head> ज्ञान की गंगा / पवित्रा माहेश्वरी ( ज्ञान की कोई सीमा नहीं है ): December 2020

Monday, December 28, 2020

समय की परिभाषा, विज्ञान की भाषा में समय,जीवन का हर पल मूल्यवान, समय की पहचान, समय प्रबंधन

                  ●●● समय की परिभाषा ●●●
समय ही जीवन है और जीवन ही समय है ।जीवन से समय को निकाल दिया जाए तो जीवन की कल्पना भी संभव नहीं है ।समय के बिना जीवन का कोई अर्थ नहीं है ।समय के सदुपयोग में ही जीवन का अर्थ प्रकट होता है ।समय की महिमा एवं मर्यादा में जीवन के सभी रहस्य समाहित हैं ।

समय को काल भी कहते हैं । भगवान कृष्ण गीता में कहते हैं -- मैं काल हूँ ।काल से बड़ा कोई नहीं है ।जहाँ काल समाप्त होता है, वहाँ कुछ भी नहीं होता है और जहाँ काल होता है वहाँ सब कुछ होता है, समस्त संभावनाएँ विद्यमान होती हैं ।

सत्य तो यह है कि हमें जीवन भी जन्म के क्षण से ही मिला है ।जन्म के पल से ही हम सबने जीवन का अनुदान और वरदान पाया है ।तब से लेकर आज तक क्षण-क्षण की बूँदों से बनी हुई समय की धारा में हम सतत-प्रवाहमान हैं ।

दुर्गासप्तशती में समय को शक्ति का स्वरूप माना गया है ।माता भगवती की लीला और उसके रहस्य इसी काल के गर्भ में समाहित हैं ।माता भगवती की समस्त शक्तियों के रहस्य, जिनसे इस सृष्टि का सृजन होता है और सृजन के बाद लय होती है -- इसी काल की महिमा में अवस्थित हैं ।काल को कल्पनाएँ भी कहा जाता है अर्थात जो भी कल्पना की जाती है , काल उसे पूर्ण कर देता है , बस आवश्यकता तो इसे पहचान कर इसका समुचित नियोजन करने की है।

          ●●● विज्ञान की भाषा में समय ●●●

विज्ञान की भाषा में समय एक भौतिक राशि है ।जब समय व्यतीत होता है , तब घटनाएँ घटित होती हैं तथा समय चक्र बदलता है।अतः दो लगातार घटनाओं के होने अथवा किसी गतिशील बिंदु के एक बिंदु से दूसरे बिंदु तक जाने के अंतराल को समय कहते हैं ।इस प्रकार हम कह सकते हैं कि समय वह भौतिक तत्व है , जिसे घड़ी यंत्र से नापा जाता है।

सापेक्षतावाद के अनुसार समय स्पेस के सापेक्ष है ।सामान्य रूप से समय का मापन पृथ्वी के सूर्य के सापेक्ष गति से उत्पन्न स्पेस के सापेक्ष समय से किया जाता है ।समय को नापने के लिए सुलभ घड़ीयंत्र पृथ्वी ही है, जो अपने अक्ष एवं कक्षा में घूमकर हमें समय का बोध कराती है ।

           ●●● जीवन का हर पल मूल्यवान ●●●

जीवन का हर पल मूल्यवान है, कोई भी क्षण व्यर्थ नहीं है, हर पल अपने साथ एक नया एवं अनूठा अवसर लेकर आता है ।यदि इस अवसर का सदुपयोग कर लिया जाए तो जीवन की नई राहें खुल जाती हैं।जीवन का हर पल बेशकीमती है, इसका कोई विकल्प नहीं है ।हर पल अपने आप में बस एक ही है, उसके जैसा दूसरा और कोई नहीं है ।क्षण में ही सफलता और असफलता का रहस्य भी समाहित है।

समय की पहचान बड़ी बात है ।समय न तो अच्छा होता है और न बुरा होता है, समय तो बस समय होता है ।जो समय को पहचान लेता है और उसके अनुरूप अपना पुरुषार्थ करता है, वह कभी भी असफल नहीं हो सकता ।सफलता और असफलता का रहस्य संकल्प के साथ किए जाने वाले पुरुषार्थ में निहित है ।इसलिए आवश्यक है-- समय की पहचान और उसके अनुरूप पुरुषार्थ का सही नियोजन ।

