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Friday, January 31, 2020

संत रविदास जयन्ती--- "हरि को भजे सो हरि का होय"

                      {{{{{संत रविदास जयन्ती }}}}}
संत रविदास जी का जन्म वाराणसी में सं० 1456 विक्रमी में बनारस के दक्षिणी छोर पर स्थित सीर गोवर्धन में हुआ था । उनके पिता का नाम रघु जी और माता का नाम विनिया था। रविदास जी के पिता चमड़े का व्यापार करते थे और जूते बनाते थे। बचपन से ही रविदास ( रैदास ) का मन भगवान की भक्ति की ओर मुड़ता जा रहा था।जब उनके पिता ने उनका विवाह करना चाहा तो उन्होंने मना कर दिया लेकिन माता- पिता के बार- बार आग्रह करने पर उन्होंने विवाह कर लिया।उनका विवाह एक समृद्ध परिवार की कन्या लोणा के साथ संपन्न हुआ ।


    संत रविदास जी बचपन से ही बड़े उदार स्वभाव के थे।वे प्रतिदिन एक जोड़ा जूता अपने हाथ से बनाकर जरूरत मंदों को दान करते थे। उनका परिवार आर्थिक रूप से बहुत समृद्ध नहीं था इसलिए उनका दान करने का स्वभाव उनके पिता को पसन्द नहीं था।इस कारण उनके पिता ने उनको उनकी पत्नी के साथ अलग कर दिया और उन्हें रहने के लिए छप्पर का एक बाड़ा दे दिया ।इस बात से रविदास को जरा भी दुःख नहीं हुआ ।अब वे और भी परिश्रम व मनोयोग से बढ़िया जूते बनाकर अपना गुजारा भी कर लेते थे और जरूरत मन्दों को जूते दान भी दे देते थे।गोस्वामी तुलसीदास जी कहते हैं कि  " संत हृदय नवनीत समाना " अर्थात संत का हृदय मक्खन की तरह होता है।

        अपने पारिवारिक जीवन को उन्होंने इस तरह संयमित, सुव्यवस्थित बनाया कि उनके पारिवारिक जीवन में कभी सुख- शान्ति की कमी नहीं हुई और उनकी आत्मोन्नति में भी कोई बाधा नहीं आई।उनकी धर्पमत्नी  लोणा ने सदा उनका साथ दिया।संत रविदास जी का कहना था कि सच्ची साधना तो मनोनिग्रह है और यदि मन को नियंत्रण में रखा जाए तो घर- बाहर सर्वत्र वैराग्य ही वैराग्य है।

  उच्चस्तरीय जीवात्माएँ कहीं भी जन्म ले लें उनके सद्गुणों की सुगन्ध चारों ओर स्वतः ही बिखर जाती है।संत रविदास जी भी ऐसे ही अनुपम उदाहरण थे।उन्होंने यह सिद्ध किया कि जाति से कोई महान नहीं होता , व्यक्ति यदि महान बनता है तो अपने कर्म व गुणों से।संत रविदास जी के समकालीन अनेक संत- महात्मा हुए , जैसे-- गुरू गोविन्द सिंह, रामानंद, कबीर, तुकाराम, मीरा आदि।

  यवन काल के उत्पातों से जनता किंकर्तव्यविमूढ़ सी हो रही थी ।
 आंतरिक फूट के कारण बहुसंख्यक जनता मुठ्ठी भर विदेशी आततायियों द्वारा बुरी तरह पददलित की जा रही थी।ऐसी परिस्थितियों में आशा की नवज्योति के रूप में भारत में 'संत मत'
का प्रादुर्भाव हुआ, जिसने धर्म और ईश्वर पर डगमगाती हुई जनता की आस्था को पुनः सजीव करने की सफल कोशिश की।संत रविदास जी भी इसी माला का एक मनका थे।

संत रविदास जी का जीवन गृहस्थों के लिए ही नहीं, वरन संतों के लिए भी आदर्श है।संत व्यक्ति वह है जिसकी भावनाएँ आकाश की तरह विशाल व गंगा की तरह निर्मल होती हैं ।ऐसे व्यक्तियों का जीवन ही परोपकारी हो जाता है। इनके लिए अपना कुछ नहीं होता, सब कुछ भगवान का होता है।भर्तृहरि संतों के बारे में कहते हैं-- " संतः स्वयं परहिते विहिताभियोगाः ।" अर्थात संत सदा स्वयं को परहित में लगाए रहते हैं और इस प्रकार ये सतत परोपकार में लगे रहते हैं ।

 {{{{{ हरि को भजे सो हरि का होए }}}}}

 उस समय हरिजन जातियों को सवर्णों से दबकर रहना पड़ता था।उन्हें अछूत माना जाता था।लेकिन संत रविदास ने अपने जीवन से एक अनुपम उदाहरण प्रस्तुत करके यह सिद्ध किया  कि  " जाति- पाँति पूछे नहीं कोय, हरि को भजे सो हरि का होए " ।

 'निम्न जाति के लोगों को भक्ति का अधिकार नहीं है ' ऐसी धारणा वाले लोगों ने संत रविदास को प्रारंभ से ही यातना देना शुरू  कर दिया ।उनके इस अनुचित दबाव का लाभ अन्य धर्मों के लोगों को मिलता था।वे बहकाकर ऐसे पीड़ित लोगों का धर्म- परिवर्तन करा देते थे।संत रविदास जी एक ओर अपने लोगों को समझाते--- " तुम सब हिन्दू जाति के अभिन्न अंग हो , तुम्हें अपने मानवीय अधिकारों के लिए संघर्ष करना चाहिए " । तो दूसरी ओर वे कुलीनों से टक्कर लेते और कहते -- " वर्ण-विभाजन"  का संबंध धर्म से नहीं, मात्र सामाजिक व्यवस्था से है।संत रविदास जी ने      आदर्शों का प्रतिपादन करते हुए धर्म परिवर्तन करने वाले लोगों से   कहा---
    हरि सा हीरा छाड़ि कै , करै आन की आस।
    ते नर नरकै जाहिंगे ,    सत भाषै रैदास ।।

   संत रविदास जी का जीवन संघर्षों में ही बीता ।लेकिन इससे वे कभी निराश नहीं हुए और सदा सत्य की राह पर ही चले।विधर्मियों की पराधीनता की भर्त्सना करते हुए भारतीय समाज के लोगों को ललकारते हुए कहा ---
       पराधीन का दीन क्या,  पराधीन वेदीन ।
       पराधीन परदास को , सब ही समझें दीन।।

              संत रविदास की सच्चाई में कितनी निष्ठा है यह परख करते हुए रामानंद जैसे महान संत एक दिन स्वयं उनकी कुटिया में पधारे।और उन्हें अपने शिष्य के रूप में स्वीकार किया।माना जाता है कि  उन्होंने  यह परम्परा मीरा को अपनी शिष्या बनाकर आगे बढ़ाई ।

संत रविदास गुरु प्रदत्त मंत्र और उपदेशों के सहारे आत्मोन्नति करने लगे।वे  कथाओं के माध्यम से लोगों को धर्मोपदेश देते थे। उनकी सीधी, सच्ची, मधुर वाणी में अमृत वचन सुनने के लिए हजारों लोग इकठ्ठे होते , उनमें से अधिकांश अन्य जातियों के होते।उनके जीवन में अनेक चमत्कारी घटनाओं के प्रसंग घटित हुए।इनकी ख्याति से प्रभावित होकर तात्कालिक बादशाह सिकंदर लोदी ने उन्हें दिल्ली आने का आमंत्रण भेजा था।वे स्वयं मधुर तथा भक्तिपूर्ण भजनों की रचना करके भावविभोर होकर सुनाते।


इस प्रकार धर्म प्रचार से जहाँ एक ओर उनकी प्रसिद्धि बढ़ रही थी, वहीं दूसरी ओर उनके विरोधी भी बढ़ते जा रहे थे।लोग उनसे मन ही मन ईर्ष्या करने लगे । और ईर्ष्या  भावना के कारण उनकी निंदा करते,व्यंग्य और उपहास करते और तरह-तरह के लांछन भी 
लगाते।इस पर वह हँस देते और कहते कि -- " हाथी अपने रास्ते चला जाता है, उसे किसी के धूलि फेंकने या चिढ़ाने से विचलित होने की जरुरत नहीं होती।" जो साहसी, धैर्यवान और सच्चा होता है ,  सारा संसार विरोधी होकर भी उसका कुछ नहीं बिगाड़ सकता। इस तरह निडर होकर संत रविदास ने अपना धर्मप्रचार जारी रखा ।

  संत रविदास जी के बारे में कबीर कहते हैं ---'
  साधुन में रविदास संत हैं, सुपच ऋषि सौ मानिया।
  हिंदू तुर्क दुई दीन बने हैं,  कछु नहीं पहचानिया  ।।


  सिक्खों के प्रथम गुरू नानक ने भी अपने काव्य में कहा है---कि संतई केवल किसी जाति विशेष का व्यक्ति ही नहीं  कर सकता , बल्कि वह हर व्यक्ति कर सकता है , जिसका मन पाक साफ है।
सिक्खों के धर्म ग्रन्थ "गुरु ग्रन्थ साहिब" में भी  संत रविदास जी के 40 पद सम्मिलित किए गए हैं ।उनकी विद्वता को बड़े-बड़े विद्वान भी स्वीकार कर उन्हें प्रणाम करते हैं ।

रैदास ने अपनी काव्य रचनाओं में सरल, व्यावहारिक ब्रजभाषा का प्रयोग किया है, जिसमें अवधी , राजस्थानी, खड़ी बोली और उर्दू-फारसी के शब्दों का भी मिश्रण है।उनको उपमा, रूपक अलंकार विशेष प्रिय थे।इन्होंने सीधे सादे पदों में अपने हृदय के भाव बड़ी स्पष्टता से प्रकट किए हैं ।इनका आत्मनिवेदन,दिव्य भाव और सहज भक्ति पाठकों के हृदय को उद्वेलित करते हैं ।

   संत रविदास ( रैदास ) जी ने तत्कालीन पाखंडों और अंधविश्वासों का काफी विरोध किया ।उन्होंने घृणा का बदला घृणा से नहीं अपितु प्रेम से किया , इसलिए वे सभी के लिए प्रेरणास्रोत बन सके।वे कहते थे ---" अहंकार त्यागने पर ही ईश्वर की प्राप्ति हो सकती है।" संत रविदास जी के पास भगवान की एक चतुर्भुजी मूर्ति थी।जब वे श्रहरि की ओर निहारते , तब उनके मुख से यही निकलता----


अब कैसे छूटे नाम- रट लागी ।।
प्रभु जी तुम चन्दन हम पानी ।
जाकी अंग-अंग बास समानी ।।
प्रभु जी ! तुम दीपक, हम बाती ।
जा की जोत  बरै दिन - राती ।।
प्रभु जी ! तुम मोती हम धागा ।
जैसे सोनहिं मिलत सुहागा ।।

 संत रैदास जी के लगभग 200 पद मिलते हैं, जिनकी भाषा सरल है, किंतु भाव की तन्मयता के कारण प्रभावशाली हैं ।संत रविदास जी गुरु-भक्ति, नाम-स्मरण , प्रेम, कर्तव्य-पालन तथा सत्संग को महत्व देते थे।

 संत रविदास जी का कहना था -- यदि ऊँचे बनना चाहते हो , तो बड़े कर्म करो , जाति से महानता नहीं मिलती ।जो जाति- पाँति 
और ऊँच- नीच का भेदभाव करते हैं, वे ईश्वर के प्रिय नहीं हो सकते ; क्योंकि सभी ईश्वर की रचना हैं ।उनके व्यक्तित्व से प्रभावित होकर उस समय जाति-पाँति को मानने वाले समाज ने भी उन्हें संत की पदवी दी तथा उनकी महानता को स्वीकार कर लिया।

 आज जो देश का माहौल है इस माहौल में रविदास जी के उपदेश प्रेरणादायक हो सकते हैं ।संत रविदास जी  का जीवन मानवता के लिए एक ऐसी मिसाल है जो सदैव स्मरणीय है ।संत रविदास जी का जीवन केवल गृहस्थों के लिए ही नहीं, वरन संतों के लिए भी आदर्श है। 120 वर्ष की दीर्घायु पाकर वे ब्रह्मलीन हुए।उनके पंथ के अनुयायी अपने को 'रैदासी' कहते हैं ।आज भी संत रविदास जी इस संसार में रवि ( सूर्य ) के समान प्रकाशित हैं ।संत रविदास के विचारों की छाप भारतीय मन-मस्तिष्क पर अमिट बनी रहेगी।

माघ पूर्णिमा के अवसर पर हर वर्ष बनारस के सीर गोवर्धन में संत रविदास जी की स्मृति में बड़ा आयोजन होता है, जिसमें पूरे भारत से बड़ी संख्या में लोग शामिल होते हैं ।

सब एक हों, सब नेक हों, चाहे धर्म उनके अनेक हों ।
हे जगत के पालक जगत में,   शांति की धारा बहा  ।।

  संत रविदास जी के विचारों को जानकर हम यह कह सकते हैं--

"जाति-पाँति पूछे नहीं कोय , हरि को भजे सो हरि का होए"


सादर अभिवादन व धन्यवाद । 




 
     

Thursday, January 30, 2020

श्री रामनवमी महोत्सव,परब्रह्म श्री राम, मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम एवं रामराज्य

