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Sunday, September 13, 2020

देवर्षि नारद,नारद शब्द का अर्थ,देवर्षि के पद तथा लक्षण,हिन्दू शास्त्रों के अनुसार देवर्षि नारद,नारद जी ज्ञानी व दूरदर्शी,नारद जी की रचनाएँ, राजनीतिक उपदेशक,शास्त्रों में नारद जी का व्यक्तित्व

               ●●● देवर्षि नारद ●●●
नारायण का निरन्तर भजन करने वाले देवर्षि नारद से सभी लोग परिचित हैं ।इनकी चर्चाएँ प्रायः सभी पुराणों में हैं ।टीवी पर दिखाया जाने वाला कोई भी धार्मिक-पौराणिक कार्यक्रम हो ,वह देवर्षि नारद का उल्लेख किए बिना अधूरा रहता है। शास्त्रों में नारद को भगवान का मन कहा गया है, इसलिए सभी ग्रन्थों में नारद जी का महत्वपूर्ण स्थान है।केवल देवताओं ने ही नहीं, दानवों ने भी इन्हें सदैव आदर दिया है।

श्रीमद्भगवद्गीता के 10वें अध्याय के 26वें श्लोक में स्वयं भगवान श्री कृष्ण ने यह कहा है --- देवर्षीणाम् च नारदः अर्थात देवर्षियों में मैं नारद हूँ ।'श्रीमद्भागवत महापुराण' का कथन है कि सृष्टि के चक्र में भगवान ने देवर्षि नारद के रूप में तीसरा अवतार ग्रहण किया और सात्वत तंत्र ( जिसे नारद पांचरात्र भी कहते हैं ) का उपदेश दिया, जिसमें सत्कर्मों के द्वारा भवबंधन से मुक्ति का मार्ग दिखाया गया है ।
      
   ●●●●● नारद शब्द का विशेष अर्थ ●●●●●

नारद शब्द का विशेष अर्थ -- 'नार' शब्द का अर्थ है-- ज्ञान तथा 'द' शब्द का अर्थ है -- देना।अर्थात जो तीनों लोकों का ज्ञान देता है, उसे नारद कहते हैं ।जो अज्ञानता का नाश कर दे, वह नारद है ।ब्रह्मवैवर्त पुराण के अनुसार-- ददाति नारं ज्ञानं च बालकेभ्यश्च बालकः।जातिस्मरो महाज्ञानीतेनाय नारदः स्मृतः।। अर्थात जो ज्ञानदान करते हैं, बालकों के लिए बालक यानी सरल बच्चे की भाँति छल, छद्म से रहित बन जाते हैं, जो जातिस्मर ( जिन्हें अपने पूर्वजन्मों की स्मृति बनी रहती है) भी हैं, वे ही नारद हैं ।

    ●●●●● देवर्षि के पद तथा लक्षण●●●●●

वायु पुराण में देवर्षि के पद तथा लक्षणों का वर्णन किया गया है, जिसके अनुसार--- देवलोक में प्रतिष्ठा प्राप्त करने वाले ऋषिगण देवर्षि नाम से जाने जाते हैं । ये भूत, वर्तमान और भविष्य तीनों कालों के ज्ञाता, सत्यभाषी, स्वयं का साक्षात्कार करके स्वयं में संबद्ध, कठोर तपस्या के कारण लोकविख्यात, गर्भावस्था में ही अज्ञानरूपी अंधकार के नष्ट हो जाने से जिनमें ज्ञान का प्रकाश हो चुका है-- ऐसे मंत्रवेत्ता तथा अपने ऐश्वर्य (सिद्धियों) के बल से सब लोकों में पहुँचने में सक्षम, मंत्रणा हेतु मनीषियों से घिरे हुए देवता , द्विज और नृप -- देवर्षि कहे जाते हैं ।

इसी पुराण के अनुसार-- धर्म, पुलस्त्य क्रतु, पुलह, प्रत्यूष और कश्यप -- इनके पुत्रों को देवर्षि का पद प्राप्त हुआ।धर्म के पुत्र नर एवं नारायण, क्रतु के पुत्र बालखिल्यगण, पुलह के पुत्र कर्दम, पुलत्स्य के पुत्र कुवेर, प्रत्यूष के पुत्र नारद और पर्वत-- देवर्षि माने गए, लेकिन जनसाधारण में देवर्षि के रूप में केवल नारद जी ही प्रसिद्ध हैं ।


●●●●● हिन्दू शास्त्रों के अनुसार देवर्षि नारद ●●●●●

हिन्दू शास्त्रों के अनुसार--- देवर्षि नारद ब्रह्मा जी के मानस पुत्र हैं ।ये भगवान विष्णु के अनन्य भक्त माने जाते हैं ।ये भक्ति तथा संकीर्तन के आदि आचार्य हैं ।ये सदैव भगवान नारायण का कीर्तन करते रहते हैं, इस हेतु इनका वाद्ययंत्र वीणा और मजीरा हैं ।नारद जी का उल्लेख ऋग्वेद एवं अथर्ववेद में भी आया है।वेद मंत्रों का जिस ऋषि ने साक्षात्कार किया, उस सूत्र के मंत्रों का वह दृष्टा ऋषि कहलाता है ।ऋग्वेद के आठवें मंडल के 13वें सूत्र को सबसे पहले देवर्षि नारद जी ने ही प्राप्त किया था।नारद जी ऋग्वेद के मंत्रों के प्रथम अर्थकर्ता हैं ।
        
