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Monday, December 28, 2020

समय की परिभाषा, विज्ञान की भाषा में समय,जीवन का हर पल मूल्यवान, समय की पहचान, समय प्रबंधन

                  ●●● समय की परिभाषा ●●●
समय ही जीवन है और जीवन ही समय है ।जीवन से समय को निकाल दिया जाए तो जीवन की कल्पना भी संभव नहीं है ।समय के बिना जीवन का कोई अर्थ नहीं है ।समय के सदुपयोग में ही जीवन का अर्थ प्रकट होता है ।समय की महिमा एवं मर्यादा में जीवन के सभी रहस्य समाहित हैं ।

समय को काल भी कहते हैं । भगवान कृष्ण गीता में कहते हैं -- मैं काल हूँ ।काल से बड़ा कोई नहीं है ।जहाँ काल समाप्त होता है, वहाँ कुछ भी नहीं होता है और जहाँ काल होता है वहाँ सब कुछ होता है, समस्त संभावनाएँ विद्यमान होती हैं ।

सत्य तो यह है कि हमें जीवन भी जन्म के क्षण से ही मिला है ।जन्म के पल से ही हम सबने जीवन का अनुदान और वरदान पाया है ।तब से लेकर आज तक क्षण-क्षण की बूँदों से बनी हुई समय की धारा में हम सतत-प्रवाहमान हैं ।

दुर्गासप्तशती में समय को शक्ति का स्वरूप माना गया है ।माता भगवती की लीला और उसके रहस्य इसी काल के गर्भ में समाहित हैं ।माता भगवती की समस्त शक्तियों के रहस्य, जिनसे इस सृष्टि का सृजन होता है और सृजन के बाद लय होती है -- इसी काल की महिमा में अवस्थित हैं ।काल को कल्पनाएँ भी कहा जाता है अर्थात जो भी कल्पना की जाती है , काल उसे पूर्ण कर देता है , बस आवश्यकता तो इसे पहचान कर इसका समुचित नियोजन करने की है।

          ●●● विज्ञान की भाषा में समय ●●●

विज्ञान की भाषा में समय एक भौतिक राशि है ।जब समय व्यतीत होता है , तब घटनाएँ घटित होती हैं तथा समय चक्र बदलता है।अतः दो लगातार घटनाओं के होने अथवा किसी गतिशील बिंदु के एक बिंदु से दूसरे बिंदु तक जाने के अंतराल को समय कहते हैं ।इस प्रकार हम कह सकते हैं कि समय वह भौतिक तत्व है , जिसे घड़ी यंत्र से नापा जाता है।

सापेक्षतावाद के अनुसार समय स्पेस के सापेक्ष है ।सामान्य रूप से समय का मापन पृथ्वी के सूर्य के सापेक्ष गति से उत्पन्न स्पेस के सापेक्ष समय से किया जाता है ।समय को नापने के लिए सुलभ घड़ीयंत्र पृथ्वी ही है, जो अपने अक्ष एवं कक्षा में घूमकर हमें समय का बोध कराती है ।

           ●●● जीवन का हर पल मूल्यवान ●●●

जीवन का हर पल मूल्यवान है, कोई भी क्षण व्यर्थ नहीं है, हर पल अपने साथ एक नया एवं अनूठा अवसर लेकर आता है ।यदि इस अवसर का सदुपयोग कर लिया जाए तो जीवन की नई राहें खुल जाती हैं।जीवन का हर पल बेशकीमती है, इसका कोई विकल्प नहीं है ।हर पल अपने आप में बस एक ही है, उसके जैसा दूसरा और कोई नहीं है ।क्षण में ही सफलता और असफलता का रहस्य भी समाहित है।

समय की पहचान बड़ी बात है ।समय न तो अच्छा होता है और न बुरा होता है, समय तो बस समय होता है ।जो समय को पहचान लेता है और उसके अनुरूप अपना पुरुषार्थ करता है, वह कभी भी असफल नहीं हो सकता ।सफलता और असफलता का रहस्य संकल्प के साथ किए जाने वाले पुरुषार्थ में निहित है ।इसलिए आवश्यक है-- समय की पहचान और उसके अनुरूप पुरुषार्थ का सही नियोजन ।

जिन्होंने समय के हर पल का महत्व समझा उन्होंने समय को साधकर कम समय में ही महान कार्य किए ।आदिगुरु शंकराचार्य की उम्र 32 वर्ष थी ।इस छोटी सी उम्र में उन्होंने  महान कार्य करके जीवन में अभूतपूर्व सफलता हासिल की ।स्वामी विवेकानन्द जी 39 वर्ष में ही महान व्यक्तित्व के धनी बने ।महर्षि दयानंद, रामानुजन व अन्य कई महान लोगों ने समय का सम्यक उपयोग करके  जीवन में असम्भव कार्यों को सम्भव किया ।

●●● समय की पहचान खिलाड़ी के उदाहरण द्वारा ●●●

समय की पहचान का अर्थ है कि हमें कब क्या करना है- समय की सही पहचान एक खिलाड़ी करता है ।सही क्षण को पहचान कर कोई बल्लेबाज किसी गेंद को सीमा पार छक्का भी लगा सकता है अन्यथा उसी में आउट भी हो सकता है ।एक खिलाड़ी फुटबाल को गोल में डालकर हार और जीत का रुख बदल सकता है ।खिलाड़ी को सही क्षण की पहचान होनी चाहिए ।

एक चिकित्सक के लिए भी एक सही क्षण बड़ा महत्वपूर्ण होता है ।उसी क्षण पर रोगी का जीवन निर्भर करता है ।एक पायलट को  एक सही क्षण पर निर्णय लेना होता है ।क्योंकि पायलट के ऊपर सभी यात्रियों का जीवन और मृत्यु, दोनों निर्भर करते हैं ।समय विषम हो सकता है, परंतु उस समय में भी महत्वपूर्ण कार्य किए जा सकते हैं ।जो साहसी होते हैं वे विषम समय में भी सर्वश्रेष्ठ कार्य कर लेते हैं ।

   ●●● सफलता के लिए समय प्रबंधन आवश्यक ●●●

हम अपने सामान्य से जीवन में भी समय प्रबंधन से महत्वपूर्णकार्य कर सकते हैं ।हमें अपनी आवश्यकता एवं उद्देश्य के अनुरूप अपनी दिनचर्या को व्यवस्थित करने की जरूरत है ।सबकी दिनचर्या अलग-अलग होती है ।सही समय पर भोजन, नींद एवं कार्य का नियोजन हमें करना चाहिए ।समय के साथ कार्य की प्राथमिकता निर्धारित होनी चाहिए ।हर पल का सदुपयोग करने की कला आनी चाहिए ।इसी में जीवन की सार्थकता है।


Friday, December 18, 2020

आध्यात्मिकता का सही अर्थ , आध्यात्मिक व संसारी व्यक्ति में अन्तर, आध्यात्मिकता का आंकलन , आध्यात्मिकता व्यक्तित्व के सर्वांगीण विकास की प्रक्रिया, आध्यात्म पूर्णतः प्रयोग का विषय, महर्षि रमण का आध्यात्मिक प्रयोग

           ●●● आध्यात्मिकता का सही अर्थ ●●●
आध्यात्मिक होने का अर्थ है कि व्यक्ति अपने अनुभव के धरातल पर यह जानता है कि वह स्वयं अपने आनंद का स्रोत है ।आध्यात्म का विषय ही मनुष्य के आंतरिक जीवन से जुड़ा हुआ 
है ।वे सभी गतिविधियाँ जो मनुष्य को परिष्कृत, निर्मल बनाती हैं, आनंद से भरपूर करती हैं, पूर्णता का एहसास देती हैं, स्वयं से परिचय करती हैं-- वे सब आध्यात्म के अंतर्गत आती हैं ।

