संत रविदास जी का जन्म वाराणसी में सं० 1456 विक्रमी में बनारस के दक्षिणी छोर पर स्थित सीर गोवर्धन में हुआ था । उनके पिता का नाम रघु जी और माता का नाम विनिया था। रविदास जी के पिता चमड़े का व्यापार करते थे और जूते बनाते थे। बचपन से ही रविदास ( रैदास ) का मन भगवान की भक्ति की ओर मुड़ता जा रहा था।जब उनके पिता ने उनका विवाह करना चाहा तो उन्होंने मना कर दिया लेकिन माता- पिता के बार- बार आग्रह करने पर उन्होंने विवाह कर लिया।उनका विवाह एक समृद्ध परिवार की कन्या लोणा के साथ संपन्न हुआ ।
संत रविदास जी बचपन से ही बड़े उदार स्वभाव के थे।वे प्रतिदिन एक जोड़ा जूता अपने हाथ से बनाकर जरूरत मंदों को दान करते थे। उनका परिवार आर्थिक रूप से बहुत समृद्ध नहीं था इसलिए उनका दान करने का स्वभाव उनके पिता को पसन्द नहीं था।इस कारण उनके पिता ने उनको उनकी पत्नी के साथ अलग कर दिया और उन्हें रहने के लिए छप्पर का एक बाड़ा दे दिया ।इस बात से रविदास को जरा भी दुःख नहीं हुआ ।अब वे और भी परिश्रम व मनोयोग से बढ़िया जूते बनाकर अपना गुजारा भी कर लेते थे और जरूरत मन्दों को जूते दान भी दे देते थे।गोस्वामी तुलसीदास जी कहते हैं कि " संत हृदय नवनीत समाना " अर्थात संत का हृदय मक्खन की तरह होता है।
अपने पारिवारिक जीवन को उन्होंने इस तरह संयमित, सुव्यवस्थित बनाया कि उनके पारिवारिक जीवन में कभी सुख- शान्ति की कमी नहीं हुई और उनकी आत्मोन्नति में भी कोई बाधा नहीं आई।उनकी धर्पमत्नी लोणा ने सदा उनका साथ दिया।संत रविदास जी का कहना था कि सच्ची साधना तो मनोनिग्रह है और यदि मन को नियंत्रण में रखा जाए तो घर- बाहर सर्वत्र वैराग्य ही वैराग्य है।
उच्चस्तरीय जीवात्माएँ कहीं भी जन्म ले लें उनके सद्गुणों की सुगन्ध चारों ओर स्वतः ही बिखर जाती है।संत रविदास जी भी ऐसे ही अनुपम उदाहरण थे।उन्होंने यह सिद्ध किया कि जाति से कोई महान नहीं होता , व्यक्ति यदि महान बनता है तो अपने कर्म व गुणों से।संत रविदास जी के समकालीन अनेक संत- महात्मा हुए , जैसे-- गुरू गोविन्द सिंह, रामानंद, कबीर, तुकाराम, मीरा आदि।
यवन काल के उत्पातों से जनता किंकर्तव्यविमूढ़ सी हो रही थी ।
आंतरिक फूट के कारण बहुसंख्यक जनता मुठ्ठी भर विदेशी आततायियों द्वारा बुरी तरह पददलित की जा रही थी।ऐसी परिस्थितियों में आशा की नवज्योति के रूप में भारत में 'संत मत'
का प्रादुर्भाव हुआ, जिसने धर्म और ईश्वर पर डगमगाती हुई जनता की आस्था को पुनः सजीव करने की सफल कोशिश की।संत रविदास जी भी इसी माला का एक मनका थे।
संत रविदास जी का जीवन गृहस्थों के लिए ही नहीं, वरन संतों के लिए भी आदर्श है।संत व्यक्ति वह है जिसकी भावनाएँ आकाश की तरह विशाल व गंगा की तरह निर्मल होती हैं ।ऐसे व्यक्तियों का जीवन ही परोपकारी हो जाता है। इनके लिए अपना कुछ नहीं होता, सब कुछ भगवान का होता है।भर्तृहरि संतों के बारे में कहते हैं-- " संतः स्वयं परहिते विहिताभियोगाः ।" अर्थात संत सदा स्वयं को परहित में लगाए रहते हैं और इस प्रकार ये सतत परोपकार में लगे रहते हैं ।