                {{{{ श्री रामनवमी महोत्सव }}}}
 श्री रामनवमी महोत्सव भगवान श्री राम के जन्म के उपलक्ष्य में पूरे देश में बड़ी धूमधाम से मनाया जाता है ।चैत्र मास की शुक्ल पक्ष की नवमी को भगवान श्री राम अवतरित हुए थे।चैत्र मास की यह नवमी तिथि जगन्माता आदिशक्ति के नवम् रूप ' सिद्धिदात्री' 
( नवम सिद्धिदात्री च नवदुर्गा: प्रकीर्तिता: ।-- श्री दुर्गासप्तशती)
की सम्पूर्ण शक्तियों को प्रकट करती है।
  
   पवित्र चैत्र का महीना था , नवमी तिथि थी। शुक्ल पक्ष और अभिजित मुहूर्त था।दोपहर का समय था।शीतल, मन्द और सुगन्धित हवा बह रही थी, देवगण हर्षित हो रहे थे।फूल खिल रहे थे।पर्वतों के समूह मणियों से जगमगा रहे थे और सभी नदियाँ अमृत की धारा बहा रहीं थीं ।निर्मल आकाश देवताओं के समूहों से भर गया ।नाग, मुनि और देवगण सभी स्तुति करने लगे----  समस्त लोकों को शक्ति देने वाले, जगदाधार प्रभु ने  कौशल्या के गर्भ से मनुष्य रूप में अवतार लिया।

                                   ब्राह्मण, गौ, देवता और संतों के लिए भगवान ने मनुष्य का अवतार लिया ।राजा दशरथ पुत्र जन्म का शुभ समाचार सुनकर ब्रह्मानंद में समा गए ।भगवान के अवतरित होने की खुशी में घर- घर मंगलगान होने लगे।कैकेयी-सुमित्रा ने भी सुन्दर पुत्रों को जन्म दिया।अवधपुरी को फूलों से सजाया गया।सभी राजकुमारों के जन्मोत्सव की खुशी में राजा ने नगर में मिठाइयाँ, गहने व कपड़े बँटवाए।पूरे महीने तक अवधपुरी में 
उत्सव का माहौल रहा।

आज अवध आनन्द हुआ रे, लिया जन्म राम ने।
    रघुकुल में आनन्द हुआ रे,  लिया जन्म राम ने ।

  रामनवमी के पावन पर्व पर मन्दिरों में व अनेक धार्मिक संस्थाओं में धार्मिक कार्यक्रमों का आयोजन होता है।जन- जन के आराध्य 
भगवान श्री राम के  जन्मोत्सव पर श्रद्धालुओं के मन में बहुत उमंग होती है।इन दिनों में ही नवरात्र उत्सव की भी धूम रहती है।
नवें दिन दुर्गा पूजा के साथ- साथ भगवान राम की भी पूजा- आराधना की जाती है।सभी आपस में एक-दूसरे को श्री रामनवमी की शुभकामनाएँ व बधाइयाँ देते हैं ।

{{{{ परब्रह्म श्री राम }}}}

श्री रामायण में भगवान श्री राम के दो रूप हैं ।भगवान श्री राम का परब्रह्म रूप तो मन- वाणी से अगोचर है, उसके विषय में तो वेदों ने भी 'नेति- नेति'  कहा है।उसका अनुभव तो योगीजन समाधि में करते हैं ।श्री राम का परब्रह्म रूप विचार का विषय नहीं ; अनुभव का विषय है।
 राम नाम अमृत की धारा ,  है ये  मीठी  वाणी ।
ऋषि मुनि सब जपते इसको, जपते हैं सब ज्ञानी ।

{{{{ मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम }}}}

                        मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम मनुष्य चरित्र का सर्वोत्तम आदर्श हैं ।भगवान श्री राम के जीवन में कितनी भी विषम परिस्थिति आईं लेकिन मर्यादाओं का पालन करने में वे कभी चूके नहीं । भगवान श्री राम ने सदैव गुरुजनों व माता-पिता की आज्ञा का दृढता के साथ पालन किया।श्री राम सबका सदैव आदर करते थे इसलिए वे महान कहलाए।

             पिता की आज्ञा से ही वह महर्षि विश्वामित्र के साथ वन गए।वन में महर्षि के आश्रम में श्री राम- लक्ष्मण ने उनके यज्ञों की रक्षा की और यज्ञ में विघ्न डालने वाले राक्षसों का संहार किया ।भगवान श्री राम ने अपने जीवन में तप को बहुत महत्व दिया।वन में रहते हुए उन्होंने तपस्वी जीवन को अंगीकार किया और राजा बनकर भी प्रजा के हितों के लिए एक तपस्वी की तरह कष्ट सहते रहे।

                          मर्यादाओं का पालन करने की बात जहाँ भी आती है, वहीं अयोध्या के राजा श्री राम स्वतः स्मरण हो आते हैं      वाल्मीकि रामायण के अनुसार--- " भगवान श्री राम चन्द्रमा के समान अति सुन्दर, समुद्र के समान गम्भीर और पृथ्वी के समान अत्यन्त धैर्यवान थे।भगवान श्री राम इतने शील संपन्न थे  कि किसी भी परिस्थिति में किसी को कटु वचन नहीं बोला।उन्होंने अपने माता-पिता, गुरुजनों, भाइयों, सेवकों, प्रजाजनों अर्थात हर किसी के प्रति अपने स्नेहपूर्ण दायित्वों का निर्वाह किया।

    यदि भगवान श्री राम के संपूर्ण जीवन पर एक दृष्टि डाली जाए तो उसमें कहीं भी अपूर्णता दृष्टिगोचर नहीं होती श्री राम रीति, नीति, प्रीति सभी के संपूर्ण ज्ञाता व मर्मज्ञ रहे हैं ।इसी कारण श्री राम परिपूर्ण हैं और आदर्श हैं ।उन्होंने मर्यादा का घोर उल्लंघन करने वाले रावण से भी युद्ध किया और उसे पराजित करके मर्यादाओं की पुनः स्थापना की।

    वनवास जाने की ख़बर सुनकर वे दुःखी नहीं हुए , बल्कि प्रसन्न हुए कि वन में उन्हें ऋषियों का सान्निध्य मिलेगा ।वन में उनके साथ उनकी भार्या सीता व अनुज लक्ष्मण भी गए।वन में  14        वर्ष तक  राजकीय वैभव से दूर सामान्य वनवासी की तरह जीवन जिया और वन में निवास करने वाले राक्षसों व असुरों का संहार करके वह क्षेत्र ऋषियों के लिए सुरक्षित किया।

                 भगवान श्री राम अत्यन्त धैर्यवान, पराक्रमी, ज्ञानी, मधुर- भाषी , सत्यभाषी , नीतिकुशल साहसी आदि समस्त गुणों की खान हैं, उनके गुणों की महिमा अनन्त है।जब उनके समक्ष छलपूर्वक किया गया सीता- हरण का महासंकट उपस्थिति हुआ तब भी श्री राम ने धैर्यपूर्वक आगे की रणनीति का निर्धारण करके, लंका पर विजय प्राप्त की।

{{{{ राम राज्य }}}}

रामराज्य का अर्थ ही है--- ऐसा राज्य जिसमें दैहिक, दैविक और भौतिक ताप किसी को नहीं व्यापते ।सब मनुष्य परस्पर प्रेम करते हैं और वेदों में बताई हुई नीति ( मर्यादा ) में तत्पर रहकर अपने-अपने धर्म का पालन करते हैं 

             भगवान श्री राम  ने एक पिता की भाँति अपनी प्रजा का पालन किया , उनके राज्य में प्रजा को किसी प्रकार का कोई दुःख नहीं था इसलिए उनके राज्य को " रामराज्य " कहा जाता है।आज भी मनुष्य जाति  भगवान श्री राम को " राजा राम " के रूप में याद करती है ; क्योंकि भगवान श्री राम ने केवल अयोध्या में  ही नहीं बल्कि सभी के हृदयों पर राज्य किया था।

  राजा बनने के उपरांत भी उन्होंने राजपद का निर्वहन इतनी श्रेष्ठता से किया अतः आज भी श्रेष्ठ राज नेतृत्व की तुलना रामराज्य से की जाती है ।इस तरह भगवान श्री राम में आदर्श लोकनायक के सभी गुण मौजूद थे और इसीलिए वे सदियों से जन- जन के आराध्य बने हुए हैं ।

                 श्री राम नवमी का पर्व हम सभी भगवान श्री राम के जन्मदिवस के रूप में मनाते हैं वह हमें संदेश देता है कि हम सभी श्री राम की तरह आदर्श जीवन शैली का निर्वाह करें, मर्यादित  आचरण करें और " श्री राम " नाम की भक्ति से अपने जीवन को सफल बनाएँ ।
" श्री राम श्री राम गाते चलें, जीवन सफल बनाते चलें "

सादर अभिवादन व धन्यवाद ।



   

Wednesday, January 29, 2020

नवरात्र पर्व का महत्व, नवरात्र पर्व प्रकृति व शक्ति आराधना का पर्व, नवरात्रि साधनाओं का रहस्य

                    {{{{{ नवरात्र पर्व का महत्व}}}}}
इस वर्ष 25 मार्च, बुधवार 2020 से नवरात्र उत्सव की शुरुआत होगी और 2 अप्रैल वृहस्पतिवार के दिन श्री रामनवमी महोत्सव मनाया जाएगा। 
चैत्र नवरात्र की पावन बेला एवं नवसंवत्सर का शुभ अवसर , दोनों ही मानव जीवन के शुभ संकेत हैं ।ये संकेत हैं- साधना का साधक की चेतना को परमात्मा से एकाकार करने के ।नवरात्र के अवसर पर भारतीय संस्कृति में पूजा- पाठ, व्रत-उपवास आदि किए जाते हैं जिनके द्वारा साधक इस पुण्यवेला से लाभान्वित होते हैं ।

         नवरात्र वर्ष में चार बार आते हैं ।दो प्रत्यक्ष या प्रकट नवरात्र ( आश्विन नवरात्र और चैत्र नवरात्र) और दो अप्रत्यक्ष या गुप्त नवरात्र ।इन नवरात्रों के अवसर पर प्रकृति में विशेष परिवर्तन होता है और फिर ऋतुएँ धीरे-धीरे करवट लेती हैं, अपना रूप बदलती हैं ।इन परिवर्तित होने वाली ऋतुओं का प्रभाव हमारे शरीर पर भी पड़ता है।इसलिए ऋतु परिवर्तन की बेला पर व्रत और उपवास  के माध्यम से हम आहार- विहार पर नियंत्रण करते हैं जिससे हमें  स्वास्थ्य लाभ भी मिलता है।

  व्रत के शाब्दिक अर्थ के अनुसार जब भी कोई श्रेष्ठ संकल्प लिया जाता है तो वह व्रत कहलाता है।व्रत के द्वारा मनुष्य लक्ष्य तक पहुँचने हेतु आत्मशक्ति जाग्रत करने का प्रयत्न करता है।व्रत का समुचित लाभ तभी मिल सकता है, जब यह उचित दिशा की ओर उन्मुख हो।यह दिशा उपवास है।उपवास का अर्थ है--- उप+ वास अर्थात पास बैठना।ईश्वरीय चेतना के सान्निध्य को उपवास कहा जाता है।

    हमारे ऋषि-मुनियों ने जो भी धार्मिक पर्व आरंभ किए हैं वे सभी हमारे स्वास्थ्य की दृष्टि से भी बहुत महत्वपूर्ण हैं और इनके द्वारा हम अपने जीवन का बिखराव रोककर अपनी ऊर्जा परमात्मा की ओर नियोजित कर सकते हैं ।नवरत्न, नवदुर्गा अथवा देवियों को मानवी चेतना की विशिष्ट क्षमताएँ  व विभूतियाँ कहा जा सकता है।ये प्रसुप्त अवस्था में हर व्यक्ति के अंतराल में छिपी हुई हैं ।

     नौ दिनों तक चलने वाले इस पर्व में विशेष रूप से दुर्गे माँ के नवरूपों की आराधना की जाती है।देश भर के शक्तिपीठ व अनेक मंदिरों में नवरात्र उत्सव बड़ी धार्मिकता व पवित्रता के साथ मनाया जाता है।बहुत लोग इन पर्व पर व्रत-उपवास करते हैं ।नियमित मन्दिर जाकर माता की आराधना करते हैं ।नौ दिनों तक अन्न ग्रहण का त्यागकर सिर्फ फलाहार करते हैं ।

नवरात्र पर्व पर श्रद्धालु, मन्दिरों में  बड़ी श्रद्धा के साथ माता दुर्गे की शरण में जाकर ध्वजा, नारियल, लाल चुनरिया व द्रव्य भेंट आदि अर्पित करते हैं ।अगर, धूप और बाती से भावपूर्ण आरती - वन्दन करते हैं ।हलवा, चने व मिठाइयों का भोग लगाते हैं ।

                       इस पर्व की बेला पर घरों में नियमित यज्ञ का आयोजन किया जाता है , रामायण, गीता, व दुर्गा सप्तशती के पाठ किए जाते हैं ।गायत्री साधक 24 हजार गायत्री मंत्र का जाप करते हैं । महामृत्युंजय मंत्र व नवार्ण मंत्र जप के अनुष्ठान भी किए जाते हैं ।

 नवरात्र अवसर के घरों में यज्ञ भी होते हैं ।कन्याओं का पूजन किया जाता है ।घरों में नौ दिनों तक माता के भजन कार्यक्रम आयोजित किए जाते हैं।दुर्गे मन्दिरों में विशाल यज्ञों का आयोजन  होता है ।यज्ञ ,अनुष्ठान की पूर्णता का प्रतीक  हैं।  सभी मन्दिरों में हलवे चने के प्रसाद का वितरण किया जाता है।

