head> ज्ञान की गंगा / पवित्रा माहेश्वरी ( ज्ञान की कोई सीमा नहीं है ): महाशिवरात्रि पर्व की साधना का महत्व,,शिव का शाब्दिक अर्थ, शिव स्वरूप का प्रतीतात्मक अर्थ, द्वादशज्योतिर्लिंग

Monday, January 6, 2020

महाशिवरात्रि पर्व की साधना का महत्व,,शिव का शाब्दिक अर्थ, शिव स्वरूप का प्रतीतात्मक अर्थ, द्वादशज्योतिर्लिंग

 {{{ महाशिवरात्रि पर्व और शिवरात्रि पर साधना का महत्व }}}
इस वर्ष ( 2020) 21 फरवरी शुक्रवार के दिन फागुन कृष्ण चतुर्दशी महाशिवरात्रि पर्व मनाया जाएगा। महाशिवरात्रि पर्व  फाल्गुन कृष्ण चतुर्दशी को मनाया जाता है ।शास्त्रों के अनुसार ऐसा माना जाता है कि सृष्टि का प्रारंभ इसी दिन हुआ था ।शास्त्रों के ही अनुसार यह भी मान्यता है कि इसी दिन भगवान शिव का विवाह माता पार्वती के साथ हुआ था।

 महाशिवरात्रि का पर्व आध्यात्मिक साधना की दृष्टि से अत्यंत महत्वपूर्ण है ।दुर्गासप्तशती में --चार महत्वपूर्ण रात्रियों का वर्णन है--- "कालरात्रिर्महारात्रि: मोहरात्रिश्च दारुणा" अर्थात कालरात्रि, महारात्रि, मोहरात्रि व दारुण रात्रि । इनमें कालरात्रि ही शिवरात्रि का दूसरा नाम है ।

रात्रि में ही सम्पूर्ण विश्व में शांति प्रसारित होती है इसके साथ ही ऊर्जा की कुछ दिव्य धाराएँ भी रात्रि में प्रवाहित होती हैं ।जिन्हें साधना के माध्यम से ही ग्रहण करना सम्भव है।महाशिवरात्रि की रात्रि में शिवलिंग की पूजा की जाती है और शिवाभिषेक, रुद्राभिषेक भी किया जाता है ।इस रात्रि में पूजा , जागरण, ध्यान साधना आदि करने से सूक्ष्म जगत के ऊर्जा प्रवाहों से सहज ही साधकों का संपर्क होता है और वे शिव के अनुदानों से अनुग्रहीत होते हैं ।

                                 इस दिन हमारे देश के सभी मन्दिरों में प्रातःकाल से ही अपार भीड़ उमड़ती है। सभी श्रद्धालु बड़ी श्रद्धा से शिवलिंग की पूजा अर्चना करते हैं और भक्ति भावना से भगवान के दिव्य दर्शन  करते हैं । शिवलिंग प्रतीक है- विश्व ब्रह्माण्ड का, जिसके कण- कण में भगवान् शिव का वास है और शिवलिंग पर विभिन्न सामग्रियों जैसे- दूध, दही, गंगाजल, घृत व सुगन्धित द्रव्य आदि से अभिषेक करने का यही तात्पर्य है कि इन विभिन्न सामग्रियों के माध्यम से हम विश्व- वसुधा को तृप्त कर रहे हैं, समुन्नत कर रहे हैं,अपने कर्मों को विभिन्न रूपों में शिवरूपी ब्रह्माण्ड को अर्पण कर रहे हैं । यह समर्पण की भावना ही हमें शिव की ओर अर्थात कल्याण की ओर ले जाती है

महाशिवरात्रि पर्व के धार्मिक अवसर पर भजन संध्या आदि कार्यक्रम भी आयोजित किए जाते हैं ।सनातन संस्कृति में इस पर्व पर व्रत व अनुष्ठानों का भी विशेष महत्व है ।इस दिन सभी शिवभक्त फलाहार ग्रहण करते हैं ।वेद- पुराणों में यह उल्लेख है कि भगवान शिव अपनी पूजा- उपासना से शीघ्र प्रसन्न होते हैं इसलिए उनका एक नाम आशुतोष भी है।

