head> ज्ञान की गंगा / पवित्रा माहेश्वरी ( ज्ञान की कोई सीमा नहीं है ): September 2020

Wednesday, September 30, 2020

सादगी में महानता, स्वामी विवेकानंद, नोबेल पुरस्कार विजेता मैडम क्यूरी एवं पाटलिपुत्र के महामंत्री आचार्य चाणक्य की सादगी के उदाहरण ।

              ●●● सादगी में महानता ●●●

 सादगी में महानता छिपी होती है ।सादा जीवन जीने वाले व्यक्तियों का रहन-सहन भले ही सामान्य दीखता हो, लेकिन उनके कार्य असाधारण होते हैं ।देश में जो भी महापुरुष हुए हैं, उन्होंने सादगी को अपनाया है, सादा जीवन अपनाकर, सरल बने रहकर बड़े और महान कार्य किए हैं ।

          यह सत्य ही है कि व्यक्ति की पहचान उसके वस्त्रों से नहीं, उसके कार्यों व आचार-विचार से होती है।इसके विपरीत जो व्यक्ति अपने रहन-सहन में सादगी नहीं अपनाते, हर पल दूसरों को आकर्षित करने हेतु प्रयासरत रहते हैं, वे कभी भी विशेष कार्य नहीं कर पाते ।

  ●● स्वामी विवेकानंद जी की सादगी के कुछ उदाहरण ●●
एक बार अमेरिका में स्वामी विवेकानंद पगड़ी बाँधे, चादर डाले शिकागो की एक गली में घूम रहे थे, उनकी वेशभूषा को देखकर एक महिला ने अपने पुरुष मित्र से कहा-- " जरा इन महाशय को देखिए ।कैसी अनोखी पोषाक है ।यह सुनकर स्वामी जी ने उस महिला को उत्तर दिया --- " बहन मैं जिस देश से आया हूँ, वहाँ पर वस्त्र नहीं, चरित्र को सज्जनता की कसौटी माना जाता है।" उनके इस उत्तर ने महिला को हतप्रभ कर दिया।

यह एक और  घटना तब की है जब स्वामी विवेकानंद जी की ख्याति न सिर्फ अमेरिका में, बल्कि पूरी दुनिया में फैल चुकी थी ।एक दिन स्वामी जी के एक अमेरिकी शिष्य ने स्वामी जी से कहा -- " मैं आपके गुरु को देखना चाहता हूँ ।मैं जानना चाहता हूँ कि आखिर कैसा होगा वह व्यक्ति, जिसने आप जैसे शिष्य को तैयार किया ? " स्वामी जी ने उस शिष्य को श्री रामकृष्ण परमहंस का फोटो दिखाया ।

स्वामी रामकृष्ण परमहंस के फोटोग्राफ देखकर वह बोला -- मुझे ऐसा लगता था कि आपके गुरु अत्यन्त विद्वान व सभ्य होंगे, परंतु फोटोग्राफ देखकर मुझे ऐसा प्रतीत नहीं होता ।"  शिष्य की बात सुनकर स्वामी विवेकानंद जी बोले --- " तुम्हारे देश में सभ्य पुरुषों का निर्माण एक दरजी करता है, जब कि हमारे देश में सभ्य पुरुषों का निर्माण आचार-विचार करते हैं ।इस कसौटी पर कसकर बताओ कि तुम्हारे मुल्क के सूट-बूटधारी जेन्टलमैन सभ्य हैं या मेरे गुरु परमहंस ? " 

 इस व्याख्या को सुनकर वह अमेरिकी शिष्य निरुत्तर हो गया ।उसने स्वीकार किया, कि उसे स्वामी जी के उदाहरण से व्यक्तित्व को परखने की एक नई दृष्टि मिली ।

अक्सर हम लोगों की पहचान उनकी वेशभूषा, पहनावे के ढंग आदि से करते हैं, विशेष पहनावे वाले व्यक्ति को विशेष मानते हैं और सामान्य ढंग के पहनावे वाले व्यक्ति को सामान्य व्यक्ति समझते हैं , लेकिन विशेष व्यक्ति वे होते हैं, जो पहनावे को महत्व न देकर कार्य को महत्व देते हैं , वे अपने कार्य को इतना महत्व देते हैं कि उनका अपने पहनावे पर ध्यान ही नहीं जाता वे सदा सादा जीवन ही जीते हैं ।इसी का एक प्रशंसनीय उदाहरण मैडम क्यूरी का है।

 ●● नोबेल पुरस्कार से सम्मानित मैडम क्यूरी की सादगी ●●
बात उन दिनों की है जब मैडम क्यूरी को भौतिकी में नोबेल पुरस्कार का सम्मान मिला था, इससे उनकी ख्याति दुनिया भर में फैल गई थी ।हर तरह के लोग उनसे मिलने और उनके बारे में जानने को उत्सुक रहते थे, लेकिन मैडम क्यूरी को इन सब में कोई खास दिलचस्पी नहीं थी ।वे अपनी उपलब्धि व प्रसिद्धि से बेखबर रहतीं थीं ।उनके रहन-सहन व स्वभाव में कोई परिवर्तन नहीं आया ।वे बस अपने काम में व्यस्त रहतीं थीं ।दिन-रात अध्ययन व शोधकार्य में लगी रहतीं थीं ।

                  एक बार प्रसिद्ध अखबार का संवाददाता उनका साक्षात्कार ( इंटरव्यू ) लेने उनके घर पहुँचा। मैडम क्यूरी का रहन-सहन इतना सादा था कि बाहर बैठी मैडम क्यूरी को घर की नौकरानी समझकर पूछने लगा --- " क्या घर की मालकिन घर पर हैं ? " मैडम क्यूरी ने कहा-- " जी आपको क्या काम है ?"  संवाददाता ने बेरुखी से कहा --- " मैं यह काम मालकिन को ही बता सकता हूँ ।"
यह सुनकर मैडम क्यूरी ने कहा--- " मैं ही मैरी क्यूरी हूँ ।आप मुझे कार्य बता सकते हैं ।"  यह सुनकर संवाददाता बहुत शर्मिंदा हुआ और अनजाने में हुए अपने व्यवहार के लिए क्षमा माँगने लगा।मैडम क्यूरी ने उसको सम्मान के साथ अंदर बुलाया और समझाते हुए कहा - " लोगों को उनकी वेशभूषा से नहीं, उनके विचारों और कार्यों से पहचानना चाहिए ।

व्यक्ति अपने पहनावे व रहन-सहन से विशेष नहीं बनता, बल्कि अपने उच्च विचारों श्रेष्ठ कर्मों से महान बनता है।पाटलिपुत्र के महामंत्री आचार्य चाणक्य ऐसे ही महापुरुषों में से एक थे ।वे बड़े ही सीधे-सरल स्वभाव के, ईमानदार, विद्वान और न्यायप्रिय व्यक्ति थे ।

  ●● पाटलिपुत्र के महामंत्री आचार्य चाणक्य की सादगी ●●
पाटलिपुत्र के महामंत्री आचार्य चाणक्य इतने बड़े पद पर होने के बाबजूद साधारण कुटिया में रहते थे।कोई सोच भी नहीं सकता था कि एक देश का महामंत्री इतने सरल ढंग से भी रहता होगा ।उनका रहन-सहन आम जनता के आदमी की तरह था ।एक बार यूनान का राजदूत उनसे मिलने राजदरबार पहुँचा।राजनीति और कूटनीति में दक्ष चाणक्य की चर्चा सुनकर राजदूत मंत्रमुग्ध हो गया ।राजदूत ने शाम को चाणक्य से मिलने का समय माँगा।आचार्य चाणक्य ने कहा --- " आप रात को मेरे घर में आ सकते हैं ।" 

यूनानी राजदूत शाम को राजमहल परिसर में आया और महामंत्री आचार्य चाणक्य के निवास का पता पूछने लगा।राजप्रहरी ने उसे बताया कि आचार्य चाणक्य तो नगर के बाहर रहते हैं ।राजदूत ने सोचा --- शायद महामंत्री का नगर के बाहर सरोवर के पास एक सुन्दर महल होगा ।आखिर वे एक देश के महामंत्री हैं तो उनका महल भी सुन्दर ही होगा।ऐसा सोचते हुए राजदूत नगर के बाहर पहुँचा ।वहाँ पहुँचकर एक नागरिक से उसने पूछा कि महामंत्री चाणक्य कहाँ रहते हैं ?

यूनानी राजदूत के पूछने पर नागरिक ने एक कुटिया की ओर इशारा करते हुए कहा -- " देखिए ! वह सामने महामंत्री की कुटिया है।यह सुनकर राजदूत आश्चर्यचकित रह गया ।उसने कुटिया में पहुँचकर चाणक्य के चरण-स्पर्श किए और कहा-  "आप इतने बड़े पद पर होने के बाबजूद एक कुटिया में क्यों रहते हैं? "  चाणक्य ने राजदूत से कहा -- " अगर मैं जनता की कड़ी मेहनत और पसीने की कमाई से बने महलों में रहूँगा तो मेरे देश के नागरिकों को कुटिया भी नसीब नहीं होगी।"  यह सुनकर यूनान का राजदूत उनके समक्ष नतमस्तक हो गया ।

सादगी ही व्यक्ति से महान कार्य करवाती है , उसे महान बनाती है।
यदि इतिहास पर दृष्टि डालें तो हम पाएँगे कि अनेक महान पुरुषों ने सादगी को अपनाकर ही महानता हासिल की है ।

सादर अभिवादन व धन्यवाद ।

Tuesday, September 29, 2020

उपासना - श्रद्धा का चरम समर्पण परमात्मा से इच्छित वस्तु की माँग करना उपासना नहीं, उपासना एक ऐसी अवस्था जिसमें दिव्यता प्रकट हो जाए ,उपासना से कष्टों को स्वीकार करने की सामर्थ्य में वृद्धि ।

          ●●●उपासना- श्रद्धा का चरम समर्पण●●●
उपासना शब्द की उत्पत्ति 'उप' व 'आसन' इन दो शब्दों के परस्पर जुड़ जाने से हुई है ।उप का अर्थ है -- समीप और आसन का अर्थ है --- बैठना ।ईश्वर की उपासना अर्थात ईश्वर के समीप बैठना ।उपासना के प्रभाव से मनुष्य सत्पथ पर चलता है ।पवित्रता तथा प्रखरता का अनुगामी बनता है ।निरंतर उपासना करना ही आत्मोन्नति का सर्वश्रेष्ठ मार्ग है ।