किसी चीज को सतही तौर पर जानना सांसारिकता है और उसे गहराई तक जानना आध्यात्मिकता है ।आध्यात्मिक दृष्टिकोण ही मनुष्यों को सही राह दिखा पाने में सक्षम है और यही हम सबके जीवन का ध्येय होना चाहिए ।लोगों ने अभी तक आध्यात्म व आध्यात्मिकता का सही अर्थ नहीं समझा है।इसी कारण इसे अपनाने में कतराते हैं ।

आध्यात्मिकता का संबंध मनुष्य के आंतरिक जीवन से है और इसकी शुरुआत होती है -- उसकी अंतर्यात्रा से ।मनुष्य पूरी दुनिया में भ्रमण करता है , लेकिन अंतर्यात्रा ही नहीं करता तथा अपने अंतर में प्रवेश ही नहीं कर पाता । विरले ही होते हैं, जो इस अंतर्यात्रा में प्रवेश के अधिकारी होते हैं, इसके लिए सत्पात्र होते है और सामान्य जन आध्यात्मिक जीवन की पात्रता की कसौटी को जाने बिना ही इसे कठिन मार्ग मान लेते हैं ।

   ●●● आध्यात्मिक व संसारी व्यक्ति में अन्तर●●●

      एक बार एक सद्गुरु से  शिष्य ने प्रश्न किया-- " एक आध्यात्मिक व एक संसारी व्यक्ति में क्या अन्तर है ? "  इस प्रश्न का सद्गुरु ने सहज उत्तर दिया ---" एक संसारी मनुष्य केवल सांसारिक कार्यों को कर पाने में सक्षम होता है ; जबकि आंतरिक संतुष्टि के लिए उसे दूसरों पर निर्भर रहना पड़ता है ।इसके विपरीत एक आध्यात्मिक व्यक्ति अपनी आंतरिक संतुष्टि स्वयं अर्जित करता है और मात्र सांसारिक कार्यों के लिए  संसार पर निर्भर रह सकता है ।

आध्यात्मिकता  का व्यक्ति के बाहरी जीवन से कुछ भी लेना-देना नहीं है कि वह कैसे रहता है ? क्या पहनता है और क्या खाता है ?
अर्थात बाहरी वेषभूषा व रहन-सहन से आध्यात्मिकता का कोई संबंध नहीं है ; क्योंकि इसका वास्तविक संबंध व्यक्तित्व की अतल गहराई से है ।आध्यात्मिकता सोए हुए संवेदनहीन व्यक्तियों के लिए नहीं है, यह निधि तो उनके लिए है, जो जीवन के हर आयाम को पूर्ण जीवंतता के साथ जीते हैं और हर पल सजग व सक्रिय रहते हैं ।

सच तो यह है कि सांसारिक उपलब्धियों के लिए जितने साहस, श्रम और संघर्ष की आवश्यकता है, उससे कहीं अधिक आध्यात्मिक जीवन के लिए साहस और संघर्ष आवश्यक हैं ।सांसारिक उपलब्धियों को पाने के लिए जो चुनौतियाँ होती हैं, वे बाहरी होती हैं, दृश्य में होती हैं अतः इनका सामना करने के लिए हमारे पास निश्चित योजनाएँ होती हैं, परंतु आध्यात्मिक जीवन आंतरिक एवं अदृश्य होता है वह दिखता नहीं है, इसलिए इसकी चुनौतियाँ और संघर्ष, अधिक भारी और जटिल होते हैं ।

      ●●● आध्यात्मिकता का आंकलन ●●●

आध्यात्मिकता का आंकलन कैसे हो ? आध्यात्मिक जीवन की बहुत-सी कसौटियाँ हैं, लेकिन कुछ ऐसी प्रमुख बातें हैं, जिन्हें जानकर हम यह आंकलन कर सकते हैं कि हमारे अंदर आध्यात्मिकता का कितना अंश है ? जैसे ---
● यदि किए जाने वाले कार्यों का उद्देश्य स्वार्थ न होकर परमार्थ है , तो यह आध्यात्मिकता की राह है ।
● यदि व्यक्ति अपने अहंकार, क्रोध , नाराजगी, लालच, ईर्ष्या और पूर्वाग्रहों को गला चुका है तो वह आध्यात्मिक जीवन की डगर पर बढ़ रहा है ।
● व्यक्ति की बाहरी परिस्थितियाँ चाहे जैसी भी हों , पर वह यदि आंतरिक रूप से प्रसन्न रहता है तो इसका अर्थ है कि वह आध्यात्मिक जीवन को महसूस करने लगा है ।
● यदि व्यक्ति इस विशाल सृष्टि के सामने स्वयं को नगण्य मानने   का एहसास कर पाता है तो वह आध्यात्मिक बन रहा है ।
● मनुष्य के  पास जो कुछ भी है , उसके लिए यदि वह सृष्टि या       परमसत्ता के प्रति कृतज्ञता महसूस कर पाता है तो वह                आध्यात्मिकता की ओर बढ़ रहा है ।
● यदि व्यक्ति में स्वजनों के प्रति जितना प्रेम उमड़ता है , उतना      ही सभी लोगों के लिए उमड़ता है , तो वह आध्यात्मिक है ।
 
●आध्यात्मिकता व्यक्तित्व के सर्वांगीण विकास की प्रक्रिया●

आध्यात्मिक प्रक्रिया व्यक्ति की एक ऐसी  अंतर्यात्रा है, जिसमें निरंतर परिवर्तन घटित होता है और इन परिवर्तनों के कारण उपजे उतार-चढ़ाव को उसे सहने की शक्ति मिलती है ।दूसरे शब्दों में कहें तो अंतर्यात्रा द्वारा व्यक्तित्व का रूपांतरण हो जाता है ।

जो साधक आध्यात्मिक डगर पर आगे बढ़ते हैं, उनमें अदम्य साहस, सशक्त मन, स्वस्थ शरीर व संतुलित भावनाओं का होना जरूरी है ।आध्यात्मिकता से ही यह बात समझ में आती है कि परमात्मा ही एकमात्र पूर्ण हैं, जो उसके जीवन को पूर्णता की ओर ले जा सकते हैं ।इसलिए व्यक्ति अंतर्यात्रा द्वारा अपनी आत्मा का संबंध परमात्मा से जोड़ता है ।

आध्यात्मिकता मूलतः व्यक्तित्व के सर्वांगीण विकास की प्रक्रिया है ।इसके माध्यम से साधक अपने व्यक्तित्व में जन्म-जन्मांतरों से पड़ी हुई गाँठों को खोल पाते हैं और अपने जीवन लक्ष्य को प्राप्त कर पाते हैं ।आध्यात्मिकता का अर्थ है कि अपने विकास की प्रक्रिया को खूब तेज कर देना ।आध्यात्मिक मार्ग पर चलने का अर्थ है कि व्यक्ति अपने बंधनों से मुक्त हो रहा है , पूरी तरह से स्वतंत्र हो रहा है उसे स्वतंत्र होने का यह अधिकार स्वयं प्रकृति ने दिया है ।

परमात्मा यद्यपि प्रत्यक्ष दृश्यमान नहीं हैं, लेकिन अंतर्यात्रा का पथिक अपनी पवित्र भावनाओं के माध्यम से उन अदृश्य परमात्मा तक पहुँच सकता है ।और उनके सतत सान्निध्य को प्राप्त कर सकता है ।ज्ञानी जन कहते हैं कि 'शून्य में विराट समाया है और इस विराट में भी शून्य है '। जो इस शरीर में ही रहकर परमात्मा के इस विराट रूप को समझ पाता है, उसे अनुभव कर पाता है, वही आध्यात्मिक है और इसके लिए उसे इस भौतिक दृश्यमान जीवन से परे घटित होने वाले जीवन को भी अनुभव करना होगा ।

आध्यात्मिकता न तो मनोवैज्ञानिक प्रकिया है और न ही सामाजिक ।यह शत-प्रतिशत हमारे अस्तित्व से संबंधित है ।यदि हम किसी कार्य में पूरी तन्मयता से डूब जाते हैं तो वहीं पर आध्यात्मिक प्रक्रिया की शुरुआत हो जाती है ।

