रसन्न हो जाते हैं ।

     वेद की जितनी ऋचाएँ हैं, वे सब ' ओउम् ' का उच्चारण किए बिना फल नहीं देतीं ।वेदवादी  ओउम् का उच्चारण करके ही वेदपाठ, यज्ञ, दान, तप आदि शास्त्र विहित क्रियाओं में प्रवृत्त होते हैं ।ओउम् का सबसे पहले उच्चारण इसलिए किया जाता है; क्योंकि सबसे पहले प्रणव ( ओउम्) प्रकट हुआ है उस प्रणव की तीन मात्राएँ हैं ।उन मात्राओं से त्रिपदा गायत्री प्रकट हुई है और त्रिपदा गायत्री से ऋक्, साम, यजुः----यह वेदत्रयी प्रकट हुई है।इस दृष्टि से ओउम् सबका मूल है और इसी के अन्तर्गत गायत्री भी है तथा सभी वेद भी हैं ।

वस्तुतः ओंकार साधना प्राणयोग ही है।ओउम् के उच्चारण से हम गहरी व लयपूर्ण श्वास लेने का अभ्यास भी कर सकते हैं ।गहरी व लयपूर्ण श्वसन पद्धति का अभ्यास करने वालों के लिए प्राणायाम का मार्ग प्रशस्त है।योग साधक जब नियमित और निरंतरता से ओउम् साधना करते हैं, तो यह भी महत्वपूर्ण प्राणायाम ही है।
उपनिषद् की शब्दावली में--- "प्राणौ वै ब्रह्मः।"अर्थात प्राण ही ब्रह्म है।


                       योगाचार्यों के अनुसार ' ओउम्' उच्चारण ऐसा अभ्यास है , जो ध्वनि व स्पंदन के माध्यम से पीनियल ग्रन्थि पर प्रभाव डालता है ।ओउम् के उच्चारण से प्राणऊर्जा का अभिवर्द्धन तथा मन सजग व सशक्त बनता है।हमारी साँसों को लेने की प्रक्रिया जितनी लम्बी होगी, उतनी ही हमारे मन की गति ऊर्ध्वगामी हो सकेगी।ध्यान व प्राणायाम की प्रक्रिया से पूर्व ओंकार का, भावपूर्ण उच्चारण करने से मन शान्त हो जाता है।

ओंकार का जप करने से तनाव के दौरान सक्रिय एड्रेनलीन हाॅर्मोन नियंत्रित होता है और मस्तिष्क में अल्फा तरंगों में वृद्धि होती है, जो मस्तिष्क की शान्त अवस्था का परिचायक है ।ओउम् के उच्चारण से निकली तरंगें, शरीर की तरंगों से मिलकर शरीरको शक्तिशाली बनाती हैं, मन को एकाग्र करती हैं ।ओउम् के जप से श्वसन क्रिया में सुधार होते ही पूरे शरीर में प्राणवायु का समुचित संचार होने लगता है।

सुप्रसिद्ध वैज्ञानिक आंद्रे ने अपनी कृति योगा-- सेल्फ टाॅट में कहा है कि अकेले 'ओउम्' मंत्र का यदि नित्य नियमित रूप से जप किया जाए तो इसका मन और शरीर पर सुनिश्चित रूप से आश्चर्यजनक प्रभाव पड़ता है।

अन्य प्रयोग- परीक्षणों में पाया गया है कि पद्मासन या सुखासन में बैठकर गहरे श्वास लेते हुए जब ओउम् का उच्चारण किया जाता है, तो प्राकृतिक रूप से ऊँ की दीर्घ ध्वनि स्वरयंत्र को प्रकंपित करते हुए निकलती है।यह मधुर भी हो सकती है और भारी भी।
इसके अतिरिक्त मस्तिष्क के ऊपरी भाग में भी इस कंपन की अनुभूति की जा सकती है।

            ओंकार रूपा शान्ति स्वरूपा 
            ब्रह्म नाद तुम्हें शत शत वन्दन ।
            ओंकार रूपा शक्ति स्वरूपा 
             ब्रह्म नाद तुम्हें शत शत वन्दन ।।

मंत्रजप का प्रभाव सिंपैथेटिक नर्वस सिस्टम एवं वेगस नर्व पर भी पड़ता है ।जप के समय श्वसन तंत्र की मांसपेशियोंमें शिथिलता आ जाती है , फलतः उनमें भी नवजीवन आ जाता है।प्रयोग- परीक्षणों में पाया गया है कि ऊँ के उच्चारण से उत्पन्न ध्वनितरंगों से पेट व वक्षस्थल के अन्दर स्थित कोमल अंग- अवयवों की भी अच्छी तरह से मालिश हो जाती है।

             ऊँ के जप से जप कर्ता के चारों ओर शान्त वातावरण का निर्माण होता है।इससे श्वास- प्रश्वास की दर कम हो जाती है, जिससे अनेक भौतिक एवं आध्यात्मिक लाभ योगशास्त्रों में बताए गए हैं ।इसके द्वारा स्वयं का अस्तित्व व बाह्य वातावरण दोनों प्रभावित होते हैं ।ऊँ जप से शरीर में स्थित सूक्ष्म चक्र भी प्रभावित होते हैं ।

ऊँ का जाप करते हुए, प्रभु का स्मरण करते हुए, निरंतर उन्हीं का ध्यान करते हुए ब्राह्मी चेतना से जुड़ सकते हैं ।योग शास्त्र बताते हैं कि यदि कोई साधक बारह वर्षों तक परमात्मा को स्मरण करते हुए, भावविह्लल हो प्रतिदिन बारह हजार 'ओउम्' मंत्र का जप करे तो वह 'परमहंस' बन जाता है।

         अपनी साँसों पर थोड़ा भी ध्यान देने से हमारे अन्दर बहुत परिवर्तन आ सकता है।विद्यार्थियों के लिए भ्रामरी प्राणायाम अति उपयोगी है उससे स्मृति क्षमता, स्थिरता व एकाग्रता बढ़ती है साथ- साथ ओउम् का अभ्यास छिपी हुई मानसिक क्षमताओं को उभारने में सहयोग करता है ।

         वस्तुतः ओउम् का जप बिना किसी बाधा के कहीं भी और कभी भी किया जा सकता है।ओउम् साधना साँसों की लयबद्धता और तालबद्धता  में सहायक है।श्वास की लय से जीवन ध्यान का संगीत एवं समाधि की सरगम झंकृत होने लगती है।

हमारे मुख से निकला प्रत्येक शब्द आकाश के सूक्ष्म परमाणुओं में कंपन उत्पन्न करता है और इस कंपन से लोगों में अदृश्य प्रेरणाएँ जाग्रत होती हैं ।अतः प्रणव अर्थात ओंकार का जप अत्यन्त ही प्रभावशाली यौगिक अभ्यास है।नाम जप में होने वाली पुनरावृत्ति के पीछे युधिष्ठिर और प्रहलाद द्वारा अपनाई गई प्रक्रिया का संकेत है।एक को पढ़ लेने पर सारी पढ़ाई पूरी हो जाती है।

सभी वैदिक ग्रन्थ, शास्त्र इस तथ्य की पुष्टि करते हैं कि सृष्टि की उत्पत्ति के मूल में 'ओंकार' ध्वनि ही है।वैज्ञानिक सिद्धांत भी इस तथ्य की पुष्टि करते हैं ।
            जब धार तुम्हारी बहती है 
            सृष्टि को लय सी मिलती है।
            ओंकार रूपा शान्ति स्वरूपा 
            ब्रह्म नाद तुम्हें शत शत वन्दन ।।

स्पष्ट है कि ओउम् जप से एक ओर जहाँ आध्यात्मिक विभूतियाँ जीवन में प्रकट होती हैं, वहीं सामान्य जन अपनी चिंता, अवसाद और कुंठा में इसका अतिशय लाभ उठा सकते हैं ।ओउम् ही परम लक्ष्य और परम साध्य है।
         श्वास- श्वास पर ओउम् की पूजा
                 ओउम् हमेशा जपें 
                   स्वस्थ हमेशा रहें 

सादर अभिवादन व धन्यवाद ।
                               "ओउम्" 

     
 



Wednesday, December 25, 2019

वाणी ----हमारे मन का दर्पण , हमारे व्यक्तित्व की पहचान, बैखरी वाणी , मध्यमा वाणी, पश्यंती वाणी , परा वाणी

            ●●●  वाणी, हमारे मन का दर्पण ●●●
                         "बोली सुन्दर भाषा सुन्दर 
                         प्रभु सबका जीवन हो सुन्दर "
ईश्वर द्वारा मनुष्य को दिया गया सबसे अनुपम उपहार वाणी है।वाणी की ओजस्विता व तेज से व्यक्ति का व्यक्तित्व झलकता है।जिस प्रकार  संगीत वाद्य-यंत्र की पहचान उसके स्वर से होती है, उसी प्रकार मनुष्य की पहचान उसकी वाणी से होती है।बोलने का अंदाज, वाणी में झलकता भाव सुनने वाले व्यक्तियों पर अपना प्रभाव डालता है।

वाणी मनुष्य के अन्दर से स्वर रूप में प्रकट होती है।वाणी की इसी विशेष अभिव्यक्ति के कारण ही रंगमंच व फिल्म उद्योग बने, जहाँ वाणी व अभिनय के माध्यम से कलाकार जीवन के विभिन्न- विभिन्न पहलुओं के दृश्यों का अंकन करते हैं, समाज को प्रेरित व प्रभावित करते हैं ।

 वाणी के माध्यम से व्यक्ति अपने विचारों व भावों को प्रकट कर सकता है तथा अपनी प्रसन्नता व दुख को भी बता सकता है।वाणी का प्रभाव बड़ा गहरा होता है।वाणी की कठोरता मन को चुभ जाती है, लेकिन इसकी मधुरता औषधि का काम करती है।वाणी के माध्यम से व्यक्ति अपनी गीत- संगीत की कुशलता का प्रदर्शन करता है ।

हालाँकि वाणी के साथ- साथ व्यक्ति के चेहरे की भावभंगिमा आदि भी महत्वपूर्ण होती है, लेकिन शब्दों के जानकार केवल वाणी सुनकर ही व्यक्ति के विषय में बहुत कुछ जान जाते हैं ।वाणी एक तरह से धनुष से छोड़े हुए तीर के समान मुख से बाहर निकलती है और मन के भावों के अनुसार सामने वाले मनुष्य पर अपना असर डालती है।मुँह से एक बार जो बात बाहर आ गई वह वापस नहीं ली जा सकती।अतः हम सभी को बोलने में सदा सतर्कता बरतनी चाहिए ।

         जिस प्रकार विभिन्न जीव-जन्तु अपने स्वरों को नहीं बदल सकते अपने स्वभाव को नहीं बदल सकते, उसी प्रकार मनुष्य भी अपने बोलने की शैली को व स्वभाव को सामान्य तौर पर नहीं बदल पाते ।चूँकि मनुष्य का जीवन जीव- जंतुओं से अलग व उच्च स्तर का है, उसमें सोचने-समझने-विचारने की शक्ति है इसलिए यदि उसे कोई सीख मिलती है या प्रेरणा मिलती है तो वह अपनी वाणी व स्वभाव को बदलने की कोशिश करता है।

जब कोई क्रोध में बोलता है तो उसका स्वर बदल जाता है, लेकिन वही व्यक्ति जब शान्त व प्रसन्न मुद्रा में होता है तो उसकी वाणी मधुर होकर वातावरण में शान्ति व आनन्द बिखेरती है।वाणी के बल पर मनुष्य किसी को भी अपना मित्र बना सकता है तो किसी को भी अपना शत्रु बना सकता है ।प्रभावशाली बातचीत एक दुर्लभ गुण है।   
     
