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Sunday, January 26, 2020

"होली" कब और क्यों मनाते हैं, होली एक भाव अनेक, वृज की होली,मीरा की भाव समाधि की होली, प्राकृतिक होली कैसे खेलें


           ●●● होली कब और क्यों मनाते हैं ●●●
 
               "होली आई होली आई, रंग की बहार लाई"
हिन्दू पंचांग के अनुसार- संवत्सर के अन्तिम महीने फागुन मास की पूर्णिमा को होलिका दहन किया जाता है और उसके अगले दिन होली खेली जाती है।इस वर्ष ( 2020) 9 मार्च सोमवार को होलिका दहन होगा और 10 मार्च मंगलवार को रंगों से होली खेलने का दिन है।  होली हमारी भारतीय संस्कृति का एक प्रमुख त्यौहार है ।फागुन का यह महोत्सव हर साल हमारे दिलों को जोड़ने आता है।होली के रंग- गुलाल हम सभी के अंतर्मन को अनगिनत भावनाओं से सराबोर कर देते हैं ।

        वसंत में सूर्य दक्षियायन से उत्तरायण में आ जाते हैं और फल- फूलों की नई सृष्टि के साथ ऋतु अमृतप्राणा हो जाती है।वसंत से लेकर होलिका पर्व तक के चालीस दिन का अवधिकाल समूची प्रकृति में यौवनमयी उल्लास एवं प्रबल प्रेरणाओं से भरा होता है। उवातावरण में मादकता, पवित्रता एवं उल्लास का एक विलक्षण सा प्रवाह उमड़-घुमड़ रहा होता है।

" आई फागुन की ऋतु होली की बहार अब छाने लगी "

                 वसंत की मनभावनी हवा के झोंके ,भीनी- भीनी सी महक लिए, रंगों से हमारे तन, मन को भिगोती होली--ऐसा लगता है जैसे प्रकृति भी हमारे साथ होली का आनन्द ले रही है; क्योंकि हमारे सभी त्यौहार ऋतुओं और फसलों से जुड़े हुए हैं । इस पर्व पर तरह के रंग- गुलाल हमारे मन को अनायास ही खुशियों से भर देते हैं ।
 "होली का उत्सव आया, सबने आनन्द मनाया"

   होलिका दहन को 'नवान्नेष्टि यज्ञपर्व' भी कहा जाता है; क्योंकि इस दिन खेतों से पककर आए हुए नए अन्न को होलिका दहन की अग्नि में हवन करके प्रसाद लेने की भी परम्परा है।इस अन्न को होला कहते हैं ।इसी से इस पर्व का नाम " होलिकोत्सव" पड़ा ।होली का त्यौहार हमारे देश में प्राचीन काल से मनाया जाता
रहा है।इसी कारण समयानुसार अनेक पौराणिक आख्यान इससे जुड़ते चले गए ।

                       राक्षसों का राजा हिरण्यकशिपु अहंकार वश स्वयं को ईश्वर मानने लगा, उसने राज्य में यह घोषणा कर दी कि कोई ईश्वर को न पूजे लेकिन उसका पुत्र प्रह्लाद जन्म से ही भगवान विष्णु का परम भक्त था और सदा नारायण-नारायण जपता रहता था।हिरण्यकषिपु को यह अच्छा नहीं लगता था।उसने प्रह्लाद को तरह- तरह की यातनाएँ दीं और उसे मारने के अनेक प्रयास किए लेकिन भक्त प्रह्लाद हर बार भगवान की कृपा से बच जाते थे।

हिरण्यकषिपु की बहन होलिका को अग्नि में न जलने का वरदान प्राप्त था, इसलिए हिरण्यकशिपु ने उसे यह आदेश दिया कि वह प्रह्लाद को गोद में लेकर अग्नि स्नान करे, लेकिन जब होलिका प्रह्लाद को लेकर अग्नि में बैठी तो प्रह्लाद बच गए और होलिका जल गई और तभी से होलिका दहन मनाया जाता रहा है।

          ●●● होली के अलग-अलग भाव ●●●

     होली एक - उसमें समाए भाव अनेक, तभी तो यह सारे देश का अपना त्यौहार बन गया।इस त्यौहार ने जाति- वंश को, हिन्दू- मुसलमान को एक समान कर अपने में समेट लिया।इतिहास के पन्ने कहते हैं कि हिंदुस्तान के सुल्तान, शहंशाह, बादशाह--आम जनता के साथ मिलकर होली का त्यौहार मनाते थे।