   ●●● आध्यात्मिक पूर्णतः प्रयोग का विषय ●●●

आध्यात्म पूर्णतः प्रयोग का विषय है , अनुभूति का विषय है ।स्वयं पर किए गए प्रयोग से ही वह अनुभूति प्राप्त हो सकती है ।जीवन का शीर्षासन है -- आध्यात्म ।आत्मपरिष्कार की साधना है -- आध्यात्म ।आध्यात्म क्षेत्र में हमें शास्त्रों, पुराणों, योगियों, तपस्वियों से मार्गदर्शन अवश्य प्राप्त हो सकता है, पर अनुभूति तो स्वयं पर किए गए प्रयोगों से ही हो सकती है ।

योग, आध्यात्म का आनंद तो योग में होकर , योग में जीकर ही लिया जा सकता है ।आध्यात्मिक प्रयोग एवं उत्थान हेतु आवश्यक है-- साधना के प्रति जुनून, साधना का नियमित अभ्यास, जीवन में यम-नियम का पालन ।साधना के साथ ही आवश्यक है-- सेवापरायण, श्रमपरायण, कर्तव्यपरायण व पुरुषार्थपरायण जीवन ।

यदि हम सचमुच ऐसी सच्ची साधना कर सकें तो एक दिन हमारे लिए भी अवश्य आएगा -- आनंद का पल , अनुभूति का पल, उत्सव का पल, उल्लास का पल और इस प्रकार मानो अपना जीवन ही उत्सव हो जाएगा ।साथ ही मिलेगी हमसे अगणित लोगों को जीवन की सच्ची राह ।यदि हम अध्यात्म के पथ पर अविरल, अविराम चलते रहें तो एक दिन अपना अंतस् ब्रह्मज्ञान से जगमगा उठेगा, उस दिन हमारे आनंद का सचमुच कोई पारावार न होगा । हर जगह सत्यम्, शिवम्,सुन्दरम् की अभिव्यक्ति होगी ।

      ●●●महर्षि रमण का आध्यात्मिक प्रयोग ●●●

सन् 1938 में महान स्विस मनोचिकित्सक कार्ल जुंग, महर्षि रमण से मिलने अरुणाचलम् आए ।आध्यात्मिक प्रयोग पर चर्चा के समय महर्षि रमण ने कहा----

मेरे आध्यात्मिक प्रयोग की वैज्ञानिक   जिज्ञासा थी -- मैं कौन हूँ ? इसके समाधान के लिए मैंने मनन एवं ध्यान की अनुसंधान विधि का चयन किया ।इसी अरुणाचलम् पर्वत की गुफा में शरीर व मन की प्रयोगशाला में मेरे प्रयोग चलते हैं ।इन प्रयोगों के परिणाम में अपरिष्कृत अचेतन, परिष्कृत होता चला गया ।चेतना की नई-नई परतें खुलती चलीं गईं ।इसका मैंने निश्चित कालक्रम में परीक्षण एवं आंकलन किया ।अंत में मैं इस निष्कर्ष पर पहुँचा कि मेरा अहम्, आत्मा में विलीन हो गया ।

योगियों, महापुरुषों के जीवन से, साहित्य से सही मार्गदर्शन प्राप्त कर हम भी अध्यात्म के पथ पर अब क्यों न चल पड़ें ? हम क्यों वंचित रहें, अध्यात्म के अमृत आनंद से , अनुभूति से, प्रयोग से ।बस आवश्यकता है, सही दिशा में सही प्रयोग करने की ।

Thursday, December 17, 2020

तनाव क्या है ? तनाव के कारण, तनाव दूर करने के उपाय

                    ●●● तनाव क्या है ? ●●●
 आज तनाव से हर कोई परिचित है ; क्योंकि तनाव ने हर मनुष्य के जीवन में अपनी जगह बना ली है ।हर उम्र के लोगों में तनाव का प्रवेश हो गया है ।और हो भी क्यों न ! आज हर व्यक्ति जीवन की एक ऐसी दौड़ में शामिल है, जिसमें परिस्थितियाँ उसके ऊपर दबाव डालती हैं ।उसे काम करने के लिए मजबूर करती हैं ।इच्छा हो या न हो , उसे काम करना पड़ता है ।यदि वह काम न करे तो उसके ऊपर काम करने का दबाव बढ़ता जाता है , यही दबाव तनाव बन जाता है  और उसके स्वास्थ्य को हानि पहुँचाता है ।

आज की जिंदगी में तनाव ही है, जो मनुष्य को आगे बढ़ने के लिए धक्का देता है ।लेकिन यही तनाव जब जरूरत से ज्यादा हो जाता है तो बहुत सी परेशानियों का सबब बन जाता है और इनमें प्रमुख रूप से सबसे पहले स्वास्थ्य संबंधी समस्याएँ आती हैं ।कभी-कभी तो तनाव से जीत जाते हैं और कभी तनाव के आगे घुटने टेक देते हैं ।

जीवन की हर परिस्थिति एक चुनौती लेकर आती है और जिसे स्वीकारने पर हमें उस कार्य को करना होता है ।यदि हम ऐसा नहीं करते तो कार्य पूरा न कर पाने का तनाव होता है ; क्योंकि उस चुनौती से जुड़े हुए बहुत सारे आयाम होते हैं, जो हम पर निरंतर दबाव डालते हैं कि हमें उन्हें पूरा करना है ।वह दबाव ही धीरे-धीरे तनाव का रूप ले लेता है ।

तनाव एक ऐसा भाव है , जो हमारे मन में कभी भी और कहीं भी प्रकट हो सकता है ।

              ●●● तनाव के कारण ●●●

तनाव के विविध कारण हैं ।इनमें से एक कारण - मिलने वाले परिणामों की आशंका (डर) से उत्पन्न होने वाला तनाव है ।जैसे परीक्षा के परिणामों की आशंका से उत्पन्न तनाव , कम बरसात या अधिक बरसात होने पर खेती के खराब होने की आशंका से उत्पन्न तनाव, भविष्य की चिन्ता से उत्पन्न तनाव एवं ऐसे ही बहुत सी चिन्ताओं व आशंकाओं से उत्पन्न तनाव । तनाव उन कारणों से भी होता है , जिन पर हमारा कोई वश नहीं होता ।

नियमित दिनचर्या में हमें ऐसे भी तनावों से गुजरना होता है ।कभी कोई घर के सदस्य को आने में देरी हो जाए तो भी हम तनाव में आ जाते हैं ।सच तो यह है कि आज हमें तनाव में जीने की इस कदर आदत पड़ गई है कि हम हर दिन तनाव के साथ ही उठते हैं और हर रात तनाव के साथ ही सोते हैं ।निरंतर तनाव में रहने से चेहरा भी तनावग्रस्त दीखने लगता है ।

प्रश्न यह उठता है कि क्या हमें हमेशा तनाव के साथ ही जीवन का शेष समय बिताना होगा ?  क्या इससे मुक्ति नहीं मिलेगी ? ऐसा बिल्कुल नहीं है ।तनाव मुक्त रहकर भी काम किया जा सकता है ।लेकिन हमें किसी भी परिस्थिति में तनाव मुक्त रहने का अभ्यास करना होगा ।इस बात का सदैव ध्यान रखें कि जो भी तनाव हमें मिल रहा है, वह हमारे ही द्वारा कार्यों को समय पर पूरा न करने के कारण उत्पन्न हुआ है और हम ही इसे दूर कर सकते हैं  ।

       ●●●  तनाव दूर करने के उपाय ●●●

अपनी जिंदगी को तनावरहित करने के लिए हमें किसी भी परिस्थिति में तनावमुक्त रहने का अभ्यास करना होगा ।इस अभ्यास में सबसे प्रमुख बात यह है कि जो जरूरी कार्य हैं, उनकी प्राथमिकताएँ तय करते हुए, उन्हें पूरा करते चलें, ताकि अनावश्यक कार्यों का बोझ सिर पर न आए ।यदि फिर भी बहुत सारे कार्यों का दबाव होता है तो इन्हें पूरा करने के लिए अन्य किसी का सहयोग लें और बिना तनाव के जितना इन्हें कर सकते हैं करें, पर तनाव न लें 