        नवरात्र का यह पर्व हमें संदेश देता है कि हम सामूहिक रूप   से श्रेष्ठ कार्यों में अपना सहयोग दें व अपनी धर्म परंपराओं का पालन करते हुए इस पवित्र अवसर पर विभिन्न प्रकार के धार्मिक आयोजन आयोजित करके अपने जीवन को श्रेष्ठता की ओर उन्मुख करें ।
" आदिशक्ति माँ भवानी, शरण आए हैं तुम्हारी "

{{{{{ नवरात्र पर्व प्रकृति व शक्ति आराधना का पर्व}}}}}

    नवरात्र का पर्व ' प्रकृति का पर्व ' है, 'शक्ति आराधना' का पर्व है।प्रकृति व शक्ति दोनों ही हमारे जीवन का मूल आधार हैं ।हमारा शरीर प्रकृति के तत्वों से मिलकर बना है ।शरीर में ऊर्जा का संचार प्राणवायु ही करती है।

  प्रकृति का संवर्द्धन - संरक्षण हमारी सांस्कृतिक परम्परा है और नवरात्र, इसी सांस्कृतिक परम्परा का महोत्सव, जिसका मानवीय 
अस्तित्व से गहरा सम्बन्ध है ।आज हमें प्रकृति के संरक्षण व संतुलन के उपाय करने होंगे और अपने जीवन को प्रकृति के अनुरूप जीना होगा , तभी नवरात्र उत्सव हमारे लिए वरदान स्वरुप होगा।

           इस संसार में सफल होने के लिए शक्ति की आवश्यकता होती है। संसार में शक्ति की विजय होती है ।इसी कारण भगवान श्री राम ने रावण से युद्ध करने से पूर्व शारदीय नवरात्र का अनुष्ठान किया था।अर्जुन ने महाभारत युद्ध करने से पूर्व शक्ति की उपासना की थी और ये अपने विजय अभियान में सफल हुए।

  दैवी क्षमताएँ, सत्प्रवृत्तियाँ हर किसी में बीज रूप में विद्यमान हैं ।साधना द्वारा उन्हें जाग्रत व फलित किया जा सकता है।नवरात्र के नौ दिन वर्ष के सर्वाधिक पवित्र दिन माने जाते हैं ।इन नौ दिनों की रात्रियाँ विशेष ऊर्जाप्रदायनी होती हैं, इसीलिए इन्हें नवरात्र कहा गया है।

     {{{{{ नवरात्र साधना का रहस्य }}}}}

नवरात्र साधना पर्व है ।साधना से सिद्धि की प्राप्ति होती है, और साधना से शुद्धि भी होती है।साधना एक तपश्चर्या है, जिसके बहुत सारे आयाम हैं, सभी आयामों का लक्ष्य एक ही है-- शुद्धि प्रदान करना , परिष्कृत करना।अतः दैनिक उपासना के क्रम में भी सबसे पहले पवित्रीकरण और आचमन किया जाता है, ताकि हम मन, वाणी अंतःकरण से पवित्र बनें, सद्पात्र बनें और शक्ति ऊर्जा को धारण करने के योग्य बन सकें ।

   नवरात्र में माँ आदिशक्ति के विशेष नौ रूपों की उपासना की जाती है ।ये नौ स्वरूप हैं----- प्रथम स्वरूप शैलपुत्री
                 द्वितीय स्वरूप---- ब्रह्मचारिणी
तृतीय  स्वरूप ---- चंद्रघंटा              चतुर्थ  स्वरूप ---- कूष्माण्डा 
                पंचम  स्वरूप ---- स्कंदमाता
                षष्ठ   स्वरूप  ---- कात्यायनी 
                  सप्तम स्वरूप ---- कालरात्रि 
                   अष्टम स्वरूप----- महागौरी
               नवम स्वरूप  ---- सिद्धिदात्री
आदिशक्ति के ये नौ स्वरूप चेतना के नौ आयाम हैं, जिन्हें साधक तब महसूस करता है, जब वह चित्तशुद्धि की प्रक्रिया से गुजरता है।शक्ति के इन नौ रूपों का आधार केंद्र उसके सूक्ष्मशरीर में स्थित चक्र होते हैं जो नवरात्र- साधना के दौरान जाग्रत होते हैं ।
 
             जो साधक नवरात्र साधनाओं के रहस्य से परिचित हैं वे इस अवसर को विशिष्ट अनुष्ठानों एवं साधनाओं में व्यतीत करते हैं
और वातावरण में सघन रूप से उमड़ते- घुमड़ते चैतन्य प्रवाह को अपनी साधना के माध्यम से आकर्षित करते हैं ; क्योंकि साधना का संबंध काल, स्थिति एवं मुहूर्त से बड़ी गहराई से जुड़ा होता है।
  
   चेतना जगत में उच्च स्तरीय उभार नवरात्र की पुण्यबेला में आते हैं ।दिन और रात्रि के मिलन की घड़ियाँ संध्याकाल कहलाती हैं ।वह वेला संध्यावंदन के लिए अत्यन्त उपयोगी समझी जाती है ।ठीक इसी प्रकार सरदी और गरमी की ऋतुएँ जब मिलती हैं तब आश्विन और चैत्र के नवरात्र पर्व आते हैं ।

साधना का अर्थ ही है -- स्वयं को साधना। नवरात्र साधना के दिनों में साधक के द्वारा जिन अनुशासनों, व्रतों का कड़ाई से पालन किया जाता है,वे हैं -- उपवास, ब्रह्मचर्य, विलासिता का त्याग, सदाचरण एवं मौन।इन नियमों व अनुशासन की आवश्यकता इसलिए बताई जाती है, जिससे साधना के साधक द्वारा ब्रह्माण्डीय ऊर्जा को स्वयं में आत्मसात् कर सकें ।

जैसा कि हम सबको विदित है कि आध्यात्मिक साधनाओं में योग के आठ नियमों का बड़ा महत्व है-- यम, नियम, आसन, प्राणायाम  प्रत्याहार, धारणा , ध्यान एवं समाधि । आध्यात्मिक साधनाओं में  जप तप के साथ इन नियमों का भी समावेश रहता है।

साधना के लिए आवश्यक है निरंतरता, असीम धैर्य एवं साहस।इसके दो पक्ष हैं- श्रद्धा एवं कर्मकांड।कर्मकांड साधना (अनुष्ठान)
का कलेवर होता है।इसमें जप की संख्या, स्थान, काल एवं यम नियम आते हैं ।अनुष्ठान का अर्थ ही है विशेष साधना।

        हम साधना का कलेवर कर्मकांड को तो विधि- विधान से निभा दें परंतु इसके श्रद्धा पक्ष को भुला दें तो श्रद्धा के अभाव में हमारी साधना अधूरी व एकांगी रहती है।अधूरी- एकांगी साधना भला हमें कैसे लाभान्वित कर सकती है।श्रद्धा साधना का प्राण है, मूल है, इसलिए हम जो भी मन्त्र जपें या अन्य विधि से साधना करें, उसे तन्मयतापूर्वक व भावनापूर्वक करना चाहिए । 

नवरात्र साधना के समय मन को उच्चतर दिशा की ओर प्रवाहमान बनाए रखने के लिए जप के साथ ध्यान की प्रक्रिया को सशक्त बनाया जाता है ।यदि उचित कर्मकांड के साथ किए जाने वाले अनुष्ठान में श्रद्धा भावना का समुचित समावेश हो तो साधना का परिणाम एवं लाभ आश्चर्यजनक एवं  चमत्कारिक होते हैं ।श्रद्धा के अभाव में साधना बोझ सी एवं नीरस प्रतीत होती है।

        दक्षिणमार्गी योगसाधना में नवदेवियों का वर्णन है ।दुर्गाएँ भौतिक समृद्धियाँ कहलाती हैं और देवियाँ आत्मिक विभूतियाँ ।दोनों के बीच कोई विग्रह नहीं, एक-दूसरे की पूरक हैं ।भौतिक और आत्मिक दोनों को मिला देने में ही समग्र ज्ञान की पूर्णता है।
हमारे प्राचीन महामनीषियों ने विज्ञान और तत्वज्ञान को मिलाकर रखा था।

                        विशेष साधना को अनुष्ठान कहते हैं ।इनमें कुछ तपश्चर्याएँ भी जुड़ी रहती हैं ।नवरात्र के दिनों में प्रातः जपयज्ञ और रात्रि को ज्ञानयज्ञ होता रहे तो ही साधना के दोनों पक्ष पूरे हुए माने जाते हैं ।ज्ञान और कर्म का समन्वय ही पूर्णता है।नवरात्रों में जागरण, कीर्तन, गरबा आदि का जो प्रचलन है उसके पीछे यह ज्ञानयज्ञ की भावना ही काम करती है।

                    सामान्य समय में की गई साधना एवं नवरात्र तथा विशिष्ट मुहूर्त में संपन्न साधना के परिणाम में बहुत अन्तर होता है।अतः नवरात्र की पावन बेला पर की गई साधनाओं के रहस्य को समझते हुए नवरात्र साधना पर्व परिपूर्ण उत्साह व श्रद्धा के साथ मनाना चाहिए जिससे कि साधकगण ईश्वर से एकाकार करने का सौभाग्य प्राप्त कर सकें ।

" जगदम्बिके जय जय जग जननी माँ "

सादर अभिवादन व धन्यवाद ।



Tuesday, January 28, 2020

"विक्रमी संवत्सर चैत्र शुक्ल प्रतिपदा महोत्सव" एवं "प्राचीन शास्त्रों के अनुसार सृष्टि संवत्सर की पूरी गणना" ( सृष्टि की आयु), विक्रमी संवत्सर से जुड़े अन्य पक्ष।

     {{{{{ विक्रमी संवत्सर चैत्र शुक्ल प्रतिपदा महोत्सव }}}}} ब्रह्म पुराण के अनुसार--- " चैत्रमसि जगद्ब्रह्मा ससजं प्रथमेहनि" अर्थात चैत्र मास के प्रथम दिन ब्रह्मा जी ने सृष्टि की रचना की।अनेक अन्य  शास्त्रों में  भी ऐसा वर्णन है कि चैत्र शुक्ल प्रतिपदा को सबको चकित करने वाली सृष्टि का उद्भव हुआ। सृष्टि की उत्पत्ति का ऋषिज्ञान तो हमें पुरातन काल से ही प्राप्त था , लेकिन इसका वैज्ञानिक ज्ञान हमें कुछ ही दशकों से मिलना आरंभ हुए है।

 अत्यन्त प्राचीनकाल से ही भारत के जनमानस के साथ जुड़ी चली आ रही कालगणना , भारतीय संवत्सर ( विक्रमी संवत्सर) -- शास्त्रसम्मत, वैज्ञानिक और अति व्यावहारिक सिद्ध हुई है।भारतीय ज्योतिष गणना के अनुसार-- नववर्ष की शुरुआत नव संवत्सर चैत्र शुक्ल प्रतिपदा से होती है।इसी दिन भारत के समस्त गणित और खगोलशास्त्रों के अनुसार ग्रहों, तारों, मासों और संवत्सरों की वैज्ञानिक रचना की गई।

         सभी ऋतुओं के एक पूरे चक्र को 'संवत्सर' कहा जाता है। 
अमरकोष के अनुसार--- सर्वर्तुपरिर्त्तस्तु स्मृतः संवत्सरौ बुधैः।अर्थात किसी ऋतु से आरंभ करके ठीक उसी ऋतु के पुनः आने तक जितना समय लगता है, उस कालमान को संवत्सर कहते हैं ।ऋतु शब्द का तात्पर्य है कि जो सदैव चलती रहे ।अतः ऋतु ही काल की गति है।

                         भारत में वैदिक काल के ऋषियों ने 12 महीनों     के नाम भी ऋतुओं के आधार पर रखे थे।बाद में इन महीनों के नाम नक्षत्रों के आधार पर रख दिए थे।ये नाम-- चैत्र, वैशाख, ज्येष्ठ, अषाढ़, श्रावण, भाद्रपद, आश्विन, कार्तिक, मार्गशीष, पौष, माघ एवं  फाल्गुन हैं ।इसी प्रकार सप्ताह में वारों के नाम ग्रहों के नाम पर रखे गए --- रवि, सोम( चंद्रमा), मंगल, बुध, गुरु( वृहस्पति), शुक्र और शनि।प्राचीन ग्रन्थों में मानव वर्ष और दिव्य वर्ष में अंतर किया गया है।
 
 मानव वर्ष मनुष्यों का वर्ष है, जो सामान्यतः 360 दिनों का होता है।आवश्यकतानुसार उसमें घटत- बढ़त होती रहती है।मनुष्यों के 360 वर्ष मिलकर देवताओं का एक दिव्य वर्ष बनाते हैं ।मानव की सामान्य आयु 100 वर्ष मानी गई है ।इससे अलग देवताओं की आयु 1000 दिव्य वर्षों तक मानी गई है।

                                  धर्मग्रंथों में चैत्र शुक्ल प्रतिपदा के दिन नवसंवत्सरोत्सव  मनाने की बात लिखी है।इस दिन मुख्यतः ब्रह्मा जी का काल- पुरुष के समस्त अवयवों सहित पूजन करने विधान है।अथर्ववेद ( 3- 9- 10) से यह पता चलता है कि नवसंवत्सर उत्सव को अतिप्राचीन काल से ही महापर्व के रूप में मनाया जाता रहा है। संवत्सर का नाम इतना महत्वपूर्ण है कि प्रत्येक धार्मिक कृत्य में पढ़े जाने वाले संकल्प में संवत्सर का नाम अवश्य लिया जाता है।