   अंग्रेजों के जमाने में एक होली ऐसी भी आई, जब कानपुर शहर के नागरिकों ने होली के रंगों के साथ क्रांति का राग छेड़ दिया।होली खेलने पर अंग्रेजों ने पाबंदी लगा दी।पाबंदी के विरोध में हटिया के रज्जनबाबू पार्क में तिरंगा फहराया गया और घोषणा की गई कि कानपुर शहर में पूरे सप्ताह होली खेली जाएगी।इस बात से नाराज होकर अंग्रेजों ने गिरफ्तारियाँ कीं तब पूरा शहर उमड़ पड़ा और अंग्रेजों को झुकना पड़ा , सभी भारतीयों ने खूब होली खेली और गंगा स्नान किया।तब से कानपुर के होली- मेले ने गंगा-मेले का रूप ले लिया।

   होली से जुड़े पूरे देश भर के ऐसे अनेक प्रसंग हैं, जो दर्शाते हैं      कि रंगों से भरी होली समूचे भारत देश का त्यौहार है।सामान्य    जीवन में हम अपनी भावनाएँ उन्मुक्त रूप से अभिव्यक्त नहीं करते ।होली के अवसर पर हम अपने मन की भावनाओं को उन्मुक्त रूप से व्यक्त करते हैं, लोगों से मिलते समय , गुलाल लगाते समय लोग हँसते बोलते हैं ।मनोवैज्ञानिक रूप से देखा जाए तो होली का पर्व मन की दमित भावनाओं को बाहर निकालने का एक अवसर है।

                ●●● वृज की होली ●●●
 
होली का उत्सव पूरे देश में मनाया जाता है , लेकिन उत्तर भारत की होली ज्यादा प्रसिद्ध है।होली से जुड़ी कृष्ण लीलाओं का अपना अलग ही महत्व है।होली के अवसर पर अनेक कृष्ण- भक्त मथुरा- वृन्दावन जाकर वृज की होली का आनन्द उठाते हैं ।वृज की लठ्ठमार होली , फूलों की होली , रंग- गुलाल की होली की बड़ी चर्चा होती है।माना जाता है कि होली के अवसर पर भगवान कृष्ण बरसाने जाकर राधा और गोपियों के संग होली खेलते थे।सभी वृज वासी खूब आनन्द मगन होकर रंग-गुलाल बरसाते थे और नाचते- गाते थे।वृज के लोकगीतों में होली के गीत भी बहुत प्रचलित हैं ।
" बरसाने में उड़े गुलाल रे, होली खेले यसोदा का लाल रे"

होली के उत्सव पर भगवान श्रीकृष्ण के मन्दिरों में होली महोत्सव बड़ी धूमधाम से मनाया जाता है,फूलडोल नामक  रथयात्रा का आयोजन होता है जिसमें अनेक श्रद्धालु भाग लेते हैं, सब ओर रंग- गुलाल बरसाए जाते हैं-
" धरती गगन आज हुए हैं लाल, होली खेले नन्दलाल "
     
       होलिका दहन के दिन शहरों में स्थान-स्थान पर होलिका दहन किया जाता है।उत्तर प्रदेश में तो घरों में भी होलिका दहन किया जाता है।सभी लोग एक दूसरे को होली की शुभकामनाएँ देते हैं ।अगले दिन सुबह से ही बच्चे व बड़े सभी आपस मैं एक-दूसरे को रंग व गुलाल लगाते हैं ।छोटे बच्चों का उत्साह तो देखते ही बनता है वे बाजारों से पिचकारी लाकर, उनमें रंग भरकरआपस मैं होली खेलकर आनन्दित होते हैं ।होली पर टेसू के फूलों को पानी में मिलाकर आपस मैं एक-दूसरे को भिगाते हैं । लोग गलियों में टोली बना-बनाकर होली के रंग बरसाते हैं ।

      होली के दिन ऊँच- नीच का कोई भेदभाव नहीं किया जाता इस उत्सव में बड़े भी बच्चों की तरह रंग खेलते हैं । घरों में इस त्यौहार की खुशी में कई दिन पहले ही पकवान बनने शुरु हो जाते हैं ।होली पर उत्तर-भारत में गुझिया जरूर बनती हैं और होली के दिन आपस मैं एक-दूसरे को खिलाते हैं ।होली के कई दिन बाद तक लोग  एक-दूसरे के घर जाकर होली की शुभकामनाओं का आदान-प्रदान करते हैं। 
      