हमारी दिनचर्या में बहुत से ऐसे भी कार्य होते हैं , जिनमें हमें ज्यादा दिमाग लगाने की जरूरत नहीं होती और उन्हें करने में हमें कोई तनाव नहीं होता जैसे -- साफ-सफाई करना , भोजन बनाना,
पसंद के गाने सुनना, फिल्में या सीरियल देखना या शौक पूरा करने वाले अन्य कार्य ।इन कार्यों में हमारा समय तो लगता है लेकिन इनको हम तनाव मुक्त होकर करते हैं ।लेकिन हमें यह भी ध्यान रखना होगा कि हम अन्य जरुरी कार्यों को भी पर्याप्त समय दे सकें ।

हँसना-मुस्कराना तनाव दूर करने में बहुत उपयोगी होता है इसलिए हमें अपनी जिंदगी में हँसने-मुस्कराने की आदत डालनी चाहिए ; क्योंकि हँसते हुए चेहरे में कभी तनाव नहीं होता और हँसते-मुस्कराते हुए काम करने से हमारी कार्य करने की क्षमता भी बढ़ जाती है ।

चिकित्सकों के अनुसार हँसना मनुष्य जीवन का सबसे बड़ा प्राकृतिक पोषण है ।इसी कारण चिकित्सक अक्सर यही सलाह देते हैं कि खुश रहिए और मुस्कराते रहिए ।हँसने से हमारे तनाव के हार्मोन कम होते हैं, जो हमारी रोगप्रतिरोधक क्षमता में वृद्धि करते हैं ।आजकल  लोग योग का महत्व भी समझ रहे हैं अतः      योग अपनाकर भी  तनाव मुक्त जीवन बना सकते हैं ।

कहते हैं कि अच्छे स्वास्थ्य के लिए तन और मन दोनों का ही स्वस्थ रहना बहुत जरूरी है ।अतः हमें तनाव मुक्त जीवन जीने के लिए शारीरिक रूप से भी स्वस्थ रहना आवश्यक है ।इसके लिए हमारा खान-पान उचित हो और हम समय पर सोएँ व उठें।व्यायाम व ध्यान आदि के लिए भी समय निकालें । हम सभी का तनाव का कारण अलग-अलग हो सकता है ।अतः हम अपने तनाव के कारणों का निवारण का उपाय करें  ।

पर्याप्त श्रम, मानसिक शक्तियों का सही नियोजन व हँसता-मुस्कराता जीवन -- ये वे उपाय हैं, जो हमें तनाव-मुक्त कर सकते हैं ।

Monday, December 7, 2020

गीता जयन्ती, श्री मद्भगवद्गीता एक विलक्षण ग्रन्थ, गीता की विचारधारा

                ●●●●  गीता जयन्ती ●●●●
मार्गशीष शुक्ल एकादशी के दिन देश में गीता जयन्ती पर्व श्रद्धा के साथ मनाया जाता है । स्वयं भगवान् की अभिव्यक्ति का एक मात्र ग्रंथ है -- श्री मद्भगवद्गीता ।इसी महाग्रंथ के अवतरण को ' गीता जयंती ' रूप से अभिहित किया जाता है ।

आकाश की नीलिमा में सूर्य की लालिमा घुलने लगी थी ।वायु अपनी मंदगति में शीतलता प्रवाहित कर रही थी । एक ओर महासेनापति, परम पराक्रमी अपराजेय गंगापुत्र भीष्म के नेतृत्व में कौरवों का सैन्य दल खड़ा था ।दूसरी ओर सेनापति धृष्टद्युम्न के साथ पांडव सेना थी ।पांडव सेना के साथ पार्थसारथी, पार्थ के रथ की डोर थामे अपने द्वारा ही रची इस महायुद्ध लीला पर मंद-मंद मुस्करा रहे थे ।  

मार्गशीष शुक्ल एकादशी थी इसी मोक्षदायनी एकादशी के दिन  मध्मयाह्न काल में अभिजीत मुहूर्त में महाभारत के युद्ध के मैदान में  भगवान् श्रीकृष्ण ने अपने ईश्वरीय रूप में प्रतिष्ठित होकर अर्जुन को श्री मद्भगवद्गीता का दिव्य उपदेश दिया था ।

इस दिन हमारे देश के मनीषी व विद्वान श्रीमद्भगवद्गीता के प्रेरणादायक प्रसंगों पर प्रकाश डालते हैं जिनसे जिज्ञासु लोग ज्ञान लाभ अर्जित करते हैं । अनेक धार्मिक व साहित्यिक संस्थाओं में इस दिन महत्वपूर्ण आयोजन किए जाते हैं ।
       
        ●●●श्री मद्भगवद्गीता एक विलक्षण ग्रन्थ●●●

श्री मद्भगवद्गीता एक ऐसा विलक्षण ग्रन्थ है, जिसका आज तक न कोई पार पा सका, न पार पाता है, न पार पा सकेगा और न पार पा ही सकता है ।गहरे उतरकर बार-बार इसका अध्ययन-मनन करने पर नित्य नए-नए विलक्षण भाव प्रकट होते रहते हैं ।परम व चरम अनुभव का शास्त्र है गीता ।आवश्यकता है , इसे उस रूप में ग्रहण करने की, अपने जीवन में धारण करने की ।

श्री मद्भगवद्गीता साक्षात् भगवान् के श्री मुख से निःसृत परम रहस्यमयी दिव्य वाणी है ।इसमें स्वयं भगवान् ने अर्जुन को निमित्त बनाकर मनुष्य मात्र के कल्याण के लिए उपदेश दिया है ।इस छोटे से ग्रन्थ में भगवान् ने अपने हृदय के बहुत ही विलक्षण भाव भर दिए हैं ।विश्व साहित्य में श्री मद्भगवद्गीता का अद्वितीय स्थान है ।

भगवान् अनन्त हैं, उनका सब कुछ अनन्त है, फिर उनके मुखारविन्द से निकली हुई गीता के भावों का अन्त आ ही कैसे सकता है ।भगवान् की वाणी बड़े-बड़े ऋषि-मुनियों की वाणी से भी श्रेष्ठ है ; क्योंकि भगवान ऋषि-मुनियों के भी आदि हैं ।भगवान् स्वयं कहते हैं-- 'अहमादिर्हि देवानां महर्षीणां च सर्वशः ' ( गीता 10 , 2 ) ।

गीता उपनिषदों का सार है, पर वास्तव में गीता की बात उपनिषदों से भी विशेष है । वेद भगवान् के निःश्वास हैं और गीता भगवान् की वाणी है ।निःश्वास तो स्वाभाविक होते हैं, पर गीता भगवान् ने योग में स्थित होकर कही है ।अतः वेदों की अपेक्षा भी गीता विशेष है ।

सभी दर्शन गीता के अंतर्गत हैं, पर गीता किसी दर्शन के अंतर्गत नहीं है ।दर्शन शास्त्र में जगत् क्या है ? जीव क्या है और ब्रह्म क्या है - यह अध्ययन किया जाता है लेकिन गीता अध्ययन नहीं अपितु अनुभव कराती है ।गीता में किसी मत का आग्रह नहीं है , प्रत्युत केवल जीव के कल्याण का ही आग्रह है ।

       श्री मद्भगवद्गीता में भगवान् साधक को समग्र की ओर ले जाते हैं ।सगुण-निर्गुण, साकार-निराकार, द्विभुज, चतुर्भुज,   समस्त्रभुज आदि सब रूप समग्र परमात्मा के ही अंतर्गत हैं ।किसी की भी उपासना करें, सम्पूर्ण उपासनाएँ समग्र रूप के अंतर्गत आ जाती हैं ।सम्पूर्ण दर्शन समग्र रूप के अंतर्गत आ जाते हैं ।अतः सब कुछ परमात्मा के ही अंतर्गत है , परमात्मा के सिवाय किंचित् मात्र भी कुछ नहीं है - इसी भाव में सम्पूर्ण गीता है ।गीता का तात्पर्य वासुदेवः सर्वम है ।

