आध्यात्मिक होने का अर्थ है कि व्यक्ति अपने अनुभव के धरातल पर यह जानता है कि वह स्वयं अपने आनंद का स्रोत है ।आध्यात्म का विषय ही मनुष्य के आंतरिक जीवन से जुड़ा हुआ
है ।वे सभी गतिविधियाँ जो मनुष्य को परिष्कृत, निर्मल बनाती हैं, आनंद से भरपूर करती हैं, पूर्णता का एहसास देती हैं, स्वयं से परिचय करती हैं-- वे सब आध्यात्म के अंतर्गत आती हैं ।
किसी चीज को सतही तौर पर जानना सांसारिकता है और उसे गहराई तक जानना आध्यात्मिकता है ।आध्यात्मिक दृष्टिकोण ही मनुष्यों को सही राह दिखा पाने में सक्षम है और यही हम सबके जीवन का ध्येय होना चाहिए ।लोगों ने अभी तक आध्यात्म व आध्यात्मिकता का सही अर्थ नहीं समझा है।इसी कारण इसे अपनाने में कतराते हैं ।
आध्यात्मिकता का संबंध मनुष्य के आंतरिक जीवन से है और इसकी शुरुआत होती है -- उसकी अंतर्यात्रा से ।मनुष्य पूरी दुनिया में भ्रमण करता है , लेकिन अंतर्यात्रा ही नहीं करता तथा अपने अंतर में प्रवेश ही नहीं कर पाता । विरले ही होते हैं, जो इस अंतर्यात्रा में प्रवेश के अधिकारी होते हैं, इसके लिए सत्पात्र होते है और सामान्य जन आध्यात्मिक जीवन की पात्रता की कसौटी को जाने बिना ही इसे कठिन मार्ग मान लेते हैं ।
●●● आध्यात्मिक व संसारी व्यक्ति में अन्तर●●●
एक बार एक सद्गुरु से शिष्य ने प्रश्न किया-- " एक आध्यात्मिक व एक संसारी व्यक्ति में क्या अन्तर है ? " इस प्रश्न का सद्गुरु ने सहज उत्तर दिया ---" एक संसारी मनुष्य केवल सांसारिक कार्यों को कर पाने में सक्षम होता है ; जबकि आंतरिक संतुष्टि के लिए उसे दूसरों पर निर्भर रहना पड़ता है ।इसके विपरीत एक आध्यात्मिक व्यक्ति अपनी आंतरिक संतुष्टि स्वयं अर्जित करता है और मात्र सांसारिक कार्यों के लिए संसार पर निर्भर रह सकता है ।
आध्यात्मिकता का व्यक्ति के बाहरी जीवन से कुछ भी लेना-देना नहीं है कि वह कैसे रहता है ? क्या पहनता है और क्या खाता है ?
अर्थात बाहरी वेषभूषा व रहन-सहन से आध्यात्मिकता का कोई संबंध नहीं है ; क्योंकि इसका वास्तविक संबंध व्यक्तित्व की अतल गहराई से है ।आध्यात्मिकता सोए हुए संवेदनहीन व्यक्तियों के लिए नहीं है, यह निधि तो उनके लिए है, जो जीवन के हर आयाम को पूर्ण जीवंतता के साथ जीते हैं और हर पल सजग व सक्रिय रहते हैं ।
सच तो यह है कि सांसारिक उपलब्धियों के लिए जितने साहस, श्रम और संघर्ष की आवश्यकता है, उससे कहीं अधिक आध्यात्मिक जीवन के लिए साहस और संघर्ष आवश्यक हैं ।सांसारिक उपलब्धियों को पाने के लिए जो चुनौतियाँ होती हैं, वे बाहरी होती हैं, दृश्य में होती हैं अतः इनका सामना करने के लिए हमारे पास निश्चित योजनाएँ होती हैं, परंतु आध्यात्मिक जीवन आंतरिक एवं अदृश्य होता है वह दिखता नहीं है, इसलिए इसकी चुनौतियाँ और संघर्ष, अधिक भारी और जटिल होते हैं ।