उपासना का अर्थ है--- श्रद्धा का चरम समर्पण ।श्रद्धाविहीन उपासना संभव नहीं है ।उपासना श्रद्धा की दिव्य अनुभूति है।जब साधक की चेतना श्रद्धा के परम शिखर पर आरूढ़ होती है, तो उपासना सधती है, सिद्ध होती है।बिना श्रद्धा उपासना संभव नहीं  ।श्रद्धा के बिना जो कुछ होता है, वह उपासना नहीं होती, उसे तो मात्र आडंबर या प्रदर्शन ही कहा जा सकता है ।

उपासना में परमात्मा के अकल्पनीय और सर्वव्यापी स्वरूप की अनुभूति का आनन्द मिलता है।उपासना और उसकी दिव्य अनुभूतियाँ केवल तभी संभव हैं, जब हमें उपासना में ही आनंद मिलता है।उपासना से ही व्यक्तित्व में श्रेष्ठ गुणों का समावेश होता है।

उपासना में अपने इष्ट या गुरु के पास बैठने का भाव रहता है व उनका भावपूर्ण सुमिरन, चिंतन, मनन और ध्यान किया जाता है सामान्यतया जप और ध्यान भी - उपासना के अंग हैं ।उपासना कुछ मिनट से लेकर कुछ घंटों तक की हो सकती है, लेकिन इसके प्रभाव को बनाए रखने के लिए पात्रता साधना के आधार पर ही विकसित होती है।उपासना की क्रिया स्वयं में परिपूर्ण है।

●●उपासना ऐसी अवस्था जिसमें दिव्यता प्रकट हो जाए●●

उपासना का अर्थ है-- दैवीय शक्तियों के समीप बैठना ।उपासना का आयोजन करने के लिए अपने आप को छोड़ देने की जरूरत है -- मुक्त, शांत , रिक्त, निर्विचार, शिथिल -- एक ऐसी अवस्था, जिसमें दिव्यता प्रकट हो जाए।फिर कहाँ किस स्थिति में स्वयं को छोड़ दिया, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता; क्योंकि परमात्मा हर जगह विद्यमान हैं ।

जब तक हम अपने आप को पकड़े रहते हैं, तब तक परमात्मा की अनुभूति हमें नहीं होती , लेकिन जैसे ही हम परमात्मा से जुड़ने के लिए स्वयं को छोड़ देते हैं, तभी परमात्मा हमें थाम लेते हैं ।उपासना की प्रक्रिया में हमें परमात्मा के लिए स्वयं को छोड़ना होता है और परमात्मा के आगमन की प्रतीक्षा करनी होती है।

उपासना यानी शांत होकर बैठ जाना , आसन लगाकर स्थिर होकर बैठ जाना ।परमात्मा को उनके आगमन  के लिए निमंत्रण देकर बैठ जाना ।हम जितनी आतुरता से उनके आगमन की प्रतीक्षा करते हैं, उससे अधिक परमात्मा हमसे मिलने के लिए आतुर होते हैं लेकिन उनके निवास के लिए हमारे अन्दर उपयुक्त स्थान नहीं होता, इसलिए वे अल्प समय के लिए ही आ पाते हैं ।जब हम इस बात पर ध्यान देते हैं, तब हमारे लिए उपासना के क्षण आनंद के क्षण बन जाते हैं ।

उपासना में जब शांत, मौन बैठा जाता है, तब ही अंतरात्मा की वाणी सुनाई देती है, परमात्मा का स्वर निखर उठता है ।उपासना में जब आँखें बन्द होती हैं, तब ही वे दृश्य उभरते हैं, जो खुली आँखों से नहीं देखे जा सकते ।उपासना में जब व्यक्ति स्थिर व निर्विचार होता है , तब ही ऐसे विचार उभरते हैं, जो उसकी समस्याओं का समाधान करते हैं ।
  
●परमात्मा से इच्छित वस्तु की माँग करना उपासना नहीं●

उपासना का माँगने से कोई संबंध नहीं है। माँगने का क्या अर्थ है ?
परमात्मा के आगे अपनी झोली फैलाने का क्या अर्थ है ? इसमें हम परमात्मा से अपनी इच्छित वस्तु माँगने की फिराक में रहते हैं और हमारी माँग कभी कम नहीं होती , बल्कि इसकी सूची बराबर लम्बी होती रहती है, निरंतर बढ़ती रहती है।माँग के साथ उपासना की अनुभूति किंचित् मात्र भी सम्भव नहीं है ।

इस प्रकार न तो कभी इच्छाओं में कमी आती है और न हर नई इच्छा के कारण माँग का जोर थमता है ।हमारे मन में यह शिकायत जन्म लेती रहती है कि हमारी इच्छाएँ पूरी क्यों नहीं होती हैं ।परमात्मा से शिकायत का यह भी अर्थ है कि हम स्वयं को परमात्मा से ज्यादा बुद्धिमान समझने लगते हैं ।हम सोचते हैं कि परमात्मा को हमारी हर बात माननी चाहिए ।

जब हम बीमार होते हैं तो स्वास्थ्य माँगते हैं , तब हमारी सारी माँग एक जगह केन्द्रित हो जाती है।हम दुखी हैं तो सुख माँगते हैं, पर जरूरी नहीं कि सुख , सुख ही लेकर आए।कई बार तो ऐसा होता है कि सुख और बड़े दुख लेकर आता है ।उस परिस्थिति में ऐसा लगता है क ऐसा सुख नहीं मिलता तो ज्यादा अच्छा था।

नित नई माँग लेकर हम उपासना की दिव्य अनुभूति से वंचित रह जाते हैं ।यदि हम भगवान से अपनी माँग पूरी करने की इच्छा करते रहेंगे,  तो हम सच्ची उपासना कर ही नहीं सकते ।परमात्मा के द्वार तक कभी नहीं पहुँच सकते ।प्रभु के द्वार की झलक-झाँकी तब ही दिखाई पड़ती है, जब मन से माँग विसर्जित हो जाए, विलीन हो जाए।

  ● उपासना से कष्टों को स्वीकार करने की सामर्थ्य में वृद्धि ●

उपासना हमें दुःखों और कष्टों को परमात्मा का अनुग्रह मानकर स्वीकार करने की सामर्थ्य प्रदान करती है ।दुःख और कष्ट हमारा परिष्कार करते हैं, हमें परिमार्जित एवं परिशोधित करते हैं ।दुःख हमें संघर्ष के लिए तैयार करता है, चुनौतियों का सामना कराकर हमें सुदृढ़ बनाता है ।सत्य तो यह है कि दुःख के बिना जीवन का यथार्थ अनुभव ही नहीं होता ।दुःख ही तो सुख का एहसास कराता है।
दुःखों और कष्टों के प्रति शिकायत करने में हमारी नास्तिकता झलकती है, जो यह बताती है कि अभी हमारी उपासना में श्रद्धा और समर्पण की कमी है।
              " चाहे सुख में रहो चाहे दुःख में, 
                  प्रभु का नाम रखो सदा मुख में "

उपासना तो माँगशून्य , प्रेम से परिपूर्ण होनी चाहिए, भक्ति से सराबोर होनी चाहिए ।सच्ची उपासना होगी तो परमेश्वर की झलक-झाँकी की अनुभूति भी होगी ।उपासना और उसकी दिव्य अनुभूतियाँ केवल तभी संभव हैं, जब हम उपासना में ही आनन्दित होते चले जाते हैं ।यह आनन्द भौतिक सुखों में नहीं है, यह तो आत्मा की सहज अवस्था है ।उपासना में परमात्मा के अकल्पनीय और सर्वव्यापी स्वरूप की अनुभूति का आनन्द मिलता है ।इसी ब्रह्मभाव से उपासना करनी चाहिए, उसके आनन्द का आस्वाद लेना चाहिए ।

उपासना ही वह माध्यम है, जो हमें वास्तव में अंतरात्मा से जोड़ती है, परमात्मा के समीप ले जाती है, आत्मा-परमात्मा के बीच के अंतराल को शून्य कर देती है।अतः उपासना वास्तव में हमारे जीवन को योगमय बनाने की पद्धति है, परमात्मा से जुड़ने का साधन है ।इसलिए उपासना को हमें दैनिक जीवन का अंग बना लेना चाहिए ।
                " प्रभु ध्यान में मेरे बस जाओ "
  सादर अभिवादन व धन्यवाद ।



Friday, September 25, 2020

दीपों का त्यौहार दीपावली, दीपावली महोत्सव के पाँच त्यौहार, भारी क्षमता वाले बम-पटाखे नुकसानदायक

        ●●● दीपों का त्यौहार दीपावली ●●●
   "आई है शुभ दीपावली, जगमग दिए जगमग दिए जगमग दिए"

भारत भूमि पर्वों-त्यौहारों की भूमि है।हम भारतवासी एक वर्ष में अनेक त्यौहार मनाते हैं ।इन सभी में  दीपावली हिन्दुओं का  सबसे बड़ा त्यौहार है । दीपावली पर्व  ऊर्जा, प्रकाश व उत्साह का त्यौहार है ।दीपावली में केवल एक दिया नहीं होता, बल्कि दीपकों की कतार होती है।ये दीपक एक तरह से अंतर्मन के प्रकाशित होने व हमें संघबद्ध होकर रहने की प्रेरणा देते हैं ।दीपावली मुख्य रूप से कार्तिक अमावस्या को मनाया जाता है ।

ऐसा माना जाता है कि भगवान श्री राम जब चौदह वर्ष के वनवास के बाद अयोध्या आए थे तब उनके आने की  खुशी में अयोध्या वासियों ने खुशियाँ मनाईं ।अयोध्या नगरी को दीपों से सजाया गया ।इसलिए दीपावली त्यौहार बड़ी धूमधाम से मनाया जाता है और असंख्य दीप जलाए जाते हैं ।इस दिन भारत भूमि दीपकों से सुशोभित होती है। दीपावली दियों का जगमगाता उत्सव है ।अनगिनत दीपकों के प्रकाश में दीपावली का पर्व मनाया जाता है, इसलिए इसे 'प्रकाशपर्व' की संज्ञा दी जाती है ।यह पर्व सामूहिकता का संदेश देता है।