गीता समग्र को मानती है , इसीलिए गीता का आरम्भ और अन्त शरणागति में हुआ है ।शरणागति से ही समग्र की प्राप्ति होती है ।भगवान् श्रीकृष्ण समग्र हैं-- 'अशंसयं समग्रं माम् ' ( गीता 7 , 1 )
गीता समग्र की वाणी है, इसलिए गीता में सब कुछ है ।जो जिस दृष्टि से गीता को देखता है, गीता उसको वैसी ही दीखने लगती है ।

     ●●● श्री मद्भगवद्गीता की विचारधारा ●●●

श्रीमद्भगवद्गीता की विचारधारा व्यापक है ।गीता में सगुण के प्रति अखंड श्रद्धा है तो निर्गुण के ज्ञान की विधि भी है ।एक ओर जहाँ इसमें योगरूपी गूढ़तम विज्ञान है तो दूसरी ओर व्यावहारिक जीवन के संदेश भी हैं ।स्वयं भगवान् कृष्ण की भी विविध भंगिमाएँ हैं ।वे कहीं ऋषि रूप में उपदेष्टा हैं, कहीं मित्र रूप में सलाहकार, कभी गुरू रूप में कठोर हो जाते हैं तो कभी भगवत् रूप में शरण प्रदान करते हैं ।कभी परम आत्मीय रूप में भक्ति भाव जगाते हैं तो विराट दर्शन भी दिखाते हैं ।

श्रीमद्भगवद्गीता किसी पंथ का निर्माण नहीं करती , यह तो वह महाद्वार है, जिससे समस्त आध्यात्मिक सत्य और अनुभूति के जगत की झाँकी मिलती है और इस झाँकी में परम दिव्य धाम में स्वयं योगेश्वर भगवान् के दिव्य दर्शन मिलते हैं ।गीता के ज्ञान में इतनी व्यापकता है कि इसे जिस रूप में धारण करना चाहें, वहीं नवीन ज्ञान का उदय होता है ।

श्रीमद्भगवद्गीता  शोधार्थी के लिए अक्षय स्रोत है , किंकर्तव्यविमूढ़ के लिए सही दिशा है , रोगी के लिए चिकित्सा है, मानसिक विकल के लिए परम मनोविज्ञान है। श्री मद्भगवद्गीता बौद्धिक पिपाशा के लिए शीतल निर्झर तो संवेदनशील हृदय की शुद्ध संवेदना है ।समाज के लिए धर्मशास्त्र है तो राष्ट्र के लिए नीतिशास्त्र, कर्मशील के लिए कर्म , ज्ञानी के लिए शास्वत ज्ञान तो भक्त के लिए स्वयं भगवान् है गीता ।जिस दृष्टि से लाभ लेना चाहें, मार्गदर्शन चाहें, मिल जाता है ।

Monday, November 30, 2020

भारतीय धर्म शास्त्रों में चंद्रमा,चंद्रमा की उत्पत्ति,ज्योतिष शास्त्र में चंद्रमा,वैदिक साहित्य में चंद्रमा, चंद्रमा की परिधि का मान ।

          ●●● भारतीय धर्म शास्त्रों में चन्द्रमा ●●●
भारतीय धर्म शास्त्रों में चन्द्रमा के विषय में  जितना अधिक वर्णन मिलता है , उतना अन्यत्र किसी भी ज्ञानकोष में नहीं मिलता ।प्राचीन वैदिक काल से ही प्रकृति एवं परमात्मा के प्रतीक रूप में जिन देवताओं की पूजा की जाती है उनमें सूर्य , वरुण, वायु, पृथ्वी, इंद्र एवं चन्द्रमा प्रमुख हैं ।हमारे शास्त्रों ने चंद्रमा को पितरों की भूमि माना है ।
         
सौम्य एवं शीतल किरणें होने के कारण चंद्रमा को सोम,शीतकर तथा रात्रि का स्वामी होने के कारण राकेश, निशाधिपति,निशाकर आदि भी कहा जाता है ।चंद्रमा हमारे सनातन धर्म में वर्णित प्रत्यक्ष देवताओं में प्रधान देवता है ।

महर्षि पाणिनि संस्कृत एवं वैदिक विश्वविद्यालय उज्जैन के ज्योतिर्विज्ञान के प्राध्यापक प्रोo उपेंद्र भार्गव के अनुसार-- ' चंद्रमा को ध्यान में रखकर हमारे धर्मशास्त्रीय विधान, जप, तप, व्रत, उपवास, दान,यात्रा, विवाह एवं उत्सव आदि का निर्णय किया जाता है ।

               ●●● चंद्रमा की उत्पत्ति ●●●

● वेदों में---- चंद्रमा की उत्पत्ति के विषय में वेद में कहा गया है कि ब्रह्मा अर्थात सृष्टिकर्त्ता ने सर्वप्रथम भूमितत्व को उत्पन्न किया तदनंतर मरुद्गण व 49 प्रकार की वायु को उत्पन्न किया, इसके उपरांत ब्रह्मा ने आदित्य-सूर्य को उत्पन्न किया तथा सूर्य से ही चंद्रमा की उत्पत्ति हुई । 
 
● माध्यंदिनी संहिता में----- माध्यंदिनी संहिता में कहा गया है ---- " ब्रह्मा ने कामना की , कि भूमि उत्पन्न हो गई ।उन्होंने सूर्य के उत्पन्न होने की कामना की और सूर्य सहित दिशाएँ उत्पन्न हो गईं।एक विशालकाय सोने का अंडा हिरण्यगर्भ उत्पन्न हुआ, जिसमें विक्षोभ हुआ और वह दो भागों में विभक्त हुआ।उसके विभाजन से प्रवाहित हो रहे रेतस् से चंद्रमा तथा नक्षत्र आदि उत्पन्न हुए ।

● वायु पुराण में----- वायु पुराण में कहा गया है--- " नक्षत्र, चंद्रमा एवं ग्रह आदि सभी की उत्पत्ति सूर्य से हुई है ।"

● अग्नीषोमात्मकं जगत् --- अग्नीषोमात्मकं जगत् के अनुसार--- " संसार अग्नि और सोम रूप है ।"  अग्नि ही सूर्य रूप में व्याप्त होता है और सोम चंद्रमा के रूप में । सृष्टि में दोनों की आवश्यकता अनिवार्य है।

          ●●● ज्योतिष शास्त्र में चंद्रमा ●●●

ज्योतिष शास्त्र में चंद्रमा को जलीय ग्रह कहा गया है ।हमारा ज्योतिष विज्ञान कितना उन्नत है , इसका अनुमान इस बात से लगाया जा सकता है कि आधुनिक विज्ञान आज भी चंद्रमा पर पानी और बरफ की खोज कर रहा है, लेकिन हमारे ज्योतिष विज्ञान में चंद्रमा को जलतत्व का कारक ग्रह कहा गया है ।

ज्योतिष शास्त्र की दृष्टि से चंद्रमा की गति पूर्वाभिमुख है ।वह कर्क राशि का स्वामी, गौर वर्ण का, वायव्य दिशा का अधिपति, शुभग्रह, सत्वगुणयुक्त, जलतत्व प्रधान जलीय ग्रह है तथा मणि उसकी धातु कही गई है ।

ज्योतिष शास्त्र में चंद्रमा को जलीय ग्रह कहा गया है कि।अतः उसके रात्रि में प्रकाशित होने के कारण को स्पष्ट करते हुए कहा गया है कि जिस प्रकार दर्पण पर गिरी हुई सूर्य की किरणों के प्रतिबिम्ब से घर के अंदर का अंधकार नष्ट हो जाता है, उसी जलमय पिंड की तरह दिखने वाले चंद्रमा के ऊपर गिरने वाली सूर्य की किरणों के प्रतिबिम्ब से पृथ्वी पर रात्रिसंबंधी अंधकार नष्ट होता है ।