    जिनका हृदय तपस्या की रश्मियों से ओत-प्रोत है, अंतःकरण में ईश्वरीय मिलन की अभीप्सा है, उनके लिए 'चैत्र संवत्सर' एक नवीन जीवन का प्रारंभ हो सकता है। विक्रमी संवत्सर का आरंभ किसी सम्प्रदाय विशेष अथवा किसी देवी- देवता के नाम पर न होकर समस्त राष्ट्र की विजयी परंपरा की स्मृति में हुआ है।इस विक्रमी संवत् का वैचारिक आधार हमारे राष्ट्रीय गौरव को पुष्ट करता है ।

   

   {{{{{ शास्त्रों के अनुसार सृष्टि संवत्सर की पूरी गणना}}}}}   

            सृष्टि संवत्सर की पूरी गणना प्राचीन ग्रन्थों में दी हुई है।उसके अनुसार सन् 2016 में सृष्टि और उसके साथ सूर्य को बने 1960853116 मानव वर्ष व्यतीत हो चुके हैं ।सृष्टि की कुल आयु 4320000000 वर्ष मानी गई है।इसमें से वर्तमान आयु निकालकर सृष्टि की शेष आयु 2359146824 वर्ष है। 

           सृष्टि के सम्पूर्ण जीवन को भी अनेक कालखंडों में बाँटा हुआ है।इसके अनुसार कुल 15 मन्वंतर होते हैं जिनमें से प्रत्येक मन्वंतर का अधिपति एक मनु होता है।14 मन्वंतरों में से प्रत्येक में 71 चतुर्युगी ( सतयुग, त्रेतायुग, द्वापरयुग एवं कलियुग)होती हैं ।पन्द्रहवें मन्वंतर में केवल छह चतुर्युगी होंगी।चतुर्युगी को महायुग कहा गया है। गणना के अनुसार सृष्टि संवत्सर के अब तक छह मन्वंतर निकल चुके हैं ।वैवस्वत मनु से प्रारंभ होने के कारण इसे वैवस्वत मन्वंतर कहते हैं ।इस सातवें वैवस्वत मन्वंतर के भी 27 चतुर्युग व्यतीत हो चुके हैं तथा 28 वें चतुर्युग के भी तीन युग निकल चुके हैं और चौथा युग कलियुग चल रहा है।
  
    एक चतुर्युगी में कुल 4320000 वर्ष होते हैं ।चतुर्युगी में सबसे कम अवधि कलियुग की है।इससे दो गुना अवधि द्वापर युग की , तीन गुनी अवधि त्रेता की तथा चार गुना अवधि सतयुग की होती है। कलियुग की अवधि है-- 432000 वर्ष, इस आधार पर--
कलियुग    = 432000×1=     432000 वर्ष 
द्वापरयुग    = 432000×2=    864000 वर्ष 
त्रेतायुग      = 432000×3=  1296000 वर्ष 
सतयुग       = 432000×4= 1728000 वर्ष 
 एक चतुर्युग के कुल वर्ष     = 4320000 वर्ष  

प्रत्येक मन्वंतर के 71 चतुर्युगी के कुल वर्ष =
4320000× 71= 306720000 वर्ष 

पन्द्रहवें मन्वंतर में केवल छह चतुर्युगी माने गए हैं ।इस तरह-
पन्द्रहवें मन्वंतर के छह चतुर्युगी के कुल वर्ष निम्नलिखित हैं 
4320000 × 6 = 25920000 वर्ष ।

सृष्टि के पन्द्रह मन्वंतरों का कुल योग------

306720000 × 14 + 25920000 × 1 = 4320000000 वर्ष 

इस महायुग में-
 सतयुग का प्रारंभ कार्तिक शुक्ल नवमी बुधवार को,
त्रेतायुग का आरंभ वैशाख शुक्ल तृतीया सोमवार को,
द्वापरयुग का आरंभ माघ कृष्ण प्रतिपदा को एवं
कलियुग का आरंभ  भाद्रपद कृष्ण त्रयोदशी को माना गया है ।

      {{{ आर्यभट्ट के अनुसार सृष्टि की कालगणना }}}
  
पौराणिक मान्यता से मुक्त रहते हुए सुप्रसिद्ध विद्वान आर्यभट्ट ने मन्वंतर तो चौदह (14 ) ही माने हैं, परन्तु उनके अनुसार प्रत्येक मन्वंतर में 71 के स्थान पर  72 महायुग होते हैं तथा इनमें सभी महायुग समान कालावधि के होते हैं ।

कालगणना के इस क्रम में सबसे पुराना संवत् सृष्टि संवत् है ; सन् 2016 में इसके  1960853116 मानव वर्ष व्यतीत हो गए ।

   {{{{{विक्रमी संवत्सर चैत्र प्रतिपदा से जुड़े अन्य पक्ष }}}}}

        अत्यन्त प्राचीनकाल से लेकर आज तक भारत भूमि पर राष्ट्रोत्थान के जितने भी महान कार्य हुए, उनका प्रारंभ चैत्र शुक्ल    प्रतिपदा से ही हुआ।मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्री राम का राज्य  अभिषेक भी नववर्ष की इसी प्रतिपदा के दिन हुआ था।धर्म व सत्य का वर्चस्व स्थापित करने वाले युधिष्ठिर का राज्याभिषेक भी
इसी दिन हुआ।इसके साथ ही शकारि की पदवी धारण करने वाले सम्राट विक्रमादित्य का राज्याभिषेक व विजय उत्सव इसी शुभ दिन हुआ।

आज  भी हमारे देश में सामाजिक व धार्मिक कार्यों की शुरुआत विक्रमी संवत् की शुभ - तिथियों से ही की जाती है।आज भी देखा जाए तो अपने देश की समस्त शैक्षणिक गतिविधियों, बैंकिंग, कृषि इत्यादि क्रियाकलापों की शुरुआत और समाप्ति मार्च- अप्रैल अर्थात चैत्र शुक्ल प्रतिपदा के समय ही होती है।इस समय को शुद्ध और पवित्र माना जाता है।

नवसंवत्सर की नित्य प्रतिपदा का अवसर मानव जीवन की नित्य  प्रति की गतिविधियों से प्राकृतिक रूप से जुड़ता है।यह कालगणना पूर्णतया प्राकृतिक एवं वैज्ञानिक है।
  
विदेशी सन् में सबसे प्रचलित ईसवी सन् है।जिसका प्रचलन रोमन सम्राट जूलियस सीजर के द्वारा ईसा के जन्म के तीस वर्ष बाद किया गया।भारत में इस ईसवी संवत् का प्रचलन ब्रिटिश शासकों ने सन् 1752 ई० में किया था।पहले ईसवी सन् भी 25 मार्च से प्रारंभ होता था, लेकिन बाद में अठारहवीं सदी में इसकी शुरुआत एक  (1) जनवरी से होने लगी।

इक्कीसवीं सदी को उज्ज्वल भविष्य में परिवर्तित करने के लिए अब जरूरी हो गया है कि हम सभी अपना राष्ट्रीय स्वाभिमान जाग्रत करते हुए अपनी सांस्कृतिक धरोहर की रक्षा करें ।पाश्चात्य संस्कृति का मोह त्याग कर अपने प्राचीन परम वैभव के साथ जुड़ने का साहस जुटाएँ।

          हम सभी भारतीय अपनी श्रेष्ठ परंपराओं का अनुसरण     करते हुए, विजयीभारत की विजयगाथा का स्मरण करते हुए समस्त विश्व में भारतीय गरिमा को प्रतिष्ठित करें ।साथ ही अपने नववर्ष पर आपस में एक दूसरे को नवसंवत्सर की शुभकामनाएँ प्रदान करें ।

विक्रमी संवत्सर चैत्र शुक्ल प्रतिपदा महोत्सव की परम्परा को गौरवान्वित करें ।यह पूरी तरह से वैज्ञानिक है।

आपको सादर अभिवादन व धन्यवाद ।






Sunday, January 26, 2020

"होली" कब और क्यों मनाते हैं, होली एक भाव अनेक, वृज की होली,मीरा की भाव समाधि की होली, प्राकृतिक होली कैसे खेलें


           ●●● होली कब और क्यों मनाते हैं ●●●
 
               "होली आई होली आई, रंग की बहार लाई"
हिन्दू पंचांग के अनुसार- संवत्सर के अन्तिम महीने फागुन मास की पूर्णिमा को होलिका दहन किया जाता है और उसके अगले दिन होली खेली जाती है।इस वर्ष ( 2020) 9 मार्च सोमवार को होलिका दहन होगा और 10 मार्च मंगलवार को रंगों से होली खेलने का दिन है।  होली हमारी भारतीय संस्कृति का एक प्रमुख त्यौहार है ।फागुन का यह महोत्सव हर साल हमारे दिलों को जोड़ने आता है।होली के रंग- गुलाल हम सभी के अंतर्मन को अनगिनत भावनाओं से सराबोर कर देते हैं ।

        वसंत में सूर्य दक्षियायन से उत्तरायण में आ जाते हैं और फल- फूलों की नई सृष्टि के साथ ऋतु अमृतप्राणा हो जाती है।वसंत से लेकर होलिका पर्व तक के चालीस दिन का अवधिकाल समूची प्रकृति में यौवनमयी उल्लास एवं प्रबल प्रेरणाओं से भरा होता है। उवातावरण में मादकता, पवित्रता एवं उल्लास का एक विलक्षण सा प्रवाह उमड़-घुमड़ रहा होता है।

" आई फागुन की ऋतु होली की बहार अब छाने लगी "

                 वसंत की मनभावनी हवा के झोंके ,भीनी- भीनी सी महक लिए, रंगों से हमारे तन, मन को भिगोती होली--ऐसा लगता है जैसे प्रकृति भी हमारे साथ होली का आनन्द ले रही है; क्योंकि हमारे सभी त्यौहार ऋतुओं और फसलों से जुड़े हुए हैं । इस पर्व पर तरह के रंग- गुलाल हमारे मन को अनायास ही खुशियों से भर देते हैं ।
 "होली का उत्सव आया, सबने आनन्द मनाया"

   होलिका दहन को 'नवान्नेष्टि यज्ञपर्व' भी कहा जाता है; क्योंकि इस दिन खेतों से पककर आए हुए नए अन्न को होलिका दहन की अग्नि में हवन करके प्रसाद लेने की भी परम्परा है।इस अन्न को होला कहते हैं ।इसी से इस पर्व का नाम " होलिकोत्सव" पड़ा ।होली का त्यौहार हमारे देश में प्राचीन काल से मनाया जाता
रहा है।इसी कारण समयानुसार अनेक पौराणिक आख्यान इससे जुड़ते चले गए ।

                       राक्षसों का राजा हिरण्यकशिपु अहंकार वश स्वयं को ईश्वर मानने लगा, उसने राज्य में यह घोषणा कर दी कि कोई ईश्वर को न पूजे लेकिन उसका पुत्र प्रह्लाद जन्म से ही भगवान विष्णु का परम भक्त था और सदा नारायण-नारायण जपता रहता था।हिरण्यकषिपु को यह अच्छा नहीं लगता था।उसने प्रह्लाद को तरह- तरह की यातनाएँ दीं और उसे मारने के अनेक प्रयास किए लेकिन भक्त प्रह्लाद हर बार भगवान की कृपा से बच जाते थे।

हिरण्यकषिपु की बहन होलिका को अग्नि में न जलने का वरदान प्राप्त था, इसलिए हिरण्यकशिपु ने उसे यह आदेश दिया कि वह प्रह्लाद को गोद में लेकर अग्नि स्नान करे, लेकिन जब होलिका प्रह्लाद को लेकर अग्नि में बैठी तो प्रह्लाद बच गए और होलिका जल गई और तभी से होलिका दहन मनाया जाता रहा है।

          ●●● होली के अलग-अलग भाव ●●●

     होली एक - उसमें समाए भाव अनेक, तभी तो यह सारे देश का अपना त्यौहार बन गया।इस त्यौहार ने जाति- वंश को, हिन्दू- मुसलमान को एक समान कर अपने में समेट लिया।इतिहास के पन्ने कहते हैं कि हिंदुस्तान के सुल्तान, शहंशाह, बादशाह--आम जनता के साथ मिलकर होली का त्यौहार मनाते थे।

   अंग्रेजों के जमाने में एक होली ऐसी भी आई, जब कानपुर शहर के नागरिकों ने होली के रंगों के साथ क्रांति का राग छेड़ दिया।होली खेलने पर अंग्रेजों ने पाबंदी लगा दी।पाबंदी के विरोध में हटिया के रज्जनबाबू पार्क में तिरंगा फहराया गया और घोषणा की गई कि कानपुर शहर में पूरे सप्ताह होली खेली जाएगी।इस बात से नाराज होकर अंग्रेजों ने गिरफ्तारियाँ कीं तब पूरा शहर उमड़ पड़ा और अंग्रेजों को झुकना पड़ा , सभी भारतीयों ने खूब होली खेली और गंगा स्नान किया।तब से कानपुर के होली- मेले ने गंगा-मेले का रूप ले लिया।

   होली से जुड़े पूरे देश भर के ऐसे अनेक प्रसंग हैं, जो दर्शाते हैं      कि रंगों से भरी होली समूचे भारत देश का त्यौहार है।सामान्य    जीवन में हम अपनी भावनाएँ उन्मुक्त रूप से अभिव्यक्त नहीं करते ।होली के अवसर पर हम अपने मन की भावनाओं को उन्मुक्त रूप से व्यक्त करते हैं, लोगों से मिलते समय , गुलाल लगाते समय लोग हँसते बोलते हैं ।मनोवैज्ञानिक रूप से देखा जाए तो होली का पर्व मन की दमित भावनाओं को बाहर निकालने का एक अवसर है।