              दीपावली का दिया जलता है और अपने प्रकाश से कार्तिक अमावस्या की सघन निशा को तार-तारकर रंगबिरंगी किरणों का पंख फैला देता है।चारों ओर प्रकाश ही प्रकाश छा जाता है। भारतीय संस्कृति की रग-रग में बसी दीपावली में कुछ स्थानों पर पहले कोरे दीपों की पूजा की जाती है- अक्षत , पुष्प, रोली, चन्दन से। तब उनमें घृत या तेल डालकर बत्ती लगाकर जलाया जाता है और दोबारा प्रज्जवलित दीपों की अक्षतादि से पूजा की जाती है ।

दीपक जलाने के पीछे उद्देश्य है कि जिस तरह कार्तिक अमावस्या की गहन-अँधेरी रात में दीए जलाकर हम चारों ओर छाए अंधकार को दूर करते हैं, उजाला फैलाते हैं,उसकी सुंदरता को निहार पाते हैं ; उसी तरह हम अपने अंतस् में फैले हुए अंधकार को भी ज्ञान रूपी प्रकाश के माध्यम से दूर करें, अपने अंतर्मन को भी प्रकाशित करें, तभी हमारे अंतर्मन में भी दीपावली मन सकेगी ।

दीपावली के कुछ दिन पहले ही घरों की साफ-सफाई करना शुरू कर देते हैं , विशेष सजावट भी करते हैं ।

   ●●● दीपावली महोत्सव के पाँच त्यौहार ●●●

दीपावली पर्व में एक साथ पाँच त्योहार मनाए जाते हैं । इन पाँच पर्वों के अपने विशेष अर्थ हैं और ये जीवन में समृद्धि, स्वास्थ्य, संपन्नता, शांति व आत्मीयता के विस्तार के प्रतीक हैं ।
● धनतेरस  ( कार्तिक कृष्ण त्रयोदशी )
● रूप चतुर्दशी ( कार्तिक कृष्ण चतुर्दशी)
●  दीपावली पूजन (कार्तिक कृष्ण अमावस्या )
● गोवर्धन पूजा  ( कार्तिक शुक्ल प्रतिपदा)
● भाई दूज   ( कार्तिक शुक्ल द्वितीया )

1 ● धनतेरस --  दीपावली पर्व का आरंभ कार्तिक कृष्ण त्रयोदशी अर्थात धनतेरस (धन त्रयोदशी) से होता है।यह दिन आयुर्वेद के देवता,धनवंतरि का जन्मदिवस भी है, इसलिए यह दिन धन्वंतरि जयंती के रूप में भी मनाया जाता है।इस दिन एक ओर भगवान धन्वंतरि का पूजन करके स्वास्थ्य की कामना की जाती है तो वहीं दूसरी ओर लक्ष्मी- कुबेर का पूजन करके धन- समृद्धि की कामना की जाती है ।

         इस दिन लोग अपनी सामर्थ्य के अनुसार बरतन, सोने-चाँदी के आभूषण व सिक्के, लक्ष्मी-गणेश की मूर्तियाँ खरीदते हैं ।ये सब धन का प्रतीक होते हैं और धनतेरस के अवसर पर इनका पूजन किया जाता है ।इस दिन लोग घर के द्वार पर दीपक भी जलाते हैं।

1  ● रूप चतुर्दशी----  कार्तिक कृष्ण चतुर्दशी को रूप चतुर्दशी या छोटी दीवाली मनाई जाती है ।इस चतुर्दशी को नरक चतुर्दशी भी कहते हैं ; क्योंकि इसी दिन भगवान श्री कृष्ण ने नरकासुर नामक राक्षस का वध किया था ।इस दिन सौन्दर्यरूप भगवान श्री कृष्ण की पूजा की जाती है, ताकि हम भी निष्कलुष व रूपवान बन सकें ।इस दिन सूर्योदय से पूर्व उठकर स्नान करने का विशेष महत्व होता है एवं रात्रि में यमदेव की प्रसन्नता हेतु घर की देहली पर दिए भी जलाए जाते हैं ।

3   ● दीपावली पूजन --- रूप चतुर्दशी के अगले दिन कार्तिक कृष्ण अमावस्या को दीपावली मनाई जाती है ।यह दिन पंचोत्सवों के बीच महोत्सव का होता है।बहुत दिनों पहले ही इस विशेष दिन के लिए अनेक प्रबन्ध किए जाते हैं ।घरों में विभिन्न प्रकार के पकवान बनाए जाते हैं ।घर के द्वार पर रंगोली सजाई जाती है।इस दिन व्यावसायिक प्रतिष्ठानों में भी लक्ष्मी-गणेश का पूजन किया जाता है ।वही-खातों का भी पूजन होता है।दीपावली के दिन चारों ओर नवीनता और सुंदरता देखने को मिलती है।

दीपावली के दिन शाम को श्री लक्ष्मी, भगवान गणेश व सरस्वती माता का पूजन किया जाता है ।सभी लोग बड़ी श्रद्धा के साथ दीपावली पूजन करने के बाद  घर व द्वार पर अनेक दीप व मोमबत्तियाँ जलाते हैं । दीपक की कतारें घर के चहुँ ओर सजाई जाती हैं ।  आपस में रिश्तेदार व मित्रों के बीच मिठाइयों व उपहारों का आदान-प्रदान होता है । द्वार पर बच्चे व बड़े सभी पटाखे, फुलझड़ियाँ जलाकर खुशियाँ मनाते हैं ।इस दिन घर के हर कोने को प्रकाशित किया जाता है, ताकि लक्ष्मी माँ की कृपा बनी रहे, सुख-समृद्धि में वृद्धि हो।

दीपावली के पर्व में माँ लक्ष्मी के साथ भगवान गणपति व माँ सरस्वती का पूजन के पीछे यह मर्म है कि हम सद्बुद्धि व विवेक धारण करें तभी हम पर माँ लक्ष्मी की कृपा बरसेगी।सद्बुद्धि व विवेक के साथ हमें धन का सदुपयोग करना चाहिए ।लक्ष्मी-गणेश-सरस्वती इनका सम्मिलित पूजन वैदिक परम्परा का भी प्रतीक है । अर्थ का उपार्जन धर्मपरायण होकर ही करना चाहिए, इसीलिए श्री की प्रतीक माँ लक्ष्मी , सद्बुद्धि की प्रतीक माँ सरस्वती एवं विवेक के प्रतीक भगवान गणेश का साथ-साथ पूजन किया जाता है ।इस दिन शुभ-लाभ की कामना की जाती है ।

4 ● गोवर्धन पूजा---- दीपावली के दूसरे दिन ( कार्तिक शुक्ल प्रतिपदा) गोवर्धन पूजा की जाती है, इसे अन्नकूट के नाम से भी जाना जाता है ।गोवर्धन का अर्थ है -- गौ वंश में वृद्धि ।इसदिन गायों की पूजा की जाती है एवं गाय के गोबर से गोवर्धन नाथ जी की प्रतिमूर्ति  बनाकर पूजन किया जाता है तथा गोवर्धननाथ जी को प्रसन्न करने के लिए अन्नकूट का भोग लगाया जाता है ।यह दिन विशेष रूप से गोवंश व अन्न की समृद्धि के लिए है।

एक पौराणिक कथा के अनुसार, एक बार जब इन्द्र ने भारी वर्षा से वृजवासियों को भयभीत करने का प्रयास किया, तब भगवान श्री कृष्ण ने गोवर्धन पर्वत को अपनी उँगली पर उठाकर सभी वृजवासियों को इन्द्र के कोप से बचा लिया, तब से इन्द्र देवता की जगह गोवर्धन पर्वत ( गोवर्धन गिरधारी) की पूजा का विधान शुरु हो गया, तभी से यह परंपरा आज भी जारी है।

5 ● -- गोवर्धन पूजा के अगले दिन ( कार्तिक शुक्ल द्वितीया ) को भाई दूज का पर्व मनाया जाता है ।इस दिन बहनें अपने भाइयों के स्वास्थ्य व दीर्घायु के लिए पूजा-अर्चना करती हैं ।भाइयों का तिलक करती हैं । इस तरह पाँच दिन चलने वाला यह त्यौहार स्वास्थ्य, समृद्धि, प्रकाश के अवतरण, गोवंश, अन्न समृद्धि व रिश्तों की प्रगाढ़ता का संदेश देते हैं ।
 
●●● भारी क्षमता वाले बम-पटाखे नुकसानदायक ●●●

परिवर्तन ही जीवन का नियम है , इसलिए समय के साथ-साथ हमारे त्यौहार मनाने की शैली में भी परिवर्तन हो रहे हैं ।पहले दीपावली पर सिर्फ दिए ही जलाए जाते थे बाद में कुछ पटाखे, फुलझड़ी आदि चलन में आ गए व सर्वत्र बिजली के उपकरणों से सजावट होने लगी ।

लेकिन आज के समय में दीपावली पर सब जगह बहुत भारी क्षमता के बम-पटाखे फोड़े जाते हैं वे भी पूरी रात भर, जो कि हमारे पर्यावरण व स्वास्थ्य के लिए अत्यंत नुकसानदायक होते हैं ।
जिनसे ध्वनि प्रदूषण, वायु प्रदूषण में वृद्धि होती है।पटाखों से बहुत शोर ही नहीं होता, बल्कि पटाखे जलने से हानिकारक गैसें भी वायुमंडल में घुल जाती हैं ।बच्चों व वृद्ध जनों के स्वास्थ्य पर दुष्प्रभाव पड़ता है ।

पटाखों से इतना जनजीवन प्रभावित होता है, तो ऐसी परंपराओं को बन्द कर देना चाहिए और यह याद रखना चाहिए कि दीपावली प्रकाश का त्यौहार है , विस्फोटों का नहीं ।दीपावली मनाते समय हमें पर्यावरण का भी ध्यान रखना होगा ।दीपावली मनाने की सार्थकता तभी है जब मानव के अंतर्मन में संवेदनाओं, सद्भावनाओं के दीप जल उठें।

        सर्वत्र हो सद्भावना, पूरी हो सब शुभकमना
                    सब एक हों,सब नेक हों 
           जगमग दिए जगमग दिए जगमग दिए ।

सादर अभिवादन व धन्यवाद ।


Tuesday, September 22, 2020

अन्तर्राष्ट्रीय मातृ दिवस की शुरुआत कैसे हुई?, माँ की महिमा,माँ के रिश्ते में छलछलाता ममता का सागर,