                   {{{ शिव का शाब्दिक अर्थ }}}

शिव शब्द के 'श' अक्षर में सुखशयन का समाधि सत्य है ।'इ' में त्रितापहारणी शक्ति है।'व'  अक्षर में अमृत वर्षा समायी है।शिव में कल्याण की शाश्वतता व निरंतरता है।शिव ही आदि हैं, मध्य हैं और अंत हैं ।वही नटराज हैं ।नटराज के नृत्य में ब्रह्माण्ड का छंद, अभिव्यक्ति का विस्फोट सभी कुछ छिपा है ।वही कैवल्य हैं, निर्वाण हैं, निर्बीज की महासमाधि हैं ।

                         शिव नाम स्मरण होता रहे तो स्वतः ही ज्ञान का तीसरा नेत्र खुल जाता है ।शिव में शास्त्र और संस्कृति दोनों समाए हैं ।शिव में जीवन और जगत दोनों हैं ।भगवान शिव योगेश्वर हैं ।निरंतर समाधि में लीन रहते हैं लेकिन सम्पूर्ण जगत का उन्हें ज्ञान रहता है ।वे परम तपस्वी हैं, योगी हैं ।प्रकृति स्वरूपिणी माता पार्वती उनकी अर्धांगनी हैं और परम पवित्र माँ गंगा को वह अपनी जटाओं में धारण किए हुए हैं ।

शिव का अर्थ है-- कल्याणकारी ।भगवान शिव ने कभी भी किसी के साथ भेदभाव नहीं किया ।किसी भी जाति, धर्म को महत्व नहीं दिया, उनके लिए सब समान हैं, विशेष हे तो केवल श्रद्धा भाव।राक्षसराज रावण भी शिव के उपासक रहे और यक्षराज कुबेर भी।

            {{{ शिव स्वरूप का प्रतीतात्मक वर्णन }}}

भगवान शिव के स्वरूप के पीछे गहन जीवन दर्शन विद्यमान है ।भगवान शिव का तृतीय नेत्र संज्ञान का, सूक्ष्म दृष्टि का, दिव्य अंतःकरण की ज्योति का प्रतीक है ।साथ ही इसे आज्ञाचक्र का स्थान भी कहा जा सकता है ।शिव के मस्तक पर चन्द्रमा एवं जटाओं में माँ गंगा मस्तिष्क की शीतलता के प्रतीक हैं ।जीवन में यदि सफलता चाहिए तो मस्तिष्क को शान्त रखना आवश्यक है ।
भगवान शिव द्वारा धारण किए गए चन्द्रमा व गंगा स्थिरता, पवित्रता, शांति व शीतलता के संदेश वाहक हैं ।

                भगवान शिव ने कंठ में विष धारण किया है-- यह शिक्षा देता है कि कड़वाहट व बुरे अनुभवों को बाहर व्यक्त नहीं करना चाहिए ।भगवान शिव के हाथ में त्रिशूल प्रतीक है-- तीन लोक, तीन गुण, तीन नाड़ियों आदि में संतुलन बना रहना।यदि ये सभी सम्यक रूप से क्रियाशील रहें तभी सृष्टि का संतुलन बना रह सकता है ।

              भगवान शिव के हाथ में डमरू संगीत का, जाग्रति का एवं प्रसन्नता का प्रतीक है ।संगीत के जनक भी भगवान शिव  ही माने जाते हैं ।संगीत वह शक्ति है जिससे जीवन में मृदुता है, रस है, आध्यात्म है और प्रसन्नता है।जब मानवीय चेतना सुप्त, हताश व शुष्क होने लगती है, तब शिव का डमरू ही उसे इस स्थिति से उबारता है ।इसके अतिरिक्त अनेक विरोधाभासों का श्रेष्ठ समन्वय भगवान शिव के जीवन में देखने मिलता है ।

                  शिव अनादि हैं, सृष्टि प्रक्रिया के आदि स्रोत हैं तथा वे ही महाकाल भी हैं ।सभी देवों के अधिपति हैं इसलिए उन्हें महादेव भी कहा जाता है ।महादेव गृहस्थ भी हैं और वीतरागी आदियोगी भी।उनका यह  गुण संदेश देता है कि योग के मार्ग पर चलने के लिए संसार का त्याग करना आवश्यक नहीं है ।
     