       ●●● वाणी हमारे व्यक्तित्व की पहचान ●●●

        मधुर वाणी से ही हमारा व्यक्तित्व श्रेष्ठ बनता है।हमारी वाणी हमारे मन का दर्पण है ।हमारी वाणी से ही हमारा परिचय मिलता है।कम और सुन्दर शब्दों में कही गई बात हमारे चिंतन को सम्पूर्ण करती है व विचारों को प्रभावशाली भी बनाती है ।वाणी से व्यक्तित्व की आंतरिक सामर्थ्य उजागर होती है, व्यवहार कौशल प्रकट होता है।
        " अनुपम ईश्वरीय उपहार है वाणी"
पूर्व राष्ट्रपति डाॅ राधाकृष्णन का कहना था कि  " भविष्य बनाने के लिए बातचीत की कला में निपुणता से अच्छी कोई डिग्री नहीं हो सकती ।

मनुष्य का सारा चिंतन वाणी पर आधारित है।दर्शन शास्त्र भी  विचारों की प्रस्तुति उत्तम वाणी के माध्यम से करने की बात कहता है।सारे विश्व से मैत्री की इच्छा रखने वाले विश्वामित्र की प्रार्थना है कि " अमृतं मे आसनं अर्थात मेरी वाणी में अमृत हो।" बुद्धिमान लोग कम व मधुर बोलते हैं ।उनका विश्वास बोलने के बजाय करने में अधिक होता है।महर्षि पतंजलि ने चित्तशुद्धि के लिए 'योगसूत्र' लिखे, शरीर शुद्धि के लिए चरक रूप में 'वैद्यक' लिखा और वाक्शुद्धि के लिए "व्याकरण- महाभाष्य" लिखा।
         
●●● ऋषियों द्वारा वाणी के चार भाग ●●●

वैदिक युग के ऋषियों ने वाणी को चार भागों में विभाजित किया है-- वैखरी वाणी, मध्यमा वाणी, पश्यंती वाणी और परा वाणी।

 वैखरी वाणी----- यह हमारी प्रतिदिन की बोलचाल की भाषा है।बहुत से लोग बिना सोचे- समझे इसका प्रयोग करते हैं और बोल-चाल में  कुछ बातें ऐसी भी होती हैं, जिनको बोलने के लिए बहुत सोचने - विचारने की आवश्यकता नहीं होती ।जैसे हम अपने घर में सामान्य व्यवहार, बर्ताव में बोलते हैं ।

मध्यमा वाणी----- मध्यमा वाणी वह है , जो सोच- विचार कर बोली जाती है।घर के बाहर  हमें सभी के साथ सोच- विचार कर ही बोलना होता है।

पश्यंती वाणी---- पश्यंती वाणी वह है , जो हृदयस्थल से बोली जाती है ।यह वाणी गहन, निर्मल, निश्छल और रहस्यमय होती है, इसे बोलने के लिए शब्दों की आवश्यकता नहीं होती ।इसमें मौन रहकर भी हृदयस्थल से वार्तालाप हो जाता है।

परा वाणी---- परा वाणी दैवीय होती है।यह निर्विचार की अवस्था में बोली गई वाणी होती है।जब मन शून्य अवस्था में हो और उस समय किसी दैवीय शक्ति का अवतरण हो , तो यह वाणी प्रकट होती है।जैसे--- "श्री मद्भगवद्गीता" में भगवान् ने अर्जुन को उपदेश दिया था , वह परा वाणी में दिया गया उपदेश है।

भक्ति मार्ग कहता है, कि वाणी से हरि का नाम लेते रहना चाहिए अर्थात् साधक का शरीर संसार के कार्यों में लगा रहे लेकिन वाणी में सदा प्रभु का नाम रहे।
        " नाम जपते रहें, काम करते रहें "
जिस वाणी को धारण करने से संसार में यश प्रतिष्ठा होती है और जिससे मनुष्य पंडित विद्वान कहलाता है , उसे वाक् कहते हैं ।
नाम जपते - जपते हमारी जिह्वा परिष्कृत हो जाती है।परिष्कृत जिह्वा में वह शक्ति रहती है , जिसके बल पर मंत्र भी प्रचंड व प्रभावशाली हो उठता है।इसी परिष्कृत जिह्वा को " सरस्वती" कहते हैं ।

                              वाणी , मनुष्य के चिंतन का उद्गार भी है और साधन भी है।चिंतन के बग़ैर वाणी प्रभावपूर्ण नहीं हो सकती और वाणी के बग़ैर चिंतन भी प्रतिफलित नहीं हो सकता है।मनुष्य जीवन का समाधान वाणी के संयम और उसके सदुपयोग पर निर्भर है।मधुर वाणी बोलने वालों के मित्र भी अधिक होते हैं ।

गोस्वामी तुलसीदास जी कहते हैं कि-'
          राम नाम मनिदीप धरु, जीह देहरीं द्वार ।
          तुलसी भीतर बाहेरहुँ, जौं चाहसि उजियार ।।

अर्थात अंतर की आत्मा और बाहर का जगत , इन दोनों के मध्य यह वाणी  देहरी के समान है अंदर और बाहर , दोनों ओर यदि प्रकाश चाहिए, तो वाणी की इस देहरी पर राम- नाम का मणिदीपक रख देना चाहिए, जो कभी बुझता नहीं, स्वयं प्रकाशित रहता है, जो अपना उजियारा अंदर भी फैलाता है और बाहर भी।  

  मनुष्य शरीर  सभी का एक समान है, लेकिन वाणी से मनुष्य की पहचान होती है; क्योंकि वाणी मनुष्य के मन का दर्पण है ।वाणी से ही इस बात का परिचय मिल जाता है कि व्यक्ति कैसे मन का और कैसे स्वभाव का है।इस बात का ध्यान रखते हुए हमें मधुर वाणी में बोलना चाहिए, ताकि हमारा व्यक्तित्व भी श्रेष्ठ बना रहे।

आज से ही हम मधुर वाणी का अभ्यास करें और अपने जीवन को श्रेष्ठता की ओर अग्रसर करें ।


सादर अभिवादन व धन्यवाद ।




Monday, December 23, 2019

पर्वतराज हिमालय, धरती का स्वर्ग हिमालय, आध्यात्म चेतना का ध्रुव केंद्र हिमालय

                 ●●● पर्वत राज हिमालय ●●●
पर्वतों से मनुष्य समाज का सदियों से  एक गहरा रिश्ता रहा है, ये हमारे सबसे पुराने साथियों में से एक हैं ।सबसे श्रेष्ठ, पवित्र व प्राचीन पर्वत के रूप में सबसे पहले हमारे मस्तिष्क में कोई तस्वीर उभरती है, तो वह है - हिमालय की ।हिमालय मानव सभ्यता का जन्मदाता और उसका संरक्षक है।हिमालय से जुड़ा हुआ है-- हम सबका अस्तित्व।

हिमालय का सौन्दर्य अलौकिक, शाश्वत व सनातन है। हिमालय प्रकृति का विस्तार है वह आकाश को छू लेने की अभिलाषा है, हिमालय ऐसा स्थान है जहाँ से क्षितिज थोड़ा और स्पष्ट होता है।लगता है कि 'ईश्वर' सारे ऐश्वर्य व खूबसूरती के साथ हिमालय में विद्यमान है। ऋग्वेद के महान ऋषियों ने हिमालय की महिमा का गान किया है, उसका स्तवन किया है।श्वेत, हिम से ढका हुआ उत्तुंग शिखरों वाला हिमालय सृष्टि का पूर्वज है।

हिमालय आध्यात्म चेतना का ध्रुव केंद्र है।"वाइब्रेंट पाॅवर हाउस ऑफ स्प्रिचुअल एनर्जी है यह"। उत्तराखंड को श्रेय जाता है हिमालय का हृदय कहाने का। ' हिमालयानाम् नगाधिराज पर्वतः।'
सदियों से हिमालय की कन्दराओं व गुफाओं में  ऋषि- मुनियों का वास रहा है, वे यहाँ समाधिस्थ होकर तपस्या करते हैं ।हिमालय की पर्वतश्रंखलाएँ   'शिवालिक' कहलाती हैं ।

वनों के सारे सरोकार हिमालय से ही हैं ।वन से आच्छादित हिमालय ही हमारे देश की प्राणवायु व पानी का सबसे बड़ा कारक है।हिमालय ' हिम' का ही नहीं ' हम' सबका आलय अर्थात घर है।यह देश का मुकुट ही नहीं देश का प्राण है।अपनी जिस सभ्यता पर हमें गर्व है, वह हिमालय की और उससे निकलीं नदियों की ही देन है।

नारद पुराण में कहा है -- ' शैलानां हिमवन्तो च'अर्थात पर्वतों में हिमालय भगवान् का रूप है। श्री मद्भगवद्गीता-- 10/25  में भगवान् श्रीकृष्ण हिमालय को अपना ही रूप बताते हैं ---
यज्ञानां जपयज्ञोऽस्मि स्थावराणां हिमालयः। अर्थात सब प्रकार के यज्ञों में मैं जप यज्ञ और स्थिर रहने वालों में हिमालय पर्वत हूँ ।
'कैलाश' हिमालय का ही पावनतम शिखर है, जिस पर भवानी और शंकर निवास करते हैं ।गोस्वामी तुलसीदास जी ने लिखा है-
              परम रम्य गिरिवर कैलासू।
              सदा जहाँ शिव उमा निवासू।।

       हिमालय कोई सामान्य शिलाखंड या पर्वत मात्र नहीं है।यह चैतन्य है,दैवी सृष्टि है। यह विश्व के पर्वतों में सर्वोच्च है।यह भारत के ऋषियों, मनीषियों की संसद है तथा एक आध्यात्मिक प्रयोगशाला है।कविवर कालिदास ने अपनी रचना ' कुमारसंभव' का प्रारम्भ ही हिमालय की महिमा से किया है--
"अस्त्युत्तरस्यां दिशि देवतात्मा हिमालयो  नाम नगाधिराजः।" 
कालिदास आगे लिखते हैं-- मनीषिताः सन्ति गृहेषु देवताः।अर्थात-
हिमालय में समस्त देवताओं का वास है।

महाकवि कालिदास ने कहा है -- 'हिमालय अनेक रत्नों का जन्मदाता है  (अनन्तरत्न प्रभवस्य यस्य), ।उसकी श्रंखलाओं में जीवन औषधियाँ उत्पन्न होती हैं ।(भवन्ति यत्रौषधयो रजन्याय तैल पुरत सुरत प्रदीपः),वह पृथ्वी में रहकर भी स्वर्ग है ( भूमिर्दिवभि वारूढं)।

          हिमालय की गुफाओं से युगों- युगों से वेद की ज्योतिर्मय ऋचाएँ प्रस्फुटित होती व गुंजायमान होती रही हैं ।यहाँ नीलवर्ण  अमृतजल से भरे ब्रह्मसरोवरों व ब्रह्मकमलों को देखकर साधकों को योगनिद्रा व सहज समाधि लगती है।पूर्णिमा की चाँदनी रात में हिमालय में बैठकर तप- साधना करने का भाव-ध्यानआध्यात्मिक ऊर्जा से ओतप्रोत कर सकता है।

हिमालय में ही महर्षि व्यास ने महाभारत जैसे आध्यात्मिक कोष की रचना की ।आद्यशंकराचार्य को ब्रह्मज्योति यहीं के ज्योतिर्मठ में मिली।उन्होंने बद्रीनाथ धाम में भगवान् विष्णु एवं केदारनाथ तीर्थ में भगवान् भोलेनाथ के ज्योतिर्मय रूप को स्थापित किया।