चंद्रमा पर होने वाले उल्कापातों के विषय में भी भारतीय ज्योतिषियों ने ज्ञान प्राप्त कर लिया था ।उन्होंने ग्रहणकाल में चंद्रमा पर होने वाले उल्कापातों के फल का भी विवेचन किया ।

          ●●● वैदिक साहित्य में चंद्रमा ●●●

वैदिक साहित्य में चंद्रमा की गति का भी उल्लेख मिलता है ।ऐतरेय ब्राह्मण में अमावस्या में उदयकालिक सूर्य की ओर जाते हुए शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा तिथि को सूर्य से आग निकलते हुए चंद्रमा को देखकर लिखा गया है ---   "चंद्रमा वा अमावास्यायाम् आदित्यमनुप्रविशति आदित्याद्वै चंद्रमा जायते ।।"   अर्थात चंद्रमा में स्वयं का प्रकाश नहीं होता ।इस विषय का ज्ञान भी वैदिक काल में किया जा चुका था कि वह सूर्य के प्रकाश से प्रकाशित होता है ।इस कारण "तैत्तिरीय संहिता" में चंद्रमा को  'सूर्यरश्मि चंद्रमा'  कहकर संबोधित किया गया है ।
● शुक्ल यजुर्वेद के अनुसार सृष्टिकर्त्ता ब्रह्मा के मन में चंद्रमा की उत्पत्ति हुई , अतः चंद्रमा को मन का कारक कहा गया है ।
● ऋग्वेद के अनुसार चंद्रमा की किरणें अमृत-बिंदु के समान हैं तथा वह समस्त औषधियों का स्वामी है ।
            त्वमिमा ओषधीः सोम विश्वास्त्वमपो 
                                      अजनयस्त्वं    गाः ।
             त्वमा  ततन्थोर्वन्तरिक्षं  त्वं 
                                     ज्योतिषा  वि तमो ववर्थ ।।
● पुराणों के अनुसार, एक बार रावण ने चंद्रलोक में जाकर चंद्रमा पर वाणों का प्रयोग किया था तथा ब्रह्मा की आज्ञा से वह वापस लौट आया था ।महिषासुर ने भी चंद्रमा पर अपना आधिपत्य जमा लिया था , जिसका देवी दुर्गा ने वध किया था ।
● धर्म शास्त्र के अनुसार चंद्रमा या चंद्रलोक को एक दिव्य धाम माना गया है ; जहाँ विविध प्रकार का ऐश्वर्य व वैभव माना जाता है और उसे धर्ममार्ग पर चलकर , तप व योगपूर्वक ही प्राप्त किया जा सकता है ।
● वृहत्संहिता में वराहमिहिर ने लिखा है कि जिस तरह धूप में स्थित घड़े का सूर्य की तरफ का आधा भाग रोशनी वाला और विरुद्ध दिशा में स्थित दूसरा आधा भाग अपनी छाया से ही काला दिखाई देता है, उसी तरह सदा सूर्य के अधोभाग में स्थित चंद्रमा का सूर्य की तरफ का आधा भाग शुक्ल और उसके विपरीत का आधा भाग अपनी ही छाया से काला (कृष्ण)दिखाई देता है ।

● भारतीय गणितज्ञों के अनुसार चंद्रमा की परिधि का मान ●

भारतीय गणितज्ञों ने चंद्रमा की परिधि का मान-- सूर्य सिद्धांत के अनुसार 480 योजन तथा कक्षामान 3, 24, 000 योजन तथा आर्यभट्ट के अनुसार चंद्रपरिधि 315 योजन तथा कक्षामान
 2, 16,000 योजन के बराबर बताया है ।आधुनिक मान में लगभग 12 किलोमीटर का एक योजन माना गया है , इस अनुसार गणना का आंकलन किया जा सकता है ।

सादर अभिवादन व धन्यवाद ।


Thursday, November 26, 2020

यज्ञ एक समग्र जीवन दर्शन, यज्ञाग्नि में निहित शिक्षाएँ


           ●●●यज्ञ एक समग्र जीवन दर्शन ●●●
यज्ञ वैदिक संस्कृति का मुख्य प्रतीक है ।भारतीय संस्कृति में जितना महत्व यज्ञ को दिया गया है, उतना शायद किसी और क्रियाकलाप का नहीं ।

                 यज्ञ का वेदोक्त आयोजन, शक्तिशाली मंत्रों का विधिवत् उच्चारण, विधिपूर्वक बनाए हुए कुंड, शास्त्रोक्त समिधाएँ तथा सामग्रियाँ जब विधानपूर्वक हवन की जातीं हैं तो उनका दिव्य प्रभाव आकाश- मंडल में फैल जाता है ।उस प्रभाव के फलस्वरूप प्रजा के अंतःकरण में प्रेम, एकता, सहयोग, सद्भाव, उदारता, ईमानदारी, संयम, सदाचार, आस्तिकता जैसे सद्गुणों का विकास होने लगता है ।इस तरह व्यक्ति एवं समूह पर यज्ञ के अद्भुत सकारात्मक प्रभाव पड़ते हैं ।

यज्ञ से जुड़ा केंद्रीय तत्व -- अग्नि, स्वयं अजस्र प्रेरणाओं से भरा हुआ है, जिसके महत्व को समझाते हुए ऋग्वेद में यज्ञाग्नि को पुरोहित की संज्ञा दी गई है ।ऋग्वेद की शिक्षाओं पर चलकर लोक-परलोक दोनों सुधारे जा सकते हैं--

         ●●● यज्ञाग्नि में निहित शिक्षाएँ●●●

● 1-- अग्नि में जो कुछ भी पदार्थ ( यज्ञ सामग्री, घृत आदि ) हवन कुंड में समर्पित किए जाते हैं, यज्ञाग्नि उन्हें संग्रहीत नहीं रखती , बल्कि सर्वसाधारण के लिए वायुमंडल में बिखेर देती है ।इसी तरह हमारी शिक्षा,समृद्धि, प्रतिभा, प्रभाव आदि का न्यूनतम उपयोग करते हुए शेष का अधिकाधिक उपयोग जनकल्याण के लिए होना चाहिए ।

●  2 -- जो भी वस्तु अग्नि के संपर्क में आती है , उसे वह दुत्कारती नहीं, बल्कि स्वयं में आत्मसात् करके अपने जैसा बना लेती है ।इससे यह प्रेरणा मिलती है कि हमारे संपर्क में जो पिछड़े, छोटे या पीड़ित व्यक्ति आएँ, उन्हें आत्मसात् कर अपने जैसा बनाने की कोशिश हममें से हरेक को करनी चाहिए ।

● 3 ---  अग्नि की लौ पर कितना ही दबाव पड़े, लेकिन वह दबती नहीं, बल्कि ऊपर को ही उठी रहती है ।इसी तरह हमारे सामने कितने भी भय, प्रलोभन, संकल्प एवं जिजीविषा को दबने नहीं देना चाहिए, बल्कि अग्निशिखा की भाँति ऊँचा उठाए रखना चाहिए ।

● 4 --- अग्नि कभी भी अपनी उष्णता एवं प्रकाश की विशेषताओं को नहीं छोड़ती ।उसी प्रकार हमें सदा मेहनत व कर्तव्यनिष्ठता  के साथ जीवन जीना चाहिए और स्वयं को सदा सक्रिय रखना चाहिए व धर्म की राह पर चलना चाहिए ।