जिन्होंने समय के हर पल का महत्व समझा उन्होंने समय को साधकर कम समय में ही महान कार्य किए ।आदिगुरु शंकराचार्य की उम्र 32 वर्ष थी ।इस छोटी सी उम्र में उन्होंने  महान कार्य करके जीवन में अभूतपूर्व सफलता हासिल की ।स्वामी विवेकानन्द जी 39 वर्ष में ही महान व्यक्तित्व के धनी बने ।महर्षि दयानंद, रामानुजन व अन्य कई महान लोगों ने समय का सम्यक उपयोग करके  जीवन में असम्भव कार्यों को सम्भव किया ।

●●● समय की पहचान खिलाड़ी के उदाहरण द्वारा ●●●

समय की पहचान का अर्थ है कि हमें कब क्या करना है- समय की सही पहचान एक खिलाड़ी करता है ।सही क्षण को पहचान कर कोई बल्लेबाज किसी गेंद को सीमा पार छक्का भी लगा सकता है अन्यथा उसी में आउट भी हो सकता है ।एक खिलाड़ी फुटबाल को गोल में डालकर हार और जीत का रुख बदल सकता है ।खिलाड़ी को सही क्षण की पहचान होनी चाहिए ।

एक चिकित्सक के लिए भी एक सही क्षण बड़ा महत्वपूर्ण होता है ।उसी क्षण पर रोगी का जीवन निर्भर करता है ।एक पायलट को  एक सही क्षण पर निर्णय लेना होता है ।क्योंकि पायलट के ऊपर सभी यात्रियों का जीवन और मृत्यु, दोनों निर्भर करते हैं ।समय विषम हो सकता है, परंतु उस समय में भी महत्वपूर्ण कार्य किए जा सकते हैं ।जो साहसी होते हैं वे विषम समय में भी सर्वश्रेष्ठ कार्य कर लेते हैं ।

   ●●● सफलता के लिए समय प्रबंधन आवश्यक ●●●

हम अपने सामान्य से जीवन में भी समय प्रबंधन से महत्वपूर्णकार्य कर सकते हैं ।हमें अपनी आवश्यकता एवं उद्देश्य के अनुरूप अपनी दिनचर्या को व्यवस्थित करने की जरूरत है ।सबकी दिनचर्या अलग-अलग होती है ।सही समय पर भोजन, नींद एवं कार्य का नियोजन हमें करना चाहिए ।समय के साथ कार्य की प्राथमिकता निर्धारित होनी चाहिए ।हर पल का सदुपयोग करने की कला आनी चाहिए ।इसी में जीवन की सार्थकता है।


Friday, December 18, 2020

आध्यात्मिकता का सही अर्थ , आध्यात्मिक व संसारी व्यक्ति में अन्तर, आध्यात्मिकता का आंकलन , आध्यात्मिकता व्यक्तित्व के सर्वांगीण विकास की प्रक्रिया, आध्यात्म पूर्णतः प्रयोग का विषय, महर्षि रमण का आध्यात्मिक प्रयोग

           ●●● आध्यात्मिकता का सही अर्थ ●●●
आध्यात्मिक होने का अर्थ है कि व्यक्ति अपने अनुभव के धरातल पर यह जानता है कि वह स्वयं अपने आनंद का स्रोत है ।आध्यात्म का विषय ही मनुष्य के आंतरिक जीवन से जुड़ा हुआ 
है ।वे सभी गतिविधियाँ जो मनुष्य को परिष्कृत, निर्मल बनाती हैं, आनंद से भरपूर करती हैं, पूर्णता का एहसास देती हैं, स्वयं से परिचय करती हैं-- वे सब आध्यात्म के अंतर्गत आती हैं ।

किसी चीज को सतही तौर पर जानना सांसारिकता है और उसे गहराई तक जानना आध्यात्मिकता है ।आध्यात्मिक दृष्टिकोण ही मनुष्यों को सही राह दिखा पाने में सक्षम है और यही हम सबके जीवन का ध्येय होना चाहिए ।लोगों ने अभी तक आध्यात्म व आध्यात्मिकता का सही अर्थ नहीं समझा है।इसी कारण इसे अपनाने में कतराते हैं ।

आध्यात्मिकता का संबंध मनुष्य के आंतरिक जीवन से है और इसकी शुरुआत होती है -- उसकी अंतर्यात्रा से ।मनुष्य पूरी दुनिया में भ्रमण करता है , लेकिन अंतर्यात्रा ही नहीं करता तथा अपने अंतर में प्रवेश ही नहीं कर पाता । विरले ही होते हैं, जो इस अंतर्यात्रा में प्रवेश के अधिकारी होते हैं, इसके लिए सत्पात्र होते है और सामान्य जन आध्यात्मिक जीवन की पात्रता की कसौटी को जाने बिना ही इसे कठिन मार्ग मान लेते हैं ।