गौरीशंकर, कृष्णशैल, धौलागिरी, कंचनजंघा, पंचाचुली, केदारनाथ, नीलकंठ जैसे हिमालय के विराट शिखर सारे संसार को सत्य, शान्ति, करुणा व प्रेम का शाश्वत संदेश देते हैं तो वहीं दूसरी ओर गंगा, यमुना, सरस्वती, सिंधु, झेलम, रावी, गंडकी आदि इसकी आत्मजा नदियाँ भारत को शस्य- स्यामल ही नहीं बल्कि भारत को महान भारत, देवभूमि व जीवन तीर्थ भी बनाती हैं ।भारत की इस पुण्यधरा पर जन्म लेना भी बहुत सौभाग्य माना जाता है।

राष्ट्र कवि रामधारीसिंह 'दिनकर' हिमालय को भारत का भाल कहकर पुकारते हैं--
      मेरे नगपति ! मेरे विशाल !
      साकार दिव्य, गौरव विराट !
      पौरुष के पुंजीभूत ज्वाल !  
       मेरी जननी के हिमकिरीट !
       मेरे भारत के दिव्य भाल !
वहीं जयशंकर प्रसाद जी ' कामायनी ' में अपनी भावनाएँ व्यक्त करते हैं---
       उमड़ रही जिसके चरणों में 
       नीरवता की विमल विभूति।
       शीतल झरनों की धाराएँ 
       बिखरती  जीवन - अनुभूति।।

हिमालय के शिखर पर छिटक- छिटककर आ रहीं भगवान भास्कर की उषाकालीन स्वर्णिम रश्मियों में स्नान करते हुए, जप, तप करने का भाव- ध्यान  किसी को सदा- सदा के लिए भाव- समाधि में भिगो सकता है।

हिमालय के शस्य- स्यामल मुग्धकारी रूप- लावण्य का क्या कहना!  हिमालय के कण- कण में, अणु- अणु में, जर्रे- जर्रे में दिव्य चेतना व दैवी शक्तियों का वास है, इसलिए यह धरती का स्वर्ग और आध्यात्म चेतना का ध्रुव केंद्र है।

सादर अभिवादन व धन्यवाद ।



 

Saturday, December 21, 2019

मौन---मौन आत्मा का सर्वोत्तम मित्र है, मौन सर्वोत्तम भाषण है।


                              ●● मौन ●●
मौन आत्मा का सर्वोत्तम मित्र है, इसलिए मौन रहने पर ही हम अपने सबसे करीब होते हैं , अंतर्मुखी होते हैं और बोलने पर बहिर्मुखी हो जाते हैं अर्थात मौन के पलों में हम स्वयं से संवाद कर पाते हैं, जब कि बोलने में हम दूसरों से संवाद करते हैं ।वाणी का संयम केवल बाह्य मौन है और मन का मौन अंतःमौन , जब कि वास्तविक मौन वह है जिसमें मन व वाणी दोनों ही पूरी तरह शान्त हों।

               मौन हमारे जीवन के बहुत सारे प्रश्नों का उत्तर है और और इन उत्तरों को जानने का एक ही तरीका है-- कि हम मौन रहने का अभ्यास करके इन उत्तरों को हासिल करें ।अक्सर हम अपने अंतर्मन की उपेक्षा करके बाहर की गतिविधियों में मन रमाते हैं, दूसरों की त्रुटियों की ओर ध्यान देकर अपने लक्ष्य से भटकते हैं।

मौन रहते हुए दैनिक साधना, स्वाध्याय, संयम, सेवा आदि के कार्य भी सरलता से किए जा सकते हैं ।जहाँ जरूरी हो वहाँ अवश्य बोलना चाहिए, सारगर्भित शब्दों में स्वयं को अभिव्यक्त करना चाहिए ।सामान्य जीवन में मौन का पूरी तरह पालन करना संभव नहीं हो पाता, इसलिए इस बात का ध्यान रखें कि जितना आवश्यक है,उतना ही बोलें बाकी समय यथासंभव मन को शान्त रखें ।

    बोलना सुन्दर कला है लेकिन मौन इससे भी ऊँची कला है, मौन सर्वोत्तम भाषण है।जहाँ एक शब्द से काम चले वहाँ दो बोलने की जरूरत ही नहीं ।अनावश्यक बोलने में जितनी गलतफहमियाँ होती हैं, उतनी मौन से नहीं होतीं ।निरर्थक बोलना बहुत थकाने वाली प्रक्रिया है ।जब लोग इतने पढ़े- लिखे नहीं और बुद्धिजीवी नहीं थे तब कम बोलते थे , जो सच्चा भाव होता था उसे ही कहा करते थे।

           जिस प्रकार नदियों की उलझती लहरों में कभी भी यह नहीं देखा जा सकता कि उनके तल में क्या छिपा है उसी प्रकार वाचाल ( अधिक बोलने वाला) व्यक्ति भी अपने मन के अन्दर छिपी पड़ी शक्तियों की क्षमताओं से अनभिज्ञ रहता है । 

जो मौन रहकर स्वयं के बारे में चिंतन मनन करता है , स्वयं को जानने का प्रयास करता है, वही एकांत के आनन्द को अच्छी तरह से अनुभव कर पाता है।अकेले में ही आत्मसाक्षात्कार संभव है।
जिसे आध्यात्म का अनुभव मिल जाता है , वह तो बस मौन हो जाता है और उसके इस मौन में भी आध्यात्म ही अभिव्यक्त होता है।

●मौन का अर्थ है----- कम बोलना और जितना आवश्यक है उतना बोलना ।व्यक्ति की आधे से अधिक शक्ति वाणी का प्रयोग करने में व्यर्थ हो जाती है इसलिए जितना संभव हो सके , मौन रहना चाहिए ।जब भी हमें किसी कार्य को गंभीरता के साथ, एकाग्र मनःस्थिति से करना होता है,तो हम एकांत तलाशते हैं, जहाँ पर कोई हमारे कार्य में दखल न दे सके और हम शांत चित्त से, मौन रहकर अपना कार्य कर सकें ।

जब हम मौन धारण करते हैं तो सहज ही प्रकृति का अंश बन जाते हैं; क्योंकि प्रकृति में तो सर्वत्र मौन व्याप्त है और मौन रहकर प्रकृति भी निरंतर गतिशील रहती है ।जीवन की खोज, जीवन के उद्देश्य एवं समझ की पहचान, जीवन रस का आस्वादन कभी भी भीड़ में सम्भव नहीं है ।भीड़ में भला कोई जीवन रहस्य की खोज कैसे कर सकता है--

एक महान विचारक ने कहा है ------- कि वार्तालाप भले ही बुद्धि को मूल्यवान बनाता हो, किन्तु मौन "प्रतिभा की पाठशाला" है।जिस तरह शान्त नदी का जल इतना स्वच्छ व पारदर्शी होता है कि उसके जल में क्या है, वह आसानी से देखा जा सकता है, उसी प्रकार शान्त मन भी व्यक्ति के सामने अपने विशाल जखीरे को प्रकट करने लगता है।आचार्य विनोबा कहते थे ----" मौन और एकांत आत्मा के सर्वोपरि मित्र हैं ।"

             मौन के बाहर की दुनिया मन की दुनिया है; जब कि मौन की दुनिया, आत्मा की और प्रकृति के रहस्यों की दुनिया है ।संसार में जितने भी तत्वज्ञानी हुए हैं, सभी मौन के साधक रहे हैं ।सभी ज्ञानी महात्मा, संत , साधक एकांत में मौन रहकर ही अपनी साधना सिद्ध कर सके।एकांत एवं मौन ही जीवन के रहस्य को समझने एवं अपने लक्ष्य तक पहुँचने का एकमात्र साधन एवं समाधान है।

महात्मा गाँधी जी  के लिए मौन एक प्रार्थना के समान था , जो उनके लिए आध्यात्मिक सुख लेकर आता था।संत एमर्सन का कहना था ---" आओ हम मौन रहें ताकि फ़रिश्तों की कानाफूसियाँ सुन सकें ।" तीर्थंकर महावीर स्वामी बारह वर्ष तक एकांत में रहकर गहन मौन रहे ।मौन ही उनका साथी, सहचर था।महर्षि अरविन्द सन्  1910  में पांडिचेरी गए थे ।वहाँ सन् 1950  में उन्होंने शरीर का त्याग किया ।इन चालीस वर्षों में वे प्रायः एकांत में मौन ही रहे।

भगवान् बुद्ध जब सत्य की खोज के लिए निकले तो वर्षों तक उन्होंने तरह- तरह की साधनाएँ व उपाय किए, किन्तु सत्य नहीं मिला ।अंततः वह मौन के सरोवर में डूबे और सत्य का मोती पा लिया।बाद में उनके अनुयायियों ने जब उनसे परमात्मा के बारे में प्रश्न किया तो यह 'मौन'  ही उनका उत्तर था ।महर्षि रमण ने  भी मौन रहकर ही अपनी महत्वपूर्ण साधनाओं को संपन्न किया।

                     एकांत और मौन का प्रभाव कितना विलक्षण है, "महाकवि सूर्यकांत त्रिपाठी निराला" की भावांजलि में गहनता से अनुभव अनुभव किया जा सकता है-----
       बैठ लें कुछ देर
       आओ, एक पथ के पथिक से
        प्रिय, अंत और अनंत के
         तम गहन जीवन घेर।
          सरल अति स्वच्छ 
          जीवन प्रात के लघु पात से
          उत्थान पत्नाधात से
          रह जा, चुप निर्द्वन्द्व 
        
मौन के माध्यम से शान्ति का साम्राज्य फैलेगा ।मौन के माध्यम से हम साधना जगत में प्रवेश कर पाएँगे और अध्यात्म जगत के रहस्यों का अनावरण भी कर पाएँगे ।अकेले में ही हम परम शान्त और मौन हो सकते हैं, और अकेले में ही हम उस द्वार को खोज सकते हैं, जो 'परमात्मा का द्वार' है। थियोसोफी के जन्मदाताओं के अनुसार मौन रहने की स्थिति में दैवी वाणी सुनने का अवसर मिलता है।

                     जब हम शान्त और मौन बैठे होते हैं, तब ही अन्तरात्मा की वाणी सुनाई देती है, परमात्मा का स्वर निखर उठता है।मौन साधना का वह पथ है , जिस पर चलकर व्यक्ति के आन्तरिक विकास का पथ खुलता है और ऊर्जा का संरक्षण होता है।मौन व्यक्ति को साधना की अतल गहराइयों में ले जाता है, व्यक्ति को स्थिर व एकाग्र करता है।

                               आध्यात्मिक जीवन में मौन का बहुत महत्व बताया गया है; क्योंकि मौन के माध्यम से हमें एकाग्र रहने में सहायता मिलती है।मौन के माध्यम से ही आध्यात्मिक जीवन की शुरुआत होती है ।आध्यात्मिक जीवन में रुझान रखने वाले लोग अपनी दिनचर्या में मौन को शामिल करते हैं और मौन के समय वे पूरी तरह से शांत चित्त रहते हैं ।

              जितना अधिक व्यक्ति का मौन सधने लगता है , उसकी क्षमताएँ उतनी ही बढ़ती चली जाती हैं । मौन रहने व कम बोलने से न केवल हमारी वाणी का संयम होता है अपितु इससे हमारी जीवनी शक्ति का भी संचय होता है।मौन रहने से भी अभिव्यक्तियाँ प्रकट होती हैं, इसके लिए किसी भाषा की जरूरत नहीं होती ।बिना भाषा के ही मौन अपना प्रभाव दिखाता है।

