head> ज्ञान की गंगा / पवित्रा माहेश्वरी ( ज्ञान की कोई सीमा नहीं है ): उपासना - श्रद्धा का चरम समर्पण परमात्मा से इच्छित वस्तु की माँग करना उपासना नहीं, उपासना एक ऐसी अवस्था जिसमें दिव्यता प्रकट हो जाए ,उपासना से कष्टों को स्वीकार करने की सामर्थ्य में वृद्धि ।

Tuesday, September 29, 2020

उपासना - श्रद्धा का चरम समर्पण परमात्मा से इच्छित वस्तु की माँग करना उपासना नहीं, उपासना एक ऐसी अवस्था जिसमें दिव्यता प्रकट हो जाए ,उपासना से कष्टों को स्वीकार करने की सामर्थ्य में वृद्धि ।

          ●●●उपासना- श्रद्धा का चरम समर्पण●●●
उपासना शब्द की उत्पत्ति 'उप' व 'आसन' इन दो शब्दों के परस्पर जुड़ जाने से हुई है ।उप का अर्थ है -- समीप और आसन का अर्थ है --- बैठना ।ईश्वर की उपासना अर्थात ईश्वर के समीप बैठना ।उपासना के प्रभाव से मनुष्य सत्पथ पर चलता है ।पवित्रता तथा प्रखरता का अनुगामी बनता है ।निरंतर उपासना करना ही आत्मोन्नति का सर्वश्रेष्ठ मार्ग है ।

उपासना का अर्थ है--- श्रद्धा का चरम समर्पण ।श्रद्धाविहीन उपासना संभव नहीं है ।उपासना श्रद्धा की दिव्य अनुभूति है।जब साधक की चेतना श्रद्धा के परम शिखर पर आरूढ़ होती है, तो उपासना सधती है, सिद्ध होती है।बिना श्रद्धा उपासना संभव नहीं  ।श्रद्धा के बिना जो कुछ होता है, वह उपासना नहीं होती, उसे तो मात्र आडंबर या प्रदर्शन ही कहा जा सकता है ।

उपासना में परमात्मा के अकल्पनीय और सर्वव्यापी स्वरूप की अनुभूति का आनन्द मिलता है।उपासना और उसकी दिव्य अनुभूतियाँ केवल तभी संभव हैं, जब हमें उपासना में ही आनंद मिलता है।उपासना से ही व्यक्तित्व में श्रेष्ठ गुणों का समावेश होता है।

उपासना में अपने इष्ट या गुरु के पास बैठने का भाव रहता है व उनका भावपूर्ण सुमिरन, चिंतन, मनन और ध्यान किया जाता है सामान्यतया जप और ध्यान भी - उपासना के अंग हैं ।उपासना कुछ मिनट से लेकर कुछ घंटों तक की हो सकती है, लेकिन इसके प्रभाव को बनाए रखने के लिए पात्रता साधना के आधार पर ही विकसित होती है।उपासना की क्रिया स्वयं में परिपूर्ण है।

●●उपासना ऐसी अवस्था जिसमें दिव्यता प्रकट हो जाए●●

उपासना का अर्थ है-- दैवीय शक्तियों के समीप बैठना ।उपासना का आयोजन करने के लिए अपने आप को छोड़ देने की जरूरत है -- मुक्त, शांत , रिक्त, निर्विचार, शिथिल -- एक ऐसी अवस्था, जिसमें दिव्यता प्रकट हो जाए।फिर कहाँ किस स्थिति में स्वयं को छोड़ दिया, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता; क्योंकि परमात्मा हर जगह विद्यमान हैं ।

जब तक हम अपने आप को पकड़े रहते हैं, तब तक परमात्मा की अनुभूति हमें नहीं होती , लेकिन जैसे ही हम परमात्मा से जुड़ने के लिए स्वयं को छोड़ देते हैं, तभी परमात्मा हमें थाम लेते हैं ।उपासना की प्रक्रिया में हमें परमात्मा के लिए स्वयं को छोड़ना होता है और परमात्मा के आगमन की प्रतीक्षा करनी होती है।

उपासना यानी शांत होकर बैठ जाना , आसन लगाकर स्थिर होकर बैठ जाना ।परमात्मा को उनके आगमन  के लिए निमंत्रण देकर बैठ जाना ।हम जितनी आतुरता से उनके आगमन की प्रतीक्षा करते हैं, उससे अधिक परमात्मा हमसे मिलने के लिए आतुर होते हैं लेकिन उनके निवास के लिए हमारे अन्दर उपयुक्त स्थान नहीं होता, इसलिए वे अल्प समय के लिए ही आ पाते हैं ।जब हम इस बात पर ध्यान देते हैं, तब हमारे लिए उपासना के क्षण आनंद के क्षण बन जाते हैं ।