{{{{{ हरि को भजे सो हरि का होए }}}}}
उस समय हरिजन जातियों को सवर्णों से दबकर रहना पड़ता था।उन्हें अछूत माना जाता था।लेकिन संत रविदास ने अपने जीवन से एक अनुपम उदाहरण प्रस्तुत करके यह सिद्ध किया कि " जाति- पाँति पूछे नहीं कोय, हरि को भजे सो हरि का होए " ।
'निम्न जाति के लोगों को भक्ति का अधिकार नहीं है ' ऐसी धारणा वाले लोगों ने संत रविदास को प्रारंभ से ही यातना देना शुरू कर दिया ।उनके इस अनुचित दबाव का लाभ अन्य धर्मों के लोगों को मिलता था।वे बहकाकर ऐसे पीड़ित लोगों का धर्म- परिवर्तन करा देते थे।संत रविदास जी एक ओर अपने लोगों को समझाते--- " तुम सब हिन्दू जाति के अभिन्न अंग हो , तुम्हें अपने मानवीय अधिकारों के लिए संघर्ष करना चाहिए " । तो दूसरी ओर वे कुलीनों से टक्कर लेते और कहते -- " वर्ण-विभाजन" का संबंध धर्म से नहीं, मात्र सामाजिक व्यवस्था से है।संत रविदास जी ने आदर्शों का प्रतिपादन करते हुए धर्म परिवर्तन करने वाले लोगों से कहा---
हरि सा हीरा छाड़ि कै , करै आन की आस।
ते नर नरकै जाहिंगे , सत भाषै रैदास ।।
संत रविदास जी का जीवन संघर्षों में ही बीता ।लेकिन इससे वे कभी निराश नहीं हुए और सदा सत्य की राह पर ही चले।विधर्मियों की पराधीनता की भर्त्सना करते हुए भारतीय समाज के लोगों को ललकारते हुए कहा ---
पराधीन का दीन क्या, पराधीन वेदीन ।
पराधीन परदास को , सब ही समझें दीन।।
संत रविदास की सच्चाई में कितनी निष्ठा है यह परख करते हुए रामानंद जैसे महान संत एक दिन स्वयं उनकी कुटिया में पधारे।और उन्हें अपने शिष्य के रूप में स्वीकार किया।माना जाता है कि उन्होंने यह परम्परा मीरा को अपनी शिष्या बनाकर आगे बढ़ाई ।
संत रविदास गुरु प्रदत्त मंत्र और उपदेशों के सहारे आत्मोन्नति करने लगे।वे कथाओं के माध्यम से लोगों को धर्मोपदेश देते थे। उनकी सीधी, सच्ची, मधुर वाणी में अमृत वचन सुनने के लिए हजारों लोग इकठ्ठे होते , उनमें से अधिकांश अन्य जातियों के होते।उनके जीवन में अनेक चमत्कारी घटनाओं के प्रसंग घटित हुए।इनकी ख्याति से प्रभावित होकर तात्कालिक बादशाह सिकंदर लोदी ने उन्हें दिल्ली आने का आमंत्रण भेजा था।वे स्वयं मधुर तथा भक्तिपूर्ण भजनों की रचना करके भावविभोर होकर सुनाते।
इस प्रकार धर्म प्रचार से जहाँ एक ओर उनकी प्रसिद्धि बढ़ रही थी, वहीं दूसरी ओर उनके विरोधी भी बढ़ते जा रहे थे।लोग उनसे मन ही मन ईर्ष्या करने लगे । और ईर्ष्या भावना के कारण उनकी निंदा करते,व्यंग्य और उपहास करते और तरह-तरह के लांछन भी
लगाते।इस पर वह हँस देते और कहते कि -- " हाथी अपने रास्ते चला जाता है, उसे किसी के धूलि फेंकने या चिढ़ाने से विचलित होने की जरुरत नहीं होती।" जो साहसी, धैर्यवान और सच्चा होता है , सारा संसार विरोधी होकर भी उसका कुछ नहीं बिगाड़ सकता। इस तरह निडर होकर संत रविदास ने अपना धर्मप्रचार जारी रखा ।
संत रविदास जी के बारे में कबीर कहते हैं ---'
साधुन में रविदास संत हैं, सुपच ऋषि सौ मानिया।
हिंदू तुर्क दुई दीन बने हैं, कछु नहीं पहचानिया ।।
