इस वर्ष 25 मार्च, बुधवार 2020 से नवरात्र उत्सव की शुरुआत होगी और 2 अप्रैल वृहस्पतिवार के दिन श्री रामनवमी महोत्सव मनाया जाएगा।
चैत्र नवरात्र की पावन बेला एवं नवसंवत्सर का शुभ अवसर , दोनों ही मानव जीवन के शुभ संकेत हैं ।ये संकेत हैं- साधना का साधक की चेतना को परमात्मा से एकाकार करने के ।नवरात्र के अवसर पर भारतीय संस्कृति में पूजा- पाठ, व्रत-उपवास आदि किए जाते हैं जिनके द्वारा साधक इस पुण्यवेला से लाभान्वित होते हैं ।
नवरात्र वर्ष में चार बार आते हैं ।दो प्रत्यक्ष या प्रकट नवरात्र ( आश्विन नवरात्र और चैत्र नवरात्र) और दो अप्रत्यक्ष या गुप्त नवरात्र ।इन नवरात्रों के अवसर पर प्रकृति में विशेष परिवर्तन होता है और फिर ऋतुएँ धीरे-धीरे करवट लेती हैं, अपना रूप बदलती हैं ।इन परिवर्तित होने वाली ऋतुओं का प्रभाव हमारे शरीर पर भी पड़ता है।इसलिए ऋतु परिवर्तन की बेला पर व्रत और उपवास के माध्यम से हम आहार- विहार पर नियंत्रण करते हैं जिससे हमें स्वास्थ्य लाभ भी मिलता है।
व्रत के शाब्दिक अर्थ के अनुसार जब भी कोई श्रेष्ठ संकल्प लिया जाता है तो वह व्रत कहलाता है।व्रत के द्वारा मनुष्य लक्ष्य तक पहुँचने हेतु आत्मशक्ति जाग्रत करने का प्रयत्न करता है।व्रत का समुचित लाभ तभी मिल सकता है, जब यह उचित दिशा की ओर उन्मुख हो।यह दिशा उपवास है।उपवास का अर्थ है--- उप+ वास अर्थात पास बैठना।ईश्वरीय चेतना के सान्निध्य को उपवास कहा जाता है।
हमारे ऋषि-मुनियों ने जो भी धार्मिक पर्व आरंभ किए हैं वे सभी हमारे स्वास्थ्य की दृष्टि से भी बहुत महत्वपूर्ण हैं और इनके द्वारा हम अपने जीवन का बिखराव रोककर अपनी ऊर्जा परमात्मा की ओर नियोजित कर सकते हैं ।नवरत्न, नवदुर्गा अथवा देवियों को मानवी चेतना की विशिष्ट क्षमताएँ व विभूतियाँ कहा जा सकता है।ये प्रसुप्त अवस्था में हर व्यक्ति के अंतराल में छिपी हुई हैं ।
नौ दिनों तक चलने वाले इस पर्व में विशेष रूप से दुर्गे माँ के नवरूपों की आराधना की जाती है।देश भर के शक्तिपीठ व अनेक मंदिरों में नवरात्र उत्सव बड़ी धार्मिकता व पवित्रता के साथ मनाया जाता है।बहुत लोग इन पर्व पर व्रत-उपवास करते हैं ।नियमित मन्दिर जाकर माता की आराधना करते हैं ।नौ दिनों तक अन्न ग्रहण का त्यागकर सिर्फ फलाहार करते हैं ।
नवरात्र पर्व पर श्रद्धालु, मन्दिरों में बड़ी श्रद्धा के साथ माता दुर्गे की शरण में जाकर ध्वजा, नारियल, लाल चुनरिया व द्रव्य भेंट आदि अर्पित करते हैं ।अगर, धूप और बाती से भावपूर्ण आरती - वन्दन करते हैं ।हलवा, चने व मिठाइयों का भोग लगाते हैं ।
इस पर्व की बेला पर घरों में नियमित यज्ञ का आयोजन किया जाता है , रामायण, गीता, व दुर्गा सप्तशती के पाठ किए जाते हैं ।गायत्री साधक 24 हजार गायत्री मंत्र का जाप करते हैं । महामृत्युंजय मंत्र व नवार्ण मंत्र जप के अनुष्ठान भी किए जाते हैं ।
नवरात्र अवसर के घरों में यज्ञ भी होते हैं ।कन्याओं का पूजन किया जाता है ।घरों में नौ दिनों तक माता के भजन कार्यक्रम आयोजित किए जाते हैं।दुर्गे मन्दिरों में विशाल यज्ञों का आयोजन होता है ।यज्ञ ,अनुष्ठान की पूर्णता का प्रतीक हैं। सभी मन्दिरों में हलवे चने के प्रसाद का वितरण किया जाता है।