                    {{{ द्वादशज्योतिर्लिंग}}}

                                हमारे देश में जगह-जगह पर भगवान शिव के मन्दिर हैं ।भगवान शिव के द्वादशज्योतिर्लिंगों में--दक्षिण में रामेश्वर, काशी में विश्वनाथ, उज्जैन में महाकाल, गुजरात में सोमनाथ और नागेश्वर, तमिलनाडु में श्री शैलपर्वत पर मल्लिकार्जुन हैं ।हिमालय में केदारनाथ, महाराष्ट्र में त्र्यंबकेश्वर, बिहार में वैद्यनाथ धाम, असम( कामरूप) में भीमाशंकर हैं ।कश्मीर में अमरनाथ व औरंगाबाद के पास घुश्मेश्वर हैं ।भगवान शिव की भौगोलिक सीमा में ( तिब्बत) कैलाश मानसरोवर तथा नेपाल का पशुपतिनाथ भी है।
    
"सोमेश्वर नाथ तुम्हीं रामेश्वर नाथ तुम्हीं भक्ति स्वीकार करो "
           शीश गंगा की धार, गले सर्पों का हार 
          भोले तुम ही तो हो सारे जग के आधार 

  
         {{{ शिव का आध्यात्मिक व विराट स्वरूप }}}

भगवान शिव का व्यक्तित्व एवं स्वरूप समग्रता दर्शाता है।यह सृजन से संहार तक , जीवन से मृत्यु तक , संसार से वैराग्य तक का वह ज्ञान है , जो अमिट व अपूर्व है।कैलाशवासी शिव एक ओर तो परम पवित्र हिमालय में तपस्या में लीन रहते हैं तो दूसरी ओर भूतगणों के साथ शमशान में निवास करते भी माने जाते हैं ।शिव यहाँ सम्यक दृष्टि व मैत्री की शिक्षा देते हैं ।

        शिव अमृत वाहक हैं ।उन्हीं में विषपान करने की असीमित शक्ति है।भगवान शिव के तीन नेत्र हैं ।सामान्य तथा दो नेत्र सभी जीवों को प्राप्त हैं ।इसके साथ ही सूक्ष्म रूप में तीसरा नेत्र सभी जीवों को प्राप्त है।विभिन्न धार्मिक सम्प्रदायों में शिव के साकार एवं निराकार दोनों रूपों की उपासना होती है , लेकिन शिव और शक्ति साकार विग्रह माने जाने वाले शिवलिंग की पूजा- उपासना का प्रचलन सर्वाधिक है।

शिवरात्रि पर्व - पूजन, श्रावण मास में कांवड यात्रा व अन्य तीर्थयात्राएँ तथा द्वादशज्योतिर्लिंग सहित देश के विभिन्न प्रमुख शिवालयों में भी शिव- उपासना की अनेक परम्पराएँ विकसित हुई हैं ।वेद, उपनिषद् से लेकर पुराणों में तो शिव- उपासना का अत्यधिक विस्तार दिखाई पड़ता है ।शास्त्रों में शिव के विशिष्ट गुणों के आधार पर शिव के अनेक नाम कहे गए हैं , जैसे--- रुद्र, शिव, आशुतोष, मृत्युंजय, त्र्यंबक,जगद्गुरु, पशुपति आदि।

     वैदिक साहित्य में शिव को परम तत्व और सर्वोपरि शक्ति के रूप में प्रतिष्ठा प्राप्त है।शिव के आध्यात्मिक और विराट स्वरूप की वैदिक साहित्य में अनेक तरह से उपासना एवं स्तुतियाँ की गई हैं । "महाशिवरात्रि" के परम पवित्र अवसर पर  भगवान शिव की पूजा- अर्चना के पीछे हम सभी के लिए यही संदेश है कि यदि हम जीवन में शुभ कर्म करें तब ही हम कल्याणकारी शिव के प्रिय बन सकेंगे।
                " शिव शंकर से प्रेम बढ़ा लें
                  जीवन में परम पद पा लें"
 सादर अभिवादन व धन्यवाद ।
         ।।ॐ नमः शिवाय ॐ नमः शिवाय ॐनमः शिवाय ।।
  


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