     ●● अन्तर्राष्ट्रीय मातृ दिवस की शुरुआत कैसे हुई ●●
माँ को सम्मान देने वाले इस दिन की शुरुआत अमेरिका से हुई।मई महीने के दूसरे रविवार को हर वर्ष अन्तर्राष्ट्रीय मातृ दिवस मनाया जाता है ।अमेरिकन एक्टिविस्ट एना जार्विस अपनी माँ से बहुत प्यार करती थीं ।उन्होंने शादी नहीं की।माँ की मृत्यु के पश्चात माँ का प्यार जताने के लिए उन्होंने इस दिन की शुरुआत की।  9 मई, 1914 को अमेरिकी प्रेसीडेंट वुड्रो विल्सन ने एक कानून पास किया, जिसमें लिखा था कि हर वर्ष मई महीने के दूसरे रविवार को मदर्स डे मनाया जाएगा।जिसके बाद अमेरिका, भारत और कई देशों में 'मदर्स डे' मनाया जाने लगा। 

यह दिन माँ के प्यार और सम्मान के लिए समर्पित है ।वैसे तो माँ  का हर दिन सम्मान होता है।माँ का स्थान कोई नहीं ले सकता , फिर भी मदर्स डे के अवसर पर माँ के लिए खास प्यार और सम्मान जताया जाता है । माँ को विशेष महसूस कराया जाता है। सभी अपनी-अपनी माँ को प्यार के साथ उपहार देते हैं , विशेष उत्सव मनाते हैं, तात्पर्य यह है कि जितने भी तरीकों से माँ के प्रति प्यार जता सकते हैं, वे सब तरीके अपनाए जाते हैं ।

                ●●● माँ की महिमा ●●●

एक शिशु के जन्म के साथ ही स्त्री के अनेक खूबसूरत रूपों का भी जन्म होता है।पल-पल उसके हृदय रूपी सागर में ममता की लहरें उमड़ती हैं ।उसका रोम-रोम अपनी संतान पर निछावर होने को विकल हो उठता है।माँ बनकर उसके जीवन में सम्पूर्णता आती है।संपूर्णता के इस पवित्र भाव को जीते हुए वह एक अलौकिक प्रकाश से भर उठती है।उसकी आँखों में खुशियों के सैकड़ों दीप झिलमिलाने लगते हैं ।

कहते हैं कि एक शिशु के जन्म के साथ केवल एक बालक ही जन्म नहीं लेता है, बल्कि उसी क्षण स्त्री के अन्दर माँ का भी जन्म होता है ।माँ का महत्व माँ बनने के बाद ही सही-सही समझा जा सकता है ।नारी अकेले को ही यह विशेष अधिकार वरदान के रूप में प्राप्त है कि वह माँ बनने की इस दैवी प्रक्रिया की अनुभूति कर सके व उसके अनंत आनन्द को आत्मसात कर सके।माँ का प्यार असीमित है।

 'माँ' शब्द में एक अद्भुत मिठास है ।इस सृष्टि का हर प्राणी किसी न किसी रूप में इस शब्द को पुकारता है, दोहराता है, कभी प्यार पाने के लिए तो कभी कष्ट-पीड़ा से छुटकारा पाने के लिए ।माँ चाहे कोई भी हो , किसी भी रूप में हो, बच्चे के लिए वह सदा सर्वोत्तम और सब कुछ होती है , और माँ भी पूरी तरह अपने बच्चे के विकास के लिए तत्पर रहती है।

माँ शब्द की महिमा का अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि हिंदू धर्म में देवियों को माँ कहकर पुकारते हैं।किसी ने सही कहा है कि सारे सागर की स्याही बना ली जाए तब भी माँ की महिमा नहीं लिखी जा सकती है।माँ आखिर माँ है ।बच्चे जो बातें प्यार से नहीं समझते, उन्हें वह दंड देकर समझाती है।

माँ सदा से ही अनंत गुणों का स्रोत रही है ।पृथ्वी सी सहनशीलता, सूर्य जैसा तेज, समुद्र सी गंभीरता, फूलों जैसी कोमलता, सहजता, सौन्दर्य और चंद्रमा जैसी शीतलता माँ में विद्यमान होती है।वह दया, करुणा, ममता, सहिष्णुता और प्रेम की साकार मूरत होती है।इसी कारण सभी प्राणी माँ के समीप सुकून व शांति पाते हैं ।

केवल जन्म देने वाली ही माँ नहीं कहलाती, पालन-पोषण करने वाली भी माँ कहलाती है।भगवान श्रीकृष्ण की दो माँ हैं-- एक देवकी माँ, जिन्होंने उन्हें जन्म दिया और दूसरी यसोदा माँ, जिन्होंने उनका पालन-पोषण किया । 

   ●●● माँ के रिश्ते में छलछलाता ममता का सागर●●●

माँ के रिश्ते में निहित है---अनंत गहराई लिए छलछलाता ममता का सागर। शीतल, मीठी और सुगन्धित हवा का कोमल एहसास। समूची धरती पर बस यही एक ऐसा रिश्ता है, जिसमें कोई छल- कपट नहीं होता ।कोई स्वार्थ, कोई अहंकार नहीं होता ।इस रिश्ते की गुदगुदाती गोद में ऐसी मधुर अनुभूति छिपी है - मानो नरम-नाजुक हरी, ठंडी दूब की भीनी बगिया में सोए हों। " माँ " इस एक शब्द में नारी के सम्पूर्ण अस्तित्व की झलक मिल जाती है।
पूरा जीवन भी समर्पित कर दिया जाए तो माँ के ऋण से उऋण नहीं हुआ जा सकता अर्थात माँ के उपकारों को कभी भुलाया नहीं जा सकता ।संतान के लालन-पालन के लिए हर दुःख का सामना बिना किसी शिकायत के करने वाली माँ के साथ बिताए दिन सभी के मन में जीवन भर सुखद व मधुर यादों के रूप में सुरक्षित रहते हैं ।

माँ की ममता किसी कवि के शब्दों में---

" बिलख रहे होते सारे प्राणी, 
                                     कहीं न कोई भी चैन पाता।
न प्यार होता न प्रीति होती ,
                                    अगर कहीं तुम न होती माता ।।

सादर अभिवादन व धन्यवाद ।




Monday, September 21, 2020

हाइजीन की सही परिभाषा,वर्तमान में हाइजीन का किन अर्थों में प्रयोग,रोगप्रतिरोधक क्षमता के लिए मिट्टी क्यों है जरूरी,डेविड पी एट्रैचन के रिसर्च के अनुसार हाइजीन,यूनिवर्सिटी ऑफ मैनचेस्टर के अध्ययन के अनुसार, इम्यूनोलाॅजिस्ट के अनुसार हाइजीन, आधुनिक शोध के अनुसार,प्राकृतिक जीवन ही सही मायने में हाइजीन

        ●●● हाइजीन की सही परिभाषा ●●●
हाइजीन की सही परिभाषा है-- अच्छा स्वास्थ्य एवं स्वास्थ्य का संरक्षण ।इसे स्वच्छता एवं साफ-सफाई तथा बचाव के रूप में लिया जाता है ।यह एक सीमा तक तो ठीक है, लेकिन जब इस पर जरूरत से कुछ ज्यादा ध्यान दिया जाता है तो इससे रोगप्रतिरोधक क्षमता कम हो सकती है।

इस संदर्भ में मैक्स हैल्थ केयर के एलर्जिस्ट का कहना है कि जीवन में केवल स्वच्छता की ही नहीं, थोड़ी बहुत धूल-मिट्टी की भी आवश्यकता पड़ती है ।जैसे दिन के साथ-साथ रात की भी आवश्यकता पड़ती है; दिन रात के समन्वय-संयोग से ही एक पूर्ण चक्र बनता है, ठीक उसी प्रकार हाइजीन की परिकल्पना में स्वच्छता एवं धूल आदि का होना आवश्यक है ।

     ●●वर्तमान में हाइजीन का  किन अर्थों में प्रयोग●●

वर्तमान में हाइजीन जिन अर्थों में प्रयोग किया जाता है, उनमें अनेक विसंगतियाँ हैं ।हाइजीन के नाम पर आज हाथ धोने के लिए सदैव अपने साथ पेपर सोप लेकर चलते हैं, पीने के लिए केवल बोतलबंद पानी पर ही भरोसा करते हैं ।किसी ऐसी वस्तु को छूना एवं उसके संपर्क में आना पसंद नहीं करते , जिसे शत-प्रतिशत बैक्टीरिया को खत्म कर देने की ताकत रखने वाले किसी स्प्रे से जीवाणु मुक्त नहीं कर दिया हो।

वर्तमान में हाइजीन पसन्द लोग उठने-बैठने, खाने-पीने तथा पहनने के लिए एकदम साफ-सुथरी चीजों का प्रयोग करते हैं ।स्वच्छ रहना अच्छा है और स्वच्छ रहना ही चाहिए परंतु केवल हमेशा ही धूल-मिट्टी से सदा परहेज करना रोगप्रतिरोधक क्षमता को कम करता है।हाइजीन का तात्पर्य व्यापक है ; क्योंकि इसका मुख्य उद्देश्य है-- स्वास्थ्य का संरक्षण ।इसके लिए केवल साफ-सफाई पर ही ध्यान देना एकांगी तथ्य है।दैनिक जीवन में धूल-धक्कड़ और मिट्टी आदि के संपर्क की भी जरूरत पड़ती है ।

●●● रोगप्रतिरोधक क्षमता के लिए मिट्टी क्यों हैजरूरी●●●

वैज्ञानिक मानते हैं कि जब कभी हम मिट्टी आदि के संपर्क में आते हैं तो हमारे इम्यून सिस्टम ( रोगप्रतिरोधक क्षमता ) को कीटाणुओं के संपर्क में आने का अवसर मिलता है।इससे रोगप्रतिरोधक शक्ति में वृद्धि होती है।हाइजीन की वर्तमान परिकल्पना के अनुसार कीटाणुओं से दूर रहकर संक्रमण से तो बचा जा सकता है, परंतु धूलकण एवं माइक्रोब्स ही हैं, जो इम्यून सिस्टम को जीवाणुओं से लड़ने की नई स्फूर्ति एवं ताकत प्रदान करते हैं ।इससे भविष्य में खतरनाक बैक्टीरिया आदि के प्रकोप से बचा जा सकता है ।अतः इनके संपर्क में आते रहने से स्वस्थ रहने में मदद मिलती है।