जो व्यक्ति अपने मुख व जीभ पर संयम रखता है , वह अपनी आत्मा को कई संतापों से बचा लेता है, आदिकाल से ही मौन की महिमा गाई गई है ।मौन रहकर ही अपनी गतिविधियों, क्रियाओं व व्यवहारों का सूक्ष्म विश्लेष्ण किया जा सकता है ।आत्मनिरीक्षण, आत्मविश्लेषण मौन रहकर ही संभव है।मौन हमें कई बार व्यर्थ के विवादों से बचा लेता है ।

मौन को आत्मा का सर्वोत्तम मित्र मानकर हम सभी अपने जीवन में मौन का अभ्यास करना सीखें; क्योंकि स्वयं को जानने का यही एकमात्र रास्ता है ।श्रुति कहती है कि- स्वयं को जानो और अमृतत्व में लीन हो जाओ।

सादर अभिवादन व धन्यवाद ।


Friday, December 13, 2019

मनुष्य के सूक्ष्म शरीर में स्थित सात चक्र क्या हैं ?, मूलाधार, स्वाधिष्ठान, मणिपूर,अनाहत, विशुद्धि, आज्ञा एवं सहस्रार चक्रों का विवरण , कुंडलिनी शक्ति एक महाविज्ञान

  ●मानव शरीर में स्थित षट् चक्र अथवा सप्त चक्र क्या हैं ●   क्या भीतर अन्धेरा है ? नहीं प्रकाश का ज्योतिपुंज अपने भीतर विद्यमान है और एक पूरा संसार ही अपने भीतर बिराजमान है।
मानव देह रहस्यों से आवृत है।इसका रहस्य इतना गहरा है , जितना कि ब्रह्माण्ड का रहस्य ।योग के अनुसार इसके विभिन्न केन्द्रों के माध्यम से विराट एवं ब्रह्माण्ड की झलक झाँकी पाई जा सकती है।

सामान्यतः योग शास्त्रों में व अन्य आध्यात्मिक शास्त्रों में अक्सर  षट् चक्रों के बारे में पढ़कर मन में यह जिज्ञासा उत्पन्न होती है कि ये चक्र क्या हैं और कुंडलिनी शक्ति क्या है ? कैसे इनकी साधना होती है ? एवं योग में इनका क्या महत्व है ?

मानवीय काया के भीतर कुछ ऐसे मर्मस्थान सुरक्षित हैं, जो गुह्य आध्यात्मिक शक्तियों के केंद्र कहे जा सकते हैं ।इन शक्तिकेन्द्रों का जागरण मनुष्य को अपरिमित शक्ति भंडार का स्वामी बना देने में समर्थ है।इन मर्मस्थलों में से मेरुदंड या रीढ़ का स्थान प्रमुख है।

यह मेरुदंड तैंतीस अस्थिखंडों के जुड़ने से बना है , जिनका संबंध तैंतीस कोटि देवी-देवताओं की शक्ति से माना जाता रहा है।चिकित्सकीय दृष्टि से मेरुदंड के सर्वाइकल, डोर्सल, लंबर, सेक्रल, इत्यादि भाग होते हैं और ये तैंतीस अस्थिखंड उन भागों में विभक्त माने जाते हैं ।
                  आध्यात्मिक साधना के पथ पर अग्रसर होने वाले 
साधक यदि इन चक्रों के बारे में थोड़ी जानकारी कर लें तो उन्हें  आध्यात्मिक साधनाओं का महत्व पता चलता है।आत्मा और उसके साथ जुड़े हुए परमात्मा को देखने के लिए अंतर्दृष्टि की आवश्यकता है ।श्रुति कहती है - "अपने आप को जानो और अमृतत्व में विलीन हो जाओ"।उसी को ऋषियों ने दोहराया है और तत्वज्ञानिओं ने उसे ही सारी उपलब्धियों का सार कहा है।

सामान्यतः हमारी बुद्धि भौतिक जगत के तीन आयामों तक ही सिमट कर रह जाती है।मानसिक पवित्रता, प्रखरता एवं हृदय की विशालता का विस्तार शुरु होते ही चौथे आयाम का बोध होने लगता है। प्राचीन काल के ऋषि-मुनियों ने योग साधनाओं एवं तपश्चर्या के बल पर चेतना के विविध आयामों का बोध किया था।
स्वर्ग, मुक्ति, सिद्धि, शान्ति, आदि विभूतियों की खोज में कहीं अन्यत्र जाने की जरूरत नहीं है सब हमारे अन्दर ही है।

          कठोपनिषद् 3/12 में----
 दृश्यते त्वग्रयया बुद्धया सूक्ष्मदर्शिभिः  अर्थात अतीन्द्रिय क्षमताओं का विकास और परमात्मा का दर्शन सूक्ष्म बुद्धि वाले विज्ञजनों को सूक्ष्म बुद्धि से ही होता है।
                  
        ●●● सात चक्रों का संक्षिप्त विवरण ●●●

योग के अनुसार शरीर में ऐसे एक सौ आठ ( 108) केंद्र हैं, जो स्थूल एवं सूक्ष्म शरीर को जोड़ते हैं ।इनमें से छः या सात प्रमुख  केंद्र हैं जिन्हें षट् चक्र या सप्त चक्र कहा जाता है ।
वस्तुतः शरीर में स्थित सूक्ष्म चक्र संस्थान अर्थात षट् चक्र आणविक विद्युत भंडारों को अंतरिक्ष में संव्याप्त असंख्य शक्ति धाराओं के साथ सम्बन्ध जोड़ने वाले ट्रांसफार्मरों की तरह काम करते हैं ।

वस्तुतः ये चक्र चेतना के सप्त आयामीय सूक्ष्म केंद्र हैं ।जिनमें एक से बढकर एक उच्च स्तरीय विभूतियाँ व ज्ञान भंडार भरे पड़े हैं ।चक्रों की यह विलक्षण एवं विशिष्ट क्षमता प्रकाशमय ऊर्जा के रूप में विद्यमान है, जिसे विभिन्न रंगों के रूप में अनुभव किया जा सकता है ।इन्हें शक्ति केंद्र भी कहा जाता है।मानवीय शरीर में स्थित चक्रों का क्रम नीचे से ऊपर की ओर इस प्रकार है--
मूलाधार चक्र 
स्वाधिष्ठान चक्र 
मणिपूर चक्र 
अनाहत चक्र 
विशुद्धि चक्र 
आज्ञा  चक्र 
सहस्रार चक्र 

 1● मूलाधार चक्र--- मूलाधार को अंग्रेजी में 'रूट चक्र' के नाम से संबोधित किया गया है।जिसका स्थान जननेन्द्रिय से नीचे है ।चार पंखड़ियों वाले , कमल की आकृति वाले इस चक्र का रंग किरमिजी होता है और सोने जैसी पीली चमक दृष्टिगोचर होती है।इसमें प्रवाहित वज्र नाड़ी के रूप में कामदेव की शक्ति क्रियाशील रहती है , जिसका रंग गहरा लाल है।यदि काममूलक इस ऊर्जा शक्ति को साधना द्वारा ऊर्ध्वगामी बनाया जा सके तो यह चक्र करोड़ों सूर्यों के सदृश दैदीप्यमान हो उठता है।इस चक्र के जागरण से वाणी में ओजस्विता आती है , निरोग जीवन के आनन्द की अनुभूति होती है और साधक का व्यक्तित्व बहुआयामी बन जाता है ।

2 ● स्वाधिष्ठान चक्र-- स्वाधिष्ठान चक्र को अंग्रेजी में  'स्पलीन चक्र' कहा जाता है ।इसका स्थान जननेन्द्रिय से ऊपर है ।छः पंखडी वाले इस चक्र की आकृति कमल जैसी है और रंग सिंदूरी है ।इस चक्र की आभा नीले रंग की होने के कारण इसे भगवान विष्णु  का वैकुण्ठधाम कहा जाता है ।इस चक्र के ऊर्ध्वगामी होने से साधक साधना-पथ में तीव्र गति से अग्रसर होने लगता है ।व्यक्तित्व विकास के नए आयाम खुलने लगते हैं ।

3 ● मणिपूर चक्र--- तीसरे चक्र मणिपूर को 'नेवल चक्र' की संज्ञा दी गई है ।यह दस पंखड़ियों वाला पीले रंग का प्रकाश है ।इस चक्र के जागरण होने पर व्यक्ति में स्नेह, सहयोग, सहकार जैसे सद्भावों की वृद्धि होती है जिससे मनुष्य में दैवीय गुण जाग्रत होने लगते हैं ।

4 ● अनाहत चक्र---  चौथे चक्र अनाहत चक्र को अंग्रेजी में 'हार्ट चक्र' के नाम से जाना जाता है जिसका रंग सोने जैसा पीला होता है ।इन प्रकाशमय तरंगों के प्रकाशित होने से व्यक्ति भय और त्रास से त्राण पाता है । इस चक्र के जागरण से अनेक चमत्कारिक विभूतियाँ प्राप्त हो सकती हैं ।बारह पंखड़ियों वाले यह चक्र हृदय  स्थान में स्थित होता है ।

5 ● विशुद्धि चक्र--- पाँचवा चक्र विशुद्धि चक्र है, जो गले में स्थित होता है ।अंग्रेजी में इसे थ्रोट चक्र कहा जाता है ।सोलह पंखड़ियों वाले इस चक्र में हरे रंग की प्रकाश-तरंगों की बहुलता होती है ।इस चक्र के जागरण पर व्यक्ति के जीवन क्रम में समस्वरता, सरलता जैसे सहज-स्वाभाविक गुणों का विकास होने लगता है।

6 ● आज्ञा चक्र--- छठा चक्र आज्ञा चक्र है, जिसे अंग्रेजी में 'ब्रो चक्र' कहा जाता है ।इसे ही दिव्य चक्र, तीसरी आँख , ज्ञान केंद्र आदि नामों से भी जाना जाता है । मूलाधार से लेकर आज्ञा चक्र तक की पंखड़ियों का जोड़ पचास होता है। पचास इड़ा के एवं पचास पिंगला के तथा अष्टधा प्रकृति के आठ मिलकर  एक सौ आठ बनते हैं ।
 
                      इस चक्र के जागरण पर सत्प्रवृत्तियाँ विकसित होती चली जाती हैं ।आज्ञा चक्र का पूर्ण विकास होने पर दिव्य दृष्टि का वरदान मिलता है , जो मनुष्य को नीर-क्षीर विवेक बुद्धि की विभूतियों से वासंती पुष्पाहार की तरह लाद देती है।यही वह संपदा है , जो मनुष्य को श्रेयपथ की ओर अग्रसर करती है और मोक्ष प्रदान करती है।

7 ● सहस्रार चक्र--- सातवें चक्र सहस्रार को अंग्रेजी में 'क्राउन चक्र' कहा जाता है ।योग ग्रन्थों में इस चक्र को सभी चक्रों का समन्वित स्वरूप बताया गया है ।इसका रंग श्वेत माना जाता है ।इसमें षट्चक्रों के सभी रंगों का समावेश होता है ।जिस प्रकार सूर्य के सम्मिलित प्रकाश का रंग श्वेत है, उसी तरह सहस्रार से उद्भूत प्रकाश-तरंगें श्वेत हैं ।