                ●●● वृज की होली ●●●
 
होली का उत्सव पूरे देश में मनाया जाता है , लेकिन उत्तर भारत की होली ज्यादा प्रसिद्ध है।होली से जुड़ी कृष्ण लीलाओं का अपना अलग ही महत्व है।होली के अवसर पर अनेक कृष्ण- भक्त मथुरा- वृन्दावन जाकर वृज की होली का आनन्द उठाते हैं ।वृज की लठ्ठमार होली , फूलों की होली , रंग- गुलाल की होली की बड़ी चर्चा होती है।माना जाता है कि होली के अवसर पर भगवान कृष्ण बरसाने जाकर राधा और गोपियों के संग होली खेलते थे।सभी वृज वासी खूब आनन्द मगन होकर रंग-गुलाल बरसाते थे और नाचते- गाते थे।वृज के लोकगीतों में होली के गीत भी बहुत प्रचलित हैं ।
" बरसाने में उड़े गुलाल रे, होली खेले यसोदा का लाल रे"

होली के उत्सव पर भगवान श्रीकृष्ण के मन्दिरों में होली महोत्सव बड़ी धूमधाम से मनाया जाता है,फूलडोल नामक  रथयात्रा का आयोजन होता है जिसमें अनेक श्रद्धालु भाग लेते हैं, सब ओर रंग- गुलाल बरसाए जाते हैं-
" धरती गगन आज हुए हैं लाल, होली खेले नन्दलाल "
     
       होलिका दहन के दिन शहरों में स्थान-स्थान पर होलिका दहन किया जाता है।उत्तर प्रदेश में तो घरों में भी होलिका दहन किया जाता है।सभी लोग एक दूसरे को होली की शुभकामनाएँ देते हैं ।अगले दिन सुबह से ही बच्चे व बड़े सभी आपस मैं एक-दूसरे को रंग व गुलाल लगाते हैं ।छोटे बच्चों का उत्साह तो देखते ही बनता है वे बाजारों से पिचकारी लाकर, उनमें रंग भरकरआपस मैं होली खेलकर आनन्दित होते हैं ।होली पर टेसू के फूलों को पानी में मिलाकर आपस मैं एक-दूसरे को भिगाते हैं । लोग गलियों में टोली बना-बनाकर होली के रंग बरसाते हैं ।

      होली के दिन ऊँच- नीच का कोई भेदभाव नहीं किया जाता इस उत्सव में बड़े भी बच्चों की तरह रंग खेलते हैं । घरों में इस त्यौहार की खुशी में कई दिन पहले ही पकवान बनने शुरु हो जाते हैं ।होली पर उत्तर-भारत में गुझिया जरूर बनती हैं और होली के दिन आपस मैं एक-दूसरे को खिलाते हैं ।होली के कई दिन बाद तक लोग  एक-दूसरे के घर जाकर होली की शुभकामनाओं का आदान-प्रदान करते हैं। 
      
       ●●● मीरा की भावसमाधि की होली ●●●

वृजभूमि से मीरा की अंतश्चेतना की डोर बँधी हुई थी।होली के दिन थे ।फागुन वृज में धूम मचाए हुए था ।यमुना का श्यामल नीर बह रहा था।यमुना किनारे बैठीं मीरा , जल की कल- कल ध्वनि , उठती गिरतीं लहरों के साथ छिटकते- बिखरते जल बिन्दु के दृश्य को निहार रही थीं ।उन्होंने तनिक सिर उठाकर देखा --- सूरज धरती को देखकर  थोड़ी शरारत  से मुस्करा रहा था ।धरती पीले पुष्पों से सजी हुई सूरज को देख रही थी।उन्हें लगा - मानो धरती और सूरज के मन में भी होली के रंग खिलने लगे हैं ।धरती में उन्हें राधा नजर आने लगीं और सूरज में उन्हें अपना नटखट श्याम दिखाई दिया--- वे गुनगुनाने लगीं-
 " पीले फूलों का घाघरा , धानी चूनर पहनकर शरमा रही है धरती।
-- मुस्करा रहा है सूरज, फिर मचल उठे सूरज के हाथ, घबरा रही है धरती--।
            इस तरह वह अपने कृष्ण के साथ भाव- समाधि में डूब गईं ।उन्हें लगा - कि उनका श्याम यमुना के तट पर गोप- गोपियों के संग होली खेल रहा है और वे भी इस टोली में  साथ मिलकल अपने कृष्ण के साथ होली खेल रही हैं ।उनका विरह, मिलन में और मिलन, महामिलन में परिवर्तित होने  लगा।वे गाने लगीं '
" होली खेलत है गिरधारी
मुरली चंग बजत डफ न्यारो, संग जुपति व्रजनारी"

          ●●● प्राकृतिक रंगों की होली ●●●

   बीते दिनों में प्राकृतिक रंगों से ही होली खेली जाती थी।टेसू से लाल, हरसिंगार के डंठल से केसरिया,पत्तियों से हरे और नीले रंग बनते थे।मेंहदी से हरे, हल्दी और बेसन से पीले, नारंगी रंग के लिए कत्था और हल्दी का मिश्रण भी काम में लाया जाता था।टेसू के फूलों में नैसर्गिक रूप से सभी प्रमुख रंगों का मिश्रण प्राकृतिक तौर पर विद्यमान है।इस तरह प्राकृतिक रंगों से खुशबूदार, रंगीन होली का आनन्द उठाया जा सकता है । 

        ●●● वर्तमान होली का स्वरुप  ●●●

 वर्तमान समय में होली खेलने में ऐसे कृतिम रंगों का प्रयोग किया जाता है, जो त्वचा के लिए हानिकारक होते हैं ।होली पर एक-दूसरे पर व्यंग्य करते हैं व मजाक भी बनाते हैं ।इस तरह होली में प्राकृतिक रंगों के स्थान पर रासायनिक रंगों का प्रचलन, ठंडाई जैसे शीतल पेयों की जगह नशीली वस्तुओं का सेवन और लोक- संगीत की जगह फिल्मी गानों का प्रचलन - होली का आधुनिक स्वरूप है।होली के वर्तमान स्वरूप के कारण लोग होली खेलने से कतराते हैं, घर से बाहर निकलने में भी डरते हैं । 

 वस्तुतः होली का त्यौहार अपनी प्रसन्नता को विभिन्न रंगों के माध्यम से बिखेरने, सबसे मेल- जोल बढ़ाने, दुर्भावनाओं को मिटाने ,मिठाइयों व पकवानों को मिल- बाँटकर खाने की प्रेरणा देता है।इस दिन बीते दिनों की तरह प्राकृतिक रंगों से होली खेली जाए तो यह हमारे स्वास्थ्य के लिए भी अच्छा होगा।होली के इस त्यौहार में हम सभी को अपनी मर्यादाओं का ध्यान रखते हुए, अनुशासित तरीके से शुभ व प्रेरणादायी होली मनाने का संकल्प लेना चाहिए। 

 अब से हम ऐसी होली खेलें जिससे हमारा समाज विभिन्न रंगों से सुशोभित हो।होली हम सभी के जीवन में उत्साह-उमंग बिखेरे और हमारे मन में उल्लास की अमिट छाप छोड़े । 

" फाग की रितु आ गई है,आ जाओ मोहन रंग खेलें ।
होली की ऋतु छा गई है, आ जाओ मोहन रंग खेलें । 

 सादर अभिवादन व धन्यवाद ।

Thursday, January 9, 2020

ऋतुराज वसंत, वसंत पंचमी, कवियों का मनमीत वसंत

                  ●●● ऋतुराज वसंत ●●●

                     " आया वसंत आया वसंत 
                       मन में खुशियाँ लाया वसंत
                        फूलों में रंग लाया वसंत
                        आया वसंत आया वसंत" 
वसंत में उमंग है, रंग है, स्वर है, सुगन्ध है इसलिए वसन्त को ऋतुराज कहा गया है।उमंग समूची प्रकृति में है, रंग फूलों में है, स्वर कोयल की कूजन में एवं सुगन्ध आम्र की मंजरी व पेड़- पौधों की डालियों पर खिलखिलाते फूलों में ।इन सबको साथ लेकर वसंत धरा पर अद्भुत छटा बिखेरता है।सर्दी और गर्मी की ऋतुएँ जब मिलती हैं, तब वसंत ऋतु का आगमन होता है।

    भारत भूमि के वसंत को पश्चिमी देशों ने स्प्रिंग नाम दिया है।स्प्रिंग जर्मन भाषा में मिलने वाला पुराना शब्द है। दरअसल उस समय इस शब्द का प्रयोग पत्तों के गिरने  ' स्प्रिंग ऑफ दि लीफ'
के अर्थ में किया जाता था।इसके बाद भाषा के बहाव के साथ मौसम का नाम ही अंग्रेजी में स्प्रिंग पड़ गया।स्प्रिंग जिसके लिए कवि शेली ने कहा ---इफ विंटर हैज कम कैन स्प्रिंग बी फार बिहाइंड.... पतझड़ आया है तो क्या, प्रतीक्षा करो, वसंत भी आता ही होगा।

इस ऋतु में प्रकृति का उल्लास, प्राणिमात्र में विशेष रूप से उभरने वाली उमंगों में दृष्टिगोचर होता है ।यह उत्सव हमें याद दिलाता है- प्रकृति की आराधना की क्योंकि इस सृष्टि में शक्ति का मूल स्रोत प्रकृति ही है।प्रकृति को पोषित, पल्लवित किया जाए तो जीवन में वसंत ही वसंत है।प्रकृति की पूजा से ही जीवन में सुख, समृद्धि एवं शान्ति का समावेश हो सकता है ।

वसंत जब भी आता है, चंचल मुस्कान के साथ महकता हुआ आता है और ढेर सारी खुशियों की बहार लेकर आता है।वसंत विरह का अंत है।वसंत खुशी का राग, उमंग, उत्साह और उमंग लेकर आता है।वसंत जीवन के आँगन में छलकता उल्लास है, चंचल नृत्य है।वसंत तो सुगंधित व सुरभित भावनाओं का संसार है।वसंत तो मन का मौसम है, भावनाओं का उद्गार है।

इस वसंत पर बाह्य प्रकृति के साथ हमें अपनी अंतःप्रकृति को संतुलित व पूर्ण करना है।हमें अपनी रूठी हुई प्रकृति को मनाना है।सृष्टि पर अनुराग और प्रेम के पुष्प खिलाने हैं ।प्रकृति का श्रृंगार करने वाला वसंत आज प्रदूषण से जूझ रहा है।प्रकृति के स्वाभाविक सौन्दर्य को वापस लाने के लिए हमारे ऋतुराज वसंत को नए रंग तलाशने होंगे ।
            
                    ●●● वसंतपंचमी ●●●
     वीणा की झंकारों से माँ महक सुरों में अब भर दे ।
      शारदे- शारदे, शारदे शारदे, विद्या बुद्धि का वर दे ।।
    हमारा देश त्योहारों व उत्सवों  का देश है।सभी पर्व व उत्सव हमारे देश की महान संस्कृति का परिचय देते हैं । माघ मास की शुक्ल पंचमी को मनाया जाने वाला ' वसंतपंचमी ' एक हर्षोल्लास का उत्सव है।यह पर्व ज्ञान का उत्सव है ।इस दिन ज्ञान की देवी  'माता सरस्वती ' का पूजन किया जाता है ।ज्ञान के बिना जीवन में अपूर्णता है।यह उत्सव हम सभी को याद दिलाता है कि ज्ञान ही सर्वोच्च है।
   "कमलासन पर शोभित हो माँ, आलोकित जग को कर दे"
                      शारदे- शारदे , विद्या बुद्धि का वर दे 
    
     वसंतपंचमी के दिन विद्यालयों में,घरों में व अन्य धार्मिक संस्थाओं में श्रद्धा भाव के साथ माता सरस्वती की पूजा अर्चना की जाती है ।सभी लोग पीले रंग के वस्त्र धारण करते हैं ।विद्यालयों में पुस्तक पूजन भी किया जाता है।विद्यार्थियों द्वारा विभिन्न- विभिन्न सांस्कृतिक कार्यक्रमों की प्रस्तुति दी जाती है।विद्यालयों में छोटे- बड़े सभी  विद्यार्थी सरस्वती वंदना का सुमधुर  'समूह गान' भी करते हैं ।

   " कमल आसन, हंस वाहन चार भुज धारिणि ओ माँ 
     कर में वीणा शब्द रस संगीत की स्वामिनि ओ माँ "

                                जब कभी भी हम किसी विद्वान व कलाकार की  प्रशंसा करते हैं ।तो यही कहते हैं कि इस पर माता सरस्वती की महान कृपा है।इस 'वसंतपंचमी' पर माँ सरस्वती के चरणों में नमन करते हुए यही प्रार्थना करें- कि इस विश्व वसुधा का हर मनुष्य ज्ञान-वान बनकर  अपने  जीवन को श्रेष्ठ बनाए।

             ●●● कवियों का मनमीत वसंत ●●●
   
                 आदिकाल से, प्राचीन युग से कविगण वसंत के गीत गाते रहे हैं ।वसंत को यूँ ही ऋतुराज नहीं कहते, इसकी अनुभूति से , इसके एहसास से अनेक कवियों के अंतर्मन में कविता की नवकोपलें फूटी हैं ।कवि कालिदास को वसंत इतना प्रिय है कि वे कहते हैं-- सर्वाप्रिये चारुतरं वसन्ते अर्थात सर्वप्रिय ऋतु वसंत ही है। यह भी कहते हैं-- "जीवितं सत्यं वसन्त मासस्य"   संसार का सबसे बड़ा जीवित सत्य और कुछ नहीं बस, वसंत है।