●●● आध्यात्मिकता का आंकलन ●●●
आध्यात्मिकता का आंकलन कैसे हो ? आध्यात्मिक जीवन की बहुत-सी कसौटियाँ हैं, लेकिन कुछ ऐसी प्रमुख बातें हैं, जिन्हें जानकर हम यह आंकलन कर सकते हैं कि हमारे अंदर आध्यात्मिकता का कितना अंश है ? जैसे ---
● यदि किए जाने वाले कार्यों का उद्देश्य स्वार्थ न होकर परमार्थ है , तो यह आध्यात्मिकता की राह है ।
● यदि व्यक्ति अपने अहंकार, क्रोध , नाराजगी, लालच, ईर्ष्या और पूर्वाग्रहों को गला चुका है तो वह आध्यात्मिक जीवन की डगर पर बढ़ रहा है ।
● व्यक्ति की बाहरी परिस्थितियाँ चाहे जैसी भी हों , पर वह यदि आंतरिक रूप से प्रसन्न रहता है तो इसका अर्थ है कि वह आध्यात्मिक जीवन को महसूस करने लगा है ।
● यदि व्यक्ति इस विशाल सृष्टि के सामने स्वयं को नगण्य मानने का एहसास कर पाता है तो वह आध्यात्मिक बन रहा है ।
● मनुष्य के पास जो कुछ भी है , उसके लिए यदि वह सृष्टि या परमसत्ता के प्रति कृतज्ञता महसूस कर पाता है तो वह आध्यात्मिकता की ओर बढ़ रहा है ।
● यदि व्यक्ति में स्वजनों के प्रति जितना प्रेम उमड़ता है , उतना ही सभी लोगों के लिए उमड़ता है , तो वह आध्यात्मिक है ।
●आध्यात्मिकता व्यक्तित्व के सर्वांगीण विकास की प्रक्रिया●
आध्यात्मिक प्रक्रिया व्यक्ति की एक ऐसी अंतर्यात्रा है, जिसमें निरंतर परिवर्तन घटित होता है और इन परिवर्तनों के कारण उपजे उतार-चढ़ाव को उसे सहने की शक्ति मिलती है ।दूसरे शब्दों में कहें तो अंतर्यात्रा द्वारा व्यक्तित्व का रूपांतरण हो जाता है ।
जो साधक आध्यात्मिक डगर पर आगे बढ़ते हैं, उनमें अदम्य साहस, सशक्त मन, स्वस्थ शरीर व संतुलित भावनाओं का होना जरूरी है ।आध्यात्मिकता से ही यह बात समझ में आती है कि परमात्मा ही एकमात्र पूर्ण हैं, जो उसके जीवन को पूर्णता की ओर ले जा सकते हैं ।इसलिए व्यक्ति अंतर्यात्रा द्वारा अपनी आत्मा का संबंध परमात्मा से जोड़ता है ।
आध्यात्मिकता मूलतः व्यक्तित्व के सर्वांगीण विकास की प्रक्रिया है ।इसके माध्यम से साधक अपने व्यक्तित्व में जन्म-जन्मांतरों से पड़ी हुई गाँठों को खोल पाते हैं और अपने जीवन लक्ष्य को प्राप्त कर पाते हैं ।आध्यात्मिकता का अर्थ है कि अपने विकास की प्रक्रिया को खूब तेज कर देना ।आध्यात्मिक मार्ग पर चलने का अर्थ है कि व्यक्ति अपने बंधनों से मुक्त हो रहा है , पूरी तरह से स्वतंत्र हो रहा है उसे स्वतंत्र होने का यह अधिकार स्वयं प्रकृति ने दिया है ।
परमात्मा यद्यपि प्रत्यक्ष दृश्यमान नहीं हैं, लेकिन अंतर्यात्रा का पथिक अपनी पवित्र भावनाओं के माध्यम से उन अदृश्य परमात्मा तक पहुँच सकता है ।और उनके सतत सान्निध्य को प्राप्त कर सकता है ।ज्ञानी जन कहते हैं कि 'शून्य में विराट समाया है और इस विराट में भी शून्य है '। जो इस शरीर में ही रहकर परमात्मा के इस विराट रूप को समझ पाता है, उसे अनुभव कर पाता है, वही आध्यात्मिक है और इसके लिए उसे इस भौतिक दृश्यमान जीवन से परे घटित होने वाले जीवन को भी अनुभव करना होगा ।