       ●●● देवर्षि नारद ज्ञानी व दूरदर्शी ●●●

देवर्षि नारद धर्म के प्रचार तथा लोक कल्याण हेतु सदैव प्रयत्नशील रहते हैं ।ये संभावित संकटों को भाँपकर लोगों को सचेत करने वाले दूरदर्शी व ज्ञानी व्यक्ति हैं,ये जाग्रति के संवाहक हैं। ये खरी व कड़वी बात कहने से भी कभी परहेज नहीं करते, चाहे उनके सामने कितना ही शक्तिशाली व्यक्ति क्यों न हो।पुराणों के अनुसार-- वे गृहस्थों को परोपकार, निस्स्वार्थता, दूरदर्शिता जैसे उत्कृष्ट गुणों का पाठ पढ़ाते नजर आते हैं ।

नारद जी सभी लोकों में स्वेच्छा से विचरण करने वाले हैं ।ये एक तरह से संदेशों को एक लोक से दूसरे लोक में, एक व्यक्ति से तक पहुँचाने का कार्य करते हैं, इसलिए इन्हें पुरातन युग का "संदेश वाहक" भी कह सकते हैं ।

 ●●●●● देवर्षि नारद की प्रसिद्ध रचनाएँ ●●●●●

देवर्षि नारद की प्रसिद्ध रचनाएँ--- नारद पांचरात्र, नारद भक्तिसूत्र, नारद पुराण, नारद,स्मृति आदि हैं ।इनसे सम्बन्धित उपाख्यान हमारे वैदिक साहित्य, रामायण, महाभारत, पुराण, स्मृतियों, अथर्ववेद, ऐतरेय ब्राह्मण आदि में मिलते हैं ।

अठारह महापुराणों में से एक नारदोक्त पुराण--- बृहन्नारदीय पुराण के नाम से प्रख्यात है।मत्स्य पुराण में यह वर्णन है कि श्री नारद जी ने बृहत्कल्प प्रसंग में जिन अनेक धर्म आख्यायिकाओं को कहा है , 25000 श्लोकों का वह महाग्रंथ ही नारद महापुराण है।वर्तमान समय में उपलब्ध नारद पुराण में मात्र 22000 श्लोक हैं ।प्राचीन पांडुलिपि का कुछ भाग नष्ट हो जाने के कारण 3000 श्लोक कम हो गए हैं ।

नारद पुराण तो वेद,वेदांगों का सर्वस्व है।नारदीय संहिता ज्योतिषशास्त्र की मूल है।नारद स्मृति धार्मिक विषयों का प्रतिपादन करती है।

  ●●● नारद जी ने शाप को वरदान में बदल दिया ●●●

पुराणों के अनुसार-- एक बार नारद जी ने प्रजापति दक्ष के पुत्र हर्यस्व, शवलाश्व आदि को योगशास्त्र का उपदेश देकर उन्हें संसार त्यागी बना दिया ।इससे क्रोधित होकर दक्ष ने उन्हें शाप दे दिया 
कि नारद जी दो घड़ी से अधिक एक स्थान पर नहीं टिक सकेंगे ।नारद जी ने इस शाप को दूसरों के परोपकार के लिए वरदान में बदल दिया।वे घूमघूमकर आने वाले संकटों को भाँपकर लोगों को सचेत करने लगे।

     ●●● देवर्षि नारद राजनीति के उपदेशक ●●●

नारद जी द्वारा राजनीति संबंधी महाराज युधिष्ठिर को जो उपदेश दिए वे उच्च कोटि के हैं ।देवर्षि नारद ने राजा अंबरीष को वैष्णव धर्म के प्रसंग में समाज नीति का जो उपदेश दिया वह आज भी उपयोगी है ।नारद जी के उपदेश इतने हृदयगाही और सच्चे हैं कि वे महानिष्ठुर हृदय पर भी प्रभाव डाले बिना नहीं रहते।नारद जी बिना किसी भेदभाव के सभी के हित के लिए केवल सत्य बोलते हैं ।यही कारण है कि नारद जी को देव-दानव, मनुज-राक्षस सभी ने सम्मान दिया है।

नारद जी ने महर्षि वाल्मीकि को रामचरित्र का उपदेश दिया, जिससे आदिकाव्य रामायण की रचना संभव हुई।वेदव्यास जी को उन्होंने महापुराण का मर्म सुनाया था ।उनके उपदेश से प्रभावित होकर भागवत पुराण की रचना हुई ।