   ●●● आध्यात्मिक व संसारी व्यक्ति में अन्तर●●●

      एक बार एक सद्गुरु से  शिष्य ने प्रश्न किया-- " एक आध्यात्मिक व एक संसारी व्यक्ति में क्या अन्तर है ? "  इस प्रश्न का सद्गुरु ने सहज उत्तर दिया ---" एक संसारी मनुष्य केवल सांसारिक कार्यों को कर पाने में सक्षम होता है ; जबकि आंतरिक संतुष्टि के लिए उसे दूसरों पर निर्भर रहना पड़ता है ।इसके विपरीत एक आध्यात्मिक व्यक्ति अपनी आंतरिक संतुष्टि स्वयं अर्जित करता है और मात्र सांसारिक कार्यों के लिए  संसार पर निर्भर रह सकता है ।

आध्यात्मिकता  का व्यक्ति के बाहरी जीवन से कुछ भी लेना-देना नहीं है कि वह कैसे रहता है ? क्या पहनता है और क्या खाता है ?
अर्थात बाहरी वेषभूषा व रहन-सहन से आध्यात्मिकता का कोई संबंध नहीं है ; क्योंकि इसका वास्तविक संबंध व्यक्तित्व की अतल गहराई से है ।आध्यात्मिकता सोए हुए संवेदनहीन व्यक्तियों के लिए नहीं है, यह निधि तो उनके लिए है, जो जीवन के हर आयाम को पूर्ण जीवंतता के साथ जीते हैं और हर पल सजग व सक्रिय रहते हैं ।

सच तो यह है कि सांसारिक उपलब्धियों के लिए जितने साहस, श्रम और संघर्ष की आवश्यकता है, उससे कहीं अधिक आध्यात्मिक जीवन के लिए साहस और संघर्ष आवश्यक हैं ।सांसारिक उपलब्धियों को पाने के लिए जो चुनौतियाँ होती हैं, वे बाहरी होती हैं, दृश्य में होती हैं अतः इनका सामना करने के लिए हमारे पास निश्चित योजनाएँ होती हैं, परंतु आध्यात्मिक जीवन आंतरिक एवं अदृश्य होता है वह दिखता नहीं है, इसलिए इसकी चुनौतियाँ और संघर्ष, अधिक भारी और जटिल होते हैं ।

      ●●● आध्यात्मिकता का आंकलन ●●●

आध्यात्मिकता का आंकलन कैसे हो ? आध्यात्मिक जीवन की बहुत-सी कसौटियाँ हैं, लेकिन कुछ ऐसी प्रमुख बातें हैं, जिन्हें जानकर हम यह आंकलन कर सकते हैं कि हमारे अंदर आध्यात्मिकता का कितना अंश है ? जैसे ---
● यदि किए जाने वाले कार्यों का उद्देश्य स्वार्थ न होकर परमार्थ है , तो यह आध्यात्मिकता की राह है ।
● यदि व्यक्ति अपने अहंकार, क्रोध , नाराजगी, लालच, ईर्ष्या और पूर्वाग्रहों को गला चुका है तो वह आध्यात्मिक जीवन की डगर पर बढ़ रहा है ।
● व्यक्ति की बाहरी परिस्थितियाँ चाहे जैसी भी हों , पर वह यदि आंतरिक रूप से प्रसन्न रहता है तो इसका अर्थ है कि वह आध्यात्मिक जीवन को महसूस करने लगा है ।
● यदि व्यक्ति इस विशाल सृष्टि के सामने स्वयं को नगण्य मानने   का एहसास कर पाता है तो वह आध्यात्मिक बन रहा है ।
● मनुष्य के  पास जो कुछ भी है , उसके लिए यदि वह सृष्टि या       परमसत्ता के प्रति कृतज्ञता महसूस कर पाता है तो वह                आध्यात्मिकता की ओर बढ़ रहा है ।
● यदि व्यक्ति में स्वजनों के प्रति जितना प्रेम उमड़ता है , उतना      ही सभी लोगों के लिए उमड़ता है , तो वह आध्यात्मिक है ।
 