   ●● डेविड पीo एट्रैचन के रिसर्च पेपर के अनुसार●●

हाइजीन परिकल्पना को सर्वप्रथम डेविड पीo एट्रैचन ने दिया ।उन्होंने ब्रिटिश मेडिकल जर्नल (1981) में एक रिसर्च पेपर प्रकाशित किया था ।इसका आधार था 'हे फीवर' और 'एक्जिमा' ।ये दोनों ही एलर्जी रोग हैं ।इनका मानना था कि ये दोनों रोग उन बच्चों में कम होते हैं, जो प्राकृतिक परिवेश में पलते-बढ़ते हैं, परंतु स्वच्छ एवं साफ-सुथरे माहौल में पलने वाले बच्चों में यह अपेक्षाकृत अधिकता में देखा गया है ।

प्राकृतिक परिवेश में धूल-मिट्टी आदि बिखरी होती है ।बच्चे उसके संपर्क में आते हैं और खेलते-कूदते रहते हैं ।इससे उनका शरीर स्वस्थ रहता है।इन बच्चों को एलर्जी कम होती है तथा संक्रामक रोग कम सताता है परंतु जो बच्चे अत्यधिक स्वच्छ माहौल में रहते हैं, कंम्प्यूटर, इंटरनेट आदि में व्यस्त रहते है, धूल-मिट्टी से सदा दूर रहते हैं, वे रोगों के प्रति अति संवेदनशील होते हैं ।

 ●●यूनिवर्सिटी ऑफ मैनचेस्टर के अध्ययन के अनुसार●●

हाइजीन की परिकल्पना जीवाणु, विषाणु तथा प्रतिरक्षा-प्रणाली के बीच एक सुमधुर सामंजस्य है।इस संदर्भ में 'जर्नल ऑफ एलर्जी एंड क्लिनिकल इम्युनोलाॅजी'  में प्रकाशित यूनिवर्सिटी ऑफ मैनचेस्टर के अध्ययन के अनुसार वे बच्चे, जिनको केवल घरों के अन्दर रखा जाता है, बोतल का पानी पिलाया जाता तथा खेलने के नाम पर अत्यन्त स्वच्छ वातावरण में रखा जाता है, उनकी रोगप्रतिरोधक शक्ति कम विकसित होती है ।युवा एवं प्रौढ़ावस्था में वे एलर्जी एवं संक्रामक रोगों के प्रति अति संवेदनशील हो जाते हैं ।

उपर्युक्त तथ्य से स्पष्ट है कि हाइजीन की परिभाषा एवं परिकल्पना पर नए ढंग से सोचना , विचार करना आवश्यक ।स्वास्थ्य क्या है, हाइजीन किसे कहते हैं, आदि अनेक प्रश्न इन्हीं के कारण पैदा होते हैं ।

   ●●● इम्युनोलाॅजिस्टों के अनुसार हाइजीन ●●●

हाइजीन की परिकल्पना के संदर्भ में इम्यूनोलाॅजिस्ट कहते हैं कि शरीर में एंटीबाॅडीज का बनना तभी संभव है जब कोई बाहरी जीवाणु या बैक्टीरिया शरीर के अन्दर प्रवेश कर जाता है।।वस्तुतः थाइमस ग्रंथि से पैदा हुए किलर और हेल्पर टी सेल होते हैं, जो विभिन्न प्रकार के संक्रमण और एलर्जी का प्रतिरोध और प्रतिक्रिया करने के लिए पर्याप्त संख्या में रक्षात्मक एंटीबॉडी का निर्माण करते हैं ।

जैसे ही कोई बाहरी तत्व शरीर की प्रतिरक्षा प्रणाली को भेदकर प्रवेश करता है तो प्राथमिक टी सेल एक सप्ताह के अन्दर अपनी चरम सीमा तक पहुँच जाते हैं और 7 से 30 दिन के अन्दर अपनी प्रक्रिया समाप्त करके दूसरे सेल के लिए स्थान छोड़कर नष्ट हो जाते हैं । 

सामान्य रूप से व्यक्ति जब एकदम साफसुथरे माहौल में रहता है तो किलर सेल्स के पास लड़ाई के लिए, संघर्ष के लिए कोई विशेष स्थिति का सामान नहीं होता है क्योंकि किलर सेल्स को मारने के लिए दुश्मनों (जीवाणुओं) का होना आवश्यक है ।

  ●कीटाणुओं के संपर्क से बच्चों का इम्यून सिस्टम मजबूत●

एलर्जी विशेषज्ञ मानते हैं कि आए दिन कीटाणुओं के संपर्क में आने पर बच्चों में दीर्घकालिक दृष्टि से गंभीर बीमारियों और एलर्जी का खतरा न्यूनतम हो जाता ।हालाँकि इससे कभी-कभी नाक बहने जैसी तात्कालिक एलर्जी का सामना जरूर करना पड़ सकता है ।

विशेषज्ञों की राय है कि बचपन में खेत-खलिहानों में खेलते रहने से आगे चलकर गंभीर बीमारियों से निजात पाई जा सकती है ;क्योंकि वहाँ का वातावरण प्रतिरक्षा प्रणाली को मजबूत कर देता है ।

●● प्रतिरक्षा प्रणाली के बारे में आधुनिक शोध के निष्कर्ष ●●

आधुनिकतम शोध निष्कर्ष से पता चला है कि धूल एवं गोबर में विद्यमान कीटाणुओं से लड़ चुके इम्यून सिस्टम में इतनी ताकत आ जाती है कि वह दमे आदि रोग को भी पास फटकने नहीं देती है।यूनिवर्सिटी ऑफ विस्कॉन्सिन, मेडिसिन के बाल रोग चिकित्सक जेम्स गर्न द्वारा 2004 में किए गए शोध से सदियों पुरानी यह मान्यता टूट गई है कि पालतू जानवरों से बच्चों को एलर्जी हो जाती है।

एक अन्य सर्वेक्षण हमारी वैदिक मान्यता को पुष्ट करता है ।इस व्यापक सर्वेक्षण से पता चलता है कि जिन घरों में गाय एवं बैल बँधे होते तथा जिनके घर-आँगन में गोबर आदि से लिपाई-पुताई की जाती है, वहाँ पर निवास करने वाले लोगों की रोगप्रतिरोधक शक्ति अत्यन्त मजबूत होती है।।ऐसे लोग रोगों के प्रति संवेदनशील नहीं होते हैं अर्थात रोगों की चपेट में न के बराबर ही आते हैं । वे अधिक स्वस्थ रहते हैं ।

●●● प्राकृतिक जीवन ही सही मायने में हाइजीन है ●●●
 
हाइजीन से तात्पर्य है- प्रकृति का सान्निध्य ।प्राकृतिक जीवन ही सही मायने में हाइजीन है ; जबकि इसके विपरीत विकृति है जो अनेक रोगों का कारण बनती है।साफ-सुथरा होना आवश्यक है, परंतु यह तभी हो सकता है, जब गंदगी को बाहर कर दिया जाए ।अच्छा स्वास्थ्य तभी पाया जा सकता है, जब रोगों से लड़ने की सामर्थ्य मिल जाए।

इम्यून सिस्टम कमजोर होने से छोटी से छोटी बात भी रोग का कारण बन जाती है ।पानी से भीगते ही सरदी जुकाम हो जाता है, धूल से एलर्जी हो जाती है तथा छींक आदि आने लगती हैं ।इन रोगों में नेजलोफ, सिंड्रोम, ग्रेनुलोमेटस रोग, टी लिंफोसाइड डेफिसिएसिंज, क्रोनिक डीसफैगोसाइटोसीस , न्यूट्रोफील सिड्रोम आदि हैं ।ये सभी रोग इम्यून सिस्टम की कमजोरी के कारण पनपते हैं, परंतु इस तन्त्र को मजबूत कर दिया जाए तो ये रोग स्वतः ही समाप्त हो जाएँगे।

अतः हमें प्राकृतिक जीवन जीने की कोशिश करनी चाहिए ।अपने आस-पास के वातावरण के साथ स्वयं के अनेक आयामों में आई गंदगी को दूर कर दिया जाए, यही हाइजीन का तात्पर्य है ।






Sunday, September 20, 2020

सपनों का विज्ञान, मनोवैज्ञानिकों के अनुसार सपने,सपनों पर लिखी किताब,विभिन्न शोधों के अनुसार सपने,सपनों के बारे में दिलचस्प बातें

                ●●● सपनों का विज्ञान ●●●
अक्सर जब हम सो रहे होते हैं तब सपने देखते हैं ।सपने क्यों आते हैं ।सपनों की घटनाओं का ताना-बाना क्या है ? इन सपनों का हमारे वास्तविक जीवन से क्या रिश्ता है ? आज तक हमें इन प्रश्नों के सटीक उत्तर नहीं मिले ।ये एक अबूझ पहेली है , इसकी तह तक, सत्य तक कोई नहीं पहुँच पाया ; क्योंकि जितने लोग हैं, उतनी तरह के सपने हैं ।

जब से इन्सान ने निद्रा लेना शुरू किया है तभी से मनुष्य के जीवन में सपनों का अस्तित्व है ।सपनों में हम अनेक तरह की घटनाएँ देखते हैं, कभी अच्छी कभी बुरी, लेकिन जब नींद खुलती है तब हम वास्तविक जीवन से रूबरू होते हैं, और हम सोचते हैं कि सपने में क्या-क्या देखा, इन सपनों का क्या मतलब है, क्योंकि सपने हमसे जुड़े होते हैं और हमें वे कुछ बताने, कुछ संकेत देने व कुछ दिखाने आते हैं, इसलिए सपनों का भी एक विशेष विज्ञान है।

सपनों से सबका एक अनोखा रिश्ता है ।सभी के सपने अलग-अलग होते हैं ।

      ●●● मनोवैज्ञानिकों के अनुसार सपने ●●●

हमारी नींद के चार चरण होते हैं, इनमें सबसे आखिरी चरण रेपिड आई मूवमेंट ( आर ई एम ) है, जिसमें हम सपने देखते हैं ।इस अवस्था में हमारा दिमाग तो सक्रिय होता है, लेकिन शरीर के अवयव सुप्त अवस्था में होते हैं ।