नवरात्र का यह पर्व हमें संदेश देता है कि हम सामूहिक रूप से श्रेष्ठ कार्यों में अपना सहयोग दें व अपनी धर्म परंपराओं का पालन करते हुए इस पवित्र अवसर पर विभिन्न प्रकार के धार्मिक आयोजन आयोजित करके अपने जीवन को श्रेष्ठता की ओर उन्मुख करें ।
" आदिशक्ति माँ भवानी, शरण आए हैं तुम्हारी "
{{{{{ नवरात्र पर्व प्रकृति व शक्ति आराधना का पर्व}}}}}
नवरात्र का पर्व ' प्रकृति का पर्व ' है, 'शक्ति आराधना' का पर्व है।प्रकृति व शक्ति दोनों ही हमारे जीवन का मूल आधार हैं ।हमारा शरीर प्रकृति के तत्वों से मिलकर बना है ।शरीर में ऊर्जा का संचार प्राणवायु ही करती है।
प्रकृति का संवर्द्धन - संरक्षण हमारी सांस्कृतिक परम्परा है और नवरात्र, इसी सांस्कृतिक परम्परा का महोत्सव, जिसका मानवीय
अस्तित्व से गहरा सम्बन्ध है ।आज हमें प्रकृति के संरक्षण व संतुलन के उपाय करने होंगे और अपने जीवन को प्रकृति के अनुरूप जीना होगा , तभी नवरात्र उत्सव हमारे लिए वरदान स्वरुप होगा।
इस संसार में सफल होने के लिए शक्ति की आवश्यकता होती है। संसार में शक्ति की विजय होती है ।इसी कारण भगवान श्री राम ने रावण से युद्ध करने से पूर्व शारदीय नवरात्र का अनुष्ठान किया था।अर्जुन ने महाभारत युद्ध करने से पूर्व शक्ति की उपासना की थी और ये अपने विजय अभियान में सफल हुए।
दैवी क्षमताएँ, सत्प्रवृत्तियाँ हर किसी में बीज रूप में विद्यमान हैं ।साधना द्वारा उन्हें जाग्रत व फलित किया जा सकता है।नवरात्र के नौ दिन वर्ष के सर्वाधिक पवित्र दिन माने जाते हैं ।इन नौ दिनों की रात्रियाँ विशेष ऊर्जाप्रदायनी होती हैं, इसीलिए इन्हें नवरात्र कहा गया है।
{{{{{ नवरात्र साधना का रहस्य }}}}}
नवरात्र साधना पर्व है ।साधना से सिद्धि की प्राप्ति होती है, और साधना से शुद्धि भी होती है।साधना एक तपश्चर्या है, जिसके बहुत सारे आयाम हैं, सभी आयामों का लक्ष्य एक ही है-- शुद्धि प्रदान करना , परिष्कृत करना।अतः दैनिक उपासना के क्रम में भी सबसे पहले पवित्रीकरण और आचमन किया जाता है, ताकि हम मन, वाणी अंतःकरण से पवित्र बनें, सद्पात्र बनें और शक्ति ऊर्जा को धारण करने के योग्य बन सकें ।
नवरात्र में माँ आदिशक्ति के विशेष नौ रूपों की उपासना की जाती है ।ये नौ स्वरूप हैं----- प्रथम स्वरूप शैलपुत्री
आदिशक्ति के ये नौ स्वरूप चेतना के नौ आयाम हैं, जिन्हें साधक तब महसूस करता है, जब वह चित्तशुद्धि की प्रक्रिया से गुजरता है।शक्ति के इन नौ रूपों का आधार केंद्र उसके सूक्ष्मशरीर में स्थित चक्र होते हैं जो नवरात्र- साधना के दौरान जाग्रत होते हैं ।
जो साधक नवरात्र साधनाओं के रहस्य से परिचित हैं वे इस अवसर को विशिष्ट अनुष्ठानों एवं साधनाओं में व्यतीत करते हैं
और वातावरण में सघन रूप से उमड़ते- घुमड़ते चैतन्य प्रवाह को अपनी साधना के माध्यम से आकर्षित करते हैं ; क्योंकि साधना का संबंध काल, स्थिति एवं मुहूर्त से बड़ी गहराई से जुड़ा होता है।