● 5 -- यज्ञाग्नि का अति विशिष्ट गुण यह है कि वह अपने में आहुत सामग्री को वायुरूप बनाकर समस्त जड़-चेतन प्राणियों को बिना भेदभाव किए गुप्तदान के रूप में बिखेर देती है, जो स्वयं में एक विलक्षण शिक्षा है - इससे हमें प्रेरणा मिलती है कि हमारा जीवन भी समस्त प्राणियों के लिए एक वरदानस्वरूप होना चाहिए ।अपने संसाधन,उपलब्धियों व ज्ञान को हमें मुक्तहस्त से लोक-कल्याण में लगाना चाहिए ।

इस तरह यज्ञ स्वयं में प्रचंड प्रेरणाओं से भरा एक आध्यात्मिक प्रयोग है , जिसे यदि उचित विधि से संपन्न किया जाए तो इसके कर्मकांड द्वारा देव आवाहन , मंत्र प्रयोग, संकल्प एवं सद्भावनाओं की सामूहिक शक्ति से एक ऐसी सशक्त ऊर्जा पैदा की जाती है, जिसके द्वारा अंतःवृत्तियों को गलाकर परिष्कार किया जाता है ।
यज्ञाग्नि से प्रेरणाएँ ग्रहण करके मनुष्य अपने  प्रसुप्त देवत्व का जागरण कर सकता है ।यज्ञाग्नि की प्रेरणा से मनुष्य अपने व्यक्तित्व का रूपांतरण करके समाज निर्माण में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है ।

इस तरह यज्ञ एक समग्र जीवन दर्शन है, जो सशक्त प्रेरणा-प्रवाह लिए हुए है ।यज्ञ को जीवन का अभिन्न अंग बनाते हुए हम अपने व्यक्तित्व के रूपांतरण के गहन प्रयोग को संपन्न कर सकते हैं तथा दूसरों को भी प्रेरित कर सकते हैं । यज्ञाग्नि की शिक्षाएँ ग्रहण करके हम परिवार, समाज, प्रकृति एवं सृष्टि के हित साधन का माध्यम बन सकते हैं ।

सादर अभिवादन व धन्यवाद ।

Wednesday, November 25, 2020

वामन अवतार और राजा बलि,बलि का जीवन परिचय, बलि की इंद्रलोक पर विजय,भगवान का वामन रूप में अवतार लेना, वामन का बलि के यज्ञमंडप की ओर प्रस्थान,वामन द्वारा तीन पग भूमि की माँग, भगवान का तीनों लोकों को नापना, वामन शब्द का अर्थ ।

           ●●● वामन अवतार और राजा बलि ●●●                ●●राजा बलि का जीवन परिचय ●●
राजा बलि महान भक्त प्रहलाद के पौत्र एवं दानवीर विलोचन के पुत्र थे ।बलि का जन्म अवश्य दैत्य वंश में हुआ था , परन्तु वे भगवान के अनन्य भक्त थे ।उनकी रगों में पितामह प्रहलाद एवं पिता विरोचन के सभी श्रेष्ठ गुण थे ।उनमें गुरुभक्ति कूट-कूटकर भरी हुई थी ।उन्होंने अपने गुरु शुक्राचार्य की खूब सेवा सुश्रूषा की थी ।

गुरु शुक्राचार्य ने बलि की गुरुभक्ति एवं निष्काम सेवा से प्रसन्न होकर उसे एक यज्ञ करने की प्रेरणा दी ।उस यज्ञ का नाम था अभिजित यज्ञ ।इसे संपन्न कर पाना हर किसी के वश की बात नहीं थी ।शुक्राचार्य के मार्गदर्शन में यज्ञ संपन्न हुआ ।यज्ञ के दौरान यज्ञ कुंड से अनगिनत बेशकीमती एवं बहुमूल्य वस्तुएँ बाहर निकलीं, जिनमें कवच, रथ, धनुष और कभी न रिक्त होने वाला तरकश मुख्य थे ।

स्वयं बलि के पितामह ने यज्ञमंडप में उपस्थित होकर बलि को ऐसी माला प्रदान की, जिसके फूल कभी मुरझाते नहीं थे ।बलि ने श्रद्धा भाव से माला और कवच को धारण किया ।उसने रथ पर आरूढ़ होकर और हाथ में धपुष-वाण लेकर पृथ्वी और पाताल पर अपना आधिपत्य स्थापित कर लिया ।उसकी सेना निरंतर बड़ी और शक्तिशाली होती जा रही थी  ।

बलि न्यायप्रिय व नीतिपरायण राजा थे।उन्होंने पृथ्वी एवं पाताललोक, सभी जगहों पर सुशासन स्थापित कर लिया था ।उनके राज्य में प्रजा सुखी व संतुष्ट थी ।बलि पुण्यात्मा थे औल उनकी सर्वोपरि विशेषता थी सरल एवं निष्कपट भावना ।वे अपने गुरु शुक्राचार्य की छद्म लड़ाई से  कभी भी सहमत एवं संतुष्ट नहीं थे ।वे धर्म युद्ध पर विश्वास करते थे और उनका अपार बल , शौर्य, पराक्रम एवं प्रभु के प्रति अनन्य भक्ति का दुर्लभ संयोग उनको सर्वत्र अजेय बनाता था ।

    ●●● राजा बलि की इंद्र लोक पर विजय ●●●

राजा बलि इंद्रलोक की घोर अव्यवस्था एवं देवताओं की भोगवृत्ति व लापरवाही से भलीभाँति परिचित थे ।इन दिनों सृष्टि-संचालन की प्रकिया में जिम्मेदार देवता ,  उर्वशी , रंभा, मेनका आदि अप्सराओं के रूप-रंग एवं नृत्य में अपने कर्तव्य भूले हुए थे ।इसी कारण धरती पर समय पर बरसात न होना , अकाल पड़ने जैसे अनेक व्यतिक्रम आ गए थे ।इंद्रलोक के उस कुशासन को सुशासन में परिवर्तित करने के राजा बलि ने इंद्रलोक पर अपनी विशाल सेना के साथ चढ़ाई कर दी और अपने शौर्य व बल से देवताओं को परास्त कर दिया ।

धर्मपरायण दैत्य राजा बलि ने भोग-विलास में डूबे रहने वाले स्वर्गाधिपति इंद्र को परास्त कर देव व्यवस्था सँभाल ली। स्वर्गाधिपति हो जाने के बाद भी बलि सदा तप एवं यज्ञ में निरत रहते थे।उनकी रुचि सुशासन , विष्णु भक्ति एवं तप-य्ज्ञ में थीवन कि भोगों में ।

इंद्रलोक पर विजय प्राप्त करने के बाद राजा बलि ने इंद्रलोक की व्यवस्था ही बदल दी ।जहाँ प्रातः- साँय नृत्य की झंकार सुनाई देती थी , वहाँ वेदमंत्रों का उच्चारण होने लगा ।विभिन्नप्रकार के यज्ञों से वातावरण में  दिव्यता छाने लगी ।स्वर्ग के सभी संसाधन एवं साधनों को तप एवं यज्ञ में प्रयुक्त किया जाने लगा ।

अब स्वयं राजा बलि देवताओं को उन्हें उनकी जिम्मेदारी का भलीभाँति निर्वहन करने का आदेश देते थे ।अब कहीं भी कोई अपने काम में आलस्य-प्रमाद नहीं बरत पा रहा था ।इस वजह से अब पृथ्वी पर पर्यावरण संतुलित रहने लगा ।धन्य-धान्य में भी वृद्धि होने लगी ।

   ●●● भगवान का वामन रूप में अवतार लेना ●●●

त्रिलोक अधिपति राजा बलि के शासनकाल में तीनों लोकों में सुख-शांति एवं समृद्धि का वातावरण बन गया था ।सभी प्रसन्न थे,
लेकिन देवता खुश नहीं थे ; क्योंकि भोगविलास प्रिय देवताओं को भला त्याग-तपस्या से क्या सरोकार ।अतः सभी देवताओं ने इंद्र के साथ मिलकर भगवान विष्णु से प्रार्थना की कि कृपा कर राजा बलि से देवलोक वापस दिलाएँ ।इस प्रार्थना पर भगवान को भारी असमंजस हुआ ; क्योंकि इस बात से वे भलीभाँति परिचित थे कि धर्मपरायण परम भक्त बलि से अब युद्ध करना संभव नहीं है ।