थियोसोफिकल सोसायटी , लंदन के विख्यात गुह्य विज्ञानी चार्ल्स वैब्स्टर लेडबीटर के अनुसार मूलाधार की अपेक्षा सहस्रार चक्र में दो सौ पचास गुनी अधिक शक्तियाँ सन्निहित होती हैं ।सहस्रार में 972 ( नौ सौ बहत्तर ) पंखडियाँ हैं, जो हजार के सन्निकट होने के कारण सहस्रार कहलाती हैं ।यहीं से प्राणचेतना के स्फुलिंग सहस्त्रों की संख्या में उठते रहते हैं ।विरलों का ही यह चक्र जाग्रत होता है।
 
शिव शक्ति का , आत्मा-परमात्मा का मिलन स्थल यही है ।इसका दर्शन परिष्कृत एवं सूक्ष्म बुद्धि से ही संभव हो पाता है ।व्यक्तित्व विकास का यही उच्च सोपान है।भारतीय आध्यात्म शास्त्रों, साधना ग्रन्थों, उपनिषदों एवं तंत्रशास्त्रों में सहस्रार चक्र की महिमा- महत्ता का विस्तार पूर्वक वर्णन किया गया है, साथ ही साथ उसकी उच्चस्तरीय आध्यात्मिक उपलब्धियों का उल्लेख किया गया है।

  चक्रों की सात संख्या होने पर भी  षट् चक्र इसलिए कहे जाते हैं; क्योंकि हमारे स्थूल शरीर की सीमा रेखा आज्ञा चक्र तक ही सीमित है और स्रहसार चक्र के जागने पर व्यक्ति शरीर के दायरे से पार चला जाता है।षट् चक्र एक प्रकार की सूक्ष्म ग्रन्थियाँ हैं जो सुषुम्ना में स्थित तीन नाड़ियों में सबसे भीतर ब्रह्म नाड़ी के मार्ग में बनी हुई हैं ।अलग- अलग चक्रों की अलग-अलग प्रकृति होती है और इनके माध्यम से विभिन्न ऊर्जा स्तरों से सम्बन्ध साधा जा सकता है।

        ●●● कुंडलिनी शक्ति एक महाविज्ञान ●●●

वस्तुतः चक्र- बेधन और कुंडलिनी जागरण अत्यन्त गूढ़ प्रक्रिया है।सुपात्र शिष्य और समर्थ गुरू के संयोग से ही यह प्रक्रिया सम्पन्न होती है।उपनिषदों, पुराणों और योगग्रन्थों में इसकी विशद विवेचना हुई है।षट् चक्रों का वेधन करते हुए कुंडलिनी तक पहुँचना और उसे जाग्रत करके आत्मोन्नति के मार्ग में लगा देना, यह एक महाविज्ञान है।

षट् चक्रों के बेधन और कुंडलिनी के जागरण से ब्रह्मरंध्र में ईश्वरीय दिव्यशक्ति के दर्शन होते हैं और महत्वपूर्ण सिद्धियाँ प्राप्त होती हैं। मूलाधार से सहस्रार तक की यात्रा को ही महायात्रा कहते हैं ।सहस्रार को न्यूक्लियस कहते हैं ।आत्मसाक्षात्कार की ब्रह्म साक्षात्कार की प्रक्रिया यहीं सम्पन्न होती है।विरले ही होते हैं जिनमें सहस्रार पूर्णरूपेण जाग्रत होता है।।भगवान् बुद्ध, स्वामी विवेकानंद, शंकर आदि ऋषियों का सहस्रार जाग्रत था।

इन चक्रों में ऊर्जा होती है यदि यह ऊर्जा स्वस्थ, सकारात्मक व क्रियाशील है तो इसका सकारात्मक लाभ व्यक्ति को मिलता है।
सामान्य व्यक्ति भी अपने सूक्ष्म शरीर में स्थित चक्रों की ऊर्जा का सामान्य लाभ ले सकता है और अपने जीवन में विशेष ढंग से आगे बढ़ पाता है।जब चक्रों में साधक अपने ध्यान को केन्द्रित करता है तो उसे वहाँ विशिष्ट कोण निकले हुए दिखाई देते हैं, जैसे पुष्प में पंखडियाँ होती हैं ।

                      आज ऐसी तकनीकें विकसित हो गईं हैं, जिनके माध्यम से हमारे ऊर्जा शरीर का प्रतिबिम्ब भी लिया जा सकता है   और शरीर में प्रवाहित ऊर्जा के स्वरूप व आकार- प्रकार को भी देखा जा सकता है। ज्योतिष शास्त्र के ग्रह नक्षत्रों का हमारे शरीर से सूक्ष्म सम्बन्ध होता है।इसी कारण ये हमारे जीवन व व्यक्तित्व को प्रभावित कर पाते हैं ।

जब कुंडलिनी शक्ति का जागरण होता है तो वह सुषुम्ना नाड़ी के माध्यम से ऊर्ध्व गमन करती हुई आगे बढ़ती है और अंततः आज्ञा चक्र को पार करके सहस्रार में शिव मिलन के लिए जा पहुँचती है।

कस्तूरी वाला हिरन तब तक अतृत्व ही फिरता रहेगा , जब तक कि अपने ही नाभिकेन्द्र में कस्तूरी की सुगन्ध सन्निहित होने पर विश्वास नहीं करेगा ।

यह बहुत विस्तृत विषय है --
यहाँ चक्रों के बारे में संक्षिप्त जानकारी देने का प्रयास है।
सादर धन्यवाद ।


Tuesday, December 10, 2019

ध्यान क्या है ? ध्यान के क्या लाभ हैं ? ध्यान कैसे सधे ?

                   ●●●ध्यान क्या है ? ●●●
ध्यान मन का स्नान है, ध्यान से मन का परिष्कार व परिशोधन होता है।किसी भी विषय पर मन को टिकाकर जब मन स्थिर होने लगे, तो उसमें मन का गहराई से एकाग्र होना ही ध्यान है।ध्यान एक विलक्षण व समग्र प्रक्रिया है।शिखर पर आरोहण है- ध्यान ।

                    महर्षि पतंजलि अपने योग दर्शन में स्पष्ट रीति से समझाते हैं कि योग की यथार्थता- सार्थकता ध्यान में ही फलित होती है।ध्यान की प्रगाढ़ता में चित्त दर्पण की भाँति स्वच्छ हो जाता है ।योग के अभ्यास से निरुद्ध चित्त उस अवस्था में परमात्मा के ध्यान से शुद्ध हुई सूक्ष्म बुद्धि द्वारा परमात्मा की अनुभूति करते हुए , स्वयं में ही संतुष्ट रहता है।

महर्षि पतंजलि कहते हैं कि आध्यात्मिक जीवन के लिए चित्त को संस्कारों से मुक्त होना ही चाहिए ।इस शुद्धिकरण के लिए भी एक प्रक्रिया है, वह है-- पवित्र भाव, पवित्र विचार, पवित्र दृश्य अथवा पवित्र व्यक्तित्व के ध्यान की ।

                                  ध्यान का अभ्यास करते- करते धीरे- धीरे चित्त को निर्विचार अवस्था प्राप्त होती है।इस तरह ध्यान मन का पुनर्निर्माण है, पुनर्संरचना है अर्थात अब हमें नकारात्मता स्वीकार नही अस्तित्व  हमें जो भी शुभ दे रहा है उसे हम ग्रहण करें और हम भी अस्तित्व को कुछ शुभ दें।यही ध्यान का मुख्य आधार है।

      ध्यान के बारे में तीन बातें हैं- धारणा, ध्यान,समाधि  इन तीनों को मिलाकर कहते हैं, संयम।धारणा हमारे व्यक्तित्व में एक तरह का बीजारोपण है इसमें हम अपनी मनोभूमि, चित्तभूमि में एक कल्पना, एक भाव रखते हैं और इसके लिए वातावरण जुटाते हैं, धीरे-धीरे वह हमारे व्यक्तित्व का हिस्सा बनने लगता है।अपने अनुरूप हमारे चित्त को ढालने लगता है।

ध्यान की गहन व चरम अवस्था में ही अनेक महापुरुषों ने परमात्मा की अनुभूति की। ध्यानी व ध्यानसिद्ध व्यक्ति की दृष्टि जिधर पड़ जाती है, वहीं आनंद का साम्राज्य छा जाता है।उनके आभामंडल में प्रवेश करते ही हमको असीम आनंद व शांति का अनुभव होता है ।

                  ●●●ध्यान के लाभ ●●●

हमारे जीवन में एक लय है और इसी लय में हमारे जीवन का सौन्दर्य है ।जीवन की लय ही जीवन का कवच है। प्रकृति उसको अतिरिक्त सुरक्षा प्रदान करती है।यदि जीवन की इस लय में असंतुलन होता है, इसमें व्यतिक्रम आता है तो ध्यान इस व्यतिक्रम की पुनर्स्थापना करता है।ध्यान द्वारा हम इस जीवन की लय में   पुनः संतुलन स्थापित करते हैं ।

                हमारे जीवन में स्थूल के साथ सूक्ष्म, सूक्ष्म के साथ अतिसूक्ष्म तत्व पिरोए हुए हैं ।ध्यान इसी तल पर लय बिठाता है, हमें संवेदनशील बनाता है, हमें चैतन्य बनाता है।शरीर का स्वस्थ होना और मन का स्वच्छ होना जीवन को लयपूर्ण बनाता है।ध्यान द्वारा स्थिर एवं शान्त स्थिति में पवित्र धारणाओं के पुष्प मुस्कराते हैं ।


ध्यान द्वारा मन को एकाग्र करने पर ही इसकी सामर्थ्य को जाना जा सकता है। ध्यान से हमारी नकारात्मता सकारात्मकता में परिवर्तित होने लगती है ।ध्यान का नियमित अभ्यास जीवनी शक्ति को बढ़ाता है। ध्यान के अभ्यास से अंतःवृत्तियों एवं अंतःशक्तियों पर नियंत्रण पाया जा सकता है ।ध्यान से हमारी मानसिक शक्ति में वृद्धि होती है ।

ध्यान के नियमित अभ्यास से हम हर पल आनंदित होते चले जाते हैं ; जैसे- जैसे हमारा आनन्द सघन होता चला जाता है ,वैसे - वैसे हमारा ध्यान भी विकसित होता चला जाता है।ध्यान के अभ्यास से ही आध्यात्म के सत्य का निष्कर्ष पाया जा सकता है।

                   ●●●ध्यान कैसे सधे●●●

ध्यान में मन न लगना एक समस्या होती है।अधिकांश लोग यह कहते हैं कि ध्यान में मन स्थिर नहीं होता ।ध्यान से शरीर में जो ऊर्जा उत्पन्न होती है, उसे आत्मसात् करना होता है।यदि ऐसा नहीं कर पाते तो लोग निराश होकर ध्यान करना छोड़ देते हैं ।

कबीर कहते हैं कि- " जिन खोजा तिन पाइयाँ "
ईसा कहते हैं--- द्वार खटखटाओ, वह खुलेगा।

यही तो साधना है जो सरल भी और जटिल भी, निर्भर करता है साधक की मनोभूमि पर।स्वयं से पूछें-- क्या हम ध्यान साधना के पथिक बनने के लिए तैयार हैं  ?
यदि हमारा मन ध्यान साधना का पथिक बनने के लिए तैयार है तो अंतर्यात्रा के द्वार में स्वागत के वन्दनवार सजे हैं- बस चलते जाना है अंतर्यात्रा की अंतर्धारा के साथ ।

ध्यान के लिए मन का स्थिर व शान्त होना व शरीर का स्वस्थ होना आवश्यक है ।अभ्यास भी जरूरी है ध्यान सधने के लिए ।
ध्यान की शुरुआत होती है।महर्षि पतंजलि कहते हैं-- स्थिरं सुखं आसनम्। स्थिर होकर सुखपूर्वक बैठ सको वह आसन है।