      वसंत के सौन्दर्य से अभिभूत कवि गुरू रविन्द्र नाथ टैगोर कहते हैं--- जिस दिन प्रकृति ने धरती रची , उसी दिन प्रेम रचा और वसंत ऋतु भी रची होगी फिर ऋतुओं ने वसंत को अपना गीत कह लिया; क्योंकि उससे सुन्दर छंद उनके पास था ही नहीं ।
महाकवि सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला' का तो जन्म ही वसंत पंचमी के दिन हुआ था, पर जीवन में हमेशा पतझड़ रहा, तभी वह अपनी लेखनी से लिख सके---
"अभी न होगा मेरा अंत, अभी तो आया है मेरे मन मृदुल वसंत "
      
जयशंकर प्रसाद जी को तो जैसे वसंत की अनवरत प्रतीक्षा थी।तभी तो उन्होंने कहा---
        "पतझड़ था झाड़ खड़े थे, सूखे से फुलवारी में 
  किसलय दल कुसुम बिछाकर, आए तुम इस क्यारी में"

कवियों के छन्द में साकार होता हुआ वसंत कभी कहीं किसी की उदास याद में भी आहट दे देता है।कवि रघुवीर सहाय कहते हैं कि---यह उदास मौसम और मन में कूछ टूटता सा
      अनुभव से जानता हूँ, वसंत है 

 वसंत की मनोहारी छाया, प्रकृति के कण-कण से निठुर दिनों की याद धीरे- धीरे धूमिल कर देती है।फिर कोई नन्ही चिड़िया दरबारी पर बैठी धूप का टुकड़ा चुगते सबको जगाती है।इसे कवि जयदेव अपने शब्दों में व्यक्त करते हैं---
    छाया सरस वसंत विपिन में, करते श्याम विहार
      गोपीजनों के संग रास रचा, करते श्याम विहार  

                     कवियों की कविता की कोपलों के साथ इस वर्ष फिर से वसंत आ ही गया।वसंत के आगमन से जीवन में जाग रही हैं आनंद की रचनाएँ ।जागती रही हैं और जाग रही हैं कवियों की कविताएँ ।धरती पर जाग रही हैं रंगों और सुगंधो की ऋतु। सर्दी की ठिठुरन से वीरान हुए वृक्ष वसंत को आशा से निहार रहे हैं ।

वसंत के आगमन पर प्रकृति ने पीली चूनर ओढ़कर स्वयं को सँवारा है।कोयल अपनी कूक से, मयूर अपने नर्तन से और भ्रमर गुंजार करके वसंत का स्वागत कर रहे हैं ।ये सभी मिलकर धरती के समस्त कवियों की कविताओं में स्वयं को घोलकर कह रहे हैं-- आ गया ऋतुराज वसंत ।ऋतुराज वसंत --- कवियों का मनमीत ।विश्व की सभी सभ्यताओं में गूँजता प्रेम और आनंदकाल।ऋतुराज वसंत में लोक और परलोक का अटूट जुड़ाव है

    जीवन के आनंद में सदा सुख, समृद्धि और मंगल का प्रतीक बनकर ऋतुराज वसंत युगों से सृष्टि पर उतरता रहा है।सत्य यही है कि वसंत के बारे में कवियों ने जितना गाया , अपनी लेखनी से जितना लिखा वह सब कम है, अति अल्प है।वसंत तो शब्दातीत है।काव्यों व महाकाव्यों के अनंत भंडार भी कहाँ बाँध सके हैं इसे।

जीवन को आलिंगन में भरकर ढेर सारे प्यार, आनंद की वर्षा करता हुआ हम सभी के मन को उमंग व उत्साह देने ऋतुराज वसंत आ गया है
                      " आया वसंत आया वसंत "

         

सादर अभिवादन व जय श्री कृष्ण 



                   




Monday, January 6, 2020

महाशिवरात्रि पर्व की साधना का महत्व,,शिव का शाब्दिक अर्थ, शिव स्वरूप का प्रतीतात्मक अर्थ, द्वादशज्योतिर्लिंग

 {{{ महाशिवरात्रि पर्व और शिवरात्रि पर साधना का महत्व }}}
इस वर्ष ( 2020) 21 फरवरी शुक्रवार के दिन फागुन कृष्ण चतुर्दशी महाशिवरात्रि पर्व मनाया जाएगा। महाशिवरात्रि पर्व  फाल्गुन कृष्ण चतुर्दशी को मनाया जाता है ।शास्त्रों के अनुसार ऐसा माना जाता है कि सृष्टि का प्रारंभ इसी दिन हुआ था ।शास्त्रों के ही अनुसार यह भी मान्यता है कि इसी दिन भगवान शिव का विवाह माता पार्वती के साथ हुआ था।

 महाशिवरात्रि का पर्व आध्यात्मिक साधना की दृष्टि से अत्यंत महत्वपूर्ण है ।दुर्गासप्तशती में --चार महत्वपूर्ण रात्रियों का वर्णन है--- "कालरात्रिर्महारात्रि: मोहरात्रिश्च दारुणा" अर्थात कालरात्रि, महारात्रि, मोहरात्रि व दारुण रात्रि । इनमें कालरात्रि ही शिवरात्रि का दूसरा नाम है ।

रात्रि में ही सम्पूर्ण विश्व में शांति प्रसारित होती है इसके साथ ही ऊर्जा की कुछ दिव्य धाराएँ भी रात्रि में प्रवाहित होती हैं ।जिन्हें साधना के माध्यम से ही ग्रहण करना सम्भव है।महाशिवरात्रि की रात्रि में शिवलिंग की पूजा की जाती है और शिवाभिषेक, रुद्राभिषेक भी किया जाता है ।इस रात्रि में पूजा , जागरण, ध्यान साधना आदि करने से सूक्ष्म जगत के ऊर्जा प्रवाहों से सहज ही साधकों का संपर्क होता है और वे शिव के अनुदानों से अनुग्रहीत होते हैं ।

                                 इस दिन हमारे देश के सभी मन्दिरों में प्रातःकाल से ही अपार भीड़ उमड़ती है। सभी श्रद्धालु बड़ी श्रद्धा से शिवलिंग की पूजा अर्चना करते हैं और भक्ति भावना से भगवान के दिव्य दर्शन  करते हैं । शिवलिंग प्रतीक है- विश्व ब्रह्माण्ड का, जिसके कण- कण में भगवान् शिव का वास है और शिवलिंग पर विभिन्न सामग्रियों जैसे- दूध, दही, गंगाजल, घृत व सुगन्धित द्रव्य आदि से अभिषेक करने का यही तात्पर्य है कि इन विभिन्न सामग्रियों के माध्यम से हम विश्व- वसुधा को तृप्त कर रहे हैं, समुन्नत कर रहे हैं,अपने कर्मों को विभिन्न रूपों में शिवरूपी ब्रह्माण्ड को अर्पण कर रहे हैं । यह समर्पण की भावना ही हमें शिव की ओर अर्थात कल्याण की ओर ले जाती है

महाशिवरात्रि पर्व के धार्मिक अवसर पर भजन संध्या आदि कार्यक्रम भी आयोजित किए जाते हैं ।सनातन संस्कृति में इस पर्व पर व्रत व अनुष्ठानों का भी विशेष महत्व है ।इस दिन सभी शिवभक्त फलाहार ग्रहण करते हैं ।वेद- पुराणों में यह उल्लेख है कि भगवान शिव अपनी पूजा- उपासना से शीघ्र प्रसन्न होते हैं इसलिए उनका एक नाम आशुतोष भी है।

                   {{{ शिव का शाब्दिक अर्थ }}}

शिव शब्द के 'श' अक्षर में सुखशयन का समाधि सत्य है ।'इ' में त्रितापहारणी शक्ति है।'व'  अक्षर में अमृत वर्षा समायी है।शिव में कल्याण की शाश्वतता व निरंतरता है।शिव ही आदि हैं, मध्य हैं और अंत हैं ।वही नटराज हैं ।नटराज के नृत्य में ब्रह्माण्ड का छंद, अभिव्यक्ति का विस्फोट सभी कुछ छिपा है ।वही कैवल्य हैं, निर्वाण हैं, निर्बीज की महासमाधि हैं ।

                         शिव नाम स्मरण होता रहे तो स्वतः ही ज्ञान का तीसरा नेत्र खुल जाता है ।शिव में शास्त्र और संस्कृति दोनों समाए हैं ।शिव में जीवन और जगत दोनों हैं ।भगवान शिव योगेश्वर हैं ।निरंतर समाधि में लीन रहते हैं लेकिन सम्पूर्ण जगत का उन्हें ज्ञान रहता है ।वे परम तपस्वी हैं, योगी हैं ।प्रकृति स्वरूपिणी माता पार्वती उनकी अर्धांगनी हैं और परम पवित्र माँ गंगा को वह अपनी जटाओं में धारण किए हुए हैं ।

शिव का अर्थ है-- कल्याणकारी ।भगवान शिव ने कभी भी किसी के साथ भेदभाव नहीं किया ।किसी भी जाति, धर्म को महत्व नहीं दिया, उनके लिए सब समान हैं, विशेष हे तो केवल श्रद्धा भाव।राक्षसराज रावण भी शिव के उपासक रहे और यक्षराज कुबेर भी।

            {{{ शिव स्वरूप का प्रतीतात्मक वर्णन }}}

भगवान शिव के स्वरूप के पीछे गहन जीवन दर्शन विद्यमान है ।भगवान शिव का तृतीय नेत्र संज्ञान का, सूक्ष्म दृष्टि का, दिव्य अंतःकरण की ज्योति का प्रतीक है ।साथ ही इसे आज्ञाचक्र का स्थान भी कहा जा सकता है ।शिव के मस्तक पर चन्द्रमा एवं जटाओं में माँ गंगा मस्तिष्क की शीतलता के प्रतीक हैं ।जीवन में यदि सफलता चाहिए तो मस्तिष्क को शान्त रखना आवश्यक है ।
भगवान शिव द्वारा धारण किए गए चन्द्रमा व गंगा स्थिरता, पवित्रता, शांति व शीतलता के संदेश वाहक हैं ।

                भगवान शिव ने कंठ में विष धारण किया है-- यह शिक्षा देता है कि कड़वाहट व बुरे अनुभवों को बाहर व्यक्त नहीं करना चाहिए ।भगवान शिव के हाथ में त्रिशूल प्रतीक है-- तीन लोक, तीन गुण, तीन नाड़ियों आदि में संतुलन बना रहना।यदि ये सभी सम्यक रूप से क्रियाशील रहें तभी सृष्टि का संतुलन बना रह सकता है ।

              भगवान शिव के हाथ में डमरू संगीत का, जाग्रति का एवं प्रसन्नता का प्रतीक है ।संगीत के जनक भी भगवान शिव  ही माने जाते हैं ।संगीत वह शक्ति है जिससे जीवन में मृदुता है, रस है, आध्यात्म है और प्रसन्नता है।जब मानवीय चेतना सुप्त, हताश व शुष्क होने लगती है, तब शिव का डमरू ही उसे इस स्थिति से उबारता है ।इसके अतिरिक्त अनेक विरोधाभासों का श्रेष्ठ समन्वय भगवान शिव के जीवन में देखने मिलता है ।

                  शिव अनादि हैं, सृष्टि प्रक्रिया के आदि स्रोत हैं तथा वे ही महाकाल भी हैं ।सभी देवों के अधिपति हैं इसलिए उन्हें महादेव भी कहा जाता है ।महादेव गृहस्थ भी हैं और वीतरागी आदियोगी भी।उनका यह  गुण संदेश देता है कि योग के मार्ग पर चलने के लिए संसार का त्याग करना आवश्यक नहीं है ।
     
                    {{{ द्वादशज्योतिर्लिंग}}}

                                हमारे देश में जगह-जगह पर भगवान शिव के मन्दिर हैं ।भगवान शिव के द्वादशज्योतिर्लिंगों में--दक्षिण में रामेश्वर, काशी में विश्वनाथ, उज्जैन में महाकाल, गुजरात में सोमनाथ और नागेश्वर, तमिलनाडु में श्री शैलपर्वत पर मल्लिकार्जुन हैं ।हिमालय में केदारनाथ, महाराष्ट्र में त्र्यंबकेश्वर, बिहार में वैद्यनाथ धाम, असम( कामरूप) में भीमाशंकर हैं ।कश्मीर में अमरनाथ व औरंगाबाद के पास घुश्मेश्वर हैं ।भगवान शिव की भौगोलिक सीमा में ( तिब्बत) कैलाश मानसरोवर तथा नेपाल का पशुपतिनाथ भी है।
    
"सोमेश्वर नाथ तुम्हीं रामेश्वर नाथ तुम्हीं भक्ति स्वीकार करो "
           शीश गंगा की धार, गले सर्पों का हार 
          भोले तुम ही तो हो सारे जग के आधार 

  
         {{{ शिव का आध्यात्मिक व विराट स्वरूप }}}

भगवान शिव का व्यक्तित्व एवं स्वरूप समग्रता दर्शाता है।यह सृजन से संहार तक , जीवन से मृत्यु तक , संसार से वैराग्य तक का वह ज्ञान है , जो अमिट व अपूर्व है।कैलाशवासी शिव एक ओर तो परम पवित्र हिमालय में तपस्या में लीन रहते हैं तो दूसरी ओर भूतगणों के साथ शमशान में निवास करते भी माने जाते हैं ।शिव यहाँ सम्यक दृष्टि व मैत्री की शिक्षा देते हैं ।