●आध्यात्मिकता व्यक्तित्व के सर्वांगीण विकास की प्रक्रिया●

आध्यात्मिक प्रक्रिया व्यक्ति की एक ऐसी  अंतर्यात्रा है, जिसमें निरंतर परिवर्तन घटित होता है और इन परिवर्तनों के कारण उपजे उतार-चढ़ाव को उसे सहने की शक्ति मिलती है ।दूसरे शब्दों में कहें तो अंतर्यात्रा द्वारा व्यक्तित्व का रूपांतरण हो जाता है ।

जो साधक आध्यात्मिक डगर पर आगे बढ़ते हैं, उनमें अदम्य साहस, सशक्त मन, स्वस्थ शरीर व संतुलित भावनाओं का होना जरूरी है ।आध्यात्मिकता से ही यह बात समझ में आती है कि परमात्मा ही एकमात्र पूर्ण हैं, जो उसके जीवन को पूर्णता की ओर ले जा सकते हैं ।इसलिए व्यक्ति अंतर्यात्रा द्वारा अपनी आत्मा का संबंध परमात्मा से जोड़ता है ।

आध्यात्मिकता मूलतः व्यक्तित्व के सर्वांगीण विकास की प्रक्रिया है ।इसके माध्यम से साधक अपने व्यक्तित्व में जन्म-जन्मांतरों से पड़ी हुई गाँठों को खोल पाते हैं और अपने जीवन लक्ष्य को प्राप्त कर पाते हैं ।आध्यात्मिकता का अर्थ है कि अपने विकास की प्रक्रिया को खूब तेज कर देना ।आध्यात्मिक मार्ग पर चलने का अर्थ है कि व्यक्ति अपने बंधनों से मुक्त हो रहा है , पूरी तरह से स्वतंत्र हो रहा है उसे स्वतंत्र होने का यह अधिकार स्वयं प्रकृति ने दिया है ।

परमात्मा यद्यपि प्रत्यक्ष दृश्यमान नहीं हैं, लेकिन अंतर्यात्रा का पथिक अपनी पवित्र भावनाओं के माध्यम से उन अदृश्य परमात्मा तक पहुँच सकता है ।और उनके सतत सान्निध्य को प्राप्त कर सकता है ।ज्ञानी जन कहते हैं कि 'शून्य में विराट समाया है और इस विराट में भी शून्य है '। जो इस शरीर में ही रहकर परमात्मा के इस विराट रूप को समझ पाता है, उसे अनुभव कर पाता है, वही आध्यात्मिक है और इसके लिए उसे इस भौतिक दृश्यमान जीवन से परे घटित होने वाले जीवन को भी अनुभव करना होगा ।

आध्यात्मिकता न तो मनोवैज्ञानिक प्रकिया है और न ही सामाजिक ।यह शत-प्रतिशत हमारे अस्तित्व से संबंधित है ।यदि हम किसी कार्य में पूरी तन्मयता से डूब जाते हैं तो वहीं पर आध्यात्मिक प्रक्रिया की शुरुआत हो जाती है ।

   ●●● आध्यात्मिक पूर्णतः प्रयोग का विषय ●●●

आध्यात्म पूर्णतः प्रयोग का विषय है , अनुभूति का विषय है ।स्वयं पर किए गए प्रयोग से ही वह अनुभूति प्राप्त हो सकती है ।जीवन का शीर्षासन है -- आध्यात्म ।आत्मपरिष्कार की साधना है -- आध्यात्म ।आध्यात्म क्षेत्र में हमें शास्त्रों, पुराणों, योगियों, तपस्वियों से मार्गदर्शन अवश्य प्राप्त हो सकता है, पर अनुभूति तो स्वयं पर किए गए प्रयोगों से ही हो सकती है ।

योग, आध्यात्म का आनंद तो योग में होकर , योग में जीकर ही लिया जा सकता है ।आध्यात्मिक प्रयोग एवं उत्थान हेतु आवश्यक है-- साधना के प्रति जुनून, साधना का नियमित अभ्यास, जीवन में यम-नियम का पालन ।साधना के साथ ही आवश्यक है-- सेवापरायण, श्रमपरायण, कर्तव्यपरायण व पुरुषार्थपरायण जीवन ।