शरीर के स्थिर हो जाने पर धीरे- धीरे हमारा मन स्थिर होने लगता
है, मन में परिवर्तन आने लगता है, फिर हम ध्यान के द्वारा अपनी दिशा तय कर सकते हैं ।मन का टिकना कठिन है , लेकिन मन की दिशा तय होना उससे भी ज्यादा कठिन है।ध्यान के साथ- साथ स्वांस पर भी हम ध्यान दें तो ध्यान जल्दी सधने लगता है।

        जिन्हें ध्यान का लाभ लेना है उन्हें अपने भोजन पर भी ध्यान देना चाहिए, उनका भोजन सुपाच्य, हल्का और पौष्टिक होना चाहिए ।हम जितना पौष्टिक भोजन लेंगे उतनी ही ध्यान की गति तीव्र व सुगम हो जाएगी।

ध्यान का लाभ लेने वाले को अकारण व अनावश्यक नहीं बोलना चाहिए ।अधिक देर तक मोबाइल फोन पर बात नहीं करनी चाहिए एवं तेज स्वर का संगीत श्रवण नहीं करना चाहिए ।व्यक्ति की आधे से अधिक शक्ति वाणी का प्रयोग करने में व्यर्थ हो जाती है।इसलिए ध्यान साधक को जितना संभव हो उतना मौन रहना चाहिए ।

ध्यान से ही आत्म साक्षात्कार संभव है।ध्यान से ही आध्यात्मिक
जीवन श्रेष्ठ बनता है।ध्यान से ही परमात्मा की अनुभूति हो सकती है।

          नित- नित प्रभु तेरा ध्यान करूँ 
              जीवन को सफल बनाऊँ

सादर अभिवादन व धन्यवाद ।






Monday, December 9, 2019

"ध्यान" चिकित्सा विज्ञान में भी अब ध्यान विद्या का उपयोग

           ●●● ध्यान का चिकित्सकीय पक्ष ●●●
 भारतीय योग साधना में ध्यान को सर्वाधिक महत्वपूर्ण सोपान माना गया है।ध्यान एक विलक्षण व समग्र प्रक्रिया है।वर्तमान समय में   ध्यान- साधना के प्रभावों का अध्ययन व अनुसंधान विश्व के अनेक देशों में अपने - अपने ढंग से चल रहा है।

भारतीय ऋषि-मनीषियों ने प्राचीन काल में ही योग विज्ञान के माध्यम से मस्तिष्क की शक्ति को अभीष्ट दिशा में विकसित करने की सामर्थ्य विकसित कर ली थी।आधुनिक मनोवैज्ञानिक भी अब इस तथ्य को स्वीकारने लगे हैं ।जर्मनी के प्रसिद्ध दार्शनिक शोपेन हाॅवर ने मस्तिष्क की विद्युत तरंगों के नियमन एवं नियंत्रण के लिए ध्यान-साधना को अधिक महत्व दिया है।

              हमारे मन में, हमारी भावनाओं में अनेक ऐसे कारण हैं जो भावनाओं में विक्षोभ और विचारों में द्वंद्व उत्पन्न करते रहते है,
और हमें अस्वस्थ बनाते रहते हैं ।ध्यान एक ऐसी चिकित्सा है---
जिसके द्वारा हम मन की कमी व कमजोरियों को दूर करते हैं।

ध्यान हमारे मन में एक चुंबकीय क्षेत्र ( मैग्नेटिक फील्ड) तैयार करता है।इसी चुंबकत्व के माध्यम से हम प्रकृति से, वातावरण से अपने अनुरूप चीजों को आकर्षित करते हैं ।ध्यान से हमारी नकारात्मता,  सकारात्मकता में परिवर्तित होने लगती है।ध्यान हमारे व्यक्तित्व को पात्र बनाता है तथा हमारे अन्दर एक योग्यता, एक नई पात्रता विकसित करता है।

     "नित ध्यान करें प्राणायाम करें 
     जीवन अपना चमकाएँ "

ध्यान के माध्यम से हम अपने विचारों व भावनाओं में गहन रूपांतरण अनुभव करते हैं।विलियम सीमैन के अनुसार ध्यान- साधना के नियमित अभ्यास से अंतःवृत्तियों एवं अंतःशक्तियों पर नियंत्रण पाया जा सकता है और चिंतामुक्त हुआ जा सकता है।
फ्रैंक पैपैंटिन ने अपने अनुसंधान पत्र 'ध्यान और शुद्धिकरण' में लिखा है कि ध्यान- साधना का नियमित अभ्यास जीवनी शक्ति में वृद्धि करता है और रोगप्रतिरोधक शक्ति भी बढाता है।

चिकित्सा विज्ञान में आज ध्यान विद्या का उपयोग शारीरिक-मानसिक उपचार में सफलतापूर्वक किया जा रहा  है ।कनाडा की मांट्रियल यूनिवर्सिटी के मूर्धन्य विज्ञान वेत्ता प्राध्यापक पियरे रेनविले के निर्देशन में जेन मेडिटेशन अर्थात ध्यान की बौद्ध पद्धति पर  गहन अध्ययन व अनुसंधान किया गया और पाया कि ध्यान के अभ्यास से दर्द से परेशान लोगों की सहन शक्ति में अभिवृद्धि हुई व दर्द की अनुभूति का स्तर भी कम हो गया।यह निष्कर्ष प्रस्तुत करते हुए जोशुआ ग्रांट ( इस रिपोर्ट के सहलेखक) ने कहा कि यह तथ्य पहली बार उभरकर सामने आया है कि शारीरिक, मानसिक व भावनात्मक दर्द को कम करने में ध्यान की महत्वपूर्ण भूमिका होती है।

बेलिंगटन विश्वविद्यालय के वैज्ञानिक टाॅम जैराॅट कहते हैं कि ध्यानाभ्यासी साधक की शारीरिक क्रियाएँ सामान्य व सुचारु रूप से संपादित होने लगती हैं ।मूर्द्धन्य वैज्ञानिक डैविड डब्ल्यू आर्मे जॉन्सन के निष्कर्ष के अनुसार-- ध्यान साधना के अभ्यास द्वारा तंत्रिका- तंत्र के क्रियाकलापों में एक नई चेतना जाग्रत हो जाती है।

डेविड कोल्ब के अनुसार ध्यान के माध्यम से शरीर और मन के बीच अच्छा समन्वय, सतर्कता में वृद्धि, मतिमंदता में कमी और प्रत्यक्ष ज्ञान निष्पादनक्षमता तथा रिएक्शन टाइम में असामान्य रूप से वृद्धि होती है ।

अनुसंधानकर्ता योगविद्या के निष्णात कहते हैं कि ध्यान- साधना के अंतर्गत मस्तिष्क के नियोकाॅर्टेक्स वाले अति संवेदनशील क्षेत्र में एक विशिष्ट प्रकार की लयबद्धता उत्पन्न होती है ।ऐसी स्थिति में मानवीय मस्तिष्क का कार्य स्नायुकोषों के माध्यम से प्रकाश कंपनों को लयबद्ध स्पंदन ( रिद्मिक पल्सेसन) में परिवर्तित करने का होता है।

                                    ध्यान मुद्रा में मस्तिष्क से निकलने वाली विशेष प्रकार की विद्युत तरंगों की आवृत्ति को औस्मिक फ्रिक्वेंसी कहा गया है , जो ब्रह्माण्डीय  ऊर्जा को आकर्षित कर सकने की सामर्थ्य रखती है। विश्वप्रसिद्ध न्यूरोसाइकोलाॅजिस्ट कार्ल प्रिवाम ने इन फ्रिक्वेंसीज को मानव- जीवन को सुविकसित करने एवं देवतुल्य स्तर का बनाने के लिए अत्यंत उपयोगी बताया है।इसकी उपस्थिति को प्रामाणिकता की कसौटी पर कसने के लिए उन्होंने मस्तिष्क का 'होलोग्राफिक माॅडल' भी तैयार किया है।

कार्ल प्रिवाम कहते हैं कि मानसिक चेतना की यह विशेषता है कि वह स्थानीय सूचनाओं को एकत्रित करके समूचे ब्रह्मांड में बिखेर देती है।उनकी इस अभिनव मान्यता को 'होलोनोमी' के नाम से जाना जाता है ।प्रिवाम की इस नई तकनीक ने विश्व भर के भौतिकविदों को चिंतन की एक नई दिशाधारा दी है।

इन सभी अनुसंधानों के निष्कर्ष के आधार पर यह कहा जा सकता है कि "ध्यान साधना को आधुनिक  चिकित्सा जगत में भी महत्वपूर्ण स्थान" प्राप्त है ।प्राकृतिक चिकित्सा केन्द्रों में विभिन्न उपचारों के साथ ध्यान का अभ्यास भी कराया जाता है।
     
"मन की वीणा के तारों में अंतर्मन की झंकार को सुन"

विश्व ब्रह्मांड में "आनंद के कण" बिखरे हुए हैं---- ध्यान के माध्यम से मस्तिष्कीय शक्ति को जाग्रत करके उन आनंद के कणों को हम अपने अंदर आत्मसात् करके जीवन को सुखमय बना सकते हैं ।
                       "ध्यान एक चिकित्सा"
सादर धन्यवाद ।

Friday, December 6, 2019

"प्रार्थना" ( ऊर्जा का विज्ञान, जीवन का शिखर, आध्यात्मिक कवच एवं एक दिव्य औषधि)

             ●●● प्रार्थना जीवन का शिखर●●●
 हृदय की पुकार है प्रार्थना । भक्त और भगवान् का मिलन है प्रार्थना ।प्रार्थना वह है , जिसमें व्यक्ति हृदय की गहराई से श्रद्धा और विश्वास के भाव के साथ भगवान् से संवाद स्थापित करता है।प्रार्थना एक लयबद्धता है, जो हमारे भीतर घटित होती है, इसी लयबद्धता में हम विराट की ओर उन्मुख होते हैं ।

  "पुकार सुनलो दया  के सागर तुम्हारे चरणों में आ गए हैं" 

हमारे विश्व के सभी धर्मों में एकमात्र जो समानता है, वह है-- प्रार्थना ।हर धर्म किसी न किसी रूप में भगवान् से प्रार्थना करने को कहता है।प्रार्थना  भगवान् की सत्ता से जुड़ने का एक सरल मार्ग है, जिसे कर पाना सभी के लिए संभव है।
   
"सब एक हों, सब नेक हों चाहे धर्म उनके अनेक हों 
    हे जगत के मालिक जगत में शान्ति की धारा बहा"
              
                  श्रद्धा से सत्य प्रकट होता है और प्रार्थना के माध्यम से हम सत्य स्वरूप परमात्मा की ओर बढ़ते हैं ।प्रार्थना में जब  शरीर, मन व वाणी तीनों अपने आराध्य देव की सेवा में एक रूप होते हैं, तब वह सीधी 'परमात्मा' तक पहुँचती है।प्रार्थना तो परम प्रेम है, जीवन का शिखर है जो किसी के लिए और कभी भी की जा सकती है।प्रार्थना की वास्तविक अनुभूति तो तब होती है , जब प्रार्थना ही हमारा आनन्द बन जाती है।
 
                                   जब हम 'आचार्य शंकर' की स्तुतियाँ देखेंगे, उनका स्रोतों का  गायन सुनेंगे , तो पाएँगे कि अत्यन्त निष्कपट, सरल शिशु का हृदय पुकार रहा है।श्री कृष्ण भक्त 'मीरा'  का जीवन भी  प्रार्थना का स्रोत था ।वे पद- कविताओं के माध्यम से अपने अंतस् की पुकार भगवान् के पास निरंतर भेजती थीं ।'श्री भक्त प्रह्लाद' की भक्ति अविरल प्रवाहित रहती थी इसी भक्ति के वश में होकर भगवान् भी हर पल उनके साथ रहते थे।'ध्रुव' ने प्रार्थना की शक्ति से ही भगवान् के साक्षात् दर्शन किए ।अनेक ऐसे भक्त हुए हैं जिन्होंने अपने हृदय की पुकार से भगवान् की अनुभूति का एहसास किया।
      