आध्यात्मिकता न तो मनोवैज्ञानिक प्रकिया है और न ही सामाजिक ।यह शत-प्रतिशत हमारे अस्तित्व से संबंधित है ।यदि हम किसी कार्य में पूरी तन्मयता से डूब जाते हैं तो वहीं पर आध्यात्मिक प्रक्रिया की शुरुआत हो जाती है ।
●●● आध्यात्मिक पूर्णतः प्रयोग का विषय ●●●
आध्यात्म पूर्णतः प्रयोग का विषय है , अनुभूति का विषय है ।स्वयं पर किए गए प्रयोग से ही वह अनुभूति प्राप्त हो सकती है ।जीवन का शीर्षासन है -- आध्यात्म ।आत्मपरिष्कार की साधना है -- आध्यात्म ।आध्यात्म क्षेत्र में हमें शास्त्रों, पुराणों, योगियों, तपस्वियों से मार्गदर्शन अवश्य प्राप्त हो सकता है, पर अनुभूति तो स्वयं पर किए गए प्रयोगों से ही हो सकती है ।
योग, आध्यात्म का आनंद तो योग में होकर , योग में जीकर ही लिया जा सकता है ।आध्यात्मिक प्रयोग एवं उत्थान हेतु आवश्यक है-- साधना के प्रति जुनून, साधना का नियमित अभ्यास, जीवन में यम-नियम का पालन ।साधना के साथ ही आवश्यक है-- सेवापरायण, श्रमपरायण, कर्तव्यपरायण व पुरुषार्थपरायण जीवन ।
यदि हम सचमुच ऐसी सच्ची साधना कर सकें तो एक दिन हमारे लिए भी अवश्य आएगा -- आनंद का पल , अनुभूति का पल, उत्सव का पल, उल्लास का पल और इस प्रकार मानो अपना जीवन ही उत्सव हो जाएगा ।साथ ही मिलेगी हमसे अगणित लोगों को जीवन की सच्ची राह ।यदि हम अध्यात्म के पथ पर अविरल, अविराम चलते रहें तो एक दिन अपना अंतस् ब्रह्मज्ञान से जगमगा उठेगा, उस दिन हमारे आनंद का सचमुच कोई पारावार न होगा । हर जगह सत्यम्, शिवम्,सुन्दरम् की अभिव्यक्ति होगी ।
●●●महर्षि रमण का आध्यात्मिक प्रयोग ●●●
सन् 1938 में महान स्विस मनोचिकित्सक कार्ल जुंग, महर्षि रमण से मिलने अरुणाचलम् आए ।आध्यात्मिक प्रयोग पर चर्चा के समय महर्षि रमण ने कहा----
मेरे आध्यात्मिक प्रयोग की वैज्ञानिक जिज्ञासा थी -- मैं कौन हूँ ? इसके समाधान के लिए मैंने मनन एवं ध्यान की अनुसंधान विधि का चयन किया ।इसी अरुणाचलम् पर्वत की गुफा में शरीर व मन की प्रयोगशाला में मेरे प्रयोग चलते हैं ।इन प्रयोगों के परिणाम में अपरिष्कृत अचेतन, परिष्कृत होता चला गया ।चेतना की नई-नई परतें खुलती चलीं गईं ।इसका मैंने निश्चित कालक्रम में परीक्षण एवं आंकलन किया ।अंत में मैं इस निष्कर्ष पर पहुँचा कि मेरा अहम्, आत्मा में विलीन हो गया ।
योगियों, महापुरुषों के जीवन से, साहित्य से सही मार्गदर्शन प्राप्त कर हम भी अध्यात्म के पथ पर अब क्यों न चल पड़ें ? हम क्यों वंचित रहें, अध्यात्म के अमृत आनंद से , अनुभूति से, प्रयोग से ।बस आवश्यकता है, सही दिशा में सही प्रयोग करने की ।
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