        शिव अमृत वाहक हैं ।उन्हीं में विषपान करने की असीमित शक्ति है।भगवान शिव के तीन नेत्र हैं ।सामान्य तथा दो नेत्र सभी जीवों को प्राप्त हैं ।इसके साथ ही सूक्ष्म रूप में तीसरा नेत्र सभी जीवों को प्राप्त है।विभिन्न धार्मिक सम्प्रदायों में शिव के साकार एवं निराकार दोनों रूपों की उपासना होती है , लेकिन शिव और शक्ति साकार विग्रह माने जाने वाले शिवलिंग की पूजा- उपासना का प्रचलन सर्वाधिक है।

शिवरात्रि पर्व - पूजन, श्रावण मास में कांवड यात्रा व अन्य तीर्थयात्राएँ तथा द्वादशज्योतिर्लिंग सहित देश के विभिन्न प्रमुख शिवालयों में भी शिव- उपासना की अनेक परम्पराएँ विकसित हुई हैं ।वेद, उपनिषद् से लेकर पुराणों में तो शिव- उपासना का अत्यधिक विस्तार दिखाई पड़ता है ।शास्त्रों में शिव के विशिष्ट गुणों के आधार पर शिव के अनेक नाम कहे गए हैं , जैसे--- रुद्र, शिव, आशुतोष, मृत्युंजय, त्र्यंबक,जगद्गुरु, पशुपति आदि।

     वैदिक साहित्य में शिव को परम तत्व और सर्वोपरि शक्ति के रूप में प्रतिष्ठा प्राप्त है।शिव के आध्यात्मिक और विराट स्वरूप की वैदिक साहित्य में अनेक तरह से उपासना एवं स्तुतियाँ की गई हैं । "महाशिवरात्रि" के परम पवित्र अवसर पर  भगवान शिव की पूजा- अर्चना के पीछे हम सभी के लिए यही संदेश है कि यदि हम जीवन में शुभ कर्म करें तब ही हम कल्याणकारी शिव के प्रिय बन सकेंगे।
                " शिव शंकर से प्रेम बढ़ा लें
                  जीवन में परम पद पा लें"
 सादर अभिवादन व धन्यवाद ।
         ।।ॐ नमः शिवाय ॐ नमः शिवाय ॐनमः शिवाय ।।
  


Friday, January 3, 2020

भाषा की परिभाषा--" हिन्दी का उद्भव, हिन्दी की समृद्धता, विदेशों में व इंटरनेट पर हिन्दी का प्रयोग, 14 सितम्बर राष्ट्रभाषा दिवस व हिन्दी का उज्ज्वल भविष्य"

   ●●●  भाषा की परिभाषा व हिंदी भाषा का उद्भव ●●●
भाषा शब्द संस्कृत के 'भाष' धातु से बना है, जिसका अर्थ है-- बोलकर या लिखकर भावों की अभिव्यक्ति करना।भाषा, भावों की अभिव्यक्ति का श्रेष्ठतम माध्यम है ।भाषा के माध्यम से ही हम विचारों का आदान-प्रदान करते हैं ।भाषा के बिना विचारों का प्रकटीकरण संभव नहीं है।भाषा में निहित गुण, इन चार तथ्यों पर आधारित हैं -
● 1 भाषा एक शैली है - जिसमें कर्ता, कर्म, क्रिया आदि व्यवस्थित रूप में होते हैं ।
● 2  भाषा संकेतात्मक है।इससे जो ध्वनियाँ उच्चारित होती हैं, उनका किसी वस्तु या कार्य से सम्बन्ध होता है।
● 3 भाषा वाचिक ध्वनि संकेत है ।इसमें मानव अपनी जिह्वा के माध्यम से संकेतों का उच्चारण करता है।
● 4 भाषा यादृच्छिक संकेत है।प्रत्येक भाषा में किसी विशेष ध्वनि को किसी विशेष अर्थ का वाचक मान लिया जाता है।
                         हिंदी  में ये सभी विशेषताएँ हैं ।इसके अतिरिक्त भाषा विज्ञान की दृष्टि से हिंदी में अनेक विशेषताएँ भी हैं ।

हिंदी  भाषा की उत्पत्ति संस्कृत भाषा से हुई है ।हिंदी  भाषा की लिपि देवनागरी है ।संस्कृत के अलावा हिंदी ही एक ऐसी भाषा है, जिसे जैसे लिखा जाता है, ठीक वैसा ही बोला जाता है ।किसी भाषा की समृद्धता व सरलता इसमें निहित है, कि उस भाषा के लिखने और बोलने में भिन्नता न हो।

                        हिंदी आधुनिक आर्ष भाषाओं में से एक है।आर्ष भाषा का प्राचीनतम रूप वैदिक संस्कृत है।संस्कृत भाषा साहित्य की परिष्कृत भाषा थी।वैदिक संस्कृत में ही सभी वेद, संहिता, उपनिषद्, दर्शन आदि महान पौराणिक शास्त्रों का सृजन हुआ।

               हिंदी भाषा का उद्भव काल जानने के लिए भाषाओं के इतिहास पर दृष्टि डालें तब यह ज्ञात होता है, कि संस्कृत साहित्य विश्व का सबसे समृद्ध साहित्य है।संस्कृत पर आधारित बोल- चाल की भाषा कालांतर में परिवर्तित होकर 500 ई॰ पूर्व पाली के रूप में पहचानी गई।

पाली ईशा की प्रथम ईसवी तक रही ।पहली ईसवी तक यह और भी परिवर्तित हुई और 500  ईसवी तक उसे 'प्राकृत भाषा' की संज्ञा दी जाने लगी।कालांतर में प्राकृत भाषाओं के क्षेत्रीय रुपों से अपभ्रंश भाषाएँ प्रतिष्ठित हुईं ।इनका समय 500 ईसवी से 1000 ईसवी तक माना जाता है और इसी अपभ्रंश से ही "हिंदी भाषा" का प्रादुर्भाव हुआ । इसके बाद हिंदी में साहित्य रचना 1150 से प्रारम्भ हुई ।

                
            ●●● हिंदी भाषा की समृद्धता ●●●

               हिंदी एक समृद्ध भाषा है।भाषा विज्ञान की दृष्टि से हिंदी भाषाओं के आर्य वर्ग की एक भाषा है।वृजभाषा, अवधी, बुन्देलखण्डी आदि इसकी उपभाषाएँ हैं ।हिंदी देश की राष्ट्रभाषा है और सम्पूर्ण राष्ट्र का प्रतिनिधित्व करती है।यह भारत में सबसे अधिक बोली जाने वाली भाषा है।हिंदी भाषा का इतिहास समृद्ध है और इसका व्याकरण अत्यन्त उन्नत है।यह अत्यन्त सरल, सहज एवं लोकप्रिय भाषा है।सन् 2015 के सर्वेक्षण के अनुसार यह दुनिया की सबसे ज्यादा बोली जाने वाली भाषा बन चुकी है।

          जिस प्रकार किसी वन-उपवन का सौन्दर्य उसके विविध प्रजाति के वृक्षों- पादपों एवं पुष्पों से होता है उसी प्रकार देश का सौन्दर्य उस देश की संस्कृति व भाषा के विविध रंगों से होता है ।
हिंदी हमारी भाषा है।अपनी भाषा में भावनाओं की अभिव्यक्ति सहज एवं सरल होती है।अपनी भाषा में आत्मीयता का बोध होता है और संवाद भी सहजता से स्थापित होता है ।भाषा हमारे देश की संपदा है अतः अपनी भाषा के प्रति श्रद्धा व दूसरों की भाषा के प्रति आदर का भाव होना चाहिए ।

हिंदी के अखिल भारतीय विस्तार में सर्वाधिक योगदान भक्ति आंदोलन व स्वाधीनता आंदोलन के भक्त कवियों और गाँधी, सुभाष चन्द्र बोस जैसे लोकनायकों का भी है।हमें गर्व करना चाहिए कि हमारी हिंदी  भाषा की लोकप्रियता समस्त विश्व में बढ़ती जा रही है ।अपने देश के स्वतंत्रता संग्राम, स्वाधीनता आंदोलन का आधार हिंदी भाषा थी।स्वतंत्र भारत में राम मनोहर लोहिया ने अंग्रेजी हटाओ- हिंदी लाओ के आंदोलन का सूत्रपात किया था।

         
हिंदी हमारी संस्कृति में रची- बसी है, रगों- रगों में घुली- मिली हुई है।यह एक विशाल समाज की भाषा है।बहुसंख्यक नागरिकों से संपर्क के लिए हिंदी अनिवार्य है ।इसीलिए अपने देश में एक स्विस कम्पनी हिंदी सिखाने का व्यवसाय कर रही है।

हिंदी कई राज्यों की भाषा है, जैसे -- मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, बिहार, उत्तराखंड, झारखंड, उत्तर प्रदेश, राजस्थान आदि।इन राज्यों का प्रशासनिक कार्य हिंदी के माध्यम से ही चलता है।इस सत्य के बावजूद लोगों का अंग्रेजी के प्रति आकर्षण कम होता नजर नहीं आता है।मैकाले जैसे चतुर चालाक कूटनीतिज्ञ ने बड़ी ही चतुराई से षडयंत्र करके अंग्रेजी को सभ्य एवं सम्मानित लोगों की भाषा के रूप में प्रतिष्ठित कर दिया।लेकिन अब हमारी हिंदी भाषा भारत में ही नहीं, बल्कि विश्व में अपनी पहचान बना रही है।

      ●●● विदेशों में व इंटरनेट पर हिंदी  का प्रयोग ●●●

                         अमेरिका के 50 विश्वविद्यालयों के साथ अन्य देशों में भी हिंदी को सम्मान के साथ पढाया जा रहा है।वाशिंगटन यूनिवर्सिटी के 'डिपार्टमेंट ऑफ एशियन लेंग्वेज एंड लिटरेचर' में हिंदी साहित्य एवं भाषा के विभिन्न पाठ्यक्रम उपलब्ध हैं ।जर्मनी के स्कूलों में तो हिंदी पढ़ाने को लेकर भारतीय विदेश मंत्रालय ने जर्मन सरकार के साथ समझौता भी किया है।इसके अंतर्गत विदेश मंत्रालय आवश्यक पुस्तकें व शिक्षण-सामग्री भी उपलब्ध कराएगा

            हिंदी को अंतर्राष्ट्रीय स्तर तक पहुँचाने का कार्य भारत के गिरमिटिया मजदूरों ने किया है, जिन्हें तत्कालीन ब्रिटिश सरकार ने अपने देश से ही विलग करके अन्य देशों में अपने कार्यों के लिए भेज दिया।नेपाल, पाकिस्तान, बंगलादेश, अफगानिस्तान, कनाडा आदि के कुछ क्षेत्रों में व्यक्ति हिंदी बोलकर काम चला सकता है।

मॉरीशस में तो 'विश्व हिंदी सचिवालय' की स्थापना हुई है, जिसका उद्देश्य ही हिंदी को विश्व स्तर पर प्रतिष्ठित करना है।पड़ोसी देश चीन में इस समय कम से कम नौ विश्वविद्यालयों में हिंदी पढ़ाई जा रही है।यूरोप के कई देश भी हिंदी भाषा सीखने का प्रयास कर रहे हैं यही कारण है कि टीवी पर विदेशी चैनल भी हिंदी भाषा का प्रयोग कर रहे हैं ।

          इंटरनेट पर सन् 2000 में हिंदी का पहला वेब पोर्टल अस्तित्व में आया था और तब से इंटरनेट पर हिंदी का प्रभाव लगातार बढ़ता जा रहा है।गुगल के अनुसार इंटरनेट पर हिंदी साहित्य की खपत बढ़ती ही जा रही है।भारत में प्रचलित इंटरनेट पर अंग्रेजी की विषय सामग्री ( कंटेंट) 45% है तो हिंदी की विषय सामग्री ( कंटेंट) 55% है।इंटरनेट पर हिंदी उन सात भाषाओं में से एक भाषा है , जिसका प्रयोग वेब एड्रेस ( URL) बनाने के लिए किया जाता है ।

           ●●● 14 सितम्बर " हिंदी दिवस" ●●●

   14 सितम्बर को हमारे देश में "हिंदी दिवस" मनाया जाता है ; क्योंकि 14 सितम्बर 1949 को संविधान सभा में सर्वसम्मति से हिंदी को राष्ट्र भाषा घोषित किया गया।इसे अनुच्छेद 343 के अंतर्गत देवनागरी लिपि में सन् 1950 में राष्ट्र भाषा का दरजा दिया गया।हिंदी दिवस पर देश में ही नहीं बल्कि अन्य देशों में भी 
अनेक साहित्यिक कार्यक्रमों के अन्तर्गत साहित्यकारों को सम्मानित किया जाता है ।वरिष्ठ राजनीतिज्ञ भी इन कार्यक्रमों में  उपस्थित रहते हैं ।
                 "हिन्दी दिवस" के माध्यम से हम सभी देशवासियों की यही कोशिश है कि हम अपनी मातृभाषा को सदा प्रथम स्थान पर रखें ।विश्व के अन्य देश भी अपनी भाषा को ही महत्व देते हैं ।जापान, चीन , कोरिया आदि बहुत से देश ऐसे हैं, जो अपनी भाषा के बल पर ही यूरोप व अमेरिका से कहीं अधिक विकसित हैं ।हमें भी अपनी हिंदी भाषा का महत्व समझना होगा।

           ●●● हिंदी का उज्ज्वल भविष्य ●●●

अपने देश में हिंदी, लगभग 36 करोड़ 60 लाख लोगों की मातृभाषा है ।सन् 2005 में विश्व के 160 देशों में हिंदी बोलने वालों की अनुमानित संख्या एक अरब , दस करोड़ तीस लाख थी।
भविष्य द्रष्टाओं का कहना है कि हिंदी को विश्वभाषा के रूप में प्रतिष्ठित होने से कोई नहीं रोक सकता ।वर्तमान प्रचलन को ध्यान में रखकर यह अनुमान लगाया जा सकता है कि सन् 2022 के बाद से हिंदी की लोकप्रियता निरंतर बढ़ती जाएगी और समस्त विश्व में 2036 के बाद यह विश्वभाषा के रूप में प्रतिष्ठित हो सकती है।
हम भारतवासियों को गर्व करना चाहिए कि हमारी भाषा हिंदी है, जिसकी लोकप्रियता समस्त विश्व में बढ़ती जा रही है ।