यदि हम सचमुच ऐसी सच्ची साधना कर सकें तो एक दिन हमारे लिए भी अवश्य आएगा -- आनंद का पल , अनुभूति का पल, उत्सव का पल, उल्लास का पल और इस प्रकार मानो अपना जीवन ही उत्सव हो जाएगा ।साथ ही मिलेगी हमसे अगणित लोगों को जीवन की सच्ची राह ।यदि हम अध्यात्म के पथ पर अविरल, अविराम चलते रहें तो एक दिन अपना अंतस् ब्रह्मज्ञान से जगमगा उठेगा, उस दिन हमारे आनंद का सचमुच कोई पारावार न होगा । हर जगह सत्यम्, शिवम्,सुन्दरम् की अभिव्यक्ति होगी ।

      ●●●महर्षि रमण का आध्यात्मिक प्रयोग ●●●

सन् 1938 में महान स्विस मनोचिकित्सक कार्ल जुंग, महर्षि रमण से मिलने अरुणाचलम् आए ।आध्यात्मिक प्रयोग पर चर्चा के समय महर्षि रमण ने कहा----

मेरे आध्यात्मिक प्रयोग की वैज्ञानिक   जिज्ञासा थी -- मैं कौन हूँ ? इसके समाधान के लिए मैंने मनन एवं ध्यान की अनुसंधान विधि का चयन किया ।इसी अरुणाचलम् पर्वत की गुफा में शरीर व मन की प्रयोगशाला में मेरे प्रयोग चलते हैं ।इन प्रयोगों के परिणाम में अपरिष्कृत अचेतन, परिष्कृत होता चला गया ।चेतना की नई-नई परतें खुलती चलीं गईं ।इसका मैंने निश्चित कालक्रम में परीक्षण एवं आंकलन किया ।अंत में मैं इस निष्कर्ष पर पहुँचा कि मेरा अहम्, आत्मा में विलीन हो गया ।

योगियों, महापुरुषों के जीवन से, साहित्य से सही मार्गदर्शन प्राप्त कर हम भी अध्यात्म के पथ पर अब क्यों न चल पड़ें ? हम क्यों वंचित रहें, अध्यात्म के अमृत आनंद से , अनुभूति से, प्रयोग से ।बस आवश्यकता है, सही दिशा में सही प्रयोग करने की ।

Thursday, December 17, 2020

तनाव क्या है ? तनाव के कारण, तनाव दूर करने के उपाय

                    ●●● तनाव क्या है ? ●●●
 आज तनाव से हर कोई परिचित है ; क्योंकि तनाव ने हर मनुष्य के जीवन में अपनी जगह बना ली है ।हर उम्र के लोगों में तनाव का प्रवेश हो गया है ।और हो भी क्यों न ! आज हर व्यक्ति जीवन की एक ऐसी दौड़ में शामिल है, जिसमें परिस्थितियाँ उसके ऊपर दबाव डालती हैं ।उसे काम करने के लिए मजबूर करती हैं ।इच्छा हो या न हो , उसे काम करना पड़ता है ।यदि वह काम न करे तो उसके ऊपर काम करने का दबाव बढ़ता जाता है , यही दबाव तनाव बन जाता है  और उसके स्वास्थ्य को हानि पहुँचाता है ।

आज की जिंदगी में तनाव ही है, जो मनुष्य को आगे बढ़ने के लिए धक्का देता है ।लेकिन यही तनाव जब जरूरत से ज्यादा हो जाता है तो बहुत सी परेशानियों का सबब बन जाता है और इनमें प्रमुख रूप से सबसे पहले स्वास्थ्य संबंधी समस्याएँ आती हैं ।कभी-कभी तो तनाव से जीत जाते हैं और कभी तनाव के आगे घुटने टेक देते हैं ।

जीवन की हर परिस्थिति एक चुनौती लेकर आती है और जिसे स्वीकारने पर हमें उस कार्य को करना होता है ।यदि हम ऐसा नहीं करते तो कार्य पूरा न कर पाने का तनाव होता है ; क्योंकि उस चुनौती से जुड़े हुए बहुत सारे आयाम होते हैं, जो हम पर निरंतर दबाव डालते हैं कि हमें उन्हें पूरा करना है ।वह दबाव ही धीरे-धीरे तनाव का रूप ले लेता है ।