       "ध्रुव ने जब घोर तपस्या की वन में आ दरश दिखाया है 
       प्रहलाद ने जप कर नारायण तुम्हें नृसिंह रूप में पाया है "

प्रार्थना के लिए हमारे शास्त्रों में अनेक श्लोक, मंत्र, स्तुतियाँ व पाठ हैं ।हिन्दी, अवधी व अन्य भाषाओं में भी विभिन्न देवी - देवताओं से प्रार्थना हेतु चालीसा, आरती व गीत हैं ।अन्य धर्मों की भी अलग-अलग प्रार्थना पद्धतियाँ प्रचलन में हैं ।

     ●●●प्रार्थना एक आध्यात्मिक कवच●●●

                      प्रार्थनामय जीवन अर्थात पूर्ण भगवत्मय जीवन ।जब भी मनुष्य किसी संकट में होता है, परेशानी में होता है तो प्रार्थना स्वतः ही उसके अंतर्मन से निकलती है।निश्चित रूप से प्रार्थना में बड़ी शक्ति होती है, जो किसी भी मुश्किल परिस्थिति से हमें बाहर निकालती है। जब हम सच्चे मन से अपने इष्ट या किसी अलौकिक शक्ति को पुकारते हैं तो हमें अपने विश्वास के अनुरूप ही सहायता भी मिलती है।  

सच्चे मन की पुकार से हम संकटों से मुक्ति भी पाते हैं साथ ही दिव्य सत्ता के साथ भी जुड़ जाते हैं ।प्रार्थना करते समय मन सात्विक विचारों से भरा रहता है।


प्रार्थना द्वारा हम आध्यात्मिक रक्षा कवच धारण कर लेते हैं और हमारे अन्दर आध्यात्मिक शक्तियों का प्रवाह फूट पड़ता है।

भगवान् भाव के भूखे हैं इसलिए प्रार्थना तभी चमत्कारी होती है जब हमारा अंतर्मन सच्चाई के साथ भगवान् को पुकारता है।
प्रार्थना प्रभु को याद करने के साथ- साथ उनके प्रति कृतज्ञता का अर्पण भी है: इसलिए प्रार्थना में समर्पित होकर यह कहें कि 'हे प्रभु ! जिसमें हमारा भला हो , वही हमें देना।

"भगवान् तुम्हारी भक्ति से जीवन में सब सुख पाया है "

          ●●● प्रार्थना ऊर्जा का विज्ञान ●●●

इस जगत में ऊर्जा का एक विज्ञान काम करता है, जो प्रार्थना से सम्बंधित है।संसार में प्रत्येक व्यक्ति से कुछ विशेष प्रकार की तरंगें उत्सर्जित होती रहती हैं , इनमें विशेष प्रकार की ऊर्जा होती है।रोगी व निराश व्यक्तियों में नकारात्मक ऊर्जा का संचार होता है।सकारात्मक सोचने वाले व्यक्तियों में सदा सकारात्मक ऊर्जा उत्सर्जित होती है।

       आज विज्ञान भी प्रार्थना के प्रभाव को मानने लगा है।इस विषय पर शोध कार्य भी हो रहे हैं ।  प्रार्थना के साथ दो तथ्य जुड़े हुए हैं- पहला सकारात्मक ऊर्जा ( पाजिटिव एनर्जी) तथा दूसरा हमारा विश्वास ।प्रार्थना की शक्ति सकारात्मक ऊर्जा को प्रेषित करती है व अपनी ओर आकर्षित करती है; क्योंकि प्रार्थना में इतनी शक्ति होती है, जो नकारात्मक संवेगों को दूर करके सकारात्मक ऊर्जा को प्रेषित करती है।इससे  आत्मिक शक्ति में वृद्धि होती है ।

प्रार्थना हमारे अंतर्मन को जाग्रत करती है, हमें ऐसा अनुभव होने लगता है कि हम परमात्मा से प्रत्यक्ष बातें कर रहे हैं और वहीं से आशा, उत्साह व सफलता प्राप्त कर रहे हैं ।

प्रार्थना के लिए हम मंत्र, स्रोत, स्तुतियाँ, भजन ,आरती इनमें से अपनी रुचि के अनुसार किसी का भी चयन कर सकते हैं , बस हम सच्चे मन से किसी भी माध्यम से प्रभु को पुकारें, जिससे हमारी भावनाएँ सुगमता से ऊर्जा के विभिन्न स्तरों को पार करके हमारे इष्ट तक पहुँच सकें ।
      "तेरे नाम का जाप करूँ भगवन 
      प्रभु ध्यान में मेरे बस जाओ "

           ●●●प्रार्थना एक दिव्य औषधि●●●
         
  प्रार्थना एक तरह का मानसिक और आध्यात्मिक व्यायाम है जिससे मनोबल सुदृढ़ होता है और आत्मश्रद्धा विकसित होती है। अनुसंधानकर्ता चिकित्सा विशेषज्ञों ने पाया है कि दिव्य चेतना में श्रद्धा रखने वाले रोगी अन्यों की अपेक्षा शीघ्र स्वास्थ्य लाभ पाते हैं ।बड़ी से बड़ी बीमारी प्रार्थना से नष्ट हो जाती है।कभी-कभी बड़े- बड़े चिकित्सक फ़ेल हो जाते हैं पर प्रार्थना का अस्त्र अपना काम करता ही है।

प्रार्थना से हमारा संपर्क, हमारा संस्पर्श, हमारा सान्निध्य उस परम ऊर्जा से होता है तब वह ऊर्जा हमारे अस्तित्व को घेर लेती है और रोग मुक्त होने में हमारी सहायता करती है।

प्रसिद्ध चिकित्साशास्त्री डाॅक्टर लैरी डाॅसी ने अपनी पुस्तक 'हीलिंग वड्रस, दि पाॅवर ऑफ प्रेयर एंड दि प्रैक्टिस ऑफ मेडीसिन'  में प्रार्थना से सम्बंधित 130 दृष्टान्तों के बारे में बताया है जिनमें प्रार्थना प्रभावी हुई।

प्रार्थना से यह विश्वास मजबूत होता है कि कोई है जो अनंत, अमर और सर्वव्यापी है।भक्त इसी विश्वास के साथ अपने हृदयरूपी मंदिर में प्रार्थना का सहारा लेकर प्रभु को बिराजमान होने के लिए आमंत्रित करता है।
      किसी कवि ने सुन्दर लिखा है-

     हर देश में तू, हर वेष में तू, तेरे नाम अनेक तू एक ही है

Monday, December 2, 2019

"मस्तिष्क" मन का एक सुन्दर उपकरण जिसमें छिपा है एक अद्भुत संसार

                             "मानवीय मस्तिष्क"
नियंता ने मनुष्य की रचना बहुत सूझ-बूझ से की है,  मनुष्य चाहे तो अपने अन्दर की सुषुप्त शक्तियों का जागरण करके अद्भुत शक्तियों का स्वामी बन सकता है।वस्तुतः हम आज जो कुछ भी हैं, वह मन मस्तिष्क की ही देन है।

अनुसंधानकर्ता, शरीरशास्त्रियों एवं तंत्रिकातंत्र विशेषज्ञों की मस्तिष्क सम्बन्धी वैज्ञानिक जानकारियाँ सीमित हैं ; जब कि भारतीय ऋषियों की शोधें इनसे कहीं अधिक विकसित हैं ।व्यक्तित्व के सर्वांगपूर्ण विकास में सहायक जिन तत्वों की व्याख्या शास्त्रों में की गई है, शरीर विज्ञानी उन्हें तंत्रिका तंत्र के अन्तर्गत मानते हैं। जिनके निर्देशानुसार काया की समस्त गतिविधियों का नियंत्रण एवं संचालन होता है।अध्यात्म वेत्ताओं ने इसका केंद्र ब्रह्मरंध्र को माना है।


महर्षि दधीचि ने हृदय और मस्तिष्क के सम्मिश्रित स्वरूप को कपाल की संज्ञा दी है।उनके अनुसार, इन्द्रियों की चेतन तरंगों का उद्गम केंद्र मस्तिष्क के मध्य स्थित 'ब्रह्मरंध्र' है।ध्यानबिंदु उपनिषद् में कहा गया है कि  कपाल के मध्य में आकाशरंध्र से आता हुआ नाद , मोर के नाद के समान सुनाई देता है।जैसे आकाश में सूर्य विद्यमान है, उसी प्रकार यहाँ आत्मा बिराजमान है और ब्रह्मरंध्र के मध्य में शक्ति स्थित है।वहाँ मन को लय करके आत्मा को देखे।वहाँ रत्नों के प्रभा वाले नादबिंदु महेश्वर का निवास है।जो यह रहस्य जानता है, वह कैवल्य को प्राप्त होता है।

मस्तिष्क  में एक अद्भुत संसार छिपा है, जिसे यंत्रों से नहीं, ध्यान- साधना से ही देखा जा सकता है।मस्तिष्क की क्षमता को जाने बिना न तो हम शरीर की यथार्थता जान सकते हैं और न स्वयं की।
मस्तिष्क की सीमाओं का कोई ओर-छोर नहीं है ।यह दृश्य जगत की गुत्थियों को सुलझाता है और अदृश्य  जगत की मनोरम कल्पनाओं में भी रंग भरता है।

ऋषियों ने अपने शरीर एवं चेतना पर अनुसंधान करके समस्त विश्व को यह बताया था कि मनुष्य अपार विभूतियों का स्वामी है और सही पात्रता होने पर ही वे विभूतियाँ प्रकट होती हैं ।

आधुनिक विश्व के अनेक आश्चर्यजनक आविष्कार मस्तिष्क की अद्भुत विशेषता के कारण ही सम्भव हुए हैं ।मानव मस्तिष्क की संरचना में 100 अरब स्नायु तंत्र भाग लेते हैं ।मेमोरी अथवा स्मरण शक्ति का केंद्र मस्तिष्क है, परंतु इसे अनंत गुना बढाने की क्षमता भी इसी   मस्तिष्क में ही है। हम अपने मस्तिष्क का उपयोग जितना अधिक करते हैं, उसकी क्षमता उतनी ही बढ़ती जाती है।

                    स्वामी विवेकानंद के अंदर ऐसी प्रतिभा थी कि वे एक बार कोई पुस्तक पढ़ते ही उसके विषय में सब जान जाते थे।आदि शंकराचार्य को भी एकश्रुतिधर के नाम से पुकारा जाता था : क्योंकि वे एक बार में सौ व्यक्तियों के प्रश्नों को सुनकर उनका एक- एक कर उत्तर देने में सक्षम थे।कभी-कभी हम जिन तथ्यों को चमत्कार समझते हैं , वे मानवीय मस्तिष्क में छिपी हुई कोई विशिष्टता भी हो सकती है।

मानवीय मस्तिष्क एक जादुई पिटारा है।इसमें अनगिनत रहस्य समाए हुए हैं ।विज्ञान तो केवल 7 से 13 प्रतिशत की जानकारी प्राप्त कर सका है।अब इसकी गुप्त एवं सुप्त शक्तियों के विकास की तकनीकें खोजी जा रही हैं ।न्यूयॉर्क के 'अलबर्ट काॅलेज ऑफ मेडिसिन'  के असिस्टेंट प्रोफ़ेसर डाॅ०  बर्गीस का कहना है कि मस्तिष्क की क्षमता में अभिवृद्धि , मस्तिष्क के सदा मानसिक कार्यों में एवं रचनात्मक विचारों में संलग्न रहने से होती है।
 