   हिंदी हमारी राष्ट्रभाषा है ।हिंदी समृद्ध भाषा है।हिंदी हमारा गौरव है।हमारी हिंदी भाषा

का भविष्य उज्जवल है ।

सादर अभिवादन व धन्यवाद ।

Wednesday, January 1, 2020

राष्ट्रीय युवा दिवस, स्वामी विवेकानंद जयन्ती पर महान व्यक्तित्व के धनी स्वामी विवेकानंद का युवाओं को संदेश

                ●●●राष्ट्रीय युवा दिवस●●●
प्रति वर्ष  12 जनवरी को हमारे देश में स्वामी विवेकानंद जयन्ती के उपलक्ष्य में " राष्ट्रीय युवा दिवस " के रूप में मनाया जाता है ।
विशेष रूप से यह दिवस स्कूलों , काॅलेजों, सरकारी संस्थाओं व आर्यसमाज से जुड़ी हुई संस्थाओं में मनाया जाता है।'युवा' शब्द से ही उत्साह, ऊर्जा, स्फूर्ति, सक्रियता आदि गुणों का बोध होता है।' युवा शब्द वास्तव में आयु- रूप- अर्थ प्रदान करने से परे सकारात्मक गुणों, सक्रिय व्यक्तित्व का बोध अधिक करवाता है ।

स्वामी जी युवाओं के प्रेरणा स्रोत हैं, आदर्श हैं ।स्वामी विवेकानन्द एक ऐसे प्रखर युवा सन्यासी थे, जिनके विचारों को अपनाकर हमारे राष्ट्र के युवा देश को महानता की ओर ले जाने में सक्षम हो सकते हैं ।स्वामी जी ने कहा था- कि " इक्कीसवीं सदी भारत की होगी ।"  देश की कुल जनसंख्या का लगभग आधा भाग युवा वर्ग में आता है।

   "राष्ट्रीय युवा दिवस" सच में एक महान दिवस है,; क्योंकि यह भारत के युवाओं की सोई हुई शक्ति को जगाता है।यह दिवस बार- बार देश के युवाओं को  स्वामी जी के अग्नि मंत्र की याद दिलाता है---
" उतिष्ठत् जाग्रत प्राप्य वरान्निबोधत"--- अर्थात उठो, जागो और तब तक मत रुको, जब तक कि लक्ष्य पूरा न हो जाए।
उपनिषदों से निकला यह  श्लोक उन सभी भारतीय युवाओं के लिए प्रेरणा का महामंत्र है, जिन्हें शिक्षा अर्जन के पश्चात नए कार्यों के माध्यम से एक नए भारत का निर्माण करना है।
                 12 जनवरी विवेकानंद जयन्ती " राष्ट्रीय युवा दिवस" के रूप में मनाई जाती है ताकि युवाओं  के प्रेरक व प्रेरणा पुंज के रूप में भारत के युवा उन्हें याद करते हुए उनके बताए हुए रास्ते का अनुसरण करें ।

' ' ' स्वामी विवेकानंद महान व्यक्तित्व के धनी' ' ' 

स्वामी विवेकानंद एक महान राष्ट्रनिर्माता थे।वे कहते थे कि " व्यक्ति निर्माण ही मेरे जीवन का लक्ष्य है, मैं न तो कोई नेता हूँ और न ही समाज सुधारक ।मेरा काम ही व्यक्ति निर्माण और चरित्र निर्माण है।स्वामी जी जाति और नस्ल से परे मानवता के उत्थान में विश्वास रखते थे।वह सिद्ध आध्यात्मिक उपदेशक थे , जिन्होंने पश्चिमी दुनिया को भी योग और वेदान्त से परिचय कराया।वे पश्चिम और पूर्व के बीच एक सेतु की तरह रहे, जिन्होंने मानवता की आध्यात्मिक आधारशिला को सशक्त बनाने में अतुलनीय योगदान दिया।

                                स्वामी विवेकानंद का व्यक्तित्व व उनके विचार शाश्वत हैं ।उन्होंने भारतीय संस्कृति के मूल तत्वों को एवं वेदों व उपनिषदों के ज्ञान को जन सामान्य के लिए इस तरह प्रस्तुत किया कि आज उनके प्रेरणादायक विचार लोगों के लिए अग्निमंत्र बन गए हैं ।उन्होंने यह भी कहा था - कि " यह खूबसूरत धरती लंबे समय से तमाम खाँचों में बँटे समाज , धर्मांधता और उसके खतरनाक प्रभावों से बेरंग होती चली जा रही है।

            स्वामी विवेकानंद के अनुसार--- "भारत का पुनरुत्थान होगा, पर वह जड़ की शक्ति से नहीं, बरन् आत्मा की शक्ति द्वारा होगा।वह उत्थान शान्ति और प्रेम की ध्वजा से होगा; संन्यासियों के वेश से व धन की शक्ति से नहीं, बल्कि भिक्षापात्र की शक्ति से संपादित होगा।उनका कहना था--- कि त्याग करो, महान बनो।कोई भी बड़ा कार्य त्याग के बिना नहीं किया जा सकता।

स्वामी विवेकानंद जी ने सन् 1893 में 'विश्व धर्म संसद' में ऐतिहासिक व्याख्यान में यह कहा था कि -- मुझे अपने धर्म पर गर्व है , जिसने सहिष्णुता और सार्वभौमिकता की शिक्षा दी।मुझे अपने देश पर भी गर्व है जिसने दुनिया के सभी धर्मों और सभी देशों के लोगों को शरण दी।

स्वामी विवेकानंद के वचन आज भी युवापीढ़ी के लिए प्रेरक व मार्गदर्शक हैं ।उन्होंने कहा था --- मेरा विश्वास युवापीढ़ी में है ।वे सिंहों की भाँति सभी समस्याओं का हल निकालेंगे ।उन्हीं के प्रयत्न व पुरुषार्थ से भारत देश गौरवान्वित होगा।।

       मानवता की प्रगति व अस्तित्व के लिए उन्होंने अध्यात्म की अहमियत पर बल दिया।भारतीय संस्कृति के स्वर्णिम स्वरूप को उन्होंने साकार देखा।उन्होंने देखा कि भारतमाता की धमनियों में दौड़ने वाला रक्त प्रवाह- प्राण प्रवाह और कुछ नहीं बस अध्यात्म ही था।इसके विकृत होने से ही भारत देश का पतन हुआ ।

स्वामी विवेकानंद बचपन से ही प्रतिदिन भगवान् शिव जी की मूर्ति के सम्मुख ध्यान करते थे।परिणामस्वरूप प्रतिदिन शयन के पूर्व उन्हें एक अद्भुत दर्शन होता था।स्वामी जी को शयन के समय आँख मूँदते ही आज्ञा चक्र में निरंतर परिवर्तनशील रंगों का एक ज्योतिपुंज दिखाई पड़ता था ।उसका अवलोकन करते हुए वे धीरे धीरे-धीरे निद्रा में डूब जाया करते थे

एक बार भारत भूमि के अंतिम छोर पर, महासागरों के संगम स्थल पर , जगन्माता की तपस्थली में, ध्यान की गहन अवस्था में------
जगन्माता उन्हें अनुभव करा रही थी कि नवभारत का निर्माण  सर्वोच्च आध्यात्मिक चेतना की नव प्रतिष्ठा से होगा।

' ' ' स्वामी विवेकानंद का युवाओं को संदेश ' ' ' 

स्वामी विवेकानंद ने युवा शक्ति का केंद्र शारीरिक बल को नहीं बरन् मानसिक क्षमताओं को माना।स्वामी विवेकानन्द के अनुसार सारी शिक्षा का ध्येय है--- व्यक्तित्व का विकास ।
उन्होंने मात्र 39 वर्ष का जीवन जिया , इसके बावजूद उन्होंने अपने विचारों व कार्यों से पूरे विश्व को एक नई दिशा प्रदान की।उनके विचार शाश्वत हैं, प्रासंगिक हैं ।उनके कुछ संदेशों में से कुछ इस प्रकार हैं--

1-  स्वामी जी के अनुसार-- आत्मविश्वास सबसे महत्वपूर्ण ।स्वयं पर भरोसा रखने से ही युवा शक्ति कुछ काम कर सकती है।

2-  ज्ञान प्राप्त करने के लिए तन और मन दोनों का स्वस्थ रहना  आवश्यक हैं ।

3-  उनका कहना था-- हम स्वयं को शरीर नहीं, आत्मा समझें ।ऐसी आत्मा, जो शक्तिशाली परमात्मा का अंश है।इससे हीनता- बोध समाप्त होकर आत्मविश्वास बढ़ता है ।

4-  स्वामी जी के अनुसार -- सेवा की भावना, शान्ति, कर्मठता आदि गुण संयम से आते हैं ।संयमी व्यक्ति तनाव से मुक्त होता है, इसलिए वह हर कार्य गुणवत्ता से करता है।


5-  स्वामी विवेकानंद ने कहा है कि--- " किसी भी क्षेत्र में शासन वही व्यक्ति कर सकता है, जो खुद अनुशासित होता है ।"

6-  वे कहते हैं कि हममें से हर कोई सम्राटों के सम्राट का भी उत्तराधिकारी है।इसलिए हर तरह का भय त्यागकर-- हमेशा यह सोचें कि मेरा जन्म कोई बड़ा कार्य करने के लिए हुआ है।

7-  उनका कहना था -- कि सारी शक्ति तुम्हारे अन्दर ही है।तुम्हीं अपने मददगार हो, कोई दूसरा तुम्हारी मदद नहीं कर सकता।

8-  स्वामी विवेकानंद ने निस्वार्थ भाव से सेवा करने को सबसे बड़ा कर्म माना है।

9-  स्वामी विवेकानंद के अनुसार--- आत्मा परम शक्तिशाली है, यही ईश्वर है।इसलिए अपने आत्मतत्व को पहचानकर उसकी शक्ति को जगाएँ।

10-  स्वामी जी कहते थे -कि उपनिषद् का प्रत्येक पृष्ठ मुझे शक्ति- संदेश देता है।उपनिषद् कहते हैं --हे मानव ! तेजस्वी बनो, वीर्यवान बनो ,

11-  दुर्बलता को त्यागो।तुममें सारी शक्ति अन्तर्निहित है।तत्पर हो जाओ और तुममें जो देवत्व छिपा है , उसे प्रकट करो।

12-  उनका कहना था -कि हमें ऐसे धर्म की आवश्यकता है, जिससे हम मनुष्य बन सकें ।हमें ऐसी सर्वांगीण शिक्षा की आवश्यकता है, जो हमें मनुष्य बना सके।

13-  उनका कहना था कि-- जो भी तुम्हें शारीरिक,मानसिक और आध्यात्मिक दृष्टि से दुर्बल बनाए, उसका त्याग कर दो।

14-  स्वामी विवेकानंद के अनुसार-- संसार में जब आए हो तो एक स्मृति छोड़कर जाओ।कोई भी काम छोटा नहीं होता ।निरंतर उन्नति के लिए प्रयत्न करते रहो।

15-  वे कहते थे --कि धर्म के बारे में कभी झगड़ा मत करो।धार्मिक झगड़े सदा खोखली बातों के लिए होते हैं ।

16-  उनका कहना था कि --दान से बढ़कर और कोई धर्म नहीं है ।सबसे उत्तम पुरुष वह है जिसका हाथ हमेशा खुला रहता है।

' ' ' आधुनिक भारत की युवाशक्ति' ' ' 

         नए सर्वेक्षण बताते हैं कि कुछ एक अपवादों को छोड़कर भारतीय युवा इस समय दुनिया के सबसे जागरूक युवाओं में से एक हैं ।आज दुनिया-   अमेरिका और चीन के बाद भारत को तीसरी शक्ति के रूप में स्वीकार करने को मजबूर है।युवाओं की सक्रिय भागीदारी ही -- सामाजिक हलचल और राजनीतिक दिशा- बोध का सूचकांक होती है।

आज भारत की तरह दुनिया का कोई और देश ऐसा नहीं है, जो युवाओं की इतनी बड़ी आबादी के साथ तरक्की की राह पर तेज गति से अग्रसर है ।हम भारतीय सदा से ही  'सर्व धर्म समभाव ' में विश्वास करने वाले और सदैव शान्ति और सौहार्द की कामना वाले रहे हैं ।

देश के युवाओं को अपने गौरवशाली इतिहास का स्मरण करते हुए, श्रेष्ठ विचारों को अपनाते हुए आगे बढ़ना होगा।"राष्ट्रीय युवा दिवस " की सार्थकता इसी में है कि देश का हर युवक स्वामी विवेकानंद जी के आदर्शो का अनुसरण करे और उनके विचारों को बार- बार पढ़कर अपने जीवन में आत्मसात् करे।

एकाग्र मन और निर्मल अंतःकरण से ओतप्रोत युवा ही आज के युग की माँग को पूरा कर सकते हैं, स्वामी जी के स्वप्नों के युवा ही  देश को महान बना सकते हैं ।ऐसे युवाओं से ही "विवेकानंद जयन्ती" और "राष्ट्रीय युवा दिवस "  की सार्थकता सिद्ध हो सकती है।

सादर अभिवादन व जय श्री कृष्ण ।