चेतना जगत में उच्च स्तरीय उभार नवरात्र की पुण्यबेला में आते हैं ।दिन और रात्रि के मिलन की घड़ियाँ संध्याकाल कहलाती हैं ।वह वेला संध्यावंदन के लिए अत्यन्त उपयोगी समझी जाती है ।ठीक इसी प्रकार सरदी और गरमी की ऋतुएँ जब मिलती हैं तब आश्विन और चैत्र के नवरात्र पर्व आते हैं ।
साधना का अर्थ ही है -- स्वयं को साधना। नवरात्र साधना के दिनों में साधक के द्वारा जिन अनुशासनों, व्रतों का कड़ाई से पालन किया जाता है,वे हैं -- उपवास, ब्रह्मचर्य, विलासिता का त्याग, सदाचरण एवं मौन।इन नियमों व अनुशासन की आवश्यकता इसलिए बताई जाती है, जिससे साधना के साधक द्वारा ब्रह्माण्डीय ऊर्जा को स्वयं में आत्मसात् कर सकें ।
जैसा कि हम सबको विदित है कि आध्यात्मिक साधनाओं में योग के आठ नियमों का बड़ा महत्व है-- यम, नियम, आसन, प्राणायाम प्रत्याहार, धारणा , ध्यान एवं समाधि । आध्यात्मिक साधनाओं में जप तप के साथ इन नियमों का भी समावेश रहता है।
साधना के लिए आवश्यक है निरंतरता, असीम धैर्य एवं साहस।इसके दो पक्ष हैं- श्रद्धा एवं कर्मकांड।कर्मकांड साधना (अनुष्ठान)
का कलेवर होता है।इसमें जप की संख्या, स्थान, काल एवं यम नियम आते हैं ।अनुष्ठान का अर्थ ही है विशेष साधना।
हम साधना का कलेवर कर्मकांड को तो विधि- विधान से निभा दें परंतु इसके श्रद्धा पक्ष को भुला दें तो श्रद्धा के अभाव में हमारी साधना अधूरी व एकांगी रहती है।अधूरी- एकांगी साधना भला हमें कैसे लाभान्वित कर सकती है।श्रद्धा साधना का प्राण है, मूल है, इसलिए हम जो भी मन्त्र जपें या अन्य विधि से साधना करें, उसे तन्मयतापूर्वक व भावनापूर्वक करना चाहिए ।
नवरात्र साधना के समय मन को उच्चतर दिशा की ओर प्रवाहमान बनाए रखने के लिए जप के साथ ध्यान की प्रक्रिया को सशक्त बनाया जाता है ।यदि उचित कर्मकांड के साथ किए जाने वाले अनुष्ठान में श्रद्धा भावना का समुचित समावेश हो तो साधना का परिणाम एवं लाभ आश्चर्यजनक एवं चमत्कारिक होते हैं ।श्रद्धा के अभाव में साधना बोझ सी एवं नीरस प्रतीत होती है।
दक्षिणमार्गी योगसाधना में नवदेवियों का वर्णन है ।दुर्गाएँ भौतिक समृद्धियाँ कहलाती हैं और देवियाँ आत्मिक विभूतियाँ ।दोनों के बीच कोई विग्रह नहीं, एक-दूसरे की पूरक हैं ।भौतिक और आत्मिक दोनों को मिला देने में ही समग्र ज्ञान की पूर्णता है।
हमारे प्राचीन महामनीषियों ने विज्ञान और तत्वज्ञान को मिलाकर रखा था।
विशेष साधना को अनुष्ठान कहते हैं ।इनमें कुछ तपश्चर्याएँ भी जुड़ी रहती हैं ।नवरात्र के दिनों में प्रातः जपयज्ञ और रात्रि को ज्ञानयज्ञ होता रहे तो ही साधना के दोनों पक्ष पूरे हुए माने जाते हैं ।ज्ञान और कर्म का समन्वय ही पूर्णता है।नवरात्रों में जागरण, कीर्तन, गरबा आदि का जो प्रचलन है उसके पीछे यह ज्ञानयज्ञ की भावना ही काम करती है।
सामान्य समय में की गई साधना एवं नवरात्र तथा विशिष्ट मुहूर्त में संपन्न साधना के परिणाम में बहुत अन्तर होता है।अतः नवरात्र की पावन बेला पर की गई साधनाओं के रहस्य को समझते हुए नवरात्र साधना पर्व परिपूर्ण उत्साह व श्रद्धा के साथ मनाना चाहिए जिससे कि साधकगण ईश्वर से एकाकार करने का सौभाग्य प्राप्त कर सकें ।
" जगदम्बिके जय जय जग जननी माँ "
👍👍bahut achchha
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