            विशेषज्ञों के अनुसार-- हर रात अरबों सपने इस पृथ्वी पर अनुभव किए जाते हैं और औसतन एक व्यक्ति को हर रात तीन से पाँच सपने देखने का अनुभव होता है ।आश्चर्य की बात यह है कि उन सपनों में से हमें महज पाँच प्रतिशत सपने ही हमें याद रहते हैं और बाद में वे पाँच प्रतिशत सपने भी हमारी स्मृति से धूमिल हो जाते हैं ।

कभी-कभी व्यक्ति के सपने बहुत स्पष्ट होते हैं, तो कभी-कभी धुँधले होते हैं ।कभी-कभी कुछ सपने वास्तविक जीवन में घटित भी हो जाते हैं, और कभी-कभी ऐसे सपने दीखते हैं जिनका वास्तविक जीवन से कोई सम्बन्ध नहीं होता।देखे जाने वाले सपने हर बार कुछ अलग होते हैं ।कुछ सपने लुभावने होते हैं ।

सपने सभी के अलग होते हैं और एक व्यक्ति के सपनों पर दूसरे व्यक्ति का हस्तक्षेप नहीं हो सकता, लेकिन सपनों में देखे जाने वाले कुछ दृश्य व घटनाएँ ऐसी होती हैं ; जिन्हें बहुत लोग अपने सपनों में देखते हैं, जैसे --- अपने संबंधियों को देखना , जल-प्रवाह देखना, बाढ़ देखना, पशु-पक्षियों को देखना, शिवलिंग देखना, साँप देखना , चलती हुई ट्रेन या बस के पीछे भागना आदि ।

विशेषज्ञों का ऐसा कहना और मानना है कि सपनों में हमें जो भी देखने को मिलता है, उसका इस संसार में कहीं-न-कहीं अस्तित्व होता है, भले ही हमें उसके बारे में पता हो या न हो ।सपनों की दुनिया अनंत है, इसका कोई ओर-छोर नहीं है ।दिन हो या रात, यदि व्यक्ति सोता है , तो उसे सपने दिख सकते हैं, लेकिन गहरी नींद में होने पर उसे सपने कम ही दिखते हैं ।

     ●●● सपनों पर सबसे पहले लिखी किताब ●●●

       एक रिपोर्ट के अनुसार--- सपनों पर सबसे पहले किताब मिश्र में लिखी गई, जो हजारों वर्ष पुरानी है ।मेसोपोटामिया में लगभग 5000 वर्ष पूर्व मौजूद सभ्यता ने स्वप्नचिन्हों और उनके अर्थों को मिट्टी की गोलियों पर उकेरा था, जो इस बात का प्रमाण है कि सपने वास्तव में प्राचीन सभ्यता के लिए भी रुचि का विषय रहे हैं ।ज्योतिष में तो सपनों का एक पूरा शास्त्र ही है।

        ●●● विभिन्न शोधों के अनुसार सपने ●●●

सपनों पर मनोविज्ञान विषय में भी 17वीं शताब्दी से अध्ययन हो रहा है, अरस्तू से लेकर सिग्मंड फ्रायड तक, सबने सपनों को वास्तविक जीवन का संकेत माना है।मनोविज्ञान और ज्योतिष दोनों ही इस बात पर एकमत हैं कि सपने हमारे बारे में बहुत कुछ बताते हैं अंतर सिर्फ इतना है कि मनोविज्ञान सपनों का आंकलन मानसिक व शारीरिक सेहत की दृष्टि से करता है और ज्योतिष अपने संकेतों के आधार पर सपनों का अर्थ समझाता है ।
तंत्रिका विज्ञान की कुछ शोधों ने हाल ही में यह जानने की कोशिश की थी कि हम सपने क्यों देखते हैं और सपनों में दिखने वाला घटनाक्रम कहाँ से उपजता है ? इसमें यह पाया गया कि ज्यादातर सपने हमारी भावनाओं से जुड़े होते हैं ।
      
     ●●● चरक संहिता में सपनों के प्रकार ●●●

आयुर्वेद की चरक संहिता में सपनों के सात प्रकार के बताए गए हैं----  दृष्ट, श्रुत, अनुभूत, प्रार्थित, कल्पित, भाविक और दोषज ।इनमें से भाविक सपना भविष्य में होने वाली घटना का संकेत करता है ।

      ●●● सपनों के बारे में कुछ दिलचस्प बातें ●●●

सपनों के बारे में दिलचस्प बात यह है कि जिसका आईक्यू जितना ज्यादा है, उसे उतने ही ज्यादा सपने आते हैं ।कुछ अध्ययनों से यह पता चला कि कि जानवर भी सोते समय मनुष्यों की तरह ही सपने देखते हैं ।जन्म से दृष्टिहीन लोगों को भी सपने आते हैं, लेकिन उन्हें कोई तस्वीर नहीं दिखती है, बल्कि उनके सपनों में आवाज़, गंध, स्पर्श और भावनाएँ ही आती हैं ।

कुछ सपने ऐसे होते हैं, जो लगभग हर किसी को आते हैं, जैसे -- ऊँचाई से गिरना , किसी चीज के पीछे भागना, हवा में उड़ना आदि।हमारे कुछ सपने ऐसे होते हैं, जिनमें हम अपनी उन इच्छाओं को भी पूरा होता हुआ देखते हैं, जो वास्तविक जीवन में पूरी नहीं हो पाईं हों।

परीक्षा छूट जाना, ट्रेन छूट जाना , ऑफिस के लिए लेट होना, ऊपर से गिरना, उड़ने की असफल कोशिश आदि इस तरह के सपने भी लोगों को आते हैं ।देर होने से सम्बंधित सपनों से यह पता चलता है कि व्यक्ति कुछ पूरा करने का अवसर खो चुका है ।

 कभी-कभी हमें कुछ अशुभ सपने भी दिखाई देते हैं ।इन स्वप्नों के निवारण हेतु दान, पूजन, रुद्राभिषेक, प्रार्थना एवं अन्य पुण्य कर्म करते रहना चाहिए ।

सपने हमारे जीवन से इतने जुड़े हुए हैं कि हमारे जीवन में जो घटित होने वाला है , उसका एहसास हमें सपनों में पहले ही होने लगता है।सपनों पर किसी का वश नहीं है फिर भी हमें सदा अपने मन में सकारात्मक विचार रखने चाहिए ।सोते समय प्रभु-स्मरण करना चाहिए । 

सादर अभिवादन व धन्यवाद ।


Thursday, September 17, 2020

महान गणितज्ञ 'श्री निवास अयंगर रामानुजन', रामानुजन का विद्यार्थी जीवन,महान गणितज्ञ कैसे बने?,प्रोफेसर हार्डी ने उनकी प्रतिभा को पहचाना,

             ●●● महान गणितज्ञ रामानुजन ●●●
रामानुजन का जन्म 22 दिसम्बर 1887 को तमिलनाडु राज्य में हुआ था ।उनके परिवार की आर्थिक स्थिति कमजोर थी ।बचपन से ही रामानुजन को गणित के प्रति विशेष रुचि हो गई थी।रामानुजन बचपन से ही अत्यन्त प्रतिभावान थे ।यह बात उनके स्कूल के इस उदाहरण से सिद्ध होती है ----

जब वे तीसरी कक्षा में थे तो एक दिन गणित के अध्यापक ने पढ़ाते हुए कहा --- " यदि तीन केले तीन व्यक्तिओं को बाँटे जाएँ तो प्रत्येक को एक केला मिलेगा। यदि 1000 (एक हजार) केले 1000 व्यक्तिओं में बाँटे जाएँ तो भी प्रत्येक को एक ही केला मिलेगा।इस तरह सिद्ध होता है कि किसी भी संख्या को उसी संख्या से भाग दिया जाए तो परिणाम 1 ( एक ) मिलेगा ।"-- यह सुनकर रामानुजन ने खड़े होकर पूछा--- " यदि शून्य को शून्य से भाग दिया जाए तो क्या परिणाम एक ही मिलेगा ?" 

रामानुजन के इस प्रश्न पर अध्यापक महोदय अवाक् रह गए ; क्योंकि इतनी छोटी उम्र में उन्होंने ऐसा प्रश्न किया , जो सामान्य बच्चे नहीं पूछ सकते थे, केवल वे ही इस प्रश्न को पूछ सकते थे, जो उसके बारे में गहराई से जानते हों।

   ●●● रामानुजन का विद्यार्थी जीवन संघर्षमय ●●●

रामानुजन के घर की आर्थिक स्थिति बहुत कमजोर थी, किंतु पढ़ने में उनकी अत्यधिक रुचि थी और बहुत प्रतिभाशाली भी थे ।पढ़ाई के प्रति उनका उत्साह देखकर घरवालों ने उनकी हाईस्कूल की पढ़ाई पूरी करवाई। बहुत प्रतिभावान होने पर भी घर वाले उन्हें काॅलेज नहीं भेज पा रहे थे।रामानुजन घर की आर्थिक स्थिति से परिचित थे इसलिए उन्होंने काॅलेज की पढ़ाई हेतु कड़ी मेहनत करके स्कॉलरशिप प्राप्त की और उसी के आधार पर उन्हें काॅलेज में प्रवेश मिल गया ।

रामानुजन को गणित विषय अत्यधिक प्रिय था और वे दिन-रात गणित के सवाल ही हल करते रहते थे।गणित को छोड़कर अन्य विषयों में उनका मन कम ही लगता था, किंतु काॅलेज की परीक्षा पास करने के लिए अन्य विषयों में भी पास होना अनिवार्य होता है, यह जानकर भी वे अन्य विषयों पर ध्यान नहीं दे पाते थे।यही कारण था कि एक बार वे गणित को छोड़कर अन्य सभी विषयों में फेल हो गए और जिसके कारण उनकी स्काॅलरशिप भी बन्द हो गई।घर की आर्थिक स्थिति ऐसी नहीं थी कि काॅलेज की फीस दे पाते।इसलिए उन्हें अपनी पढ़ाई बीच में ही छोड़नी पड़ी।

प्रतिभावान व्यक्ति कभी भी अनुकूल परिस्थिति की प्रतीक्षा नहीं करते और न ही प्रतिकूल परिस्थितियों से घबराते हैं ।वे तो जिस दिशा में चल देते हैं, वहीं नई राहें बन जाती हैं ।