तनाव एक ऐसा भाव है , जो हमारे मन में कभी भी और कहीं भी प्रकट हो सकता है ।

              ●●● तनाव के कारण ●●●

तनाव के विविध कारण हैं ।इनमें से एक कारण - मिलने वाले परिणामों की आशंका (डर) से उत्पन्न होने वाला तनाव है ।जैसे परीक्षा के परिणामों की आशंका से उत्पन्न तनाव , कम बरसात या अधिक बरसात होने पर खेती के खराब होने की आशंका से उत्पन्न तनाव, भविष्य की चिन्ता से उत्पन्न तनाव एवं ऐसे ही बहुत सी चिन्ताओं व आशंकाओं से उत्पन्न तनाव । तनाव उन कारणों से भी होता है , जिन पर हमारा कोई वश नहीं होता ।

नियमित दिनचर्या में हमें ऐसे भी तनावों से गुजरना होता है ।कभी कोई घर के सदस्य को आने में देरी हो जाए तो भी हम तनाव में आ जाते हैं ।सच तो यह है कि आज हमें तनाव में जीने की इस कदर आदत पड़ गई है कि हम हर दिन तनाव के साथ ही उठते हैं और हर रात तनाव के साथ ही सोते हैं ।निरंतर तनाव में रहने से चेहरा भी तनावग्रस्त दीखने लगता है ।

प्रश्न यह उठता है कि क्या हमें हमेशा तनाव के साथ ही जीवन का शेष समय बिताना होगा ?  क्या इससे मुक्ति नहीं मिलेगी ? ऐसा बिल्कुल नहीं है ।तनाव मुक्त रहकर भी काम किया जा सकता है ।लेकिन हमें किसी भी परिस्थिति में तनाव मुक्त रहने का अभ्यास करना होगा ।इस बात का सदैव ध्यान रखें कि जो भी तनाव हमें मिल रहा है, वह हमारे ही द्वारा कार्यों को समय पर पूरा न करने के कारण उत्पन्न हुआ है और हम ही इसे दूर कर सकते हैं  ।

       ●●●  तनाव दूर करने के उपाय ●●●

अपनी जिंदगी को तनावरहित करने के लिए हमें किसी भी परिस्थिति में तनावमुक्त रहने का अभ्यास करना होगा ।इस अभ्यास में सबसे प्रमुख बात यह है कि जो जरूरी कार्य हैं, उनकी प्राथमिकताएँ तय करते हुए, उन्हें पूरा करते चलें, ताकि अनावश्यक कार्यों का बोझ सिर पर न आए ।यदि फिर भी बहुत सारे कार्यों का दबाव होता है तो इन्हें पूरा करने के लिए अन्य किसी का सहयोग लें और बिना तनाव के जितना इन्हें कर सकते हैं करें, पर तनाव न लें 

हमारी दिनचर्या में बहुत से ऐसे भी कार्य होते हैं , जिनमें हमें ज्यादा दिमाग लगाने की जरूरत नहीं होती और उन्हें करने में हमें कोई तनाव नहीं होता जैसे -- साफ-सफाई करना , भोजन बनाना,
पसंद के गाने सुनना, फिल्में या सीरियल देखना या शौक पूरा करने वाले अन्य कार्य ।इन कार्यों में हमारा समय तो लगता है लेकिन इनको हम तनाव मुक्त होकर करते हैं ।लेकिन हमें यह भी ध्यान रखना होगा कि हम अन्य जरुरी कार्यों को भी पर्याप्त समय दे सकें ।

हँसना-मुस्कराना तनाव दूर करने में बहुत उपयोगी होता है इसलिए हमें अपनी जिंदगी में हँसने-मुस्कराने की आदत डालनी चाहिए ; क्योंकि हँसते हुए चेहरे में कभी तनाव नहीं होता और हँसते-मुस्कराते हुए काम करने से हमारी कार्य करने की क्षमता भी बढ़ जाती है ।

चिकित्सकों के अनुसार हँसना मनुष्य जीवन का सबसे बड़ा प्राकृतिक पोषण है ।इसी कारण चिकित्सक अक्सर यही सलाह देते हैं कि खुश रहिए और मुस्कराते रहिए ।हँसने से हमारे तनाव के हार्मोन कम होते हैं, जो हमारी रोगप्रतिरोधक क्षमता में वृद्धि करते हैं ।आजकल  लोग योग का महत्व भी समझ रहे हैं अतः      योग अपनाकर भी  तनाव मुक्त जीवन बना सकते हैं ।

कहते हैं कि अच्छे स्वास्थ्य के लिए तन और मन दोनों का ही स्वस्थ रहना बहुत जरूरी है ।अतः हमें तनाव मुक्त जीवन जीने के लिए शारीरिक रूप से भी स्वस्थ रहना आवश्यक है ।इसके लिए हमारा खान-पान उचित हो और हम समय पर सोएँ व उठें।व्यायाम व ध्यान आदि के लिए भी समय निकालें । हम सभी का तनाव का कारण अलग-अलग हो सकता है ।अतः हम अपने तनाव के कारणों का निवारण का उपाय करें  ।