उपासना में जब शांत, मौन बैठा जाता है, तब ही अंतरात्मा की वाणी सुनाई देती है, परमात्मा का स्वर निखर उठता है ।उपासना में जब आँखें बन्द होती हैं, तब ही वे दृश्य उभरते हैं, जो खुली आँखों से नहीं देखे जा सकते ।उपासना में जब व्यक्ति स्थिर व निर्विचार होता है , तब ही ऐसे विचार उभरते हैं, जो उसकी समस्याओं का समाधान करते हैं ।
  
●परमात्मा से इच्छित वस्तु की माँग करना उपासना नहीं●

उपासना का माँगने से कोई संबंध नहीं है। माँगने का क्या अर्थ है ?
परमात्मा के आगे अपनी झोली फैलाने का क्या अर्थ है ? इसमें हम परमात्मा से अपनी इच्छित वस्तु माँगने की फिराक में रहते हैं और हमारी माँग कभी कम नहीं होती , बल्कि इसकी सूची बराबर लम्बी होती रहती है, निरंतर बढ़ती रहती है।माँग के साथ उपासना की अनुभूति किंचित् मात्र भी सम्भव नहीं है ।

इस प्रकार न तो कभी इच्छाओं में कमी आती है और न हर नई इच्छा के कारण माँग का जोर थमता है ।हमारे मन में यह शिकायत जन्म लेती रहती है कि हमारी इच्छाएँ पूरी क्यों नहीं होती हैं ।परमात्मा से शिकायत का यह भी अर्थ है कि हम स्वयं को परमात्मा से ज्यादा बुद्धिमान समझने लगते हैं ।हम सोचते हैं कि परमात्मा को हमारी हर बात माननी चाहिए ।

जब हम बीमार होते हैं तो स्वास्थ्य माँगते हैं , तब हमारी सारी माँग एक जगह केन्द्रित हो जाती है।हम दुखी हैं तो सुख माँगते हैं, पर जरूरी नहीं कि सुख , सुख ही लेकर आए।कई बार तो ऐसा होता है कि सुख और बड़े दुख लेकर आता है ।उस परिस्थिति में ऐसा लगता है क ऐसा सुख नहीं मिलता तो ज्यादा अच्छा था।

नित नई माँग लेकर हम उपासना की दिव्य अनुभूति से वंचित रह जाते हैं ।यदि हम भगवान से अपनी माँग पूरी करने की इच्छा करते रहेंगे,  तो हम सच्ची उपासना कर ही नहीं सकते ।परमात्मा के द्वार तक कभी नहीं पहुँच सकते ।प्रभु के द्वार की झलक-झाँकी तब ही दिखाई पड़ती है, जब मन से माँग विसर्जित हो जाए, विलीन हो जाए।

  ● उपासना से कष्टों को स्वीकार करने की सामर्थ्य में वृद्धि ●

उपासना हमें दुःखों और कष्टों को परमात्मा का अनुग्रह मानकर स्वीकार करने की सामर्थ्य प्रदान करती है ।दुःख और कष्ट हमारा परिष्कार करते हैं, हमें परिमार्जित एवं परिशोधित करते हैं ।दुःख हमें संघर्ष के लिए तैयार करता है, चुनौतियों का सामना कराकर हमें सुदृढ़ बनाता है ।सत्य तो यह है कि दुःख के बिना जीवन का यथार्थ अनुभव ही नहीं होता ।दुःख ही तो सुख का एहसास कराता है।
दुःखों और कष्टों के प्रति शिकायत करने में हमारी नास्तिकता झलकती है, जो यह बताती है कि अभी हमारी उपासना में श्रद्धा और समर्पण की कमी है।
              " चाहे सुख में रहो चाहे दुःख में, 
                  प्रभु का नाम रखो सदा मुख में "

उपासना तो माँगशून्य , प्रेम से परिपूर्ण होनी चाहिए, भक्ति से सराबोर होनी चाहिए ।सच्ची उपासना होगी तो परमेश्वर की झलक-झाँकी की अनुभूति भी होगी ।उपासना और उसकी दिव्य अनुभूतियाँ केवल तभी संभव हैं, जब हम उपासना में ही आनन्दित होते चले जाते हैं ।यह आनन्द भौतिक सुखों में नहीं है, यह तो आत्मा की सहज अवस्था है ।उपासना में परमात्मा के अकल्पनीय और सर्वव्यापी स्वरूप की अनुभूति का आनन्द मिलता है ।इसी ब्रह्मभाव से उपासना करनी चाहिए, उसके आनन्द का आस्वाद लेना चाहिए ।

उपासना ही वह माध्यम है, जो हमें वास्तव में अंतरात्मा से जोड़ती है, परमात्मा के समीप ले जाती है, आत्मा-परमात्मा के बीच के अंतराल को शून्य कर देती है।अतः उपासना वास्तव में हमारे जीवन को योगमय बनाने की पद्धति है, परमात्मा से जुड़ने का साधन है ।इसलिए उपासना को हमें दैनिक जीवन का अंग बना लेना चाहिए ।
                " प्रभु ध्यान में मेरे बस जाओ "
  सादर अभिवादन व धन्यवाद ।



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