             ●●● जहाँ चाह वहाँ राह ●●●

यह कथन रामानुजन के बारे में सही सिद्ध होता है ।प्रतिभा किसी की मोहताज नहीं होती, न धन की, न किसी विश्वविद्यालय की डिग्री की और न ही सम्मान की।रामानुजन किसी भी कीमत पर गणित को छोड़ना नहीं चाहते थे । सौभाग्य से वे जिस जगह काम करते थे, वहाँ रद्दी के ढेर में से उन्हें 'जार्ज कार' की लिखी गणित की पुस्तक 'सिनोप्सिस ऑफ एलीमेंटरी रिजल्ट्स इन प्योर मैथमैटिक्स' मिल गई ।इस पुस्तक को देखकर उन्हें इतनी खुशी हुई, जैसे कि उन्हें नई जिंदगी मिल गई हो।

   ●●● रामानुजन कैसे महान गणितज्ञ बने ? ●●●

जब रामानुजन को 'सिनोप्सिस ऑफ एलीमेंटरी रिजल्ट्स इन प्योर मैथमैटिक्स'  मिल गई, तब वे बहुत खुश हुए ।इस पुस्तक में गणित के कुल 6165 फार्मूले दिए गए थे, किंतु सभी फार्मूले सत्य हैं, इसकी उस पुस्तक में किसी प्रकार की कोई तार्किक ढंग से व्याख्या नहीं थी ।इस पुस्तक ने रामानुजन को प्रेरित किया और वे उसमें दिए गए फार्मूलों को सिद्ध करने में जुट गए ।

अब वे उन सूत्रों को ध्यान से पढ़ते और दिन रात उसी के बारे में सोचते रहते और उसे सुलझाने का प्रयास करते ।इसी प्रयास में उन्होंने अनेक खोजें कर डालीं ।वे अपने इन विचारों, कल्पनाओं और अभ्यास को एक नोटबुक में व्यवस्थित ढंग से लिख दिया करते थे ।इस प्रकार उन्होंने तीन नोटबुकें लिखीं ।

रामानुजन के द्वारा लिखीं गईं तीन नोटबुकों से बनी पुस्तकें वैज्ञानिकों के लिए आज भी उस पांडुलिपि के समान हैं, जिसके आधार पर देश में ही नहीं विदेशों में भी अनेक शोधकार्य संपन्न हुए।आज भी उनकी ये पुस्तकें गणितज्ञों व वैज्ञानिकों के लिए अमूल्य धरोहर हैं ।

 ●●●  प्रोफेसर हार्डी ने उनकी प्रतिभा को पहचाना ●●●

रामानुजन गणित के क्षेत्र में प्रतिभावान थे, लेकिन उनकी प्रतिभा को पहचाना----- कैम्ब्रिज यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर हार्डी ने ।उन्होंने रामानुजन के कार्यों को समुचित मान्यता दिलाई व यथोचित सम्मान दिलाया ।बाद में रामानुजन ने प्रोफ़ेसर हार्डी के साथ मिलकर अनेक शोधपत्र प्रकाशित कराए।

इंगलैंड में रहकर रामानुजन ने उच्च गणित के क्षेत्र में संख्या सिद्धांत, इलिप्टिक फलन, हाइपरज्योमैट्रिक श्रेणी इत्यादि में अनेक महत्वपूर्ण खोजें कीं, लेकिन वहाँ का मौसम उनके लिए अनुकूल नहीं रहा और 26 अप्रैल 1920 को मात्र 32 साल की कम उम्र में उनका शरीर छूट गया ।

शरीर छोड़ने से पहले जब वे बीमार थे तब उन्होंने अपने गुरु एवं ब्रिटिश गणितज्ञ जी एच हार्डी को एक पत्र लिखा।इस पत्र में उन्होंने अनेक गणितीय फलनों की रूपरेखा प्रस्तुत की, जिसे उससे पहले कभी सुना भी नहीं गया था ।इस पत्र में रामानुजन ने इन फलन के बारे में ये भी संकेत दिए थे कि वे कैसे कार्य करते थे।
 
 ● डेली मेल की एक रिपोर्ट के अनुसार रामानुजन के फार्मूले ●

डेली मेल की एक रिपोर्ट के अनुसार---- अनुसंधानकर्ताओं ने बताया कि रामानुजन के फार्मूले बिल्कुल सही थे और ये फार्म्यूले 'ब्लैक होल' की प्रक्रिया की भी व्याख्या कर सकते हैं ।ब्लैक होल दिक्-काल एक ऐसा क्षेत्र है, जहाँ से गुरुत्वाकर्षण प्रकाश समेत किसी भी चीज को निकलने नहीं देता। एमोरी विश्वविद्यालय के गणितज्ञ  'केन ओनो' का इस बारे में कहना है कि सन् 1920 के दशक में जब कोई ब्लैक होल की चर्चा नहीं करता था, उस समय रामानुजन द्वारा दिए गए फार्म्यूले भविष्य में प्रकट होने वाले रहस्यों को भी बेनकाब कर रहे हैं ।

●उच्च गणित के क्षेत्र की खोजों से रामानुजन अमर हो गए●

किसी भी प्रकार की औपचारिक शिक्षा न लेने के बाबजूद रामानुजन ने उच्च गणित के क्षेत्र में ऐसी विलक्षण खोजें कीं कि इस क्षेत्र में उनका नाम अमर हो गया ।गणित के क्षेत्र में रामानुजन किसी भी प्रकार से अन्य गणितीय विशेषज्ञों जैसे गौस , यूलर और आर्किमिडीज से कम नहीं थे।

रामानुजन का जीवन इस बात का प्रत्यक्ष उदाहरण है कि जो व्यक्ति कभी परिस्थितियों से हार नहीं मानता, जो इतना दृढ़ है कि उसके आगे किसी भी प्रलोभन का कोई मोल नहीं , वही जीवन में महान कार्य कर सकता है।

सादर अभिवादन व धन्यवाद ।

Sunday, September 13, 2020

देवर्षि नारद,नारद शब्द का अर्थ,देवर्षि के पद तथा लक्षण,हिन्दू शास्त्रों के अनुसार देवर्षि नारद,नारद जी ज्ञानी व दूरदर्शी,नारद जी की रचनाएँ, राजनीतिक उपदेशक,शास्त्रों में नारद जी का व्यक्तित्व

               ●●● देवर्षि नारद ●●●
नारायण का निरन्तर भजन करने वाले देवर्षि नारद से सभी लोग परिचित हैं ।इनकी चर्चाएँ प्रायः सभी पुराणों में हैं ।टीवी पर दिखाया जाने वाला कोई भी धार्मिक-पौराणिक कार्यक्रम हो ,वह देवर्षि नारद का उल्लेख किए बिना अधूरा रहता है। शास्त्रों में नारद को भगवान का मन कहा गया है, इसलिए सभी ग्रन्थों में नारद जी का महत्वपूर्ण स्थान है।केवल देवताओं ने ही नहीं, दानवों ने भी इन्हें सदैव आदर दिया है।

श्रीमद्भगवद्गीता के 10वें अध्याय के 26वें श्लोक में स्वयं भगवान श्री कृष्ण ने यह कहा है --- देवर्षीणाम् च नारदः अर्थात देवर्षियों में मैं नारद हूँ ।'श्रीमद्भागवत महापुराण' का कथन है कि सृष्टि के चक्र में भगवान ने देवर्षि नारद के रूप में तीसरा अवतार ग्रहण किया और सात्वत तंत्र ( जिसे नारद पांचरात्र भी कहते हैं ) का उपदेश दिया, जिसमें सत्कर्मों के द्वारा भवबंधन से मुक्ति का मार्ग दिखाया गया है ।
      
   ●●●●● नारद शब्द का विशेष अर्थ ●●●●●

नारद शब्द का विशेष अर्थ -- 'नार' शब्द का अर्थ है-- ज्ञान तथा 'द' शब्द का अर्थ है -- देना।अर्थात जो तीनों लोकों का ज्ञान देता है, उसे नारद कहते हैं ।जो अज्ञानता का नाश कर दे, वह नारद है ।ब्रह्मवैवर्त पुराण के अनुसार-- ददाति नारं ज्ञानं च बालकेभ्यश्च बालकः।जातिस्मरो महाज्ञानीतेनाय नारदः स्मृतः।। अर्थात जो ज्ञानदान करते हैं, बालकों के लिए बालक यानी सरल बच्चे की भाँति छल, छद्म से रहित बन जाते हैं, जो जातिस्मर ( जिन्हें अपने पूर्वजन्मों की स्मृति बनी रहती है) भी हैं, वे ही नारद हैं ।

    ●●●●● देवर्षि के पद तथा लक्षण●●●●●

वायु पुराण में देवर्षि के पद तथा लक्षणों का वर्णन किया गया है, जिसके अनुसार--- देवलोक में प्रतिष्ठा प्राप्त करने वाले ऋषिगण देवर्षि नाम से जाने जाते हैं । ये भूत, वर्तमान और भविष्य तीनों कालों के ज्ञाता, सत्यभाषी, स्वयं का साक्षात्कार करके स्वयं में संबद्ध, कठोर तपस्या के कारण लोकविख्यात, गर्भावस्था में ही अज्ञानरूपी अंधकार के नष्ट हो जाने से जिनमें ज्ञान का प्रकाश हो चुका है-- ऐसे मंत्रवेत्ता तथा अपने ऐश्वर्य (सिद्धियों) के बल से सब लोकों में पहुँचने में सक्षम, मंत्रणा हेतु मनीषियों से घिरे हुए देवता , द्विज और नृप -- देवर्षि कहे जाते हैं ।

इसी पुराण के अनुसार-- धर्म, पुलस्त्य क्रतु, पुलह, प्रत्यूष और कश्यप -- इनके पुत्रों को देवर्षि का पद प्राप्त हुआ।धर्म के पुत्र नर एवं नारायण, क्रतु के पुत्र बालखिल्यगण, पुलह के पुत्र कर्दम, पुलत्स्य के पुत्र कुवेर, प्रत्यूष के पुत्र नारद और पर्वत-- देवर्षि माने गए, लेकिन जनसाधारण में देवर्षि के रूप में केवल नारद जी ही प्रसिद्ध हैं ।