पर्याप्त श्रम, मानसिक शक्तियों का सही नियोजन व हँसता-मुस्कराता जीवन -- ये वे उपाय हैं, जो हमें तनाव-मुक्त कर सकते हैं ।

Monday, December 7, 2020

गीता जयन्ती, श्री मद्भगवद्गीता एक विलक्षण ग्रन्थ, गीता की विचारधारा

                ●●●●  गीता जयन्ती ●●●●
मार्गशीष शुक्ल एकादशी के दिन देश में गीता जयन्ती पर्व श्रद्धा के साथ मनाया जाता है । स्वयं भगवान् की अभिव्यक्ति का एक मात्र ग्रंथ है -- श्री मद्भगवद्गीता ।इसी महाग्रंथ के अवतरण को ' गीता जयंती ' रूप से अभिहित किया जाता है ।

आकाश की नीलिमा में सूर्य की लालिमा घुलने लगी थी ।वायु अपनी मंदगति में शीतलता प्रवाहित कर रही थी । एक ओर महासेनापति, परम पराक्रमी अपराजेय गंगापुत्र भीष्म के नेतृत्व में कौरवों का सैन्य दल खड़ा था ।दूसरी ओर सेनापति धृष्टद्युम्न के साथ पांडव सेना थी ।पांडव सेना के साथ पार्थसारथी, पार्थ के रथ की डोर थामे अपने द्वारा ही रची इस महायुद्ध लीला पर मंद-मंद मुस्करा रहे थे ।  

मार्गशीष शुक्ल एकादशी थी इसी मोक्षदायनी एकादशी के दिन  मध्मयाह्न काल में अभिजीत मुहूर्त में महाभारत के युद्ध के मैदान में  भगवान् श्रीकृष्ण ने अपने ईश्वरीय रूप में प्रतिष्ठित होकर अर्जुन को श्री मद्भगवद्गीता का दिव्य उपदेश दिया था ।

इस दिन हमारे देश के मनीषी व विद्वान श्रीमद्भगवद्गीता के प्रेरणादायक प्रसंगों पर प्रकाश डालते हैं जिनसे जिज्ञासु लोग ज्ञान लाभ अर्जित करते हैं । अनेक धार्मिक व साहित्यिक संस्थाओं में इस दिन महत्वपूर्ण आयोजन किए जाते हैं ।
       
        ●●●श्री मद्भगवद्गीता एक विलक्षण ग्रन्थ●●●

श्री मद्भगवद्गीता एक ऐसा विलक्षण ग्रन्थ है, जिसका आज तक न कोई पार पा सका, न पार पाता है, न पार पा सकेगा और न पार पा ही सकता है ।गहरे उतरकर बार-बार इसका अध्ययन-मनन करने पर नित्य नए-नए विलक्षण भाव प्रकट होते रहते हैं ।परम व चरम अनुभव का शास्त्र है गीता ।आवश्यकता है , इसे उस रूप में ग्रहण करने की, अपने जीवन में धारण करने की ।

श्री मद्भगवद्गीता साक्षात् भगवान् के श्री मुख से निःसृत परम रहस्यमयी दिव्य वाणी है ।इसमें स्वयं भगवान् ने अर्जुन को निमित्त बनाकर मनुष्य मात्र के कल्याण के लिए उपदेश दिया है ।इस छोटे से ग्रन्थ में भगवान् ने अपने हृदय के बहुत ही विलक्षण भाव भर दिए हैं ।विश्व साहित्य में श्री मद्भगवद्गीता का अद्वितीय स्थान है ।

भगवान् अनन्त हैं, उनका सब कुछ अनन्त है, फिर उनके मुखारविन्द से निकली हुई गीता के भावों का अन्त आ ही कैसे सकता है ।भगवान् की वाणी बड़े-बड़े ऋषि-मुनियों की वाणी से भी श्रेष्ठ है ; क्योंकि भगवान ऋषि-मुनियों के भी आदि हैं ।भगवान् स्वयं कहते हैं-- 'अहमादिर्हि देवानां महर्षीणां च सर्वशः ' ( गीता 10 , 2 ) ।