●● देवर्षि नारद आध्यात्मिक,किंतु व्यावहारिक ज्ञानोपदेश●●
एक बार व्यासपुत्र शुकदेव ने देवर्षि नारद जी को ज्ञानोपदेश देने को कहा।नारद जी ने उन्हें जो ज्ञान दिया, उसे अध्यात्म की पराकाष्ठा माना जा सकता है ।नारद जी ने कहा -- " मनुष्य मात्र को दुःख न देने की कोशिश करना ही सर्वोत्तम धर्म है।इसलिए जो मनुष्य किसी भी प्राणी को सताता है, उसका धर्म व उसके सभी अनुष्ठान सर्वथा व्यर्थ है।

क्षमा धर्म ही सबसे बड़ा बल है।आत्मा को जीत लेना ही सबसे बड़ा ज्ञान है, लेकिन सत्य से बढ़कर अन्य कोई धर्म नहीं है; क्योंकि परमात्मा स्वयं सत्य स्वरूप हैं ।सत्य वचन बोलना कल्याणकारी है, लेकिन जो वास्तव में प्राणियों के लिए हितकर नहीं है, वह असत्य वचन है।"  

नारद जी का यह आध्यात्मिक किंतु व्यावहारिक ज्ञानोपदेश आमजन के लिए भी उपयोगी है।यदि हम नारद जी के जीवन चरित्र और उपदेशों पर विचार करें, तो पता चलेगा कि जन्म से ही वैरागी प्रवृत्ति होने के बावजूद उनके उपदेश गृहस्थ धर्म के लिए भी बहुत उपयोगी हैं ।
 
●●● देवर्षि नारद ने बहुत लोगों के जीवन को बदला ●●●

देवर्षि नारद ने बहुत लोगों के जीवन को बदला, इनमें डाकू रत्नाकर का नाम आता है , डाकू रत्नाकर को उन्होंने संसार की वास्तविकता से परिचित कराया और उसके मन को बदलने के लिए 'राम' नाम के स्थान पर 'मरा' शब्द का निरंतर जप करने के लिए कहा ; क्योंकि उनकी प्रवृत्ति के अनुसार वे राम नाम का उच्चारण कर ही नहीं सकते थे, लेकिन मरा-मरा का उच्चारण कर सकते थे ।मरा- मरा का उच्चारण करते-करते वे राम-राम का उच्चारण करने लगे और प्रचंड तपस्या करने के कारण वे डाकू से ऋषि बन गए।

राजकुमार ध्रुव जब अपने पिता की गोद में बैठने के लिए अत्यंत लालायित हो उठे और उन्हें अपनी सौतेली माँ से इसके लिए कटु वचन सुनने पड़े, तो वे परमात्मा की प्राप्ति के लिए तपस्या हेतु चल पड़े ।उस समय उनका मार्गदर्शन देवर्षि नारद ने किया और उन्हें " ॐ नमो भगवत वासुदेवाय " मंत्र जपने के लिए कहा ।

●●● महाभारत में नारद जी के व्यक्तित्व का परिचय ●●●

महाभारत के सभापर्व के पाँचवें अध्याय में नारद जी के व्यक्तित्व का परिचय उल्लेखित है।इसके अनुसार--- देवर्षि नारद आत्मज्ञानी, नैष्ठिक ब्रह्मचारी, वेद और उपनिषदों के मर्मज्ञ, देवताओं के पूज्य, इतिहास व पुराणों के विशेषज्ञ, पूर्वकल्पों की बातों को जानने वाले, न्याय एवं धर्म के तत्वज्ञ, शिक्षा-व्याकरण-आयुर्वेद व ज्योतिष के प्रकांड विद्वान, संगीत विशारद, प्रभावशाली वक्ता, मेधावी, नीतिज्ञ, कवि, महापंडित, वृहस्पति जैसे महाविद्वानों की शंकाओं का समाधान करने वाले, धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष के यथार्थ ज्ञाता, योगबल से समस्त लोकों के समाचार जानने में समर्थ, सांख्य एवं योग के सम्पूर्ण रहस्य को जानने वाले, देवताओं-दैत्यों के लिए वैराग्य के उपदेशक, कर्तव्य-अकर्तव्य में भेद करने में दक्ष, समस्त शास्त्रों में प्रवीण, सद्गुणों के भंडार , सदाचार के आधार, आनंद के सागर , परम तेजस्वी, सभी विद्याओं में निपुण , सबके हितकारी और सर्वत्र गति करने वाले हैं ।

   ●●भगवान श्रीकृष्ण के अनुसार नारद जी सर्वत्र पूजित●●
एक बार महाराज उग्रसेन ने भगवान श्रीकृष्ण से पूछा कि नारद में ऐसे कौन से गुण हैं, जिससे वे लोकपूज्य कहे गए ।इसके उत्तर में श्री कृष्ण ने कहा---- " नारद को कभी स्वयं पर अभिमान नहीं हुआ ।उनमें क्रोध, चंचलता, भय, काम, लोभ आदि नहीं हैं ।वे अध्यात्म तत्व को जानने वाले, क्षमाशील, जितेन्द्रिय, सरल हृदय तथा सत्यवादी हैं ।उनमें राग-द्वेष नहीं हैं ।वे स्वाभाविक रूप से वीतरागी हैं ।उनका अंतःकरण निर्विकार है।इसलिए नारद सर्वत्र पूजित हैं ।

सादर अभिवादन व धन्यवाद ।


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