सिक्खों के प्रथम गुरू नानक ने भी अपने काव्य में कहा है---कि संतई केवल किसी जाति विशेष का व्यक्ति ही नहीं कर सकता , बल्कि वह हर व्यक्ति कर सकता है , जिसका मन पाक साफ है।
सिक्खों के धर्म ग्रन्थ "गुरु ग्रन्थ साहिब" में भी संत रविदास जी के 40 पद सम्मिलित किए गए हैं ।उनकी विद्वता को बड़े-बड़े विद्वान भी स्वीकार कर उन्हें प्रणाम करते हैं ।
रैदास ने अपनी काव्य रचनाओं में सरल, व्यावहारिक ब्रजभाषा का प्रयोग किया है, जिसमें अवधी , राजस्थानी, खड़ी बोली और उर्दू-फारसी के शब्दों का भी मिश्रण है।उनको उपमा, रूपक अलंकार विशेष प्रिय थे।इन्होंने सीधे सादे पदों में अपने हृदय के भाव बड़ी स्पष्टता से प्रकट किए हैं ।इनका आत्मनिवेदन,दिव्य भाव और सहज भक्ति पाठकों के हृदय को उद्वेलित करते हैं ।
संत रविदास ( रैदास ) जी ने तत्कालीन पाखंडों और अंधविश्वासों का काफी विरोध किया ।उन्होंने घृणा का बदला घृणा से नहीं अपितु प्रेम से किया , इसलिए वे सभी के लिए प्रेरणास्रोत बन सके।वे कहते थे ---" अहंकार त्यागने पर ही ईश्वर की प्राप्ति हो सकती है।" संत रविदास जी के पास भगवान की एक चतुर्भुजी मूर्ति थी।जब वे श्रहरि की ओर निहारते , तब उनके मुख से यही निकलता----
अब कैसे छूटे नाम- रट लागी ।।
प्रभु जी तुम चन्दन हम पानी ।
जाकी अंग-अंग बास समानी ।।
प्रभु जी ! तुम दीपक, हम बाती ।
जा की जोत बरै दिन - राती ।।
प्रभु जी ! तुम मोती हम धागा ।
जैसे सोनहिं मिलत सुहागा ।।
संत रैदास जी के लगभग 200 पद मिलते हैं, जिनकी भाषा सरल है, किंतु भाव की तन्मयता के कारण प्रभावशाली हैं ।संत रविदास जी गुरु-भक्ति, नाम-स्मरण , प्रेम, कर्तव्य-पालन तथा सत्संग को महत्व देते थे।
संत रविदास जी का कहना था -- यदि ऊँचे बनना चाहते हो , तो बड़े कर्म करो , जाति से महानता नहीं मिलती ।जो जाति- पाँति
और ऊँच- नीच का भेदभाव करते हैं, वे ईश्वर के प्रिय नहीं हो सकते ; क्योंकि सभी ईश्वर की रचना हैं ।उनके व्यक्तित्व से प्रभावित होकर उस समय जाति-पाँति को मानने वाले समाज ने भी उन्हें संत की पदवी दी तथा उनकी महानता को स्वीकार कर लिया।
आज जो देश का माहौल है इस माहौल में रविदास जी के उपदेश प्रेरणादायक हो सकते हैं ।संत रविदास जी का जीवन मानवता के लिए एक ऐसी मिसाल है जो सदैव स्मरणीय है ।संत रविदास जी का जीवन केवल गृहस्थों के लिए ही नहीं, वरन संतों के लिए भी आदर्श है। 120 वर्ष की दीर्घायु पाकर वे ब्रह्मलीन हुए।उनके पंथ के अनुयायी अपने को 'रैदासी' कहते हैं ।आज भी संत रविदास जी इस संसार में रवि ( सूर्य ) के समान प्रकाशित हैं ।संत रविदास के विचारों की छाप भारतीय मन-मस्तिष्क पर अमिट बनी रहेगी।
माघ पूर्णिमा के अवसर पर हर वर्ष बनारस के सीर गोवर्धन में संत रविदास जी की स्मृति में बड़ा आयोजन होता है, जिसमें पूरे भारत से बड़ी संख्या में लोग शामिल होते हैं ।
सब एक हों, सब नेक हों, चाहे धर्म उनके अनेक हों ।
हे जगत के पालक जगत में, शांति की धारा बहा ।।
संत रविदास जी के विचारों को जानकर हम यह कह सकते हैं--
"जाति-पाँति पूछे नहीं कोय , हरि को भजे सो हरि का होए"