अमेरिका के प्रसिद्ध शोध- संस्थान " सेंटर फाॅर माइंड" के  डाॅo एलन स्नाइडर ने मानवीय मस्तिष्क के अनुसंधान क्षेत्र में कई प्रयोग किए; उनके प्रयोगों के निष्कर्ष के अनुसार--हमारे मस्तिष्क में कई ऐसे क्षेत्र हैं, जिनके बारे में वर्तमान विज्ञान पूरी तरह से नहीं जानता।डाॅo स्नाइडर का कहना है कि मानवीय मस्तिष्क के अन्दर अपार संभावनाओं का भंडार है।

           आधुनिक शोधों के अनुसार--- मस्तिष्क में स्थित प्रोटीन स्नायुतंत्रों की कनेक्टिविटी को बढ़ाते हैं ।परिणामस्वरूप हमारी स्मरण-शक्ति  बढ़ जाती है।GAP -43 (ग्रोथ एसोसिएटेड प्रोटीन) ऐसा ही प्रोटीन है, जो स्मरण- शक्ति में वृद्धि करता है। वर्तमान समय में मस्तिष्क की प्रणाली को समझने के लिए अनेक अनुसंधान किए जा रहे हैं ।

हमारे मस्तिष्क में अनगिनत संख्या में दृश्य, स्मृतियाँ, आवाजें, चित्र तथा घटनाओं का पूरा विवरण संग्रहीत होता है।जैसे ही इनमें से कोई भी हमें प्रत्यक्ष रूप से दृष्टिगोचर होता है तो मस्तिष्क में अचानक उसके प्रति प्रतिक्रिया होने लगती है।ब्रेन मैपिंग भी पुरानी स्मृतियों से उत्पन्न क्रिया पर ही आधारित है।

         ऐसा  माना जाता है कि मस्तिष्क के अंदर वे सब बातें भी दबी रहती हैं, जिनका सम्बन्ध व्यक्ति के विगत जन्म से होता है।मानस-पटल पर जीवन की घटनाएँ गहराई से अंकित हो जाती हैं ।मनोविज्ञान वेत्ता कहते हैं कि मनुष्य जब शांत एकांत में भी पड़ा रहे, तब भी उसका मस्तिष्क सक्रिय रहता है।स्थूल मस्तिष्क के अतिरिक्त उसकी अन्य कई परतें भी हैं , जिन्हें मनोविज्ञान की भाषा में चेतन, अचेतन, अवचेतन और सुपर चेतन के नाम से जाना जाता है।

     मस्तिष्क को सदैव क्रियाशील रखना ही उसकी सामर्थ्य को बढाने का रहस्य है।वैज्ञानिक, इंजीनियर, कंप्यूटर विशेषज्ञ, लेखक, चिंतक , अन्वेषण कर्ता आदि सभी अपने मस्तिष्क का अधिकतम उपयोग करते हैं और इसी कारण वे अपने से संबंधित क्षेत्रों को एक नई दिशा प्रदान करते हैं ।

आधुनिक अनुसंधान इस तथ्य को स्वीकारते हैं " कि मस्तिष्क मन का एक सुन्दर उपकरण है"। मन इसे परिचालित व संचालित करता है।स्वस्थ तन और स्वच्छ मस्तिष्क अंतरिक्ष से दिव्य विचारों को आकर्षित करते हैं ।नई- नई योजनाएँ इसी अवस्था में अवतरित होती हैं । अतः हमें अपने मस्तिष्क की क्रियाशीलता की वृद्धि करने के लिए अपने मस्तिष्क को नए- नए सकारात्मक कार्यों में संलग्न रखना चाहिए ।

"सचमुच मस्तिष्क मन का एक सुन्दर उपकरण है, जिसमें छिपा है एक अद्भुत संसार "।

सादर अभिवादन के साथ धन्यवाद ।







Saturday, November 30, 2019

"समाधि" समस्त योग साधनाओं का सार,समस्त योग साधनाओं की पराकाष्ठा

                 'समाधि' समस्त योग साधनाओं का सार 
समाधि क्या है ? क्या यह सबके लिए सुलभ है ?  अक्सर ही साधकों के मन में इस तरह के विचार आते रहते हैं ।

'समाधि' वह अवस्था है, जिसमें साधक को जीव,जगत तथा ब्रह्म के बीच पूर्ण एकत्व की अनुभूति होती है।योग की सभी परम्पराओं का ध्येय, आत्मचेतना के भीतर ईश्वरत्व की अनुभूति को प्राप्त करना है।योग सूत्र में राजयोग के आठ अंग हैं---यम , नियम , आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान, समाधि। नियमित योग साधनाओं के द्वारा चित्त का क्रमिक रूप से विकास होता है।इन साधनाओं की पूर्णता समाधि है।
                वैज्ञानिक की अवस्था को 'धारणा', कलाकार की अवस्था को 'ध्यान' एवं योगी की अवस्था को 'समाधि' कहते हैं ।
जब हम शरीर के बाहर-भीतर ,किसी वस्तु, विषय, विचार पर चित्त को केन्द्रित करने का प्रयोग करते हैं तो वह 'धारणा' होती है।धारणा की गहराई में ही 'ध्यान' घटित होता है और फिर ध्यान की गहराई में 'समाधि' घटित होती है।वृत्ति का एक दिशा में चलना ही ध्यान है।ध्यान--मन को विचारों से भरना नहीं, विचारों से रिक्त करना है ।

ध्यान किया नहीं जाता, वरन् स्वयमेव होता है।अंतर्बोध से प्रकट होने वाले ज्ञान की कोई विधि या प्रणाली नहीं होती।ध्यान अंतस् की आकुल पुकार है।ध्यान यात्रा है -- चेतना से परम चेतना की।  महर्षि पतंजलि के योग सूत्र में---
      "तदेवार्थ मात्रनिर्भासं स्वरूपशून्यमिव समाधिः।"
अर्थात जब (ध्यान में ) केवल ध्येय मात्र की ही प्रतीति होती है।चित्त का निजस्वरूप शून्य सा हो जाता है, तब वही ध्यान समाधि बन जाता है।

चित्त की परम आनन्दमयी, चैतन्यमयी, व सत्यमयी अवस्था का नाम ही समाधि है।इसे ही परमानंद, ब्रह्मानंद, मोक्ष, मुक्ति, निर्वाण, कैवल्य, आत्मसाक्षात्कार, ईशदर्शन आदि विभिन्न नामों से जाना जाता है।वर्षों की ध्यान साधना के  फलस्वरूप साधक को स्वतः ही एक अलौकिक, पारलौकिक आनंद की अनुभूति होने लगती है।

साधक मन के भी पार , बहुत पार चला जाता है।बुद्ध भगवान् समाधि के विषय में कहते हैं, कि समाधि सम्यक(संतुलित, सधी हुई) होनी चाहिए- जिसमें होश हो , जाग्रति हो ,बोध हो।
सम्यक समाधि हो या असम्यक समाधि हो, उस अवस्था में स्वप्न जन्म नहीं लेते व विचार की तरंगें भी शान्त हो जाती हैं ।इस अवस्था में साधक सभी प्रकार के क्लेशों से सदा- सदा के लिए मुक्त होकर सदैव आनंदित व प्रफुल्लित रहने लगता है।

प्रभु का ध्याता साधक, प्रभु रूपी समुद्र में स्वयं को विसर्जित कर देता है और मुक्त हो जाता है।इस अवस्था को 'कैवल्य अवस्था' 'निर्विकल्प समाधि' अथवा 'सबीज समाधि' भी कहते हैं ।घटाकाश ही महाकाश है --यह सिर्फ एक विचार नहीं है वरन्  ऋषि अपनी  चेतना की पराकाष्ठा में जाकर इसका अनुभव करता है।

                       ध्यान साधना के बल पर ही बुद्ध पुरुषों ने अध्यात्म के शिखर को छुआ है, अनेक जीवात्माओं ने परमात्मा का साक्षात्कार किया है। स्रहसार चक्र ही चेतना का निवास स्थान है, जहाँ योगीजन ध्यान लगाकर 'समाधिजन्य आनन्द' को प्राप्त करते हैं ।प्राचीन योगशास्त्रों में सम्पूर्ण प्रकाशित मन की अवस्था का  जो वर्णन किया है, उसके अनुसार जब साधक की  चेतना स्रहसार में गतिमान होती है तब वह साधक आनन्द का असीम सागर बन जाता है।यही जीवन चेतना का शिखर है।

जीव की ब्राह्मी स्थिति के विषय में कबीर कहते हैं--
    "आत्म अनुभव जब भयो, तब नहीं हर्ष विषाद"
     
पूर्ण एकाग्रता जिसे शून्यावस्था, योगनिद्रा या समाधि कहते हैं वह बहुत ऊँची स्थिति है।मन एक ही बिन्दु पर केन्द्रित रहे, ऐसा हो सकने को ही 'तुरीयावस्था' कहते हैं ।इससे भी ऊँची स्थिति है - स्वयं में स्थित होना ।जो स्वयं में स्थित है , वही तत्वदर्शी है।समाधि की अनुभूति में साधक को ब्रह्माण्ड के कण- कण में, सूर्य में, चन्द्र में, तारों में, सिंधु में, निर्झर बहती सरिताओं में अपने आराध्य के होने का एहसास होने लगता है।

ध्यान की अनंत गहराई में उतर कर ही समाधि की प्राप्ति होती है ।श्री रामकृष्ण देव हमेशा चलते- फिरते, नाचते-गाते समाधि में चले जाते थे। चैतन्य महाप्रभु कीर्तन करते- करते ध्यान समाधि में डूब जाते थे।संत कबीर जब  निर्विकल्प समाधि लगाते  तो लम्बे समय तक उसी अवस्था में पड़े रहते और फिर स्वतः ही ध्यान की भूमिका से नीचे आते।ऐसे ही अनेक अन्य महापुरुषों के उदाहरण भी हैं ।

आध्यात्म अनुभूति का विषय है ।एक बार समाधि के अलौकिक आनन्द की अनुभूति हो जाने के बाद स्वामी विवेकानन्द प्रायः ध्यान की गहराई में उतरकर समाधि सुख प्राप्त करने लगे।स्वामी विवेकानन्द को शयन के समय आँखें मूँदते ही आज्ञा चक्र में निरंतर परिवर्तनशील रंगों का एक ज्योतिपुंज दिखाई देता था।

ध्यान योग के कल्पवृक्ष की छाया में सच्चे मन से बैठने वाला व्यक्ति आत्म- साक्षात्कार कर सकता है।नर- नारायण के समकक्ष बन सकता है। इस स्थिति को विरले ही प्राप्त कर पाते हैं ।जिन्हें हम इस जीवन में आध्यात्मिक जीवन के परमोच्च शिखर पर देखते हैं, उनके पीछे विगत के कई जन्मों का इतिहास जुड़ा होता है।

        संसार में रहकर सांसारिक जीवन- यापन करते हुए भी     योगसाधक  के भाव, विचार व वृत्तियाँ ब्राह्मी चेतना के साथ एकाकार होकर साधक को समाधि की अनुभूति करा सकती हैं ।
          "मैं सुबह शाम नित ध्यान करूँ 
           प्रभु ध्यान में मेरे बस जाओ "

सादर अभिवादन के साथ धन्यवाद ।