भगवान विष्णु ने महर्षि कश्यप की धर्मपरायणा पत्नी के घर वामन रूप में प्रकट हुए ।बड़े-बड़े नेत्र , चमकता दीप्तिमान मुखमंडल, विशाल वक्षस्थल , लंबी-लंबी भुजाएँ और सिर पर घने केश से सुशोभित वामन अवतार में भगवान बालसूर्य के समान प्रतीत हो रहे थे , परन्तु वे स्वयं अपने उद्देश्य को लेकर खुश नहीं थे , क्योंकि उनके मन में बलि के प्रति छल भरा हुआ था ।

●● भगवान वामन का बलि के यज्ञमंडप की ओर प्रस्थान●●

अब भगवान ने अपनी माता को प्रणाम करके , नर्मदा के तट पर उस स्थान की ओर प्रस्थान किया, जहाँ भक्त एवं राजा बलि अश्वमेध यज्ञ संपन्न कर रहे थे ।भगवान वामन मूँज की करधनी पहने , गले में यज्ञोपवीत धारण किए पैरों में पादुका एवं सिर के ऊपर सुन्दर छाता लगाए हुए थे ।

जब भगवान वामन ने यज्ञमंडप में प्रवेश किया तो सभी भृगुवंशी ब्राह्मणों और विद्वानों ने उठकर उनका स्वागत-सत्कार एवं अभिनन्दन किया ।स्वयं राजा बलि ने श्रद्धापूर्वक प्रणाम करते हुए भगवान को रत्नजड़ित सिंहासन पर बैठाकर उनके चरण धोए और उस चरणोदक का पान किया और कहा -- " हे भगवान ! आपने यहाँ पधारकर हम सबको कृतार्थ किया है ।कृपया हमें अपने आगमन के कारण से अवगत कराएँ।

●● भगवान का राजा बलि से तीन पग पृथ्वी की माँग ●●

जब राजा बलि ने भगवान वामन से उनके आगमन का कारण जानना चाहा तब वामन भगवान ने प्रत्युत्तर में कहा -- " महाराज बलि ! आप परम भक्त हैं ।आपको अपने महान कुल की मर्यादा एवं परम्परा का न केवल ज्ञान है , अपितु आप उसका यथोचित निर्वहन भी करते हैं ।आपके पितामह प्रहलाद परम भक्त, महादानी और धर्मात्मा रहे हैं एवं आपके पिता विरोचन का स्थान सर्वश्रेष्ठ दानियों के बीच सुशोभित है ।

 राजन ! आप स्वयं परमधर्मात्मा एवं श्रेष्ठ पुण्यात्मा हैं ।मैं ब्रह्मचारी हूँ ! भला किसी ब्रह्मचारी को धन, वैभव एवं ऐश्वर्य से क्या प्रयोजन ! मैं तो केवल तीन पग पृथ्वी की इच्छा लिए आपके समक्ष प्रकट हुआ हूँ ।मेरी यही माँग है और आशा है कि आप मुझे निराश नहीं करेंगे ।

महाराजा बलि पाँच वर्ष के उस तेजस्वी ब्राह्मण को यज्ञशाला में प्रवेश करते ही पहचान गए थे ।उन्होंने एक पल में ही अपने आराध्य एवं इष्ट को जान लिया था ।वामन अवतार में अवतरित बिष्णु भगवान ने तीन पग पृथ्वी माँगी वे उसे कैसे अस्वीकार कर सकते थे ।

● वामन से विराट होकर भगवान का तीनों लोकों को नापना ●

भगवान की माँग स्वीकारते हुए राजा बलि ने भूमि दान का संकल्प करने के लिए अपनी अंजलि में जल लिया , उसी समय दैत्यों के गुरु एवं महान तांत्रिक शुक्राचार्य ने कहा -- ठहरो बलि ये वामन वेश में विष्णु हैं, ये तुम्हें छलने आए हैं ।ये तुमसे तीन पग भूमि नहीं, बल्कि तुम्हारे तीनों लोकों का राज्य लेने आए हैं ।
शुक्राचार्य की बात सुनकर बलि ने कहा -- " हे गुरुदेव ! आपका संशय सर्वथा सच संभावित हो सकता है ।भले ही ये मेरे तीनों लोकों को लेने आए हों और भले ही इनका उद्देश्य हमें छलना हो, परन्तु भक्त के लिए अपना सर्वस्व लुटाने वाले भगवान आज स्वयं अपने भक्त के पास याचक बनकर आए हैं, अतः मैं याचक बने भगवान को खाली कैसे लौटा सकता हूँ ।भगवान की याचना को मैं जरूर ही पूरा करूँगा , फिर भले ही मुझे भिखारी बनकर दर-दर ठोकरें खानी पडें।"  

जब बलि ने भगवान की याचना पूरी करने का दृढ़ निश्चय कर लिया तो गुरू शुक्राचार्य ने अप्रसन्न होकर राजा बलि को तेजहीन होने का श्राप दे दिया , जिसे बलि ने सहर्ष स्वीकार कर लिया और उन्होंने भगवान वामन को दान देने के लिए हाँ कर दिया।

बलि के हाँ कहते ही भगवान वामन से विराट हो गए और उन्होंने दो पग में तीनों लोकों को नाप लिया और कहा--  " बलि ! अब बताओ मैं अपना तीसरा पग कहाँ रखूँ ।"  तीसरा  पग रखबाने के लिए बलि के पास कुछ नहीं था , तो भगवान ने बलि को वरुण पाश में बाँध लिया ।पाश में बँधे बलि मुस्करा ने मुस्कराते हुए कहा--- " प्रभु ! आपने दो पगों में मेरे तीनों लोकों के राज्यों की धरती नाप ली ।मेरे पास अब धरती नहीं है तो क्या है, मेरा मस्तक तो है ।आप अपना तीसरा पग मेरे मस्तक पर रख दें ।" वामन से विराट होकर भगवान ने तीनों लोकों के साथ बलि को भी नाप लिया ।

देने वाले महाराज बलि अपना सर्वस्व देकर प्रसन्न थे, परन्तु भगवान को अपने द्वारा किए छल पर क्षोभ था ; क्योंकि इस जगत में जिस अधर्म रूपी छल को मिटाने के लिए वे बार-बार अवतार लेते हैं आज उन्हीं जगत पति को अधर्म रूपी छल का सहारा लेना पड़ा ।भगवान ने बलि से कहा -- " वत्स ! इस अमिट दान के कारण तुम्हारी कीर्ति सदा अमर रहेगी , जब कि मेरे छल के कारण मुझ विराट को भी सदा याचक एवं वामन ही कहा जाएगा ।" 

स्वयं भगवान अपने छल के कारण विराट होने पर भी वामन कहे गए ।स्वयं भगवान विष्णु को परम धर्मात्मा बलि के पास याचक बनकर वामन के रूप में जाना पडा।

          ●●●वामन शब्द का अर्थ ●●●

वामन का अर्थ होता है बौना अर्थात छोटा ।वामन वही नहीं होते , जिनकी लंबाई कम होती है , वरन वामन वे भी होते हैं, जिनके व्यक्तित्व की ऊँचाई कम होती है, जिनके मन, अंतःकरण छल-छद्म और कपट-कलुष से भरे होते हैं ।ऐसे लोग भले ही कितने बुद्धिमान, तर्ककुशल व साधनसंपन्न हों , भले ही उनके पास कितनी ही अलौकिक शक्तियाँ, सिद्धियाँ एवं ऋद्धियाँ-निधियाँ क्यों न हों , परन्तु अपने छल-कपट के कारण उन्हें सदा ही वामन कहा और समझा जाता है ।

भगवान की लीला  सदा कल्याणकारी होती है , संसार के भले के लिए ही होती है ।

सादर अभिवादन व धन्यवाद ।