गीता उपनिषदों का सार है, पर वास्तव में गीता की बात उपनिषदों से भी विशेष है । वेद भगवान् के निःश्वास हैं और गीता भगवान् की वाणी है ।निःश्वास तो स्वाभाविक होते हैं, पर गीता भगवान् ने योग में स्थित होकर कही है ।अतः वेदों की अपेक्षा भी गीता विशेष है ।

सभी दर्शन गीता के अंतर्गत हैं, पर गीता किसी दर्शन के अंतर्गत नहीं है ।दर्शन शास्त्र में जगत् क्या है ? जीव क्या है और ब्रह्म क्या है - यह अध्ययन किया जाता है लेकिन गीता अध्ययन नहीं अपितु अनुभव कराती है ।गीता में किसी मत का आग्रह नहीं है , प्रत्युत केवल जीव के कल्याण का ही आग्रह है ।

       श्री मद्भगवद्गीता में भगवान् साधक को समग्र की ओर ले जाते हैं ।सगुण-निर्गुण, साकार-निराकार, द्विभुज, चतुर्भुज,   समस्त्रभुज आदि सब रूप समग्र परमात्मा के ही अंतर्गत हैं ।किसी की भी उपासना करें, सम्पूर्ण उपासनाएँ समग्र रूप के अंतर्गत आ जाती हैं ।सम्पूर्ण दर्शन समग्र रूप के अंतर्गत आ जाते हैं ।अतः सब कुछ परमात्मा के ही अंतर्गत है , परमात्मा के सिवाय किंचित् मात्र भी कुछ नहीं है - इसी भाव में सम्पूर्ण गीता है ।गीता का तात्पर्य वासुदेवः सर्वम है ।

गीता समग्र को मानती है , इसीलिए गीता का आरम्भ और अन्त शरणागति में हुआ है ।शरणागति से ही समग्र की प्राप्ति होती है ।भगवान् श्रीकृष्ण समग्र हैं-- 'अशंसयं समग्रं माम् ' ( गीता 7 , 1 )
गीता समग्र की वाणी है, इसलिए गीता में सब कुछ है ।जो जिस दृष्टि से गीता को देखता है, गीता उसको वैसी ही दीखने लगती है ।

     ●●● श्री मद्भगवद्गीता की विचारधारा ●●●

श्रीमद्भगवद्गीता की विचारधारा व्यापक है ।गीता में सगुण के प्रति अखंड श्रद्धा है तो निर्गुण के ज्ञान की विधि भी है ।एक ओर जहाँ इसमें योगरूपी गूढ़तम विज्ञान है तो दूसरी ओर व्यावहारिक जीवन के संदेश भी हैं ।स्वयं भगवान् कृष्ण की भी विविध भंगिमाएँ हैं ।वे कहीं ऋषि रूप में उपदेष्टा हैं, कहीं मित्र रूप में सलाहकार, कभी गुरू रूप में कठोर हो जाते हैं तो कभी भगवत् रूप में शरण प्रदान करते हैं ।कभी परम आत्मीय रूप में भक्ति भाव जगाते हैं तो विराट दर्शन भी दिखाते हैं ।

श्रीमद्भगवद्गीता किसी पंथ का निर्माण नहीं करती , यह तो वह महाद्वार है, जिससे समस्त आध्यात्मिक सत्य और अनुभूति के जगत की झाँकी मिलती है और इस झाँकी में परम दिव्य धाम में स्वयं योगेश्वर भगवान् के दिव्य दर्शन मिलते हैं ।गीता के ज्ञान में इतनी व्यापकता है कि इसे जिस रूप में धारण करना चाहें, वहीं नवीन ज्ञान का उदय होता है ।

श्रीमद्भगवद्गीता  शोधार्थी के लिए अक्षय स्रोत है , किंकर्तव्यविमूढ़ के लिए सही दिशा है , रोगी के लिए चिकित्सा है, मानसिक विकल के लिए परम मनोविज्ञान है। श्री मद्भगवद्गीता बौद्धिक पिपाशा के लिए शीतल निर्झर तो संवेदनशील हृदय की शुद्ध संवेदना है ।समाज के लिए धर्मशास्त्र है तो राष्ट्र के लिए नीतिशास्त्र, कर्मशील के लिए कर्म , ज्ञानी के लिए शास्वत ज्ञान तो भक्त के लिए स्वयं भगवान् है गीता ।जिस दृष्टि से लाभ लेना चाहें, मार्गदर्शन चाहें, मिल जाता है ।