●●●●● हिन्दू शास्त्रों के अनुसार देवर्षि नारद ●●●●●

हिन्दू शास्त्रों के अनुसार--- देवर्षि नारद ब्रह्मा जी के मानस पुत्र हैं ।ये भगवान विष्णु के अनन्य भक्त माने जाते हैं ।ये भक्ति तथा संकीर्तन के आदि आचार्य हैं ।ये सदैव भगवान नारायण का कीर्तन करते रहते हैं, इस हेतु इनका वाद्ययंत्र वीणा और मजीरा हैं ।नारद जी का उल्लेख ऋग्वेद एवं अथर्ववेद में भी आया है।वेद मंत्रों का जिस ऋषि ने साक्षात्कार किया, उस सूत्र के मंत्रों का वह दृष्टा ऋषि कहलाता है ।ऋग्वेद के आठवें मंडल के 13वें सूत्र को सबसे पहले देवर्षि नारद जी ने ही प्राप्त किया था।नारद जी ऋग्वेद के मंत्रों के प्रथम अर्थकर्ता हैं ।
        
       ●●● देवर्षि नारद ज्ञानी व दूरदर्शी ●●●

देवर्षि नारद धर्म के प्रचार तथा लोक कल्याण हेतु सदैव प्रयत्नशील रहते हैं ।ये संभावित संकटों को भाँपकर लोगों को सचेत करने वाले दूरदर्शी व ज्ञानी व्यक्ति हैं,ये जाग्रति के संवाहक हैं। ये खरी व कड़वी बात कहने से भी कभी परहेज नहीं करते, चाहे उनके सामने कितना ही शक्तिशाली व्यक्ति क्यों न हो।पुराणों के अनुसार-- वे गृहस्थों को परोपकार, निस्स्वार्थता, दूरदर्शिता जैसे उत्कृष्ट गुणों का पाठ पढ़ाते नजर आते हैं ।

नारद जी सभी लोकों में स्वेच्छा से विचरण करने वाले हैं ।ये एक तरह से संदेशों को एक लोक से दूसरे लोक में, एक व्यक्ति से तक पहुँचाने का कार्य करते हैं, इसलिए इन्हें पुरातन युग का "संदेश वाहक" भी कह सकते हैं ।

 ●●●●● देवर्षि नारद की प्रसिद्ध रचनाएँ ●●●●●

देवर्षि नारद की प्रसिद्ध रचनाएँ--- नारद पांचरात्र, नारद भक्तिसूत्र, नारद पुराण, नारद,स्मृति आदि हैं ।इनसे सम्बन्धित उपाख्यान हमारे वैदिक साहित्य, रामायण, महाभारत, पुराण, स्मृतियों, अथर्ववेद, ऐतरेय ब्राह्मण आदि में मिलते हैं ।

अठारह महापुराणों में से एक नारदोक्त पुराण--- बृहन्नारदीय पुराण के नाम से प्रख्यात है।मत्स्य पुराण में यह वर्णन है कि श्री नारद जी ने बृहत्कल्प प्रसंग में जिन अनेक धर्म आख्यायिकाओं को कहा है , 25000 श्लोकों का वह महाग्रंथ ही नारद महापुराण है।वर्तमान समय में उपलब्ध नारद पुराण में मात्र 22000 श्लोक हैं ।प्राचीन पांडुलिपि का कुछ भाग नष्ट हो जाने के कारण 3000 श्लोक कम हो गए हैं ।

नारद पुराण तो वेद,वेदांगों का सर्वस्व है।नारदीय संहिता ज्योतिषशास्त्र की मूल है।नारद स्मृति धार्मिक विषयों का प्रतिपादन करती है।

  ●●● नारद जी ने शाप को वरदान में बदल दिया ●●●

पुराणों के अनुसार-- एक बार नारद जी ने प्रजापति दक्ष के पुत्र हर्यस्व, शवलाश्व आदि को योगशास्त्र का उपदेश देकर उन्हें संसार त्यागी बना दिया ।इससे क्रोधित होकर दक्ष ने उन्हें शाप दे दिया 
कि नारद जी दो घड़ी से अधिक एक स्थान पर नहीं टिक सकेंगे ।नारद जी ने इस शाप को दूसरों के परोपकार के लिए वरदान में बदल दिया।वे घूमघूमकर आने वाले संकटों को भाँपकर लोगों को सचेत करने लगे।

     ●●● देवर्षि नारद राजनीति के उपदेशक ●●●

नारद जी द्वारा राजनीति संबंधी महाराज युधिष्ठिर को जो उपदेश दिए वे उच्च कोटि के हैं ।देवर्षि नारद ने राजा अंबरीष को वैष्णव धर्म के प्रसंग में समाज नीति का जो उपदेश दिया वह आज भी उपयोगी है ।नारद जी के उपदेश इतने हृदयगाही और सच्चे हैं कि वे महानिष्ठुर हृदय पर भी प्रभाव डाले बिना नहीं रहते।नारद जी बिना किसी भेदभाव के सभी के हित के लिए केवल सत्य बोलते हैं ।यही कारण है कि नारद जी को देव-दानव, मनुज-राक्षस सभी ने सम्मान दिया है।

नारद जी ने महर्षि वाल्मीकि को रामचरित्र का उपदेश दिया, जिससे आदिकाव्य रामायण की रचना संभव हुई।वेदव्यास जी को उन्होंने महापुराण का मर्म सुनाया था ।उनके उपदेश से प्रभावित होकर भागवत पुराण की रचना हुई ।

●● देवर्षि नारद आध्यात्मिक,किंतु व्यावहारिक ज्ञानोपदेश●●
एक बार व्यासपुत्र शुकदेव ने देवर्षि नारद जी को ज्ञानोपदेश देने को कहा।नारद जी ने उन्हें जो ज्ञान दिया, उसे अध्यात्म की पराकाष्ठा माना जा सकता है ।नारद जी ने कहा -- " मनुष्य मात्र को दुःख न देने की कोशिश करना ही सर्वोत्तम धर्म है।इसलिए जो मनुष्य किसी भी प्राणी को सताता है, उसका धर्म व उसके सभी अनुष्ठान सर्वथा व्यर्थ है।

क्षमा धर्म ही सबसे बड़ा बल है।आत्मा को जीत लेना ही सबसे बड़ा ज्ञान है, लेकिन सत्य से बढ़कर अन्य कोई धर्म नहीं है; क्योंकि परमात्मा स्वयं सत्य स्वरूप हैं ।सत्य वचन बोलना कल्याणकारी है, लेकिन जो वास्तव में प्राणियों के लिए हितकर नहीं है, वह असत्य वचन है।"  

नारद जी का यह आध्यात्मिक किंतु व्यावहारिक ज्ञानोपदेश आमजन के लिए भी उपयोगी है।यदि हम नारद जी के जीवन चरित्र और उपदेशों पर विचार करें, तो पता चलेगा कि जन्म से ही वैरागी प्रवृत्ति होने के बावजूद उनके उपदेश गृहस्थ धर्म के लिए भी बहुत उपयोगी हैं ।
 
●●● देवर्षि नारद ने बहुत लोगों के जीवन को बदला ●●●

देवर्षि नारद ने बहुत लोगों के जीवन को बदला, इनमें डाकू रत्नाकर का नाम आता है , डाकू रत्नाकर को उन्होंने संसार की वास्तविकता से परिचित कराया और उसके मन को बदलने के लिए 'राम' नाम के स्थान पर 'मरा' शब्द का निरंतर जप करने के लिए कहा ; क्योंकि उनकी प्रवृत्ति के अनुसार वे राम नाम का उच्चारण कर ही नहीं सकते थे, लेकिन मरा-मरा का उच्चारण कर सकते थे ।मरा- मरा का उच्चारण करते-करते वे राम-राम का उच्चारण करने लगे और प्रचंड तपस्या करने के कारण वे डाकू से ऋषि बन गए।

राजकुमार ध्रुव जब अपने पिता की गोद में बैठने के लिए अत्यंत लालायित हो उठे और उन्हें अपनी सौतेली माँ से इसके लिए कटु वचन सुनने पड़े, तो वे परमात्मा की प्राप्ति के लिए तपस्या हेतु चल पड़े ।उस समय उनका मार्गदर्शन देवर्षि नारद ने किया और उन्हें " ॐ नमो भगवत वासुदेवाय " मंत्र जपने के लिए कहा ।

●●● महाभारत में नारद जी के व्यक्तित्व का परिचय ●●●

महाभारत के सभापर्व के पाँचवें अध्याय में नारद जी के व्यक्तित्व का परिचय उल्लेखित है।इसके अनुसार--- देवर्षि नारद आत्मज्ञानी, नैष्ठिक ब्रह्मचारी, वेद और उपनिषदों के मर्मज्ञ, देवताओं के पूज्य, इतिहास व पुराणों के विशेषज्ञ, पूर्वकल्पों की बातों को जानने वाले, न्याय एवं धर्म के तत्वज्ञ, शिक्षा-व्याकरण-आयुर्वेद व ज्योतिष के प्रकांड विद्वान, संगीत विशारद, प्रभावशाली वक्ता, मेधावी, नीतिज्ञ, कवि, महापंडित, वृहस्पति जैसे महाविद्वानों की शंकाओं का समाधान करने वाले, धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष के यथार्थ ज्ञाता, योगबल से समस्त लोकों के समाचार जानने में समर्थ, सांख्य एवं योग के सम्पूर्ण रहस्य को जानने वाले, देवताओं-दैत्यों के लिए वैराग्य के उपदेशक, कर्तव्य-अकर्तव्य में भेद करने में दक्ष, समस्त शास्त्रों में प्रवीण, सद्गुणों के भंडार , सदाचार के आधार, आनंद के सागर , परम तेजस्वी, सभी विद्याओं में निपुण , सबके हितकारी और सर्वत्र गति करने वाले हैं ।

   ●●भगवान श्रीकृष्ण के अनुसार नारद जी सर्वत्र पूजित●●
एक बार महाराज उग्रसेन ने भगवान श्रीकृष्ण से पूछा कि नारद में ऐसे कौन से गुण हैं, जिससे वे लोकपूज्य कहे गए ।इसके उत्तर में श्री कृष्ण ने कहा---- " नारद को कभी स्वयं पर अभिमान नहीं हुआ ।उनमें क्रोध, चंचलता, भय, काम, लोभ आदि नहीं हैं ।वे अध्यात्म तत्व को जानने वाले, क्षमाशील, जितेन्द्रिय, सरल हृदय तथा सत्यवादी हैं ।उनमें राग-द्वेष नहीं हैं ।वे स्वाभाविक रूप से वीतरागी हैं ।उनका अंतःकरण निर्विकार है।इसलिए नारद सर्वत्र पूजित हैं ।

सादर अभिवादन व धन्यवाद ।