       ●●● मीरा की भावसमाधि की होली ●●●

वृजभूमि से मीरा की अंतश्चेतना की डोर बँधी हुई थी।होली के दिन थे ।फागुन वृज में धूम मचाए हुए था ।यमुना का श्यामल नीर बह रहा था।यमुना किनारे बैठीं मीरा , जल की कल- कल ध्वनि , उठती गिरतीं लहरों के साथ छिटकते- बिखरते जल बिन्दु के दृश्य को निहार रही थीं ।उन्होंने तनिक सिर उठाकर देखा --- सूरज धरती को देखकर  थोड़ी शरारत  से मुस्करा रहा था ।धरती पीले पुष्पों से सजी हुई सूरज को देख रही थी।उन्हें लगा - मानो धरती और सूरज के मन में भी होली के रंग खिलने लगे हैं ।धरती में उन्हें राधा नजर आने लगीं और सूरज में उन्हें अपना नटखट श्याम दिखाई दिया--- वे गुनगुनाने लगीं-
 " पीले फूलों का घाघरा , धानी चूनर पहनकर शरमा रही है धरती।
-- मुस्करा रहा है सूरज, फिर मचल उठे सूरज के हाथ, घबरा रही है धरती--।
            इस तरह वह अपने कृष्ण के साथ भाव- समाधि में डूब गईं ।उन्हें लगा - कि उनका श्याम यमुना के तट पर गोप- गोपियों के संग होली खेल रहा है और वे भी इस टोली में  साथ मिलकल अपने कृष्ण के साथ होली खेल रही हैं ।उनका विरह, मिलन में और मिलन, महामिलन में परिवर्तित होने  लगा।वे गाने लगीं '
" होली खेलत है गिरधारी
मुरली चंग बजत डफ न्यारो, संग जुपति व्रजनारी"

          ●●● प्राकृतिक रंगों की होली ●●●

   बीते दिनों में प्राकृतिक रंगों से ही होली खेली जाती थी।टेसू से लाल, हरसिंगार के डंठल से केसरिया,पत्तियों से हरे और नीले रंग बनते थे।मेंहदी से हरे, हल्दी और बेसन से पीले, नारंगी रंग के लिए कत्था और हल्दी का मिश्रण भी काम में लाया जाता था।टेसू के फूलों में नैसर्गिक रूप से सभी प्रमुख रंगों का मिश्रण प्राकृतिक तौर पर विद्यमान है।इस तरह प्राकृतिक रंगों से खुशबूदार, रंगीन होली का आनन्द उठाया जा सकता है । 

        ●●● वर्तमान होली का स्वरुप  ●●●

 वर्तमान समय में होली खेलने में ऐसे कृतिम रंगों का प्रयोग किया जाता है, जो त्वचा के लिए हानिकारक होते हैं ।होली पर एक-दूसरे पर व्यंग्य करते हैं व मजाक भी बनाते हैं ।इस तरह होली में प्राकृतिक रंगों के स्थान पर रासायनिक रंगों का प्रचलन, ठंडाई जैसे शीतल पेयों की जगह नशीली वस्तुओं का सेवन और लोक- संगीत की जगह फिल्मी गानों का प्रचलन - होली का आधुनिक स्वरूप है।होली के वर्तमान स्वरूप के कारण लोग होली खेलने से कतराते हैं, घर से बाहर निकलने में भी डरते हैं । 

 वस्तुतः होली का त्यौहार अपनी प्रसन्नता को विभिन्न रंगों के माध्यम से बिखेरने, सबसे मेल- जोल बढ़ाने, दुर्भावनाओं को मिटाने ,मिठाइयों व पकवानों को मिल- बाँटकर खाने की प्रेरणा देता है।इस दिन बीते दिनों की तरह प्राकृतिक रंगों से होली खेली जाए तो यह हमारे स्वास्थ्य के लिए भी अच्छा होगा।होली के इस त्यौहार में हम सभी को अपनी मर्यादाओं का ध्यान रखते हुए, अनुशासित तरीके से शुभ व प्रेरणादायी होली मनाने का संकल्प लेना चाहिए। 

 अब से हम ऐसी होली खेलें जिससे हमारा समाज विभिन्न रंगों से सुशोभित हो।होली हम सभी के जीवन में उत्साह-उमंग बिखेरे और हमारे मन में उल्लास की अमिट छाप छोड़े । 

" फाग की रितु आ गई है,आ जाओ मोहन रंग खेलें ।
होली की ऋतु छा गई है, आ जाओ मोहन रंग खेलें । 

 सादर अभिवादन व धन्यवाद ।

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